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१, १, ३३. ]
संतपरूवणाए इंदियमग्गणा
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प्रथम गुणस्थान से लेकर चार गुणस्थानोंमें जितने मनुष्य हैं वे उक्त चार गुणस्थानोंकी अपेक्षा शेष तीन गतियोंके जीवोंके साथ समान हैं, और संयमासंयम गुणस्थानकी अपेक्षा वे तिर्यैचोंके साथ समान है | अतएव पांचवें गुणस्थान तकके मनुष्योंको मिश्र कहा गया है ।
अब शुद्ध मनुष्योंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
तेण परं सुद्धा मणुस्सा || ३२ ||
पांचवें गुणस्थानके आगे शुद्ध ही मनुष्य हैं ॥ ३२ ॥
प्रारम्भके पांच गुणस्थानोंको छोड़कर शेष गुणस्थान चूंकि मनुष्यगतिके विना अन्य किसी भी गतिमें नहीं पाये जाते हैं, इसलिये उन शेष गुणस्थानवर्ती मनुष्योंको शुद्ध मनुष्य कहा गया है । अब इन्द्रियमार्गणामें गुणस्थानोंके अन्वेषणके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
इंदियाणुवादेण अत्थि एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चदुरिंदिया पंचिंदिया अणिदिया चेदि ॥ ३३ ॥
इन्द्रियमार्गणाके अनुवाद से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय जीव होते हैं ॥ ३३ ॥
इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यशाली होनेसे यहां इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा है । उस इन्द्रके लिंग (चिन्ह) को इन्द्रिय कहते हैं । अथवा, जो इन्द्र अर्थात् नामकर्मके द्वारा रची जाती है उसे इन्द्रिय कहते हैं । वह दो प्रकारकी है- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । इनमें द्रव्येन्द्रिय भी दो प्रकारकी हैनिर्वृत्ति और उपकरण । जो कर्मके द्वारा रची जाती है उसे निर्वृत्ति कहते हैं । वह बाह्य निर्वृत्ति और अभ्यन्तर निर्वृत्तिके भेदसे दो प्रकारकी है । उनमें प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियोंके आकाररूपसे परिणत हुए लोकप्रमाण अथवा उत्सेवांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण विशुद्ध आत्मप्रदेशोंकी रचनाको अभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं । अभिप्राय यह है कि स्पर्शन इन्द्रियकी अभ्यन्तर निर्वृत्ति लोकप्रमाण आत्मप्रदेशों में तथा अन्य चार इन्द्रियोंकी वह अभ्यन्तर निर्वृत्ति उत्सेवांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्रदेशोंमें व्यक्त होती है। उन्हीं आत्मप्रदेशोंमें 'इन्द्रिय ' नामको धारण करनेवाला व प्रतिनियत आकारसे संयुक्त जो पुद्गलसमूह होता है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं । उक्त इन्द्रियोंमें श्रोत्र इन्द्रिका आकार यवकी नालीके समान, चक्षु इन्द्रियका मसूरके समान, रसना इन्द्रियका आधे चन्द्र के समान, घ्राण इन्द्रियका कदंबके फूलके समान और स्पर्शन इन्द्रियका आकार अनेक प्रकारका है । जो निर्वृत्तिका उपकार करती है उसे उपकरण कहते हैं । वह भी बाह्य और अभ्यन्तर उपकरणके भेदसे दो प्रकारकी है । उनमें चक्षु इन्द्रियमें जो कृष्ण और शुक्ल मण्डल देखा जाता है वह चक्षु इन्द्रियका अभ्यन्तर उपकरण तथा पलक और बरौनी (रोमसमूह) आदि उसका बाह्य उपकरण है। भावेन्द्रिय भी दो प्रकारकी है-लब्धि और उपयोग । इनमें इन्द्रियकी निर्वृत्तिका कारण भूत जो क्षयोपशमविशेष होता है उसका नाम लब्धि है और उस क्षयोपशमके आश्रयसे
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