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प्रस्तावना
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पाठक गण इस गाथाके साथ षट्खण्डागमके प्रथम खण्डके 'संतपरूवणा' आदि सातवें सूत्रसे मिलान करें । तत्पश्चात् छठी — गइ इंदिए य काए' इत्यादि सर्वत्र प्रसिद्ध गाथाकेद्वारा चौदह मार्गणाओंके नाम गिनाये गये हैं, जो कि ज्योंके त्यों षट्खण्डागमके सूत्रांक ४ में बताये गये हैं। पुनः सातवीं गाथामें 'एत्तो उ चउदसण्हं इहाणुगमणं करिस्सामि' कहकर और चौदह गुणस्थानोंके नाम दो गाथाओंमें गिनाकर उनके क्रमसे जानने की प्रेरणा की गई है। जीवसमासकी ५ वीं गाथासे लेकर ९ वीं गाथा तकका वर्णन जीवस्थानके २ रे सूत्रसे लेकर २२ वें सूत्र तकके साथ शब्द और अर्थकी दृष्टि से बिलकुल समान है। अनावश्यक विस्तारके भयसे दोनोंके उद्धरण नहीं दिये जा रहे हैं।
इसके पश्चात् ७६ गाथाओंके द्वारा सत्प्ररूपणाका वर्णन ठीक उसी प्रकारसे किया गया है, जैसा कि जीवस्थानकी सत्प्ररूपणामें है । पर जीवसमासमें उसके नामके अनुसार प्रत्येक मार्गणासे सम्बन्धित सभी आवश्यक वर्णन उपलब्ध है । यथा- गतिमार्गणामें प्रत्येक गतिके अवान्तर भेद-प्रभेदोंके नाम दिये गये हैं। यहां तक कि नरकगतिके वर्णनमें सातों नरकों और उनकी नामगोत्रवाली सातों पृथिवियोंके, मनुष्यगतिके वर्णनमें कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तर्वीपज और आर्य-म्लेंच्छादि भेदोंके, तथा देवगतिके वर्णनमें चारों जातिके देवोंके तथा स्वर्गादिकोंके भी नाम गिनाये गये हैं । इन्द्रिय मार्गणामें गुणस्थानोंके निर्देशके साथ छहों पर्याप्तियों और उनके स्वामियोंकाभी वर्णन किया गया है। जब कि यह वर्णन जीवट्ठाण में योगमार्गणाके अन्तर्गत किया गया है।
कायमार्गणामें गुणस्थानोंके निर्देशके अतिरिक्त पृथिविकायिक आदि पांचों स्थावर कायिकोंके नामोंका विस्तारसे वर्णन है। इस प्रकारकी 'पुढवी य सक्करा वालुया' आदि १४ गाथाएँ वे ही हैं, जो धवल पुस्तक १ के पृ. २७२ आदिमें, तथा मूलाचारमें २०६ वीं गाथासे आगे, तथा उत्तराध्ययन, आचारांग नियुक्ति, प्राकृत पंचसंग्रह और कुछ गो. जीवकांडमें ज्योंकि त्यों पाई जाती हैं। इसी मार्गणाके अन्तर्गत सचित्त-अचित्तादि योनियों और कुलकोडियोंका वर्णन कर पृथिवीकायिक आदि जीवोंके आकार और त्रसकायिक जीवोंके संहनन और संस्थानोंकाभी वर्णन कर दिया गया है, जो प्रकरणको देखते हुए जानकारीकी दृष्टिसे बहुत उपयोगी है ।
योगमार्गणासे लेकर आहारमार्गणातकका वर्णन पट्खण्डागमके जीवस्थानके समानही है। जीवसमासमें इतना विशेष है कि ज्ञानमार्गणामें आभिनिबोधिक ज्ञानके अवग्रहादि भेदोंका, संयममार्गणामें पुलाक, बकुशादिका, लेश्या मार्गणामें द्रव्यलेश्याका और सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व आदिके प्रकरणवश कर्मोंके देशघाती, सर्वघाती आदि भेदोंकाभी वर्णन किया गया है। अन्तमें साकार और अनाकार उपयोगके भेदोंको बतलाकर और 'सव्वे तल्लक्खणा जीवा' कह कर जीवके स्वरूपको भी कह दिया गया है ।
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