Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः॥ श्रीयतिवृषभाचार्यविरचिता तिलोयपण्णत्ती [ त्रिलोकप्रज्ञप्तिः] [जैन लोकज्ञानसिदान्त विषयक प्राचीन प्राकृत ग्रंथ ] प्राचीन कन्नड प्रतियों के प्राधार पर प्रथम बार सम्पादित [ तृतीय खण्ड] टीकाकी : प्रायिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी सम्पादक: डा० चेतनप्रकाश पाटनी असोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर प्रकाशक: प्रकाशन विभाग, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लोक रचना .. उर्ध्व लोक पाकस्म हद्रम 3 पंच प्रेर मेमम/ MOT सोसपनोक गोजन - मध्य . HD कमरयास लोकमान मेधा EERED सरि अन्ना भाग --- - # Latest मरिष्ठा 13 其料神小加州州加班年5胡如 'पचम पृथ्वी अधी अघो लोक म प्रभा 2पृधाम प्रभा माधवी ... माजन 417 HEE:::- ------ सप्तापुरजी .... ... ...]+7" महालम प्रभा प्रमा - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् श्रीयतिवषभाचार्य विरचित 'तिलोयपण्णत्ती' करणानुयोग का श्रेष्ठतम ग्रन्थ है । इसके आधार पर हरिवंशपुराण, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों की रचना हुई है । श्री १०५ प्रायिका विशुद्धमती माताजी ने अत्यधिक परिश्रम कर इस ग्रन्थराज की हिन्दी टीका लिखी है । गणित के दुरूह स्थलों को सुगम रीति से स्पष्ट किया है । इसके प्रथम और द्वितीय भाग क्रमश: सन् १९८४ और सन् १९८६ में प्रकाशित होकर विद्वानों के हाथ में पहुंच चुके हैं प्रसन्नता है कि विद्वज्जगत् में इनका अच्छा आदर हुआ है । यह तीसरा और अन्तिम भाग है इसमें पांच से नौ तक महाधिकार हैं । प्रशस्ति में माताजी ने इस टीका के लिखने का उपक्रम किस प्रकार हुआ, यह सब निर्दिष्ट किया है । माताजी को तपस्या और सतत जारी रहने वाली श्रुताराधना का ही यह फल है कि उनका क्षयोपशम निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। त्रिलोकसार, सिद्धान्तसारदीपक और तिलोयपण्णती के प्रथम, द्वितीय, तृतीय भाग के अतिरिक्त अन्य लघुकाय पुस्तिकाएँ भी माताजी की लेखनो से लिखी गई हैं । रुग्ण शरीर और आयिका को कठिन चर्या का निर्वाह रहते हुए भी इतनी श्रुत सेवा इनसे हो रही है, यह जैन जगत के लिये गौरव की बात है । आशा है कि माताजी के द्वारा इसी प्रकार की श्रुत सेवा होती रहेगी । मुझे इसी बात की प्रसन्नता है कि प्रारम्भिक अवस्था में माताजी ने ( सुमित्राबाई के रूप में ) मेरे पास जो कुछ अल्प अध्ययन किया था, उसे उन्होंने अपनी प्रतिभा से विशालतम रूप दिया है। विनीत : पन्नालाल साहित्याचार्य १५-३-१९८८ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात सफलता एक सुन्दर फूल है, जिसे प्रत्येक प्राणी प्राप्त करना चाहता है, पर सफलता मिलती उसी को है, जो सफलता पाने के लिये दृढ़ संकल्पी हो । प्रत्येक बड़ी से बड़ी सफलता की कुजी स्वयं का ढ़ संकल्प, विश्वास, लगन और धैर्य है। इस दुःषम पंचम काल में भौतिकवाद को भयावह रात्रि के सघनतम अन्धकार से प्रायः सारा जगत प्राच्छादित हो रहा है। इसमें सफलता प्राप्त कर लेना सहज बात नहीं है, कोई विरली पात्माएँ ही जिनमें चढ़ आत्म विश्वास, लगन और धैर्य हो वे ही स्वयं मार्ग प्राप्त कर पाती हैं और अन्य को भी कल्याण का मार्ग दे पाती हैं। विशेष बुद्धि को धारण करने वाली और हढ आत्मविश्वास रखने वाली परम पूज्य विदुषी रत्न अभीषण ज्ञामोपयोगी नापिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी (सुशिष्या स्व. आचार्य चारित्र चक्रवर्ती १०८ श्री बााम्तिसागरजी महाराज के द्वितीय पट्टाधीश परम पूज्य कर्मठ तपस्वी चारित्र चूडामणि स्व० आचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज) उन्हीं में से एक हैं । आपके विषय में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । ___ सं० २०३८ मागशीर्ष कृष्णा ११ रविवार दि० २२-११-१९८१ के शुभ मुहूर्त में परम पूज्य माताजी ने परम पूज्य स्व. प्राचार्यकल्प १०८ श्री सन्मति सागरजी महाराज (टोडावाले) से मंगल आशीर्वाद प्राप्तकर इस महान् मन्थराज 'तिलोप-पगएती' की टीका करने का कार्य प्रारम्भ किया था और सं० २०४० अाषाढ़ शुक्ला ३ रविवार दि. १-७-१९८४ को अर्थात् ३॥ वर्ष में इसी भीण्डर नगरी में प्रथम खण्ड आपके हाथों में पहुंचा था। परम पूज्य माताजी प्रायः अस्वस्थ रहती हैं तथापि प्रभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग प्रवृत्ति से कभी विरत नहीं होती। हमेशा परिश्रम करते रहना ही आपकी विशेषता है और इसी का फल है कि जो ३००६ गाथाओं वाला वृहद् काय द्वितीय खण्ड करीब १॥ वर्ष की अल्पावधि में ही दि० २३.४. १९८६ को सलूम्बर नगरी में आपके हाथों में पहुंच सका। और अब तीसरा खण्ड भी इसी भीण्डर नगरी में करीब १।। वर्ष में ही आपके हाथों में पहुंच रहा है । श्री भारतवर्षीय दि. जैन महासभा के प्रकाशन विभाग से इस ग्रन्थ राज का प्रकाशन हुआ है ! श्री दानवीर सेठ श्री निर्मलकुमारजी सेठी 'सेठी ट्रस्ट' लखनऊ ने अत्यधिक आर्थिक सहयोग दिया है, आपका यह अनुदान अनुकरणीय और सराहनीय है तथा परम्परा से विशिष्ट ज्ञानका कारण है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ राज का प्रथम प्रकाशन 'जीवराज ग्रन्थमाला' सोलापुर से हुआ था। ग्रन्थमाला के इस उपकार को दृष्टि में रखते हुए वहाँ तीनों खण्डों की ५०-५० प्रतियां भेंट स्वरूप भेजी गई हैं। ___ इसके अतिरिक्त और भी महानुभावों ने नन्थ के प्रकाशनार्थ जो वित्तीय सहयोग दिया है, उस सबका विवरण दूसरे खण्ड में दे दिया था, उसके बाद जो सहयोग प्राप्त हुपा है वह इसप्रकार ११०११) श्रीमती गुलाबबाई मातेश्वरी श्री महावीरजी मजितकुमारजी मोंडा, उदयपुर ( राज०) ७६.३) श्री दि० जैन समाज करण, उदयपुर (राज.) हस्ते ४१०१) सौ. शांतिबाई ध० प० श्री नीरजजी जैन, सतना (म.प्र.) ॥ २५७५) सौं० प्रमिलादेवी ध०प० श्री शाह पूनमचन्दजी भावनगर (म.प्र.) ।। १३०१) सो० सत्यभामा ध० १० श्री सज्जनकुमारजी हंगावत, उदयपुर ( राज.) ७००१) श्रीमान् संतोषलालजी मेहता, उदयपुर (राज.) आपने ति० प० ग्रन्थ के तृतीय खण्ड की ५० प्रतिया थी 'जीवराज ग्रन्थमाला' सोलापुर को भेंट स्वरूप प्रदान की हैं। ६०००) धी दिगम्बर जैन चैत्यालय, कूच बिहार ( वेस्ट बंगाल ) हस्ते-श्री गणेशमलजी पौडमा ( सरावगी)। ५५११) श्री दि. जैन समाज, सलम्बर (राज. ) हस्ते श्री केबलदासजी धनजी भाई, भावनगर ( गुजरात) ३००१) श्री मगनीलालजी पन्नालालजी भोरावत, चेरीटेबल ट्रस्ट, उदयपुर 1 २५००) श्री मदनलालजी चांदवाड़, रामगंज-मंडी ( राज. ) २५००) श्री नाथूलालजी भानजा, निवाई { राज०) २०००) श्री नेमीचन्दजी गंगवाल, निवाई (राज.) १००१) श्री हरिनारायणजी जैन, निवाई ( राज.) १०००) श्री कस्तूरचन्दजी नागदा, उदयपुर ( राज०) उपर्युक्त सभी दातारों को बहुत-बहुत धन्यवाद । पूज्य माताजी स्वस्थ और दीर्घजीवी रहकर जिनवाणी माता की सेवा में संलग्न रहें ताकि मुझे भी सरस्वती माता की सेवा का सुअवसर प्राप्त होता रहे ; यही मेरी हार्दिक भावना है। विनीत : मा० कजोड़ीमल कामदार (संघस्थ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय महासभा से प्रकाशित गौरवग्रन्थ 'तिलोयपण्णसो' की हिन्दी टीका का यह तृतीय खण्ड आपके हाथों में अर्पित करते हुए में विशेष आह्लादिन हूँ। प्रथम खण्ड का प्रकाशन जुलाई १९८४ में और द्वितीय खण्ड का प्रकाशन अप्रेल १९८६ में हुअा था। दोनों खण्डों की सर्वत्र अनुशंसा की गई। पहले खण्ड में तोन अधिकार थे, चौथे अधिकार का द्वितीय खण्ड था, शेष पाँच महाधिकार (पांच से नौ ) इस तृतीयखण्ड में सम्मिलित हैं। महासभा का प्रकाशन विभाग परम पूज्य प्रायिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी के चरणों में शतशः नमोस्तु निवेदन करता है जिनके प्रौढ़ ज्ञान का सुफल हमें ग्रन्थराज तिलोयपणती की टीका के रूप में उपलब्ध हुआ है । शारीरिक अस्वस्थता की चिन्ता न करते हुए पूज्य प्रायिका श्री ने निरन्तर ६-७ वर्ष तक घोर श्रम करते हुए इस कठिन गणितीय अन्ध की तीन वृहदकाय जिल्दों में जो सरल हिन्दी टीका निर्मित की है, उनका यह महत्वपूर्ण अवदान चिरस्मरणीय रहगा । हम आशा करते हैं कि पूज्य मायिकाश्री मां जिनवाणी की सेवा में संलग्न रहकर हमें इसी प्रकार उपकृत करती रहेंगी । हम उनके स्वस्थ दोषं जोवन की कामना करते हैं। ग्रन्थ के सम्पादक डॉ. चेतन प्रकाशजी पाटनी, जोधपुर के हम विशेष आभारी हैं जिन्होंने विविध कार्यों की व्यस्तता के बावजूद पर्याप्त समय निकाल कर इस वृहद कार्य को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उनकी प्रतिभा और क्षमता निरन्तर विकसित होती रहे, यही कामना है। पुरोवाक् लेखक पं० पशलालजी साहित्याचार्य, सागर और गणित के विद्वान् प्रो० लक्ष्मीचन्दजी जैन,जबलपुर के भी हम आभारी हैं जिनका इस ग्रन्थ राजके प्रकाशनमें पर्याप्त सहयोग रहा है । तिलोयपण्णत्ती' के तीनों खण्डों के प्रकाशन में माननीय श्रीमान् निर्मलकुमारजी सेठी अध्यक्ष, महासभा से हमें विपुल अर्थ सहयोग प्राप्त हुमा है । 'सेठो दृस्ट' से प्राप्त धनराशि के लिए हम उनके अतिशय अनुगृहीत हैं । अन्य दातारों से प्राप्त धनराशि के लिए हम उनका सादर प्राभार मानते हैं और कामना करते हैं कि जिनवाणी के प्रचार प्रसार में उनकी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग इसी प्रकार होता रहे । माताजी के संघस्थ कजोड़ीमलजी कामदार का इस ग्रंथ प्रकाशन में अविस्मरणीय सहयोग रहा है । इस वृहद अनुष्ठान में आने वाली मड़चनों को आपने अपने अनुभव एवं सूझबूझ से अविलम्ब दूर किया है । एतदर्थ हम आपके आभारी हैं। _इस गणितीय जटिल ग्रंथ को बड़ी धीरता से कमल प्रिन्टर्स, मदनगंज ने मुद्रित किया है। ग्रन्थ के तीनों खण्डों के सुरुचिपूर्ण एवं शुद्ध प्रकाशन के लिए हम श्री पांचूलालजी बंद एवं प्रेस कर्मचारियों को हार्दिक साधुवाद देते हैं । आशा है, स्वाध्यायोजन महासभा के इस गरिमापूर्ण प्रकाशन से विशेष लाभान्वित होंगे। इति शुभम् ! महावीर जयन्ती राजकुमार सेठी ३१-३.८८ मंत्रो, प्रकाशन विभाग श्री भा० दि. जैन महासभा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राद्यमिताक्षर भगवान जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट दिव्य वाणी धार अनुयोगों में विभाजित है । त्रिलोकसार अंथ के संस्कृत टीकाकार श्रीमन्माषचन्द्राचार्य विद्यदेव ने कहा है कि जिस प्रर्थ का निरूपण श्री सर्वशवेव ने किया था, उसी अर्थ के विद्यमान रहने से करणानुयोग परमागम केवलज्ञान सदृश है । तिसोपपणती ग्रन्थ के प्रथमाधिकार की गाथा ८६-८७ में श्रीयतिवषमाचार्यदेव प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं ( पदाहरूवत्तणेग आइरिय अणुक्कमा आद तिलोयपण्णत्ती अहं योच्छामि ) आचार्य परम्परा से प्रवाह रूप में आये हुए त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रंथ को कहूंगा। आचार्यों की इस वाणी से ग्रन्थ की प्रामाणिकता निपिवाद है। माधार-तिलोयपण्णती ग्रंथ के इस नवीन संस्करण का सम्पादन कानड़ी प्रतियों के आधार पर किया गया है, अतः इस संस्करण का आधार जीवराज ग्रन्थमाला से प्रकाशित तिलोयपणती और जनबिद्री स्थित जैन मठ की ति० प० की प्राचीन कन्नड़ प्रति से की हुई देवनागरी लिपि है। प्रथ-परिमाण-ग्रन्थ नो अधिकारों में विभक्त है । ग्रन्यकर्ता ने इसमें ८००० गाथाओं द्वारा लोक का विवेचन करने की सूचना दी है। जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से प्रकाशित तिलोयपण्णत्ती के नौ अधिकारों की कुल ( पद्य) सूचित गाथाएं ५६७७ हैं जबकि वास्तव में कुल ५६६६ ही मुद्रित हैं; गद्य भाग भी प्रायः सभी अधिकारों में है । इस ग्रन्थ की गाथानों का पूर्ण प्रमाण प्राप्त करने हेतु शीर्षक एवं समापन सूचक मूल पदों के साथ गद्य भाग के सम्पूर्ण अक्षर गिने गये हैं। गाथाओं के नीचे अंकों में जो संदृष्टियां दी गई हैं, उन्हें छोड़ दिया गया है। कन्नड़ प्रति में प्रायः प्रत्येक अधिकार में नवीन गाथाएं प्राप्त हुई हैं । इसप्रकार इस नवीन संस्करण की कुल गाथाओं का प्रमाण इस प्रकार है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] मुद्रित प्रति की। कन्नड़ प्रति से । महाधिकार मुद्रित प्रति का गद्य के अक्षरों की| अधिकप्राप्त । गाथा संख्या गाथा संख्या | गाथा संख्या । कुल योग २८३ ३७७ ३६७ ३८३ प्रथम महाधिकार द्वितीय तृतीय ॥ चतुर्थ ॥ २४२ २९५१ १०७ ३११३ पंचम ७४८ १०७१ पष्ठ १०६ सप्तम ७२३ 4 प्रष्टम् नयम ७७ ५६६६ । १०६ | ११०७ ६८८२ आचार्य श्री को प्रतिज्ञानुसार ( ८०००-६८८२) १११८ गाथाएं कम है, किन्तु यदि अंकसंदृष्टियों के अंकों के अक्षर बनाकर गिने जानें तो कुल गाथाएं ८००० ही हो जायेंगी। गाथाओं के इस प्रमाण से प्रक्षिप्त गाथाओं की भ्रान्ति का निराकरण हो जाता है। ___कन्नड़ प्रति से प्राप्त नवीन गाथाओं का सामान्य परिचय ५वां महाधिकार- पाथा १७८ है, जो भगवान के जन्म के समय चारों दिशाओं को निर्मल करने वाली चार दिक्क्रन्यानों के नाम दर्शाती है । गाथा १७ है, जो गोपुर प्रासादों की सत्रह भूमियों को प्रदर्शित करती है । ७वां महाधिकार-गाथा २४२ है, यह सूर्य की १८४ वीथियां प्राप्त करने का नियम दर्शाती है । गाथा २७७ है, जो केसुदेव के कार्य { सूर्य ग्रहण को) प्रदर्शित करती है। गाथा ५०८ है, जो एक मुहूर्त में नक्षत्र के १८३५ गगनखण्डों पर गमन और उसी एक मुहूर्त में चन्द्र द्वारा १७६८ ग० ख. पर गमन का विधान दर्शाती है । गापा ५३५ है, जो सूर्य के प्रयनों में चतुर्थ भोर पंचम आवृत्ति Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] को कहकर अपूर्ण विषय की पूर्ति करती है । गाथा ५६३ है जो प्रथम पथ स्थित सूर्य के बाह्य भाग में एवं शेष अन्य मार्गों में सूर्य किरणों के गमन का प्रमाण कहकर छूटे हुए विषय की पूर्ति करती है। Eat महाधिकार-गाथा ३०५ में इंद्रादि की देवियों को कहने की प्रतिज्ञा की थी उस प्रतिज्ञा फो पूर्ण करने वाली गाथा ३०६ है । गा० ३२१ लोकपाल की देवियों को कहकर छुटे हुए विषय को पूर्ण करती है । गा० ३६६ गोपुरद्वारों के अधूरे प्रमाण को पूर्ण करती है। ५५६ से ५६२ तक की ४ गाथाएँ देवों के प्राहार काल के अपूर्ण विषय को पूर्ण करती हैं । गा० ५६३-५६४ देवों के उच्छ्वास काल के विषय का प्रतिपादन करती हैं । गा० ५६५-५६६ पाठान्तर से देवों के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कहती हैं ५६८ से ५७८ तक ११ गाथाएँ देवायु के बन्धक परिणामों को कहकर विषय की पूति करती हैं । इस प्रकार इस अधिकार में २३ गाथाएं विशेष प्राप्त हुई हैं। वो महाधिकार-१८ से २१ (४) गाथाएं सिद्ध परमेष्ठी के सुखों का कथन करके अपूर्ण विषय को पूर्ण करती हैं। गा० ८० ग्रन्थान्त मंगलाचरण को पूर्ण एवं स्पष्ट करती है । इसप्रकार इस तृतीय खण्ड में कन्नड प्रति से (२+o+५+२३+५=) ३५ माथाएं विशेष . प्राप्त हुई हैं जो सुर, अनुपलब्ध दिय : विमर्शन कराती है । विचारणीय स्थल तिलोयपण्णत्ती प्रथम खण्ड : प्रथम महाधिकार पृष्ठ २३-२४ पर दी हुई गाथा १०७ का अर्थ इस प्रकार है गाथार्थ-अंगुल तीन प्रकार का है-उत्सेधांगुल, प्रमाणांमुल और आत्मांगुल | परिभाषा से प्राप्त अंगुल उत्सेध सूच्यंगुल कहलाता है । विशेषार्थ-प्रवसनासन्न स्कन्ध से प्रारम्भ कर ५ जी का जो अंगुल बनता है वह उत्सेधसूच्यंगुल है, इसके वर्ग को उसेधप्रतरांगुल और इसीके धनको उत्सेधधनांगुल कहते हैं। इसीप्रकार सर्वत्र जानना । यथा उत्सेधसूच्यंगुल उत्से घप्रतरांगुल उत्सेधघनांगुल प्रमाणसूच्यंगुल प्रमाणप्रतरांगुल प्रमागधनांगुल आत्मसूच्यंगुल आत्मप्रतरांगुल आत्मघनांगुल (प्रमाण-जम्बूद्वीपपण्णत्ती १३/२३-२४, पृष्ठ २३७) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] जिन-जिन वस्तुत्रों के माप में इन भिन्न-भिन्न अंमुलों का प्रयोग करना है उनका निर्देश आचार्य ने इसी अधिकार की गाथा ११० से ११३ तक किया है। इस निर्देश के अनुसार जिस वस्तु के माप का कथन हो उसे उसी प्रकार के अंगुल से माप लेना चाहिये । जिस प्रकार १० पैसे, १० चवन्नी और १० रुपयों में १० का गुणा करने पर क्रमशः १०० पैसे, १०० चवन्नी और १०० रुपये प्रायेंगे, उसीप्रकार उत्सेध यो०, प्रमाण यो० और प्रात्म योजन के कोस बनाने के लिये ४ से गुणित करने पर क्रमशः ३ उत्सेध कोस, ३ प्रमाण कोस और ३ आत्म कोस प्राप्त होंगे। इससे यह सिद्ध हुआ कि लघु योजन और महायोजन के मध्य जो अनुपात होगा वही अनुपात यहां उत्सेध कोस और प्रमाण कोस के बीच होगा ! वही अनुपात उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल के बीच होगा । आचार्यों ने भी इसीप्रकार के माप दिये हैं । यथा---- ति० ५० खण्ड १, अधिकार २ रा, पृ. २५२ गा० ३१६ "उच्छेह जोयणाणि सत्त' ,, ,, ३ . ७ चाँ, पृ० २९२ , २०१ चत्तारि पमाण अंगुलाणं' , , , ३ , ७ या, पृ० ३१२, २७३ 'चत्तारि पमाण अंगुलाणि' धवल ४/४० घरम पंक्ति उत्सेधधनांगुल ! धवल ४/४१ पंक्ति १० प्रमाणधनांगुल । धवल ४/३४-३५ प्रमाणघागुल । ., ४/३४ मूल एवं टीका उत्सेधयोजन, प्रमाणयोजन इत्यादि । प्रयास करने पर भी यह माप सम्बन्धी विषय पहले बुद्धिगत नहीं हुआ था, इसलिये ति० ५० के दूसरे खण्ड में आद्यमिताक्षर पृ० १२ पर विचारणीय स्थल में प्रथम स्थल पर इसी विषय का उल्लेख किया था । दो वर्ष हो गये, कहीं से भी कोई समाधान नहीं हुप्रा । वर्तमान भीण्डर-निवास में पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री के माध्यम से विषय बुद्धिगत हुआ। अत: गाथा १०७ के अर्थ की शुद्धि हेतु और जिज्ञासुजनों की तृप्ति हेतु यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा है। ति. प० द्वितीय खण्ड : चतुर्थ अधिकार * गाथा १६०४, १६०५ में कहा गया है कि 'ये तीर्थकर जिनेन्द्र तृतीय भब में तीनों लोकों को आश्वयं उत्पन्न करने वाले तीर्थकर नामकर्म को बाधते हैं । इस कथन का यह फलितार्थ है कि वे पाने वाले दुःषम-सुषम काल में जब तीर्थकर होंगे उसको आदि करके पूर्व के तृतीय भव में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लेंगे अर्थात् पचकल्याणक वाले ही होंगे । इन (गाथा १६०५-१६०७ में कहे हुए) २४ महापुरुषों में से राजा श्रेणिक को छोड़कर यदि अन्य को इसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंधक मानते हैं तो सिद्धांत से विरोध पाता है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध अन्त। कोटाकोटि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] सागर से अधिक नहीं होता और वह प्रकृति कुछ अन्तमुहूर्त पाठ वर्ष कम दो पूर्व कोटि +३३ सागर से अधिक सत्ता में मौजूद नहीं रह सकती। दुषम-सुषम काल का प्रमाण ४२ हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागर है और इस काल में जब ३ वर्ष ८ माह अवशेष रहेगे तब (सात्यकि पुत्र का जीव) २४ वें अनन्तवीर्य तीर्थकर मोक्ष जावेंगे। यह काल अनक करोड़ सागर प्रमाण है और इतने कालतक तीर्थंकर प्रकृति बंधक जीव संसार में नहीं रह सकता। ति० प० तृतीयखण्ड : पंचम से नवम महाधिकार इस खण्ड सम्बन्धी पांचों अधिकारों के कतिपय स्थलों एवं विषयों का समाधान बुद्धिगत नहीं हुआ जो गुरुजनों एवं विद्वानों द्वारा विचारणीय है-- पंचम-महाधिकार-* गाथा ७ में २५ कोडाकोड़ी उद्धार पल्य के रोमों प्रमाण द्वीप-सागर का और गाथा २७ में ६४ कम २३ उद्धार सागर के रोमों प्रमाण द्वीप-सागर का प्रमाण कहा गया है । गाथा १३० के कथनानुसार २५ कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्य बराबर ही २३ उद्धार सागर है। जब गाथा २७ में ६४ कम किये हैं तब गाथा ७ में ६४ हीन क्यों नहीं कहे गये ? सप्तम महाधिकार-* गाथा ६ में ज्योतिषी देवों के अगम्य क्षेत्र का प्रमाण योजनों में कहा गया है किन्तु इस प्रमाण की प्राप्ति परिधि ४ व्यास का चतुर्थाश x ऊंचाई के परस्पर गुणन से होती है अत: घन योजन ही हैं मात्र योजन नहीं ।। * वातवलय से ज्योतिषो देवों के अन्तराल का प्रमाण प्राप्त करने हेतु गाथा ७ को मूल संदृष्टि में इच्छा राशि १९०० और लब्ध राशि १०८४ कहो गई है किन्तु १९०० इच्छा राशि के माध्यम से १०८४ योजन प्राप्त नहीं होते। यदि शनि ग्रह की ३ योजन ऊंचाई छोड़कर अर्थात् { १६००-३) १८९७ योजन इच्छा राशि मानकर गणित किया जाता है तो संदृष्टि के अनुसार १०८४ योजन प्रमाण प्राप्त होता है, जो विचारणीय है। * गाथा ८६ एवं १० का विषय विशेषार्थ में स्पष्ट अवश्य किया है किन्तु आत्म तृष्टि नहीं है अतः पुनः विचारणीय है । * गाथा २०२ में राहु का बाहल्य कुछ कम अधं योजन कहकर पाठान्तर में वही बाहत्य २५० धनुष है किन्तु केतु का बाहल्य प्राचार्य स्वयं (गा० २७५ में ) २५० धनुष कह रहे हैं जो विचारणीय है । क्योंकि पागम में राहु-केतु दोनों के व्यास आदि का प्रमाण सदृश ही कहा गया है। * बिलोकसार गा० ३८९-३९१ में कहा गया है कि भरत क्षेत्र का सूर्य जब निषधाचल के ऊपर १४६२१ उपयो० आता है तब चक्रवर्ती द्वारा देखा जाता है किन्तु यहाँ गाथा ४३४-४३५ में Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] कहा गया है कि भरतक्षेत्र का सूर्य जब निषघाचल के ऊपर ५५७४ ३४ यो० पाता है तब चक्रवर्ती द्वारा देखा जाता है । इन दोनों कथनों का समन्वय गाथा ४३५ के विशेषार्थ में किया गया है, फिर भी यह विषय विचारणीय है। * गाथा ४३७ से प्रारम्भ कर अनेक गाथाओं में कहा गया है कि सूर्य जब भरतक्षेत्र में उदित होता है तब विदेह की क्षेमा आदि नगरियों में कितना दिन अथवा रात्रि रहती है । इस ग्रंथ में यह विषय अपूर्व है अतः विशेष रूप से द्रष्टव्य है। * गाथा ८२ में ग्रह-समूह की नरियों का अवस्थान १२ यो बाहत्य में कहा है। उसी प्रकार गा० ४९१-९२ में जघन्य, मध्यम उत्कृष्ट नक्षत्रों के एवं अभिजित् नक्षत्र के मण्डल क्षत्रों का प्रमाण क्रमश: ३०६०1९० और १८ यो० कहा गया है. इस विषय का अन्त गा० ५०७ पर हुआ है। यह विषय बुद्धिगत नहीं हुमा, अतः विशेष विचारणीय है । * ५२९ से ५३२ तक की ४ गाथाएँ अपने अर्थ को स्पष्ट रूप से कहने में समर्थ नहीं पाई गई अत। इनका प्रतिपाद्य विषय पिलोकसार के आधार से पूर्ण करने का प्रयास किया है । ये विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं। पृ० ४२२ पर गद्य भाग में चन्द्र-सूर्य दोनों का अन्तराल एक सहश ४७९१४१५१ यो० कहा है । जब चन्द्र-सूर्य दोनों का व्यास भिन्न-भिन्न है तब अन्तराल का प्रमाण सदृश कैसे ? विशेषार्थ में विषय स्पष्ट करने का प्रयास किया है, फिर भी विचारणीय है। श्री पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री ( भीण्डर ) ने ज्योतिषी देवों के विषय में कुछ शंकाएँ भेजी थीं । सर्वोपयोगी होने से वह शंका-समाधान यहाँ दिया जा रहा है शंका-ज्योतिषी देवों के इंद्र के परिवार देव कौन-कौन हैं ? समाधान-गाथा ५६-६० में इन्द्र (चन्द्र ) के सामानिक, तनुरक्षक, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, पाभियोग्य और किस्विष ( लोकपाल और आयस्त्रिश को छोड़कर ) ये आठ प्रकार के परिवार देव कहे हैं। ___ शंका-ये आठ भेद युक्त परिवार देव केवल इन्द्र के होते हैं या अन्य प्रतीन्द्रादि के भी होते हैं ? समाधान-गाथा ७८ में सूर्य प्रतीन्द्र के ( इन्द्रको छोड़कर ) सामानिक, तनुरक्षक, तीनों पारिषद, प्रकीर्णक, अनीक आभियोग्य और किल्विष ये सात प्रकार के परिवार देव कहे गये हैं। गा० ८८ में ग्रहों के, गा० १०७ में नक्षत्रों के और त्रिलोकसार गाथा ३४३ में तारागण के भी माभियोग्य देव कहे गये हैं । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] शंका-क्या ग्रह, नक्षत्र और तारागण इन्द्र { चन्द्र ) के परिवार देव नहीं हैं ? समाधान- गा० १२-१३ में ज्योतिषी देवों के इन्द्रों ( चन्द्रों) का प्रमाण है । गाथा १४ में प्रतीन्द्रों ( सूर्यो) का, गा० १५-२४ तक ग्रहों का, गा० २५ से ३० तक नक्षत्रों का और गा० ३१ से ३५ तक इन्द्रों के परिवार में ताराओं का प्रमाण कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि ग्रह, नक्षत्र और तारागरण आठ प्रकार के भेदों से भिन्न परिवार देव हैं । पाठवां महाधिकार-* गाथा ८३ में ऋजु विमान की प्रत्येक दिशा में ६२ थेणीबद्ध कहे पससे ज्ञात होता है कि सर्वार्थ सिद्धि में कोई श्रेणीबद्ध विमान नहीं है किन्तु ति० १० कार पाचार्य स्थय गाथा ८५ में जिन प्राचार्यों ने ६२ श्रेणी का निरूपण किया है उनके उपदेशानुसार सर्वार्थसिद्धि के आश्रित भी चारों दिशाओं में एक-एक श्रेणीबद्ध विमान हैं' कहकर तिरेसठ श्रेणीबद्ध विमानों की मान्यता पुष्ट करते हैं, फिर पाठान्तर गाथा ८४ के कथन में और इस कथन में क्या अंतर रहा ? जब गा० ८३ स्वय की है तब ८५ में "जिन प्राचार्यों ने ........ ' ऐसा क्यों कहा है ? यह रहस्य समझ में नहीं आया। * गाथा १०० में सर्वार्थसिद्धि विमान को पूर्वादि चार दिशाओं में विजयादि चार श्रेणीबद्ध कहे हैं । गाथा १२६ में वही विषय पाठान्तर के रूप में कहा गया है । ऐसा क्यों ? ___* यथार्थ में पाठान्त र पद गाथा १२५ के नीचे आना चाहिए था। क्योंकि इसमें दिशाएँ प्रदक्षिणा क्रम से न देकर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर इस रूप से दी गई है। * गाथा ९९ और १२३ बिलकुल एक सदृश हैं। क्यों ? गाथा १०८ में चउम्बिहेसु के स्थान पर घाउ दिगेसु ( चारों दिशाओं में ) पाठ अपेक्षित है। * गाथा ११५-११६ में कल्पों के बारह और सोलह दोनों प्रभारणों को अन्य-अन्य आचार्यों के उघोषित कर दिये गये हैं तब स्वयं ग्रन्थकार को कितने कल्प स्वीकृत हैं ? * ग्रन्थकार ने गा० १२० में बारह कल्प स्वीकृत कर गा० १२७-१२८ में मोलह कल्प पाठान्तर में कहे हैं ? * गाथा १३७ से १४६ तक के भाव को समझकर पृ० ४७३ पर बना हुआ ऊर्ध्वलोक का चित्र और मुखपृष्ठ पर बना हुआ तोन लोक का चित्र नया बनाया है। इसके पूर्व त्रिलोकसार, सिद्धान्त पार दीपक एवं तिलोयपणत्तो के प्रथम और द्वितीय खण्डों की लोकाकृति में सौधर्मशान आदि कल्पों के जो चित्रण दिये हैं वे गलत प्रतीत होते हैं । यह भी विचारणीय है। * गाथा १४८ में पुनः सोलह कल्प पाठान्तर में कहे गये हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] * गा० २४६ में आनत आदि चारों इन्दों के अनीकों का प्रमाण कहा जाना चाहिए पा किंतु मानत-प्राणत इन्द्रों के अनीकों का प्रमाण न कहकर 'पारण-इंदादि-दुर्गे द्वारा आरण-अच्युत इन दो इन्द्रों के प्रतीकों काही प्रमाण कहा गया है । क्यों ? * गा० २१५ में वैमानिक देव सम्बन्धी प्रत्येक इन्द्र के प्रतीन्द्रादि दस प्रकार के परिवार देव कहे हैं और गा० २८६ में प्रतीन्द्र, सामानिक और शायस्त्रिश घेवों में से प्रत्येक के दस-दस प्रकार के परिवार देव अपने-अपने इन्द्र सदृश ही कहे हैं? यह कैस सम्भव है ? * गा० २८७ से २९६ तक सभी इन्द्रों के सभी लोकपालों के सामन्त, प्राभ्यन्तर, माध्यम और बाह्य पारिषद, अनीक, आभियोग्य, प्रकीर्णक और किल्विषिक परिवार देवों का प्रमाण कहा गया है। * इन्द्रों के निवास स्थानों का निर्देश करते हुए गा० ३४१ से ३४८ तक कितने इन्द्रकों एवं श्रेणीबद्धों में से कौन से नम्बर के श्रेणीबद्ध में इन्द्र रहता है यह कहा गया है किन्तु गा० ३४९ ३५० में इन्द्रकों तथा श्रेणीबद्धों की कुल संख्या निर्दिष्ट न करके मात्र जिद्दिट्ट' ( जिनेन्द्र द्वारा . देखे गये नाम वाले ) पद कहकर स्मान बताया गया है । * गा० ४१० में सुधर्मा सभा की ऊंचाई ३००० कोस कही गई है। जो विचारणीय है क्योंकि अकृत्रिम मापों में ऊँमाई का प्रमाण प्रायः लम्बाई घोड़ाई होता है। अर्थात ल. ४०० + चौ० २००_.. "= ३०० कोस होनी चाहिए। * गा० ५४८ में लान्तव कल्पके धनीक देवों के विरह काल का प्रमाण छूट गया है। * गा० ५६८, ५७५ और ५७६ का ताडपत्र खण्डित होने से इन गाथाओं का अर्थ विचारणीय है। * गा० ६२२ से ६३६ अर्थात् १४ गाथाओं का यथार्थ भाव बुद्धिगत नहीं हुआ। * गा० ६८१ का विशेषार्थ और नोट विशेष रूप से द्रष्टव्य और विचारणीय हैं । * गा० ६५२ से ६८५ का विषय भी स्पष्ट रूप से बुद्धिगत नहीं हुआ। र ९४०४७४०८१५६२५ योजन कहा गया प्रभारण धन मखम महाधिकार-गा. ४ में १४०४७४०८१५६२५ योजन - योजनों में है किन्तु गाथा में केवल योजन कहे गये हैं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] कार्यक्षेत्र-उदयपुर नगर के मध्य मण्डी की नाल स्थित १००८ श्री पार्वताय दि० जेन गण्डेलवाल मन्दिर में रहकर इस खण्डका अधिकांश भाग लिया गया था। शेष कार्य १३१२।१९८६ को सलुम्बर में पूर्ण हुआ। सम्बल-वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी, छोरोपसर्ग विजेता, जगत् के निर्धाज बन्धु १००८ श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर देव को चरण रज एवं हृदयस्थित अनुपम जिनेन्द्रभक्ति, आप्त-उपदिष्ट दिव्य वचनों के प्रति अगाधनिष्ठा और प्राचार्य कुन्दकुन्द देव की परम्परा में होने वाले २० वी शताब्दी के भाद्यगुरु समाधिसम्राट चारित्रचक्रवर्ती बाल ब्रह्मचारी प्राचार्य १०८ श्री शान्तिसागरजी महाराज के प्रथम शिष्य नाम दानारी महापोहाना १०८ श्री वीरसागरणी महाराज के प्रथमशिष्य बालब्रह्मचारी पट्टाधीशाचार्य वीक्षा गुरु १०८ श्री शिवसागरणी महाराज, उनके पट्ट पर आरूढ़ मिथ्यात्वरूपी कर्दम से निकालकर सम्यक्त्वरूपी स्वच्छ जल में स्नान कराने वाले परमोपकारी बालब्रह्मचारी पट्टाधीशाचायं १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज, प्रभीषणज्ञानोपयोगी, विद्यारसिक, ज्ञानपिपासु, बालब्रह्मचारी विद्यागुरु पट्टाधीशाचार्य १०८ श्री प्रमितसागरजी महाराज, परम श्रद्धेय अनुभववृद्ध, शिक्षागुरु आचार्य कल्प १०८ श्री वृत्तसागरजी महाराज और ग्रन्थ लेखन के लिए असीम भाशीर्वाद प्रदाता १०८ श्री सम्मतिसागरजी बादि सभी आचार्य एवं साधु परमेष्ठियों का शुभाशीर्वाद रूप वरद हस्त ही मेरा सबल सम्बल रहा है। क्योंकि जैसे अन्धा व्यक्ति लकड़ी के आधार बिना चल नहीं सकता से ही देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति बिना मैं भी यह महान कार्य नहीं कर सकती थी। ऐसे तारण-तरण देय, शास्त्र गुरु को मेरा हादिक कोटिशः त्रिकाल नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु !! नमोस्तु !!! सहयोग-सम्पायक श्री चेतनप्रकाराणी पाटनी सौम्य मुद्रा, सरल हृदय, संयमित जीवन, मधुर किन्तु सुस्पष्ट भाषा भाषी, विद्वान् और समीचीन जान भण्डार के धनी हैं। आधि और व्याधि तथा म्याधि सदृश उपाधिरूपी रोग से भाप अनिश अपना बचाव करते रहते हैं। निर्लोभ वृत्ति आपके जीवन की सबसे महान् विशेषता है । हिन्दी भाषा पर आपका विशिष्ट अधिकार है। आपके द्वारा किये हुए यथोचित संशोधन, परिवर्तन एवं परिवर्धनों से ग्रंथ को विशेष सौष्ठव प्राप्त हुआ है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म अर्थ प्रादि को पकड़ने की तत्परता प्रापको पूर्व-पुण्य योग से सहज ही उपलब्ध है। सम्पादन कार्य के अतिरिक्त भी समय-समय पर प्रापका बहुत सहयोग प्राप्त होता रहता है । प्रो० श्री लक्ष्मीचन्द्रको जन जबलपुर ने पंचम महाधिकार में उन्नीस विकल्पों द्वारा द्वीपसमुद्रों के अल्पबहुत्व सम्बन्धी गणित को एवं तिर्यंचों के प्रमाण सम्बन्धी गणित को स्पष्ट कर, गरिगत की दृष्टि से सम्पूर्ण ग्रंथ का अवलोकन कर तथा गणित सम्बन्धी प्रस्तावना लिखकर सराहनीय सहयोग दिया है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१ ] पूर्वावस्था के विद्यागुरु, सरस्वती की सेवा में अनवरत संलग्न, सरल प्रकृति और सौम्याकृति विनिय रहेगानि श्री के. पाला बारमात्रा शागर की सत्प्रेरणा से ही यह महान् कार्य सम्पन्न हुआ है। उदारमना बी निर्मलकुमारजी सेठी इस ज्ञानयज्ञ के प्रमुख यजमान हैं। प्रापने सेठी ट्रस्ट के विशेष द्रव्य से ग्रंथ के तीनों खण्ड भव्यजनों के हाथों में पहुँचाये हैं। आपका यह अनुपम सहयोग अवश्य ही विशुद्धज्ञान में सहयोगी होगा। संघस्थ ब्रह्मचारी श्री कजोड़ीमलजी कामदार ने इसके अनुदान की संयोजना प्रादि में अथक श्रम किया है उनके सहयोग के बिना संथ प्रकाशन का कार्य इतना शीघ्र होना सम्भव नहीं था। प्रेस मालिक श्री पांवलालजी मदनगंज-किशनगढ़, श्री विमलप्रकाशजी डाफ्टमेन अजमेर, श्री रमेशकुमारजी मेहसा उदयपुर एवं श्री दि० जैन समाज का अर्थ आदि का सहयोग प्राप्त होने से ही आज यह तृतीय खण्ड नवीन परिधान में प्रकाशित हो पाया है। प्राशीर्वाद-इस सम्यग्ज्ञान रूपी महायज्ञ में तन, मन एवं धन प्रादि से जिन-जिन भव्य जीवों . ने जितना जो कुछ भी सहयोग दिया है वे सब परम्पराय शीघ्र ही विशुद्ध ज्ञानको प्राप्त करें; यहो .. मेरा मंगल आशीर्वाद है। मुझे प्राकृत भाषा का किञ्चित् भी ज्ञान नहीं है । बुद्धि अल्प होने से विषयज्ञान भी न्यूनतम है। स्मरणशक्ति और शारीरिक शक्ति भी क्षोण होती जा रही है। इस कारण स्वर, व्यंजन, पद, अर्थ एवं गणितीय अशुद्धियां हो जाना स्वाभाविक हैं क्योंकि-'को न विमुहयति शास्त्र समुद्रे' अतः परम पूज्य गुरुजनों से इस अविनय के लिए प्रायश्चित्त प्रार्थी हूँ। विद्वज्जन ग्रंथ को शुद्ध करके ही अर्थ ग्रहण करें। इत्यलम् ! भद्र भूयात्--- वि० सं० २०४५ महाबीर जयन्ती -प्रायिका विशुद्धमतो दिनांक ३१५३।१९८८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभीषणज्ञानोपयोगी, पार्षमार्ग पोषक .. परम पू० १०५ प्रायिका श्री विशद्धमती माताजी [संक्षिप्त जीवन वृत्त ] 1 गेहुँमा वर्ण, मझोला कद, अनतिस्थूल शरीर, चौड़ा ललाट, भीतर तक झांकती सो ऐनक धारण की हुई आँखें, हितमित प्रिय स्पष्ट बोल, संयमित सधी चाल और सौम्य मुखमुद्रा-बस, यही है उनका अंगन्यास। नंगे पांव, लुञ्चितसिर, धवल शाटिका, मयूरपिच्छिका-बस, यही है उनका देष विन्यास । विषयाशाविरक्त, ज्ञानध्यान तप जप में सदा निरत, करुणासागर, परदुःख कातर, प्रवचनपटु, निस्पृह, समता-विनय-धैर्य और सहिष्णुता की साकारमूति, भद्रपरिणामी, साहित्य सृजनरत, साधना में बज से भी कठोर, वातसल्य में नवनीत से भी मृदु, आगमनिष्ठ, गुरुभक्तिपरायण, प्रभावनाप्रियबस, यही है उनका प्रन्सर प्राभास । जूली और जया, जानकी और जेनुन्निसा सबके जन्मों का लेखा जोखा नगर पालिकायें रखती हैं पर कुछ ऐसी भी हैं जिनके जन्म का लेखा जोखा राष्ट्र, समाज और जातियों के इतिहास स्नेह और श्रद्धा से अपने अंक में सुरक्षित रखते हैं। वि० सं० १९८६ की चैत्र शुक्ला तृतीया को रीठी (जबलपुर, म०प्र०) में जन्मी वह बाला मुमित्रा भी ऐसी ही रही है जो आज हैं प्रायिका विशुद्धमती माताजी । इस शताब्दी के प्रसिद्ध सन्त पूज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णी के निकट सम्पर्क से संस्कारित धार्मिक गोलापूर्व परिवार में सद्गृहस्थ पिता श्री लक्ष्मण लालजी सिंघई एवं माता सौ. मथुराबाई की पांचवीं सन्तान के रूप में सुमित्राजी का पालन-पोषण हुआ । घूटी में ही दयाधर्म और सदाचार के संस्कार मिले । फिर थोड़ी पाठशाला की शिक्षा, बस ; सब कुछ सामान्य विलक्षणता का कहीं कोई चिह्न नहीं । आयु के पन्द्रह वर्ष बीतते-बीतते पास के ही गांव बाकल में एक घर की वधू बनकर सुमित्राजी ने पिता का घर छोड़ा । इतने सामान्य जीवन को लखकर तब कैसे कोई अनुमान कर लेसा कि यह बालिका एक दिन ठोस प्रागमज्ञान प्राप्त करके स्व-पर कल्याण के पथ पर प्रारूढ़ हो स्त्री पर्याय का उत्कृष्ट पद प्राप्त कर लेगी। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] सच है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है । चन्द्रमा एवं सूर्य को राहु और केतु नामक ग्रह विशेष से पीड़ा, सर्प तथा हाथी को भी मनुष्यों द्वारा बन्धन और विद्वद्जन की दरिद्रता देखकर अनुमान लगाया जाता है कि नियति बलवान है और फिर काल ! काल तो महाक्रूर है ! 'अपने मन कछु और है विधना के कद्दू और' । दैव दुविपाक से सुमित्राजी के विवाह के कुछ ही समय बाद उन्हें सदा के लिये मातृ-पितृ वियोग हुआ और विवाह के डेढ़ वर्ष के भीतर ही कन्या जीवन के लिये अभिशाप स्वरूप वैधव्य ने आपको आ घेरा । अब तो सुमित्राजी के सम्मुख समस्याओं से घिरा सुदीर्घ जीवन था । इष्ट वियोग (पति और माता-पिता) से उत्पन्न हुई असहाय स्थिति बड़ी दारुण थी। किसके सहारे जीवन-यात्रा व्यतीत होगी ? किस प्रकार निश्चित जीवन मिल सकेगा ? अवशिष्ट दीर्घजीवन का निर्वाह किस विधि होगा ? इत्यादि नाना प्रकार की विकल्प लतरियां मानस को मथने लगीं। भविष्य प्रकाशविहीन प्रतीत होने लगा । संसार में शीलवती स्त्रियां धैर्यशालिनी होती हैं, नाना प्रकार की विपत्तियों को वे हँसते-हंसते सहन करती हैं। निर्धनता उन्हें डरा नहीं सकती, रोगशोकादि से वे विचलित नहीं होतीं परन्तु प्रतिवियोगसंदृश दारुण दुःख का वे प्रतिकार नहीं कर सकती हैं। यह दुःख उन्हें असह्य हो जाता है । ऐसी दु:ख पूर्ण स्थिति में उनके लिये कल्याण का मार्ग दर्शाने वाले विरल ही होते हैं और सम्भवतया ऐसी ही स्थिति के कारण उन्हें 'अबला' भी पुकारा जाता है । परन्तु सुमित्राजी में आत्मबल प्रगट हुआ, उनके अन्तरंग में स्फुरणा हुई कि इस जीव का एक मात्र सहायक या अबलम्बन धर्म ही है । 