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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
अजोगी चेदि ॥ ४८ ॥
अयोगी जीव होते हैं ॥ ४८ ॥
जिन जीवोंके पुण्य और पापके उत्पादक शुभ और अशुभ योग नहीं रहे हैं वे अनुपम और अनन्त बलसे सहित अयोगी जिन कहलाते हैं ।
अब मनोयोगके भेदोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
[ १, १, ४८
मणजोगो चव्विहो सच्चमणजोगो मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो असच्चमोसमणजोगो चेदि ॥ ४९ ॥
मनोयोग चार प्रकारका है - सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग और असत्यमृषामनोयोग ॥ ४९ ॥
सत्यके विषयमें होनेवाले मनको सत्यमन और उसके द्वारा जो योग होता है उसे सत्यमनोयोग कहते हैं । इससे विपरीत योगको मृषामनोयोग कहते हैं । जो योग सत्य और मृषा इन दोनोंके संयोगसे होता है उसे सत्यमृषामनोयोग कहते हैं । सत्यमनोयोग और मृषामनोयोगसे भिन्न योगको असत्यमृषामनोयोग कहते हैं । अभिप्राय यह है कि जहां जिस प्रकारकी वस्तु विद्यमान हो वहां उसी प्रकारसे प्रवृत्त होनेवाले मनको सत्यमन और इससे विपरीत मनको असत्यमन कहते हैं । सत्य और असत्य इन दोनोंरूप मनको उभयमन कहते हैं । जो संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञानका कारण होता है उसे अनुभयमन कहते हैं । इन सबसे होनेवाले योग ( प्रयत्नविशेष ) को क्रमशः सत्यमनोयोग आदि कहा जाता है ।
मनोयोगके भेदोंका कथन करके अब गुणस्थानोंमें उसके खरूपका निरूपण करने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
मणजोगो सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव सजोगिकेवलिति ।। ५० ।।
मनोयोग, सत्यमनोयोग तथा असत्यमृषामनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली पर्यंत होते हैं ॥ ५० ॥
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प्रश्न- केवली भगवान् के सत्यमनोयोगका सद्भाव रहा आवे, क्योंकि, वहां पर वस्तुके यथार्थ ज्ञानका सद्भाव पाया जाता है । परंतु उनके असत्यमृषामनोयोगका सद्भाव संभव नहीं है, क्योंकि, वहांपर संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञानका अभाव है ?
उत्तर--- ऐसा नहीं है, क्योंकि, वहांपर संशय और अनध्यवसाय के कारण भूत वचनका कारण मन होनेसे उसमें भी अनुभय रूप धर्म रह सकता है । अतः सयोगी जिनमें अनुभयमनोयोगका सद्भाव स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं आता है ।
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