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छक्खंडागम
दृष्टिगोचर होता है। चूर्णिके भीतर एक बात विशेष है कि प्रत्येक अल्पबहुत्वके पश्चातही उसका सयुक्तिक कारण भी कहा गया है। पाठकोंकी जानकारीके लिए यहां दो उद्धरण दिये जाते हैं
षट्खण्डागम-सूत्र णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥ १२७ ॥ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १२८ ॥
( षट्खण्ड पृ. ५९७ ) कम्मपयडी-चूर्णि ततो णाणापदेसगुणहाणिठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । पलिओवमवग्गमूलस्स असंखेजत्ति भागो त्ति काउं । एगं पदेसगुणहाणिठाणंतरं असंखेज्जगुणं । असंखेज्जाणि पलिओवमवग्गमूलाणि त्ति .. काडं ।
( कम्मप. बंधन. पत्र १८२ ) षट्खण्डागम पृ. ६०० से लेकर पृ. ६११ और सू. १६५ से २७९ तक कालविधान नामक दूसरी चूलिकी स्थितिबन्धाध्यवसानप्ररूपणामें जो जीवसमुदाहार. प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार इन तीन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर वर्णन किया गया है, उसका आधार कम्मपयडीकी बन्धनकरणकी गाथा ८७ से लेकर १०१ तक की गाथाएँ हैं । ( देखो कम्मपयडी बन्धनकरण पत्र १८६ से २०० तक)। इन गाथाओंकी चूर्णि षटखण्डागमके उक्त सूत्रोंकी आभारी है। सूत्रोंमें तो वर्णन संक्षेपसे किया गया है, पर कम्मपयडीकी चूर्णिमें उसके भाष्यरूप विस्तृत वर्णन पाया जाता है, जो कि स्पष्टतः उसकी आधारता, पल्लवता और अर्वाचीनताको सिद्ध करता है।
षट्खण्डागम पृ. ६२७ पर वेदनाभावविधानकी प्रथम चूलिकाके प्रारम्भ में जो 'सम्मत्तुप्पत्तीए आदि २ सूत्र गाथाएँ दी हैं, वे कम्मपयडीके उदय अधिकारमें क्रमांक ८ और ९ पर ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। साथही वहां पर जो उनकी चूणि दी हुई है, वह षट्खण्डागमके सू. १७५ से लेकर १९६ तकके सूत्रोंके साथ शब्दशः समान है । यहां यह द्रष्टव्य है कि गाथा सूत्रों के आधार पर ही उक्त सूत्र रचे गये हैं। जिससे गाथाओंका पूर्वाचार्य परम्परासे आना सिद्ध है। यह गाथा और चूर्णिकी समता आकस्मिक नहीं है, अपितु ऐतिहासिक शोधमें अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
षट्खण्डागम पृ. ७३३ से ७३५ तक जो एकप्रदेशी वर्गणासे लेकर महास्कन्धवर्गणा तक २३ वर्गणाओंकी प्ररूपणा की गई है, उसके आधारभूत २ गाथाएं धवला टीका ( पु. १४ पृ. ११७ ) में पाई जाती हैं, और वे ही गो. जीवकाण्ड में भी गाथांक ५९४ और ५९५ पर
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