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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, २७.
सांपराय-प्रविष्ट-शुद्धिसंयतोंमें उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसांप राय- प्रविष्ट -शुद्धिसंयतोंमें उपशमक औरक्षपक, उपशान्तकषाय- वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवल इस प्रकार चौदह गुणस्थानोंमें पाये जाते हैं ॥ २७ ॥
अब देवगतिमें गुणस्थानोंका अन्वेषण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं
१४]
देवा चसु द्वासु अत्थि मिच्छाइट्टि सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठिति ॥ २८ ॥
देव मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में पाये जाते हैं ॥ २८ ॥
अब पूर्व सूत्रोंमें निर्दिष्ट अर्थका विशेष प्रतिपादन करनेके लिये चार सूत्र कहते हैंतिरिक्खा सुद्धा एइंदियप्पहुडि जाव असणिपंचिदिया त्ति ।। २९ ।। एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक शुद्ध तिर्यंच होते हैं ॥ २९ ॥
जिनके एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है उन्हें एकेन्द्रिय कहते हैं । जो असंज्ञी होते हुए पंचेन्द्रिय होते हैं उन्हें असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहते हैं । पांचों प्रकारके एकेन्द्रिय, तीनों विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इतने जीव केवल तिर्यंचगतिमें ही पाये जाते हैं; यह सूत्र में प्रयुक्त 'शुद्ध' पदका अभिप्राय है ।
इस प्रकार शुद्ध तिर्यंचोंका प्रतिपादन करके अब मिश्र तिर्यंचोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
तिरिक्खा मिस्सा सणिमिच्छाइट्ठिप्प हुडि जाव संजदासंजदा ति ॥ ३० ॥
संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक मिश्र तिर्यंच होते हैं ॥ ३० ॥ तिर्यंचोंकी मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिरूप गुणोंकी अपेक्षा अन्य तीन गतियोंमें रहनेवाले जीवोंके साथ समानता है । इसलिये तिर्यंच जीव चौथे गुणस्थान तक तीन गतिवाले जीवोंके साथ मिश्र कहलाते हैं । आगे संयमासंयम गुणकी अपेक्षा तिर्यंचोंकी समानता केवल मनुष्योंके साथ ही है, इसलिये पांचवें गुणस्थान तक उन तिर्यंचोंको मनुष्योंके साथ मिश्र कहा गया है ।
अब मनुष्योंकी गुणस्थानोंके द्वारा समानता और असमानताका प्रतिपादन करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
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मणुस्सा मिस्सा मिच्छाइट्ठिप्प हुडिं जाव संजदासंजदा ति ॥ ३१ ॥ मनुष्य मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक मिश्र हैं ॥ ३१ ॥
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