'धर्मो रक्षति रक्षित: ' 1 अपने विवेक से उन्होंने सारी स्थिति का विश्लेषण किया और 'शिक्षार्जन' कर स्वावलम्बी ( अपने पाँवों पर खड़े ) होने का संकल्प लिया । भाइयों- श्री नीरजजी मोर श्री निर्मलजी सतना - के सहयोग से केवल दो माह पढ़ कर प्राइमरी की परीक्षा उत्तीर्ण की। मिडिल का त्रिवर्षीय पाठयक्रम दो वर्ष में पूरा किया और शिक्षकीय प्रशिक्षण प्राप्त कर श्रध्यापन की अर्हता अजित की और अनन्तर सागर के उसी महिलाश्रम में जिसमें उनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ था - अध्यापिका बनकर सुमित्राजी ने स्व + अवलम्बन के अपने संकल्प का एक चरण पूर्ण किया । सुमित्रा ने महिलाश्रम ( विधवाश्रम ) का सुचारु रीत्या संचालन करते हुए करीब बारह वर्ष पर्यन्त प्रधानाध्यापिका का गुरुत्तर उत्तरदायित्व भी संभाला। आपके सप्रयत्नों से आश्रम में श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय की स्थापना हुई। भाषा और व्याकरण का विशेष अध्ययन कर आपने भी 'साहित्यरत्न' और 'विद्यालंकार' की उपाधियों अजित कीं। विद्वशिरोमणि डॉ० प० पन्नालालजी साहित्याचार्य का विनीत शिष्यत्व स्वीकार कर आपने 'जैन सिद्धान्त' में प्रवेश किया और धर्मविषय में 'शास्त्री' की परीक्षा उत्तीर्ण की। अध्यापन और शिक्षार्जन की इस संलग्नता ने सुमित्राजी के जीवन विकास के नये क्षितिजों का उद्घाटन किया । शनैः शनैः उनमें 'ज्ञान का फल' अकुरित होने लगा। एक सुखद संयोग ही समझिये कि सन् १९६२ में परमपूज्य परमश्रद्धेय ( स्व ० ) आचार्यं Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] श्री धर्मसागरजी महाराज का वर्षायोग सागर में स्थापित हुका शाप पर निरोधवृत्ति और शान्त सौम्य स्वभाव से सुमित्राजी अभिभूत हुईं। संघस्थ प्रवर वक्ता पूज्य १०८ ( स्व ० ) श्री सन्मति - सागरजी महाराज के मार्मिक उद्बोधनों से श्रापको असीम बल मिला और श्रापने स्व + अवलम्बन के अपने संकल्प के अगले चरण की पूर्ति के रूप में चारित्र का मार्ग अंगीकार कर सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। विक्रम संवत् २०२१ श्रावण शुक्ला सप्तमी, दि० १४ अगस्त १९६४ के दिन परम पूज्य तपस्वी, अध्यात्मवेत्ता, चारित्रशिरोमणि, दिगम्बराचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के पुनीत कर-कमलों से ब्रह्मचारिणी सुमित्राजी की प्रायिका दीक्षा प्रतिशय क्षेत्र पपोराजी ( म०प्र० ) में सम्पन्न हुई । अब से सुमित्राजी 'विशुद्धमती' बनीं । बुन्देलखण्ड में यह दीक्षा काफी वर्षों क अन्तराल से हुई थी अतः महती धर्मप्रभावना का कारण बनी । I आचार्यश्री के संघ में ध्यान और अध्ययन की दिविष्ट परम्पराठों के अनुरूप नवदीक्षित afrist के नियमित शास्त्राध्ययन का श्रीगणेश हुआ । संघस्य परम पूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज ने द्रव्यानुयोग और करणानुयोग के ग्रंथों में आर्यिका श्री का प्रवेश कराया । श्रभीक्ष्णज्ञानोपयोगी पूज्य श्रजितसागरजी महाराज ( वर्तमान पट्टाधीश प्राचार्य ) ने न्याय साहित्य, धर्म और व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन कराया। जैन गणित के अभ्यास में और षट्खण्डागम सिद्धान्त के स्वाध्याय में ( स्व ० ) ० पं० रतनचन्द्रजी मुखतार आपके सहायक बने । सततपरिश्रम, अनवरत अभ्यास और सच्ची लगन के बल पर पूज्य माताजी ने विशिष्ट ज्ञानार्जन कर लिया। यहां इस बात का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि दीक्षा के प्रारम्भिक वर्षों में आहार में निरन्तर अन्तराय आने के कारण आपका शरीर अत्यन्त अशक्त और शिथिल हो चला था पर शरीर में बलवती आत्मा का निवास था । श्रावकों वृद्धों ही नहीं अच्छी आंखों बाल युवकों की लाब सावधानियों के बावजूद भी अन्तराय आहार में बाधा पहुँचाते रहे। आयिकाश्री की कड़ी परीक्षा होती रही । असाता के क्षमत के लिये अनेक लोगों ने अनेक उपाय करने के सुझाव दिये, आचार्यश्री ने कर्मोपशमन के लिये वृहत्शांतिमंत्र का जाप करने का संकेत किया पर आर्थिकाश्री का विश्वास रहा है कि समताभाव से कर्मों का फल भोगकर उन्हें निर्जीर्ण करना ही मनुष्य पर्याय की सार्थकता है, ज्ञानकी सार्थकता है । आपकी आत्मा उस विषम परिस्थिति में भी विचलित नहीं हुई, कालान्तर में वह उपद्रव कारण पाकर शमित हो गया । पर इस अवधि में भी उनका अध्ययन सतत जारी रहा। माथिकाश्री द्वारा की गई 'त्रिलोकसार' की टीका के प्रकाशन के अवसर पर प० पू० आचार्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज ने आशीर्वाद देते हुए लिखा "सागर महिलाश्रम की अध्ययनशीला प्रधानाध्यापिका सुमित्राबाई ने अतिशय क्षेत्र पपौरा में आर्यिका दीक्षा धारण की थी। तत्पश्चात् कई वर्षों तक अन्तरायों के बाहुल्य के कारण शरीर से Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] अस्वस्थ रहते हुए भी वे धर्मग्रन्थों के पठन में प्रवृत्त रहीं। प्रापने चारों ही अनुयोगों के निम्नलिखित ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है । करणानुयोग-सिद्धान्तशास्त्र धबल (१६ खण्ड), महाधयल, ( दो खण्डों का अध्ययन हो चुका है, तीसरा खण्ड चालू है ।) ध्यानुयोग-समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, इष्टोपदेश, समाधिशतक, मात्मानुशासन, वृहद्रव्यसंग्रह । न्यायशास्त्रों में न्यायदीपिका, परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला । ज्याकरण में कातन्त्ररूपमाला, कलापब्याकरण, जैनेन्द्र लघुत्ति, शब्दार्णवचन्द्रिका । चरणानुयोग-रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अनगार धर्मामृत, मूलाराधना, प्राचारसार, उपासकाध्ययन । प्रयमानुयोग-सम्यक्त्व कौमुदी, क्षत्रचूड़ामणि, गद्यचिन्तामणि, जीवन्धरचम्पू, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि ।" ( त्रिलोकसार : आद्य पृ०६) इसप्रकार पूज्य माताजी ने इस अगाध आगम वारिधि का प्रवगाहन कर अपने ज्ञान को प्रौढ़ बनाया है और उसका फल अब हमें साहित्यसृजन के रूप में उनसे अनवरत प्राप्त हो रहा है। आज तो जैसे 'जिनवारणी की सेवा' ही उनका व्रत हो गया है। उन्होंने प्राचार्यों द्वारा प्रणीत करणानुयोग के विशाल काय प्राकृत संस्कृत ग्रंथों की सचित्र सरल सुबोध भाषा टीकायें लिखी हैं, साथ ही सामान्य जनोपयोगी अनेक छोटी बड़ी रचनाओं का भी प्रकाशन किया है। उनके द्वारा प्रणीत साहित्य की सूची इसप्रकार हैभाषा टोकाएं-१. श्रीमद् सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार की सचित्र हिन्दी टीका २. भट्टारक सकलकीति विरचित सिद्धान्तसार दीपक की हिन्दी टीका ३. परम पूज्य यतिवृषभाचार्य विरचित तिलोयपणती की सचित्र हिन्दी टीका ( तीन खण्डों में ) मौलिक रचनाएँ-१. श्रुतनिकुञ्ज के किंचित् प्रसून ( व्यवहार रत्नत्रय की उपयोगिता) २. गुरु गौरत्र ३. श्रावक सोपान और बारह भावना ४. धर्म प्रवेशिका प्रश्नोत्तर माला ५. धर्मोद्योत प्रश्नोत्तर माला संकलन-१. शिवसागर स्मारिका २. आत्मप्रसून सम्पादन–१. समाधिदीपक २. श्रमणचर्या ३. दीपावली पूजन विधि ४. श्रावक सुमन संचय ५. स्तोत्रसंग्रह ६. श्रावकसोपान ७. आयिका आयिका है, श्राविका नहीं ८. संस्कार ज्योति ९. छहढाला अब तक आपने पपौरा, श्रीमहावीरजी, कोटा, उदयपुर, प्रतापगढ़, टोडारायसिंह, भीण्डर, अजमेर, निवाई, किशनगढ़ रेनवाल, सवाईमाधोपुर, सीकर, चूण, भीलवाड़ा आदि स्थानों पर वर्षायोग सम्पन्न किये हैं । टोडारायसिंह, उदयपुर, रेनवाल, निवाई में आपके क्रमशः दो, पांच, दो और तीन बार चातुर्मास हो चुके हैं। सर्वत्र आपने महती धर्मप्रभावना की है और श्रावकों को सन्मार्ग में Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] प्रवृत्त किया है। श्री शान्तिवीर गुरुकुल जोबनेर को स्थायित्व प्रदान करने के लिये आपकी प्रेरणा से श्री दि० जैन महावीर चैत्यालय का नवीन निर्माण हुआ है और वेदी प्रतिष्ठा भी हुई है। जनधन एवं आवागमन आदि अन्य साधन विहीन अलयादी ग्राम स्थित जिन मन्दिर का जीर्णोद्धार, मवीन जिनबिम्ब की रचना, नवीन वेदी का निर्माण एवं वेदी प्रतिष्ठा आपके ही सद्प्रयत्नों का फल है । श्री दि. जैन धर्मशाला टोडारायसिंह का नवीनीकरण एवं अशोकनगर, उदयपुर में श्री शिवसागर सरस्वती भवन का निर्माण आपके मार्गदर्शन का ही सुपरिणाम है। श्री श्र० सूरजबाई मु० ड्योढी ( जयपुर ) की क्षुल्लिका दीक्षा, ब्रा मनफूलबाई ( टोडा रायसिंह ) को आठवीं प्रतिमा एवं श्री कजोड़ीमलजी कामदार ( जोबनेर ) को दूसरी प्रतिमा के व्रत आपके करकमलों से प्रदान किये गये हैं। शास्त्रसमुद्र का पालोड़न करने वाली पूज्य माताजी की आगम में अटूट आस्था है । क्षुद्र भौतिक स्वार्थो के लिये सिद्धान्तों को अपने अनुकूल तोडमोड़ कर प्रस्तुत करने वाले आपको दृष्टि में अक्षम्य हैं । सज्जातित्व में आपकी पूर्ण निष्ठा है। विधवा विवाह और विजातीय विवाह आपकी दृष्टि में कथमपि शास्त्रसम्मत नहीं है । आचार्य सोमदेव की इस उक्ति का पाप पूर्ण समर्थन करती है स्वकीया: परकीयाः वा मर्यादालोपिनो नराः । नहि माननीयं तेषां तपो वा श्रुतमेव च ।। अर्थात् स्वजन से या परजन से, तपस्वी हो या विद्वान् हो किन्तु यदि वह मर्यादानों का लोप करने वाला है तो उसका कहना भी नहीं मानना चाहिये । (धर्मोद्योत प्रश्नोत्तर माला तृतीय संस्करण पृ० ६६ से उद्धृत ) पूज्य माताजी स्पष्ट और निर्भीक धर्मोपदेशिका हैं । जनानुरंजन की क्षुद्रवृत्ति को आप अपने पास फटकने भी नहीं देती । अपनी चर्या में 'वज्रादपि कठोराणि' हैं तो दूसरों को धर्ममार्ग में लगाने के लिये 'मृदुनि कुसुमादपि' । ज्ञानपिपासु माताजी सतत ज्ञानाराधना में संलग्न रहती हैं और तदनुसार आत्म-परिष्कार में प्रापकी प्रवृत्ति चलती है। सिद्धान्तसारदीपक' की प्रस्तावना में परमादरणीय पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य ने लिखा है--"माताजी की अभीक्षण ज्ञानाराधना और उसके फलस्वरूप प्रकट हुए क्षयोपशम के विषय में क्या लिग्नू ? अल्पवय में प्राप्त वैधव्य का अपार दुःख सहन करते हुए भी इन्होंने जो वैदुष्य प्राप्त किया है वह साधारण महिला के साहस की बात नहीं है । ...ये सागर के महिलाश्रम में पढ़ती थीं। मैं धर्मशास्त्र और संस्कृत का अध्ययन कराने प्रातः काल ५ बजे जाता था । एक दिन गृहप्रबन्धिका ने मुझसे कहा कि रात में निश्चित समय के बाद आश्रम की ओर से मिलने वाली लाइट की सुविधा जब बन्द हो जाती है तब ये खाने के धृत का दीपक जलाकर चुप चाप पढ़ती रहती हैं और भोजन घृतहीन कर लेती हैं । गृहप्रबन्धिका के मुख से इनकी अध्ययनशीलता Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] की प्रशंसा सुन जहाँ प्रसन्नता हुई वहाँ अपार वेदना भी हुई। प्रस्तावना की ये पंक्तियां लिखते समय वह प्रकरण स्मृति में आ गया और नेत्र सजल हो गये । लगा, कि जिसकी इतनो अभिरुचि है अध्ययन में, वह अवश्य ही होनहार है । ........ त्रिलोकसार की टीका लिखकर प्रस्तावना लेख के लिए जब मेरे पास मुद्रित फर्मे भेजे गये तब मुझे लगा कि यह इनके तपश्चरण का ही प्रभाव है कि इनके ज्ञान में आश्चर्यजनक वृद्धि हो रही है । वस्तुतः परमायं भी यही है कि द्वादशांग का जितना विस्तार हम सुनते हैं वह सब गुरुमुख से नहीं पढ़ा जा सकता। तपश्चर्या के प्रभाव से स्वयं ही शानावरण का ऐसा विशाल क्षयोपशम हो जाता है कि जिससे अंगपूर्व का भी विस्तृत ज्ञान अपने आप प्रकट हो जाता है । श्रुतकेवली बनने के लिये निर्ग्रन्य मुद्रा के साथ विशिष्ट तपश्चरण का होना भी आवश्यक रहता है।" दृढ़ संयमी, मामार्ग की कट्टर पोषक, निस्पृह, परम विदुषी, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, निर्भीक उपदेशक, आगम मर्मस्पर्शी, मोक्षमार्ग की पथिक, स्वपर उपकारी पूज्य माताजी के चरणों में शत शत नमोस्तु निवेदन करता हूँ और उनके दीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ ताकि उनकी स्यावाद मयी लेखनी से जिनवाणी का हार्द हमें इसीप्रकार प्राप्त होता रहे और इस विषमकाल में हम भ्रान्त जीवों को सच्चा मार्गदर्शन मिलता रहे । पूज्य माताजी के पुनीत चरणों में शत शत वन्दन । इति शुभम् --चेतनप्रकाश पाटनी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टोकाकी प्रायिका श्री विशुद्धमती माताजी के विद्यागुरु प० पू० अभीषणशानोपयोगी प्राचार्यरत्न १०८ श्री अजितसागरजी महाराज का उन्हीं की हसत-लिपि में ' मंगल आशीर्वाद तिलोयपणात्ति ग्रन्य गतिवृषभाचार्य द्वारा रमिल अतिप्राचीन कृति है। यह ग्रन्थ यथा नाम तभा गुणानुसार लीमलेोक का अति निस्सल एवं हल वर्णन करता उधनि के नर्णन में कल्पवासी समाल्पातीन हेनों का निस्तत निक्लन है। मध्यलार के कमन में ज्मोलिभी देनों का एनं असेस्प्यात दीपसमदों का अति निराद निरूपण है, लमा अभोलेक के विजेचन में भवनमासी, मन्तरदेवों का कमाल करते हुए नरमादि का निस्तारपूर्वक वर्णन किया है। अतः इस ग्रन्मने अध्ययन मामम से भष्यप्राणी भलभीर मन सम्मादर्शन के। जान कर अपने सम्माजाम की द्धि करते हुए यथाशति अमृत महाजल को पारण कर सुनारुरीमा पालन कर स्वर्गमोस के सुख को प्राप्त करें निगुणपति करणानुयोग की मर्मजा, याख्यान कला में अति निशुणा, निमम परिस्थिति मोसम करने में तत्परा एवं अपने सानिध्य में समागत निकानों से निमादास्पद निभानों पर निर्भरतापून त्यामोचित एवं आगमसम्मतची कर ठोस निर्णय करती है। अलिनिकृष्ट इस मौषिक मुग में ऐसी निरमो आर्थिक की नितालाबरमकला है। यत पण्डिलन श्रेरिनन्द तमा त्यानिगणों के द्वारा किये गमे आगमानिसक प्रचार प्रसार को निसनोभान से निरोध कर सकें । ऐसी निदी मार्मिका निमुद्धमलिने पुरातन प्रतियों से मिलानकर अनिमरिभ्रमक इस गृत्य की सरल सुबोधहिन्दीका की है, अत: पाक गण इसका पठन पाठन चिन्तन एवं ममन कर रुपने साम्यग्ज्ञान की वृद्धि करें तमा जैलशासपचार प्रसार में सहायक बन उर्लभता से मान नरजन्म को सफल करें।हिन्दीटीना कनारोग रहकर शेषस जीवन को जान से सील करते हुए अपने लक्ष्य की सिधि में सतनसेलानरहे लेमी मेरी मम्ल . नमा मेरा यही शभासीनीद है कि निरोगधमयोगी मनपाल न्यों का मनुनाद कर श्रुतासमना करती रहें और जामिलजलों की हालत में सटामिका बने । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय तिलोय पण्णत्ती : तृतीय खण्ड [ ५, ६, ७, ८, ९ महाधिकार ] प्राचीन कन्नड़ प्रतियों के आधार पर सम्पादित तिलोयपणसी का यह तीसरा और अन्तिम खण्डजिसमें पांच, छठा सातवाँ धाठवा और नवौं महाधिकार सम्मिलित है-अपने पाठकों तक पहुंचाते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। आचार्य यतिवृषभ द्वारा रचित प्रस्तुत ग्रन्थ लोकरचना विषयक साहित्य की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है जिसमें प्रसंगवश धर्म, संस्कृति व इतिहास-पुरास से सम्बन्धित अनेक विषय गणित हुए हैं । तिलीपी के इन नो महाधिकारों का प्रथम प्रकाशन दो खण्डों में सन् १६४३ व सन् १९५१ में हुआ था । सम्पादक थे प्रो० हीरालाल जंत व प्रो० ए० एन० उपाध्ये पं० बालचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री ने गाथाओं का मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद किया था। सम्पादक द्वय ने उस समय ज्ञात प्राचीन प्रतियों के आधार पर अपनी प्रखर मेघा से परिश्रमपूर्वक बहुत सुन्दर सम्पादन किया था। प्रस्तुत सम्पादन में हमें उससे पर्याप्त सहायता मिली है, में उक्त विद्जनों का हृदय से अनुग्रहीत है। प्रस्तुत संस्करण की आधार प्रति जनकदी से प्राप्त लिप्यन्तरित ( कलर से देवनागरी ) प्रति है । बन्य सभी प्रतियों के पाठभेद टिप्पण में दिये गये हैं। सभी प्रतियों का विस्तृत परिचय ति० प० के प्रथमखण्ड की प्रस्तावना में दिया जा चुका है। क्योंकि हिन्दी टीका के सम्पादन की वहीं विधि अपनाई गई है जो पहले दो खण्डों में अपनाई गई थी पर्थात् उपलब्ध पराठों के आधार पर अर्थ को संगति को देखते हुए शुद्ध पाठ रखना ही बुद्धि का प्रयास रहा है। विशेषायं में तो सही पाठ या संशोधित पाठ की ही संगति बैठती है, विकृत पाठ की नहीं गणित और विषय के अनुसार जो संपटियों शुद्ध हैं उन्हें ही मूल में ग्रहण किया गया है, विकृत पाठ टिप्पणी में दिये गये हैं। पाठालोचन बोर पाठसंशोधन के नियमों के अनुसार ऐसा करना यद्यपि अनुचित है तथापि व्यावहारिक दृष्टि से इसे प्रतीब उपयोगी जानकर अपनाया गया है । भश्वा शास्त्रियों से एतदर्थं क्षमा चाहता हूँ । परम पूज्य अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी १०५ आर्थिका भी विशुद्धमती माताजी के गत पाँच-छह वर्षों के कठोर श्रम से इस जटिल गणितीय ग्रन्थ का यह सरल रूप हमें प्राप्त हुआ है। आपने विशेषार्थ में सभी दुहताओं को स्पष्ट किया है, गणितीय समस्याओं का हल दिया है, विषय को चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया है और अनेकानेक तालिकामों के माध्यम से विषय का समाहार किया है। कानड़ी प्रतियों के आधार पर सम्पादित इस संस्करण में प्रथम सम्पादित संस्करण से कुछ गाथामों की वृद्धि हुई है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] इसप्रकार पांचों अधिकारों में कुल १८२४ गाथाओं के स्थान पर १९५८ गाथाएँ हो गई है। जो निम्नतालिका से स्पष्ट है महाधिकार प्रथम सम्पादित संस्करण की कुल गाथाएं प्रस्तुत संस्करण में माषाएँ नवीन गाथाभों की क्रम संख्या पंचम महाधिकार ३२३ १७८, १८७-(२) xxx २४२, २७७, १०८, ५३५, ५६३%=(५) ३०६, ३२१, ३१९ =(२३) सप्तम ६१६ ६२४ पष्टम ७०३ ७२६ नयम , ८२ १८, १९, २०, २१-(४) प्रादुर संस्करण में सादे पाया निर को निर्दिष्ट करने के लिये उपशीर्षकों की योजना की गई है और तदनुसार ही विस्तृत विषयानुक्रमणिका तैयार की गई है। (क) पंचम महाधिकार : तिर्यग्लोक इस महाधिकार में कुल ३२३ गायाएं हैं, गद्यभाग अधिक है। १६ अन्तराधिकारों के माध्यम से विर्यश्लोक का विस्तृत वर्णन किया गया है। महाधिकार के प्रारम्भ में चन्द्रप्रभ मिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है। अनन्तर स्थाबरलोक का प्रमाण बताते हुए कहा गया है कि जहां तक आकाश में धर्म एवं मर्म द्रग्स के निमित्त से होने वाली जीव और पुद्गल की गतिस्थिति सम्भव है, उतना सब स्थावर मोक है। उसके मध्य में सुमेरू पर्वस के मूल से एक लाख योजन ऊँचा और एक राजू लम्बा चौड़ा तिर्यक असलोक है जहाँ तिर्यञ्च घस जीव भी पाये जाते है। तिलोक में परस्पर एक दूसरे को चारों ओर से रेष्टित करके स्थिस समवृस असंख्यात बीप समुद्र हैं। उन सबके मध्य में एक लाख पोजन विस्तार बाला जम्बूद्वीप नामक प्रपम द्वीप है। उसके चारों मोर दो नास योजन विस्तार से संयुक्त लवण समुद्र है । सके आगे दूसरा दीप और फिर दूसरा समुद्र है यही क्रम अन्त तक है। इन द्वीप समुद्रों का विस्तार उत्तरोतर पूर्व पूर्व की अपेक्षा दूना-दूना होता गया है। यहाँ प्रन्थकार में पादि और पन्त के सोलह-सोलह द्वीप समुद्रों के नाम भी दिये हैं। इनमें से प्रादि के मढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों की प्ररूपणा विस्तार से चतुर्थमहाधिकार ( ति०प० द्वितीय खण्ड ) में की जा चुकी है। इस महाधिकार में बाठ, ग्यारहवें और तेरहवें द्वीप का कुछ विशेष वर्णन किया गया है, अन्य दोषों में कोई विशेषता न होने से उनका वर्णन नहीं किया गया है । आठवें नन्दीश्वर द्वीप के विन्यास के बाद बताया गया है कि प्रतिवर्ष भाषाढ़, कार्तिक पोर फाल्गुन मास में इस द्वीप के बावन जिनालयों की पूजा के लिये भवनवासी आदि चारों प्रकार के देव शुक्लपक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक रहकर बड़ी भक्ति करते है। कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यत्तर पश्चिम में बौर ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में पूर्वाल, अपराल, पूर्वरात्रि व Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] पश्चिम रात्रि में दो-दो प्रहर तक अभिषेकपूर्वक जलवदनादिक प्राठ द्रव्यों से पूजन-स्तुति करते हैं। इस पूजन महोत्सव के निमित्त सौधर्मादि इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर मारूद होकर हाथ में कुछ फल-पुष्पादि लेकर नहीं जाते हैं। ___ अनन्तर कुण्डलवर और रुचकवर इन दो तोपों का संक्षिप्त वर्णन करके कहा गया है कि जम्बूद्वीप से आगे संख्यात द्वीप समुद्रों के पश्चाद एक दूसरा भी जम्बूद्वीप है। इसमें ओ विषयादिक देवों की नगरिया स्थित हैं, उनका वहाँ विशेष वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीप और उसके बीचों बीच वलयाकार से स्थित स्वयम्प्रभ पर्वत का निवेश कर यह प्रकट किया है कि लवणोद, कालोद और स्वयम्भूरमण ये तीन समुप कि कमभूमि सम्मस है, अतः इनमें तो जलपर जीव पाये जाते हैं किंतु अभ्य किसी समुद्र में नहीं । प्रनन्तर १९ पक्षों का उल्मेख करके उनमें द्वीप समुद्रों के विस्तार, खण्ड शलाकाओं, क्षेत्रफल सूचीप्रमाण और मायाम में जो उत्तरोतर वृद्धि हुई है उसका गणित प्रक्रिया के द्वारा बहुत विस्तृत विवेचन किया गया है। पश्चात् ३४ भेदों में विभक्त तियर जीवों की संख्या, भायु, मायुबन्धकभाव, उनकी उत्पत्तियोग्य योनियां, सुखदुःख, गुणस्थान, सम्यक्त्वग्रहण के कारण, गति-बागति आदि का कथन किया गया है। फिर उक्त ३४ प्रकार के लियंघों में अल्पबहुस्व और प्रववाहन विकल्पों का कथन कर पुष्पदन्त जिने को नमस्कार कर इस महाधिकार को समाप्त किया गया है। (स) षष्ठ महाधिकार : ध्यन्सर लोक कुल १०३ गाथाओं के इस अधिकार में १७ अन्तराधिकारों के द्वारा व्यन्तर देवों का निवास क्षेत्र, उनके भेद, चित, कुलभेव, नाम, दक्षिण-उत्तर इंद्र, वायु, माहार, उच्छ्वास, मधिज्ञान, शक्ति, उत्सेध, संख्या, जन्ममरण, आयुबन्नकभाव, सम्यक्त्वग्रहण विधि और गुणस्थानादि विकल्पों की प्ररूपणा को मई है। इसमें कतिपय विशेष बातें ही चल्लिखित हुई है, शेष प्रपणा तृतीय महाधिकार में वर्णित भवनवासी देवों के समान कह दी गई है। प्रारम्भिक मंगलाचरण में शीतलनाथ जिनेन्द्र को भऔर अन्त में श्रेयांसजिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है। (ग) सप्तम महाधिकार : ज्योतिर्लोक इस महाधिकार में कुल ६२४ गाथाएँ हैं और १७ अन्तराधिकार है। ज्योतिषी देवों का निवास क्षेत्र, उनके भेद, संख्या, विन्यास, परिमाण, संचार-चर ज्योतिषियों को गति, अधर ज्योतिषियों का स्वरूप, आयु, माहार, उच्छ्वास, उसेघ, अवधिमान, पाक्ति, एक समय में जीवों को उत्पसि व मरण, भायुबन्धक भाव, सम्परपर्सनग्रहण के कारण और गुणस्थानादिक वर्णन अधिकारों के माध्यम से विस्तृत प्ररूपणा की गई है। प्रारम्भ में श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र को नमस्कार किया है और अन्त में विमननाथ भगवान को। निवास क्षेत्र के अन्तर्गत बतलाया गया है कि एक राजू लम्बे चौड़े और ११० योबन मोटे क्षेत्र में ज्योतिषी देवों का निवास है। चित्रा पृथिवी से ७९० योजन ऊपर माकाश में सारागण, इनसे १० योजन ऊपर सूर्य, उससे ८० योजन ऊपर पन्द्र, उससे ४ योजन ऊपर नक्षत्र, उनसे ४ योजन ऊपर वृष, उससे ३ योजन पर शुक्र, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] उससे ३ योजन ऊपर गुरु, उससे ३ योजन ऊपर मंगल और उससे ३ योजन ऊपर जाकर शनि के विमान हैं । वे विमान ऊर्ध्वमुख अर्धगोलक के प्राकार हैं। ये सब देव इनमें सपरिवार बानन्द से रहते हैं । चन्द्र का चार क्षेत्र जम्बूद्वीप में १८० अपने मण्डल प्रमाण यो० विस्तार नीचे राहू विमान इन देवों में से चन्द्र को इंद्र और सूर्य को प्रतीन्द्र माना गया है। योजन और लवणसमुच में ३३०६ यो० है । इस चार क्षेत्र में चन्द्र की वाल १५ गलियाँ है । जम्बूद्वीप में दो चन्द्र हैं। विमानों से ४ प्रमाणगुल ( ८३ हाथ ) के ध्वजवण्ड है । ये अरिष्टरत्नमय विमान काले रंग के हैं। इनकीगति दिन राहु और पराहु के भेद से दो प्रकार है जिस मार्ग में चन्द्र परिपूर्ण दिखता है, वह दिन पूर्णिमा नाम से प्रसिद्ध है। राहु के द्वारा चन्द्रमण्डल की कलाओं को माच्छादित कर लेने पर जिस मार्ग में चन्द्र की एक कला ही अवशिष्ट रहती है, वह दिन भ्रमावस्या कहा जाता है । जम्बूद्वीप में सूर्य भी दो हैं। इनकी संचारभूमि ५१०६६ योजन है। इसमें सूर्यबिम्ब के समान विस्तृत और इस प्राधे बाल्य वाली १८४ वीथिंग हैं। सूर्य के प्रथमादि पथों में स्थित रहने पर दिन और रात्रि का प्रमाण दर्शाया गया है, इसके आगे कितनी धूप बोर कितना अंधेरा रहता है. यह विस्तार से बतलाया है। इसी प्रकार भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में सूर्य के उदयकाल में कहाँ कितना दिन मोर रात्रि होती है, यह भी निर्दिष्ट किया गया है । अनन्तरग्रहों को संचारभूमि व बीधियों का निर्देश मात्र किया गया है। विशेष वर्णन न करने का कारण सद्विषयक उपदेश का नष्ट हो जाना बतलाया गया है। इसके बाद २८ नक्षत्रों की प्ररूपणा की गई है । फिर ज्योतिषी देवों की संख्या, आहार, उच्छ्वास और उत्सेध आदि कहकर इस महाधिकार की समाप्ति की गई है । (घ) प्रष्टम महाधिकार : सुरलोक इस महाधिकार में ७२६ गाथाएँ हैं। वैमानिक देवों का निवास क्षेत्र, विन्यास, भेष, नाम, सीमा, विमान संख्या, इंद्रविभूति, पायु, जन्म-मरण अन्तर, बहार, उच्छ्वास, उश्लेष, भायुषन्धकभाव, लौकान्तिक देवों का स्वरूप, गुणस्थानादिक, सम्यक्त्वग्रहण के कारण, आगमन अवधिज्ञान, देवों की संख्या, शक्ति घौर योनि शीर्षक इक्कीस अन्तराधिकारों के द्वारा वैमानिक देवों की विस्तार से प्ररूपणा की है । तिलोयपण्णत्तीकार के समक्ष बारह और सोलह कल्पों विषयक भी पर्याप्त मतभेद रहा है। ग्रन्थकर्ता ने दोनों मान्यतायों का उल्लेख किया है। गाथा ५५२ त्रिलोकसार ग्रन्थ ( ५२६ ) में ज्यों की त्यों मिलती है। अधिकार के आरम्भ में भगवान घनन्तनाथ को बीर अंत में भगवान धर्मनाथ को नमस्कार किया गया है। (ङ) नवम महाधिकार : सिद्धलोक इस महाधिकार में कुल पर गाथाएं हैं। सिद्धों का क्षेत्र, उनकी संख्या, अवगाहना, सौख्य और सिद्धस्य के हेतु भूत माव-नामके पाँच पसराधिकार है। इस अधिकार की बहुत सी गायायें समयसार, प्रवचनसार घोर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] पंचास्तिकाय में दृष्टिगोचर होती हैं। अधिकार के प्रारम्भ में शान्ति जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है और मंत में थी कुन्थुनाथ भगवान, अरनाथ, महिमनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, ममिनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ बोर महावीर स्वामी को नमस्कार किया गया है। फिर एक गाथा में सिड, मूरिसमूह भोर साधुसंघ के जयवंत रहने की कामना की गई है । पुन: एक गाथा में भरत क्षेत्र के वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। फिर पंचपरमेष्ठी को नमन किया है । अन्त में तिलोयपण्णसी ग्रन्थ का प्रमाण माठ हजार लोक बताया गया है। मनन्तर ग्रन्थकर्ता ने अपनी विनम्रता व्यक्त करते हुए कहा है कि "प्रवचनभक्ति से प्रेरित होकर मैंने मार्गप्रभावना के लिये इस श्रेष्ठ ग्रन्थ को कहा है। बहुत के धारक आवायें इसे शुद्ध कर लें।" प्रस्तुत खण्ड के करणसूत्र, प्रयुक्त संकेत, पाठान्तर, चित्र और तालिका मावि का विवरण इसप्रकार है-- करणसूत्र गाथा अधि०/गाथा संख्या गाथा अधिगाथा संस्था महवा आदिम मझिम ५२४५ लक्यूगइटरुदं ५२६३ महवा तिगुणिय मज्झिम ५१२४६ लक्खेतृणं र ०२४४ तिगुणियनास परिबी ५.३४३ वाविहीण वासे ७१४२४ बाहिर सूई वग्गो श६६ गच्छचएण गुणिद ८।१० लपखविहीणं रुदै ५।२६८ प्रस्तुत संस्करण में प्रयुक्त महत्त्वपूर्ण संकेत = श्रेणी t-प्रसंख्यात लोक का चिह्न पृ. १५० ई =दण्ड = प्रतर संड्यात बहुमाग पृ. १५० से =ोष त्रिलोक संख्यात एक भाग पृ० १५० हस्त = सम्पूर्ण जीवराशि मंगुल = सम्पूर्ण पुद्गल (की परमाणु) राशि प=पल्योपम ___ =अनुष १६ ख ख = सम्पूर्ण काल (की समय) राक्षि सा-सागरोपम ख खख = सम्पूर्ण आकाश (को प्रदेश) राशि सू सूच्यंगुल सेढी =श्रेणोक्ट - संख्यात प्रम्-प्रतरांगुल प्र =प्रकीर्णक = असंख्यात घमागुल मु मुहूर्त = असंख्यात ज. श्रे. जगणी छे -धंग्छेद = योजन लोय प-लोकप्रसर वि =दिन - योजन भू-भूमि मा माइ को-कोस Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर अधि०/गामा सं० अधिo/गाया सं. दा३८६ LATE ५१२८ 21४४ ५॥१२६ ५.१४० मा४५३ ૪૪ ११४ ५११६६ ८५३२ ।१७९ ८1५३४ गा खं वह गइट-दुग इगि गावीस कोटीको सोहम्मादि पक्के ईदाणं विहाणि सूवर हरिणो महिंसा तेत्तीस उहि उवमा पल्ला सत्तेक्कारस कप्पं परि पंचादिसू पलिदोवमाणि पंचय भारणतुग परियंत इय जम्मण मरणाणं दुसुदसु धउसु दुसु सेसे लोयविभागारिया पुत्तर दिन्माए दक्षिण दिसाए अरुणा वत्तर विसाए रिहा पत्तेक सारस्सद सोहम्मिदो णियमा खोयविणिज्य मये ८.५३५ ७.२०३ ते चठ बउ कोणे मंदीसर विविसासु तगिरि बरस्स होति लोयविणिच्चय कशा एक्का जिण कूडा दिस विदिसंतम्भागे लोयविणिमययकत्ता तक्रम्मत रए, सत्तारि महवा रुपमागं जोगण णपदीम पायासाहिय दुसया उडुगामे से डिगया बारस कथ्या केई सब्बटु सिद्धि पामे सोहम्मो ईसाणो सदरसहस्साराणद जे सोलस कम्पाणि जे सोलस कप्पा अहका बाणव जुगले सम्माणि अणीयाणि बसहारणीयादीणं पुह पुह एवं सत्तविहाण सत्तासीयाण छज्जुगल सेसएK चित्र विवरण ८१८४ ८१५५३ बा.६६ ८।६५८ बा११५ ८।१२६ ८।१२७ ८ ६५६ का६६० ८।६६१ १४५ ।६६२ ८७२२ मा१७८ दा१८५ पा२७. पा२७१ पा२७२ पण्णासुत्तर ति सया सणुवाद पक्षण पहले सणुवादस्स य पहले श११ ९.१२ ९१३ पा३५३ ०० विषय अधिक/गापा सं० पृष्ठ सं. नन्धीश्वर द्वीप के वन जिनालय कुण्डलवरदीप, पर्वत, कूट, स्वामी रुचकवर पर्वत, कूट, नाम, देवियाँ ५॥१२-८२ ५११७-१२७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं. मखिक/गाथा सं. ७५६-४. ७६७-६८ २७-२९२ २६. ७३४३७-४४२ ७.४६१-४६४ मा१२३-१२४ मा१३१-१३५ ४७३ मा३७-१३८ ४७४ ८।१६६-१७६ ४८५ ८.३४२ विषा चन्द्र विमान सूर्य विमान दिन रात्रिका प्रमाण प्रथम पथ में स्थित सूर्य के भरत क्षेत्र में वदित होने पर क्षेमा प्रावि १६ क्षेत्रों में रात्रि दिन का विभाग चन्दगलियों में नक्षयों का संचार प्रादिस्य इन्द्रक के श्रेणीबद और प्रकीर्णक कम्वलोक सौधर्मादिक कल्पों के आश्रित श्रेणीपर एवं प्रकीर्गक विमान अंवेयकों के प्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक विमान प्रभ नामक इन्द्रक के श्रेणी विमान में ईशान नामक इन्द्र की स्थिति लोकास्तिक लोक ईषस्प्राग्भार (८वीं) पृथ्वी का अवस्थान एवं स्वरूप तालिका विवरण क्रम सं० विषय चारस्थावर जीवों में सामान्य, बाबर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त राशियों का प्रमाण सामान्य वीन्द्रियादिजीबों का प्रमाण पर्याप्तीन्द्रियादि जीवों का प्रमाण अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि जीयों का प्रमाण समस्त प्रकार के स्थावर एवं त्रस जीवों को जघन्य उत्कृष्ट अवगाहना का कम क्यन्तरदेवों का वर्णन व्यत्तरदेवों की सप्तमनीकों का प्रमाण चन्द्राधि ग्रहों के अवस्थान, विस्तार, बाहल्य एवं बाहनदेवों का प्रमाण चन्द्र के अन्तर प्रमाण धाविका विवरण दोनों सूर्यों के प्रथम पथ में स्थित रहते ताप और तमक्षेत्र का प्रमाण पा६३७-६५७ ८६७५-६८१ ६.२ ६.७ पृष्ठ अधिक/गापा सं. १५० ५। गत सण्ड ५।ग खण्ड १६४ २१.--१३ २२५ २३१ ६ । २५-५६ 1७१-७५ ७।१६-११३ ७। १५३-२०० ७। २९३-३७९ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] विषय पृष्ठ सं. अधि०/गाथा है. ७॥ ४६५-४६६ ७ । ४.०-४७१ ३७५ नक्षत्रों के नाम, साराओं की संख्या एवं आकार নাম কা সমাস जम्बूढीपस्थ क्षेत्रकुलाचलादि के दोनों चन्द्र सम्बन्धी तारानों की संख्या ३०४ ७। ५३३-५४० पांच वर्षों में दक्षिणायन-उत्तरायण सूर्य की पांच-पांच आवृत्तियाँ विषुपों के पर्व, तिथि और नक्षत्र मनुष्य लोक के ज्योतिषी देवों का एकत्र प्रमाण छत्तीय समुद्र से अन्तिम समुद पर्यन्त की गुण्यमान राशिया ४.1 ७.५४१-५५३ ४१८ ७.६१४ ७। गद्य खण्ड इमाक विमानों का विस्तार ४६. ८। १२-११ ऋतु इन्द्रक विमान की श्रेणीबद्ध विमानों की संख्या ८। ८७-९७ ४०८ ८।१४-१५४ स्वों के विमानों की संख्या । कल्पों को सर्व विमान संख्या ४८६ २२ विमानों का कुल प्रमाण एवं विमानतल का दाहल्य ४९३ २३. इन्द्रों के परिवार देव ८। १४९-२०२ ८ । २१४-२४६ 5। २८७-२९२ ८। ३०६-३१६ ८। ३२०-३३२ ५१६ ५ ५२३ N । ३५२ ८। ३५८-३६६ लोकपालों के सामन्तों का और दोनों के पारिषद् वेवों का प्रमाण ५११ इन्द्रों की देवियों का प्रमाण वैमानिक इन्ट्रों के परिवार देवों की देवियों का प्रमाण कल्पों की इन्द्रक एवं एक विषागत श्रेणीजों की संख्या ५२८ इन्द्रों के रामोगण, प्राकार एवं गोपुरवार देवियों और बल्लमानों के भवनों का विवेचन सौधर्मेन्द्र प्रादि के यान विमान व मुकुट चिह्न कल्पों में इन्द्रों के परिवार देवों की आयु ५६८ इन्द्रों की देवियों को मायू देव-द्रवियों के जन्म-मरण का अन्तर (विरह) काल ८। ४१६-४२२ ८। ४४१-४५४ ८। १३ arar S ८। ५२८-५३५ - I ५४५-५५३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] प्राभार 'लिलोयपण्णत्ती' जैसे वृहद्काय ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना में हमें अनेक महानुभावों का प्रचुर प्रोत्साहन और सौहार्दपूर्ण सहयोग मिला है। माज तृतीय मोर अन्तिम खण्ड के प्रकाश नावसर पर उन मनका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना म२: गीतक बाधिक है। सर्व प्रथम में परम पूज्य ( स्वर्गीय ) भाचार्य १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज के पावन चरणों में अपनी विनीत थवाजलि अर्पित करता हूँ जिनके आशीरचन सदैब मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं। प्राज इस तीसरे खण्ड के प्रकारानावसर पर वे हमारे बीच नहीं है परन्तु उनकी सौम्यपि सदेव माशीर्वाद की मु॥ में मेरा सम्बल रही है। इस पुनीत मास्मा को बत-शत नमन । परम पूज्य आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज का मैं प्रतिशयकता हूं जिनका वात्सल्यपरिपूर्ण परमहस्त सब मुझ पर रहता है । आपका असीम मनुग्रह ही मेरे द्वारा सम्पन्न होने वाले इन साहित्यिक कार्यों को मूल प्रेरणा है। आर्षमागं एवं श्रुत के संरक्षण को आपको बड़ी चिन्ता है । ८२-८३ बर्ष को अवस्था में भी आप निर्दोष मुनिचर्या का पालन करते हुए इन कार्यों के लिए एक पूवा को भांति सक्रिय और तत्पर हैं। मैं इस निस्पृह मारमा के पुनीत चरणों में अपना नमोस्तु निवेदन करता हुआ इनके दोघं एवं स्वस्थ जीवन की कामना करता हूं। अभीपज्ञानोपयोगी स्वाध्यायशील परमपूज्य चतुर्थ पट्टाधीश माचार्य पूज्य अजितसागरजी महाराज के चरण कमलों में सादर नमन करता हुआ उनके स्वस्थ दोघं जीवन की कामना करता है। प्रन्य की टोकाकी पूण्य धार्षिका १०५ श्री विशुद्धमतो माता को का मैं चिरकृतश हूं जिन्होंने मुझपर अनुकम्पा कर इस ग्रन्थ के सम्पादन का गुरुत्तर भार मुझे सौंपा। तीनों खण्डों के माध्यम से प्राध का जो नवीनरूप पन पड़ा है वह सब पूज्य माताजी की साधना, कष्ट सहिष्णुता, असीम धैर्य, त्याग-सप और निष्ठा का ही सुपरिणाम है । अग्ध को बोधगम्य बनाने के लिए माताजी ने जितना श्रम किया है उसे शब्दों में मौका नहीं जा सकता । यद्यपि प्रापका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहता तथापि प्रापने कार्य में अनवरत संलग्न रह कर प्रस्तुत टीका को पित्रों, तालिकाओं पौर विशेषार्थ से समलंकृत कर सुनोष बनाया है। मैं यही कामना करता हूँ कि पूज्य माताजी का रत्नत्रय कुशल रहे भोर स्वास्थ्य भी अनुकूल बने ताकि भापकी यह थ त सेवा अबाधगति से चलती रहे । मैं आयिका श्री के चरणों में पातशः बन्यामि निवेदन करता हूँ। अयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, असेय पं० पनालालमी साहित्याचार्य, सागर और प्रोफेसर लक्ष्मीचग्यजी अन, अबसपुर का भी आभारी हूं जिन्होंने प्रथम दो खण्ड़ों की भांति इस खण्ड के लिए मी पुरोवाक् और गणित विषयक लेख लिखकर भिजवाया है । 'जम्बूद्वीप के क्षेत्रों और पर्वतों के क्षेत्रफलों की गणना' शीर्षक एक विशेष लेख बिड़ला इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नालोजी, मेसरा ( रांधी ) के प्रोफेसर डा. राधाचरण गुप्त ने भिजवाया है। इस मेख में प्राचीन विधि से क्षेत्रफल निकाले गये हैं जो पूर्णतया ग्रन्थ ( द्वितीमखण्डः चतुर्थ अधिकार ) के मानों से मिल जाते है । मैं प्रोफेसर गुप्त का हृदय से प्राभारी हूँ। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] प्रस्तुत खण्ड में मुद्रित पिषों की रचना के लिए श्री विमलप्रकाशजीन अजमेर और श्री रमेशचन्द्रजी मेहता, उदयपुर धन्यवाद के पात्र है। पूज्य माताजी की संघस्थ माविका प्रशान्समतीजी और आयिका पवित्रमतीजी को सविनय नमन करता हैं जिनका प्रोत्साहन ग्रन्थ को शीघ्र प्रकाशित करने में सहयोगी रहा है। आवरणीय ब्र० कजोड़ीमलजी कामदार पूज्य माताजी के संघ में ही रहते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के बीमारोपण से लेकर सीन खण्यों के रूप में इसके प्रकाशन तक पाने वाली अनेक छोटी बड़ी बाधाओं का बापने तत्परता से परिहार किया है। एतस्यं मैं आपका पस्यन्त अनुग्रहीत हूं। श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के प्रकाशन विभाग को इस नरिमापूर्ण प्रकापान के लिए बधाई देता हूं। सेठी ट्रस्ट के निमामक एवं वर्तमान महासभाध्यक्ष पादरणीय श्री निर्मशकुमारजी सेठी का पाभार किन पापों में व्यक्त करू । उन्हीं की प्रेरणा से यह ग्रन्थ इस रूप में प्रापके सन्मुख आ पाया है। आपने विपुल अषं सहयोग प्रदान कर एतत्सम्बन्धी चिम्ताओं से हमें सवैध मुक्त रखा है, एतवर्थ मैं आपका व प्रभ्य सहयोगी दातारों का हार्दिक पभिनन्दन करता हूं और इस श्रुत सेवा के लिए उन्हें हार्दिक साधुवाद देता हूँ। अस्य के तीनों खण्डों का शुद्ध और सुन्दर मुद्रण कमल प्रिन्टर्स, मदनगंज-किशनगढ़ में हुआ है । मैं प्रेस मालिक श्रीमान् पाँचूलालजी जैन के सहयोग का उल्लेख किए बिना नहीं रह सकता । आज कोई बीस वर्ष से मेरा जो सम्बन्ध इस प्रेस से चला आरहा है उसका मुख्य कारण श्री पाचूलामजी का सौजन्य और मेरे प्रति सद्भाव हो है। इसी कारण मेरे जोधपुर पाजाने पर भी इस प्रेस से सम्बन्ध विच्छर की मैंने कभी कल्पना भी नहीं की। मुझे पापा है, जब तक उनका प्रेस से सम्बन्ध है और मेरा साहित्यिक कार्य से, तब तक हमारा सहयोग प्रस्खलित बना रहेगा। मैं सुरुचिपूर्ण मुद्रण के लिए प्रेस के सभी कर्मचारियों को धन्यवाद देता हूं। यस्ता अपने वर्तमानरूप में 'तिलीयपण्णत्तो' के प्रस्तुत संस्करण को जो कुछ उपलग्धि है यह सब इन्हीं थमशील धर्मनिष्ठ पुण्यारमाओं की है । मैं हृदय से समका अनुग्रहीत हूं। सुधीगणग्राही विद्वामों से सम्पादन प्रकाशन में रही भूलों के लिए सबिमय अमायाचना करता। महाबीर जयन्ती ३१-३-८८ थी पाश्र्वनाथ जैन मन्दिर शास्त्रीनगर जोधपुर बिनीत: डा० चेतनप्रकाश पाटनी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती के पाँचवे और सातवें ___ महाधिकार का गरिणत [ लेखक : प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन, सूर्या एम्पोरियम, ६७७ सराफा जबलपुर (म. प्र.)] पांचवां महाधिकार गाथा ५/३३ इस गाथामें अंतिम आठ द्वीप-समुत्रों के विस्तार भी गुणोत्तर श्रेरिण में दिये गये हैं। अंतिम स्वयंभूवर समुद्र का विस्तार( जगश्रेणी-२८)+७५००० योजन इसके पश्चात् १ राजु चौड़े तथा १००००० योजन बाहल्यवाले मध्यलोक तल पर पूर्व पश्चिम में "{ १ राज -[ ( राजु+७५००० योजन )+( राज + ३७५०० योजन ) + ( राजु + १८७५० योजन )+....... .... + { ५०००० योजन )]}" जगह बनती है। यद्यपि १ राज में से एक अनन्त श्रेणी भी घटाई जाये सब भो यह लम्बाई राजु से कुछ कम योजन बच रहती है । यह गुणोतर श्रेणी है । गाथा ५/३४ यदि जम्बूद्वीप का विष्कम्भ D, है । मानलो २॥ वें समुद्र का विस्तार D, मान लिया जाय और २०+ १ = द्वीप का विस्तार Dan+, मान लिया जाय तब निम्नलिखित सूत्रों द्वारा परिभाषा प्रदर्शित की जा सकेगी। Da =Dee+,x२-D, ४३-उक्त द्वीप की आदि सूची Dm =Drn+, x ३-D,x३-उक्त द्वीप की मध्यम सूची Db =Dont,x४--D,x३= उक्त द्वीप की बाह्य सूची द्वीपों के लिये इस सूत्र का परिसित रूप होगा। गापा ५/३५ द्वीप या समुद्र की परिधि =0v3° [0 वें द्वीप या समुद्र की सूची] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] यदि यें द्वीप या समुद्र की बाहरी सूची Dab तथा अभ्यंतर सूची ( अथवा D गाथा ५/३६ आदि सूची ) Dna प्ररूपित की जावे तो (Dab ) * - ( Dna ) 2. २ (D ( D, संख्या होती है । यहाँ D जम्बूद्वीपका विष्कम्भ है और Dna = D ( - )b है क्योंकि किसी भी द्वीप या समुद्र सूची, नुगामी दीपकीक या माभ्यंतर सूची होती है । श्री पाथा ५/२४२ यहाँ स्थूल क्षेत्रफल निकालने के लिये ग्रंथकार ने का स्थूल मान ३ मान लिया है और नवीन सूत्र दिया है। वक्त द्वीप या समुद्र के क्षेत्र में समा जाने वाले जम्बूद्वीप क्षेत्रों की " में द्वीप या समुद्र का क्षत्रफल = | ( Da-D, ] ( ३ ) * { Du } यहाँ [ Da-D, ] ( ३ ) को धायाम कहा गया है । Dn को n वें द्वीप या समुद्र का विष्कम्भ लिया है । स्मरण रहे कि Do२ (-१)D, लिखा जा सकता है । पुन:, वलयाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने के लिए सूत्र यह हैबादर क्षेत्रफल =Dn [ Dna + Dam + Dab ] यहाँ Dne = [ २{२" - 2 + 2-3 + + २ }+ १ ] D, [ २{२०१+२" + 2-3 + Dob == Dom = Deb + Don २ गापा ५ / २४४ ***** इनका मान रखने पर बादर क्षेत्रफल = २०१D, [ Das + ३ ( •+२+२ }+१ ] D, Dna + Dab ) + Dab ] = ३२ [ २*१] ( D, ) [ २- १ – १ ] यह सूत्र पिछली गाथा के समान है । [ Lois (Apj ) + १ ] वे द्वीप या समुद्र का क्षेत्रफल, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ } (Api ) ( Api-१ ) { ९००० करोड़ योजन } वगं योजन होगा, जहाँ Apj जघन्य परीतासंख्यात है, log२ अर्द्धच्छेदका आधुनिक प्रतीक है । पिछली ( २४३ ) वीं गाथामें n वें वलयाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल ३. (D, ) [ २ ] [ २-1.--१ ] बतलाया गया है जो ९ १०००००/- 1 २' ] { २१-१] के बराबर है। यदि 1-logR Apj+१ हो तो -१=oge Apj होगा, इसलिए २"-'-Api हो जायेगा । इसप्रकार ग्रंथकार ने यहाँ छेदा गणित का उपयोग किया है। उन्होंने १६ संदृष्टि जघन्यपरीतासंख्यात के लिए और १५ संदृष्टि एक कम जघन्य परीतासंख्यात के लिये ली है । इसीप्रकार { Log: (पल्योपम)+१ } द्वीपका क्षेत्रफल (पल्योपम) (पल्योपम-१)xex (१०) वर्ग योजन होता है। पागे स्वयंभूरमग समुद्र का क्षेत्रफल निकालने के लिये २४३ या २४४वीं गाया में दिये गये सूत्र २८ { बादर क्षेत्रफल = D. (३)२ (0,--D,)} का उपयोग किया है। इस समुद्र का विष्कम्भ D. = जगश्रेणी +७५००० योजन है, इसलिये, बादर क्षेत्रफल[२८ जगश्रेणी+६७५००० योजन ] [गर्भणी- ७५००० योजन–१००००० योजन ] -atr (अगश्रेणी)+[ ११२५०० वर्गयोजन- १ राजु ] -[ १६८७५०००००० वर्ग योजन ] वर्ग योजन गापा ५/२४५ मानलो इष्ट द्वीप मा समुद्र तवा है; उसका विस्तार DD है तथा प्रादि सूची का प्रमाण Daa है। सब, शेष वृद्धि का प्रमाण-२ Dn-( DR+D) होता है । ३ इसे सापित करने पर, ...२ DA-- Dna Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] यहाँ Dn-२-D, है तथा Da= १+२ [२+२+....+२-२] है । मर्थात्, Dna= [ १+२ (२१-१-२) ] D, योजन है । . २ Dr-Daa - २"D,+[-१-२+४] D=D...१००००० योजन गाथा ५/२४६-२४७ : प्रतीकरूपेण, ५०.०० योजन + Daa = Dab+[Dn-२०००००] गाथा ५/२४८ प्रतीकरूप से, उक्त वृद्धिका प्रमाण=11 (Drb)-Dra }= १६ लाख योजन है । गापा ५/२५० प्रतीक रूप से, वणित वृद्धि का प्रमाण= (३D0-३००००.)- {sp - ३००००० गाथा ५/२५१ प्रतीक रूप से वरिणत वृद्धि वरिणत वृद्धियों के प्रकरण में व्यावहारिक उपयोग स्पष्ट नहीं है। द्वीप और समुद्रों के विस्तार १, २, ४, ८,...........अर्थात् गुणोत्तर श्रेणी में दिये गये हैं । तथा द्वीपों के विस्तार १,४, १६, ६४............भी गुणोत्तर श्रेणी में हैं जिसमें साधारण निष्पत्ति ४ है। इन्हीं के विषय में गुणोत्तर रिण के योग निकालने के सूत्रों की सहायता से. भिन्न २ प्रकार की वृद्धियों का वर्णन दिया गया है। गाथा ५४२५२ चतुर्थ पक्ष की वणित वृद्धि को यदि Ka माना जाए तो इच्छित वृद्धि वाले (ग) समुद्र से, पहिले के समस्त समुद्रों सम्बन्धी विस्तार का प्रमाण= =२०००० होता है। गाथा ५/२६१ जैसाकि पूर्व में बतलाया जा चुका है, वें द्वीप या समुद्र का क्षेत्रफल 1. { (Dab) २ - (Dna) २ } है। इसी सूत्र के प्राधार पर विविध क्षेत्रफलों के अरुपबहुत्व का निरूपण किया गया है। यहाँ वणित क्षेत्रफल वृद्धिका प्रमाण _३ (Do - १०००००) ४४ Da है. (१०००००) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६] जो जम्बूद्वीप के समान खंडों की संख्या होती है । गाथा ५/२६२ यहाँ लवण समुद्र का क्षेत्रफल (१०) ६००] वगं योजन है जो जम्बूद्वीप के क्षेत्रफल (१०) [२५] वर्ग योगा में :४ गुभा है। इसीप्रकार अन्य द्वीप समुद्रों के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है । पुनः, पुष्करवर द्वीप का क्षेत्रफल=(१०) [ (१०) - (१) ] वर्ग योजन अथवा (१०) [७२०००] वर्ग योजन है जो जम्बूद्वीप से २८८० गुणा है, तथा कालोदधि समुद्र की खण्ड शालाकानों से चौगुना होकर ६६ ४२ अधिक है. अर्थात् २८८० = (४४६७२)+२ (९६) है । सामान्यतः यदि किसो अधस्तन द्वीप या समुद्रकी खंड शलाकाएँ Kn' मानली जायें जहाँ ।' की गणना घातकी खंड द्वीप से प्रारम्भ हो तो, उपरिम समुद्र या द्वीप की खंडशलाकाओं की संख्या (४x Kan') +२-१ (९६) होगी। यहाँ प्रक्षेप ९६ का मान निकालने का सूत्र निम्नलिखित हैप्रक्षेप ९६= __Ksn' Do १००००० इस सूत्र में Kon' उस द्वीप या समुद्र की खंड शलाकाएँ हैं तथा Do' विस्तार है । गापा ५/२६३ जम्बूद्वीप के क्षेत्रफल से अल्प वहृत्व जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल =(१०).३ (२५) वर्ग योजन १ गुणा लवणसमुद्र का क्षेत्रफल =(१०) (६००) वगंयोजन २४ गुणा धातको द्वीपका क्षेत्रफल =(१०) ३ (३६००) वर्गयोजन १४४ गुणा कालोदधि समुद्रका क्षेत्रफल =(१०) ३ (१६८००) वर्गयोजन ६७२ गुणा यही लवरणसमुद्र की खंड शलाकाएं धातकीखंड द्वीप की शलाकाओं से ( १४४-२४ ) या १२० अधिक है। कालोदधि की खंड शलाकाएं धातकीखंड तथा लवणसमुद्र की शलाकाओं से (६७२)-(१४४२४ ) या ५०४ अधिक हैं। इम वृद्धिके प्रमाण को (१२०)४४ + २४ लिखते हैं। इसप्रकार अगले द्वीप की इस वृद्धि का प्रमाण {{५०४) x ४ }+ (२४२४}} है Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] n इसलिये यदि धातकीखंड से की गणना प्रारम्भ की जाये तो इष्ट ' वें द्वीप या समुद्र की खंडवालाकाओं की वरित वृद्धि का प्रमाण प्रतोकरूप से Dn' १००००० {{ यहाँ Do' जो है वह ' वें द्वीप या समुद्र का विष्कम्भ है । यह प्रमारण उस समान्तरी गुणोतर श्रेणी ( Arithmetico-geometric series ) का ' व पद है, जिसके उत्तरोत्तर पद पिछले पदों के चौगुने से क्रमशः २४४२०-१ अधिक होते हैं। यह आधुनिक arithmetico geometric series से है ! Dn' स्वतः एक गुणोत्तर संकलन का निरूपण करता है जो प्रारम्भ होकर उत्तरोत्तर १६, ३२, ६४, १२८ आदि हैं। वृद्धि के प्रमाण को ' व पद, मानकर बनने वाली श्रेणी मध्ययन योग्य है । इस पदका साधन करने पर २ ) - १ } x ८ होता है । { { Do'+ १०once ) ( Do'- १०००० ) fronone } s } उक्त प्रमाण = गाथा ५/२६४ के लिए ग्रंथकार ने निम्नलिखित सूत्र दिया है यहाँ n' वें द्वीप या समुद्र से अधस्तन द्वीप समुद्रों को सम्मिलित खंडशलाकाओं [ Do' - १००००० ] x [ De - १००००० ] ÷ १२५०००००००० २ ८ प्रमाण प्राप्त होता है । यहाँ ' की गणना घातकीखंड द्वीपसे आरम्भ करना चाहिए। यह प्रमाण दूसरी तरह से भी प्राप्त किया जा सकता है । गाथा ५/२६५ Ksti R ३ ( Das ) 'आयेगा । - २ " अतिरिक्त प्रमाण ७४४ Da'÷२००००० यहाँ ९ Dn (Du—१०००००) = ३ [ (Dab)'- ( Daz )' } - गाथा ५.२६६ गाथा ५ / २६८ द्वीप या समुद्र से अधस्तन द्वीप समुद्रों के डिफल को लाने के लिए गाथा को प्रतीक रूपेण निम्नप्रकार प्रस्तुत किया जा सकेगा - अधस्तन द्वीप समुद्रों का सम्मिलित पिडफल ★ [ Da - १००००० ] [ ९ ( Dh - १००००० ) - ९००००० ] + ३ दूसरी विधि से इसका प्रमाण गाया ५ / २७१ · श्रधस्तन समस्त समुद्रों के क्षेत्रफल निकालने के लिए गाथा दी गई है। चूंकि द्वीप ऊनी (अयुग्म ) संख्या पर पड़ते हैं इसलिए हम इष्ट उपरिम द्वीप को (२०- १) मानते हैं। इस प्रकार, ग्रषस्तन समस्त समुद्रों का क्षेत्रफल Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dne [ ४१ ] -[ Dang -३००००० ] [ ९ ( Dan-, ---१०००००)-९०००००:१५ प्राप्त होगा। यह सूत्र महत्वपूर्ण है । गाथा ५/२७४ जब द्वीप का विष्कम्भ दिया गया हो, तब इच्छित द्वीप से ( जम्बूद्वीप को छोड़कर ) अधस्तन द्वीपों का संकलित क्षेत्रफल निकालने का सूत्र यह है ( Den., -१००००० ) [ { Dan., -१०००००) ९-२७००००० ] + १५ यहाँ DEn. २-१ वी संख्या क्रम में आने वाले द्वीप का विस्तार है । गाथा ५/२७६ धातकी खंड द्वीपके पश्चात् वणित वृद्धियां त्रिस्थानोंमें क्रमशः -४२, x, x ४ होती हैं जब कि गणना ' की धातकी खंडद्वीप से प्रारंभ होती है। पाथा ५/२७७ अधस्तन द्वीप या समुद्र से उपरिम द्वीप या समुद्र के आयाम में वृद्धि का प्रमाण प्राप्त करने के लिए सूत्र दिया गया है । यहाँ ।' को गणना घासकीखंड द्वीप से प्रारम्भ होती है । प्रतीक रूपेण आयामवृद्धि= DA' ४९०० है । गापा ५/२८० आदि यहा से कायमार्गणा स्थान में जीवों की संख्या प्ररूपणा. संदृष्टियों के द्वारा दी गई है। संदृष्टियों का विशेष विवरण पं० टोडरमल की गोम्मटसार को सम्यक्ज्ञान चंद्रिका टीका के संदृष्टि अधिकार में विशेष रूपसे स्पष्ट कर लिखी गई है। संदृष्टियों में संख्या प्रमाण तथा उपमा प्रमाण का उपयोग किया गया है जो दृष्टव्य है । इसीप्रकार आगे इंद्रिय मार्गणा की संख्या प्ररूपरणा भी को गयो है। इनके मध्य अल्पबहुत्व भी दृष्ट्वा है जो संदृष्टियों में दिया गया है। गाषा ५/३१८ इस गाथा के पश्चात् अवगाहना के विकल्प का स्पष्टीकरण दिया गया है। धवला टीका में भी इस प्रकरण को देखना चाहिए। गामा ५/३१९-३२. शंख क्षेत्र का गणित इस गाथा में है जो माधवचन्द्र विच की त्रिलोकसार की संस्कृत टोका में सविस्तार दिया है । शंखावत क्षेत्र का घनफल ३६५ घन योजन निकाला गया है इसकी वासना माधवचन्द्र विद्य ने प्रस्तुत की है जिसे पूज्य आर्यिका माता विशुखमतीजी ने विशेष विस्तार के साथ स्पष्ट की है।* यहाँ सूत्र यह है : क्षेत्रफल= * देखिये बिलोकसार, श्रीमहावीरजी, वो नि० सं० २५०१, गापा ३२७, पृ. २७२-२७६ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] [ ( लम्बाई )- ( मुख व्यास ) + ( मुख व्यास )*] x २ . पुनः घनफल निकालने हेतु बाहत्य-[(आयाम मुख)+यायाम ] + मुख यहाँ लम्बाई या आयाम= १२ योजन मुख=४ योजन क्षेत्रफल-७३ वर्ग योजन और बाहल्य-५ योजन इसलिए शंख क्षेत्र का धनफल =७३४५ धन योजन= ३६५ घनयोजन शंख को पूर्ण मुरजाकार नहीं माना गया मुख व्यास ४योजन है इसलिए उसमें से क्षेत्र ( टा देना चाहिये मध्यभाग-- १२ योजन ___ जो दो खंड दिख रहे हैं उनमें एक को पहरणकर क्षेत्रफल निकालना चाहिए। उपर्युक्त घटाया खंड भी आधा याने (१) हो जाता न परिधि=४x v१० =४[३+1]-४x =१२३ यो. । यो * परिधि=८ x ११०-२४३५-२४६ योजन जैन ग्रन्थों में चूकि । १० का मान ( ३ + ) दिया गया है, अथवा ¥ माना गया है जैसे V१० - VE+ ३१-१ . उपरोक्त आकृति तल को पसारते हैं ताकि वह तल समलम्ब चतुर्भुज के रूप में आजाये? Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] १२३ रोज्न यहाँ ४ आकृतिय! क्रमश: क ख ग घ प्राप्त होती हैं जिनमें क = घ और ख ग हैं। च क ख ग क और घ को समामेलित करने पर एक चतुर्भुज प्राप्त २० योजन हो जाता है जो ख और ग के समान होता है। इनमें से योजन वाली पट्टियां अलग तथा १२ योजन वाली षष्टी अलग करने पर तथा ६ योजन वाली पट्टी अलग करने पर 3- ६ नौ ___१२ यो. FP--- क्षे ७२ मो. । मी. अब ऊपर के खंड को भी इसी प्रकार विस्तारित करो पर .. शाप्त होगी जिसमें से ० ३६वर्गमो. कायतथा एक पट्टी पाप होगी। यो. ६मा.. इस पुकार मह सर्वप्रथम ध्यान ३६+२+३६ - १४४ वर्ग योनी ओर दिया है।६वर्ग योजना . अलशकरत हाट केवल 2 वर्गमो. को गवना में लेकर १४+२:१४६ वर्ग योजा क्षेत्रफल फोता है। ...... 1. क्षेत्रफल-३४९ : ३वर्णयोः के गाने डोकेर २ins Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] इसीप्रकार नीचे के घोष अर्द्ध भाग का क्षेत्रफल मी १४६ वर्ग योजन होगा। कुल १४६४ २ = २९२ वर्ग योजन होगा। इसमें प्रत्येक खंड का वेध' मानते हुए २९२४१-७३४५-३६५ धनयोजन घनफल प्राप्त होता है ! इससे प्रतीत होता है कि पर्त का वेध प्रत्येक खंड में ५ योजन लिया गया है और ऐसे ही पतं से शंख क्षेत्र को निर्मित माना गया है । पन के आकार के क्षेत्र का घनफल निकालने के लिए बेलनाकार ठोस का सूत्र का उपयोग किया गया है। यहाँ ।। का मान ३, २१ का मान व्यास १ योजन है तथा उस्सेध । का मान १००० योजन है। महामत्स्य की अवगाहना, पायतन (cuboid) के आकार का क्षेत्र है जहाँ धनफल लम्बाई xचौड़ाईx ऊंचाई होता है। भ्रमरा क्षेत्र का घनफल निकालने के लिए बीच से विदीर्ण किये गये प्रद्ध बेलन के घनफल को निकालने के लिए उपयोग में लाया गया सूत्र दिया है जिसमें 1 का मान ३ लिया गया है । आकृतियाँ मल ग्रन्थ में देखिये, अथवा "तिलोय पणती का गणित” में दीखो। सातवाँ महाधिकार गाथा ७/५.६ ज्योतिषी देवों का निवास जम्बूढीप के बहु मध्यभाग में प्रायः १३ अरब योजन के भीतर नहीं है। उनकी बाहरी सीमा= ४६।११० योजन दी गई है जो एक राजु से अधिक प्रतीत होती है । जहां बाहरी सीमा १ राजु से अधिक है उस प्रदेश को अगम्य कहा गया है । ज्योतिषियों का निवास शेष गम्य क्षेत्र में माना गया है 1 प्रतीक से लगता है कि ११० का भाग है किंतु शब्दों में उसे गुणक बतलाया गया है। यह अगम्य क्षेत्र में समवृत्त जम्बूद्वीप के बहुमध्य भाग में भी स्थित है । यह १३७३२९२५०१५ योजन है। गाथा ७/११ सम्पूर्ण ज्योतिषी देवों की राशि – ( जग श्रेणी ) है। '६५५३६ ( वर्ग अंगुल ) यहाँ २५६ अंगुलों का वर्ग ६५५३६ वर्ग अंगुल बतलाया गया है। प्रतीक में ८ दिया है, जहाँ ४ प्रतरांगुल का प्रतीक है। गाथा ७/११७ आदि जितने वलयाकार क्षेत्र में चन्द्रबिम्ब का गमन होता है उसका विस्तार ५१० योजन है। इसमें से वह १८० योजन जम्बूद्वीप में तथा ३३० योजन लवण समुद्र में रहता है। एक लाख Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] योजन विस्तार वाले जम्बूद्वीप के मध्य में १०००० योजन विस्तार वाला सुमेरु पर्वत है। चन्द्रों के चार क्षेत्र में पन्द्रह गलियां हैं. जिनमें प्रत्येक का विस्तार योजन है । यह गमन वृत्ताकार वीथियों में होता बतलाया गया है जिनके अंतराल ३५३१० योजन हैं । वलयाकार-क्षेत्र का विस्तार ५१० योजन है । इनसे परिधि प्रादि प्राप्त होती है, परन्तु गमन वास्तव में समापन एवं असमापन कुतल में होता होगा । IT का मान १० ही लिया गया है । पाथा ७/१७६ जब त्रिज्या बढ़ती है तो परिधि पथ बढ़ जाता है किन्तु नियत समय में वह पथ पूर्ण करने हेतु पात्र सूर्य दोनों की गलियों शीघ्र होती हैं, जिससे वे समानकाल में असमान परिधियों का अतिक्रमण कर सकें। उनकी गति काल के असंख्यातवें भाग में समान रूप से बढ़ती होगी। गाथा ७/१८६ चंद्रमा को रेखीयगति अंतः वीथी में स्थित होने पर १ मुहूर्त में ३१५०८९६२ =५०७३ पु योजन होती है । गाथा ७१२०१ चंद्रमा की कलानों तथा ग्रहण को समझाने हेतु चन्द्र बिंब से ४ प्रमाणांगुल नीचे कुछ कम १ योजन विस्तारवाल काले रंग के दो प्रकार के राहुषों ( दिन राहु और पर्व राहु) की कल्पना की गई है। राहु के विमान का बाहल्य ३.... योजन है । राहु की गति और चंद्र गति के वैशिष्ट्य पर कलाएं प्रकट होती हैं। गाथा ७/२१३ चंद्र दिवस का प्रमाण ३११४ माना गया है । गाथा ७/२१६-२१७ पर्वराहु का गतिविशेषों से चांद की गति से मेल होने पर चंद्र ग्रहणादि होते माना गया है। गाथा ७२२८ चन्द्र जैसा विवरण सूर्य का है। गाया ७/२७६ सूर्य की मुख्यतः १९४ परिधयों या अक्षांशों में स्थित प्रदेशों एवं नगरियों का वर्णन मिलता है। गाया ७/२७७ जब सूर्य प्रथम पथ में रहता है तब समस्त परिधियों में १८ मुहूर्त का दिन तथा १२ मुहूर्त की रात्रि होती है । यह स्थान कश्मीर के उत्तर में होना चाहिए क्योंकि भिन्न भिन्न अक्षांशों में यह समय बदलता है । ठीक इसके विपरीत बाह्य पथ में सूर्य के स्थित होने पर होता है । शेष विवरण स्पष्ट हैं। ज्योतिषबिम्बों के प्रमाण की गणना, जघन्य परीतासंख्यात निकालने की गणना, पल्य राशि की गणना के लिए "तिलोयपण्णसी का गणित" पृ० १६ से लेकर पृ० १०४ तक दृष्टव्य है । उपयुक्त गणित का किंचित्स्वरूप पूज्य प्रायिका विशुद्धभती माताजी के निर्देशानुसार प्रस्तुत परम्परानुसार चित्रित किया है। कई स्थलों पर मूल ग्रंथों के अभिप्राय समझने में अभी हम असमर्थ हैं और वे बहुश्रुतधारी मुनिवरों के द्वारा भागामी काल में शोघ द्वारा निणीत किये जायेंगे, ऐसी आशा है। परम पूज्य माताजी में कई स्थलों पर अपनी प्रज्ञा से स्पष्टीकरण करने का प्रयास किया है जो दृष्टव्य है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप के क्षेत्रों और पर्वतों के क्षेत्रफलों की गणना लेखक-प्रो० डॉ० राधाचरण गुप्त वी यादी मेसरा, दौनी--३५२१५ मायिका विशुद्धमतीजी की भाषा टीका के साथ यतिवृषभाचार्य रचित तिलोयएण्णती (त्रिलोक प्रज्ञप्ति ) का नया संस्करण भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा द्वारा प्रशिकरूप में प्रकाशित हो चुका है । इसके प्रथम खण्ड ( १९८४ ) में तीन अधिकार और दूसरे खण्ड (१९८६) में चतुर्थ अधिकार छप चुका है जो कि गणित की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । चौथे अधिकार की गाथाओं २४०१ से २४०६ ( पृष्ठ ६३६ से ६३९ तक ) में जो विभिन्न क्षेत्रों के मान और उनके निकालने की विधि दी गई है उन्हीं का विस्तृत विवेचन इस लेख में किया जा रहा है। वृत्ताकार जम्बूद्वीप को पूर्व से पश्चिम तक १२ समानान्तर सीमा रेखाएँ खींचकर १३ भागों में बांटा गया है जिनमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नामके ७ क्षेत्र तथा उनको एक दूसरे से अलग करने वाले हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी नामके ६ पर्वत हैं (खण्ड दो, पृष्ठ ३३ पर दी गई तालिका देखें)। जम्बूद्वीप के दक्षिणी बिन्दु से आरम्भ करके उपयुक्त ७ क्षेत्रों और उनके बीच-बीच में स्थित ६ पर्वतों का विस्तार क्रमशः १, २, ४, ८, १६, ३२, ६४, ३२, १६, ८, ४, २ तथा १ शलाकाएं हैं जहाँ एक शलाका का मान 1300 = ५२६ प योजन है। क्योंकि... १+२+४++१६+ ३२-+६४+३२+१६+६+४+२+१-१९० तथा जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख योजन है ( जिसे १९० शलाकाओं में विभाजित मान लिया गया है। ऊपर के वर्णन से यह स्पष्ट है कि जम्बूद्वीप का पूर्व से पश्चिम तक खींचा गया व्यास मध्यवर्ती विदेह क्षेत्र के दो बराबर भाग करता है जिन्हें उत्तरविदेह और दक्षिणविदेह कहा जायगा। यह भी स्पष्ट है कि भरत, हिमवान, हैमवत, महाहिमवान्, हरि, निषध तथा दक्षिण विदेह की उत्तरी सीमाएँ जम्बूद्वीप के दक्षिणी चाप के साथ मिलकर विभिन्न धनुषाकार क्षेत्र ( सेगमेन्ट ) बनाते हैं जिनकी ऊंचाइयां क्रमशः १. ३, ७, १५, ३१, ६३ व ६५ शलाकाएं होंगी ( जिनमें से अन्तिम ऊंचाई व्यासार्थ के बराबर है ) । प्राचीन ग्रंथों में धनुषाकार क्षेत्र की ऊंचाई को इषु या बारण कहा गया है। 'तिलोयपात्ती' के चतुर्थ महाधिकार की गाथा १५३ ( देखिए खण्ड २, पृष्ठ ५१ ) में । धनुषाकार क्षेत्र की जीवा निकालने का यह सूत्र दिया गया है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र० सं० १ २ ३ ४ ५. ६ ५ जीवा = / ४ [ ( व्यासार्धं ) इसीका सरल रूप होगा ७ यदि ऊपर की गई गणना में वर्गमूल केवल पूर्ण अंकों तक ही ग्रहण किया जाय तो जोवा का मान ( दशमलव वाला भाग छोड़ देने पर ) = २७) २०५५४ = १४४७१ योजन होता है । भरत क्षेत्र की उत्तरी जीवा का यही प्रमाण तिलोयपणती, चतुथं महाधिकार की गाथा १६४ ( देखिये खण्ड २, पृष्ठ ५६ ) में दिया गया है। इसी प्रकार सूत्र (१) को लगाकर हम जम्बूद्वीप के दक्षिणार्ध में स्थित विभागों से बने धनुषाकार क्षेत्रों को जीवाएँ निकाल सकते हैं और यदि प्रत्येक बार हर में १९ अलग करके अंश (न्यूमेरेटर ) का वर्गमूल केवल पूर्णांकों तक निकालें तो हमें निम्नलिखित सालिका प्राप्त हो जायगी .... ( १ ) जीवा - ४ इषु (व्यास - इषु) इसका प्रयोग करके भरत क्षेत्र की जीवा का प्रमाण [ ४७ ] • ( व्यासार्थ - इषु) ] 10000 =√४× १०° × (१००००० — = ~ ( ७५६ × १००००, ००००) /१६ SN (२७४९५४) ३+२९७८८४/१६ = (२७४९५४.५४) / १९ लगभग 1 विभाग भरत क्षेत्र हिमवान् पर्वत हैमवत क्षेत्र महाहिमवान् प० हरि क्षेत्र निषेध पर्वत दक्षिण विदेह क्षे० - तालिका १ ( जीवाएं) विस्तार ( शलाका) २ ४ १०००० पर ५ १६ ३२ ६४/२ इषु ( शलाका) १५. ३१ ६३ ६५ उत्तरी जीवा ( योजन) १४४७१ + २४९३२+हे ३७६७४ + १४ ५३६३१ + ७३९०१ + ९४१५६ + ई १००००० + ० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८६ ] 'तिलोयपष्णत्ती' के चतुर्थ महाधिकार की गाथा १६४७ में हिमवान् की उत्तर जीवा का कलात्मक मान एक (यानी १ / १९) है और गाथा १७२२ में हैमवत की उत्तर जीवा का कलात्मक भान " किंचरण सोलस" अर्थात् ( १६ से कुछ कम ) है । अन्य सब मान ग्रंथ के अनुकूल हैं ( देखिये गाथाएँ १७४२, १७६३, १७७५ तथा १७९८ ) । लेकिन हमने तालिका में दी गई जीवानों को प्राप्त करने में वर्गमूल निकालते समय पूराकों के बाद शेष ( चाहे वह आधा या उससे अधिक भी क्यों न हो ) छोड़ने को समाननोति अपनाई है और इसी नीति को अपनाकर अब हम क्षेत्रफल निकालेंगे जो कि ग्रंथ में दिये गये मानों से पूर्णतया मिल जाते हैं । धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने के लिये 'तिलोयपष्णली' ( देखिये गाथा २४०१ ) में निम्नलिखित सूत्र दिया गया है। क्षेत्रफल (सूक्ष्म) = १० ( जीवा x ६षु / ४) २ .........(3) इसका उपयोग करने पर भरतक्षेत्र का क्षेत्रफल = - (१०/१६) (२७४६५४/१६) ** (१००००/१६) * X =={ V४७२४, ९८१३ ८२२५x१० ) । ३६१ = ( २१, ७३७०, २२२६ ) / ३६१ जहाँ हमने अंश का वर्गमूल केवल पूर्णांकों तक ही निकालकर शेष भाग छोड़ दिया है । इसप्रकार भरत क्षेत्र का क्षेत्रफल = ६०२, १३३५+२६४ / ३६१ ( वर्ग योजन ) जो कि ग्रंथ की गाथा २४०२ ( खंड २, पृ० ६३६ ) में दिये गये मानके समान है । ठीक इसी प्रकार सूत्र ( २ ) का उपयोग करके और वर्गमूल निकालने में वही नीति अपनाकर हमने भरत तथा हिमवान् आदि से बने अन्य धनुषाकार क्षेत्रों का क्षेत्रफल निकाला है। यहां प्राप्त किये गये मान निम्नलिखित तालिका २ में दिये जा रहे हैं। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. શું २ ३ हैमवत ४ ५ ६ विभाग ७ भरत हिमवान् महाहिमवान् हरि निषध दक्षिण विदेह [ ४९ ] तालिका २ (क्षेत्रफल ) सम्मिलित धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल ६०२, १३३५+ ३११२, १८०५+ ६ १. ०९७३, २५०२÷ ३, ३६६०, ३५४२ + ६, ५३२४, ३१०६+3 २४,६८१७, २१२३+ ३६, ५२६४, ७०७५ ५। विभाग का क्षेत्रफल ६०२, १३३५+f २५१०, ०४६९+ ७८६१, ०६९६ + २,२६८७. १०४० + ६. १६६३. ९५६६ + ३३ १५, १४९२, ९०१३+१ १४, ८४६७, ४९५१ + १ विभागीय क्षेत्रफलों का योग ३९, ५२८४, ७०७५ नोट - जम्बूद्वीप के उत्तरार्ध में स्थित ऐरावत क्षेत्र से उत्तरविदेह तक के सात विभागों का क्षेत्रफल भी क्रमशः यही होगा । ध्यान रहे कि तालिकाओं में उल्लिखित भरत से दक्षिण विदेह तक के सात विभाग मिलकर जो धनुषाकार क्षेत्र बनाते हैं वह जम्बूद्वीप का दक्षिणार्थ है और जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल 'तियोय पणती' चतुर्थ महाधिकार की गाथा ५६ ( देखिये पृष्ठ १७ ) में ७९०५६६४१५० वर्गयोजन पहले ही दिया जा चुका है (यही प्रमाण बाद में गाथा २४०९ में भी पाया है ) । अतः सातों विभागों से बने सम्मिलित धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल ऊपर के मान का आधा होगा जो कि तालिका २ में दिया गया है । इसके लिए सूत्र ( २ ) के उपयोग की आवश्यकता फिर से नहीं है । दूसरी बात यह है कि छपे ग्रन्थ में हमें महाहिमवान् पर्वत का क्षेत्रफल उपलब्ध नहीं है क्योंकि तत्सम्बन्धी गाथा हस्तलिखित पोथी में कीड़ों ने खाली है (देखिए पृष्ठ ६३७ पर दिया नोट) बाकी सब निकाले गए क्षेत्रफल 'तिलोयपण्णी' की गाथाओं ( २४०२ से २४०७ ) में दिये गये मूल मानों से पूर्णतया मेल खाते हैं। इससे स्पष्ट है कि हमारी विधि ठीक है और सम्भवतः यही विधि प्राचीनकाल में अपनाई गई थी। हो लिखने की विधि या व्यावहारिक कार्य प्रणाली चाहे भित्र रही हो । एक बात और स्पष्ट है, तालिका १ में दिये गए जीवाओं के मान ही सम्भवतः मूल ग्रंथ में थे । एक या दो स्थानों में भिन्नता सुधार की दृष्टि से किये गए बाद के परिवर्तन के कारण हों । इस लेख की सामग्री लेखक के उस संक्षिप्त लेख से मिलती जुलती है जो कि कुछ समय पहले अंग्रेजी में लिखा गया था और अब गणित-भारती नामकी पत्रिका के खंड ६ (१९८७) में प्रकाशित है। * Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम ५२ मा३ विषय गापा, पृ० सं० । विषय पाथा/पृ० सं० पंचम महाधिकार आदि के नवद्वीप समुद्रों के अधिपति देव ३७१३ ( गाथा १-३२३, पृ० १-२१४) शशेष द्वीप समूहों के अधिपति देव ४८।१५ मंगलाचरण ११ देवों की आयु एवं सेवादि तिर्यम्सोक प्रज्ञप्ति में १६ अन्तराधिकारों नम्बीश्वरी की स्थिति एवं व्यास ५२०१५ का निर्देश ।१ नन्दीश्वर द्वीप की बाह्य सूची का प्रमाण ५४११६ १.स्थायरलोक का लक्षण एवं प्रमाण अभ्यन्सर और बाल परिधि का प्रमाण ५५७ २.तिर्यग्लोकका प्रमाण ६२ अंजनगिरि पर्वतों का कथन ५७.१७ ३.होपों एवसागरों की संख्या ७.३ चार ग्रहों का कयन ६०।१४ ४. विन्यास (-२४२) पूर्व दिशागत पापिकाये ६२०१८ द्वीप समुद्रों की अस्थिति वापिकाओं के बनक्षत मादि अन्त के द्वीप समुद्रों के नाम १११३ दधिमुख पर्वत ५५।१९ आभ्यन्तर भाग में स्थित शीप समूहों के नाम १३१४ रतिकर पर्वत ६७.१९ बाह्यभाम में स्थित द्वीप समुद्रों के नाम २२१५ प्रत्येक दिशा में १३-१३ जिनालय ७०/२० समस्त द्वीप समुद्रों का प्रमाण २७१६ दक्षिण, पपिचम और उत्तर दिशा की समुद्रों के नामों का निर्देश २०१६ वापिकायें ७५॥२१ समुद्रस्थित अल के स्वाद का निर्देश २९७ घनों में अवस्थित प्रासाद मौर उनमें समुद्रों में जलचर जीवों के सद्भाव और रहने वाले देव ७७२२ अभाव का दिग्दर्शन न द्वीप में विशिष्ट पूजन काल ५३१२४ द्वीप समुद्रों का विस्तार ३२१७ विवक्षित द्वीप समुद्र का वलय व्यास सौधर्म मादि १६ इन्द्रों का पूजन के लिये मायमन ४॥२४ प्राप्त करने की विधि ३३ भवनत्रिक वेवों का पूजा के लिये बादि, मध्य और वाघ सूची प्राप्त करने की विधि आगमन ९८०२६ परिधि का प्रमाणु प्राप्त करने की विधि ३०११ पूजन के लिये दिशाओं का विभाजन १००।२७ द्वीप समुद्रादिकों के जम्बुद्वीप प्रमाण खण्ड प्रत्येक दिशा में प्रत्येक इन्द्र की पूजा प्राप्त करने हेतु करण मूत्र के लिए समय का विभाजन १०२०२० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय [ ५१] . गाथा पृ० सं० गाथा/पृ० सं० प्रतिमाओं का अभिषेक, विलेपन विजयदेव के नगर के बाहर स्थित और पूजा १०४१२८ वनखण्ड २२५२ नत्य गान एवं नाटकादि के द्वारा चैत्यवृक्ष २३२११३ भक्तिप्रदर्शन ११४१३० अशोदेव के प्रासाद का वर्णन २३४।५३ हुण्डल पर्वत ११७३० स्वपम्प्रभ पर्वत २४०१५ पर्वत पर स्थित कूटों का निरूपण १२०॥३१ १. क्षेत्रल ( २४३-२७९) मतान्तर से कुण्डलगिरि का निरूपण १२८३३ वृत्ताकार क्षेत्र का स्थूल क्षेत्रफल प्राप्त वचकवर द्वीप में रुचकावर पर्वत १४१३५ करने को मिषि पर्वत पर स्थित फूट और उनमें द्वीप समुत्रों के बादर क्षेत्रफल का प्रमाण निवास करने वाली घेवांगनाएँ और जपन्य परीतासंख्यात क्रम बासे दीप जन्माभिषेक में उनके कार्य १४॥३६ या समुद्र का गादर क्षेत्रफल सिंहकूटों का अवस्थान १६३६ स्वयम्भूरमण समुद्र का बादर क्षेत्रफल मतान्तर से सिक्कूटों का अवस्थान १६६४० उन्नीस विकल्पों द्वारा द्वीप समुद्रों का मतान्तर से शपक गिरिवंत का निरूपण १६७।४० अल्पबहस्व वित्तीय अम्यूठीप का प्रवस्थान १८०४३ इ. तिर्थच जीवों के भेव प्रभेट ( २८०-२८२) यहाँ विजय प्रादि देवों को नगरियों का तिर्य स जीवों के भेद और अबस्थान और उनका विस्तार १८११४३ कुल ३४ भेद २५२।१३९ नगरियों के प्राकारों का उत्सेध प्रादि १८३५४३ ७ तिर्यों का प्रमाण (संध्या) पृ. १४० प्रत्येक दिशा में स्थित गोपुर द्वार १८५४४ तेजस्कायिक जीवराधि का उत्पादन विधान १४० नगरियों में स्थित भवन १५६।४४ सामान्य पृथिवी, अल मौर वायुकायिक राजांगण का अवस्थान एवं प्रमाणादि १०८।४४ जीवों का प्रमाण राजोगण स्थित प्रासाद १९४५ भावर और सूक्ष्म जीवराशियों का प्रमाण पूर्वोक्त प्रासाद को चारों दिशाओं में धिवोकायिक भादि चारों को पर्याप्त स्थित प्रासाद १९२१४५ अपर्याप्त जीवराशि का प्रमाण सुधर्म सभा की अवस्थिति और उसका सामान्य वनस्पतिकायिक जीयों का प्रमाण १४६ विस्ताराधि २०१।४७ साधारण ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ १५१ उपाद आदि छड़ सभाओं (भवनों) साधारण बाबर वनस्पति का. और साधारण की अवस्थिति २०३१४८ सक्ष्म वनस्पतिकायिक जीपों का प्रमाण विजवदेवके परिवार का भवस्थान व साधारण बादर पर्याप्त-बपर्याप्त राशि प्रमाण २१६५० का प्रमाण १५२ १४४ १४५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.६ [ ५२ ] विषय गाथा पृ० सं० । विषय गाथा पृ० सं० साधारण सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त जीवों तियंचों को यह उत्कृष्ट आयु कहाका प्रमाण १५२ कहा और कब प्राप्त होती है। २८६।१६७ प्रत्येक शरीर वनस्पतिविजाबाके कर्मभूमिज सियंचों को जन्म आयु २८८।१६७ भेद प्रभेद १५२ भोग भूमिज तिर्यचों की आयु । २८॥१६७ बादर निगोद प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित पर्याप्त . तिथंच आयु के बन्धकमाव २९३-२९४।१६८ जीवों का प्रमाण १७. सियंत्रों की उत्पसि योग्य योनियो २९५-२१९१६९ मादर निगौद प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित ११ तिबंधों में सुख पुःख की परिकल्पना ३००1१५० अपर्याप्त जीव राषि १२. तियचों के गुणस्थानों का कपन ३०१-३०९।१७० त्रस जीवों का प्रमाण प्राप्त करने की विधि १५५ १३.तिपंचों में सम्यवस्वग्रहणके कारण १०.३११९७२ तीन्द्रिय जीवों का प्रमाण १४ लियंघबीबों की गति भागति ३१२.३१६१७२ से इन्द्रिय जीवराशि का प्रमाण ५५ तिथंच जीवों के प्रमाग का चौंतीस पयो में चार इन्द्रिय जीवों का प्रमाण १५८ अस्प बहुत पृ. १७३-१७७ पंचेन्द्रिय जीवराशि का प्रमाण १६ तिर्यों को आवश्यकता (३१७-३२२) सामान्य तीन्द्रियादि बीवों का प्रमाण सर्व जयम्य अवगाहना का स्वामी ३१.१७७ पर्याप्त प्रस जोषों का प्रमाण प्राप्त सर्वोत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण ३१।१७७ करने की विधि एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त उत्कृष्ट अवगाहना पर्याप्त तीन इन्टिय जीवों का प्रमाण का प्रमाण २१९/१७८ पर्याप्त दो इन्द्रिय जीवों का प्रमाण पर्याप्त स जीवों में जघन्य अवगाहना के पति पचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण स्वामी ३२०११७८ पर्याप्त चार इन्द्रिय जीवों का प्रमाण १६२ अवगाहना के विकल्पों का क्रम पृ० १७८ अपर्याप्त वीस्ट्रियाधि जीवों का प्रमाण श्रीन्द्रिय जीव ( गोम्टी ) की उत्कृष्ट तिमंच असंको पर्याप्त जीवों का प्रमाण अवगाहना तिथंच संझी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीव ( श्रमर ) की उत्कृष्ट जीवराशि का प्रमान प्रवगाहना *.मासु ( २८६-२९२) वीन्द्रिय जीव (शंख) को उस्कृष्ट पवगाहना २०५ स्थावर जीवों की उत्कृष्टायु २८॥१६६ बावर ब. का. प्रत्येक शरीर नि, प. कमल की विकलेन्द्रियों और सरीसपों की उत्कृष्ट प्रवगाहना २०७ उत्कुष्टायु पंचेन्द्रिय जीव (महामस्स्य) को सर्वोत्कृष्ट पक्षियों, सम और शेष नियंचों की अवगाहना २०६ उत्कुष्टायु २८५।१६६ । अधिकाराम्त मंगल ३२३१२१४ १६. १६२ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय षष्ठ महाषिकार ( गाथा १-१०३ पृष्ठ २१५ - २४१ ) मंगलाचरण १७ अन्तराधिकारों का निरूपण १. पत्र देव का निवास क्षेत्र निवास, भेद, स्थान और प्रमाण कूट एवं जिनेन्द्र भवनों का निरूपण अनुत्रिम जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा व्यन्तर भवनों की अवस्थिति एवं संख्या भवनपुरों का निरूपण आवासों का निरूपण २, व्यश्तर वेषों के भेव ३. विविध विह्न वंश्यवृक्ष जिनेन्द्र प्रतिमाओं का निण ४. भ्यन्तर देवों के कुल मेव ५. मश्म किनर जाति के दस मेद feagरुष जाति के दस भेद महोरग जाति के दस भेद गन्धर्व जाति के दस भेत्र यक्ष देवों के १२ व राक्षसों के ७ भेद मूतदेवों के ७ भेद पिशाचदेवों के १४ भेद गाथा / पृ० सं० गणिका महत्तारियों के नाम व्यक्तरों के शरीर व का निर्देश [ ५३ ] १।२१५ २१२९५ ५।२१६ ६।२१६ १६.२१७ १५।२१८ १८२१९ २१।२१६ २३।२२० २५।२२० २७।२२१ ३०।२२१ १२।२२२ ३४।२२२ ३६।२२३ २८१२३ ४०।२२४ ४२।२२४ ४४२२४ ४६.२२५ ४२२५ ५०१२२६ ५५।२२६ ६ दक्षिण-उसरों का निश ५१।२२७ व्यन्तर देवों के नगरों के माश्रयरूप द्वीप ६०।२२६ नगरों के नाम एवं उनका अवस्थान ६१।२२९ आठों द्वीपों में इन्द्रों का निवास विभाग १२।२२९ विषय गाथा, पृ० सं० व्यन्तर देशों के नगरों का वर्णन ६३ २३० व्यन्तरेन्द्रों के परिवार देव ६७।२३१ प्रतीन्द्र एवं सामानिकादि देवों का प्रमाण १९४२३१ सप्त अनीक सेनाओं के नाम एवं प्रमाण ७१ २३२ प्रकीर्णकादि व्यन्तरदेवों का प्रमाण गणिका महत्तरियों के नगर नीवोपपाद व्यन्तरदेवों के निवासक्षेत्र ७. व्यन्तर देवों की आयु ८. व्यश्वर देवों का आहार ९. व्यन्तर देवों का उच्छ्वास १०. व्यन्तर बेयों के अवधिज्ञान का क्षेत्र ११. व्यन्तर देखों की शक्ति १२. भ्यन्सर वेषों कारसेध १३ व्यन्तर वेब को संख्या १४. एक समय में जन्म-मरण का प्रमाण १५. श्रायुबन्धक भाव, १६. सम्यस्यग्रहण विधि १७. गुणस्थानादि विकल्प व्यन्तरदेव सम्बन्धी जिनभवनों का प्रमाण अधिकारान्त मंगलाचरण मंगलाचरण सप्तम महाधिकार ( गाथा १-६२४, पृष्ठ २४२-४४२ ) १७ अन्तराधिकारों का निर्देश . ज्योतिष देवों का निवास क्षेत्र प्राम्य क्षेत्र का प्रमाण २. ज्योतिष देवों के मेव ७६।२३३ ७८१२३४ ८०१२३४ ८३।२३५ ८७१२३६ ८९।२२७ ९०।२३७ ९२/२३८ ९८२३९ ९९।२३९ १००।२४० १०१३२४० १०१।२४० १०१।२४० वासयत्रय से उनका अन्तराल १०२/२४० १०३।२४१ १।२४२ २।२४२ ५।२४३ ६।२४३ ७२४४ ७१२४४ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] विषय गाया/पृ० सं० | विषय गाथा/पृ० सं० पूर्व पश्चिम दिशा में अन्तराल का प्रमाण ६।२४५ नक्षत्र नगरियों की प्ररूपणा १०४।२६५ दक्षिण उत्तरविशा में अन्तराल का प्रमाण १२४६ तारा नगरियों की प्ररूपणा १०८।२६६ ३. ज्योतिष देवों की संख्या का निवेश ११२४६ ताराणों के भेव ब उनके विस्तार का इन्द्रस्वाप चन्द्रज्योतिषी देवों का प्रमाण १२०२४७ प्रमाण ११-१२६६ प्रतीन्द्र स्वरूप सूर्य ज्योतिषीदेवोंका प्रमाण १४१२४७ ताराओं का अन्तराल एवं अन्य वर्गन ११२।२६६ अढासी ग्रहों के नाम १२२४७ ५ परिमाण : पन्द्राधि देवों के नगरादि का सम्पूर्ण ग्रहों की संख्या का प्रमाण २३१२४९ प्रमाण ११४१२१९ एक-एक चन्द्र के नक्षत्रों का प्रमाण एवं लोकविभागानुसार ज्योतिषनगरों का उनके नाम २५॥२४९ गहल्य ११५५२६६ समस्त नक्षत्रों का प्रमाण २४२५. ६ संचार : पविमानों की संचार भूमि ११६२६९ एक चन्द्र सम्माधी ताराओं का प्रमाण ३११२५० चन्द्रगती के विस्तारादि का प्रमाण ११९५२७. ताशनों के नामों के उपदेश का अभाव ३२१२५१ सुमेरुपर्वत से घन की अभ्यन्तर चौथी का समस्त तागानों का प्रमाण ३३३२५१ अम्तर प्रमाण १२००२७० ४. विपास : पत्रमण्डलों की प्ररूपणा ३६२५१ चन्द्र की ध्र बराशि का प्रमाण १२२॥२७१ चन्द्रप्रासावों का वर्णन ५०१२५४ चन्द्र की सम्पूर्ण गलियों के अन्तराल चन्द्र के परिवार देव-देबियों का निरूपण ५७७२५५ का प्रमाण १२४॥२७१ चन्द्र विमान के बाइक देवों का आकार चन्द्र की प्रत्येक वीथी का पातराल एवं संख्या ६३१२५६ प्रमाण १२।२७२ सूर्य मण्डलों की प्ररूपणा ६।२५७ चन्द्र के प्रतिदिन गमम क्षेत्रका प्रमाण १२७४२७२ सूर्य के परिवार देव देवियों का निरूपण ७६।२५९ द्वितीयादि बीथियों में स्थित पन्द्रों का सूर्य विमान के वाहक कों का आकार एवं सुमेरुपर्वत से अन्तर १२८१२७३ उनकी संख्या ८०/२५० प्रथम वीषी में स्थित दोनों चन्द्रों का ग्रहों का अवस्थान ८२१२६१ पारस्परिक अन्तर १४३३२७६ बुध नगरों की प्ररूपणा चन्द्रों को अन्तराल ददि का प्रमाण १४३२७७ शुक्रग्रह के नगरों की प्ररूपणा ८९।२६२ प्रथम पथ में दोनों बाद्रों का पारस्परिक गुरुग्रह के नगरों की प्ररूपणा २२०२६३ अन्तर १४६१२७७ मंगल ग्रह के नगरो की प्ररूपणा १५२६३ चन्द्रपप की अभ्यन्तर वीथीको परिधि शनिग्रह के नमरों की प्ररूपणा Ru૨૬૪ प्रमाण १६१०२. अवशेष ८३ ग्रहों की प्ररूपणा १०१।२१४ परिधि के प्रक्षेप का प्रमाण १६२।२८१ ८३३२६१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ] विषय गाथा/गृ० सं० । विषय गाथा पृ०सं० चन्द्र की द्वितीय आदि पथों की प्रयमादि पयों में मेरु से सूर्य का अन्तर २२८।२६८ परिधिया १६५/२८१ मध्यम पथ में सूर्य और मेव का अन्तर २३१।२६९ चन्द्र के गगनबण्ड एवं सनका अतिक्रमण बाह्य पप स्थित सूर्य का मेव से अन्तर २३२।२६६ १८२५ दोनों सूर्मो का पारस्परिक अन्तर २३४५३०० पन्न के वीपी परिभ्रमण का काल १८१।२८५ सूर्यो को अन्तराल बुद्धि का प्रमाण २३६:३०० प्रत्येक बीथी में चन्द्र के एक मुहूर्त-परिमित सूर्यो का अभीष्ट अन्तराल प्राप्त करने गमनक्षेत्र का प्रमाण १८५४२५६ का विधान २१७३३०० राह विमान का वर्णन २०१०२६२ द्वितीयादियों में सूर्यो का पारस्परिक राहओं के भेद २००२९२ मन्तर प्रमाण २३८।३०१ पूर्णिमा की पहिचान २०६।३१३ सूर्य का विस्तार प्राप्त करने की विधि २४१३३०२ कृष्ण पक्ष होने का कारण २०७।२६३ सूर्य-मागों का प्रमाण प्राप्त करने की अमावस्या की पहिचान २१२२६४ विधि चन्द्र दिवस का प्रमाण २१३।२६४ पार क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त करने की १५ दिन पर्यन्त चन्द्रकला की प्रतिदिन विधि की हानि का प्रमाण मेरुपरिधि का प्रमाण २१४।२६४ २४६।३०३ क्षेमा मौर अवध्या के प्रणिधि भागों की मतान्तर से कृष्ण व शुक्ल पक्ष होने का परिधि कारण २१५५२९५ २४७।३०४ क्षेमपुरी और अयोध्या के प्रणिविभाग चावग्रहण का कारण एवं काल २१६५२९५ में परिधि का प्रमाण २४८.