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छक्खंडागम
जिससे कि वह परवर्ती रचना सिद्ध हो जाती है । पर यहां तो जीवसमासकारने न तो अपना नाम कहीं दिया है और न परवर्ती आचार्योंने ही उसे किसी आचार्य-विशेष की कृति बताकर नामोल्लेख किया है। प्रत्युत उसे ' पूर्वभृत्-सूरि-सूत्रित' ही कहा है जिसका अर्थ यह होता है कि जब यहांपर पूर्वोका ज्ञान प्रवहमान था, तब किसी पूर्ववेत्ता आचार्यने दिनपर दिन क्षीण होती हुई लोगोंकी बुद्धि और धारणाशक्तिको देखकरही प्रवचन-वात्सल्यसे प्रेरित होकर इसे गाथारूपमें निबद्ध कर दिया है और वह आचार्य परम्परासे प्रवहमान होता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ है। उसमें जो कथन स्पष्ट था, उसकी व्याख्यामें अधिक बल न देकर जो अप्ररूपित मार्गणाओंका गूढ अर्थ था, उसका उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्तको विस्तारसे विवेचन किया और उन्होंने भी उसी गूढ रहस्यको अपनी रचनामें स्पष्ट करके कहना या लिखना उचित समझा।
दूसरे इस जीवसमासकी जो गाथाएँ आठ प्ररूपणाओंकी भूमिकारूप हैं, वे धवलाटीकाके अतिरिक्त उत्तराध्ययन, मूलाचार, आचारांग-नियुक्ति, प्रज्ञापनासूत्र, प्राकृत पंचसंग्रह आदि अनेक ग्रन्थोंमें पाई जाती हैं। जीवसमासकी अपने नामके अनुरूप विषयकी सुगठित विगतवार सुसम्बद्ध रचनाको देखते हुए यह कल्पना असंगतसी प्रतीत होती है कि उसके रचयिताने उन उन उपर्युक्त ग्रन्थोंसे उन-उन गाथाओंको छांट-छाटकर अपने ग्रन्थमें निबद्ध कर दिया हो। इसके स्थानपर तो यह कहना अधिक संगत होगा कि जीवसमासके प्रणेता वस्तुतः श्रुतज्ञानके अंगभूत ११ अंगों
और १४ पूर्वोके वेत्ता थे । भले ही वे श्रुतकेवली न हों, पर उन्हें अंग और पूर्वोके बहुभागका विशिष्ट ज्ञान था, और यही कारण है कि वे अपनी कृतिको इतनी स्पष्ट एवं विशद बना सके। यह कृति आचार्य-परम्परासे आती हुई धरसेनाचार्यको प्राप्त हुई, ऐसा मानने में हमें कोई बाधक कारण नहीं दिखाई देता । प्रत्युत प्राकृत पंचसंग्रहकी प्रस्तावनामें जैसा कि मैंने बतलाया, यही अधिक सम्भव अँचता है कि प्राकृत पंचसंग्रहकारके समान जीवसमास धरसेनाचार्यको भी कण्ठस्थ था और उसका भी व्याख्यान उन्होंने अपने दोनों शिष्योंको किया है।
यहां पर जीवसमासका कुछ प्रारम्भिक परिचय देना अप्रासंगिक न होगा। पहली गाथामें चौवीस जिनवरों ( तीर्थंकरों ) को नमस्कार कर जीवसमास कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है । दूसरी गाथामें निक्षेप, निरुक्ति, ( निर्देश-स्वामित्वादि ) छह अनुयोगद्वारोंसे, तथा ( सत्-संख्यादि ) आठ अनुयोगद्वारोंसे गति आदि मार्गणाओंके द्वारा जीवसमास अनुगन्तव्य कहे हैं । तीसरी गाथाके द्वारा नामादि चार वा बहुत प्रकारके निक्षेपोंकी प्ररूपणाका विधान है। चौथी गाथामें उक्त छह अनुयोगद्वारोंसे सर्व भाव ( पदार्थ ) अनुगन्तव्य कहे हैं। पांचवीं गाथामें सत्-संख्यादि आट अनुयोगद्वारोंका निर्देश है । जो कि इस प्रकार है
संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च खित्त-फुसणा य । कालंतरं च भावो अप्पाबहुअं च दाराई ।। ५॥
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