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छक्खंडागम
यहांपर पाठकोंकी जानकारीके लिए दोनोंके समता परक एक अवतरणको दे रहे हैं
जीवसमास- - अस्सण्णि अमणपंचिंदियंत सण्णी उ समण छउमत्था । नो सण्णि नो असण्णी केवलनाणी उ विण्णेआ ।। ८१ ॥
जीवस्थानसणियाणुवादेण अत्थि सण्णी असण्णी ॥ १७२ ॥ सण्णी मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव खीण कसायवीयरायछदुमत्था त्ति ॥ १७३ ॥ असण्णी एइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ॥१७४॥
पाठकगण इन दोनों उद्धरणोंकी समता और जीवसमासकी कथन-शैलीकी सूक्ष्मताके साथ ‘नो संज्ञी और नो असंज्ञी ' ऐसे केवलियोंके निर्देशकी विशेषताका स्वयं अनुभव करेंगे।
- दूसरी संख्याप्ररूपणा या द्रव्यप्रमाणानुगमका वर्णन करते हुए जीवसमासमें पहले प्रमाणके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चार भेद बतलाये गये हैं। तत्पश्चात् द्रव्यप्रमाणमें मान, उन्मानादि भेदोंका, क्षेत्रप्रमाणमें अंगुल ( हस्ते ) धनुष, आदिका, कालप्रमाणमें समय, आवली, उच्छ्वास आदिका और भावप्रमाणमें प्रत्यक्ष- परोक्ष ज्ञानोंका वर्णन किया गया है। इनमें क्षेत्र
और कालप्रमाणका वर्णन खूब विस्तारके साथ क्रमशः १४ और ३५ गाथाओंमें किया गया है । जिसे कि धवलाकारने यथास्थान लिखा ही है। इन चारों प्रकारके प्रमाणोंका वर्णन करनेवाली गाथाएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें ज्योंकी त्यों या साधारणसे शब्दभेदके साथ मिलती हैं, जिनसे कि उनका आचार्य-परम्परासे चला आना ही सिद्ध होता है। इन चारों प्रकारके प्रमाणोंका वर्णन षट्खण्डागमकारके सामने सर्वसाधारणमें प्रचलित रहा है, अतः उन्होंने उसे अपनी रचनामें स्थान देना उचित नहीं समझा है ।
इसके पश्चात् मिथ्यादृष्टि आदि जीवोंकी संख्या बतलाई गई है, जो दोनोंही ग्रन्थों में शब्दशः समान है। पाठकोंकी जानकारीके लिए यहां एक उद्धरण दिया जाता है
जीवसमास-गाथामिच्छा दव्यमणंता कालेणोसप्पिणी अणंताओ। खेत्तेण भिज्जमाणा हवंति लोगा अणंता ओ ॥ १४४ ॥
षट्खण्डागम-सूत्र___ओघेण मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता ॥ २ ॥ अणंताणंताहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ ३ ॥ खेत्तेण अणंताणंता लोगा ॥ ४ ॥
(षट्खण्डागम, पृ. ५४-५५)
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