३०४ सूर्य को संवारभूमि का प्रमाण व खगपुरी मौर अरिष्टा के प्रणितिभागों अषस्थान २१७१२९५ की परिधि २४६३०५ सूर्यवोथियों का प्रमाण, विस्तारादि और चक्रपुरी और अरिष्टपूरो की परिधि २५०11०५ प्रातराल का वर्णन २१६२६६ खड्गा और अपराजिता की परिधि २५१५३०६ सूर्य की प्रथम बीथी का पौर मेरु के बीच मंजपा मौर जयन्ता पर्यन्त परिधि मस्तर-प्रमाण २२२२९६ प्रमाण २५२।३०६ सूर्य की ध्र वराशि का प्रमाण २२२२२६६ औषषिपुर और बैजयन्ती की परिधि २५३१३०६ सूर्यपों के बीच पन्तर का प्रमाण २२३।२९७ विजयपुरी और पुण्डरीकिणो की परिवि२५४१३०७ सूर्य के प्रतिदिन गमनक्षेत्र का प्रमाण २२५।२९७ सूर्य की पम्यन्तर बीपी की परिधि २५५।३०७ मे से वीषियों का अम्तर प्राप्त करने सूर्य के परिधि प्रक्षेप का प्रमाण २५६।३०७ का विधान २२६।२९८ । द्वितीयादि बीषियों की परिधि २५३।०८ - - - - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] विषय --- -- Neel गाथा पृ०० | विषय गाथा/पृ०सं० सूर्य के बाह्य पथ का परिधि प्रमाण २६४।३०६ बाह्य पथ में तापक्षेत्र का प्रमाण ६।३२२ लवणसमुद्र के जलषष्ठ भाग की परिधि लवणोषि के छठे भाग की परिधि में का प्रमाण २६५॥३१० तापक्षेत्र का प्रमाण ३१०३२३ समानकास में विसमप्रमाणवाबी परिधियों सूर्य के द्वितीय पथस्थित होने पर इच्छित का भ्रमण पूर्ण कर सकने का कारण २६६।३१० परिधियों में तापक्षेत्र निकालने की विधि ३१२१२३ सूर्य के कुल गगनखण्डों का प्रमाण २६७४३१० सूर्य के द्वितीय पथ स्थित होने पर मेरु गगनखण्डों का प्रतिक्रमण काल २६८३११ पावि परिधियों में तापक्षेत्र का प्रमाण ११३॥३२३ सूर्य का प्रत्येक परिधि में एक मुहूर्त का सूर्य के द्वितीय पथ स्थित होने पर मध्यसर गमनक्षेत्र २७०।३११ (प्रथम) बीथी में तापक्षेत्र का प्रमाण १२२१३२५ बाह्य बीथी में एक मुहूर्त का प्रमाण मेन २७२।३१२ द्वितीय पथ को द्वितीय वीथीका तापक्षेत्र३२३१३२६ केतु निम्मों का वर्णन २७३।३१२ द्वितीय पथ की तृतीय वीपीका तापक्षेत्र ३२४१३२७ द्वितीय पथ की मध्यम बीथीका तापक्षेत्र ३२५०३२७ अभ्यन्तर और बाह्य वीथी में दिनरात द्वितीय पथ की बाह्य बीथीका तापक्षेत्र ३२६:३२८ का प्रमाण २७८।३१३ राशि और दिन की हानि वृद्धि का चय प्राप्त सूर्य के द्वितीय पथ में स्थित होने पर १२७१३२८ करने की विधि एवं उसका प्रमाण लवणसमुद्र के छठे भाप में तापक्षेत्र २८१।३१४ सूर्य के तृतीय पत्र में स्थित होने पर सूर्य के द्वितीयादि पपों में स्थित रहसे दिन रात्रि का प्रमाण २८३।३१५ परिषियों में सापक्षेत्र प्राप्त करनेको विषि१२८१२८ सूर्य के मध्यम पथ में रहने पर दिन एवं सूर्य के तृतीय पथ में स्थित होने पर भैरु भादि परिधिमों में तापक्षेत्र का प्रमाण ३२६।३२६ रात्रि का प्रमाण २८६।३१६ सूर्य के बाह्य पथ में रहते दिन रात्रि का । सूर्य के तृतीय पय में स्थित रहते अभ्यन्तर २६०1३१६ वोधी का तापक्षेत्र ३३८३३१ आतप एवं तमक्षेत्रों का स्वरूप २६४।३१ सूर्य के तृतीय पथ में स्थित रहते द्वितीय प्रत्येक आतप एवं तमक्षेत्र की मम्बाई २६५४३१८ बीथी का तापक्षेत्र ३३९४३३२ प्रथम पथ स्थित सूर्य की परिधियों में तृतीय बीथी का तापक्षेत्र ३४०।३१२ तापक्षेत्र निकालने की विधि २६६३१८ चतुर्थ वीपी का तापक्षेत्र ३४१२ प्रथम पथ स्थित सूर्य की क्रमशः दस मध्यम पथ का तापक्षेत्र ३४२।३३२ परिषियों में तापपरिषियों का प्रमाण २१७५३१६ बाझ दौथी का तापक्षेत्र ३४३३३३३ वितीय पथ में तापक्षेत्र की परिधि ३०७४३२१ लवणसमुद्र के छठे भाग में साप क्षेत्र ३४४।३३३ मध्यम पथ में तापक्षेत्र की परिधि ३०८/३२२ योष बाथियों में सापक्षेत्र का प्रमाण ३४५१३३३ प्रमाण Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. [ ५७ ] विषय गाथा/पृ० सं० | विषय गाथा/पृ.सं. सूर्य के बाह्य पथ में स्थित होने पर इछित द्वितीय पथ में तमक्षेत्र ३९१५३४९ परिधि में पक्षेत्र निकालने की विधि ३४६३३४ तृतीय पथ में तमक्षेत्र ३९२।३८६ सूर्य के मेस आदि की परिषियों में तापक्षेष मध्यमपथ में तमक्षेत्र ३१३१३५० का प्रमाण बा हाथ में तमक्षेत्र ३६४१३५० सूर्य के बाह्य पथ में स्थित होने पर लवणोदधि के छठे भाग में तमक्षेत्र प्रथम पथ में तापक्षेत्र ३५६ ३३७ शेष परिदियों में तमक्षेत्र ३६६४३५१ सूर्य के द्वितीय वीथी में तापक्षेत्र ३५७१३३:१ सूयं के :. होरे पर जगह: सूर्य के मध्यम पथ में तापक्षेत्र ३५८।३३७ का प्रमाण २६४३५१ सूर्य के बाह्यपथ में तापक्षेत्र ३५६।३३८ सूर्य के बाह्य पथ में विवक्षिप्त परिधिमें सूर्य के लवणसमुद्र के खठे भागमें तापक्षेव३६०५३३८ तमक्षेत्र प्राप्त करने की विधि ३६/३५१ सूर्य की किरणशक्तियों का परिचय ३६॥३३८ दोनों सूर्यो का तापक्षेत्र ३६२१३३९ सूर्य के माह्य पथ में मेरु आदि की परिधियों में तमक्षेत्रका प्रमाण सूर्य के प्रथम पप में स्थित रहते रात्रि का प्रमाण ३६३।३३६ सूर्य के बाह्य पथ में स्थित रहते प्रथम वीथी में तम-क्षेत्र का प्रमाण सूर्य के प्रथम प्रक्छित परिधि में तिमिर ४५६।३५४ क्षेत्र प्राप्त करने की विधि द्वितीय वीथी में तमक्षेत्र का प्रमाण ४.६।३५४ तृतीय वीथी में तमक्षेत्र का प्रमाण सर्य के प्रथम मेकपाटि परिधियों में ४१०३.५४ सिमिर क्षेत्र ३६५४३४० चतुर्थ वीथी में तमक्षेत्र ४११०३५४ सूर्य के प्रथम पम्पन्तर वीथी में तमक्षेत्र ३७४१३४२ मध्यम पथ में समक्षेत्रका प्रमाण ४१२।३५५ द्वितीय पथ में तमक्षेत्र सूर्य के बाह्य पथ में स्थित रहते बाह्य पथ में तृतीय पथ में तमक्षेत्र ३७६।३४३ तमक्षेत्र ४१३१३५५ मध्यम पथ में तमक्षेत्र सषणोदधि के छठे भाग में तमक्षेत्र का बाह्य पथ में तमक्षेत्र ३७८/३४३ प्रमाण लषण समुद्र के छठे भाग में तमक्षेत्र ३७९।३४४ दोनों सर्यो के तिमिर क्षेत्र का प्रमाण ४१५॥३५६ सूर्य के द्वितीय पथ में स्थित रहते इच्छित तिमिर क्षेत्र को हानि वृद्धि का क्रम ४५६।३५६ परिधि में तिमिरक्षेत्र प्राप्त करने की भातप और तिमिर क्षेत्रों का क्षेत्रफल ४१४॥३५.६ विधि ३८०३४६ दोनों सूर्य सम्बन्धी प्रातप एवं सम का सूर्य के मेरु मादि की परिधियों में क्षेत्रफल ४२१४३५७ तमक्षेत्र का प्रमाण ३८१३३४६ ऊध्वं प्रौर अध। स्थानों में सूरी के अभ्यम्तर पथ में समक्षेत्र ३९०११४९ भातप क्षेत्र का प्रमाण ४२२/३५८ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] विषय गाथा/पृ० सं० | विषय गाथा/पृ० सं० सयों के उदय अस्त के विवेचन का धनों सूर्यो के प्रथम मार्ग से द्वितीय मार्ग में निर्देश ४२२३५८ प्रविष्ट होने की दिशाएं ४५१६६७ जोवा और धनुष की कृति प्राप्त करने सूर्य के प्रथम और बाह्य मार्ग में स्थित की विधि ४२४१३५ रहसे दिन-रात्रि का प्रमाण ४५२।१६७ हरिवषे क्षेत्र के बारण का प्रमाण ४२५५३५९ सूर्य के उदय स्थानों का निरूपण ४५६।१६८ सूर्य के प्रथम पथ से हरिवर्व क्षेत्र के प्रहों का निरूपण ४५९।१६६ बाण का प्रमाण ४२६।३५६ चन्द्रपथों में संचार करनेवाले नक्षत्र ४६१।३७० प्रथम पथ का सूची ध्यास ४२८।३६० प्रत्येक नक्षत्र के तारापों की संख्या ४६५४३७२ प्रथम पथ से हरिवर्ष क्षेत्र के धनुष की प्रत्येक तारा का आकार ૪૬૭ ૨૩૨ कृति का प्रमाण ४२६।३६. कृति का आदि नक्षत्रों को परिवार ताराए' प्रथम पथ से हारवर्ष क्षेत्र के धनुः और सकल ताराए ४७०।३७३ पृष्ठ का प्रमाण जपन्य, उत्कृष्ट और मध्यम नक्षत्रों के नाम निषध पर्वत की उपरिम पृथ्वी का तथा इन तीनों के गगनखण्डों का प्रमाण ४७२१३७६ प्रमाण ४३११३६१ अभिजित नक्षत्र के गगनखण्ड ४७४॥३७॥ चक्षुम्पर्श के उत्कृष्ट क्षेत्र का प्रमाण ४३२।३६१ एक मुहूर्त के गगनखण्ड ४७५३७६ भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती धारा सूर्यबिम्ब में स्थित जिननिम्ब का दर्शन ४३४१३६२ सर्व मगनखणों का प्रमाण मोर बाकार ४७६१३७७ ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्ती द्वारा सूर्यस्थित सर्व गगनखण्डों का अतिक्रमण काल ४७५।२७७ जिनबिम्ब-दर्शन चन्द्र को प्रथम वोथी में स्थित १२ नक्षत्रों प्रथम पप में स्थित सूर्य के भरतक्षेत्र में मा एक मुहूर्त का गमनकष ४०1३७६ उदित होने पर क्षेमा आदि सोलह क्षेत्रों पन्द्र की तीसरी वीथी स्थित नक्षत्रों का में रात दिन का विभाग ४३५१६३ समनक्षेत्र ४५२११७८ प्रथम पत्र में स्थित सूर्य के ऐरावत क्षेत्र में कृत्तिका नक्षत्र का एक महतं का उदित होने पर प्रवध्या आदि १५ नगरियों সাধ ४६३१३७९ में रात दिन का विभाग ४४३२३६५ चित्रा और रोहिणी का एक मुहूर्त का भरत ऐरावत में मध्याह्न होने पर विदेह गमनक्षेत्र ४८४१३७९ में रात्रि का प्रमाण ४४६३६६ विशाखा नक्षत्र का एक मुहूर्त का नीश पर्वत पर सूर्य का उदय अस्त ४७३६६ गमनक्षेत्र ४८६।३० भरत ऐरावत क्षेत्र स्थित पक्रातियों द्वारा अनुराधा नक्षत्र का एक मुहूर्त का अदृश्यमान सूर्य का प्रमाण ४४८३६६ । गमनक्षेत्र ४८७३८० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय [ ५६ ] गाथा / पृ० सं० ज्येष्ठा नक्षत्र का एक मुहूर्त का गमनक्षेत्र पुष्पादि नक्षत्रों में से प्रत्येक के गमन क्षेत्र का प्रमाण ४८९।३६१ नक्षत्रों के मण्डल क्षेत्रों का प्रमाण ४९१।३८१ स्वाति आदि पनि नक्षत्रों की अवस्थिति ४१३।३८२ कृतिका आदि नक्षत्रों के उदय एवं बस्त आदि की स्थिति जम्बूद्वीपस्थ पर एवं पचर तारामों का शिक्षण चन्द्र से तारा पर्यंन्स ज्योतिषीदेवों के यमन विशेष सूर्य एवं चन्द्र के प्रयन और उनमें दिनरात्रियों की संख्या ४८.८३८० ४९५।३८२ ४६६०३८६ Yes Y १००/३८५ ५०३।३८५ अभिजित् नक्षत्र के अखण्ड नक्षत्र, चन्द्र एवं सूर्य द्वारा एक मुहूर्त में लांघने योग्य गगन खण्डों का प्रमाण सूर्य की अपेक्षा चन्द्र एवं नक्षत्र के अधिक गगनखण्ड सूर्य के तीस मुहतों के गगनखण्डों का प्रमाण त्रैराशिक द्वारा प्राप्त १८६० नमखण्डों के गमन मुहूर्त का काल ५.१२।३५८ नक्षत्र के तीस मुहतों के अधिक नभखंड ४१४/३८८ त्रैराशिक द्वारा प्राप्त १५० नमखण्डों का अतिक्रमण काल ५०८/२०६ ५१०/३५७ १११०३८८७ ५१५।३८१ सूर्य और चन्द्र की नक्षत्रमुक्तिका विधान ५१७/३८६ सूर्य के साथ प्रभिदि नक्षत्र का भुक्तिकाल ५१८३८९ | विषम गाथा / पृ० सं० सूर्य के साथ जघन्य नक्षत्रोंका मुक्तिकाल ५२० ३९० " उत्कृष्ट नक्षत्रों ५२१।३९० 21 मध्यम नक्षत्रों 11 ५२२।३६१ चना के साथ अभिजित् का मुक्तिकाल ५२३/३६१ जघन्य नक्षत्रों का मुक्तिकाल ५२५३६२ मध्यम का योग ५२६३६२ ५२७१३९३ ५२८/३९३ 12 " " ॥ " " " " 12 "उत्कृष्ट सूर्य सम्बन्धी अयन दक्षिण एवं उत्तर अपनों में आवृत्ति संख्या " " " " ५.२६/१६३ एक युग के विषुपों की संख्या ५३०/३९४ तिथि, पक्ष और पर्व निकालने की विधि ५३१/३६४ बाबुति और विषुप के नक्षत्र प्राप्त करने की विधि युग की पूर्णता एवं उसके प्रारम्भ की तिथि बोर दिन मदि दक्षिणायन सूर्य की द्वितीय और तृतीय प्रावृत्ति तु और पंचम बावृत्ति सूर्य सम्बन्धी पाँच उतरावृत्तियाँ युग के बस अपनों में विषयों के पर्व, तिथि और नक्षत्र उत्सर्पिणी अवसविणी कालों के दोनों नों का एवं विषुपों का प्रमाण लवणसमुद्र से पुष्कराक्षं पर्यन्त के चन्द्र विम्बों का विवेचन ५३२/३६५ ५३३।३९५ ५३४३६५ ५३५०३६५ ५.३७३३१६ ५४१३३९७ ५५१०३६६ घर के अभ्यन्तर पथ में स्थित होने पर प्रथम पथ व द्वीपसमुद्र जगती के बीच प्रन्तराल ५५४।४०१ ५१८/४०२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६ ] गाथा पृ० सं० | विषय गाया पृ० सं० लवासा में अभ्यन्तर वीथी और जगती धासको खस्य सूर्य पादि के अन्तर के अन्तराल का प्रमाण ५६०४०२ प्रमाण ५.३४०६ घातकी खण्ठ द्वीप में जगती से प्रथम कालोदधि में स्थित सूर्य आदि के वीथी का अन्तराल ५६॥४०३ बार प्रमाण ५८४१० कालोदधि में अगती से प्रथमवीथीगत पुष्करायगत सूर्यादि के अन्तर प्रमाण ५८७४१० चन्द का प्रस्तराल ५६२।४०३ जम्बूद्वीप में पन्तिम मार्ग से सम्पन्त र पूष्कराद्वीप में जगती से प्रथम बीधीपत में किरणों की गति का प्रमाण ५९.४११ चन्द्र का मस्तराल ५६३४४०३ दो चन्द्रों का पारस्परिक बान्तर प्राप्त लवणसमुद्र में जम्बूद्वीपस्थ चन्द्रादि की करने की विधि किरणों को गति का प्रमाण २६१२४११ लवण समुद्रगत चन्द्रों का प्रस्तराल जम्बूद्वीपस्थ अभ्यन्तर प्रौर बाल पथ स्थित प्रमाण ५६७/४०४ सूर्य की किरणों को गति का प्रमाण ५९२।४१२ धातकी खण्डस्थ चन्द्रों का पारस्परिक लवणसमुदादि में फिरणों का फलाव ५६४४१३ अन्तर प्रमाण ५५८४०५ लवणसमुदावि में सूर्यमीथियों की संख्या ५६५४५३ कालोदधि स्थित चन्द्रों का मन्तर प्रमाण५६९।४०५ प्रत्येक सूर्य की मुहूर्त परिमित गति का पुष्करास्थित चन्द्रों का मन्तरप्रमाण ५७०।४०६ प्रमाण ५६७४१३ चन्द्रकिरणों की गति ५७१।४०६ लकणसमुद्रादि में सूर्यो को शेष प्ररूपणा १९८४१४ लवणसमुद्रादि में चन्द्रवीथियोंका प्रमाण ५७२।४०६ लवणसमुहादि में ग्रह संख्या ५९९।४१४ लवणोषि आदि में चन्द की मुहूर्त ल बणसमुद्रादि में नक्षत्र संस्था ६०१॥४१४ परिमित गति का प्रमाण प्राप्त करने नक्षत्रों का शेष कथन ६०३५४१५ की विधि ५७३।४०७ लवणसमुदि चारों को ताराभों का लवणसमुतादि में चन्द्रों की मेष प्ररूपणा५७४१४०७ प्रमाण ६.४४१५ लपणसमुदादि में सूर्यो का प्रमाण ५७५१४०७ साशपों का शेष निरूपण ६०८४१६ उपयुक्त सूर्यो का अवस्थान, प्रत्येक का लवणसमुद्रादि चारों की स्थिर ताराओं का चारक्षेत्र और चारक्षेत्र का विस्तार ५७६।४०८ प्रमाण ६.६४१६ बौयियों का प्रमाण एवं विस्तार ५७५४०० मनुष्यलोक स्थित सूर्यचन्द्रों का विभाग ६११५४१७ लवणसमुद्रादि में प्रत्येक सूर्य के चार मनुष्यलोक स्थित सर्वग्रह, नक्षत्र और तथा प्रथमपथ एवं जगती के मध्य का अस्थिर स्थिर ताराओं का प्रमाण ६१२०४१७ मन्तर प्राप्त करने की विधि ५७९।४.८ ग्रहों की संवरण विधि लवणसमुद्र में प्रत्येक सूर्य का और ममती ज्योतिष देवों की मेरा प्रवक्षिणा का से प्रथम पथ का बतराल ५८२४.९ । निरूपण ६१६.४१% Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ] विषय गाथा पृ० सं० । विषय गाथा/पृ० सं० ७. अाईजीप के बाहर बबर ज्योतिषियों घोष दीपम मुद्दों पर घणीबड़ों के विन्यास की कपणा ६१७।४१९ का नियम १०८।४६७ मानुषोसर से स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त प्रेगीवन विमानों की पारुति प्रादि १०९।४६७ स्थित चन्द्र सूर्यो की विभ्यास विधि प्रकीर्णक विमानों का प्रवस्थान आदि ११०४६७ प्रत्येक द्वीप समुद्र के प्रथम वलय के चन्द्र सट बेदी ११२१४६८ सूर्य प्राप्त करने की विधि १०४२१ ३भेद:करूप और कल्पातीतका विमाग ११४१४६८ प्रत्येक बलम में चमका प्रमाण कल्प और बाल्पातीस विमानों का समास ज्योतिष देवों का प्रमाण अवस्थान ११५४६६ * पोसिधौ पेषों की मायु का निरूपण ६१६४४१ ४. नाम : बारह कल्प एवं कल्पातीत विमानों १-१७. माहारादि प्रमपणानों का रिम्पर्शन ६२११४४१ के नाम १२०४७० शरीर के उरसेष आदि का निर्देश ६२३।४४२ आदित्य इन्द्रक के वेणीबद्ध पौर प्रकीरणकों अधिकारात मंगलाचरण ६२१४४२ १२३।४७० सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक के श्रेणोन विमानों अष्टम महाधिकार के नाम (गाथा १-७२७, पृष्ठ ४४३-१८) १२५५४७१ मंगलाचरण ५. सीमा कल्प एवं कल्पातीत विमानों की १॥४४३ स्थिति पर सीमा इसकीस प्रन्तराधिकारों का निर्देश १२९।४७१ २।४४३ ६. संख्या :सौषम प्रादि कल्पों के आश्रित १.सुरलोक निवासक्षेत्र ३।४४४ श्रेणीवन एवं प्रकीर्णक विमानों का २. विन्यास : स्वर्ग पटलों की स्पिति एवं निषा १३७४७४ एमक विमानों का पारस्परिक अन्तराल ४४५ समस्त विमानों की संख्या का निर्देश १४९।४७६ ६३ इन्द्रक विमानों के नाम सौधर्मादि कल्पस्थित थेणीब विमानों प्रथम और अंतिम इन्द्रक विमानों के विस्तार की संख्या प्राप्त करने हेतु मुख एवं गच्छ का प्रमाण का प्रमाण १५५४७८ इन्द्धक विमानों की हानिवृद्धि का प्रमाण संकलित धन प्राप्त करने की विधि १६ . एवं उसके प्राप्त करने की विधि १९४४४७ सभी कल्पकल्पों के पृथक्-पृथक् श्रेणीइन्द्रक विमानों का पृथक्-पृषक् विस्तार २१६४४७ बर और इस्तक विमानों का प्रमाण १६११४८१ ऋतु इन्कादि के घेणीबद्ध विमानों के प्रकीर्णक विमानों का अबस्थान और उनकी नाम एवं उनका विम्यास क्रम ८२।४६१ पृथक-पृथक संख्या १६८।४३ प्रत्येक इन्द्रक सम्बन्धी घेणीबद्ध विमानों प्रकारान्तर से विमान संख्या १७८१४७ के नाम ९८४६४ संख्यात योजन विस्तारवाले विमानों श्रेणीब विमानों को अवस्थिति १०११४१५ की संख्या १८६:४८८ श्रेणीबद्ध विमानों के तिर्यग् अन्तराल असंख्वात मोजन विस्वारवाले विमानों और विस्तार का प्रमाण १०७.४६७ की संख्या १९२१४६० Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] विषय गाशा | विषय पापा/० सं० विमानतलों के बाहल्य का प्रमाण १९८४६१ चन्द्रादि को ज्येछ एवं परिवार देषिया ३०५५१६ स्वर्ग विमानों का वर्ण २०३१४९३ इन्द्रों की बल्लमा और परिवार वल्लमा देखियो विमानों के आधार का कथन २०६:४६४ ३१२॥५१७ इन्द्रमादि विमानोंके ऊपर स्थित प्रासाद२०८।४१४ सब इन्द्रों की प्राणवल्लभाओं के माम ३१७४५१८ ७. इन्द्रविभूति : इन्द्रों के परिवार देव, नाम प्रतीन्द्रादिक तीन की देवियां ३२०१५२० और पर २१४४ex लोकपालों की देविया ३२३५२० प्रतीन्द्र २१८।४६६ लोकपालों में से प्रत्येक के सामानिक देवों की देवियों ३२४१५२० सामानिक देव २१६।४६६ इन्द्रों में तनुरक्षक और परिषद देवों त्रास्निश और लोकपाल देव २२३।४६७ की देविया १२२५२१ तनुरक्षक देव २२४१४६७ प्रतीक देवों कीदेवियाँ ३३०१५२१ अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य परिषद् देवियों की उत्पत्ति का विधान १३३३५२४ के देव २२८४६ सौधर्मादिकल्पों में प्रवीचार का विधान ३३८।५२५ अनीक देव २३१५०० सात अनीकों को अपनी अपनी प्रथमावि इन्ट्रों के निवास स्थानों का निर्देश ४१३५२५ कक्षामों में स्थित वृषमादिकों के पर्ण का श्रेणियाँ एवं उनके मध्यस्थित नगरों के वर्णन २४७१५०४ प्रमाण प्रादि का निर्देश ३५४१५२९ प्रत्येक कमा के पन्तराल में बजनेवाले प्राकारों का उरसेष पादि वादित्र २५४१५०५ गोपुर द्वारों का प्रमाण प्रादि ३६॥५३॥ वृषमादि सेनामों की शोभा का वर्णन २५५५५०५ राजांगण के मध्यस्थित प्रासादों का प्रत्येक कक्षा के नर्सक देवों के कार्य २६०५५०६ विवेचन ३७०१५३४ सप्त अनीकों के प्रधिपतिदेव २७३१५०८ प्रासादों के उत्सेधादि का कथन ३७४१५३४ वाहमदेवगत ऐरावत हाथी २७८1५०९ सिंहासन एवं इन्द्रों का कथन ३७७१५३५ इन्द्र के परिवार देवों के परिवार देवों प्रत्येक इन्द्र की समस्त देवियों का का प्रमाण २८५५१. प्रमाण ३५२५३६ लोकपालों के सामन्त देवों का प्रमाण २८७५१० मतान्तर से सौधर्मेन्द्र की देवियों का दक्षिणेन्द्रों के लोकपालों के पारिषद् देवों प्रमाण ३६०।५३८ का प्रमाण २५६५११ इन्द्रों की सेवाविधि ३६१११३८ सत्तरेन्द्रों के मोकपालों के पारिषद देवों प्रधान प्रासाद के अतिरिक्त अन्य चार का प्रमाण २९११५११ प्रासाद ३९९४५३२ लोकपालों के सामन्त देवों के तीनों पारिषदों इन्द्र के प्रासादों के सम्मुख स्थित स्तम्भ ४०१।५४० का प्रमाण २६२।११२ इन्द्र भवनों के सामने न्यग्रोश वृक्ष ४०५1५४१ लोकपालों के अनीकादि परिवार देव २६३३५१४ सुषर्मा सभा ४१०॥५४२ लोकपालों के विमानों का प्रमाण २६७१९१४ । उपपाद समा ४१३३५४२ A Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] विषय गाथा/पृ० सं० | विषय गाथा/प० सं० जिनेनाप्रासाद ४१४।५४२ १४. लोकान्तिक देवों का स्वरूप ५३७५९७ देवियों और वल्लभामों के भवन मतान्तर से लौकान्तिक देवों की स्थिति एवं संख्या ६५८१६.२ द्वितीयादि वेवियों का कथन ४२४१५४६ लौ, देवों के उसेवादि का कथन ६६३।६.३ उपबन प्ररूपणा ४३२१५४ लो. देवों में उत्पत्ति का कारण लोकपालों के कोडानगर ४३६१५४८ ६६९६०४ १५. गुणस्याटिक का स्वरूप : पणिका महासरियों के नगर ४३८१५४६ २. प्ररूपणाएँ ६८६।६०९ सौधर्मेन्द्र आदि के यान-विमान ४४११५४९ १६. सम्यवस्वहण के कारण ७००।१११ इन्द्रों के मुकुट चिह्न ४५११५५१ १७. वैमानिक देव मर कर कहाँ कहाँ जन्म अहमिन्द्रों की विशेषता ४५५१५५४ लेते हैं ७०३।११२ ८. भायु : प्रत्येक पटल में देवों को प्रायु ४६११५५५ १८. अवधिज्ञान : ७०८।६१३ १९. बेषों को संख्या:मानिक देवों का उस्कृष्ट आयु ४६५५५५ पृथक-पृथक् प्रमाण अघन्य आयु २०. देवों को शक्ति ७२०१६१६ इन्द्रों के परिवार देबों की आयु २१. पारों प्रकार के देवों की योनि प्ररूपमा ७२२६१७ इन्द्र देखियों की पायु ५२९१५६६ अधिकारान्स मंगलाचरण इन्द्र के परिवार देबों की देवियों की ७२.६१८ ५३६/५७ नवम महाधिकार प्रथम यूगल के पटसों में भायु का (गाथा १-८२, पृ. ६१६-६३६ ) प्रमाण मंगलाचरण व प्रतिमा १. जन्म-मरण का असर ५४५५७८ पाँच मन्तराधिकारों का निर्देश २०६१६ मतान्तर से विरह काल ५५२१५७६ १. सिखों का निवास क्षेत्र १०. माहार : सपरिवार इन्द्रों के माहार २. सिद्धों की संख्या ५६२१ का काल ५५४१५८२ ३. सिखों की अवगाहना ११. श्वासोच्छ्वास ५६३५३ ४. सिद्धों का मुख १७४६२४ १२. चेवों के शरीर का उत्सेध ५६५५५४ ५. सियत्व के हेतुभूत भाव २२१६२५ १३. वेवायुबन्धक परिणाम ५५५५५५ कुन्थुनाय जिनेन्द्र से वर्धमान जिनेन्द्र को देवों में उत्पद्यमान जीवों का स्वरूप ५८०५८७ क्रमशः नमस्कार ७०।६३४ उम्पत्ति समय में देवों को विशेषता ५९०।५८९ पंच परमेष्ठी को नमस्कार ७८।६३५ भेरी के शम्म श्रवण के बाद होनेवाले भरत क्षेत्रगत २४ जिनों को नमन विविध क्रिया कलाप ५६४५८९ *प्रन्पात मंगलाचरण 10१६३६ मिनपूजा का प्रक्रम ५९६५९. * आपका प्रमाग एवं सामावि देवों का सुखोपभोग ६१३३५६२ *टीकाका माताजी को प्रशस्ति समस्काय का निरूपण ६२०१५१४ *मायानुक्रमणिका EY9 कृष्णराजिमों का पल्पबहत्व ६३२५९६ आयु Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र [तिलोयपण्णत्ती-सृतीय खण्ड] प्र०सं० पंक्तिसं २० से २४ अशुद्ध इस सम्पूर्ण अनुच्छेद को निरस्त समझे । द्वीप-समुद्रक द्वीप-समुद्र के २७१८७५ २७१८७५ योजन २६२५०० २६२५०० योजन इच्छिय-दवद्धि इच्छिय-दीवद्धि अथ अर्थ कालादक कालोदक पुष्करवरदीपका पुष्करवरद्वीपको ब्रह्मन्द्र ब्रह्मन्द्र (८४००० । और इतने और इतने ही Gl ३ सहस्सासि ६२ । को २१४८ सहस्सारिण ६२।२ को । को २१४ १८ ३०००.०x१००००० ग्यारहवें ५५ ६२ ग्यारहव १४ १९ जम० - ११२५००) १२५००० (२ - ११ ३ विक्क विक्खंभ क्षेत्रफल क्षत्र फल राज १२० +७५००० योजन +७५००० योजन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० सं० पंक्ति सं० प्रशुद्ध शुद्ध १२४ १२४ १२४ १२४ १२८ १३१ पचास पचहत्तर २५, २६ ९३७० ९राज २७ 35, ९०६३०,८१५६७० स, ६०६२५, ८१५६२५ ३२ समुद का क्षेत्रफल द्वीप का क्षेत्रफल विशेषाथ विशेषार्थ स्वयम्भूरमणद्वीप का क्षेत्रफल स्वयम्भूरमण द्वीप से अधस्तन समस्त द्वीपों का सम्मिलित क्षेत्रफल =( राजू + ६२५०.) = ( राजु - ६२५०० ) विशेषार्थ तालिका तीनों कॉलमों के शीर्षक इस प्रकार पढ़ें-आदिम सूची+प्रक्षेप; मध्यम सूची+प्रक्षप । बाह्य सूची + प्रक्षेप । ४ तालिका पत्तय ४ पत्तेय ४ असखेज्जा असंखेज्जा सालिका क्र.२ अन्द्रिय त्रीन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय पर्याप्त पंचेन्द्रिय २, ११ समुच्छिम संमुच्छिम अनन्तगुण अनन्तगुणे असंख्यातगुण असंख्यातगुणे जीवाण जीवाण भागस भाग से जीवाण जीवाणं १, ८, १५ जीवाण जीयाणं जीवाण जीवाणं १४२ १६२ १७७ १८० १८२ १६२ m or २०४ २०४ २१४ पवत गोम्होक भव्य कोदडारिए तुम्बर पर्वत गोम्हीके भव्य कोदंडारिण तुम्बुरू २२८ क्रम सं०४ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग] पृ० सं० २२९ २३४ २३५ प्रभ, कान्त, पावर्त एवंविह वर्ष, पल्य शेष में २४३ २४३ सफेद फुरंत २५६ २५८ २६८ घोड़े पंक्ति सं० प्रशुद्ध प्रभ कान्त, मावर्त ३ एवं विह ३ वर्ष पल्य शष में अक बिम्बों सफद फरत तालिका३पंक्ति घोड़ ११ स ३५ साट जुदै ससि-बिंबा 1 की परिधि के प्रमाण) (गाथार्थ) १३ कुछ अधिक पैंतालीस हजार पचहत्तर योजन है ।।२३१।। गाथा......."आया मुहूत १० ५३२३१ जीव की य गगनखण्ड ज्यष्ठा के २३ बिबारिंग फेलिसा, ततोरिणय..." २९३ २९५ २१९ ३२४ सद्वि-जुदं ससि-बिवा इसे निरस्त समझे। पचहत्तर योजन अधिक पैंतालीस हजार है ।।२३१॥ इस पंक्ति को निरस्त समझे। मुहूर्त ५३२३१ उपर जीवा की ये गगनखण्ड ज्येष्ठा के बिबारिण फेलित्ता, तत्तोणिय रवि संख अद्धणं ।।५७६।। १४००००० यो पल्यके अर्धच्छेद असंख्यात देने पर मते ३८१ ४०८ ४२७ १४००००० पत्यक अर्धच्छेद असंख्यात देनपर भण्ाते ४७१ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [घ ] पृ० सं० ४८५ ५०६ ५१३ ५१३ पंक्ति सं० अशुद्ध चित्र उपरिन ।। २५८ ।। तालिकापंक्ति २ कुबर ता.कॉलम ७,९ दव, दवों के पडिदादी विनयसिरि ता. कॉलम ७ प्रत्यक शुद्ध उपरिम ।। २५६ ।। कुबेर देव, देवों के पडिदादीण विण्यसिरि प्रत्येक ५१८ २ ५३८ गाथा ३६३ का प्रयास प्रकार पढ़ें- इन्द्रों के आस्थान में पीठानीक के अधिपति देव पादपीठ सहित बहुत से रत्नमय आसन देते हैं ।।३९३।। गाथा ३९४ का प्रयं इस प्रकार पढ़ें-स्थान के विभागों को जानकर जो जिसके योग्य होता है, देव उसे वैसा ही ऊँचा या नीचा तथा निकटवर्ती अथवा दूरवर्ती आसन देते हैं ।।३९४।। बैडूर्य ग्यारहवें ग्यारह में चोदस ३ ५४० ५५५ चोसद्द अक रणदावट्टम्मि अरिष्ट १ साल सुरसमिति ९ सा० शातकम ( यमब) गेंदावट्टम्मि अरिष्ट को सा. सुरसमिति की ९ सा. शातक में ( यम व) ५७७ ५८३ ५८४ सुत्र ५८४ ५८८ ५८९ चारम जम्मते वाल सखेज्ज चार में जम्मंते वाले संखेज्ज Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " " 22 ६०४ » [ ] १० सं० पंक्ति सं० असुद्ध शुद्ध तह यह तम तह य तम इस कार इस प्रकार धेयस्कर श्रेयस्क ५९९७ वृषभष्ट वृषभेष्ट ६०३ ।। ६६१-६६२॥ ॥ ६५६-६६२॥ ६०३ १७ लोयंतपुरा लोयंतसुरा होत है होते हैं ६०८ दृष्टव्य द्रष्टव्य ६०९ १२ जीवसमाज जीवसमास ग्रवयक अवेयक उनम उन में 'स्वर्गसुख के भोक्ता' शीर्षक के अन्तर्गत ७२५-७२६ दो गाथायें दर्शायी हुई हैं, वस्तुतः यह एक ही श्लोक है उसे संख्या ७२५ माने । ।। ७२७ ॥ ॥ ७२६ ।। एवंमारिय एबमाइरिय - १५७५ ध० + १५७५ ध० ६२५ सव सर्व ६३७ सुरौनिपातु सुरोधैनिपातु मंऽभूत विदधात्य सा विदधात्यासी नते त्रिलोकसारस्ये त्रिलोकसारस्य ६४० १४ प्रभोदभर्ती प्रमोदभर्ती ६४० २० यत्नात् विशेष 1-पृष्ठ २१७ से २८७ तक फोलियो में 'पंचमो महाहियारो' छप गया है । कृपया इसके स्थान पर २१७ पृ० से २४१ तक 'ट्ठो महाहियारो' पढ़ें भोर पृ० २४३ से २८७ तक 'सत्तमो महाहियारो' पढ़ें। ६२० मेऽभूत् यानात् Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पु० सं० ५२ ५२ ११० २१२ ४५७ ५९९ ७३६ ७८७ ७८५ पंक्ति सं० १ १० चित्र ता. पंक्ति ५ कॉलम ७ २१ चित्र १० अंतिम ८ [ ] [शुद्धि-पत्र तिलोयपण्णसी : द्वितीय खण्ड ] शुद्ध (१८२४ ) २ दक्षिण भरत क्षेत्र ज्योतिरंग मशुद्ध १२४ ( 19 ) भरत क्षेत्र ज्योतिरांग ४ धनुष इन तीर्थंकरों की ऊँचाई, आयु और तीर्थंकर प्रकृतिबंध के भवसम्बन्धी नाम देवारण्य- देवारण्य भूतारण्य-भूतारण्य ४०००००-२१०५ १४६१०१३+२३८३३ १४६०७७४÷१¥+९४४६ ४ कोस इन सीर्थंकरों की ऊँचाई, आयु और जो जीय तीर्थंकर होने वाले हैं उनके नाम भूतारण्य भूतारण्य देवारण्य-देवारण्य ४००००० × २१०५ १४६१०१३ – २३८३३३ - १४६०७७४१२३-९४४० - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जदिवसहाइरिय- विरहवा तिलोयपण्णत्ती पंचमो महाहियारो मङ्गलाचरण भय्व- कुमुदेवक- चंवं, चंदप्यह-जिणवरं हि पर्णामरण । भासेमि तिरिय- लोयं लवमेतं अप्प -सत्तीए ॥१॥ अर्थ - भव्यजनरूप कुमुदोंको विकसित करने के लिए अद्वितीय चन्द्रस्वरूप चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रको नमन करके मैं अपनी शक्तिके अनुसार तिर्यग्लोकका यत्किचित् ( लेशमात्र ) निरूपण करता हूँ ।। १ ।। तिर्यग्लोक - प्रज्ञप्ति में १६ अन्तराधिकारोंका निर्देश थावरलोय - पमाणं, मज्झम्मि य तस्स तिरिय-तस- लोप्रो । atatantr संखा, विष्णासो ग्राम संजुत्तं ॥२॥ गाणाविह खेत्तफलं आउग बंधण भावं, जोणी सुह तिरियाणं भेद संख आऊ य । - - - · - दुक्ख थोव · गदिरागबि सम्मत गहरा हेदू, बहुगयोगाहं । सोलसया अहियारा, पण्णसीए य तिरिया ||४|| - - गुण पहुदी ||३|| - अर्थ-स्थावर लोकका प्रमाण', उसके मध्यमें तिर्यक् त्रस - लोक द्वीप - समुद्रों की संख्या ", नाम सहित विन्यास, नानाप्रकारका क्षेत्रफल" तिर्यचोंके भेद, संख्या, प्रायु, आयुबन्धके १. ८. ब. क. जिल्वरे हि । २. द. ब. क. लोए । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५-७ निमित्तभूत परिणाम', योनि', सुख-दुःख", गुणस्थान आदिका, सम्यक्त्व-ग्रहणके कारण, मति-आगति", अल्पबहुत्व'५ और अवगाहना, इसप्रकार तिथंचोंकी प्रज्ञप्तिमें ये सोलह अधिकार हैं ।। २-४ ।। स्थावर-लोक का लक्षण एवं प्रमाण जा जीव-पोग्गलाणं, 'धम्माधम्म-प्पबंध-प्रायासे । होंति हु गदागदारिण, ताव हो थायरो लोगो ॥५॥ : - थायरलोयं गदं ॥१॥ प्रयं-धर्म एवं अधर्म द्रव्यसे सम्बन्धित जितने आकाश में जीव और पुदगलोंका आवागमन रहता है, उतना { = अर्थात् ३४३ घन राजू प्रमाण तीन लोक ) स्थावर लोक है ॥ ५ ॥ स्थावर-लोकका कथन समाप्त हुआ ॥ १॥ तिर्यग्लोकका प्रमाण मंदरगिरि-मूलादो, इगि-लपखं जोयणाणि बहलाम्म । रज्जअ पवर-खेत्ते, चे?दि तिरिय-तस-लोनो ॥६॥ sta'...... ATTA तस-लोय-परूवणा गदा ॥२॥ प्रर्य-मन्दरपर्वतके मूलसे एक लाख ( १००००० ) योजन बाल्य ( ऊंचाई ) रूप राजूप्रतर अर्थात् एक राजू लम्बे-चौड़े क्षेत्र में तिर्यक्-असलोक स्थित है ।। ६ ।। 11 त्रस-लोक प्ररूपणा समाप्त हुई ॥२॥ द्वीपों एवं सागरोंकी संख्या पणुवीस-कोडकोडो-पमाण-उद्धार-पल्ल-रोम-समा । वीओवहीण संखा, तस्सद्ध दीव-जलणिही कमसो ॥७॥ संखा समत्ता ॥३॥ १. ब. धम्मबहदुक्सगुण पलुदी। २. द. ब. चित्तेदि हु। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा - ११ ] पंचमो महाहियारो [ ३ श्रथं - पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धार पत्योंके रोमोंके प्रमाण द्वीप एवं समुद्र दोनों की संख्या है । इसकी प्राधी क्रमशः द्वीपोंकी और श्राधी समुद्रोंकी संख्या है ।। ७ 11 नोट- किंतु देखें इसी अधिकार की २७ वीं गाथा | संख्या का कथन समाप्त हुआ ।। ३ ।। द्वीप समुद्रोंकी अवस्थिति सध्ये दीव-समुद्दा, संखादीवा हवंति समवट्टा | पढमोदीओ उयही चरिमो मज्झम्मि दोबुवही' ॥६॥ अर्थ- सब द्वीप समुद्र प्रसंख्यात हैं और समवृत्त ( गोल ) हैं । इनमें सबसे पहले द्वीप, सरी अन्त में समुद्र र मध्य में द्वीप समुद्र है ॥ ८ ॥ चित्तावणि बहु-मज्भ, रज्जू-परिमारण- दीह-विवखम्भे । चेट्ठति बीच उबही एक्केवकं वेढिकरण डु प्परिदो ॥६॥ अर्थ - चित्रा पृथिवीके ( ऊपर ) बहु मध्यभागमें एक राजू लम्बे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एकएकको चारों श्रोरसे घेरे हुए द्वीप एवं समुद्र स्थित हैं ।। ९ ।। सन्धे व वाहिणीसा, चित्तखिदि खंडिदूरण चेट्ठति । वज्ज-खिदीए उर्वार, दीवा विहु उवरि वित्ताए ॥१०॥ अर्थ- सब समुद्र चित्रा पृथिवीको खण्डितकर वज्रापृथिवीके ऊपर और सब द्वीप चित्रापृथिवी के ऊपर स्थित हैं ।। १० ।। विशेषार्थ -- चित्रापृथिवीकी मोटाई १००० योजन है और सब समुद्र १००० योजन गहराई वाले हैं । अर्थात् समुद्रों का तल भाग चित्राको भेदकर वज्रा पृथिवी के ऊपर स्थित है । आदि - अन्तके द्वीप समुद्रों के नाम आदी जंबूदीओ, हवेदि दीवाण ताण सघलागं । अंते सयंभुरमणो णामेणं विस्सुवो दोश्रो ॥। ११॥ अर्थ — उन सब द्वीपोंके आादिमें जम्बूद्वीप और अन्तमें स्वयम्भूरमण नामसे प्रसिद्ध द्वीप है ।। ११ ।। १. ब. क. दौउबही २. द. ब. क. अ. विक्खंभो । ३. द. ब. क. ज. प्रदो । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] तिलोयपत्ती आदी लवण समुद्दो', सव्वाण हवेदि सलिलरासीणं । अंते सयंभुरमणो णामेणं विस्सुदो उबही ॥ १२ ॥ अर्थ---सब समुद्रोंमें आदि लवणसमुद्र और अन्तिम स्वयम्भूरमण नामसे प्रसिद्ध समुद्र है || १२ | अभ्यन्तरभाग ( प्रारम्भ ) में स्थित ३२ द्वीप समुद्रों के नाम पढमो जंबूदोश्रो, तप्परदो होदि लवण- जलरासी । तत्तो बादइसंडो, दोश्रो उवही य कालोदो ॥ १३॥ पोक्लरवरी ति दीओ, पोक्खरवर ' - वारिही तदो होदि । वारुणिवरख दीयो, वारुणिवर णीरधो वि तप्परदी || १४ || तत्तो खीरयरक्खो वीरवरो होदि णीररासी य । पच्छा घरघर दोश्रो, घववर-जलही य परो तस्स ॥ १५ ॥ खोदवरक्खो दीओ, खोदवरो लाम बारिही होदि । दोसर - वर बीश्रो, गंदीसर णीररासी अरुणवर णाम-बीओ, अरुणवरो नाम वाहिणीणाहो । श्ररुणभासो वीओ, अरुणभासी पयोरासी ॥१७॥ य ॥१६॥ [ गाथा : १२-२१ अंतर- भागादो, एदे बाहिरदो एवाणं कुंडलवरी त्तिदीम्रो, कुडलवर - नाम - रयणरासो य । संखवरक्खो वीनो, संखवरो होदि मधरहरो ॥ १८ ॥ रुजगवर णाम- दीओ, रुजगथरक्खो तरंगिणी - रमणो । भुजगवर णाम- बीओ, भुजगवरो अण्णओ होवि ॥ १६ ॥ कुसवर - णामो दोश्रो, कुसवर णामो य निण्णगा णाहो । कुचवर-नाम- दोओ, कुंचबरी - णाम- श्रापगा- कंतो ||२०|| बत्तीस - दीव - वारिणिही । साहेभि इमाणि सामाणि ॥ २१ ॥ १. इ. क. ज. समुद्दे । - ४. द. ज. रमणाओ । २. द. ब. क. ज. पोनखरवा । " ३. द. ब. क. ज. दीदि । : Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! २२-२६ ] पंचमो महाहियारो [ ५ अर्थ-प्रथम जम्बूद्वीप, उसके परे ( आगे ) लवणसमुद्र फिर धातकीखण्डद्वीप और उसके पश्चात् कालोदसमुद्र है । तत्पश्चात् पुष्करवर द्वीप एवं पुष्करवर वारिधि और फिर वारुणीवरदीप तया वारुणीवरसमुद्र है । उसके पश्चात् क्रमशः क्षीरवरद्वीप, क्षीरवरसमुद्र और तत्पश्चान् घृतबरद्वीप और घृतवर समुद्र है । पुनः क्षौद्रवरद्वीप, क्षौद्रबर समुद्र और तत्पश्चात् नन्दीश्वरद्वीप तथा नन्दीश्वर समुद्र है। इसके पश्चात् अरुणवरद्वीप, अरुणवरसमुद्र, अरुणाभासद्वीप और अरुणाभाससमुद्र है । पश्चात् कुण्डलबरद्वीप, कुण्डलवरसमुद्र, शंखवरद्वीप और शंखवरसमुद्र है । पुनः रुचकवर नामक द्वीप, रुचकवरसमुद्र, भुजगवर नामक द्वीप और भुजगवरसमृद्र है । तत्पश्चात् कुशवर नामक द्वीप, कुशवरसमुद्र, क्रौंचवर नामक द्वीप और क्रौंचवर समुद्र है । ये बतीस द्वीप - समुद्र अभ्यन्तर भाग से हैं। अब बाह्यभागमें द्वीप • समुद्रोंके नाम कहता हूँ जो इस प्रकार हैं-।। १३ - २१ ।। बाह्यभागमें स्थित द्वीप-समुद्रोंके नाम उवही सयंभुरमणो, अंते दीओ सयंभुरमणो सि । आइल्लो गारव्यो, अहिंदवर - उहि - दीवा य ॥२२॥ देववरोवहि - दीवा, अक्खबरक्खो समुद्द-दीवा य । भूववरणव - दीवा, समुद्द · दीवा वि णागवरा ॥२३॥ वेरुलिय-जलहि-दोवा, बज्जवरा वाहिणीरमण-दीवा। कंचण-जलणिहि-दोवा, रुप्पवरा सलिलणिहि - दीया ॥२४॥ हिमुल-पयोहि-दौवा, अंजणवर-णिणगाहिबइ'-दीया । सामभोणिहि - दीवा, सिंदूर - समुद्द - दीवा य ॥२५॥ हरिदाल-सिंधु-दोवा, मणिसिल-कल्लोलिणीरमण-दीवा । एस समुद्दा • दीवा, बाहिरदो होति बत्तीसं ॥२६॥ अर्थ-अन्तसे प्रारम्भ करने पर स्वयम्भूरमण समुद्र पश्चात् स्वयम्भूरमण द्वीप पादिमें है ऐसा जानना चाहिये । इसके पश्चात् अहीन्द्रवर समुद्र, अहीन्द्रवर द्वीप, देववर समुद्र, देववर द्वीप, यक्षवर समुद्र, यक्षवर द्वीप, भूतवर समुद्र, भूतवरद्वीप, नागवर समुद्र, नागवर द्वीप, बैडूर्यसमुद्र, वैडूर्यद्वीप, वज्रवरसमुद्र, बज्रवरतीप, कांचनसमुद्र, कांचनदीप, १. द. शिणगादईद, व. क. रिपरिणगादह । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २७-२८ रूप्यत्र रसमुद्र, रूप्यवरद्वीप, हिंगुलसमुद्र, हिंगुलद्वीप, अंजनवर निम्नगाधिप, अंजनवर द्वीप, यामसमुद्र, श्यामद्वीप सिदूरसमुद्र, सिंदूरद्वीप, हरिताल समुद्र, हरिताल द्वीप तथा मनःशिलसमुद्र और मनःशिलद्वीप ये बत्तीस समुद्र और द्वीप बाह्यभागमें अवस्थित हैं ।। २२-२६ ।। समस्त द्वीप - समुद्रों का प्रमाण चट्ठी-परिवज्जिद श्रड्ढाइज्जंबु - रासि रोम- समा । से संभोणि हि दीया, सुभ-णामा एक्क-णाम बहुवाणं ॥ २७ ॥ श्रयं - चौंसठ कम अढ़ाई उद्धार सागरोंके रोमों प्रमाण अवशिष्ट शुभ-नाम- धारक द्वीपसमुद्र है । इनमें से बहुतों का एक ही नाम है ॥। २७ ॥ विशेषार्थं -- त्रिलोकसार गाथा ३५९ और उसको टीकामें सर्व द्वीपसागरों की संख्या इस प्रकार दर्शाई गयी है- X साधिक प० छे x ३ ) प० के० जगच्छ्रेणी के अर्धच्छेद - ( असं० जगच्छ्रेणीके इन अर्धच्छेदोंमेंसे ३ अर्धच्छेद घटा देनेपर राजूके अर्धच्छेद प्राप्त होते हैं। यथा-राजूके अर्धच्छेद= [ ( x साधिक प० छे ×३ } – ३ } प० ० प्रसं० साधिक प० ले कम कर देनेपर ] जो अवशेष रहे उतने प्रमाण हो द्वीप राजू के इन अर्थच्छेदों में से जम्बूद्वीप के प० ० [ ( असं समुद्र हैं । इनमेंसे आदि-अन्तके ३२ द्वीपों और ३२ समुद्रों ( ६४ ) के नाम कह दिये गये हैं। शेष द्वीप - समुद्र भी शुभ नाम वाले हैं और इनमें बहुतसे द्वीप - समुद्र ( एक ) समान नाम वाले ही हैं, क्योंकि शब्द संख्यात हैं और द्वीप समुद्र असंख्यात हैं । १० छे' x ३ - ३ ) - साधिक प० छे द्वीप - समुद्रों का जो प्रमाण प्राप्त हुआ है वह पल्यके प्राधारित हैं, सागरके आधारित नहीं | इसी ग्रन्थके प्रथम अधिकारकी गाथा ९४ और १२८ में तथा इसी पूर्व अधिकार की गाथा ७ में प्राचार्य स्वयं कह चुके हैं कि उद्धार पल्यके जितने समय (रोम) हैं उतने ही द्वीप समुद्र हैं किन्तु इस गाथा में उद्धार सागरके रोमोंके प्रमाण बराबर द्वीप - सागरोंका प्रमाण कहा गया है; जो विद्वानों द्वारा विचारणीय है ॥१२७॥ समुद्रोंके नामोंका निर्देश जंबूदीवे लवणो, उबही कालो त्ति बादईसंडे | अवसेसा वारिणिही, बत्तव्या बीन-सम-णामा ||२८|| Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २९-३२ पंचमो महाद्रियारो [ ७ अर्थ--- जम्बूद्वीप में लवणोदधि और धातकीखण्ड में कालोद नामक समुद्र हैं। शेष समुद्रों के नाम द्वीपोंके नामोंके सदृश ही कहने चाहिए ।। २८ ।। समुद्रस्थित जल के स्वादों का निर्देश पत्तेरसा जलही, वसारो होंति तिष्णि उदय-रसा । सेसं' वीउच्छु-रसा, तदिय-समुद्दम्मिमधु-सलिल ॥२६॥ अयं -- चार समुद्र प्रत्येक रस ( अर्थात् अपने-अपने नामके अनुसार रसवाले ), तीन समुद्र उदक ( जलके स्वाभाविक स्वाद सदृश ) रस और शेष समुद्र ईख रस सदृश हैं। तीसरे समुद्रमें मधु ( के स्वाद ) सदृश जल है ।। २६ ।। पत्तेक रसा वारुणि-लक्षणद्धि-घदवरो य खोरवरो । उदक- रसा कालोदो, पोषखरओ सयंभुरमणो य ॥ ३०॥ अर्थ- वारुणीवर, लवणाब्धि, घृतवर और क्षीरवर, ये चार समुद्र प्रत्येक रस ( अपनेअपने नामानुसार रस ) वाले तथा कालोद, पुष्करवर और स्वयम्भूरमण, ये तीन समुद्र उदक रस ( जल रसके स्वाभाविक स्वाद ) वाले हैं ।। ३० ।। समुद्रों में जलचर जीवों के सद्भाव और अभाव का दिग्दर्शन लवणोदे कालोदे, जीवा अंतिम सयंभुरमणम्म । कम्म- मही- संबद्ध े, जलयरया होंति ण हु सेसे ॥ ३१ ॥ श्रथं -- कर्मभूमि से सम्बद्ध लवरगोद, कालोद और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र में ही जलचर जीव हैं। शेष समुद्रों में नहीं हैं ।। ३१ ।। ate - समुद्रों का विस्तार जंबू जोयण- लक्खं, पमाण- वासा दुद्गुण-बुगुणाणि । विक्खंभ पमाणाणि, लवणादि सयंभुरमतं ॥ ३२ ॥ १००००० । २००००० ! ४००००० | ८००००० | १६००००० | ३२०००००। १. द. सेसदिय ज से संद्दी - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ३२ अर्थ – जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन प्रमाण है। इसके आगे लवणसमुद्र से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त द्वीप समुद्रोंके विस्तार प्रमाण क्रमशः दुगुने दुगुने हैं ।। ३२ ॥ विशेषार्थ - प्रत्येक द्वीप - समुद्रका विस्तार इसप्रकार है 5 ४. ५. 1 口 नाम जम्बूद्वीप लवर समुद्र धातकी खण्ड कालोदधि पुष्करवरद्वीप पुष्करवर समुद्र विस्तार १ लाख योजन २ लाख योजन ४ लाख योजन ९. ८ लाख योजन १०. १६ लाख योजन ११. ३२ लाख योजन | १२ ३५८४ क्र० ७. ५६ 5. एवं भूववरसायर-परियंतं दटूलध्वं 1 धण जोयणाणि ३५ ।। वारुणीवर द्वीप वारुणीवर समुद्र क्षीरवर द्वीप क्षीरवर समुद्र घृतवर द्वीप घृतवर समुद्र वित्वारो ॥ धण जोयणाणि ७५ ॥ देववर दीव ॥ २२४ **4 धण ७५ ॥ अविवरदीव ॥ धण सयंभुवरदीव धण १८७५० ॥ धण ७५०००। नाम विस्तार ६४ लाख योजन १२८ लाख योजन २५६ लाख योजन ५१२ लाख योजन १०२४ लाख योजन २०४८ लाख योजन तस्सोयरिमज्जक्लयर दीवस्स जक्खवर समुद्द वित्थारो || धण ३७५ ॥ देववर समुद्द || घण ६३७५ ॥ अहिंदवरसमुद्द ३७५०० || सयंभु रमणसमुद्द - अर्थ - इसप्रकार भूतवर-सागर पर्यन्त ले जाना चाहिए। उसके ऊपर -- यक्षrर द्वीपका विस्तार [ जगच्छ्रेणी ३५८४ = षे यक्षवर समुद्रका विस्तार [ ० ० ÷ १७९२ = देववर द्वीप का विस्तार [ ज० ० ÷ ८९६ = देववर समुद्र का विस्तार [ ज० श्र०÷४४६ = अहीन्द्रवर द्वीप का विस्तार [ ज० ० : २२४ - अहीन्द्रवर समुद्र का विस्तार [ ० ० ÷ ११२१ स्वयम्भूरमणद्वीप का विस्तार [ज० श्र े० ÷ ५६ = स्वयम्भूरमणसमुद्र का विस्तार [ज० श्र० २८ ६ यो० । राजू ] + ३५ यो० 1 राजू ]+ राजू ]+ ३७५ यो० । राजू ]+ यो० । राजू ] + ९३७५ यो० । राजू ] + १८७५० यो० । राजू ] + ३७५०० योजन । राजू ] + ७५००० योजन है । ११२ * Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { गाथा : ३३-३४ ] पंचमो महाहियारो विवक्षित द्वीप-समुद्रका वलय-व्यास प्राप्त करनेकी विधि बाहिर-सई-मज्झे, लक्ख-तयं मेलिवण चउ-भजिये । इच्छिय - दीवड्ढीणं, वित्थारो होदि पलयाणं ॥३३।। प्रर्व-विवक्षित द्वीप-समुद्रक बाह्य-सूची-व्यासके प्रमाणमें तीन-लाख जोड़कर चारका भाग देनेपर वलय-व्यासका प्रमाण प्राप्त होता है ।।३३॥ विशेषार्थ-यहाँ कालोदधि समुद्र विवक्षित है। इसका सूची-व्यास २६ लाख योजन है । इसमें तीन लाख जोड़कर ४ का भाग देनेपर कालोदधिके वलय व्यासका प्रमाण ( २९००००० + ३००००० ): ४=८ लाख योजन प्राप्त होता है । आदिम, मध्य और बाह्य-सूची प्राप्त करनेकी विधि लवणादणं रुदं, द-ति-चउ-गुणिदं कमा ति-लक्खाणे । प्रादिम-मझिम बाहिर-सईणं होदि परिमाणं ॥३४॥ लब १००००० । ३०००००। ५००००० ।। धाद ५००००० । ९००००० । १३००००० । कालो १३००००० । २१००००० । २९००००० । एवं देववर-समुद्दत्ति दट्ठन्वं । तस्सुवरिमहिंदवर'-दोवस्स बार रिण जोयणाणि २८१२५०२ । मज्झिम २४। रिण २७१८७५' । बाहिर ५३ । रिण २६२५०० ॥ अहिंदवर-समुदं । ५. रिण २६२५०० । मज्झिम । रिण २४३७५० । बाहिर । रिण २२५००० ।। सयंभूरमणदीव । रिण २२५००० । मज्झिम २६ । रिण १८७५०० । वाहिर रिण १५०००० ।। सयंभूरमणसमुद्द । रिण १५०००० । मज्झिम | रिग ७५००० । बाहिर ॥ अर्थ-लवणसमुद्रादिकके विस्तारको क्रमशः दो, तीन और चारसे गुणाकर प्राप्त लब्धराशिमेंसे तीन लाख कम करनेपर क्रमशः आदिम, मध्यम और बाह्य सूची का प्रमाण प्राप्त होता है ॥३४।। विशेषार्थ-लवरणसमुद्रादिमेंसे विवक्षित जिस द्वीप-समुद्रका अभ्यन्तर सूची-व्यास ज्ञात करना इष्ट हो उसके बलय-व्यासको दो से गुरिणत कर प्राप्त लब्धराशिमेंसे तीन लाख घटाने पर अभ्यन्तर सूची-न्यासका प्रमाण प्राप्त होता है । १.१.क. ज. तिस्सबरिपरिम। २. ई.८१२५० । ३.द.स. २२३४२७१८७४ | Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ३४ विवक्षित वलय-व्यास प्रमाणको तीनसे मुणित कर तीन लाख घटाने पर मध्यम सूचीव्यासका प्रमाण प्राप्त होता है । १० ] विवक्षित वलय-व्यासको चारसे गुणितकर तीन लाख घटा देनेपर बाह्य सूची - व्यासका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा- लवणसमुद्रका अभ्यन्तर सूची - व्यास - ( २०००००४२ ) - ३ लाख = १००००० यो० । मध्यम सूची - व्यास - ( २०००००४३ ) - ३ लाख = ३००००० यो० । सूची - ध्यास = ( २०००००४४ ) – ३ लाख = ५००००० यो० | बाह्य धातकीखण्डका अभ्यन्तर सूची व्यास = ( ४००००० × २ ) - ३ लाख = ५००००० यो० । मध्यम सूची - व्यास = ( ४००००० × ३ ) – ३ लाख = ९००००० यो० | बाह्य सूची - ध्यास == ( ४०००००x४ ) – ३ लाख - १३००००० यो० । कालोदसमुद्रका अभ्यन्तर सूची - व्यास = ( ८००००० × २ ) - ३ लाख = १३००००० यो० । मध्यम सूची - व्यास - ( ८०००००×३ ) -- ३ लाख = २१००००० यो० । बाह्य सूची - व्यास - ( ८००००० × ४ ) - ३ लाख - २१००००० यो० । गद्य का अर्थ - इसी प्रकार देववर समुद्र पर्यन्त ले जाना चाहिए। इसके बाद अहीन्द्रवर द्वीपका अभ्यन्तर सूची-व्यास- ( २२४ + ९३७५ ) x ( २ ) – ३ लाख - ११२ – २८१२५० यो० । मध्यम सूची - व्यास = ( २६४ + ९३७५ ) x (३) - ३ लाख = २२४ - २७१८७५ बाल सूची- व्यास = ( २२४ + ६३७५ ) × ( ४ ) - ३ लाख ५६–२६२५०० । -. = ५६ – २६२५०० १ अद्दीन्द्रवर समुनका अभ्यन्तर सूची - व्यास = ( ११२ + १८७५० ) x ( २ ) - ३ लाख मध्यम सूची - व्यास = ( १२ + १८७५० ) x ( ३ ) - ३ लाख बाह्य सूची - ध्यास = ( ११२ + १८७५० ) x ( ४ ) - ३ लाख १२३३ - २४३७५० । २८ – २२५००० १ 5 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३५ ] पचमो महायिारो [११ स्वयम्भूरमणद्वीपका अभ्यन्तर सूची-ध्यास= ( ५६ + ३७५०० ) ४ (२) -३ लाख-.-२२५०७० । मध्यम सूची-व्यास = ( ५६+३७५०० )x(३)–३ लाख १८७५०० । बाह्य सूची-व्यास=( +३७५०० ) ४ ४)–३ लाख १५०००० । स्वयम्भूरमण समुद्रका अभ्यन्तर सूची-व्यास=( +७५.७०० )-(२)-३ लाख-१५०००० । मध्यम सूची-व्यास = (२+७५००० )x (३)-३ लाख ? - ७५००० । बाह्य सूची-व्यास= 2+७५००० }x (४)-३ लाख= या १ राज है। विवक्षित द्वीप-समुद्रकी परिधिका प्रमाण प्राप्त करनेकी विधि जंबू-परिहो-जुगलं, इच्छिय-दोयंबु-रासि-सूइ-हदं । जंधू-वास-विहत्त', इच्छिय-दवद्धि परिहि ति ॥३५ । मर्थ-जम्बूद्वीपके परिधि-युगल ( स्थूल और सूक्ष्म ) को अभीष्ट द्वीप एवं समद्र की ( बाह्य ) सूचीसे गुणा करके उसमें जम्बूद्वीपके विस्तारका भाग देनेपर इच्छित द्वीप तथा समद्रकी (स्थूल एवं सूक्ष्म ) परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है ।।३।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपको स्थूल-परिधि ३ लाख योजन और सूक्ष्म-परिधि ३१६२२७ योजन, ३ कोस, १२८ धनुष और साधिक १३३ अंगुल है। लवणसमुद्र, धातकीखण्ड और कालोद समुद्र विवक्षित समुद्र एवं द्वीपादि हैं । . जंबू. की परिधि ल. स. का बाह्य सूची व्यास लवण म० को परिधि_जबू० की परिधि ल.स. कान १००००० लवण स० की स्थूल परिधि ३ लाख ४५ लाख बस की स्थूल परिधि १ लाख -- १५ लाख योजन स्थूल परिधि । ...... _(३१६२२७ यो०, ३ कोस, १२८ ध०, १३३ अंगुल)४५ लाख लवण स० प०८' =१५८११३८ यो० ३ कोस, ६४० धनुष, २ हाथ और १६॥ अंगुल लवणसमुद्रकी सूक्ष्म परिधिका प्रमाण है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणात्ती [ गाथा : ३६ धातकी खण्डकी स्थल परिधि ३ लाख x १३ लाख १ लाख -- ३९ लाख योजन स्थूल परिधि । कालोदधिकी स्थूल परिधि-३ लाख ५ २६ लाख १ लाख = ८७ लाख योजन स्थूल परिधि । द्वीप-समुद्रादिकोंके जम्बुद्वीप प्रमाण खण्ड प्राप्त करने हेतु करण-सूत्र बाहिर - सूई - वग्गो, अभंतर-सूइ-बग्ग-परिहोणो । लक्खस्स फदिम्मि हिदे, इच्छिय-वीवुयहि-खंड-परिमाणं ।।३६॥ २४ । १४४ । ६७२ । एक सयंभुरमण-परियंत बटुल्यं । प्रथ-बाह्य सूची-ग्यासके वर्ग मेंसे अभ्यन्तर सूची-व्यासका वर्ग घटानेपर जो प्राप्त हो उसमें एक लाख ( जम्बूद्वीपके व्यास ) के वर्गका भाग देनेपर इच्छित द्वीप-समुद्रोंके खण्डोंका प्रमाण ( निकल ) आता है ॥३६।। विशेषार्थ---जम्बूद्वीप बराबर खण्ड बाह्य सूची व्यास-अभ्य ० सूची व्यास लवणपदके जम्बूद्वीप बराबर खण्ड=५ लाख-ला १ लाख -२४ खण्ड होते हैं। पाकी के जम्बदीप बराबर खण्ड १३ लाख-लाम' १ लाख १६९ ला ला-२५ ला ला १ ला ला %D१४४ खण्ड होते हैं। कालोद के जाबद्वाप बराबर खण्ड २९ लाख'- १३ लाख १ लाख _८४१ ला ला-१६९ ला ला १ ला ला =६७२ खण्ड होते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३७-४१ ] पंचमो महाहियारो [१३ इसप्रकार स्वयम्भूरमारा समुद्र पर्यन्त जानना चाहिए । जम्बूदीपको यादि लेकर नौ द्वीपों और लवणसमुद्र को मादि लेकर नो ममुद्रोंके अधिपति देवोंके नाम निर्देग जंबू-लवरणादीण, दीवुनहीणं च अहियई वोणि । पसेवकं बेतरया, ताणं णामाणि 'साहेमि ।।३७।। अर्थ - जम्बूद्वीप एवं लवरणसमुद्रादिकोंमेंसे प्रत्येकके अधिपति जो ( दो-दो ) व्यन्तरदेव हैं. उनके नाम कहता हूँ ।। ३७ ।। आदर-अणावरक्खा, जंबूदीवस्स अहिवई होंति । तह य पभासो पियदंसरतो व लवणंबुरासिम्मि ।।३।। अर्थ-जम्बूद्वीपके अधिपति देव आदर और अनादर हैं तथा लवणसमुद्रके प्रभास और प्रियदर्शन हैं ।। ३८॥ भुजेदि प्पिय-णामा, बंसरग-णामा य धादईसंडे । कालोक्यस्स पहुणो, काल महाकाल-णामा य ॥३६॥ मर्थ-प्रिय और दर्शन नामक दो देव घातकीखण्ड द्वीपका उपभोग करते हैं तथा काल और महाकाल नामक दो देव कालादक-समुद्र के प्रभु हैं ।। ३६॥ पउमो पुडरियक्खो, दीवं भजति पोखरवरक्खं । चक्खु-सुचक्खू पहुणो, होति य मणुसुत्तर-गिरिस्स ।।४।। मर्थ --- पद्म और पुण्डरीक नामक दो देव पुष्करवरद्वीपका भोगते हैं । चक्षु और सुचक्षु नामक दो देव मानुषोत्तर पर्वतके प्रभु हैं ।। ४० ।। सिरिपह-सिरिधर-णामा, देवा पालंति पोक्खर-समुई। वरुणो वरुण - पहक्खो, भुजते वारुणी - बीवं ॥४१॥ प्रयं - श्रीप्रभ और श्रीधर नामक दो देव पुष्कर-समुद्रका तथा वरुण और वरुणप्रभ नामक दो देव वारुणीवर द्वीपका रक्षण करते हैं ॥ ४१ ।। १. द. साहिमि, ब. क. ज. साहिम्मि। २. व. ब, क. अ. गिरिपत। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२-४७ वारुणियर-जलहि-पहू, पामेणे मज्झि-मज्झिमा देवा । पंडरय' - पुप्फदंसा, कोई जाति होय ॥४२६६ अर्थ-मध्य और मध्यम नामक दो देव वारुणीवर-समुद्रके प्रभु हैं । पाण्डुर और पुष्पदन्त नामक दो देव क्षीरवर-दीपकी रक्षा करते हैं ।। ४ ।।। विमल-पहलखो विमलो, खीरवरंभोणिहस्स अहिवरणो । मुप्पह - घदवर - देवा, घदवर - दीवस्स अहिणाहा ।।४३॥ अर्थ :- विमलप्रभ और बिमल नामक दो देव क्षीरवर-ममुद्रके तथा सुप्रभ और घृतवर नामक दो देव घृतवर द्वीपके अधिपति हैं ।। ४३ ।। उत्तर-महप्पहक्खा, देवा रक्खंति घदवरंबुणिहिं । कणय-कणयाभ-गामा, दीवं पालंति खोदवरं ॥४४॥ अर्थ- उत्तर और महाप्रभ नामक दो देव घृतवर-समुद्रकी तथा कनक और कनकाभ नामक दो देव क्षौद्रवर-द्वीपको रक्षा करते हैं ।। ४ ४ ।। पुणं पुण्ण-पहक्खा, देवा रक्खंति खोदवर-सिंधु। गंदीसरम्मि दीये, गंध - महागंधया पहुणो ॥४५॥ अर्थ पूर्ण और पूर्णप्रभ नामक दो देव क्षीद्रवर-समुद्रकी रक्षा करते हैं। गंध और महागंध नामक दो देव नन्दीश्वर द्वीपके प्रभु हैं ।। ४५ ।। रणबीसर-बारिरिणहि, रक्खते णवि-गंदिपह-णामा । भद्द - सुभद्दा देवा, भुजते अरुणवर - दीयं ॥४६॥ अर्थ-नन्दि और नन्दिप्रभ नामक दो देव नन्दीश्वर-समुद्रकी तथा भद्र और सुभद्र नामक दो देव अरुणवर-द्वीपको रक्षा करते हैं ।। ४६ ॥ अरुणवर-वारिरासि, रक्खते अरुण-अरुणपह-णामा। अरुणभासं दीवं, भुजंति सुगंध-सव्वगंध-सुरा ॥४७॥ अर्थ-अरुण और अरुणप्रभ नामक ( व्यन्तर ) देव अरुणवर समुद्रकी तथा सुगन्ध और सर्वगन्ध नामक देव अरुणाभास-द्वीपको रक्षा करते हैं ।। ४७ ॥ १. दै. ब. क.ज, पंदरय । २. दै. ब. क.ज. खूरवरं। ३. द.क. रक्खं तं, ब. रम संतते। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४६-५२ पंचमी महाहियारो शेष द्वीप समुद्रोंके अधिपति देवोंका निर्देश सेसाणं दीवाणं, वारि-थिहोणं' च अहिवई देवा । जे केइ तारा णामं, सुबएसो संपहि पणिट्ठी ||४६ || अर्थ- शेष द्वीप समुद्रोंके जो कोई भी अधिपति देव हैं, उनके नामोंका उपदेश इस समय नष्ट हो गया है ।। ४८ ।। उत्तर-दक्षिण अधिपति देवोंका निर्देश पढम-पवणिद- देवा, दक्खिरण - भागम्भि दीव उवहीणं । चरिमुच्चारिद देवा, चेट्ठते उत्तरे भाए ॥४६॥ है ।। ५२ ।। अर्थ -- इन देवों (युगलों) में से पहले कहे हुए देव द्वीप - समुद्रोंक दक्षिणभाग में तथा अन्तमें कहे हुए देव उत्तरभागमें स्थित हैं ।। ४९ ।। - जिय-जिय-दोउवहीगं, णिय-जिय-तल-सट्ठिबेसु राय रेसु ं । बहुविह परिवार जुदा, कीडते बहु बिरगोदेण ॥५०॥ - - - अर्थ – ये देव प्रपने-अपने द्वीप समुद्रोंमें स्थित अपने - अपने नगर-तलोंमें बहुत प्रकारके परिवारसे युक्त होकर बहुत विनोदपूर्वक क्रीड़ा करते हैं ।। ५० ।। उपर्युक्त देवोंकी आयु एवं उत्सेधादिका वर्णन - एकक - पलियोमाऊ, पत्तेक्कं दस-अणूणि उत्तुंगा । भूजंते विविह सुहं, समचउरस्संग - संठाणा ॥ ५१ ॥ - [ १५. १. द. ब. क. ज. शिद्दि च । समचतुरस्रसंस्थान से युक्त होते हुए अनेक प्रकारके सुख भोगते हैं || ५१ || नन्दीश्वरद्वीपकी अवस्थिति एवं व्यास - इनमें से प्रत्येककी आयु एक पल्योपम है एवं ऊँचाई दस धनुष प्रमाण है। ये सब जंबू- दीवाहितो, प्रमओ होदि भुवरण- विक्खाबो | गंदीस त्ति दी श्रो, गंदीसर - जलहि परिखितो ।। ५२ ।। - भुवन - विख्यात एवं नन्दीश्वर - समुद्रसे वेष्टित जम्बूद्वीपसे आठवाँ द्वीप 'नन्दीश्वर' Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्ण ती [ गाथा : ५३-५४ एक्क-सया तेसठ्ठी, कोडीओ जोयणाणि लक्खाणि । धुलसीदो तहीवे, बिक्खंभो चक्कवालेणं ॥५३॥ ५६३८४००००० अर्थ-उम द्वीपका मण्डलाकार बिस्तार एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख ( १६३८४००००० ) योजन प्रमाण है ।। ५३ ।। विशेषार्थ-इष्ट गच्छके प्रमाण मेंसे एक कम करके जो प्राप्त हो उतनी बार दो-दोका परस्पर गुणाकर लब्ध्रको एक लाखसे गुरिणत करनेपर वलय-व्यास प्राप्त होता है । जैसे—यहाँ द्वीप-समुद्रोंकी सम्मिलित गणनासे १५ वो नन्दीश्वरद्वीप इष्ट है । उपयुक्त करणसूत्रानुसार इसमेंसे १ घटाकर जो (१५-१-१४) शेष बचे उतनी (१४) वार दो का संवर्गन कर लब्धमें एक लाख का गुणा करना चाहिए । यथा २१४४ १०००००=१६३८४००००० योजन नन्दीश्वरद्वीपका विस्तार है । नन्दीश्वरद्वीपफी बाह्य-सूचीका प्रमाण पणवण्णाहिय छस्सय, कोडोयो जोयणाणि तेचीसा । लक्खाणि तस्स बाहिर • सूचीए होदि परिमाणं ॥५४।। ६५५३३०००००। अर्थ--उस नन्दीश्वरद्वीपकी बाह्य-सूचीका प्रमाण छहसौ पचपन करोड़ तैतीस लाख (६५५३३००००० ) योजन है ।। ५४ ।। विशेषार्थ -- इसी अधिकारको गाथा ३४ के नियमानुसार नन्दीश्वर द्वीपको सूचियोंका प्रमाण इसप्रकार है नन्दीश्वरद्वीपकी अभ्यन्तर सूची = ( १६३८४००००० x २ )- ३ लाख = ३२७६५००००० योजन है। इसी द्वीपकी मध्यम सूची=( १६३८४०००००४३ ) -- ३ लाख-४९१४६००००० योजन प्रमाण है। इसी द्वीपकी बाह्य सूची ( १६३८४०००००४४)- ३ लाख = ६५५३३००००० योजन प्रमाण है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ५५-५७ ] पंचमो महाहियारो [ १७ __नन्दीश्वरद्वीपकी अभ्यन्तर और वाह्य-परिधिका प्रमाण। तिदय-पण-सत्त-दु-ख-दो-एक्कापछत्तिय-सुण्ण-एक्क-अंक-कमे। ओयणया गंदीसर - अभंतर - परिहि - परिमाणं ॥५५॥ १०३६१२०२५५३। बाहसार-जुद-दु-सहस्स-कोडो-सेत्तीस लक्ख-जोयणया। चउवण्ण-सहस्साई इगि-सय-गउदी य बाहिरे परिहो ॥५६।। २०७२३३५४१९० । प्रर्थ-नन्दीश्वर द्वीप की अभ्यन्तर परिधिका प्रमाण अंक-क्रमसे तीन, पाच, सात, दो, शून्य, दो, एक, छह, तीन, शून्य और एक, इन अंकोंसे जो संख्या उत्पन्न हो उतने (१०३६१२०२७५३) योजन है ।। ५५ ।। इसकी बाह्य परिधि दो हजार बहत्तर करोड़ तैतीस लाख च उवन हजार एक सौ नब्बे ( २०७२३३५४१६० ) योजन प्रमाण है ॥ ५६ ॥ विशेषार्थ-चतुर्थाधिकार गाथा ९ के नियमानुसार नन्दीश्वरद्वीपकी अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य परिधि इसप्रकार है नन्दीश्वर द्वीपकी अभ्यन्तर परिधि (३२७६५०००००)२४१० = १०३६१२०२७५३ योजन, २ कोस, २३७ धनुष, ३ हाथ और साधिक १२ अंगुल प्रमाण है। इसी द्वीपकी मध्यम परिधि-1( ४६१४९००००० )२x १० = १५५४२२७८४७१ योजन, ३ कोस. १६६२ धनुष, २ हाथ और साधिक ५ अंगुल प्रमाण है । इसी द्वीप की बाह्य परिधि=( ६५५३३००००० )२-१०-२०७२३३५४१९० यो १ कोस, १०५१ धनुष, २ हाथ और साधिक २ अंगुल प्रमाण है। अंजनगिरि पर्वतोंका कथनगंदीसर बहुमझे, पुण्य - दिसाए हवेदि सेलवरो । अंजणगिरि विक्खायो, हिम्मल - वर - इंवणीलमत्रो ॥५७।। १. द. ब, क. ज. कमो। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] तिलोयपण्णती [ गाथा : ५८-६२ अर्थ-नन्दीश्वर द्वीपके बहुमध्यभागमें पूर्व-दिशाकी ओर अजनगिरि नामसे प्रसिद्ध, निर्मल, उत्तम-इन्द्रनीलमणिमय श्रेष्ठ पर्वत है ।। ५७ ।। जोयण-सहस्स-गाढो, चुलसीवि-सहस्समेत्त-उच्छेहो । सन्वेस्सि घुलसीदी-सहस्स-रुदो अ सम-चट्टो ॥५॥ १००० । ८४००० । ८४००० ! अर्थ-यह पर्वत एक हजार ( १००० ) योजन गहरा, चौरासी हजार (८४०००) योजन ऊँचा और सब जगह चौरासी हजार ( ८४०००) योजन प्रमाण विस्तार युक्त समवृत्त है ।। ५८ ।। मूलम्मि उवरिमतले, तह-वेदीसो विचित्त-वण-संडा । वर-वेदीलो तस्स य, पुन्योदित-यण्णा होति' ॥५६॥ अर्थ-उस ( अंजनगिरि ) के मूल एवं उपरिम-भागमें तट-वेदियों तथा अनुपम वन-खण्ड स्थित है। इसकी जान बेदियोका धन पूक्ति बेदियोंके ही सदृश है ।। ५९ ।। चार द्रहोंका कथन चउसु दिसा-भागेसु, चत्तारि दहा हवंति तग्गिरिणो । पत्तेक्कमेक्क-जोयण-लक्ख-पमाणा य चउरस्सा ॥६०॥ १०००००। अर्थ-उस पर्वतके चारों ओर चार दिशाओंमें चौकोण चार द्रह हैं। इनमें से प्रत्येक द्रह एक लाख ( १००००० ) योजन विस्तार वाला एवं चतुष्कोण है । ६० ।। जोयण-सहस्स-गाढा, कुविकपणा य जलयर-विमुक्का । फुल्लंत कमल-कुवलय-कुमुव - करणा - मोद - सोहिल्ला ॥६॥ प्रथ-फूले हुए कमल, कुवलय और कुमुदवनोंकी सुगन्धसे सुशोभित ये इह एक हजार (१०००) योजन गहरे, टंकोत्कीर्ण एवं जलचर जीवोंसे रहित हैं ।। ६१ ।। पूर्व दिशागत-वापिकानोंका प्ररूपरण णंदा - रदबदीओ, गंदुत्तर - विघोस - णामा य । एदामो वावीमो, पुवादि - पदाहिण - कमेणं ॥२॥ १. द. ब. क. ७. होदि। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ६६ पंचमो महाहियारो [ १९ अर्थ-नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिघोषा नामक ये वापिकायें पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिणा रूपसे अवस्थित हैं। ६२ ।। __वापिकाओंके वन-खण्डोंका वर्णन वाधोरण असोय-वणं, सत्तच्छद-चंपयाणि विविहाणि । चूदवणं पत्तेक्कं, पुन्धादि - दिसासु चत्तारि ॥६३।। अर्थ-उन वापिकाओंकी पूर्वादि चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें क्रमशः अशोक बन, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रवन हैं ।। ६३ ।। जोयण-लक्खायामा, तदद्ध-वासा हवंति वण-संडा । पत्रकं लेत-नुमा, माणाम-नः मि एडाप ।।६४॥ १००००० । ५००००। प्रथ-ये वन-खण्ड, एक लाख ( १००००० ) योजन लम्बे और इससे अर्ध ( ५०००० योजन ) विस्तार सहित हैं । इनमेंसे प्रत्येक वनमें, वनके नामसे संयुक्त चैत्यवृक्ष हैं ।। ६४ ।। दधिमुख नामक पर्वतोंका निरूपण । बायीणं यहु-मझ, दहिमुह-गामा हवंति दहियण्णा । एषकेका वर-गिरिणो, पक्कं अयुद-जोयणुच्छेहो ॥६५॥ अर्थ-वापियोंके बहु-मध्यभागमें दहीके सदृश वर्ण वाला एक-एक दधिमुख नामक उत्तम पर्वत है । प्रत्येक पर्वतकी ऊंचाई दस हजार ( १०००० ) योजन प्रमाण है ।। ६५ ।। तम्मेत्त-वास-जुत्ता, सहस्स-गाढम्म बज्जमय बड्डा । ताडोबरिम-तडेसु, तड-वेदी-वर-क्षणाणि विविहाणि ॥६६॥ १०००० । १०००। अर्थ-उतने ( १०००० योजन ) प्रमाण विस्तार सहित उक्त पर्वत एक हजार (१०००) योजन गह्राईमें वज्रमय एवं गोल हैं। इनके तटोपर तट-वेदियाँ और विविध प्रकारके वन हैं ॥६६॥ रतिकर पर्वतोंका कथन वायीणं बाहिरए, दोसु कोणेसु दोण्णि पत्तेवकं । रतिकर-णामा गिरिणो, कणयमया वहिमुह-सरिच्छा ॥६७।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] तिलोयपण्णी [ गाथा : ६६-७१ अर्थ-वापियोंके दोनों बाह्य कोनों में से प्रत्येक में स्वर्णमय रतिकर नामक दो पर्वत दधिमुखोंके आकार सहश हैं ।। ६७ ॥३ जोयण - सहस्स वासा, तेसिय- मेत्तोदया य पसवक । अढाइ सयाइ य, अवगाढा रतिकरा' गिरिणो ।।६८ || १००० | १००० । २५० । अर्थ -- प्रत्येक रतिकर पर्वतका विस्तार एक हजार (१०००) योजन, इतनी (१००० यो० ) ही ऊँचाई और अढ़ाई सौ ( २५० ) योजन प्रमाण अवगाह ( नींव ) है ।। ६८ ।। ते च च उ-कोणेसु एक्केबक- दहस्स होंति चचारि । 1 लोयविणिच्छिय कत्ता, एवं पाठान्तरम् । प्रयं - वे रविकर पर्वत प्रत्येक ग्रहके चारों कोनोंमें चार होते हैं, इसप्रकार लोक विनिश्चय कर्ता नियमसे निरूपण करते हैं ।। ६६ ।1 गियमा परुवंति || ६ || नन्दीश्वरी की प्रत्येक दिशामें तेरह-तेरह जिनालयों की प्रवस्थिति एक्क --- अंजण- वहि मुह-रइयर - गिरीण सिहरम्मि । age वर रयणमओ, एक्केषक- जिणिद-पासावो ॥७०॥ - - अर्थ – एक अञ्जनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर पर्वतोंके शिखरों पर उत्तम रत्नमय एक-एक जिनेन्द्र मन्दिर स्थित हैं ।। ७० ।। नन्दीश्वरद्वीप स्थित जिनालयोंकी ऊँचाई प्रादिका प्रमारण जं भहसाल - वरण- जिण घराण उस्सेह-पहूदि उनइट्ठ तेरस जिण भवणाणं तं एदाणं पि वत्तव्यं ॥७१॥ पाठान्तर । भवनों की भी कहना चाहिए ॥ ७१ ॥ अर्थ --- भद्रशाल बनके जिन ग्रहोंकी जो ऊँचाई प्रादि बतलाई है, वहीं इन तेरह जिन विशेषार्थं -- चतुर्थाधिकार गाथा २०२६ में भद्रशालवन स्थित जिनालयोंकी लम्बाईौड़ाई आदि पाण्डुकवन स्थित जिनालयोंकी लम्बाई-चौड़ाई आदिले चौगुनी कही गई है और इसी १. ६. ब. रतिकर । २. ज. गिरिणा । ३. द. ब. क. ज. चेति हूँ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ गाथा : ७२-७६ ] पंचमो महाहियारो अधिकारकी गाथा १८७९-१८८० में पाण्डुकवन स्थित जिनालयोंकी लम्बाई १०० कोस, चौड़ाई ५० कोस, ऊँचाई ७५ कोस और नींव ३ कोस कही गई है अतः भद्रशालवन एवं नन्दीश्वरद्वीप स्थित जिनालयोंका प्रमाण इससे चौगुना अर्थात् १०० योजन लम्बाई, ५० यो० चौड़ाई, ७५ यो० ऊँचाई और २ यो० की नींव जानना चाहिए। पूजा, नृत्य और वाद्यों द्वारा भक्ति प्रदर्शन जल-गंध-कुसुम-तंदुल-बर-चर-फल-वीव-धूय-पहवीहि ।। अच्चंते थुण-माणा, जिणिद-पडिमानो देवा' य ।। ७२ ॥ प्रर्य-इन मन्दिरों में देव जल, गन्ध, पुष्प, तन्दुल, उत्तम नैवेद्य, फल, दीप और धूपादिक द्रव्योंसे जिनेन्द्र प्रतिमानोंको स्तुति-पूर्वक पूजा करते हैं ।। ७२ ॥ जोइसय-वाणवतर-भावण-सुर-कप्पवासि-वीओ । णचंति य गायंति य, जिण-भवणेसु विचित्त-भंगोहिं॥७३॥ प्रयं-ज्योतिषी, वानव्यन्तर, भवनवासी और कल्पवासी देवोंकी देवियां इन जिनभवनोंमें अद्भुत रीतिसे नाचती और गाती हैं ।। ५३ ।। भेरी-महल-घंटा-पहुबोणि विविह-दिम्ब-वजाणि । वायंते देववरा', जिणवर • भवणेसु भत्तीए ॥ ७४ ।। पर्य-जिनेन्द्र-भवनों में उत्तम देव भक्ति-पूर्वक भेरी, मर्दल भोर घण्टा प्रादि अनेक प्रकार के दिव्य बाजे बजाते हैं ।। ७४ ।। दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा स्थित बापिकाओंके नाम एवं दक्षिण-पच्छिम-उत्तर-भागेसु होति विन्व-वहा । णवरि विसेसो णामा, पमिणि-संठाण अण्णाणि ॥७५॥ अर्थ-इसीप्रकार ( पूर्व दिशाके सदृश ही ) दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भागोंमें भी दिव्य द्रह हैं। विशेष इतना है कि इन दिशामों में स्थित कमल युक्त वापियोंके नाम भिन्न-भिन्न हैं ।। ७५ ।। पुन्यादीसु अरजा, विरजासोका य वोक्सोको चि । दक्षिण - अंजण - सेले, चसारो परमिणीसंडा ॥७॥ १. ६. ब. क. ज. देवारिण। २. द. ब. क. ज. देववरो। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ७७-८० अर्थ -- दक्षिरण अञ्जनगिरिकी पूर्वादिक दिशाओं में अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका नामक चार वापिकाएँ हैं ।। ७६ ।। २२ ] विजय तिवइजयंती, जयंति णामापराजिदा सुरिमा । पच्छिम जय तेले', अशा - कंसवणीसंता ॥७७॥ अर्थ --- पश्चिम अञ्जनगिरिकी चारों दिशाओं में विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और चौथी अपराजिता, इसप्रकार ये चार वापिकाएँ हैं ।। ७७ ।। रम्मा - रमणीयाओ, सुप्पह णामा य सन्वदो भद्दा | उत्तर - अंजण सेले, पुत्रादिसु कमलिणीसंडा ॥७८॥ - श्रर्थ - -उत्तर अञ्जन गिरिको पूर्वादिक दिशाओं में रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतो - भद्रा नामक चार वापिकाएँ हैं ।। ७८ ।। वनों में अवस्थित प्रासाद और उनमें रहनेवाले देवोंका कथन एक्क्का पासावा, चउसट्ठि-वणेसु अंजरणगिरीणं । घुवंत धय-वडाया हवंति वर रयण-कणयमया ॥७६॥ भ्रयं – अञ्जन गिरियोंके चौंसठ बनोंमें फहराती हुई ध्वजापताकाओंसे संयुक्त उत्तम रत्न एवं स्वर्णमय एक-एक प्रासाद है ।। ७९ ।। विशेषार्थ – नन्दीश्वरद्वीपको चारों दिशाओंमें एक-एक अञ्जनगिरि पर्वत है । प्रत्येक अंजनगिरिको चारों दिशाओंमें एक-एक वापिका है और प्रत्येक वापिकाकी प्रत्येक दिशा में एक-एक वन है । इसप्रकार एक दिशामें एक अञ्जनगिरिकी चार वापिकाओं सम्बन्धी १६ वन हैं। चारों दिशाओंके ६४ वन हैं और प्रत्येक वनमें एक-एक प्रासाद हैं । वासट्टि जोयणाणि उदओ इगितीस ताण वित्थारो । farथार समो दोहो, वेबिय चउ-गोड रेहि परियरिश्रो ||८०|| अर्थ - इन ( प्रासादों ) की ऊँचाई वासठ योजन और विस्तार इकतीस योजन प्रमाण है । इनकी लम्बाई भी विस्तारके सदृश इकतीस योजन प्रमाण ही है । ये सब प्रासाद वेदियों और चार-गोपुरोंसे व्याप्त हैं ॥ ८० ॥ १. द. व. क. ज. सेला । २. द. ज. एक्केक्रूं । ३. ब. कणयमाला । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८१ ] पंचमो महाहियारो [ २३ यण-संड-णाम-जुत्ता', वेतर - देवा वसंति एवेसु । मणिमय-पासादेसु, बहुविह-परिवार-परियरिया ।।।। प्रथं-इन मणिमय प्रासादोंमें वन-खण्डोंके नामोंसे संयुक्त प्यन्तर देव बहुत प्रकारके परिवारसे व्याप्त होकर रहते हैं ।। ८१ ।। नोट-नदीश्वरद्वीपको चारों दिशा सम्बन्धी ५२ जिनालयोंका चित्रण इसप्रकार है लन्दी HD व र ACHHETRA १. २. ब. क. ज. जुत्तो। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ८२-८६ गंदीसर-विदिसासु, अंजण-सेला हवंति चत्तारि । रहकर - माण' - सरिच्छा, केई एवं पवेति ॥२॥ पाठान्तरम् । अर्थ-नन्दीश्वरद्वीपको विदिशाओं में रतिकर पर्वतोंके सदृश परिमाणवाले चार अञ्जनशल हैं । इसप्रकार भी कोई आचार्य निरूपण करते हैं ।। ६२ ।। पाठान्तर । नन्दीश्वर द्वीप में विशिष्ट पुनमले समणका निर्धारण यरिसे-वरिसे चउ-बिह-देवा गंदीसरम्मि दीवम्मि । प्रासाढ - कत्तिएसु, फग्गुण - मासे समायंति ॥३॥ अर्थ- चारों प्रकारके देव नन्दीश्वर द्वीपमें प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कातिक और फाल्गुन मासमें पाते हैं ।। ८३।। नन्दीश्वरद्वीपमें सौधर्म प्रादि १६ इन्द्रोंका पूजनके लिए प्रागमन एरावणमारूढो, विव्य - विमूढोए भूसियो रम्मो । णालियर - पुण्ण - पाणी, सोहम्मो एदि भत्तीए ।।४।। अर्थ- इससमय ऐरावत हाथीपर आरूढ़ और दिव्य विभूतिसे विभूषित, रमणीय सौधर्म इन्द्र हाथमें पवित्र नारियल लिए हुए भक्तिसे यहाँ आता है ।। ८४ ॥ बर - वारणमारूढो, बर रयण-विभूषणेहि सोहंतो। पूग - फल - गोच्छ - हत्थो, ईसाणिदो वि भतीए ॥१५॥ अर्थ- उत्तम हाथीपर आरूढ़ और उत्कृष्ट रत्न-विभूषणोंसे सुशोभित ईशान इन्द्र भी हाथमें सुपारी फलोंके गुच्छे लिये हुए भक्तिसे यहाँ आता है ।। ८५ ।। वर-केसरिमारूढों, एव-रवि-सारिएछ-कुडलाभरणो। धूद-फल-गोच्छ-हत्थो, सणवकुमारो वि भत्ति - जुशे ॥८६॥ प्रर्थ उत्तम सिंहपर चढ़कर, नवीन सूर्य के सदृश कुण्डलोंसे विभूषित और हाथमें आम्रफलोंके गुच्छे लिये हुए सनत्कुमार इन्द्र भी भक्तिसे युक्त होता हुआ यहाँ आता है ।। ८६ ॥ १. द. ब. क. ज. साम । २. द. ज. केसर । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७. संमो महादिया प्रारूढो वर-तुरयं, वर-भूसण-भूसिदो विविह-सोहो । कदली - फल - लुबि - हत्यो, माहिदो एदि भत्तोए ।।७।। अर्थ – श्रेष्ठ घोड़ेपर चढ़कर, उत्तम भूषणोंसे विभूषित और विविध प्रकारकी शोभाको प्राप्त माहेन्द्र इन्द्र लटकते हुए केले हाथ में लेकर भक्तिसे यहाँ प्राता है ।। ८७ ।। हंसम्मि चंद - धवले, आरूढो विमल-देह-सोहिल्लो । वर-कई-कुसुम-करो, भत्ति - जुदो एदि बम्हिदो ।।८।। अर्थ - चन्द्र सदश धवल हंसपर आरूढ़, निर्मल शरीरसे सुशोभित और भक्तिसे युक्त ब्रह्मन्द्र उत्तम केतकी पुष्पको हाथ में लेकर आता है ॥ ८८ ।। कोंच-विहंगारूढो, घर-चामर-विविह-छत्त-सोहंतो । पष्फुल्ल कमल-हस्यो, एदि हु बम्हुत्तरियो वि ॥८६॥ मर्थ-क्रोंच पक्षीपर आरूढ़, उत्तम चंवर एवं विविध छत्रसे सुशोभित और खिला हुआ कमल हाथमें लेकर ब्रह्मोत्तर इन्द्र भी यहाँ आता है ।। ८९ ।। नोट-ऐसा ज्ञात होता है कि शायद यहाँ लांतव और कापिष्ठ इन्द्रकी भक्तिको प्रदर्शित करनेवाली दो गाथाएं छूट गई हैं। वर • चक्कवायरूढो, कुंडल-केयूर-पहुवि-विप्पंतो । सयवंती-कुसुम-करो, सुक्किदो भत्ति भरिद-मरणो ॥१०॥ अर्म-उत्तम चक्रवाकपर प्रारूढ़ कुण्डल और केयूर यादि प्राभरणोंसे देदीप्यमान एवं भक्तिसे पूर्ण मन-वाला शुकेन्द्र सेवन्ती पुष्प हाथमें लिये हुए यहाँ आता है ॥ ९ ॥ कीर - विहंगारूढो, महसुक्किदो वि एधि भत्तीए । विषय-विभूदि-विमूसिव-देहो वर-विविह-कुसुम-दाम करो॥६॥ अर्थ-तोता पक्षीपर चढ़कर, दिव्य विभूतिसे विभूषित शरीरको धारण करनेवाला तथा उत्तम एवं विविध प्रकारके फूलोंकी माला हाथ में लिये हुए महाशुक्रन्द्र भी भक्ति वश यहाँ प्राता जीलुप्पल-कुसुम-करो, कोइल-वाहण-विमारणमारूढो । बर - रयण - भूसिदंगो, 'सदरिदो एदि भत्तीए ।।१२।। 1. . ब. क. ज. सदारिदो। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ९३-६८ अर्थ – कोयल- वाहन विमानपर आरूढ़, उत्तम रत्नोंसे अलकृत शरीरसे संयुक्त और नीलकमलपुष्प हाथमें धारण करनेवाला शतार इन्द्र भक्तिसे प्रेरित होकर यहाँ आता है ।। ९२ ।। गरुड - विमानारूढो, दाडिम-फल-लुचि सोहमाण करो । जिण चलण भतिजुत्तो, एदि सहस्सार इंदो वि ॥६३॥ + अर्थ --- गरुड़विमान पर आरूढ़, अनार फलोंके गुच्छेसे शोभायमान हाथवाला और जिनचरणोंकी भक्तिमें अनुरक्त हुआ सहस्रार इन्द्र भी आता है ।। ६३ ।। विगाहिव मारूढो, परासप्फल-लु चि-लंबमारण-करो । वर-दिव्य विनूदीए, आगच्छदि श्राणबिंदो दि ॥ ६४ ॥ अर्थ – विहगाधिप अर्थात् गरुड़पर आरूढ़ और पनस अर्थात् कटहल फलके गुच्छेको हाथ में लिये हुए आनतेन्द्र भी उत्तम एवं दिव्य विभूतिके साथ यहाँ आता है ।। ९४ ॥ पउम विमारणारूढो, पाणद-इ दो वि एदि भत्तीए । तु बुरु-फल-खुचि-करो, बर मंडल मंडियायारो ॥६५॥ - अर्थ- पद्म विमानपर श्रारूढ़ उत्तम आभरणोंसे मण्डित प्राकृतिसे संयुक्त और तुम्बुरु फलके गुच्छेको हाथमें लिये हुए प्राणतेन्द्र भी भक्तिवश होकर यहाँ आता है ।। ९५ ।। परिपक्क उच्छु हत्थो, कुमुद - विमारणं विश्वित्तमारूढो । आणिदो वि ॥६६॥ विविहालंकार धरो, आगच्छ अर्थ -- अद्भुत कुमुद - विमानपर श्रारूढ, पके हुए गन्नेको हाथमें धारण करनेवाला आरणेन्द्र भी विविध प्रकारके अलंकार धारण करके यहाँ आता है ।। ९६ ।। - - आरूढो बर-मोरं, वलयंगद मउड हार-सोहंतो । सति-धवल - चमर-हत्यो, आगच्छ - - उत्तम मयूरपर चढ़कर, कटक, अंगद, अर्थधवल चैबरको हाथमें लिये हुए अच्युतेन्द्र यहाँ आता - अच्चुवाहिवई ॥६७॥ मुकुट एवं हारसे सुशोभित और चन्द्र सदृश ।। ९७ ।। त्रिदेवोंका पूजाके लिये आगमन णाणाविह-वाहण्या, णाणा-फल- कुसुम-दाम-भरिव-करा । रारा - विभूति-सहिदा, जोइस वरण-भयरण एंसि भक्ति- जुवा ॥ ६८ ॥ १. द. ज. परिपक्क । २. द.म. क. ज. आगच्छिय । ३. द. ब. क. ज. संहतो * Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ९९-१०३ ] पंचमी महाहियारो [ २७ श्रर्य - नाना प्रकारके वाहनोंपर आरूढ़ नाना प्रकार की विभूति सहित अनेक फल एवं पुष्पमालाएं हाथोंमें लिये हुए ज्योतिषी, व्यन्तर तथा भवनवासी देव भी भक्ति से संयुक्त होकर यहाँ आते हैं ।। ९८ ।। श्रागच्छय बीसर यर-दीव - जिणिद- दिव्व' - भवणाई । बहुविह बुदि मुहल मुहा, पदाहिणाहि पकुच्वंति ॥६॥ - अर्थ - इस प्रकार ये देव नन्दीश्वर द्वीपके दिव्य जिनेन्द्र भवनों में आकर नाना प्रकारकी स्तुतियोंसे वाचाल मुख होते हुए प्रदक्षिणाएँ करते हैं ।। ९९ ।। पूजन प्रारम्भ करते समय दिशाओंका विभाजन पुव्वाए कप्पवासी, भवणसुरा दविखरणाए वंतरया' । पच्छिम - दिसाए तेसु, जोइसिया उत्तर जब मटमी | - - दिसाए ॥१००॥ णिय. जिय- विभूदि-जोग्गं, महिमं कुव्यंति थोत्त-बहुल-मुहा । नंदोसर - जिणमंदिर जत्तासु विउल भत्ति जुदा ॥१०१॥ - अर्थ -- नन्दीश्वरद्वीपस्थ जिन मन्दिरोंकी यात्रा में प्रचुर भक्तिसे युक्त कल्पवासी देव पूर्वदिशामें, भवनवासी दक्षिण में, व्यन्तर पश्चिम में और ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में ( स्थित होकर ) मुखसे बहुत स्तोत्रोंका उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूतिके योग्य महिमाको करते हैं ।। १०० - १०१ ।। प्रत्येक दिशा में प्रत्येक इन्द्रकी पूजा के लिए समयका विभाजन पुरुषहे अवरण्हे, पुष्षशिसाए वि पच्छिम- णिसाए । पहराणि दोण्णि दोण्णिं, गिभर'- भती पसत्त-मरणा ॥१०२॥ कमसो पदाहिनेणं, पुणिमयं जाव श्रटुमोदु तदो । देवा विविहं पूजं जिरिंगद परिमाण कुरुवंति ॥१०३॥ 1 अर्थ – ये देव आसक्त चित्त होकर अष्टमीसे लेकर पूर्णिमा पर्यन्त पूर्वा, अपरा पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रिमें दो-दो प्रहर तक उत्तम भक्ति-पूर्वक प्रदक्षिण- क्रमसे जिनेन्द्र- प्रतिमाओं की विविध प्रकार पूजा करते हैं ।। १०२-१०३ ।। १. ब. दव्य । २. द. वेंत रिया । ३. ब. क. ज. भरभत्तीए । ४. ६. ब. क. ज. पुणमयं Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती विशेषार्थ- नन्दीश्वर द्वीपको [ गाथा: १०४ - १०७ चारों दिशाओं में ५२ जिनालय अवस्थित हैं। आषाढ़, कातिक और फाल्गुन मासके शुक्ल पक्ष की अष्टमी के पूर्वाह्न में सर्व कल्पवासी देवोंसे युक्त सौधर्मेन्द्र पूर्व दिशा, भवनवासां देवोस युक्त चमरेन्द्र दक्षिण दिशामें व्यन्तर देवोंसे युक्त किम्पुरुष इन्द्र पश्चिम दिशा में और ज्योतिषी देवोंसे युक्त चन्द्र इन्द्र उत्तर दिशामें पूजा प्रारम्भ करते हैं। दो प्रहर बाद अपराह्नमें कल्पवासी दक्षिण में, भवनवासो पश्चिममें, व्यन्तरदेव उत्तरमें और ज्योतिपी देव पूर्व में आ जाते हैं। फिर दो शहर बाद पूर्व रात्रिको ये देव प्रदक्षिणा क्रमसे पुन: दिशा परिवर्तन करते हैं। इसके बाद दो प्रहर व्यतीत हो जाने पर अपर रात्रि को उसी प्रकार पुनः दिशा परिवर्तन करते हैं । इसप्रकार अहोरात्रिके ८ प्रहर पूर्णकर नवमी तिथिको प्रातः काल कल्पवासी आदि चारों निकायों के देव पूर्व श्रादि दिशाओं में क्रमश: दो-दो प्रहर तक पूजन करते हैं इसी क्रमसे पूर्णिमा पर्यन्त अर्थात् आठ दिन तक चारों निकायोंके देवों द्वारा अनवरत महापूजा होती है । २८ ] नन्दीश्वरद्वीप स्थित जिन प्रतिमाओं के अभिषेक, विलेपन और पूजा श्रादिका कथन कुव्वते अभिसेयं महाविभूवोहि ताण देविता । कंचरण कलस गर्दह, विजल जलेहि अर्थ -- देवेन्द्र, महान् विभूतिके साथ उन जिन विपुल सुगन्धित जल से अभिषेक करते हैं ।। १०४ ॥ कुंकुम कप्पूरेहि, चंदण - कालागरूहि ताणं विलेषणाई", ते कुरुते सुगंध - प्रतिमाओं का विलेपन करते हैं ।। १०५ ।। · अर्थ – वे इन्द्र कुकुम, कपूर, चन्दन, कालागर और अन्य सुगन्धित द्रव्योंसे उन सुगंधेहि ॥ १०४ ॥ प्रतिमाओंका सुवर्ण कलशों में भरे हुए - कुवेंदु - सुदहि, कोमल विमलेहि सुरहि गंधेहि । वर - - कलम तंडुले हिं', पूति जिजिद पडिमाम्रो' ॥ १०६ ॥ · - हि । गंधेह ॥ १०५ ॥ अर्थ-वे देव, कुन्दपुष्प एवं चन्द्र सदृश सुन्दर, कोमल, निर्मल और सुगन्धित उत्तम कलम नाग कुसुम धान्यके तन्दुलोंसे जिनेन्द्र - प्रतिमाओंकी पूजा करते हैं ।। १०६ ।। सयवंतराय चंपय माला पुण्णाग पहुवीहि । अवंति ताओ देवा, सुरहोहिं मालाहि ॥ १०७॥ अर्थ-वे देव सेवन्तीराज, चम्पकमाला, पुन्नाग और नाग आदि सुगन्धित पुष्प मालाओं से उन प्रतिमानोंकी पूजा करते हैं ।। १०७ ।। १. द. विलेयर, ब. विलेइसाई । २. ब. दुहि । ३. द. ज. पडिमाए । · - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १००-११३ ] पंचमो महाहियारो बहुविह रसवंतेहि, वर भक्खेहिं विचित्त ह । श्रमय-सरच्छेहिं सुरा, जिणिद पडिमाओ महयंति ॥ १०८ ॥ → अर्थ - वे देवगण, बहुत प्रकारके रसोंसे संयुक्त, अद्भुत रूपवाले और अमृत संदेश उत्तम भोज्य-पदार्थोंसे ( नैवेद्यसे ) जिनेन्द्र- प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ।। १०८ । - विष्फुरिद-किरण - मंडल-मंडिद-भवणेहि' रयण - बीहिं । णिक्कज्जल कलुसेहि, पूजति जिणिद पडिमाओ ॥ १०६ ॥ - पूजास अर्थ - देदीप्यमान किरण समूहसे जिन भवनों को विभूषित करनेवाले, कज्जल एवं कालुष्य रहित ( ऐसे ) रत्न-दीपकों से इन प्रतिमाओं की पूजा करते है ।। १०९ । वासिद दियंतरेहि काला गरुन् पमूह - विविध धूहि । परिमलिद मंदिरेहि, मह्यंति जिणिंद - विण ॥११०॥ अर्थ – देवगण मन्दिर एवं दिग्-मण्डलको सुगन्धित करनेवाले कालागर आदि अनेक प्रकारके धूपोंसे जिनेन्द्र - बिम्बांकी पूजा करते है ।। ११० ।। दक्खा दाडिम कदली- णारंगय माहूलिंग चूदेहि' । प्रणेहि पक्केहि, फलेहिं पूजति जिणणाहं ।। १११ ।। अर्थ - दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलों से वे देव जिननाथकी पूजा करते हैं ।। १११ ।। | २९ णचंत चमर-किकिरिण, विहि-विताणादियाहि वत्थाहि । हारेहि, अच्चति जिणेसरं देवा ।। ११२ ।। ओलंगिद - अर्थ -- वे देव विस्तीर्ण एवं लटकते हुए हारोंसे संयुक्त तथा नाचते हुए चंवर एवं किकिशियों सहित अनेक प्रकार के चंदोबा आदिसे जिनेश्वरको पूजा करते हैं ।। ११२ ।। मद्दल - मुग-भेरी-पडह-पहुवीणि विविह बज्जाणि । वायंति जिणवराणं, देवा पूजासु भवीए ॥११३॥ " श्रथ - देवगरण पूजा के समय भक्ति से मर्दल, मृदङ्ग, भेरी और पटहादि विविध बाजे बजाते हैं ।। ११३ ।। १. ब. सव हि । २. भूहि । ३. द. ब. वित्थाहि । ४. ब. मुयिंग | ५. द. ब. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ..- -. - ३०) तिलोयपण्णत्ती या : ११४-११८ नृत्य, गान एवं नाटक प्रादिके द्वारा भक्ति प्रदर्शन विविहाइ गच्चणाई, वर-रयण-विभूसिवानो विधाओ। कुश्यते 'कारणाओ, गायंति जिणिव - चरिवाणि ॥११४॥ अर्थ-उत्तम रत्नोंसे विभूषित दिव्य कन्यायें विविध नृत्य करती हैं और जिनेन्द्रके चरित्रोंको गाती हैं ।। ११४ ।। जिण-चरिय-णाडयं ते, चउ-विहाभिरणय-भंग-सोहिल्लं । आणंदेणं देवा, बहु - रस - भावं पकुव्वति ॥