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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ३५ बीइंदिया दुविहा पञ्जत्ता अपज्जत्ता । तीइंदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता। चारदिया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । पंचिदिया दुविहा सण्णी असण्णी । सण्णी दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । असण्णी दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि ॥३५॥
द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्तक और अपर्याप्तक । त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैंपर्याप्तक और अपर्याप्तक । चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्तक और अपर्याप्तक। पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं-- संज्ञी और असंज्ञी। संज्ञी जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्तक और अपर्याप्तक । असंज्ञी जीव भी दो प्रकारके हैं- पर्याप्तक और अपर्याप्तक ॥ ३५॥
द्वीन्द्रिय आदि जीवोंका स्वरूप कहा जा चुका है। पंचेन्द्रियोंमें कुछ जीव मनसे रहित और कुछ मनसहित होते हैं। उनमें मनसहित जीवोंको संज्ञी अथवा समनस्क कहते हैं और मनरहित जीवोंको असंज्ञी अथवा अमनस्क कहते हैं । वह मन द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें पुद्गलविपाकी अंगोपांग नामकर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवाले जो पुद्गल मनरूपसे परिणत होते हैं उनका नाम द्रव्यमन है । तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमरूप आत्मामें जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह भावमन है ।
अब इन्द्रियोंमें गुणस्थानोंकी निश्चित संख्याका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया असण्णिपंचिंदिया एकम्हि चेव मिच्छाइट्टिठाणे ॥ ३६॥
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव एक मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ ३६॥
दो तीन आदि संख्याओंका निराकरण करनेके लिये सूत्रमें 'एक' पदका तथा अन्य सासादनादि गुणस्थानोंका निराकरण करनेके लिये — मिथ्यादृष्टि ' पदका ग्रहण किया है ।
अब पंचेन्द्रियोंमें गुणस्थानोंकी संख्याका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं-- पंचिंदिया असण्णिपंचिदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ॥ ३७॥
पंचेन्द्रिय जीव असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं ॥ ३७॥
केवलियोंके यद्यपि भावेन्द्रियां सर्वथा नष्ट हो गई हैं और द्रव्य इन्द्रियोंका व्यापार भी बंद हो गया है तो भी छद्मस्थ अवस्थामें भावेन्द्रियोंके निमित्तसे उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियोंकी अपेक्षा उन्हें पंचेन्द्रिय कहा जाता है ।
अब अतीन्द्रिय जीवोंके अस्तित्वका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं--- तण परमणिंदिया इदि ॥ ३८॥
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