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छक्खंडागम अट्ठगदीओ समासेण ॥ ७ ॥ सव्वत्थोवा मणुस्सिणीओ ॥ ८ ॥ मणुस्सा असंखेज्जगुणा ॥ ९॥ णेरइया असंखेजगुणा ।। १० ॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेजगुणाओ ॥ ११ ॥ देवा संखेजगुणा ॥ १२ ॥ देवीओ संखेजगुणाओ ॥ १३ ॥ सिद्धा अणंतगुणा ॥ १४ ॥ तिरिक्खा अणंतगुणा ॥ १५ ॥
(खुद्दाबं. अल्पब. पृ. ४५१) दोनों ग्रन्थोके दोनों उद्धरणोंसे बिलकुल स्पष्ट है कि खुद्दाबन्धके अल्पबहुत्वका वर्णन उक्त दोनों गाथाओंके आधारपर किया गया है। इसी प्रकार खुद्दाबन्धके अल्पबहुत्व-सम्बन्धी सू. १६ से २१ तकका आधार जीवसमासकी २७५ वीं गाथा है, सू. ३८ से ४४ तकका आधार २७६ वी गाथा है।
खुद्दाबन्धमें मार्गणाओंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाके पश्चात् जो अल्पबहुत्वमहादण्डक है, उसमें सू. २ से लेकर ४३ वें सूत्र तककी अल्पबहुत्व-प्ररूपणाका आधार जीवसमासकी गा. २७३ और २७४ है।
जीवस्थानके भीतर गुणस्थानोंके अल्पबहुत्वका जो वर्णन सू. २ से लेकर २६ वें सूत्र तक किया गया है, उसका आधार जीवसमासकी २७७ और २७८ वीं गाथा है। पुनः मार्गणास्थानोंमें गतिमार्गणाका अल्पबहुत्व गुणस्थानोंको साथ कहा गया है। इन्द्रिय और कायमार्गणाके अल्पबहुत्वकी वेही गाथाएँ आधार हैं, जिनकी चर्चा अभी खुद्दाबन्धके सूत्रोंके साथ समता बताते हुए कर आए हैं। अन्तमें शेष अनुक्त मार्गणाओंके अल्पबहुत्व जाननेके लिए २८१ वी गाथामें कहा गया है कि
__' एवं अप्पाबहुयं दव्वपमाणेहि साहेजा' । अर्थात् इसी प्रकारसे नहीं कही हुई शेष सभी मार्गणाओंके अल्पबहुत्वको द्रव्यप्रमाणा नुगम ( संख्याप्ररूपणा ) के आधारसे सिद्ध कर लेना चाहिए ।
जीवसमासका उपसंहार करते हुए सभी द्रव्योंका द्रव्यकी अपेक्षा अल्पबहुत्व और प्रदेशोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व बतलाकर अन्तमें दो गाथाएँ देकर उसे पूरा किया है, जिससे जीवसमास नामक प्रकरणकी महत्ताका बोध होता है । वे दोनों गाथाएँ इस प्रकार हैं
१] बहुभंगदिट्ठिवाए दिद्वत्थाणं जिनवरोवइट्ठाणं ।
धारणपत्तट्ठो पुण जीवसमासत्थ उवजुत्तो ॥ २८५ ।। २] एवं जीवाजीवे वित्थरमिहिए समासनिदिढे ।
उवजुत्तो जो गुणए तस्स मई जायए विउला ॥ २८६ ॥ अर्थात् जिनवरोंके द्वारा उपदिष्ट और बहुभेदवाले दृष्टिवादमें दृष्ट अर्थोकी धारणाको वह पुरुष प्राप्त होता है, जो कि इस जीवसमासमें कहे गये अर्थको हृदयङ्गम करनेमें उपयुक्त होता है ।
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