११५।। अर्थ-वे चार प्रकारके देव प्रानन्दके साथ अभिनयके प्रकारों से शोभायमान बहुत प्रकार के रस-भाववाले जिनचरित्र सम्बन्धी नाटक करते हैं ।। ११५॥ एवं जेत्तियमेत्ता, जिणिव - णिलया विचित्त-पूजाओ। कुल्वंति तेत्तिएसु, णिब्भर - भत्तीस सुर - संघा' ॥११६।। अर्थ-इसप्रकार नन्दीश्वरद्वीपमें जितने जिनेन्द्र-मन्दिर हैं, उन सबमें गाढ़ भक्ति युक्त देवगण अद्भुत रीतिसे पूजाएं करते हैं ।। ११६ ।। कुण्डलपर्वतकी अवस्थिति एवं उसका विस्तार आदि एक्कारसमो कुण्डल-णामो वीओ हवेदि रमणिज्जो । एक्स्स य बहु - माझे, अत्यि गिरी कुडलो णाम ।।११७॥ अर्थ -- ग्यारहवां कुण्डल नामा रमणीक द्वीप है। इस द्वीपके बहुमध्य भागमें कुण्डल नामक पर्वत है ॥ ११७ ॥ पण्णतरी सहस्सा, उच्छेहो जोयणाणि तग्गिरियो । एक्क - सहस्सं गाई, गाणाविह - रयण - भरिदस्स ।।११८॥ ७५००० । १००० प्रर्प-नाना प्रकारके रत्नोंसे भरे हुए इस पर्वतकी ऊँचाई पचहत्तर हजार (७५७००) योजन और अवगाह (नींव ) एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है ॥ ११८ ।। . १.५. ब. ज. कण्णाहो, क. कण्णाया। २. द.ब.क.स. संखा। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११२-१२३ ] पंचमो महाहियारो [ ३१ यासी वि माणुसत्तर-यासादो दस-गुण-प्पमाणेणं । तग्गिरिणो मूलोवरि, तड - वेदी - प्पहुदि-जुत्तस्स ॥११६ । मूल १०२२० । मज्झ ७२३० । सिहर ४२४० । अर्थ – तटवेदी आदिसे संयुक्त इस पर्वतका मूल एवं उपरिम विस्तार मानुषोत्तर पर्वतके विस्तार-प्रमागासे दसगुना है ।। ११६ ॥ विशेषार्थ - चतुर्थाधिकार गाथा २७९४ में मानुषोत्तर पर्वतका मूल वि० १०२२ योजन, मध्य वि० ७२३ यो० और शिखर वि० ४२४ यो० कहा गया है । कुण्डलगिरिका विस्तार इससे दम गुना है अत: उसका मूल विस्तार १०२२० योजन, मध्य विस्तार ७२३० योजन और शिखर विस्तार ४२४० योजन प्रमाण है। कुण्डलगिरिपर स्थित क्रूटोंका निरूपरण उरि कुण्डलगिरिणो, दिवाण हात वीस कडाण । एवाणं विण्णासं', भासेमों' प्राणुपुवीए ॥१२०।। अर्थ- कुण्डल गिरि के ऊपर जो दिव्य कूट हैं, उनका विन्यास अनुक्रमसे कहता हूँ ॥ १२० ।। पुश्वादि-चउ-दिसासु, चउ-चउ कूडाणि होति पत्तक । ताणभंतर - भागे, एक्केको सिद्धवर • कूडो ॥१२॥ अर्थ-पूर्वादिक चार दिशाओंमेसे प्रत्येकमें चार-चार कूट हैं और उनके अभ्यन्तर-भाग में एक-एक सिद्धवर कूट है ।। १२१ ।। वज्जं वज्जपहक्खं, कणयं कणयप्पहं च पुवाए । बक्षिण-विसाए रजवं, रजदप्पह-सुप्पाहा महप्पहयं ।।१२२।। अंक अंकपहं मरिण कूडं पच्छिम-विसाए मणिपहयं । उत्तर-दिसाए रुचकं, रुचकाभं हेमवंत' - मंदरया ।।१२३॥ अर्थ-बन, बज्रप्रभ, कनक और कनकप्रभ, ये चार कट पूर्व-दिशामें ; रजत, रजतप्रभ, सुप्रभ और महाप्रभ, ये चार दक्षिण-दिशामें ; अङ्क, अङ्कप्रभ, मणिकूट और मणिप्रभ, ये चार पश्चिम दिशामें तथा रुचक, रुचकाभ, हिमवान् श्रीर मन्दर, ये चार फूट उत्तर-दिशामें स्थित हैं ।। १२२-१२३ ।। .... - १. ब. यिण्णासे । २. ब. भासमो। ३. द. ज. हेमवम, ब. हेमवरमं । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] तिलोयपणासी [ गाथा : १२४-१२७ एदे सोलस कूडा, गंदणषण वणिवाण कूडाणं ।। उच्छेहादि' - समाणा, पासादेहि विधि हि ॥१२४॥ अर्थ--ये सोलह बाट नन्दनवन में कहे हुए कूटोंकी ऊंचाई आदि तथा अद्भुत प्रासादोंसे समान हैं ।। १२४ ।। विशेषार्थ चतुर्थाधिकार गा० १९९६ में सौमनसके कूटोंका उत्सेध २५० योजन, मुल विस्तार २५० योजन और शिखर विस्तार १२५ योजन कहा गया है तथा गाथा २०२३-२०२४ में नन्दनवनके कूटोंका विस्तार सौमनस के कट विस्तारसे दुगुना कहा है और यहाँ कुण्डलगिरिके बटों का विस्तार नन्दनयनके क्ट विस्तार सदृश कहा है । अर्थात् कुण्डलगिरिके कूटोंका उत्सेध ५०० योजन, मूल विस्तार ५०० योजन और शिखर बिस्तार २५० योजन प्रमान है। एदेखें फूडेसु, जिणभवण - विभूसिएस रम्मेस। णिवसंति वेंतर-सुरा, णिय-णिय-कूडेहि सम • णामा ॥१२५।। अर्थ-जिन-भवनसे विभूषित इन रमणीय कूटोंपर अपने-अपने कूटोंके सदृश नामवाले ध्यन्तरदेव निवास करते हैं ।। १२५ ।। एक्क - पलिदोवमाऊ, बहु-परिवारा हवंति ते सव्वे । एवाणं गयरोमो, विचित्त - भवणानो तेसु फूडेसु ।।१२६॥ अर्थ-वे सब देव एक पल्योपम-प्रमाण आयु' और बहुत प्रकारके परिवार सहित होते हैं । उपर्युक्त कूटोंपर अद्भुत भवनोंसे संयुक्त इन देवोंकी नगरियाँ हैं ।। १२६ 11 चत्तारि सिद्ध-कूडा, चउ-जिण-भवणेस ते पभासते। रिपसहगिरि-कूड-वणिव-जिरगघर-सम-घास-पहुवीहि ॥१२७।। प्रयं-ये चार सिद्धकूट निषध पर्वतके सिद्धकूट पर कहे हुए जिनपुरके सदृश विस्तार एवं ऊँचाई आदि सहित ऐसे चार जिन-भवनोंसे शोभायमान होते हैं ॥ १२७ ।। विशेषार्थ-चतुर्थाधिकार गाथा १५५ में कहे गये निषधपर्वतके सिद्धकूटपर स्थित जिन भवन के व्यासादिके सदृश यहाँ सिद्धकूटोंपर स्थित प्रत्येक जिनभवनका पायाम एक कोस, विष्कम्भ अर्धकोस और उत्सेध पौन (1) कोस प्रमाण है । १. ज. उच्छेहोदि । २. द. ब. ज. क विभूसिदासु । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ गाथा : १२८-१३० ] पंचमो महाहियारो नोट--कुण्डलवर द्वीप, उसके मध्य स्थित कुण्डलगिरि पर्वत, इसपर स्थित जिनेन्द्रक्ट एवं वन्य १६ कूट और इन कूटोंके स्वामियोंके नाम आदि इस चित्रमें चित्रित हैं जर . Nother . .. SMALL Re"': ...40a मतान्तरसे कुण्डलगिरि पर्वतका निरूपण तगिरि-वरस्स होति हु, दिसि विदिसासु जिणिव-कूडाणि। पत्रोनक एकेक्के, केई एवं पहवेति ॥१२८।। पाठान्तरम् । अर्थ--इस श्रेष्ठ पर्वतकी दिशाओं एवं विदिशात्रोंमेंसे प्रत्येकमें एक-एक जिनेन्द्रकट है, इसप्रकार भी कोई आचार्य बतलाते हैं ।। १२८ ।। पाठान्तर । लोयविरिणछय-कत्ता, फडलसेलस्स बणण-पयारं । अवरेण सरूवेणं, बक्खाइ तं पल्वेमो ॥१२६॥ अयं - लोकविनिश्चय-कर्ता कुण्डल पर्वतके वर्णन-प्रकारका जो दूसरी तरहसे व्याख्यान करते हैं, उसका यहाँ निरूपण किया जाता है ॥ १२६ ।। मणुसुत्तर-सम-वासो, बादाल-सहस्स-जोयणुच्छहो । कुजलगिरी सहस्सं, गाढो बहु-रयण-कय-सोहो ॥१३०॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] तिलोयपगत्ती [ गाथा : १३१-१३६ अर्थ- बहु-रत्न-कृत शोभा युक्त यह कुण्डलपर्वत मानुषोत्तर-पर्वत सदृश विस्तार-वाला, बयालीस हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजनप्रमाग्ग अवगाह सहित है ।। १३० ।। कडाणं ताई चिय, गामाणं माणुसत्तर-गिरिस्स । फूडोहि सरिछाश, कमि सुरा यो लामा ॥१३१।। पुब्ध-दिसाए विसिट्ठी, पंचसिरो महसिरो महाबाहू । पउमो पउमुसर-महपउमो दक्षिण दिसाए वासुगिओ॥१३२।। थिरहिवय-महाहिदया, सिरियच्छो' सस्थिओय पच्छिमको । सुन्दर - विसालणेत्तं, पांडुर • पुडरय उत्सरए ॥१३३।। अर्थ-मानुषोत्तर पर्वतके कूटोंके सदृश इस पर्वतपर स्थित कूटोंके नाम तो वही हैं किन्तु देवोंके नाम इसप्रकार हैं-पूर्व दिशामें विशिष्ट ( त्रिशिर ), पंचशिर, महाशिर और महाबाहु; दक्षिण-दिशामें पय, पद्मोत्तर, महापद्य और वासुकि पश्चिममें स्थिरहृदय, महाहृदय, श्रीवृक्ष और स्वस्तिक तथा उत्तरमें सुन्दर, विशालनेत्र, पाण्डुर और पुण्डरक, ये सोलह देव उपर्युक्त क्रमसे उन कूटोंपर स्थित हैं ।। १३१-१३३ ।। एक्क-पलिबोयमाऊ, वर-रयण-विभूसिपंग-रमणिज्जा। बहु - परिवारहि जुदा, ते देवा होति गागिंवा ॥१३४॥ अर्थ-एक पल्यप्रमाण आयुवाले वे नागेन्द्रदेव उत्तम रत्नोंसे विभूषित शरीरसे रमणीय और बहुत परिवारोंसे युक्त होते हैं ॥ १३४ ।। बहुविह-देवोहिं जुदा, कूडोवरिमेसु तेसु भवणेस। णिय-णिय-विभूदि-जोग्ग, सोक्षं भुजति बहु-भयं ॥१३५॥ अर्थ-ये देव बहुत प्रकारकी देवियोंसे युक्त होकर कूटोपर स्थित उन भवनों में अपनीअपनी विभूतिके योग्य बहुत प्रकारके सुख भोगते हैं ।। १३५ ।। पुवावर-दिम्भायं, ठिवाण कूडारण अग्ग-भूमीए । एक्केक्का वर-कूडा, तड-वेदी-पहुदि-परियरिया ॥१३६।। अर्थ-पूर्वापर दिग्भागमें स्थित कूटोंको अग्रभूमिमें तट-वेदी प्रादिकसे झ्याप्त एक-एक श्रेष्ठ कूट है ।। १३६ ॥ १. द. व. म. ज. सिरिवंतो सच्छियो। २. द.प. क. ज. इंटरपश्य । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो महाहियारो जोयण सहस्स- तुंरंगा, पुह-पुह तम्मेत्त-मूल- वित्थारा । पंच-सय- सिहर-रुदा, सग-सय- पण्णास मज्भ- वित्वारा ।। १३७ ।। गाथा : १३७-१४१ ] १००० | ५०० ७५० । अर्थ — ये कूट पृथक्-पृथक् एक हजार ( १००० ) योजन ऊँचे, इतने मात्र (१००० बो०) मूल विस्तार सहित पाँच सौ ( ५०० ) योजन प्रमाण शिखर विस्तारवाले और सात सौ पचास ( ७५० ) योजन प्रमाण मध्य विस्तारसे युक्त हैं ।। १३७ ।। ताणोवरिम घरेस, कु ́डल-बीवस्स अहिवई देवा. तरया' रिय-जोगं, बहु-परिवारा' विराजति ॥ १३८ ॥ अर्थ - इन कूटोंके ऊपर स्थित भवनों में कुण्डलद्वीप के अधिपति व्यन्तर देव अपने योग्य बहुत परिवार से संयुक्त होकर निवास करते हैं ।। १३८ ॥ अंतर-भागेसु एवाणि जिणिद-दिव्व कूडाणि । एक्केषकाणं अंजणगिरि-जिण मंदिर- समाणाणि ।। १३६ ।। 2 [ ३५ अर्थ - इन सभी कूटोंके अभ्यन्तर भागों में अंजनपर्यंतस्थ जिन मन्दिरोंके सत्य दिव्य जिनेन्द्र फूट हैं ।। १३६ ।। एक्केबका जिण कूडा, चेट्ठेते दक्षिणुत्तर विसासु । ताणि जण पथ्यय जिंणिद पासाद सारिच्छा ।।१४० ॥ - - पाठान्तरम् । अर्थ — उनके उत्तर-दक्षिण भागों में अजन पर्वतस्थ जिनेन्द्रप्रासादों के सदृश एक-एक जिन कूट स्थित है || १४० ।। पाठान्तर । रुचकर द्वीपके मध्य रुचकवर पर्वतका अवस्थान एवं उसके विस्तार आदिका विवेचन तेरसमो रुचकरो, दीयो चेट्ठेदि तस्स बहु-मज्झे । अस्थि गिरी रुचकवरो, कणयमत्री चक्कबालेणं ||१४१ ॥ अर्थ-तेरहवाँ द्वीप रुचकबर है। इसके बहु- मध्यभाग में मण्डलाकारसे स्वर्णमय रुचकवर पर्वत स्थित है ।। १४१ ।। १. द. ब. क. ज. चित्तरमा । २. द. व. क. ज. परिवारेहि । ३. द. व. क. ज. संजुतं । t Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] तिलोयपण्णत्ती सव्वत्थ तस्स रुदो, चउसीदि सहस्स - जोयण- पमाणा । तम्मेसी उच्छेहो, एक्क सहस्सं पि गाढत्तं ॥ १४२॥ [ गाथा : १४२-१४६ - ८४००० | १००० । अर्थ-उस पर्वतका विस्तार सर्वत्र चौरासी हजार ( ४००० ) योजन, इतनी ही ऊँचाई और एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण अवगाह है ।। १४२ ।। मूलोवरिम्मि भागे, तह-वेदी उबवणाइ चंद्र ति । तगिरिणो वर-वेदि-पहुवीहि अहिय रम्माणि ॥ १४३ ॥ अर्थ - उस पर्वतके मूल और उपरिम भाग में वन-वेदी आदिकसे अधिक रमणीय तटवेदियाँ एवं उपवन स्थित हैं ।। १४३ ।। रुचक पर्वत के ऊपर स्थित कूट, उनका विस्तार आदि, उनमें निवास करने वाली देवांगनाएँ और जन्माभिषेकमें उन देवांगनाओं के कार्य गिरि-वरिम भागे चोदाला होंति दिव्य-कूडाणि । एवाणं विष्णासं, भासेमो आणखी ॥ १४४ ॥ अर्थ 1- इस ( रुचक ) पर्वतके उपरिम भाग में जो चवालीस दिव्य कूट हैं, उनका विन्यास अनुक्रमसे कहता हूँ ।। १४४ ।। कणयं कंचण-कूड, तवणं सरिथय' - दिसासु-भद्दाणि । अंजणमूलं अंजणवज्जं ' कूडाणि श्रट्ट पुष्याए ।। १४५ ।। ये अर्थ - कनक, कांचनकूट, तपन, स्वस्तिक दिशा, सुभद्र, अंजनमूल, अंजन श्रीर वज्र, आठ कूट पूर्व दिशा में हैं ।। १४५ ।। पंच-सय-जोयणाई, तुरंगा तम्मेल- मूल विषखंभा । कूडा वेदि वण जुत्ता ॥ १४६॥ तद्दल जवरिम-हंदा, ले · ५०० ५००। २५० । अर्थ — दी एवं वनों से संयुक्त ये कूट पाँच सौ ( ५०० ) योजन ऊँचे और इतने ( ५०० यो० ) प्रमाण मूल - विस्तार तथा इससे आधे ( २५० यो० ) उपरिम विस्तार सहित हैं ।। १४६ ॥ १. द. ब. क. ज. संघिय । २. द. ज. क. अंजमूलं, ब अजमून । ३ द. ज. क. अजवजं, ब. अंजवजे । ४. बॅ. मंड़ । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १४७-१५३ ] पंचमो महायिारो [ ३७ तारणोथरि भवणाणि, गोदम-देवस्स गेह-सरिसारिण । जिण - भवण - भूसिदाई, विचित - रूवाणि रेहलि ।।१४७।। अर्थ--उन कूटोंपर जिन-भवनोंसे भूषित और विचित्र रूपवाले गौतम देवके भवन मदृश भवन विराजमान हैं ।। १४७ ।। । एदेसु दिसा-कण्णा, णिवसंते हिरवमेहि स्वेहि । विजया य वैजयंता, जयत-णामा वराजिदया ।।१४८।। गंदा-गंदवदीओ, णंदुत्तरया य दिसेण ति । भिंगार-धारणीसो, ताओ जिण-जम्मकल्लाणे ॥१४॥ अर्थ इन भवनोंमें अनुपम-रूपसे संयुक्त विजया, वैजयन्ता, जयन्ता, अपराजिता, नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिषेणा नामक दिक-कन्याएं निवास करती हैं । य जिन-भगवान्के जन्म-कल्याणकमें झारी धारण किया करती हे ।। १४५-१४९ ।। दक्षिण-दिसाए फलिह, रजदं कुमुदं च णलिण-पउमाणि । चंदक्खं वेसमणं, वेरुलियं अट्ठ कूडाणि ॥१५०॥ अर्थ स्फटिक, रजत, कुमुद, नलिन, पद्म, चन्द्र, वैश्रवण और वैडूर्य, ये आठ कूट दक्षिण दिशामें स्थित हैं ।। १५० ॥ उच्छेह-"पहुदोहि, ते कूडा होति पुब्व-कूडो व्य । एदेसु दिसा-फण्णा, वसंति इच्छा - समाहारा ।।१५१॥ सुपविण्णा जसधरया, लच्छी-णामा य सेसवदि-णामा। तह चित्तगुरा - देवी, वसुधरा दप्पण - धरानो ॥१५२॥ अर्थ-ये सब कूट ऊंचाई आदिवा में पूर्व कूटोंके सदृश ही हैं। इनके ऊपर इच्छा, समाहारा, सुप्रकीर्णा, यशोधरा, लक्ष्मी, शेषवती, चित्रगुप्ता और बसुन्धरा नामकी अाठ दिक्कन्याएं निवास करती हैं । ये सब जिन-जन्म कल्याणक में दर्पण धारण किया करती हैं ।। १५१-१५२ ।। होंति अमोघं सत्थिय-मंदर-हेमवद-रज्ज-णामाणि । रज्जुत्राम-चंब-सुवंसणाणि' पच्छिम-दिसाए फूडाणि ।।१५३।। १. द. क. ज. सदंणाणी, ब, सदसुणाणी । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपात्ती [ गाथा : १५४-१६० अर्थ-अमोघ, स्वस्तिक, मन्दर, हैमबत, राज्य, राज्योत्तम, चन्द्र और सुदर्शन, ये आठ कुट पश्चिम-दिशामें स्थित हैं ।। १५ ॥ पुचोविद कूडाणं, वाम-प्पहुवीहि होति सारिच्छा । एदेसु कूडेसु, कुणति चासं दिसा - कण्णा ॥१५४॥ बालतमा मुण्टोती, गुदरी' लामोकणासा य । णवमी सौदा भद्दा, जिण-जणणो छत्त-धारीओ ॥१५५।। अर्थ-ये कूट विस्तारादिकमें पूर्वोक्त कूटोंके ही महश हैं। इनके ऊपर इला. सुरदेवी, पृथिवी, पद्मा, एकनासा, नवमी, मीता और भद्रा नामक दिक्कन्याएँ निवास करती हैं । ये दिक्कन्याएँ जिन-जन्म कल्याणकमें जिन-माताके ऊपर छत्र धारण किया करती हैं ।। १५४- १५५ ।। विजयं च बइजयंतं, जयंदमपराजियं च कुडलयं । रुजगक्ख-रयरण-कूडारिण सव्वरयण त्ति उत्तर-विसाए ।३१५६।। अर्थ-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, कुण्डलक, रुचक, रत्नकूट और सर्व रत्न, ये पाठ कूट उत्तर दिशामें स्थित हैं ।। १५६ ॥ एदे वि प्रष्टु कडा, सारिच्छा होति पुटव कूडाणं । तेस' पि विसा-कपणा, अलंबुसा - मिस्सकेसीओ ॥१५७।। तह पुंडरीकिणी वारुणि त्ति पासा य सच्च-णामा य । हिरिया सिरिया देवी, एदानो'चमर - धारीओ ।।१५८॥ अर्थ-ये पाठ फूट भी पूर्व कूटोंके सदृश ही हैं। इनके ऊपर भी अलंभूषा, मिश्रकेशी, पुण्डरीकिणी, वारुणी, आशा, सत्या, ह्री और श्री नामकी आठ दिक्कन्याएँ निवास करती हैं । जिनजन्मकल्याणफमें ये सब चॅवर धारण किया करती हैं ।। १५७-१५८ ॥ एवाणं देवोणं, कडाणभंतरे चउ - दिसासु । चत्तारि महाकूडा, चेते पुध - कूड - समा ॥१५॥ णिच्चज्जोवं विमलं, णिच्चालोयं सयपहं कूड । उत्तर-पुव्य-दिसासु, दक्खिरण-पच्छिम-दिसासु कमा॥१६०।। -. . . .. . -- १. द. ब. क. पुषि, ज. पुधि । २. ब. क. पउमाठ य । ३. ब. चरम । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६१ - १६५ ] पंचमो महाहियारो [ ३९ अर्थ - पूर्वोक्त कूटोंके ही सदृश चार महाकूट इन देवियोंके कूटोंके अभ्यन्तर भाग चार दिशाओं में स्थित हैं । ये नित्योद्योत विमल नित्यालोक और स्वयंप्रभ नामक चारों कूट क्रमश: उत्तर पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशामें स्थित हैं ।। १५९-१६० ।। सोदामिणि त्ति कणया, सदहद देवी य कणय चित्ते त्ति । उज्जवकारिणीओ, दिसासु जिण जम्मकल्लाणे ।।१६१।। अर्थ - - इन कूटोंपर स्थित होती हुई सौदामिनी, कनका, शतह्रदा और कनकचित्रा, ये चार देखि जिन जपना निमंत्र दिया करती हैं ।। १६१ ।। लक्कूड अंतरए, कूडा पुग्वृत्त-कूड सारिच्छा थेरुलिय- रुचक-मणि-रज्जउत्तमा' पुत्र-पहुदीसु ॥ १६२॥ - अर्थ- इन कूटोंके अभ्यन्तरभाग में पूर्वोक्त कूटोंके सदृश बंडूर्य, रुचक, मरिण और राज्योनम नामक चार कूट पूर्वादिक दिशाओं में स्थित हैं ।। १६२ ।। तेसु' पि दिसाकरणा, वसंति रुचका तहा रुचककित्ती । रुचकादी- कंत पहा, जति जिण जातकम्माणि ॥ १६३ ॥ - श्रयं - उन कूटोंपर भी रुचका, रुचककति रुचककांता और रुचकप्रचा दिक्कन्याएँ निवास करती हैं । ये कन्याएं जिन भगवान्का जातकर्म करती हैं ।। १६३ ।। पल्ल - पमाणाउ-ठिदी, पत्तेक्कं होडि सयल देवीणं । सिरि-देवीए सरिच्छा, परिवारा ताण पादव्वा ।। १६४ ।। चार अर्थ- - उन सब देवियों में प्रत्येकको आयु एक पल्य- प्रमारा होती है। उनके परिवार श्रीदेवी के परिवार सहश जानने चाहिए ।। १६४ ।। सिद्धकूटोंका अवस्थान तक्कभंतरए, चत्तारि हवंति सिद्ध कूडाणि । पुण्य-समाणं रिगसह द्विद-जिण - घर - सरिस - जिण णिकेदाणि ।। १६५ ।। २ अर्थ --इन कूटोंके अभ्यन्तर भाग में चार सिद्ध-कूट हैं, जिनपर पहले के सदृश निषेध - पर्वतस्य जिन भवनों के समान जिन मन्दिर विद्यमान हैं ।। १६५ ।। १. द. ब. क. ज. रजउत्तमपरमस्स हुदीसु । २. द. ब. क. ज. पुरजिए । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०। तिलोयपणती [ गाथा : १६६-१६७ मतान्तरसे सिद्धकूटोंका अवस्थान विस-विदिसं तब्भागे, चउ-चउ अट्टारिण सिद्ध-कूडारिण। उच्छेद - प्पहुदीए, णिसह - समा' केइ इच्छति ॥१६६॥ अर्थ--कोई आचार्य ऊँचाई आदिकमें निषध पर्वतके सदृश { ऐसे ) दिशाओं में चार और विदिशाओं में चार इसप्रकार आठ सिद्ध कूट स्वीकार करते हैं ॥ १६६ ।। नोट-रुचकबर पर्वत पर स्थित कूटोंका प्रमाण, नाम, उनपर स्थित देवियां और उन देवियों के कार्य आदिका चित्रण इसप्रकार है / ALANA Dayal / VARAN PO TA Post vिice AYARJ MDEmain Djmer JSTAN D haran Safeeri 214 HINDISEX A a राम टो AAVT.) 4 मतान्तरसे रुचकगिरि-पर्वतका निरूपण लोयविणिच्छय-कप्ता, रुचकवरबिस्स बण्णण-पयारं । अण्णण सरूवेणं, वक्खाणइ तं पयासेमि ॥१६७।। अर्थ--लोकविनिश्चय-कर्ता रुचकवर पर्वतके वर्णन-प्रकारका जो अन्य-प्रकारसे व्याख्यान करते हैं, उसको यहाँ दिखाता हूँ ।। १६७ ।। १. द.ब. क. ज. समो। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६६-१७२ ] पंचमो महाहियारो [ ४१ होवि गिरि रुचकवरो, रुदो अंजणगिरिव-सम-उवनो। बादाल-सहस्साणि, वासो सम्वत्थ वस-धणो गाढो ॥१६८।। ८४००० । १२. ! १५६० । अर्थ-रुचकवर पर्वत अजनगिरिके सदृश ( ८४००० योजन ) ऊँचा, बयालीस हजार (४२००० ) योजन विस्तारवाला और सर्वत्र दसके धन ( १००० यो०) प्रमाण अवगाहसे युक्त है।। १६८ ।। कुडा गंवायत्तो, सस्थिय-सिरिवच्छ-वडमाणवखा । तगिरि-पुन्यादि-विसे, सहस्स-रुवे तबल-उच्छेहो ॥१६६॥ प्रपं--इस पर्वतकी पूर्व दिशासे क्रमशः नन्द्यावर्त, स्वस्तिक, श्रीवृक्ष और वर्धमान नामक चार कूट हैं । इन कूटोंका विस्तार एक हजार ( १००० ) योजन और ऊँचाई इससे प्राधी ( ५३० यो०) है ।। १६९ ।। एवेसु 'दिग्गजिदा, देवा णिवसंति एक्क-पल्लाऊ । णामेहि पउमुत्तर - सुभद्द - णीलंजण - गिरोमो ॥१७०।। अर्थ-इन कूटोंपर एक पल्य प्रमाण प्रायु के धारक पद्मोत्तर, सुभद्र, नील और प्रजन गिरि नामक चार दिग्गजेन्द्र देव निवास करते हैं ।। १७० ।। तक्कूडब्भंतरए, वर-कडा चउ-दिसासु अट्ठा। चेट्ठति विश्व-रूपा, सहस्स-रुवा तदद्ध-उच्छेहा ।।१७१।। वि १००० । उ ५०० । अर्थ-इन कूटोंके अभ्यन्तर भागमें एक हजार ( १००० ) योजन विस्तारवाले और इससे अर्ध ( ५०० योजन ) प्रमाण ऊंचे चारों दिशाओंमें पाठ-आठ दिव्य-रूपवाले उत्तम कुट स्थित हैं ।। १७१ ।। पुवोदिव-णाम-जुवा, एदे बत्तीस रुचक-वर-कड़ा। तेसुम दिसाकपणा, ताइ चिय ताण णामाणि ।।१७२।। प्रर्थ-ये बत्तीस रुचकवर कट पूर्वोक्त नामोंसे युक्त हैं । इनपर जो दिक्कन्याएं रहती हैं, उनके नाम भी वे ( पूर्वोक्त) ही हैं ।। १७२ ।। १. द. क. ज. दिगदिदा, च, दिमादिदा । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] तिलोयपण्णसी [ गाथा : १५३-१७९ होति है 'ईसाणादिसु, विधिसासु दोषिण-बोण्णि वर-कडा । श्रेलिय* - मगो . गा, इदका रयणप्पहा णामा ॥१७३॥ रयणं च सव्व-रयणा, रुचकुत्तम-रयणउचका कडा । एदे पवाहिणेणं, पुब्योदिद - कूड - सारिच्छा ॥१७४॥ अर्थ-वड्यं, मणिप्रभ, रुचक, रत्नप्रभ, रत्न, सर्व रत्न, रुचकोत्तम और रत्नोच्चय इन पूर्वोक्त कूटोंके सदृश कूटोंमें दो-दो उत्तम कूट प्रदक्षिण-क्रमसे ईशानादि विदिशाओं में स्थित हैं ।। १७३-१७४ ॥ तेसु विसाकण्णाणं, महत्तरीओ कमेण णियसंति । रुचका विजया "रुचकाभा वइजयंति रुचककता ॥१७५।। तह य जयंती इचकुतमा य अपराजिदा जिणिवस्स । कुवंति जाद • कम्म, एदाओ परम - भत्तीए ।।१७६।। अर्थ-इन कूटोंपर क्रमशः रुचका, विजया, रुचकाभा, वैजयन्ती, रुचककान्ता, जयन्ती, रुचकोत्तमा और अपराजिता, ये दिक्कन्याओंकी महत्तरियां (प्रधान ) निवास करती हैं। ये सब उत्कृष्ट भक्तिसे जिनेन्द्र-भगवान् का जातकर्म किया करती हैं ।।१७५-१७६ ।। विमलो णिच्चालोको, सयपहो तह य णिच्चउज्जोवो। चत्वारो वर - कूडो, पुन्वादि - पदाहिणा होति ।।१७७।। अर्थ-विमल, नित्यालोक, स्वयंप्रभ तथा नित्योद्योत, ये चार उत्तम कूट पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिणा रूपसे स्थित हैं 11 १७७ ॥ तेस पिदिसाकण्णा, वसंति सोदामिणी तहा कणया । सवहद-देवी कंधणचित्ता ताओ कुणंति उज्जोयं ॥१७८।। अर्थ-उन कूटोंपर क्रमशः सौदामिनी, कनका, शतहत देवी और कञ्चनचित्रा में चार दिक्वान्याएं रहती हैं जो दिशाओंको प्रकाशित करती हैं ।। १७८ ।। तपकडन्भंतरए, चत्तारि हवंति सिद्ध - यर - कडा । पुवादिसु पुथ्व-समा, अंजण जिण-गेह-सरिस-जिण-गेहा ।।१७६।। पाठान्तरम् । ३. द. ब. क.ज. पणि । ४.द. ब.फ. १. द. ब. क. ज. ईसाणदिसा । २. द. ज. बेलरिय। ज. उपटका। ५. द. ब. क. ज. चकाय । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८०-१८४ ] पचमो महाहियारो [ ४३ अर्थ-इन कूटोंके अभ्यन्तर-भागमें चार सिद्धवर कुट हैं, जिनके ऊपर पहले के ही सम अंजन-पर्वतस्थ जिन-भवनोंके सदृश जिनालय स्थित हैं ।। १७६ ॥ पाठान्तर । द्वितीय जम्बूद्वीपका अवस्थान जंबूदीयाहितो, संखेज्जाणि पयोहि - दीवाणि । गंतूण प्रशस्ति अण्णो, जंबुदीनो परम - रम्मो ॥१८०।। प्रर्थ-जम्बूद्वीपसे आगे संख्यात समुद्र एवं द्वीपोंके पश्चात् अतिशय रमणीय दूसरा जम्बूद्वीप है ॥ १८ ॥ वहाँ विजय आदि देवोंकी नगरियोंका अवस्थान और उनका विस्तार तत्य हि विजय-प्पहुविस हवंति देवाण दिव्य-णयरीओ'। उरि बज्ज-खिबीए, चित्ता-मज्झम्मि पुग्न-पहुवीसु॥१८१।। अर्थ - ( जहां दूसरा जम्बूद्वीप स्थित है ) वहाँ पर भी वज्रा पृथिवीके ऊपर चित्राके मध्यमें पूर्वादिक दिशाओंमें विजय-आदि देवोंकी दिव्य नगरियाँ हैं ।। १८१ ।। उच्छेह - जोयणेणं, पुरिनो बारस-सहस्स-रुबाप्रो । जिण-भवण-भूसियाओ, उववण - वेदोहि जुत्ताओ ।।१८२॥ १२०००। प्रथ-ये नगरियाँ उत्सेध योजनसे बारह हजार ( १२००० ) योजन-प्रमाण विस्तार सहित, जिन-भवनोंसे विभूषित और उपवन-वेदियों से संयुक्त हैं ।। १८२ ।। नगरियोंके प्राकारोंका उत्सेध आदि पण्णत्तरि-दल-तुगा, पायारा जोयणद्धमत्रगाढा । सध्याणं गयरीणं, गच्चंत-विचित्त-धय-माला ।।१३।। अर्थ-इन सब नगरियोंके प्राकार पचहत्तरके अाधे ( ३७१ ) योजन ऊँचे, अर्ध (1) योजन-प्रमाण अवगाह सहित और फहराती हुई नाना प्रकारकी ध्वजाओं के समूहसे संयुक्त है ।। १८३।। कंत्रण-पायाराणं, वर-रयण-विणिम्मियाण मू-वासो। जोयण-पणवीस-बलं, तच्चउ-भागो य मुह-यासो ॥१४॥ ----- - --- १. ब. नयरो। २. द. उबरिम । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] तिलोयपात्ती [ गाथा : १८५-१८८ अर्थ –उत्तम रत्नोंसे निर्मित इन स्वर्ण-प्राकारांका भू-विस्तार पच्चीसके प्राधे ( १२३ ) योजन और मुख-विस्तार पच्चीसके चतुर्थ भाग ( ६३ योजन ) प्रमाण है ॥ १८४ ॥ नगरियोंकी प्रत्येक दिशामें स्थित गोपुरद्वार एक्केक्काए दिसाए, पुरीण पणुवीस-गोउर-सुधारा । जंबूणद-णिम्मियिका, मणि-तोरण-थंभ-रमणिज्जा ॥१८॥ अर्थ--इन नगारयों को एक-एक दिशामे सुवर्णसे निर्मित और मणिमय तोरण-स्तम्भोंसे रमणीय पच्चीस गोपुरद्वार हैं ॥ १८५ ।। __ नगरियों में स्थित भवनोंका निरूपण बासट्ठि जोयणाणि, बे कोसा गोउरोवरि-घराणं । उपओ' तद्दलमेत्तो, दो गाढो दुधे कोसा ॥१८६॥ ६२ । को २ ॥ ३१ । को १॥को २ ।। अर्थ-उन गोपुरद्वारोंके ऊपर भवन स्थित हैं। उन भवनोंकी ऊँचाई बासठ (६२) योजन, दो (२) कोस, विस्तार इससे आधा ( ३१ योजन, १ कोस ) और अवगाह ( नींव ) दो (२) कोस प्रमाण है ॥ १८६॥ ते गोउर-पासादा, संच्छण्णा बहु-विहेहि रयणेहि । सत्तरस-भूमि-जुत्ता, विमाण सरिसा विराजंति ॥१८॥ अर्थ-वे मोपुर-प्रासाद अनेक प्रकारके रत्नोंसे आच्छन्न हैं और सत्रह भूमियों से युक्त विमान सदृश शोभायमान होते हैं ।। १८७ ॥ राजाङ्गणका अवस्थान एवं प्रमाण आदि पायाराणं मज्झे, चेदि रायंगणं परम - रम्म । जोयण-सवाणि बारस, बास-जुवं एक्क-कोस-उच्छेहो ॥१८॥ १२०० । को। १. द. ब. क. ज. उदए। २.4.ब. क. ज. कोसो। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८१-१९२ ] पंचमो महाहियारो 1 ४५ अर्थ-प्राकारके मध्य में अतिशय रमणीय, बारह सौ ( १२०० ) योजन-प्रमाण विस्तार सहित और एक कोस ऊँचा राजाङ्गण स्थित है ।। १८८ ।। तस्स य थलस्स उर्वार, समंतदो दोणि कोस उच्छेहं । पंच-सय - चाय - रुदं, चउ - गोउर - संजुवं वेदी ॥१६॥ को २ । दंड ५००। अर्थ-इस स्थलके ऊपर चारों ओर दो (२) कोस ऊंची, पाँचसौ (५००) धनुष विस्तीर्ण और चार गोपुरोंसे युक्त वेदी स्थित है ।। १८९ ।। राजाङ्गण स्थित प्रासादका विस्तारादि रायंगण-बहु-मझे, कोस - सयं पंचवीसमभहियं । विखंभो तन्दुगणो, उदनो गाउँ' दुवे कोसा ॥१०॥ १२५ । २५० ! को २ ।। पासावो मणि - तोरण - संपण्णो अट्र-जोयणच्छेहो। चउ-विस्थारो दारो', वज्ज - कवाडेहि सोहिल्लो ॥१९॥ ।४। अर्थ-राजाङ्गण के बहु-मध्य-भागमें एक सौ पच्चीस ( १२५ ) कोस विस्तारवाला, इससे दूना { २५० कोस ) ऊँचा, दो (२) कोस-प्रमाण अवगाह सहित और मणिमय तोरगोंसे परिपूर्ण प्रासाद है । वचमय कपाटोंसे सुशोभित इसका द्वार आठ (८) योजन ऊँचा और चार (४) योजन प्रमाण विस्तार सहित है ।। १९०-१९१ ।। । पूर्वोक्त प्रासादकी चारों दिशाओंमें स्थित प्रासाद एदस्स च-विसासु, चत्तारो होंति दिव्य-पासादा। उप्पण्णुप्पण्णाणं, चउ चउ वड्डंति जाय छक्कतं ॥१६२।। अर्थ-इस ( राजाङ्गणके बहुमध्यभागमें स्थित ) प्रासादकी चारों दिशाओं में चार दिव्य प्रासाद हैं। इसके आगे छठे मण्डल पर्यन्त ये प्रासाद उत्तरोत्तर चार-चार गुणे बढ़ते जाते Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] तिलोय पण्णत्ती प्रत्येक मण्डल के प्रासादोंका प्रमाण एतो' पासादाणं, परिमाणं मंडलं पडि भणामो । एक्की हवेदि मुखो, चत्तारो मंडलम्मि पढमम्मि ।।१६३ ।। [ गाथा : १९३ - १६७ । १ । ४ । अर्थ – यहाँ प्रत्येक मण्डल के प्रासादों का प्रमारण कहता हूँ | मध्यका प्रासाद मुख्य है । प्रथम मण्डल में चार प्रासाद हैं ।। १९३ ।। सोलस बिदिए तदिए, चउसट्ठी बे-सवं च छप्पण्णं । तुरिमे तं चउपहवं, पंचमए मंडलम्मि पासादा ||१६४।। १६ । ६४ । २५६ । १०२४ । अर्थ - द्वितीय मण्डल में सोलह (१६), तृतीयमें चौंसठ ( ६४ ), चतुर्थ में दो सौ छप्पन ( २५६ ) और पाँचवें मण्डल में इससे चोगुने ( १०२४ ) प्रासाद हैं ।। १९४ ।। चत्तारि सहस्सारिए, छाउवि जुदाणि होति छट्टीए । एत्तो पासादाणं, उच्छेहादि पयेभो ॥१६५॥। ४०९६ । अर्थ - छठे मण्डल में चार हजार छयानबे (४०९६ ) प्रासाद हैं। अब यहाँसे मागे भवनोंकी ऊँचाई आदि का निरूपण किया जाता है ।। १९५ । मण्डल स्थित प्रासादोंकी ऊँचाई आदि का कथन सम्यकभंतर सुषखं, पासादुस्सेह वास गाढ समा । आदिम-दुर्ग े-मंडलए, तस्स दलं तदिय-तुरियम्मि ।।१६६ ॥ पंचमए छट्टीए, तद्दलमेत्तं हवेवि उदयादी । एक्क्के पासावे, एक्केक्का वेदिया विचित्तयरा ॥ १६७ ॥ - अर्थ --- आदिके दो मण्डलों में स्थित प्रासादों की ऊँचाई, विस्तार और प्रवगाह सबके मध्य स्थित प्रमुख प्रासादकी ऊँचाई, विस्तार और अवगाहके सदृश है। तृतीय और चतुर्थ मण्डल के प्रासादों की ऊँचाई आदि उससे अर्ध है । इससे भी आधी पञ्चम और छठे मण्डल के प्रासादों की ऊँचाई आदिक है । प्रत्येक प्रासादकी एक-एक विचित्रतर वेदिका है ।। १९६-१९७ ।। ९. द. क. ज. एक्को २. ब. ६. ग । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १९८- २०१ ] विशेषार्थ प्रासाद पचमो महाहियारो राजांगरण के मध्य स्थित प्रमुख प्रासाद का १ले, २ रे मण्डलों में स्थित प्रासादों का ३ र ४ थे मण्डलों में स्थित प्रासादों व ५, ६ ठे मण्डलोंमें स्थित प्रासादों का विस्तार १२५ कोस १२५ को ६२३ कोस ३१३ कोस प्रासादोंके आश्रित स्थित वेदियों की ऊँचाई आदि बे-को सुच्छेहाम्रो, पंच-सर्याणि धपूणि वित्थिष्णा | आदिल्लया, पहले विविधता · - ▼ ऊँचाई २५० कोस २५० कोस १२५ कोस ६२१ कोस ६८ ॥ अर्थ- प्रमुख प्रासाद के आश्रित जो बेदी है यह दो कोस ऊँची और पाँवसी ( ५०० ) धनुष विस्तीर्ण है । प्रथम और द्वितीय मण्डल में स्थित प्रासादोंकी वेदियों भी इतनी हो ऊँचाई प्रादि सहित] ( २ को ऊँची और ५०० धनुष विस्तीर्ण ) हैं ।। १९८ ।। , पुल्लि - बेदि अद्ध ं तदिए तुरियम्मि होंति मंडलए । पमारण वेदीओ ॥१६६॥ पंचमए छुट्टीए तस्सद्ध - [ ४७ अर्थ-तृतीय और चतुर्थ मण्डल के प्रामादों की वेदिका की ऊँचाई एवं विस्तार का प्रमाण पूर्वोक्त वेदियों के प्रमाण से आधा अर्थात् ऊँचाई १ कोस तथा विस्तार २५० धनुष है और इससे भी आधा अर्थात् ऊँचाई कोस और विस्तार १२५ धनुष प्रमारण पाँचवें तथा छठे मण्डलके प्रासादों की वेदिकाओं का है ।। १९९ ।। सर्व भवनों का एकत्र प्रमाण गुण-संकलण' -सरूवं, ठिवाण भवणाण होदि परिसंखा । पंच सहस्सा च सय संजुत्ता एक्क सट्ठी य ॥ २०० ॥ - नींव २ कोरा । २ कोस ५४६१ । - गुणित क्रमसे स्थित इन मत्र भवनोंकी संख्या पाँच हजार चार सौ इकसठ {१+४+१६+६४+२५६+१०२४+४०६६ = ५४६१ ) है || २०० ॥ सुधर्म सभा की अवस्थिति और उसका विस्तार आदि श्रादिम-पासादादो, उत्तर भागे द्विदा सुधम्म-सभा | दलित- पणुवीस जोयण दीहा तस्सद्ध वित्थारा ॥ २०१ ॥ २३५ । १५ । १. ब. ब. क. ज. संकरण । २. ब. चउस्सय । ३. द. पासादो । १ कोस कोस Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २०२ - २०६ अर्थ- प्रथम प्रासादके उत्तर- भागमें पच्चीम योजन के आधे ( १२३ ) योजन लम्बी और इससे (६०) विस्तार वाली सुधर्म सभा स्थित है ।। २०१ । एव-जोयण- उच्छेहा', गाउद- गाढा सुवण्ण-रयणमई । सीए उत्तर भागे, जिण भवणं होवि तम्मेत्तं ॥ २०२॥ ९ । को २ । अर्थ- सुवर्ण और रत्नमयी यह सभा नौ (९) योजन ऊँची और एक गव्यूति ( १ कोस ) अवगाह सहित है । इसके उत्तर भाग में इतने ही प्रमाणसे संयुक्त जिन भवन है ।। २०२ ।। उपपाद आदि छह सभाओं ( भवनों ) की अवस्थिति प्रदि पण विसाए पढमं, पासादादो जिणिद-पासादा | चेटू दि जववाद सभा, कंसण-वर रयण - जिवमई ॥२०३॥ ३५ । ३५ । यो ९ को १ । अर्थ- प्रथम प्रासादमे वायव्य दिशा में जिनेन्द्र भवन सदृश ( १२३ योजन लम्बी, ६१ यो० चौड़ी, ९ यो० ऊंची और १ कोस अवगाह वाली ) स्वर्ण एवं उत्तम रत्न-समूहोंसे निर्मित उपपाद सभा स्थित है ।। २०३ ॥ पुव्य-दिसाए पढमं, पासाबादी विचित-विज्णासा । खेट्ठव अभिसेय सभा, उनवाद - सभेहि सारिच्छा ॥ २०४ ॥ अर्थ- प्रथम प्रसाद के पूर्व में उपपाद सभाके सदृश विचित्र रचना संयुक्त अभिषेक सभा ( भवन ) स्थित है || २०४ ॥ तत्थं चि विभाए, अभिसेयसभा - सरिच्छवासादी | होवि अलंकार-सभा, मणि- तोरणद्वार रमणिज्जा ॥ २०५ ॥ अथ - इसी दिशा-भाग में अभिषेक सभाके सदृश विस्तारादि सहित और मणिमय तोरणद्वारोंसे रमणीय अलंकार सभा ( भवन ) है ।। २०५ ।। तस चिr विभाए, पुण्य सभा सरिस - उदय - वित्थारा । मंत सभा चामीयर रयणमई सुन्दर बुवारा ।।२०६ ॥ - १. द. ब. क. ज. उच्छेो । - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २०७-२१२ ) पंचमो महाहियारो अर्थ—इसी दिशा-भागमें पूर्व सभाके सदृश ऊँचाई एवं विस्तार सहित. स्वर्ण एवं रत्नोंसे निर्मित और सुन्दर द्वारों से संयुक्त मन्त्र-सभा ( भवन ) है ।। २०६ ॥ एदे छप्पासादा, पुब्वेहि मंविरेहि मेलविदा । पंच सहस्सा घउ-सय-प्रभहिया सत्त-सट्ठीहि ॥२०७।। ५४६७ । अर्थ-इन छह प्रासादों को पूर्व प्रासादोंमें मिला देनेपर प्रासादों ( भवनों ) को समस्त संख्या पाँच हजार चार सौ सड़सठ ( ५४६१ + ६ = ५४६७ ) होती है ।। २०७ ।। भवनोंकी विशेषताएं ते सन्चे पासादा, चउ-विम्मुह'-विप्फुरत-किरणेहि । वर-रयरण-पईयेहि णिच्चं चिय णिभरुज्जोवा ।२०।। अर्थ-वे सब भवन चारों दिशात्रोंमें प्रकाशमान किरणोंसे युक्त उत्तम रत्नमयी प्रदीपोंसे नित्य अचित और नित्य उद्योतित रहते हैं ।। २०८ 11 पोक्खरणी-रम्मेहि, उबवण-संहि विविह-रुक्खेहि । कुसुमफल-सोहिदेहि, सुर - मिहुण जुदेहि सोहंति ॥२०६।। अर्थ-वे प्रासाद पुष्करिणियोंसे रमग्गीय, फल-फूलोंसे सुशोभित, अनेक प्रकारके वृक्षों सहित और देव-युगलोंसे संयुक्त उपखण्डोंसे शोभायमान होते हैं ।। २०९ 11 विददम-वाणा केई, केई कप्पूर-कुद-संकासा। कंचण - वण्णा केई, केई 'बज्जिद-णील-णिहा ।।२१०।। अर्थ-( इनमें से ) कितने ही ( भवन ) मंगा सदृश वर्णवाले, कितने ही कपूर और कुन्दपुष्प सदृश, कितने ही स्वर्ण वर्ण सदृश और कितने ही वन एवं इन्द्रनीलमणि सदृश वर्ण वाले हैं ।। २१०॥ तेसुपासादेसु, विजनो देवो - सहस्स - सोहिल्लो। णिच्च - जुवाणा देवा, बर-रयण-विभूसिद-सरीरा ॥२११॥ लक्खरण-वेंजण-जुत्ता, घादु-विहीणा य वाहि-परिचत्ता। वित्रिह - सुहेसु ससा, कोडते बहु - विणोदेण ॥२१२॥ १. ब. क. दिसुमुह । २. द. ब. क. ज. संडा । ३. ६. ब. क. ज. जंविंद । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाया : २१३-२१८ अर्थ-उन भवनों में हजारों देवियोंसे सुशोभित, विजय नामक देव शोभायमान है और वहाँ उत्तम रत्नोंसे विभूषित शरीर वाले लक्षण एवं व्यञ्जनों सहित, ( सप्त ) धातुओंसे विहीन, व्याधिसे रहित तथा विविध प्रकारके सुखोंमें आसक्त नित्य-युवा, देव बहुत विनोद पूर्वक क्रीडा करते हैं ॥२११ २१२ ।। सयणाणि आसणाणि, रयणमयाणि हवंति भवणेसु । मउवाणि णिम्मलाण, मण-णयणाणंद-जणणाणि ॥२१३॥ अर्थ-इन भवनों में मृदुल, निर्मल और मन तथा नेत्रोंको आनन्ददायक रत्नमय शय्यार्ये एवं ग्रासन विद्यमान हैं ।। २१३ ।। प्रादिम-पासाबस्स य, बहु-मज्झे होवि कणय-रयणमयं । सिंहासणं विसालं, सपाद - पीढं परम - रम्मं ॥२१४॥ अर्थ-प्रथम प्रासादके बहु-मध्य-भागमें अतिशय रमणीय और पादपीठ सहित सुवर्ण एवं रस्तमय विशाल सिंहासन है ।। २१४ ।। सिंहासणमारूढो, विजो णामेण अहिवई तत्थ । पुथ्व - मुहे पासादे, अत्याणं देवि लीलाए ॥२१॥ अर्थ-वहाँ पूर्व-मुख प्रासादमें सिंहासन पर प्रारूढ विजय नामक अधिपति देव लीलासे आनन्दको प्राप्त होता है ।। २१५॥ विजयदेव के परिवार का अवस्थान एवं प्रमाण तस्स य सामाणीया, घेद्वैते छस्सहस्स-परिमाणा। उत्तर-दिसा-विभागे, विदिसाए विजय - पोढादो ॥२१६॥ अर्थ--विजयदेवके सिंहासनसे उत्तर-दिशा और विदिशामें उसके छह हजार प्रमाण सामानिक देव स्थित रहते हैं ।। २१६ ॥ बेळंति णिरुवमाओ', छस्सिय विजयस्स अग्ग-देवोत्रो। ताणं पीढ़ा रम्मा, सिंहासण • पुव्य - दिभाए ॥२१७॥ अर्थ ---मुख्य सिहासनके पूर्व-दिशा-भागमें विजयदेवकी मनुपम छहों अग्र-देवियां स्थित रहती हैं । उनके सिंहासन रमणीय हैं ।। २१७ ।। परियारा देवीओ, तिम्णि सहस्सा हवंति पत्तेक्कं । साहिय-पल्लं पाऊ, णिय-णिय-ठाणम्मि चेति ॥२१॥ १. ६. क. ज. रिणवमाणो। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१९-२२३ ] पंचमी महाहियारो प्रयं-इनसे प्रत्येक अग्र-देवीको परिवार-देवियाँ तीन हजार हैं, जिनकी आयु एक पल्यसे अधिक होती है । ये परिवार देवियाँ अपने-अपने स्थानमें स्थित रहती हैं ॥ २१८ ।। बारस देव-सहस्सा, बाहिर-परिसाए विजयदेवस्स । पइरिदि-दिसाए ताणं, पीढाणि सामि - पोढादो ।।२१।। १२००० । अर्थ-विजय देवकी बाह्य परिषद में बारह हजार ( १२००० ) देव हैं। उनके सिंहासन, स्वामीके सिंहासनसे नैऋत्य-दिशा-भागमें स्थित हैं ।। २१९ ।। देयवस-सहस्साणि, मझिम-परिसाए होंति विजयस्स । दक्खिए-दिसा-विभागे, तप्पीढा णाह - पीढादो ॥२२०॥ अर्थ-विजयदेवकी मध्यम परिषद्में दस हजार (१००००) देव होते हैं । उनके सिंहासन, स्वामीके सिंहासनसे दक्षिण-दिशा-भागमें स्थित रहते हैं ।। २२० ।। अम्भंतर - परिसाए, अट्ट सहस्साणि विजयदेवस्स । अग्गि - दिसाए होंति हु, तप्पीढा रगाह - पीढादो ॥२२॥ 5०००। अर्थ-विजयदेवकी अभ्यन्तर परिषद्में जो आठ हजार ( ८००० ) देव रहते हैं उनके सिंहासन स्वामीके सिंहासनसे अग्नि-दिशामें स्थित रहते हैं ।। २२१ ।। सेणा - महत्तराणं, ससाणं होंति दिन्च - पोढाणि । सिंहासण - पच्छिमबो, वर - कंचण-रयरग-रइवाइं ॥२२२॥ अर्थ-मात सेना-महत्तरोंके सत्तम स्वर्ण एवं रत्नोंसे रचित दिव्य पीठ मुख्य सिंहासन के पश्चिममें होते हैं ।। २२२ ।। तणुरक्खा अट्ठारस - सहस्स - संखा हवंति पत्तेक्कं । ताणं च उसु विसासु, चेढ़ते भव - पीढाणि ॥२२३॥ १८००० । १८००० । १८००० । १८००० । अर्थ-विजयदेवके शरीर-रक्षक देवोंके भद्रपीठ चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें अठारह हजार ( पूर्वमें १८०००, दक्षिणमें १८०००, पश्चिममें १८००० और उत्तरमें १८०००) प्रमाण स्थित हैं ।। २२३ ।। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २२४-२२९ सत्त-सर-महुर-गीयं, गायंता पलह-वंस-पहुदीणि । वायंता गच्चंता', विजयं रज्जति तत्य सुरा ।।२२४।। अर्थ-वहाँ देव सात स्वरोंसे गरि मधुर गीत गाते हैं और पह एवं बांसरी ग्रादिक बाजे बजाते एवं नाचते हुए बिजयदेवका मनोरंजन करते हैं ।। २२४ ।। रायंगणस्स बाहि, परिवार-सुराण होति पासादा । विप्फुरिय-धय - बडाया, घर-रयणुज्जोइ-अहियंता ।।२२५॥ अर्थ--परिवार-देवोंके प्रासाद राजाङ्गणसे बाहर फहराती हुई ध्वजा-पताकाओं सहित और उत्तम रत्नोंकी ज्योतिसे अधिक रमणीय हैं ।। २२५ ।। . बहुविह-रति-करणेहि, कुसलाओ णिच्च जोवण-जुदायो। णाणा - विगुव्वणाओ, माया - लोहादि - रहिदाओ ।।२२६॥ उल्लसिद - विन्भमाओ, 'छत्त - सहावेण पेम्मवंताओ। सध्यारो देवीओ, प्रोलगते विजयदेवं ॥२२७।। अर्य-बहुत प्रकारकी रति करने में कुशल, नित्य ग्रोवन युक्त, नानाप्रकारको विक्रिया करने वाली, माया एवं लोभादिसे रहित, उल्लास युक्त बिलास सहित और छत्र-योगके स्वभाव सदृश प्रेम करने वाली समस्त देवियाँ विजयदेवकी सेवा करती हैं ।। २२६-२२७ ।। णिय-णिय-ठाण णिविट्ठा, देवा सम्वे वि विणय-संपुण्णा । रिणभर - भत्ति - पसत्ता, सेवंते विजयमणवरतं ॥२२॥ अर्थ-अपने-अपने स्थान पर रहते हुए भी सब देव विनयसे परिपूर्ण होकर और अतिशय भक्तिमें आसक्त होकर निरन्तर विजयदेवकी सेवा करते हैं ॥ २२८ ॥ विजयदेवके मगरके बाहर स्थित वन-खण्डौंका निरूपण तण्णयरोए बाहिं, गंतूणं जोयगाणि पणवीसं । चत्तारो वणसंडा, पचेक्कं चेत्त - तर - जुत्ता ॥२२६।। --- - १. द.