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प्रस्तावना
[१०९
इस प्रकार द्वादशाङ्ग श्रुतमें विस्तारसे कहे गये और मेरे द्वारा समास ( संक्षेप ) से कहे गये इस ग्रन्थमें जो उपयुक्त होकर उसके अर्थका गुणन (चिन्तन और मनन ) करता है, उसकी बुद्धि विपुल ( विशाल ) हो जाती है ।
उपसंहार इस प्रकार जीवसमासकी रचना देखते हुए उसकी महत्ता हृदयपर खतः ही अंकित हो जाती है और इस बातमें कोई सन्देह नहीं रहता कि उसके निर्माता पूर्ववेत्ता थे, या नहीं? क्योंकि उन्होंने उपर्युक्त उपसंहार गाथामें स्वयं ही 'बहुभंगदिट्ठियाए ' पद देकर अपने पूर्ववेत्ता होनेका संकेत कर दिया है।
समग्रजीवसमासका सिंहावलोकन करनेपर पाठकगण दो बातोंके निष्कर्षपर पहुंचेंगे एक तो यह कि वह विषयवर्णनकी सूक्ष्मता और महत्ताकी दृष्टिसे बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और दूसरी यह कि षट्खण्डागमके जीवट्ठाण-प्ररूपणाओंका वह आधार रहा है।
यद्यपि जीवसमासकी एक बात अवश्य खटकने जैसी है कि उस में १६ वर्गोंके स्थानपर १२ स्वर्गोंके ही नाम हैं और नव अनुदिशोंका भी नाम-निर्देश नहीं है, तथापि जैसे तत्त्वार्थसूत्रके * दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः' इत्यादि सूत्रमें १६ के स्थानपर १२ कल्पोंका निर्देश होनेपर भी इन्द्रोंकी विवक्षा करके और — नवसु अवेयकेषु विजयादिषु ' इत्यादि सूत्रमें अनुदिशोंके नामका निर्देश नहीं होनेपर भी उसकी — नवसु' पदसे सूचना मान करके समाधान कर लिया गया है उसी प्रकारसे यहां भी समाधान किया जा सकता है ।
षट्खण्डागमके पृ. ५७२ से लेकर ५७७ तक वेदनाखण्डके वेदनाक्षेत्रविधान के अन्तर्गत अवगाहना-महादण्डकके सू. ३० से लेकर ९९ वें सूत्र तक जो सब जीवोंकी अवगाहनाका अल्पबहुत्व बतलाया गया है, उसके सूत्रात्मक बीज यद्यपि जीवसमासकी क्षेत्रतरूपणामें निहित है, तथापि जैसा सीधा सम्बन्ध, गो. जीवकाण्डमें आई हुई 'सुहुमणिवाते आमू' इत्यादि (गा. ९७ से लेकर १०१ तककी ) गाथाओंके साथ बैठता है, वैसा अन्य नहीं मिलता। इन गाथाओंकी रचना-शैली ठीक उसी प्रकारकी है, जैसी कि वेदनाखण्डमें आई हुई चौसठ पदिकवाले जघन्य और उत्कृष्ट अल्पबहुत्वकी गाथाओंकी है । यतः गो. जीवकाण्डमें पूर्वाचार्य-परम्परासे आनेवाली
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