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१, १, ५३ ]
संतपरूवणाए जोगमग्गणा
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प्रश्न - केवलीके वचन संशय और अनध्यवसायको उत्पन्न करते हैं, इसका क्या तात्पर्य है ? उत्तर- चूंकि केवलीके ज्ञानके विषयभूत पदार्थ अनन्त और श्रोताके आवरणकर्मका क्षयोपशम अतिशय से रहित है, अतएव केवलीके वचनोंके निमित्तसे श्रोताके संशय और अनध्यक-सायकी उत्पत्ति हो सकती है ।
अब शेष दो मनोयोगोंके गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंमोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव खीणकसायवीयराय-छदुमत्था ति ॥ ५१ ॥
मृषामनोयोग और सत्यमृषामनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय- वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं ॥ ५१ ॥
प्रश्न- - मृषामनोयोग और असत्यमृषामनोयोग प्रमादजनित हैं । चूंकि उपशामक और क्षपक जीवोंके वह प्रमाद नष्ट हो चुका है, अतएव उनके उक्त दोनों मनोयोग कैसे संभव हैं ? उत्तर --- बारहवें गुणस्थान पर्यंत आवरण कर्मके पाये जानेसे छद्मस्थ जीवोंके विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञानके कारणभूत दोनों मनोयोगोंका सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं है। अब वचनयोगके भेदोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
वचिजोगो चव्विहो सच्चवचिजोगो मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि ॥ ५२ ॥
वचनयोग चार प्रकारका है - सत्यवचनयोग, मृषावचनयोग, सत्यमृषावचनयोग और असत्यमृषावचनयोग ॥ ५२ ॥
जनपद आदि दस प्रकारके सत्यवचनमें वचनवर्गणाके निमित्तसे जो योग होता है उसे सत्यवचनयोग कहते हैं । उससे विपरीत योगको मृषावचनयोग कहते हैं । सत्यमृषारूप वचनयोगको उभयवचनयोग कहते हैं । जो न तो सत्यरूप है और न मृषारूप ही है वह असत्यमृषावचनयोग है । जैसे- असंज्ञी जीवोंकी भाषा और संज्ञी जीवोंकी आमंत्रणी आदि भाषाएं ।
इस प्रकार वचनयोगके भेदोंको कहकर अब गुणस्थानोमें उसके सत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
वचिजोगो असच मोसवचिजोगो बीइंदिय पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ॥ ५३ ॥ वचनयोग और असत्यमृषावचनयोग द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक
होता है ॥ ५३ ॥
प्रश्न - अनुभयरूप मनके निमित्तसे जो वचन उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभवचन कहते हैं, ऐसा स्वीकार करने पर मनरहित द्वीन्द्रियादिक जीवोंके अनुभयवचन कैसे संभव हो सकते हैं ?
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