ब, ज. प चित्ता, क. णं चत्ता। २. द. ब. क. ज. छित्त। ३. ज्योतिषमें छत्र योग दो प्रकारसे कहे गये हैं। (१) जन्मकुण्डली में सप्तम भावसे आगेके सातों स्थानों में समस्त ग्रह स्थित हों तो छत्र योग होता है । यह योग जातकको अपूर्व सुख-शान्ति देता है। (२) रविवारको पू० फा०, सोमवारको स्वाति, मंगलको मूल, बुधवार को श्रवण, गुरुवारको उत्तरा भा०, शुक्रवारको कृतिका और शनिबारको पुनर्वसु नक्षत्र हो तो छत्र योग बनता है । इस योगमें किया हुआ कार्य शुभ फलदायी होता है। - - - - - -.- - -.- -. -..--- ..-- Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २३०-२३४ । पंचमो महाहियारो अर्थ –उस नगरीके बाहर पच्चीस ( २५ ) योजन जाकर चार वन-खण्ड स्थित हैं। प्रत्येक वनखण्ड चैत्यबृक्षोंसे संयुक्त है ।। २२९ ।। होंति हु तारिण" वाणि, दिवाणि असोय-सत्त-वण्णाणं । चंपय - घूद - वणा तह, पुब्वादि - पदाहिणि - कमेणं ॥२३०॥ अर्थ-अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र वृक्षोंके ये वन पूर्वादिक दिशाओंमें प्रदक्षिणा क्रमस हैं ।। २३० ।। बारस-सहस्स-जोयण-दोहा ते होंति पंच-सय-रुदा । पत्तेक्कं वरणसंडा, बहुविह रुवखेहि परिपुण्णा ।।२३१॥ १२००० । ५०० । अर्थ-बहुत प्रकारके वृक्षोंसे परिपूर्ण वे प्रत्येक वन-खण्ड बारह हजार ( १२००० ) योजन लम्बे और पांच सौ ( ५०० ) योजन चौड़े हैं ।। २३१ ।। चैत्य-वृक्ष एवेसु चेत्त-दुमा, भावण-चेत्त-दमा य सारिच्छा । तारणं जसु दिसासु, चउ-चउ-जिण-णाह-पडिमाओ ।।२३२॥ अर्थ-इन वनोंमें भावनलोकके चैत्यवृक्षोंके सदृश जो चैत्यवृक्ष स्थित हैं, उनको चारों दिशाओंमें चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं ।। २३२ ।। देवासुर-महिदाओ, सपाडिहेरानो' रयण-मइयाओ। पल्लंक - आसणाओ, जिणिद - पडिमाओ विजयते ॥२३३।। अर्थ-देव एवं असुरोंसे पूजित, प्रातिहार्यो गहित और पद्मासन स्थित वे रत्नमय जिनेन्द्र प्रतिमाएँ जयवंत हैं ।। २३३ ।। अशोकदेवके प्रासादका सविस्तार वर्णन चेत्तदुम' - ईसाणे, भागे चेठेवि विश्व - पासादो । इगितीस • जोयगाणि, कोसम्भहियाणि वित्थिपणो ।।२३४॥ ३१ । को । १. द. ब. क. ज. ताए। २. द. ब. सपादिहोराओ रमणमहराभो, के. ज. सपादिहेरामो रमणमहराओ । ३, द. ब. क, ज. चेत्तदुपी पाणे भागे चेछेदि हु होदि दिवपासादो । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] तिलोयपण्णत्ती :२३५-२३९ अर्थ - प्रत्येक चंत्यवृक्षके ईशान-दिशा-भागमें एक कोस अधिक इकतीस योजन प्रमाण विस्तारवाला दिव्य प्रासाद स्थित है ।। २३४ ।। वासाहि दगुरण-उदो, द-कोस गाढो विचित्त-मणि-खंभो । चउ - अट्ठ - जोयणाणि, बुच्छेदाओ तद्दारे ।।२३५॥ ६२ । को २ । ४ । ८। अर्थ - अनुपम मरिणमय खम्भोंसे संयुक्त इस प्रासादकी ऊचाई विस्तारसे दुगुनी ( ६२३ योजन ) ओख अवगाह दो कोस प्रमाण है । उसके द्वारका विस्तार चार ( ४ ) योजन और ऊंचाई आठ (८) योजन है ।। २३५ ॥ पजलंत-रयण-दीवा, विचित्त - सयणासणेहि परिपुण्णा । सह - रस • रूव - गंध - प्पासेहि खयमणाणंदो ॥२३६।। करण्यमय-कुड्ड-विरचिव-विचित्त-चित्त-प्पबंध-रमणिज्जो। अच्छरिय-जगण-रूवो, कि बहुणा सो णिरुखमाणो ।।२३७।। अर्थ--उपयुक्त प्रासाद देदीप्यमान रत्नदीपकों सहित, अनुपम शय्याओं एवं आसनोंसे परिपूर्ण और शब्द, रस, रूप, गन्ध तथा स्पर्शसे इन्द्रिय एवं मनको प्रानन्दजनक, सुवर्णमय भीतों पर रचे गये अद्भुत चित्रोंके सम्बन्धसे रमणीय और प्राश्चर्यजनक स्वरूपसे संयुक्त हैं। बहुत कहनेसे क्या ? वह प्रासाद अनुपम है ।। २३६-२३७ 11 तस्सि असोयदेश्रो, रमेदि देवी - सहस्स - संजसो। वर-रयण-मउडधारी, चमरं छत्तादि • सोहिल्लो ॥२३८॥ अर्थ-उस प्रासादमें उत्तम रस्म-मुकुटको धारण करने वाला और चमर तथा छत्रादिसे सुशोभित वह अशोक देव हजारों देवियोंसे युक्त होकर रमण करता है ॥ २३८ ।। सेसम्मि वहजयंत-सिदए विजयं व वण्णणं सयलं । दक्षिण-पच्छिम-उत्तर-विसासु ताणं पि णयराणि ॥२३६।। जंबूदीव-वण्णणा समत्ता। अर्थ- शेष वैजयन्तादि तीन देवोंका सम्पूर्ण वर्णन विजय देवके ही सदृश है। इनके भी नगर क्रमश: दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें स्थित हैं ।। २३९ ॥ इस प्रकार ( द्वितीय ) जम्बूद्वीपका वर्णन समाप्त हुआ। १. ६. ज. रुदं छेवाग्रो, ब, रु छेदायो। २. ६. ब. गंधे। ३. ६. ज कुयमणाणंमा, ब. सुरंयमजाणंमा, क, कुणयमणारामा। ४.ब. कुडस । ५.६.य.क. ज. पि। ६.व. जंबद्वीप । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४०-२४३ । पंचमो महायिारो [ ५५ स्वयम्प्रभ-पर्वत का वर्णन दोनो' सयंभरभरणो, चरिमो सो होदि सयल-दीवाणं । चंठेवि तस्स मज्झ, बलएण सयंपहो सेलो ॥२४०।। अर्थ -सब द्वीपों में अन्तिम वह स्वयम्भूरमणद्वीप है। उसके मध्य-भागमें मण्डलाकार स्वयंप्रभ शैल स्थित है ।। २४० ।।। जोयण-सहस्समेक्क, गाढो वर-विविह-रयण-दिप्पंतो। मूलोवरि-भाएसु, तड - वेदी - उपवणादि - जुदो ।।२४१॥ अर्थ-यह पर्वत एक हजार (१०००) योजन प्रमाण अवगाह सहित, उत्तम अनेक प्रचारके रनोंसे देवी और मूत एवं उपरिम भागोंमें तट-वेदी तथा उपवनादिसे संयुक्त है ।। २४१ ।। तगिरिणो उच्छेहे', बासे कूडेसु जेत्तियं माणं । तस्सि काल - वसेणं, उबएसो संपइ पणट्ठो ॥२४२।। एवं विण्णासो समत्तो ॥४॥ .. प्रर्थ-इस पर्वतकी ऊंचाई, विस्तार और कूटोंका जितना प्रमाण है, उसका उपदेश इस समय कालवश नष्ट हो चुका है ।। २४२ ।। इसप्रकार विन्यास समाप्त हुआ ।। ४ ।। __वृत्ताकार क्षेत्रका स्थूल क्षेत्रफल प्राप्त करनेकी विधि एत्तो दीव -रयणायराणं बावर-खेत्तफलं बतइस्सामो। तत्थ जंबूवीवमावि कादूण वट्टसरूवावविद-खेसाणं खेसफल-पमाणाणयणटुमिमा सुत्त-गाहा अर्थ-अब यहाँसे आगे द्वीप-समुद्रोंके स्थूल क्षेत्रफलको कहते हैं। उनमेंसे जम्बूद्वीप को प्रादि करके गोलाकारसे अवस्थित क्षेत्रोंके क्षेत्रफलका प्रमाण लानेके लिए यह सूत्र-गाथा है ति-गुरिणय-वासा परिहो, तीए विक्वंभ-पाव-गुरिणदाए । जं लड़ तं बादर - खेत्तफलं सरिस - बट्टाणं ॥२४३॥ १. द. क. ज. मादीओ। २. ६. देवाण। ३. द. ब. क. ज, उच्छेहो । ४. द. व. फ. ज. बसेसा । 1. प. द. क. ज. दीवरणायगठाण बादरभेदसम्फलं . दे. ब, क. ज. मिस्सा । ७. द.ब. क. ज. परिहीए। ६. द. बक, ब, दंडाणं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४४- २४६ अर्थ - गोल क्षेत्रके विस्तारसे तिगुनी उसकी यादर परिधि होती है, इस परिधिको विस्तार के चतुर्थ भागसे गुणा करने पर जो राशि प्राप्त हो उतना समान गोल क्षेत्रोंका बादर क्षेत्रफल होता है || २४३ || उदाहरण - जम्बूद्वीपका विस्तार १००००० योजन है । १००००० × ३ -- ३००००० योजन स्थूल परिधि । ३०००००००००० = ७५०००००००० वर्ग योजन बादर क्षेत्रफल । वलयाकार क्षेत्रका प्रायाम एवं स्थूल क्षेत्रफल प्राप्त करने की विधियाँ लवण समुद्दमादिकादूण उर्धारि वलय-सरूयेण ठिददीय- समुद्दाणं खेसफलमाणत्थं एदा वित्त गाहाश्रो श्रर्थ - लवण समुद्रको आदि करके श्रागे वलयाकार से स्थित द्वीप-समुद्रोंका क्षेत्रफल लाने के लिए ये सूत्र - गाथाएँ है अर्थ- इच्छित क्षेत्रके विस्तारमेंसे एक लाख कम करके शेष को नौसे गुणा करने पर इच्छित द्वीप या समुद्रका आयाम होता है । पुनः इस आयामको विस्तारसं गुणा करने पर द्वीपसमुद्रोंका क्षेत्रफल होता है ।। २४४ ।। योजन | लक्खणणं रुवं, णवहि गुणं इच्छियस्स आयामो । तं रुदेण य गुणिदं, खेत्तफलं दीव - उबहीणं ॥ २४४ ॥ उदाहरण – लवरणसमुद्रका विस्तार २ लाख यो० है । ल० स० का आयाम = ( २ ला०- १ ला ० ) x ९ = ९००००० योजन । " ,, बादर क्षेत्रफल ९ ला० आयाम ४२ ला०वि० = १८०००००००००० वर्ग " अहवा श्रादिम-मज्झिम- बाहिर- सूईण मेलिदं माणं । विक्खंभ हदे इच्छिय वलयाणं बावरं खेत्तं ।। २४५ ॥ - अर्थ-अथवा यदि, मध्य एवं बाह्य सूचियों के प्रमाणको मिलाकर विस्तारसे गुणित करने पर इच्छित वलयाकार क्षेत्रोंका बादर क्षेत्रफल होता है ।। २४५ ।। उदाहरण - लवण समुद्रकी आदि सूची १ ला० यो० + मध्य सूची ३ ला ० यो० + बाह्य सूची ५ ला० यो० = १ लाख योजन । ल० स० का बादर क्षेत्रफल = ९ लाख ४२ लाख विस्तार= १८०००००००००० वर्ग योजन । अहवा ति गुणिय-मज्झिम-सूई जाणेज्ज इट्ठ-वलयाणं । तह य पमाणं तं चिय, संव हदे वलय खेतफलं ॥ २४६ ॥ - . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४६ ] पंचमो महाहियारो [ ५७ अर्थ-अथवा-तिगुनी मध्य-सूचीको इष्ट वलय-क्षेत्रोंका पूर्वोक्त अर्थात् आदि, मध्यम और बाह्य सूचियोंका सम्मिलित प्रमाण जानना चाहिए । इसे विस्तारसे गुणित करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उतना उन वलय-क्षेत्रोंका बादर क्षेत्रफल होता है ।। २४६ ।। उदाहरण - लवण समुद्र की तीनों सूचियोंका योग (१ ल०+३ ल० + ५ ल० =) ९ लाख होता है सौर मध्यम सूचीलाई के को गुहिए। करनेपर भी ( ३ लाख ४३= ) ९ लाख होता है। लासका बादर क्षेत्रफल=२लाख ४२ लाख विस्तार-१५०००००००००० वग योजन । द्वीप-समुद्रोंके बादर क्षेत्रफलका प्रमाण जंबूदीवस्स बावर - खेसफलं सत्त - सय - पण्णास - कोडि-जोयण-पमारणं७५००००००००। लवणसमुहस्स खेत्तफलं अट्ठारस-सहस्स-कोडि-जोयण-पमाणं१८०००००००००० । धादइसंड-दीवस्स बावर-खेत-फलं अट्ठ-सहस्स-कोडि-अन्भहियएक्क-सपन-कोडि-जोपण-पमाणं-१०००००००००००० । कालोबग - समुहस्स बादरखेत्तफलं चत्तारि • सहस्स - कोडि - अन्भहिय • पंच - लक्ख - कोडि - जोयण-पमाणं-- ५०४०००००००००० । पोक्खरवर • दोबस्स खेतफलं सद्वि-सहस्स-कोडि-अम्भहिय'. एक्क-वीस-लक्ख-कोडि-जोयण-पमाणं-२१६०००००००००००। पोक्खरवर · समस्स खेरफलं अठ्ठावीस - सहस्स - कोडि - अब्भहिय • उणणउदि-लक्ख-कोडि-जोयण-पमाणं-- २९२८००००००००००। मर्थ–जम्बूद्वीपका बादर क्षेत्रफल सात सौ पचास करोड़ (७५००००००००) वर्ग योजन प्रमाण है । लवणसमुद्र का बादर क्षेत्रफल अठारह हजार करोड़ ( १८००००००००००) वर्ग योजन प्रमाण है। धातकी खण्डद्वीपका बादर क्षेत्रफल एक लाख आठ हजार करोड { १०८०००००००००० ) वर्ग योजन प्रमाण है । कालोदसमुद्रका बादर क्षेत्रफल पाँच लाख चार हजार करोड़ ( ५०४०००००००००० ) वर्ग योजन प्रमाण है। पुष्करवरद्वीपका बादर क्षेत्रफल इक्कीस लाख साठ हजार करोड़ ( २१६००००००००००० ) वर्ग योजन प्रमाण है और पुष्करवर समुद्रका बादर क्षेत्रफल नवासी लाख अट्ठाईस हजार करोड़ ( ८९२८०००००००००० ) वर्ग योजन प्रमाण है। १. द. अब्भहिएक्क। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४६ विशेषार्थ का नाम (विस्तार-१ लाख) x =अायाम आयाम - वि० = बादर क्षेत्रफल लवण समुद्र (२ ला०-१ ला.)४९=९ ला यो०९ला० x २ला० = १८०००करोड़ वर्ग यो. धातकी खण्ड |(४ ला०-१ला.)४९= २७ला०यो०२७ला० ४४ला० = १०८००० क० ," कालोद स० (८ला०-१ला०) ४९= ६३ ला० यो०६३ला०४८ला० - ५०४००० क० ,,, पुष्कर द्वीप |(१६ला०-१ला०) ४९=१३५ला० यो १३५ला० ४ १६ला ० = २१६०००० ,,, पुटकर० समुद्र ] (३२ला ०-१ ला! ४६= २७९ लामो ला० x ३२ला ०८-८९२८०००।" जघन्य-परीतासंख्यातवें क्रमवाले द्वीप या समुद्रका बादर क्षेत्रफल एवं जंबूदीव-प्पहुदि-जहण्ण-परित्तासंखेज्जयस्स 'रूवाहियच्छेदणयमेतद्वारणं' गंतररा द्विद-वोवस्स' खेत्तफलं जहण्ण-परिचासंखज्जयं रूऊण-अहष्ण-परित्तासंखेज्जएण गुणिय-पुणो णव-सहस्स-कोडि-जोयणेहि गुणिदमेत खेसफलं होदि । तच्चेदं१६ । १६ । ६०००००००००० । अर्थ-इसप्रकार जम्बूद्वीपको आदि लेकर जघन्य-परीतासंख्यातके एक अधिक अर्धच्छेद प्रमाण स्थान जाकर जो द्वीप स्थित है उसका क्षेत्रफल जघन्य-परीतासंख्यातको एक कम जघन्यपरीतासंख्यातसे गुणा करके फिर नौ हजार करोड़ योजनोंसे भी गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उतना है । वह प्रमाण यह है-१६४ ( १६ – १)४९०००००००००० । ( संदृष्टि में ग्रहण किया गया १६, जघन्यपरीतासंख्यातका कल्पित मान है )। पल्योपमके एक अधिक अर्धच्छेद स्थानपर स्थित द्वीप या समुद्रका क्षेत्रफल पुणो जंबूदीव-प्पहुषि-पलिदोवमस्स रूवाहियच्छेदणय-मेत ठाणं गंतूण द्विवबीयस्स खेसफल पलिवोवमं रूऊण-पलिदोवमेण गुणिय पुणो णव-सहस्स-कोडि-जोयणेहि गुणिदमेत होदि । तच्चेवं पमाणं-प।प१।६००००००००००। एवं जाणिवण" वध्वं जाव सयंभूरमण-समुद्दोस्ति । ३.६. जीवरस। ४, द. ज. गुणिद १ द.ज.क हवोचिय, ब. रूवोय। २. द. क्र. मेत्तधाणं। खेत होदि। ५. द. ज. गणिणिदुण, ब. गणिणदूरण । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४६ ] पंचमो महाहियारो अर्थ-पश्चात् जम्बूद्वीपको आदि लेकर पल्योपमके एक अधिक अर्धच्छेदप्रमारण स्थान जाकर जो द्वीप स्थित है उसका क्षेत्रफल पल्योपमको एक कम पल्योपमसे गुणा करके फिर नौ हजार करोड़ योजनोंसे भी गुणा करनेपर प्राप्त हुई राशिके प्रमारण है । वह प्रमाण यह है—पल्य ४ (पल्य--१)४९०००००००००० यो० । इसप्रकार जानकर स्वयम्भूरमरणसमुद्र पर्यन्त क्षेत्रफल ले जाना चाहिए। स्वयम्भूरभरण समुद्रका वादर क्षेत्रफल तत्थ अंतिम वियप्पं वत्तइस्सामो-सयंभूरमण-समुहस्स खेत्तफलं जगसढीए वग्गं गव-रूवेहि गुणिय सत्त-सय-चउसोदि-हवेहि भजिवमेतं पुणो एकक - लक्ख बारस-सहस्सपंच-सय-जोयणेहि गुणिव-रज्जए अहियं होदि । पुणो एक्क-सहस्स-छल्सय-सत्तासीविकोडीओ पण्णास-लक्ख-जोयणेहि पुबिल्ल-दोण्णि-रासोहि परिहोणं होदि । तस्स ठवणा =९ धण रज्जू ७ । ११२५०० रिण जोयणारिण १६८७५०००००० । अर्थ- इनर्भस अन्तिम विनाप कहते हैं जगच्छणीके वर्गको नौसे गुणा करके प्राप्त राशिमें सात सौ चौरासीका भाग देने पर जो लन्ध प्राप्त हो उसमें फिर एक लाख बारह हजार पांच सौ योजनोंसे गुणित राजको जोड़कर पुनः एक हजार छह सौ सतासी करोड़ पचास लाख योजनोंसे पूर्वोक्त दोनों राशियोंको कम करनेपर जो शेष रहे उतना स्वयम्भूरमरण समुद्रका क्षेत्रफल है। उसकी स्थापना-{(७४७४९): (७८४)} +{१ राजू ४ ११२५००)-१६८७५०००००० योजन । विशेषामं --स्वयम्भूरमणसमुद्रका बादर-क्षेत्रफल निकालनेके लिए इसी अधिकारफी गाथा २४४ का उपयोग किया गया है । स्वयम्भूरमरण समुद्रके बादर-क्षेत्रफलकी प्राप्ति हेतु सूत्र-- स्वयं का बा० क्षे० ( स्वयं० समुद्रका व्यास )४५x ( स्वयं० सं० का व्यास–१ ला० यो०) नोट- स्वयम्भूरमण समुद्रका व्यास जगच्छे रणी+७५००० योजन है ।। बादर क्षेत्रफल= (जग०५-७५००० यो०) ४९४ (जग +७५०००यो०-१००००० यो ) -(६ जगच्छ गी+६७५००० यो० )x (जग० - २५००० यो०) २८ क्षेत्रफल= ९ ( जगच्छेणी ) + जग० [६x( – २५००० यो०) + ६७५.००० यो०। ( २५००० यो०४६७५००० यो०) ७८४ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : २४६ -FEE ( जगच्छणी )२ + ( ६१२५०० वर्ग यो ४१ राजू ) - १६८७५०००००. वर्ग योजन बादर क्षेत्रफल है। नोट---( २८ )२-७८४ होता है और जगन्छ णो राज है। उन्नीस विकल्पों द्वारा द्वीप-समुद्रोंका अल्पबहुत्व एतो दीव-रयणायराणं एऊणवीस-वियप्पं अप्पबहुधे वत्तइस्सामो। तं जहा पढम-पक्खे जंबूदोव-सयल-रुंदादो लवणरणीर-रासिस्स एय-विस-रुवम्मि वडोगदे सिज्जइ । जंबूदीव-लवणसमुहादो धादइ-संडस्स । एवं सब्वम्भंतरिम-दीब-रयणायराणं एय-दिस-दादो तवणंतर-बाहिर-णिविट्ठ-दीवस्स वा तरंगिणी-रमणस्स वा एस-दिसरुद-बड्डी-गदे सिज्जइ॥ ___ अर्थ-अब यहाँसे उन्नीस विकल्पों द्वारा द्वीप-समुद्रोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इसप्रकार है प्रथम पक्षमें जम्बूद्वीपके सम्पूर्ण विस्तारको अपेक्षा लवणसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में वृद्धिकी सिद्धि की जाती है । जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रके सम्मिलित विस्तारको अपेक्षा धातकीखण्डके विस्तारमें वृद्धिका प्रमाण ज्ञात किया जाता है। इसप्रकार समस्त अभ्यन्तर द्वीपसमुद्रोंके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उनके अनन्तर बाह्य-भागमें स्थित द्वीप अथवा समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिके प्रमाणको सिद्धि ज्ञात की जाती है । बिदिय-पक्खे जंबदीवस्सद्धादो लवण-णिण्णगाणाहस्स एय-दिस-दम्मि घड़ी गदे सिज्जइ । तदो जंबूदीवस्सद्धम्मि सम्मिलिव-लवरणसमुहायो धादाइसंउस्स । एवं सव्यम्भंतरिम-दीव-उबहीणं एय-दिस-रुवावो तदणंतर-बाहिर-णिविट्ठ-दोवस्स वा तरंगिणी रमणस्स वा एय-दिस-रुदम्मि वड्डी-गदे-सिज्जइ ।। अर्थ-द्वितीय-पक्षमें जम्बूद्वीपके अर्ध-विस्तारसे लवणसमुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिको सिद्धि की जाती है । पश्चात् जम्बूद्वीपके अर्ध-विस्तारसे लवणसमुद्रके विस्तारको मिलाकर इस सम्मिलित विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डद्वीपके विस्तार में वृद्धिकी सिद्धि की जाती है। इसप्रकार संपूर्ण अभ्यन्तर द्वीप-समुद्रोंके एक दिशा संबन्धी विस्तारसे उनके अनन्तर बाह्य भागमें स्थित द्वीप अथवा समुद्र के एक दिशा संबन्धी विस्तारमें वृद्धिकी सिद्धि की जाती है । तदिय-पक्खे इच्छिय-सलिलरासिस्स एय-दिस-रुवायो तवणंतर-तरंगिणी-णाहस्स एय-विस-रदस्मि बड्डो-गवे सिज्जइ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४६ ] पंचो महाहियारो अर्थ- तृतीय-पक्षमें अभीष्ट समुद्र के एक दिशा संबन्धी विस्तारसे उसके अनन्तर स्थित समुद्रके एक दिशासंबन्धी विस्तार में वृद्धिको सिद्धि की जाती है ।। तुरिम-परखे अभंतरिम-गोरधोणं एय-दिस-विक्खम्भादो तदणंतर-तरंगिणीरगाहस्स एय-दिस-विक्सम्मि बड्डी-गो सिज्जइ ।। अर्थ-चतुर्थ-पक्षमें अभ्यन्तर समुद्र के एक दिया सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा तदनन्तर समुद्रके एक-दिशासम्बन्धी विस्तार में वृद्धिकी खोज की जाती है । पंचम-पक्खे इच्छिय-दीवस्स एय-दिस-दादो तवणंतरोवरिम-वीवस्स एय-विसरुंदम्मि बड्वी-गदे सिज्जइ ॥ अर्थ - पंचम-पक्षमें इच्छित द्वीपके एक दिशा सम्बन्धी बिस्तारसे तदनन्तर उपरिम द्वीपके एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में वृद्धिकी सिद्धि की जाती है ।। छट्टम-पक्खे अभंतरिम-सव्य-दीवाणं एय-दिस-रुदावो तदणंतोरिम-दीवस्स एय-विस-संबम्मि वड्डी-गवे सिज्जइ ।। अर्थ-छरे पक्षमें अभ्यन्तर सन द्वीपोंके एक दिशा सम्बन्धी बिस्तारको अपेक्षा तदनन्तर उपरिम द्वीपके एकदिक्षा सम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिकी सिद्धि की जाती है ।। ससम-पक्खे अभंतरिमस्स दीवाणं दोण्णि-दिस-रुदादो तदणंतर-बाहिर-णिविट्ट दोवस्स एय-दिस-रुदम्मि बड्डा-गवे सिज्जइ ॥ अर्थ सातवें पक्षमें अभ्यन्तर द्वीपों के दोनों दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा तदनन्तर बाह्य स्थित द्वीपके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिको सिद्धि की जाती है ।। अट्ठम-पक्खे हेडिम-सयल-मयरहराणं दोण्णि बिस-संवादो तदणंतर-वाहिरपीरमणस्स एय-विस-रुबम्मि वड्ढी-गवे सिज्जइ ॥ अर्थ आठवें पक्ष में अघस्तन सम्पूर्ण समुद्रोंके दोनों दिशाओं सम्बन्धो विस्तारको अपेक्षा तदनन्तर समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में वृद्धिकी सिद्धि की जाती है ।। गवम-पक्खे जंबूदीय-बादर-सुहम-खेसफलप्पमाणेण उपरिमापमार्फत-दीवाणं खेतफलस्स खंड'-सलागं कादूण वड्डी-गदे सिज्जइ । १. द. ब. क. ज. लंद । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ } तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २४६ अर्थ - नवमपक्ष में जम्बूद्वीप के बादर और सूक्ष्म क्षेत्रफल के प्रमाण मागेके समुद्र और द्वीपों के क्षेत्रफलको खण्ड-शलाकाएँ करके वृद्धिको सिद्धि की जाती है || दसम पक्खे जंबूदीवाको लवरणसमुहस्स लवरणसमुद्दादो घादईसंडस्स एवं दोबाटो उवहिस्स उवहीदो दीयस्स वा खंडसलागाणं वड्ढी गदे सिज्जइ ॥ अर्थ – दसवें पक्षमें जम्बूद्वीपसे लवणसमुद्रकी और लवणसमुद्रसे धातकीखण्डदीपकी इसप्रकार द्वीप समुद्रको अथवा समुद्रसे द्वीपकी खण्डशलाकाओं की वृद्धि के प्रमाणकी सिद्धि को जाती है || एक्कारसम-पले प्रभंतर कल्लोलिणी- रमण-दीवाणं खंडसलागाणं समूहावो बाहिर णिविदु-पोर सिस्स या दीवस्स वा खंडसलागार वड्ढी-गवे-सिज्जइ ॥ अर्थ- ग्यारहवं - पक्ष में अभ्यन्तरसमुद्र एवं द्वीपोंकी खण्डशलाकाओं के समूहसे बाह्य भाग में स्थित समुद्र अथवा द्वीपकी खण्डशलाकाओंकी वृद्धिकी सिद्धि की जाती है । बारसम पवखे इच्छिय- सायरादो दीवस्स दीवादी नीररासिस्स खेत्तफलस्स बड्ढी-गदे सिज्जइ । अर्थ --बारहवें पक्षमें इच्छित समुद्रसे द्वीपके और द्वीपसे समुद्रके क्षेत्रफलको वृद्धिको सिद्धि की जाती है || तेरसम-पवले अन्तरिम दीव पयोहीणं खेत्तफलादो तदणंतरोवरिम- दीवस्स वा तरंगिणी णाहस्स वा खेतफलस्स वड्ढी-गदे सिज्जइ । अर्थ - तेरहवें - पक्ष में अभ्यन्तर द्वीप समुद्रोंके क्षेत्रफलकी अपेक्षा तदनन्तर श्रग्रिम द्वीप श्रथवा समुद्र के क्षेत्रफलकी वृद्धिकी सिद्धि की जाती है ॥ चोसम पक्खे लवण समुद्दा बि- इच्छ्यि-समुद्दादो तदनंतर तरंगिणी- रासिस्स खेत्तफलस्स बढी गये सिज्जइ ॥ श्रर्थ-चौदहवें पक्षमें लवण समुद्रको श्रादि लेकर इच्छित समुद्रके क्षेत्रफलसे उससे अनन्तर स्थित समुद्र क्षेत्रफलको वृद्धिको सिद्धि की जाती है ।। पण्णा रसम पक्खे सव्वम्भंतरिम मय रहराणं खेत्तफलादो तवर्णतरोवरमणिण्णगा-णाहस्स [ खेसफलस्स ] बड्ढी गवे सिज्जइ ॥ अर्थ – पन्द्रहवें पक्षमें समस्त अभ्यन्तर समुद्रोंके क्षेत्रफलसे उनके अनन्तर स्थित अग्रिम समुद्र क्षेत्रफल की वृद्धिको सिद्धि की जाती है ॥ - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४६ [ पचमो महाहियारो सोलसम-पक्खे धादइसंडादि-इच्छिय-दीवादो तदर्णतरोबरिम-बोबस्स खेत्तफलस्स बड्ढी-गये सिज्जह ।। अर्थ-सोलहवे-पक्षमें धातकीखण्डादि इच्छित द्वीपसे उसके अनन्तर स्थित अग्रिम द्वीपके क्षेत्रफल की वृद्धि सिद्ध की जाती है ।। सत्तरसम-पक्खे धादइसंड-पहदि अभंतरिम-दीवाणं खेत्तफलादो तदणंतरबाहिर-णिविट्ठ-दीवस्स खेत्तफलस्स वड्ढी-गदे सिज्जइ ॥ अर्थ-सत्तरह-पक्षमें धातकीखण्डादि अभ्यन्तर द्वीपोंके हो त्रफलसे उनके अनन्तर बाह्य भागमें स्थित द्वीपके क्षेत्रफल में होने वाली वृद्धि सिद्ध की जाती है ।। अटारसम-पक्खे इच्छिय-दीवस्स वा तरंगिणी-णाहस्स वा आदिम-मज्झिमबाहिर-सुईणं परिमाणादो तदणंतर-बाहिर-णिविठ्ठ-दीवस्स वा तरंगिणी-णाहस्स वा प्रादिम-मज्झिम बाहिर सूईणं पत्तेक्क वडढी-गदे सिज्जइ ॥ अर्थ-अठारहवे-पक्षमें इच्छित द्वीप अथवा इच्छित समुद्रकी आदि-मध्य और बाह्य-सूचीके प्रमाणसे उसके अभ्यन्तर बाह्य-भागमें स्थित द्वीप अथवा समुद्रकी आदि-मध्य एवं बाह्य सूचियोंमेंसे प्रत्येककी वृद्धि सिद्ध की जाती है ।। एऊणवीसदिम-पक्खे इच्छिय-बीव-णिणगा-णाहाणं आयामादो तवणंतरबाहिर-णिविट्ठ-दोवस्स वा णीररासिस्स वा प्रायाम-वड्ढी-गदे सिज्जइ ॥ अर्थ-उन्नीरावें-पक्षमें इच्छित द्वीप-समुद्रोंके आयामसे उनके अनन्तर-बाह्य भागमें स्थित द्वीप अथवा समुद्रके आयामकी वृद्धि सिद्ध की जाती है ।। प्रथम-पक्ष पूर्वोक्त उन्नीस विकल्पोंमेंसे प्रथमपक्ष द्वारा दो सिद्धान्त कहते हैं (१) अपरवर्ती द्वीप-समुद्रके सम्मिलित एक दिशा सम्बन्धी विस्तारसे पूर्ववर्ती द्वीप या समुद्रका विस्तार १ लाख यो० अधिक होता है--- तत्थ पढम-पक्खे अप्पबहुलं बत्त इस्सामो । तं जहा-जंबूदोवस्स सयल-विक्खंभादो लवणसमुदस्स एय-दिस-रुदं एक्क-लक्खणभहियं होइ । जंबूदीवेणभहिय-लवणसमुहस्स एय-दिस-रुवादो धादइसंडस्स एय-विस-रुदं एक्क-लक्खेणब्भहियं होइ । एवं जंबूदीवसयल-रु देणग्भहियं अन्भंतरिम रयणायर-दोवाणं एय-दिस-दादो तदणंतर बाहिर Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४७ णिविट्ठ-दीवस्स वा तरंगिणी-रमणस्स घा एय-विस-रु एक्क-लक्खेणब्भहियं होवूण गच्छइ जाव सयंभूरमण-समुद्दो त्ति । अर्थ- उपयुक्त उन्नीस विकल्पोंमेंसे प्रथम पक्षमें अल्पबहुत्वको कहते हैं वह इसप्रकार है जम्बुद्वीपके समस्त विस्तारको अपेक्षा लवण समुद्रका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार एक लाख योजन अधिक है। जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी सम्मिलित विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार एक लाख योजन अधिक है । इसप्रकार जम्बूद्वीपके समस्त विस्तार सहित अभ्यन्तर समुद्र एवं द्वीपोंके सम्मिलित एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उनके आगे ( बाहर ) स्थित द्वीप अथवा समुद्रका विस्तार एक-एक लाख योजन अधिक है । इसप्रकार स्वयम्भूरमर। समुद्र-पर्यन्त ले जाना चाहिए। विशेषार्थ -यहाँ जम्बूद्वीपसे लेकर इष्ट दीपा समुद्रते एका पिशा सम्बन्धी गम्मिलित विस्तारसे उनके भागे स्थित द्वीप या समुद्रका विस्तार निकाला जाता है । इस तुलनामें वह एक-एक लाख योजन अधिक रहता है । यथा-जम्बूद्वीपके पूर्ण विस्तारको अपेक्षा लवणसमुद्रका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार एक लाख योजन अधिक है। पुनः जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रका विस्तार यदि एक दिशामें सम्मिलित किया जाय तो ३ लाख योजन होगा, जिसकी अपेक्षा धातकीखण्डद्वीपका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार ४ लाख योजन होनेसे ( ४ लाख – ३ लाख- ) १ लाख योजन अधिक है। तम्चड्ढो-प्राणयण-हेदु इमा सुत्त-गाहा-- इच्छिय-दीवुवहीण', चउ-गुण-रुदम्मि पढम-सूइ-जुदं । तिय-भजिदंतं सोहसु, दुगुणिद-हदम्मि सा हवे बड्डी ॥२४७॥ अर्थ-इस वृद्धि-प्रमाणको प्राप्त करनेके लिए यह गाथा सूत्र है इच्छित द्वीप-समुद्रोंके चौगुने विस्तारमें आदि सूचीके प्रमाणको मिलाकर तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे विवक्षित द्वीप-समुद्रके दुगुने विस्तारमेंसे कम कर देनेपर शेष वृद्धिका प्रमाण होता है ॥२४७।। विशेषार्य-उपयुक्त गाथामें शेष वृद्धिका प्रमाण प्राप्त करनेकी विधि दर्शाई गई है। जिसका सूत्र इसप्रकार है १. द.ब.क, ज. दीवोवहीणं । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४९-२४९ ] पंचमो महाहियारो [ ६५ शेषवृद्धि =२ (इष्ट द्वीप या समुद्रका व्यास)-(४ x इष्ट द्वीप या समुद्र का व्यास + उसकी आदि सूची) _२४ (इष्टद्वीप या समुद्र का व्यास) - (उसकी आदि सूची) उदाहरण-यहाँ पुष्ट दादीप विक्षिन है अतः उसकी विस्तार वृद्धिका प्रमाण निकालना है ! पुष्करवरद्वीपका व्यास १६ लाख योजन तथा उसको आदि सूची २६ लाख योजन है, अतएव यहांशेषवृद्धि =( २४ १६ लाख यो०)--(४४ १६ ला० यो० + २९ ला० यो० प्रादि सूची) = ३२ लाख यो० – ६३ ला० यो =३२ लाख यो० - ३१ लाख यो १ लाख योजन शेष बुद्धि । ( २ ) इष्ट द्वीप या समुद्रको अधं आदिम सूची प्राप्त करने की विधि इट्ठस्स वीवस्स वा सायरस्स वा प्रादिम-सूइस्सद्ध लक्षद्ध-संजुदस्स प्राणयण-हेदुमिमा सुस-गाहाइच्छिय दोबहीणं,' रुदं दो-लख-विरहिवं मिलिदं । बाहिर-सइम्मि तदो, पंच-हिवं तत्थ जं लद्ध॥२४॥ आदिम-सूइस्सद्ध, लक्खद्ध-जुदं हवेदि इट्ठस्स । एवं लवणसमुह - [पहुदि प्राणेज्ज अंतो त्ति ॥२४६।। अर्थ-विवक्षित द्वीप अथवा समुद्रकी अर्ध-लाख योजनोंसे संयुक्त अर्ध आदिम सूची प्राप्त करने हेतु ये सूत्र-गाथाएं हैं इच्छित द्वीप-समुद्रोंके विस्तारमेंसे दो लाख कम करके शेषको बाह्य सूचीमें मिलाकर पाँचका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो, उतना अर्ध-लाख सहित इष्ट द्वीप अथवा समुद्रकी अर्ध. आदिम सूचीका प्रमाण होता है। इसीप्रकार लवरणसमुद्रसे लेकर अन्तिम समुद्र पर्यन्त ( सूची प्रमाणको ) लाना चाहिए ।। २४५-२४१ ।। विशेषार्थ-उपर्युक्त गाथासे सम्बन्धित सूत्र इसप्रकार है-अर्ध लाख यो +इष्ट द्वीप समुद्रकी अर्ध आदि सूची-५०००० योजन+आदिम सूची १. द. दीदावहीणं, ब. क. ज, दीवोबहीणं । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] उसकी बाह्य सूची + ( उसका व्यास บุ १३ लाख यो० + ( ४ लाख यो० ५. उदाहरण - मानलो – धातकीखण्डदीपकी अर्धलाख योजन सहित श्रादिम सूची प्राप्त करना है । धातकीखण्डका व्यास ४ लाख योजन, श्रादिम सूत्री व्यास ५ लाख योजन और बाह्य सूची व्यास १३ लाख योजन प्रमाण है । इसकी अर्धलाख ( ५०००० ) यो० सहित अर्ध आदि ( ५ लाख :- २ = २५०००० यो० ) सूची प्राप्त करने के लिए २ लाख यो० ) - १३ ला यो० + २ लाख यो ५. तिलोयपण्णत्ती २००००० यो० ) १५ ला० यो० ५ = ३ लाख योजन = ५०००० यो० + २५०००० योजन | [ गाथा : २४९ द्वितीय-पक्ष उन्नीस विकल्पों में से द्वितीय पक्ष में दो सिद्धान्त कहते हैं ( १ ) विवक्षित सम्पूर्ण अभ्यन्तर द्वीप- समुद्रोंके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा अग्रिम द्वीप या समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में १३ लाख यो० की वृद्धि होती है--- fafar - पक्खे अप्पबहुलं 'अतइस्लामो जंबूदीयस्सद्धस्स विक्षंभादो लवणसमुद्दस्स एथ - दिस-रुदं दिवड्ढ - लक्खेण भहियं होइ । जंबूवीवस्सद्धस्स विषखमेण वि बलू णम्भहिय लवणसमुद्दस्स एय-विस रु दादो तबणंतर उबरिम दीवस्स वा सायरस वा एय-बिस- रु. व बड्डी विथड्ढी - लक्खेण भहियं होऊण गच्छड़ जाय सयंभूरमण - समुद्दो सि ।। - प्रथ - द्वितीय-पक्ष में प्रल्पबहुत्व कहते हैं- जम्बूद्वीप के अर्ध-विस्तारकी अपेक्षा लवणसमुद्र का एक दिशा-सम्बन्धी विस्तार डेढ़ लाख योजन अधिक है । १. द. ज. दण्णइस्सामो, ब. बतेइस्सामो जम्बूद्वीपके अर्धविस्तार सहित लवणसमुद्र के एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारकी श्रपेक्षा Santosपका एक दिशा-सम्बन्धी विस्तार भी डेढ़ लाख योजन अधिक है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५० ] पंचमो महाहियारो [ ६७ इसीप्रकार सम्पूर्ण अभ्यन्तर द्वीप-समुद्रोंके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारको अपेक्षा उनके अनन्तर स्थित अग्रिम द्वीप अथवा समुद्र के एक दिशा विस्तारमें स्वयम्भूरमण-समुद्र पर्यन्त डेढ़ लाख योजन वृद्धि होती गई है। तय्यड्ढी-आणयण-हेदुमिमा सुस-गाहाइच्छिय-दीवुवहीणं,' बाहिर-सूइस्स अद्धमत्तम्मि । आदिम • सूई सोहसु, जं' सेसं तं च परिवड्ढी ।।२५०॥ प्रयं-इस वृद्धि-प्रमाणको प्राप्त करने हेतु ये मूत्र-गाथाएं हैं इच्छित द्वीप-समुद्रोंकी बाह्य सूचीके अर्ध-प्रमाणसे आदिम सुचीका प्रमाण घटा देनेपर जो शेष रहे उतना उस वृद्धि का प्रमाण है ॥ २५० ।। विशेषार्थ जम्बूद्वीपके अर्ध-विस्तार सहित इष्ट द्वीप या समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी सम्मिलित विस्तारकी अपेक्षा उससे अग्रिम द्वीप या समुद्रका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार १२ लाख योजन अधिक होता है । इस वृद्धिका प्रमाण प्राप्त करने हेतु इष्ट द्वीप या समुद्रको बाह्य सुचीके अर्ध प्रमाण से उसीकी आदि सूचीका प्रमाण घटा देना चाहिए । उसका सूत्र इसप्रकार है इष्ट द्वीप या समुद्रके विस्तारमें उपयुक्त वृद्धि=[ ३ ( इष्टद्वीप या समुद्रकी बाह्यसूची ) -- ( उसकी प्रादि सूची ) ]= १३ ला० यो० । उदाहरण- यहाँ इष्ट कालोदक समुद्र है । इसके विस्तारमें उपर्युक्त वृद्धि प्राप्त करना है। कालोदक समुद्रका विस्तार ८ लाख यो०, बाह्य सूची २९ लाख योजन और आदि सूचीका प्रमाण १३ लाख योजन है । तदनुसार कालोदकसमुद्रके विस्तारमें उपर्युक्त वृद्धि- ३१०१००० – १३००००० योजन । =१४५०००० - १३००००० योजन । = १५०००० या १ लाख योजन वृद्धि । (२) इष्ट द्वीप या समुद्रसे अधस्तन द्वीप या समुद्रोंका सम्मिलित विस्तार अपनी आदि सूचीके अर्ध-भाग-प्रमाण होता है १. ६. दीओवहीरणं । २. द. ब. क. ज.तं सेसं तच्च । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ } तिलोयपत्ती गाथा : २५१ इच्छिय-दीवुयहीदो,' हेद्विम-दीवोबहीण* सं पिडं । सग-सग - आदिम - सूइस्सद्ध लवणादि - चरिमंतं ।।२५१॥ अर्थ- लवणासमुद्रसे लेकर अन्तिम समुद्र पर्यन्त इच्छित द्वीप या समुद्रसे अधस्तन (पहिलेके ) द्वीप-समुद्रोंका सम्मिलित विस्तार अपनी-अपनी आदिम सूचीके अर्ध-भाग-प्रमाण होता है ।। २५१ ।। विशेषार्थ- मानलो-पुष्करवरद्वीप इष्ट है । इसका विस्तार १६ लाख यो और आदि सूची २६ लाख यो० है । इस प्रादि सूचीका अर्ध भाग ( २६ लाख २) १४५०००० योजन होता है । जो जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकोखण्ड और कालोद समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी सम्मिलित विस्तार (३ ला०+२ ला० + ४ ला०+८ लाख = ) १४५०००० योजनके बराबर है। इसकी सिद्धिका सूत्र इसप्रकार है ___इष्ट द्वीप या समुद्रसे अधस्तन द्वीप या समुद्रोंका सम्मिलित विस्तार = अपनी-अादि सूची २। उदाहरण- मानलो-- इष्ट द्वीप पुष्करचरद्वीप है। उसके पहले स्थित द्वीप-समुद्रोंका सम्मिलित विस्तार-- .._पुष्करवर द्वीपको आदि सूची ..२९ लाख यो०_ या =१४५०००० योजन । २ तृतीय-पक्ष विवक्षित समुद्र के विस्तारको अपेक्षा उससे अग्रिम समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें उत्तरोत्तर चौगुनी वृद्धि होती है तदिय-पक्खे अप्पबहुलं वत्तइस्सामो लवणसमुहस्स एय-दिस-रुदादो कालोवग-समुहस्स एय-दिस-रुद-वढि छल्लखेणब्भहियं होदि । कालोदग-समुदस्स एय-विस-रुदाको पोक्खरवर समुदस्स एय-दिसरंद - बड़ी चउवीस - लक्खेणभहियं होदि । एवं कालोदग - समुहप्पहुवि विवक्खिद ... .--- १. द. म. ज. दीव उवहीदो, ब. दीदोवहौयो। २. द. दीवावहीण । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५२ ] पंचमो महा हियारो तरंगिणीरमरण-गाहादो तवणंतरोवरिम-खीररासिस्स एय-दिस-हद-बढी चउ-गुणं होगुण गच्छइ जान सयंभूरमण-समुद्दो ति ।। अर्थ-तृतीय-पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं-- लवणसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारको अपेक्षा कालोदकसमुद्र के एक दिशा-सम्बन्धी बिस्तारको वृद्धि छह लाख योजन अधिक है। कालोदकसमुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवर समुद्रके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारकी वृद्धि चौबीस लाख योजन अधिक है । इसप्रकार कालोदक-समुद्रसे स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त विवक्षित समुद्र के विस्तारकी अपेक्षा उसके अनन्तर स्थित अग्रिम समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में उत्तरोतर चौगुनो वृद्धि होती गई है ।। विशेषार्थ-लवरणसमुद्रका एक दिशाका विस्तार दो लाख योजन है। उसकी अपेक्षा कालोद समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी ८ लाख योजन विस्तारकी वृद्धिः ( ८ लाख यो० – २ लाख यो०= ) ६ लाख योजन है। कालोदके एक दिशा सम्बन्धी 5 लाख यो० विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवर समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी ३२ लाख यो० विस्तारको वृद्धि ( ३२ लाख यो० - ८ लाख यो०- २४ लाख योजन अधिक है । पुष्करवर समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी ३२ लाख योजन विस्तार की अपेक्षा वारुणीवरसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी १२८ लाख यो० की वृद्धि ( १२८ लाख यो० - ३२ लाख यो०- ) ९६ लाख योजन है, जो पुष्करवर समुद्रकी वृद्धिसे (२४४४=९६) चौगुनी है। इसप्रकार स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त ले जाना चाहिए। अन्तिम स्वयम्भूरमणसमुद्रको वृद्धि तस्स अंतिम - वियप्पं बत्तइस्सामो-अहिंदयर-सायरस्स एय-विस-रुदादो सयंभूरमरण - समुदस्स एय - विस - रुव-बधी बारसुत्तर - सएण भजिद-ति-गण-सेढीनो पुणो छप्पण्ण-सहस्स-दु-सद-पण्णास-जोयहि प्रभहियं होदि । तस्स उवरणा--१३ । एदस्त धरण जोयणाणि ५६२५० । अर्थ-उसका अन्तिम विकल्प कहते हैं-अहीन्द्रवर-समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तार की अपेक्षा स्वयम्भूरमरण-समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें एकसौ बारहसे भाजित तिगुनी जगच्छरिणयाँ और छप्पन हजार दो सौ पचास योजन-प्रमाण वृद्धि हुई है । उसको स्थापना इसप्रकार है_जगच्छ पी x ३ + ५६२५० यो । उपयुक्त वृद्धि प्राप्त करनेकी विधि तम्बड्ढीणं आणयण-सुत्त-गाहा-- इच्छिय-जणिहि-रु'दं, ति-गुणं दलिवूण तिण्णि-लक्खूणं । ति-लक्खूण-ति-गुरण-बासे सोहिय बलिवम्मि साहवे वड्ढी ।।२५२॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २५२ अर्थ-उन वृद्धियोंको लानेके लिए यह सूत्र गाथा है इच्छिन समुद्रके तिगुने विस्तारको आधा करके उसमें से तीन लाख कम कर देनेपर जो शेष रहे उसे तीन लाख कम तिगुने विस्तारमेंसे घटाकर शेषको आधा करने पर वह वृद्धि-प्रमाण पाता है ।। २५२॥ विशेषार्ष-उपर्युक्त गाथासे सम्बन्धित सूत्र इसप्रकार है इष्ट समुद्र के विस्तारमें वणित वृद्धि... (३४ इष्ट समुद्रका व्यास–३००००० यो०)--1३४ इष्ट समुद्रका ध्यास – ३००००० यो.) उदाहरण—मानलो-कालोद समुद्रकी अपेक्षा पुष्करवर समुद्रके विस्तारमें हुई वृद्धिका प्रमाण ज्ञात करना है। सूत्रानुसार--- वणित वृद्धि _ (३४३२ ला० यो०-३००००० यो०-(३ x ३२ला०या० -३०००००यो.) _ ९३००००० यो० – ४५००००० यो __४८००००० यो०-२४००००० यो० वृद्धि । .. अब यहाँ गाथा-सूत्रानुसार अन्तिम विकल्पमें ( अहीन्द्रवर-समुद्रकी अपेक्षा स्वयम्भूरमण समुद्रके विस्तारमें ) वणित वृद्धि कहते हैं णित वृद्धि{३४ (ज०+७५००० यो०)-३००००० यो०}-{३४ (ज: +७५००० यो० }-३ ला० यो०} २८ - - ३ x (जग०+७५०००)–३००००० यो०- ३ (जगः +७५०००)-३००००० यो० } = (जग०+७५०००) -- ३ जगः + ३ ४७५००० यो. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५२ | ३ जगच्णी ११२ = + ५६२५० योजन | पंचमी महाहियारो चतुर्थ - पक्ष चतुर्थक्षके अल्पबहुत्वमें दो सिद्धान्त कहते हैं । (१) अधस्तन समुद्र - समूह से उसके आगे स्थित समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में दो लाख कम चौगुनी वृद्धि होती है चउत्थ- पक्खे अप्पबहुलं यत्तइस्सामो-- लवणणीर- रासिस्स एय- दिस-दादो कालोदा-समुहस्स एय- दिस रु. द वड्ढी छल्लक्खेणग्भहियं होइ । लवरण-समुद्द-संमिलिदकालोदग समुद्दादो पोक्खरयर-समुहस्स एय- दिस रुंद बड्ढी बावीस लक्ष्खेण अब्भहियं होदि । एवं हेट्ठिम सायराणं समूहादो तदणंतरोवरिम-नीररासिस्स एय-विस रुंद वड्ढी as-गुणं दो- लक्खेहि रहियं होऊण गच्छद्द जाव सर्वभूरमण समुद्दो ति ॥ - । ७१ अर्थ-चतुर्थ - पक्ष में पबहुत्व कहते हैं - लबरासमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा कालो समुद्रका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार छह लाख योजन अधिक है। लवणसमुद्र सहित कालो समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवरसमुद्रकी एक दिशा सम्बन्धी विस्तार वृद्धि बाईस लाख योजन अधिक है । इसप्रकार अधस्तन समुद्र-समूहसे उसके अनन्तर स्थित अग्रिम समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में दो लाख कम चौगुनी वृद्धि स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त होती गई है ॥ - ) ६ लाख यो० विशेषार्थ - लवर समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी २ लाख यो० विस्तारकी अपेक्षा कालोदकसमुद्रका एक दिशा सम्बन्धी ८ लाख यो० विस्तार (मला० यो० अधिक है । लबरणसमुद्र सहित कालोदक के एक दिशा सम्बन्धी ( २ ला यो० + ८ ला० यो० ) १० लाख योजन विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवर समुद्रकी एक दिशा सम्बन्धी ३२ ला० यो० विस्तारमें वृद्धिका प्रमाण ( ३२ लाख यो० १० लाख पो० } २२ लाख यो० है । २ ला ० यो० =◊ इसप्रकार अधस्तन समुद्र समूहसे उस समुद्र के बाद में ( अनन्तर ) स्थित अग्रिम समुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तार में २ लाख योजन कम ४ गुनी वृद्धि स्वयम्भूरमा - समुद्र पर्यन्त होती गई है । अर्थात् ( ६ लाख ४४ ) - २ लाख -- २२ लाख योजनोंकी वृद्धि होती गयी है ।। स्वयम्भूरमणसमुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें वृद्धिका प्रमाण तस्स अंतिम वियत्वं वत्तइस्लामो सयंभूरमणसमुहस्स हेट्ठिम-सयल सायराणं ए-बिस रुद- समूहावो सयंभूरमण समुहस्स एय- दिस रुद चड्ढी ख-मेह भजिद- रज्जू Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : २५३ पुणो तिदय-हिंद तिण्णि-लक्ख-पण्णास-सहस्स-जोयणाणि अब्भयिं होवि- ४२ घणजोयणारिण ३५०,०००। अर्थ – उसका अन्तिम विकल्प कहते हैं - स्वयम्भूरमण-समुद्रके अधस्तन सम्पूर्ण समुद्रों के एक दिशा सम्बन्धी विस्तार-समूहकी अपेक्षा स्वयम्भूरमणसमुद्र के एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें छहरूपोंसे भाजित एक राजू और तीनसे भाजित तीन लाख पचास हजार योजन अधिक वृद्धि हुई है। इसकी स्थापना ( ३ या राजू )+ ३१०४०० योजन । विशेषार्थ-स्वयम्भूरमण समुद्रके पहलेके सभी समुद्रोंके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारसमूहकी अपेक्षा अन्तिम समुद्र के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें है राजू + ३५०००० योजनोंकी वृद्धि होती है । तध्वड्डी-आणयण-हेदुमिमं गाहा-सुत्त अड-लक्ख-हीण-इच्छिय-वासं बारसहि भजिदे लद्ध। सोहसु ति-चरण-भागेणाहर वासम्मि तं हवे बड्डी ॥२५३॥ अर्थ-इस वृद्धिको प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र कहते हैं-इच्छित समुद्रके विस्तारमेंसे पाठ लाख कम करके शेषमें बारहका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे विस्तारके तीन चतुर्थ भागों से घटा देनेपर जो अवशिष्ट रहे उतनी विवक्षितसमुद्र के विस्तारमें वृद्धि होती है ॥२५३।। विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैवरिणत वृद्धि = x ( इष्ट समुद्रका व्यास ) - (उसका व्यास - ८००००० यो०) उदाहरण-मानलो-इष्ट समुद्र वारुणीवरसमुद्र है । इसका विस्तार १२८ लाख योजन है । तदनुसार उसमेंवरिणत वृद्धि- x ( १२८००००० यो०) - (234००४-०22 यो०) __-९६००००० यो० - १००००००-५६००००० योजन वृद्धि । स्वयम्भूरमरणसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारका प्रमाण अग० + ७५००० यो० है । अतः इसकीवणित वृद्धि = ३ x [जगच्छणी +७५००० यो०]-[जग: +७५०००-८००००० यो ] - जगच्छ्रणी - जग+१४७५०००-७५२१+ १९५० = ९ जगः- १ जग० + 24gee ( ३-3 )+२agga - र Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५४ ] पंचमो महाहियारो =८ जग०+ ( ७५००० + २०००००० ) यो० -पुरुष सुत्त =जग० +{ १५०००० + २००००० ) यो० 83 जग ० ४३ + 540000 योजन । (२) इच्छित वृद्धिसे अघस्तन समस्त समुद्रों-सम्बन्धी एक दिशाका विस्तार प्राप्त करनेकी विधि- इ-वडीवो हेट्ठिम-सयल - सायराणं एय-दिस रुदन् समासाणं प्राणयण गाहा सग-सग वड्डि- पमाणे, वो लक्खं प्रवणिण अद्ध-कवे । इच्छिय वड्डीदो तो हेट्ठिम उवहीण - संबंधं ॥ २५४ ॥ [ ७३ - - इच्छित वृद्धि से अधस्तन समस्त समुद्रों-सम्बन्धी एक दिशाके विस्तार-योगोंको प्राप्त करने हेतु यह गाथा सूत्र है- - अपनी-अपनी वृद्धि प्रमाणमेंसे दो लाख कम करके शेषको आधा करनेपर इच्छित वृद्धिवाले समुद्रसे पहले के समस्त समुद्रों सम्बन्धी विस्तारका प्रमाण प्राप्त होता है ।। २५४ ।। विशेषार्थ- - गाथा २५३ की प्रक्रिया से इस गाथा की प्रक्रियाका फल विपरीत है। यहाँ इच्छित समुद्रकी वृद्धि द्वारा उस समुद्रसे पहले के ( अधस्तम ) समुद्रों-सम्बन्धी एक दिशाके विस्तार योगोंको प्राप्त करने की विधि दर्शाई गयी है । इष्ट वृद्धिवाले समुद्र के पहलेके समस्त समुद्रों सम्बन्धी विस्तारका प्रमाण प्राप्त करने हेतु सूत्र इसप्रकार है— इष्ट समुद्रसे पहलेका समस्त समुद्रों सम्बन्धी विस्तार वरित वृद्धि - २००००० यो० उदाहरण – मानलो वारुणोवर समुद्रकी वृद्धि इष्ट है । इस समुद्रकी वृद्धिका प्रमाण ८६ लाख योजन है अतः इसके पहले के समस्त समुद्रोंका विस्तार ( लवरणसमुद्र २ लाख + कालोदका ८ लाख + पुष्करवर समुद्रका ३२ लाख ४२ लाख योजन है । यथा अधस्तन समुद्रों का सम्मिलित विस्तार ८६०००००-१००००० = ४२००००० योजन । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] तिलोयराती [ गाथा : २५४ पंचम-पक्ष इण्ट द्वीपके विस्तारसे उसके आगे स्थित द्वीपके विस्तारमें तिगुनी बृद्धि होती है-- पंचम-पक्खे अप्पबहुलं यत्तइस्सामो--सयल-जम्बूदोवस्स रुदादो धादइसंडस्स एय-दिस-हद-बड्डी तिय-लक्खेणभहियं होदि । धावईसंडस्स एय-विस-दादो पोक्खरबरदीवस्स एय-दिस-रद-वड्डी बारस-लक्खेरणम्भहियं होदि । एवं तवणंतर-हेट्रिम-दीवायो अणंतरोवरिम-बीवस्स दासवड्ढी ति-गुणं होऊण गच्छइ जाव सयंभूरमणदीओ ति ॥ अर्थ-पांचवेंपक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं-जम्बूद्वीपके सम्पूर्ण विस्तारसे धातकीखण्डके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें तीन लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है। धातकीखण्डके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारसे पुष्वरवर द्वीपके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारमें बारह लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है। इसप्रकार स्वयम्भूरमणद्वीप पर्यन्त अनन्तर अधस्तनद्वीपसे उसके आगे स्थित द्वीपके विस्तारमें तिगुनी वृद्धि होती गई है। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके पूर्ण ( १ लाख यो०) विस्तारको अपेक्षा धातकीखण्डके एक दिशा सम्बन्धी ४ लाख यो• विस्तारमें ( ४ - १= ) ३ लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है। धातकीखण्डके एक दिशा सम्बन्धी ४ लाख यो० विस्तारसे पुष्करवरद्वीपके एक दिशा सम्बन्धी १६ लाख यो. विस्तारमें ( १६ लाख – ४ लाख = ) १२ लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है। ___ इसप्रकार यहाँ सभी अधस्तनद्वीपोंसे स्वयम्भूरमणद्वीप पर्यन्त आगे-आगे स्थित द्वीपके विस्तारसे ( १२ लाख - ३ लाख -९ लाख यो० अर्थात् ) ३ गुनी वृद्धि होती है। प्रहीन्द्रवरद्वीपसे अन्तिम स्वयम्भूरमणद्वीपके विस्तारमें होने वाली वृद्धिका प्रमाण तस्स अंतिम-वियप्पं वत्तहस्सामो-रिम-अहिंदवर-दीदादो अंतिम-सयंभरमणबीयरस वडि-पमाणं तिय-रज्जयो बत्तीस-स्वेहि अवहरिद-पमाणं पुणो अट्ठावीस-सहस्सएक्क-सय-पणुधीस-जोयणेहिं अभहियं होइ । ७ । । षण जोयण २८१२५ ।। अर्थ-उसका अन्तिम विकल्प कहते हैं-द्विचरम अहीन्द्रबर-द्वीपसे अन्तिम स्वयम्भरमणद्वीपके बिस्तारमें होने वाली वृद्धिका प्रमाण बत्तीससे भाजित तीन राजू और अट्ठाईस हजार एकसौ पच्चीस योजन अधिक है । अर्थात् राजू +२८१२५ योजन है। विशेषार्थ-द्विचरम ग्रहीन्द्रवरद्वीपसे अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीपके विस्तारमें अधिक वृद्धि का प्रमाण ३२ से भाजित ३ राजू तथा २८१२५ योजन है । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५५ ] पंचमो महाहियारो { ७५ सबढीणं प्राणयणे माहा-सुत्तं-- इच्छिय-दीवे रु'दं, ति-गुणं दलिदूण तिण्णि-लमखूणं । ति लक्खूण-ति-गुण-वासे, सोहिय दलिदे हुवे बड्ढी ।।२५५।। प्रयं-इस वृद्धि प्रमाणको लानेके लिए यह माथा सूत्र है-- इच्छित द्वीपके तिमुने विस्तारको आधा करके उसमेंसे तीन लाख कम कर देनेपर जो शेष रहे उसे तीन लाख कम तिगुने विस्तारमेंसे घटाकर शेषको आधा करनेपर वृद्धिका प्रमाण होता है ।। विशेषायं गायानुसार सूत्र इसप्रकार हैवणित वृद्धि=(३ ४ इष्ट द्वीपका व्यास--३०००००)-(३४ उसका विस्तार-३०००००) उदाहरण-मानलो-इष्टद्वीप पुष्करवरद्वीप है । जिसका विस्तार १६ लाख योजन है। उसको वणित वृद्धि=(३४१६०००००-३०००००)--(३४ १६०००००-३०००००) = ४५००००० - २१००००० = १२००००० योजन वृद्धि । इसीप्रकार अन्तिम विकल्पमें इष्टद्वीप स्वयम्भूरमण द्वीप है। जिसका विस्तार जगच्छ एणी + ७११९० योजन है । इसलिए उसकी वशित द्धि-[३४ (जग + ७५०')-३०००००] [३४३४ (जग०+५०००-३००००० _३ (जग० +७५९००)-३००००० -- (जग०+५६०)+ ३००००० Xx20 _ (जग+७५०००) ३ जग० । ३४७५०००३ राजू +२८१२५ योजन । २x२x२४४४७ २x२x२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] तिलोमपग्लसी षष्ठम-पक्ष पक्ष अल्पबहुत्व में दो सिद्धान्त कहते हैं (१) इच्छित द्वीप के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारको अपेक्षा श्रग्रिम द्वीप के विस्तारमें २३ लाख कम चौगुनी वृद्धि होती है- [ गाथा : २५५ छट्टम-पवखे अप्पबहुलं वत्तइस्सामो । तं जहा -- जंबूदीवस्स श्रद्ध-दादी धावइडस्स एय-बिस रुदं प्राहु-लक्खेण भहियं होदि ३५०००० । जंबूदीवस्स अण सम्मिलिदे धाडस एय- दिस-हं दादो पोक्थरथर दीवस्स एय दिस रुद- वड्ढी एयारसलक्ख पण्णास - सहस्स-जोयणेहि अमहियं होइ ११५०००० । एवं धावईसंड-प्पडुविछ- दीवस एय- दिस रुंद वड्ढीदो तबणंतर उवरिम- दीवस्स वड्डी चउ-गुणं अड्ढाइज्जलक्खेणूणं होण गच्छइ जाय सयंभूरमणदोश्रो ति ॥ अर्थ छटे पक्ष में अल्पबहुत्त्र कहते हैं । वह इसप्रकार है- जम्बूद्वीप के अर्ध विस्तारकी अपेक्षा घातकखण्डका एक दिशा-सम्बन्धी विस्तार साढ़े तीन लाख योजन अधिक है - ३५०००० | जम्बूद्वीप के अर्ध विस्तार सहित धातकीखण्ड के एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवरद्वीपके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारकी वृद्धि ग्यारह लाख पचास हजार योजन अधिक है- ११५०००० । इस प्रकार धातकीखण्ड- प्रभृति इच्छित द्वीपके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारको अपेक्षा तदनन्तर अग्रिम ath विस्तार में ढ़ाई लाख कम चौगुनी वृद्धि स्वयम्भूरमण द्वीप तक होती चली गई है । - - विशेषार्थ – जम्बूद्वीप के अर्ध विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डका एक दिशा सम्बन्धी विस्तार ( ४ लाख यो० ३ लाख यो० ) ३३ लाख योजन अधिक है । पुनः जम्बुद्वीपके अर्ध विस्तार सहित धातकीखण्ड के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवरद्वीप के एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी वृद्धि ( १६ - ४३ लाख यो० ) = ११५०००० योजन है । - इसप्रकार घातकीखण्ड आदि इष्ट द्वीपके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा बाद में आगे श्रानेवाले द्वीपके विस्तारमें २३ लाख यो० कम ४ गुनी वृद्धि अन्तिम द्वीप तक चली गई है। अस्तन द्वीपोंके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा स्वयम्भूरमणद्वीपके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी वृद्धि तत्थ अंतिम वियप्पं वत्तइस्सामो-- [ सयंभूरमणदीवस्स हेट्ठिम-सयल - दोषाणं एय-बिस-दसमूहाबो सयंभूरमणदीवस्स एय-विस हब बढी] चउरासोषि - रूबेहि P Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५६ ] पंचमो महाहियारो [७७ भजिद-सेढी पुणो तिय-हिद-तिण्णि-लक्ख-पणुवोस-सहस्स-जोयणेहि अन्भहियं होइ । तस्स ठवणा ८४ घण-जोयण १२००० । प्रर्थ-उनमेंसे अन्तिम विकल्प कहते हैं-स्वयम्भूरमण-द्वीपसे पहलेके समस्त द्वीपोंके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा स्वयम्भूरमरगतीपके एक-दिशा सम्बन्धी विस्तारमें चौरासी रूपोंसे भाजित जगच्छ्रेणी और तीनसे भाजित तीन लाख पच्चीस हजार योजन अधिक वृद्धि हुई है। उसकी स्थापना इसप्रकार है-(जगच्छ्रेणी:८४) + ३३.३० । सन्धड्ढीणं आणयणटुंगाहा-सुत्तं-- अंतिम-रद-पमाण, लक्षणं तीहि भाजिवं बुगुणं । बलिद-तिय-लक्ख-जुत्तं, परिवढी होदि दीवाणं ॥२५६।। अर्थ-उन वृद्धियों को प्राप्त करने हेतु गाथा-सूत्र एक लाख कम अन्तिम विस्तार-प्रमाणमें तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे दुगुना करके अधित तीन लाख ( 30000°) और मिला देनेपर दीपोंकी वृद्धिका प्रमाण होता है ।। २५६ ।। उदाहरण-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैवणित बद्धि इष्ट द्वापका व्यास - १००००० ४३+ ३००००० उवाहरण मानलो–पुष्करवरद्वीपकी वरिणत - वृद्धि निकालना है जिसका व्यास १६००००० यो० है । सूत्रानुसार वणित वृद्धि= १६००००० --१००००० x २+ ३००००० 24T ३००००० =( ५०००००४२)+ १५०००० = ११५०००० योजन । इसीप्रकार स्वयम्भूरमणद्वीपत्री वणित वृद्धि - (जग | जग +९१.९..-१०००००x २+३ = ( Ixx २ ) + (°५:३' x २) - (१०००.००४२)+39082 -- जग० + (°4g2' – २००१०० + १५००००) यो. --जग०+७५०००-२००००० + ४५०००० यो. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] तिलोय पण्णत्ती = जग० + २५००० योजन | (२) इष्टद्वीपसे पहले के द्वीपोंके विस्तार समूहको प्राप्त करने की विधि [ गाथा : २५७-२५८ - वीवाद हेट्टिम-बोवाणं रुंद-समासा आणयण गाहा-सुतं चउ-भजिद इटु-रुदं, 'हेट्ठे च द्वाविण तत्येक्कं । लक्खूणे तिय-भजिबे, उवरिम- रासिम्मि सम्मिलिदे ॥ २५७ ॥ लक्खद्ध हीण कदे, अंबुदीवस्स अद्ध पहृदि तो । इट्ठस्स दुचरिमंतं, दीवाणं मेलणं होदि ॥ २५८ ॥ · - इच्छित द्वीप से पहलेके द्वीपोंके विस्तार समूहको प्राप्त करने हेतु गाथा-सूत्र चारसे भाजित इष्ट द्वीपके विस्तारको अलग रखकर इच्छित द्वीपसे पहले द्वीपका जो विस्तार हो उसमेंसे एक लाख कम करके शेषमें तानका भाग देने पर जो लब्ध प्रावे उसे उपरिम राशि में मिलाकर आधा लाख कम करनेपर अर्ध जम्बूद्वीपसे लेकर इच्छित द्विचरम ( अहीन्द्रवर ) द्वीप तक उन द्वीपोंका सम्मिलित विस्तार होता है ।। २५७-२५६ ॥ विशेषार्थ - अर्धजम्बूद्वीपसे इष्ट द्वीप पर्यन्तके द्वीपोंका सम्मिलित विस्तार प्राप्त करने हेतु दोनों गाथाओं के अनुसार सूत्र इसप्रकार है सम्मिलित विस्तार == इष्ट द्वीपका विस्तार इष्ट द्वीपसे पहले के द्वीपका व्यास + ३ १०००००० उदाहरण - इस सूत्र से अर्धजम्बूद्वीप सहित पुष्करवर द्वीप तकका विस्तार योग प्राप्त करने हेतु उससे भागे वारुणीवर द्वीपका विस्तार ६४ लाख योजन और पुष्करवरका विस्तार १६ लाख योजन प्रमाण है। तदनुसार उपर्युक्त सम्मिलित विस्तार = २५००००० + १६०००००-१०००००. १००००० इ १००००० = १६००००० + ५००००० - ४०००० योजन । = २०५०००० योजन । १. द. ब. क ज. चेहे ट्ठाविण तक्कें । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५८ ] पंचमो महाहियारो [ ७९ सप्तम-पक्ष सातवें पक्षके अल्पबहुत्व में दो सिद्धान्त कहते हैं (१) इच्छित द्वीपोंके दोनों दिशाम्रो सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उनके अनन्तर लिपिम द्वोनेक दिवसाधी बिरसा में पांच लाख कम चौगुनी वृद्धि प्राप्त होती है। सत्तम पक्खे अप्पबहलं वत्तइस्सामो-सयल-जंबूदीव-रु दादो धादईसंडस्स एय-दिस-रद-वड्ढो तिण्णि-लक्षणभाि होइ ३०००००। जंबूदीप-सम्मिलित-बाबईसंड-दोवस्स दोषिण-दिस-रुदादो पोक्खरवर-बीवस्स एय-विस-रुद-वड्ढी सत्त-लक्लेहि अब्भहियं होइ ७०००००। एवं धादईसंड-प्पह दि-इच्छिय-बीवाणं वोण्णि-विस-दादो तदणंतरोवरिम-दीवस्स एय-दिस रुद-बढी चउ-गुणं पंच-लक्षणणं होदूण गच्छवि जाव सयंभूरमणदीनो सि ॥ अर्थ-सातवें पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं-जम्बुद्वीपके सम्पूर्ण विस्तारसे धातकीखण्डके एक-दिशा-सम्बन्धी विस्तार में तीन लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है-३००००० । जम्बूद्वीप सहित धातकीखण्डके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तारको अपेक्षा पुष्करवरतीपके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें सात लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है-७००००० । इसप्रकार धातकीखण्ड आदि इच्छित द्वीपोंके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उनके अनन्तर स्थित अग्रिम द्वीपके एक-दिशासम्बन्धी विस्तार में पांच लाख कम चौगुनी वृद्धि स्वयम्भूरमणद्वीप पर्यन्त होती चली गई है ।। विशेषार्थ --जम्बूद्वीपके १ लाख यो विस्तारसे धातकीखण्डके एक दिशा सम्बन्धी ४ लाख यो० विस्तारमें ( ४००००० – १००००० यो० % ) ३००००० यो० अधिक वृद्धि हुई हैं । जम्बुद्वीप के ( १ लाख यो० ) सहित धातकीखण्डके दोनों दिशाओं सम्बन्धी ( ४ ला० + ४ ला०=८ लाख योजन ) विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवर-द्वीपके एक दिशा सम्बन्धी ( १६००००० यो० ) विस्तारमें ( १६००००० – ९००००० = ) ७००००० योजनकी अधिक वृद्धि हुई है । इसप्रकार धातकोखण्ड आदि इष्ट द्वीपोंके दोनों दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उनके बाद ( अनन्तर ) स्थित प्रागेके द्वीपके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें ( ३ लाख ४१२ लाख । १२ लाख - ७ लाख = ) ५००००० कम चौगुनी वृद्धि स्वयम्भूरमरणद्वीप पर्यन्त चली गई है। अधस्तन समस्त द्वीपोंके दोनों दिशा सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा स्वयम्भुरमणद्वीपके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारकी वृद्धितत्थ अंतिम-वियप्पं वत्तइस्सामो-सयंभूरमण-दीवस्स हेटिम-सयल दीवाणं बोण्णि-विस-रुद-समूहादो सयंभूरमण-दीवस्स एय-दिस-रुव-वढी चवीस-रूवेहि भजिद Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २५९ रज्जू पुणो तिय-हिद-पंच-लक्ख-सत्ततीस-सहस्स-पंच-सय ओयणेहि अन्भहियं होदि। तस्स ठवणा ७ । २४ धण जोयणाणि ५३४००० । अर्थ- इनमेंसे अन्तिम विकल्प कहते हैं-स्वयम्भूरमण-द्वीपसे अधस्तन सम्पूर्ण द्वीपोंके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा स्वयम्भरमणद्वीपके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें चौबीससे भाजित एक राजू और तीनसे भाजित पाँच लाख सैंतीस हजार पाँचसो योजन अधिक वृद्धि हुई है। उसकी स्थापना इसप्रकार है-राजू + १७५०० यो । तम्खड्ढोणं आणयणटुंगाहा-सुसं सग-सग-वास-पमाण, लक्खूणं तिय-हिवं तु-लक्ख-जुवं । अहया पण-लवस्त्राहिय-बास-ति-भागं तु परिबड्डी ॥२५६।। अर्प-उन वृद्धियोंको प्राप्त करने हेतु गाथा-सूत्र एक लाख कम अपने-अपने विस्तार-प्रमाणमें तीनका भाग देकर दो लाख और मिलानेपर उस वृद्धिका प्रमाण होता है । अथवा पाँच लाख अधिक विस्तारमें तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना उक्त वृद्धिका प्रमाण होता है ।। २५९ ।। विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैवणितवृद्धि विस्तार – १००००० + २००००० यो । अथवा विस्तार + ५००००० यो० उदाहरण-मानलो-इष्ट-द्वीप पुष्करवर है । तदनुसारवर्णित्तवृद्धि = १६००००० - १००००० +२००००० यो० । -७००००० योजन वृद्धि। अथवा, वरिणतवृद्धि ... १६०००००+ ५००००० (द्वितीय सूत्रसे) =५००००० योजन वृद्धि । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ गाथा : २६० ] पंचमो महाहियारो इसी प्रकार स्वयम्भूरमणद्वीपको जगच्छे खो + ३७५०० – १००००० यो० वरिणत वृद्धि - ५६ -+२००००० यो -जगणी + ३७५०० – ५००००० + २००००० यो० = ( जग• - - १ ) + ( ३७५०० --- १००००० + ६००००० ) यो० = ( जगुः ४३४ ) + ५३७५०० योजन वृद्धि । (२) इष्ट द्वीपसे अधस्तन समस्त द्वीपोंके दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तारके योगका प्रमाणपुणो इच्छिय-वीवादो हेटिम-सयल-चीवाणं दोषिण-दिस-हवस्स समासो वि एक्क-लक्खावि-चउ-गुणं पंच-लक्खेहि अभिहिय होऊरण गमछह जाव अहिंवबरवीयो ति ॥ अर्थ-पुनः इच्छित द्वीपसे अधस्तन समस्त द्वीपोंके दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तारका योग भी एक लाख को प्रादि लेकर चौगुना और पांच लाख अधिक होकर अहीन्द्रवर-द्वीप तक चला जाता है । तबढीणं पाणयरण हे 'इमं गाहा-सुतं-- द-गुणिय-सग-सग-बासे, पण लक्खं प्रवणिण तिय-भजिदे। हेट्ठिम-बोवाण पुढं, दो-विस-रु'इम्मि होदि "पिंड-फलं ॥२६० ।। अर्थ-उस वृद्धिको प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र है अपने-अपने दुगुने विस्तारमें से पांच लाख कम करके शेषमें तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना अधस्तन द्वीपोंके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तारका योगफल होता है ।। २६० ।। विशेषार्य--पाषानुसार सूत्र इसप्रकार हैबणित विस्तार योगफल=२४ व्यास - ५००००० १. द. न. क. ज. इमा। २. द. ज. हिंदफलं, द. सिंदफलं, क. बिंदुफलं । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] तिमोयी [ गाथा : २६० मानलो---'पुष्करव रद्वीप इष्ट है । उसका व्यास १६००००० योजन है। अतएव उसके आश्वस्तन द्वीपोंके दोनों दिशाओं सम्बन्धी द्वीपोंका--- विस्तार योगफल - २४१६०००००-५००००० यो. = १००००० योजन। अष्टम-पक्ष -- - -- - -- आठवें पक्षके अल्पबहुत्वमें दो सिद्धान्त कहते हैं । (१) इन्छित समुद्रोंकी एक दिशा सम्बन्धी विस्तार-वृद्धि अधस्तन सब समुद्रोंकी दोनों दिशा-सम्बन्धी विस्तार वृद्धिसे ४ लाख यो० कम चौगुनी होती हैअट्ठम-पक्खे अप्पबहुलं वसइस्सामो-लवणसमुहस्स दोण्णि-विस-रु दादो कालोगसमुदस्स एय-विस-रुद-वड्ढी चउ-लक्खणभहियं होवि ४००००० । लवण-कालोदगसमुदाणं दोण्णि-विस-रुदादो पोक्खरवर-समुहस्स एय-दिस-रुंद-वड्ढी बारस-लक्खणभहियं होदि १२००००० । एवं कालोदग-समुद्द-प्पहुवि तत्तो उवरिम-तदणंतर-इच्छियरयणायराणं एय-दिस-रद-यड्ढी हेडिम-सब्ध-गीररासीणं बोष्णि-दिस-हंद-बड्डीवो चउगुणं च उ-लक्ख-विहीणं होऊण' गच्छइ जाव सयंभूरमणसमुद्दो ति ।। अर्थ-पाठवें पक्ष में अल्पनहुत्व कहते हैं—लबरणसमुद्रके दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तार की अपेक्षा कालोद-समुद्रके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें चार लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है४००००० यो० । लवण और कालोद समुद्रके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी सम्मिलित विस्तारको अपेक्षा पुष्करवर-समुद्रके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें बारह लाख योजन अधिक वृद्धि हुई है-१२००००० यो० । इसप्रकार कालोद समुद्रसे लेकर उपरिम तदनन्तर इच्छित समुद्रोंकी एक दिशा-सम्बन्धी विस्तार-वृद्धि अधस्तन सब समुद्राको दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तारवृद्धिसे चार लाख कम चौगुनी होकर स्वयम्भूरमण-समुद्र पर्यन्त चली गई है। विशेषार्थ-लवणसमुद्र के दोनों दिशाओं सम्बन्धी ( २ लाख+२ लाख-४ लाख यो०) विस्तारकी अपेक्षा कालोद-समुद्रके एक दिशा-सम्बन्धी ( ८ लाख यो०) विस्तारमें ( ८ लाख - ४ लाख यो० = ) ४००००० योजन अधिक वृद्धि होती है। लवण और कालोद समुद्रके दोनों " -- १. ६. ब. क. ज. होदिऊण । -UML + Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६१ ] पंचमो महाहियारों [ ८३ दिशाओं सम्बन्धी सम्मिलित [ (२+२)+(+7 )=२० लाख यो ] विस्तारकी अपेक्षा पुष्करवर समुद्रके एक दिशा-सम्बन्धी ( ३२ लाख यो ) विस्तारमें ( ३२ लाख यो० - २० लाख 41 = ) १२००००० योजन अधिक वृद्धि होती है। इसप्रकार कालोदसमुद्रसे लेकर उससे उपरिम तदनन्तर इष्ट समुद्रोंकी एक दिशा-सम्बन्धी विस्तार-वृद्धि अक्स्तन समस्त समुद्रों की दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तार-वृद्धिसे ४००००० कम ४ गुनी होकर स्वयम्भूरमरणसमुद्र पर्यन्त चली जाती है। अधस्तन समस्त समुद्रोंके दोनों दिशा सम्बन्धी विस्तारको अपेक्षा स्वयम्भूरमणसमुद्रके एक दिशा सम्बन्धी विस्तारको वृद्धितत्थ अंतिम - वियप्पं यत्तहस्सामो-सयंभूरमणस्स हेदिठम-सव्व-सायराणं वोण्णि-दिस-रुवावो सयंभरमण-समुहस्स एय-दिस-रुव-बड्ढी रज्जूए बारस-भागो पुरगो तिय-हिव-घउ-लक्ख-पंचहत्तरि-सहस्स-जोयणेहि अम्भहियं होदि । तस्स ठरणा७ । १२ । धण जोयणाणि ४७५९०० । अर्थ-उनमेंसे अन्तिम विकल्प कहते हैं स्वयम्भूरमण-समुद्र के अधस्तन सम्पूर्ण समुद्रोंके दोनों दिशा-सम्बन्धी विस्तारको अपेक्षा स्वयम्भूरमणसमुद्रके एक दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें राजूका बारहवां भाग और तीनसे भाजित चार लाख पचहत्तर हजार योजन अधिक वृद्धि हुई है। उसकी स्थापना इसप्रकार है-राजू +४७४००० यो० । सम्बड्ढीणं प्राणयण-हेदु इम' गाहा-सुत्तं इट्ठोहि-विक्खंभे, चउ-लक्खं मेलिदूण तिय-भजिदे । तीव-रयणायराणं, दो-दिस-रुदावु उपरिमेय-दिसं ॥२६१।। प्रर्ष-उस वृद्धिको प्राप्त करने हेतु यह गाथा सूत्र है-- इष्ट समुद्रके विस्तारमें चार लाख मिलाकर तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी प्रतीत समुद्रोंके दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उपरिम समुद्रके एक-दिशा-सम्बन्धी विस्तारमें वृद्धि होती है ।। २६१ ।। विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैवणितवद्धि= इष्ट समुद्र का विस्तार + ४००००० १.द ब. क्र. जे. इमा। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] तदनुसार तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २६१ उदाहरण - मानलो - इष्ट समुद्र वारुणीवर है । उसका विस्तार १२८ लाख योजन है । वाणीवर समुद्र के अतीत समुद्रोंके दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तारकी अपेक्षा उपरिम समुद्रकी एक दिशा सम्बन्धी- १२००००००+४००००० ३ = ४४००००० योजन इसीप्रकार स्वयम्भूरमण समुद्रकी विस्तार वृद्धि = जग० वणित वृद्धि = २५ A +७५०००+४००००० जग ० ७४४४३ ३ ४७५००० ३ + रे राजू + ४७ ५००० योजन । (२) अभ्यन्तर समुद्रोंके दोनों दिशाओं सम्बन्धी विस्तारसे तदनन्तर स्थित उपरिम समुद्रको दोनों दिशा-सम्बन्धी विस्तारवृद्धि चौगुनी और चार लाख अधिक है हेट्टिम - समासो वि- इट्टस्स- कालोदग समुद्दादो हेट्ठिमेक्कस्स समुहस्स दोणि-विसरुंद-समासं च लक्खं होदि ४००००० पोक्खरबर- समुद्दादो हेट्टिम - दोणि-समुद्दाणं - दिस रुद- समासं बोस- लक्ख जोयण पमाणं होदि २००००००। एवमब्भंतरिम - णीररासीणं दोणि- दिस - रुंद समासादो तदणंतरोवरिभ-समुद्दस्स एप - दिस रुब बढी चगुणं च उ-लक्खेणग्भहियं होऊण गच्छइ जाव अहिंदवर समुद्दो ति ॥ अर्थ - अधस्तन योग भी - इष्ट कालोद समुद्रसे अधस्तन ( केवल ) एक लवरणसमुद्रका दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तार-समास चार लाख है - ४००००० यो० 1 पुष्करवर समुद्रसे अधस्तन दोनों समुद्रोंका दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तार-समास बीस लाख - २०००००० योजन - प्रमाण है । इसप्रकार अभ्यन्तर समुद्रोंके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तारसमाससे तदनन्तर स्थित उपरिम समुद्रकी दोनों दिशा-सम्बन्धी विस्तार वृद्धि चौगुनी और चार लाख अधिक होकर अहीन्द्रवर समुद्र पर्यन्त चली गई है ।। i Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६२ ] पंचमो महाहियारो [ . तध्वड्डीणं आणयण-हेदु इमं गाहा-सुतं - दु-गुरिणय-सग-सग-वासे, चउ-लक्खे परिणरण तिय-भजिवे । तीद - रयणायराणं, दो - दिस - भायम्मि पिंड - फलं ॥२६२।। अर्थ – उस वृद्धिको प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र है - अपने-अपने दुगुने विस्तारमेंसे चार लाख कम करके शेषमें तीनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना अतीत समुद्रोंके दोनों दिशाओं-सम्बन्धी विस्तारका योग होता है ।। २६२ 11 विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैमार_इष्ट द्वीपका विस्तार ४२ )-४००००० ज्वाहरण-मानलो–यहाँ पुष्करवरद्वीप इष्ट है और उसका विस्तार ३२ लाख यो० है । प्रतीत समुद्रोंके दोनों दिशानों-सम्बन्धी ( लवण और कालोद समुद्रका ) सम्मिलित विस्तार योग= (१२०००००४-४००००° यो । -२०००००० योजन। नवम-पक्ष इष्ट द्वीप या समुद्र में जम्बूद्वीपके समान खण्डोंको संख्या प्राप्त करने की विधि - एवम - पक्खे अप्पबहुलं वत्तइस्सामो--जंबूदीवस्स बावर-सुहम-खेत्तफलपमाणेण लवरण-समुदस्स खेतफलं किज्जंत' चउथीस-गुरणं होदि २४ । जंबदोवस्स खेतफलादो धादईसंडस्स खेत्तफलं चउवालीसहियं एक्क-सयमेत्तं होदि १४४ । एवं जाणिदूण णेदवं जाव सयंभरमणसमुद्दो ति ॥ अर्थ ---नवे पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं-जम्बूद्वीपके बादर एवं सूक्ष्म क्षेत्रफलके प्रमाणसे लवणसमुद्रका क्षेत्रफल करनेपर चौबीस-गुणा होता है २४ । जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलसे धातकीखण्डका क्षेत्रफल एक सौ चवालीस गुणा है १४४ । इसप्रकार जानकर स्वयम्भूरमरण-समुद्र पर्यन्त ले जाना चाहिए ।। १. द. ब. क. ज. किजुत्त । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; ] तिलोय पण्णत्ती [ गाया : २६२ विशेषार्थ -- जम्बूद्वीपका बादर क्षेत्रफल ३४ (०) अथवा ३ (२५०००००००० ) वर्ग योजन है और उसका सूक्ष्मक्षेत्रफल १०४ ( २५०००००००० ) वर्ग यो० है । इसीप्रकार लवण समुद्रका बादर क्षेत्रफल - ३ × [ ( ५००००० ) – ( १००००० ) 2 ] अथवा ३ x [ ६२५०००००००० २५०००००००० ] वर्ग यो० अथवा ३× [ ६०००००००००० ] वर्ग योजन है । और उसका सूक्ष्म क्षेत्रफल - √x[ ६०००००००००० ] वर्ग योजन है । लवरणसमुद्रका बादर एवं सूक्ष्म ( प्रत्येक ) क्षेत्रफल जम्बूद्वीप के बादर एवं सूक्ष्म ( प्रत्येक ) क्षेत्रफल २४ गुणा है । यथा -- लवण समुद्रका बादर क्षेत्रफल = ( जम्बूद्वीपका बादर क्षेत्र० x २४ ) - ३ x ( २५०००००००० x २४ ) =३×(६००००००००००) वर्ग यो० । लवणसमुद्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल = ( जम्बूद्वीपका सूक्ष्म क्षेत्र० x २४ ) = १०× ( २५०००००००० × २४ ) = Viox { ६००००००००००) वर्ग योजन 1 इसीप्रकार जम्बूद्वीप के बादर एवं सूक्ष्म क्षेत्रफलसे घातकीखण्ड के बादर एवं सूक्ष्म क्षेत्रफल प्रत्येक १४४ गुणे हैं । घातकी खण्डका बादर क्षेत्रफल = ३ x [ ( १३००००० ) - ( अथवा ३x [ ३६०००००००००० ] वर्गं योजन है । ५००००० ) ] X उसीका सूक्ष्मक्षेत्रफल - २० [ ३६०००००००००० ] वर्ग योजन है । जो जम्बूद्वीप के क्षेत्रफलसे क्रमशः १४४ गुने हैं । जम्बूद्वीप के क्षेत्रफलसे स्वयम्भूरमण समुद्रका क्षेत्रफल कितना गुणा है ? उसका कथन - तत्थ अंतिम वियपं वत्तइस्सामो-जगसेढीए वग्गं ति-गुणिय एक्क -लक्खछष्णउदि सहस्स- कोडि-रूवेहि भजिदमेतं पुणो ति गुणिव-सेंट चोद्दस - लक्ख-रूवे हि भजिय-मेत हि अमहियं होदि पुणो णव कोसेहिं परिहीणं । तस्स ठवभा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६३ ] पंचमो महाहियारो [ ८७ १९६०००००००००० घण खेत १४००००० रिण कोसाणि ६ ।। अर्थ- उनमें से अन्तिम विकल्प कहते हैं-जगन्छ णीके वर्गको तिगुना करके उसमें एक नाख छचान_ हजार करोड़ रूपोंका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना और तिगुनी जगच्छ्रेणी में चौदह लाखका भाग देनेपर प्राप्त हुए लब्ध प्रमाणसे अधिक तथा नौ कोस कम है। उसकी स्थापना इसप्रकार है । ( जग० x जग० x ३) १९६०००००००००० ] + [ { (जग. x ३) १४०४००० –९ को०] तथ्यड्ढोणं आणयण-हेदु इमं गाहा-सुत्तं लक्खूण-इट्ट-रुदं, ति-गुणं ५ उमाद-इष्ट मासपुर्ण लक्खस्स कविम्मि हिवे, जंबूदोबोवमा खंडा ।।२६३॥ अर्थ-उस वृद्धिको प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र है एक लाख कम इष्ट द्वीप या समुद्रके विस्तारको तिगुना करके फिर उसे चौगुने अपने विस्तारसे गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक लाखके वर्गका भाग-देनेपर जम्बूद्वीप सदृश खण्डोंकी संख्या प्राप्त होती है ।। २६३ ॥ विशेषार्थ ---गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है ___ इष्टद्वीप या समुद्रमें जम्बूद्वीप सदृश खण्डोंकी संख्या अथवा वरिणत क्षेत्रफलमें वृद्धिका प्रमाण ... --३ x ( इष्ट द्वीप या समुद्रका विस्तार-१००००० ) x ४ x ( उसका विस्तार ) (१००००० )२ उदाहरण-मानलो–यहाँ वारुणीवर समुद्र इष्ट है और उसका विस्तार १२८ लाख योजन है, इसमें जम्बूद्वीप सदृश खपडोंको संख्या__३४ ( १२८००००० - १७७००० )xxx ( १२८०००००) (१०००००)२ --३४१२७०००००x४ x १२८००००० १०००००x१००००० =१२४१२७४ १२८ = १६५०७२ खण्ड होते हैं। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ ] तिलोयपण्णती [ गाथा : २६३ इसीप्रकार [ उपर्युक्त सूत्रानुसार ] स्वयम्भूरमाणसमुद्र में .... ३ x ( जग०+७५०००-१००००० )४४४ (जग० +७५००० ) वणित ---- (१०००००) -- ३४ जग० x ४(जग० +७५०००) +३४ (-२५०००)x४(जग० +७५०००) ---- -. --- (१०)१० " . _३ (जग० x जम०), ३ जग०४७५००० ३ जग०४ २५०००.. ४x७५००० --३X२५०००x. १९६४ (१०) ७४(१०)१०७ ४ (१०)." ३ (जग.x जग.) १९६४ (१०). ० _३ जग०-७५०००-२५०००)---२ -२५०%94-9. ७X( 10(७५०००-२५०००)---२०१२५००० ४७५००० १०००००x१००००० - ३ (जगजग) + ३ जग०४५०९९०...-योजन । _ ३ (जग० x जग०) + ३ जगच्छु णो ... कोस । ३६ १९६०००००००००० १४००००० ३-जग०२ १९६०००००००००० ३ जग. --कोस । १४००००० दसवाँ-पक्ष । अधस्तन द्वीप या समुद्रसे उपरिम द्वीप या समुद्रकी खण्ड-शलाकाएं चौगुनी हैं और प्रक्षेपभूत ९६ उत्तरोत्तर दुगने-दुगुने होते गये हैंदसम-पक्खे अप्पबहुलं बचइस्सामो । तं जहा--जंबूवीवस्स बादर-मुहम-क्खेतफल-प्पमाणेण लक्षणसमुदस्स खेतफलं किज्जतं चउचीस-गुण-प्पमाणं होदि २४ । लवणसमुहस्स खंड-सलागाणं संखादो धादइसंडस्स खंड-सलागा छन्गुणं होदि । धावसंडस्सखंड-सलागादो कालोदग-समुद्दस्स खंड-सलागा चउ-गुरणं होऊण' छण्णउदि-हवेगभडियं होवि तत्तो उवरिम-तवणंतर-हेटिम-दीव-उवहीवो अणंतरोपरिम-दीवस्स उबहिस्स पा खंडसलागा चउग्गुणं-घउग्गुणं पक्खेव-मूव-छण्णउदी युगुण-गणं होऊण गच्छह जाव सयंमूरमण-समुद्दो ति ॥ १. द. होदिकण। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६३ ] पंचमो महाहियारो [ ८९ प्रर्थ-दसवें पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इसप्रकार है-जम्बूद्वीपके बावर एवं सूक्ष्म क्षेत्रफलके बराबर लवण-समुद्रका क्षेत्रफल करनेपर वह उससे चौबीस-गुणा होता है २४ । लवणसमुद्र सम्बन्धी खण्ड-शलाकाओंको संख्यासे धातकीखण्डको खण्ड-शलाकाएं छह-गुणी हैं धातकीखण्डद्वीपको खण्डशलाकाओंसे कालोद-समुद्रकी खण्डशलाकाएं चार-गुणी होकर चान रूपोंसे अधिक हैं । पुन: इससे ऊपर तदनन्तर अधस्तन द्वीप या समुद्रसे अनन्तर उपरिम द्वीप या समुद्रकी खण्डशलाकाएँ चौगुनी हैं और इनके प्रक्षेपभूत छयानब उत्तरोत्तर स्वयम्भूरमरणसमुद्र पर्यन्त दुगुने-दुगुने होते गये हैं। विशेषार्प-धातकीखण्डका बादर क्षेत्रफल ३ [( 1328:००२ – ( ५००००० २ | अथवा ३४३६०००००००००० वर्ग योजन । उसीका सूक्ष्म क्षेत्रफल V. [ ( 3302010 )२ – ( ५००:०० )२ | =vx३६०००००००००० वर्ग योजन । कालोदकका बादर क्षेत्रफल -- ३ (१०) [ ( ३६ ) --- ( 23 )२ ! ३ x (१०) x १६८०० वर्ग योजन । उसीका सूक्ष्म क्षेत्रफल 20.x(१०) [ (२६° ) - (१०)] vx(१०४ १६८०० वर्ग योजन । पुष्करवर द्वीपका बादर क्षेत्रफल =३ (५०) [ ( ६० )२ .-- ( २६° )] =३४७२००००००००००० वर्ग योजन । उसीका सूक्ष्मक्षेत्रफल 17.(१०) [ ( १५° } — ( २६० )२ ] = 17.x(१०) [ ७२००० ] वर्ग योजन । जम्बूद्वीपके सूक्ष्म क्षेत्रफल १.४ (१०).x(२५) वर्ग योजनसे लवणसमुद्रका सूक्ष्मक्षेत्रफल 10x (१०) (६००) वर्ग योजन २४ गुणा है ! Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० ] तिलोयपण्णत्ती [ माथा : २६४ __ उसी (जम्बूद्वीप) के सूक्ष्म क्षेत्रफलसे धातकीखण्डद्वीपका सूक्ष्म-क्षेत्रफल - x (१०).x ( ३६०० ) वर्ग योजन १४४ गुरणा है। उसीके सूक्ष्मक्षेत्रफलसे कालोदक समुद्रका सूक्ष्म क्षेत्रफल hex(१०) - ( १६८०० ) वर्ग योजन ६७२ गुणा है । उसी ( जम्बूद्वीप ) के सूक्ष्मक्षेत्रफलसे पुष्करबर द्वीपका Vox (१०) x (७२०००) वर्ग मोजन सूक्ष्म क्षेत्रफल २८८० गुणा है। खण्डशलाकाएँ–धातकीखण्ड द्वीपकी १४४ खण्ड शालाकाओंसे कालोदधिसमुद्रकी ६७२ खण्डशलाकाएँ ४ गुरगी होकर ९६ अधिक हैं। यथा--६७२ - (१४४४४)+९६ । कालोदधि समुद्रकी ६७२ खण्डशलाकारोंसे पुष्करवरद्वीपकी २८८० खण्डशलाकाएं ४ गुणी होकर ९६ ४२ अधिक हैं । यथा--२८८०( ६७२ ४ ४) + (९६४२) । इत्यादि । इसीप्रकार 15 के स्थान पर ३ रख देनेपर उपर्युक्त समस्त द्वीप-समुद्रोंके बादर क्षेत्रफल के लिए घटित हो जावेगा। ___ उपर्युक्त गणित-प्रक्रियासे स्पष्ट हो जाता है कि अधस्तन द्वीप या समुद्रको खण्डशलाकाओंसे अनन्तर उपरिम द्वीप या समुद्रकी खण्डशलाकाए चौगुनी हैं और इनके प्रक्षेप-भूत ९६ उत्तरोत्तर दुगुने-दुगुने होते गये हैं । इसीप्रकार स्वयम्भूरमण पर्यन्त जानना चाहिए। स्वयम्भूरमणद्वीपको खण्डशलाकाओंसे स्वयम्भरमण-समुद्रको खण्डशलाकाएं ___कितनी अधिक हैं ? उन्हें कहते हैंतस्थ अंतिम-वियप्प वत्तइस्सामो---[सयंभूरमणदीय-खंड-सलागादो सयंभूरमणसमुद्दस्स खंड-सलागा] तिण्णि-सेढीओ सत्त-लक्य-जोयहि भजिवाओ पुणो णयजोयणेहि अन्भहियानो होवि । तस्स ठवरणा- ... धरण जोयणारिण ६॥ अर्थ-उनमेंसे अन्तिम विकल्प कहते हैं-( स्वयम्भूरमणद्वीपकी खण्ड-शलाकाप्रोसे स्वयम्भूरमणसमुद्रकी खण्डशलाकाएँ ) सात लाख योजनोंसे भाजित तीन जगन्छ रणी और नौ योजनों से अधिक हैं । उसको स्थापना इसप्रकार है-- जगच्छेणी ३:७००००० यो० +९ यो। तत्थ अविरेगस्स पमाणाणयणट्ठ इमा सुत्त-गाहा--- लक्खेण भजिद-सग-सग-वासं इगि-रूव-विरहिवं तेण । सग-सग-खंड-सलागं, भजिदे अदिरेग - परिमाणं ॥२६४।। --.-....- - .-.. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो महाहियारो अर्थ -- उनमें (चौगुनी से ) प्रतिरिक्त प्रमाण लाने के लिए यह गाथा - सूत्र है एक लाखसे भाजित अपने-अपने विस्तार मेंसे एक रूप कम करके शेषका अपनी-अपनी खण्ड-शलाकानों में भाग देनेपर अतिरिक्त संख्याका प्रमाण आता है ।। २६४ ॥ विशेषार्थ - गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है गाथा : २६४ ] प्रक्षेप = प्रमाण । अतिरिक्त खण्ड-शलाकाएँ अथवा प्रक्षेप क्षेत्रको निज खण्ड-शलाकाएँ "निज विस्तार १००००० उदाहरण - मानलो-कालोद समुद्रकी ४ गुणित खण्ड-शलाकाओंसे अतिरिक्त खण्डशलाका (प्रक्षेप) का प्रमाण ज्ञात करना है। कालोद समुद्रका विस्तार ८ लाख यो० है । इसमें १ लाखका भाग देनेपर ८ प्राप्त होते हैं। मेंसे एक घटाकर जो शेष बचे उसका कालोदकी खण्ड-शलाकाओंके प्रमाणमें माग देनेपर प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा ६७२ 500000 १००००० परिणत वृद्धि= ६७२ ७ १ स्वयम्भू रमाद्वीप के क्षेत्रफलमें जम्बूद्वीप सदृश खण्डोंकी संख्या । अथवा जम्बूद्वीप के क्षेत्रफलसे स्वयम्भूरमणद्वीप का क्षेत्रफल कितना गुना है ? उसका गाथा २६३ से सम्बन्धित सूत्रानुसार जग० स्वयम्भूरमणद्वीपका बादर क्षेत्रफल ३x + ३७५०० यो० । ५६ = (१०)१०[ ३x४{ =(१), - ९६ प्रक्षेप अथवा प्रतिरिक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है । ३× { जग० + ३७५०० - १००००० ) x ४४ ( जग० ) + ३७५०० ) ५६ ५६ (१०००००) - + ३७५०० ) - ६२५०० x ( जग० . x ( ५६ जग० X जग ५६×५६ जग० ५६ जग० ५६ [ ९१ ज० X ३७५००. ज० X ६२५००__ ५६ ५६ -+३७५०० } }] • ६२५०० × ३७५०० }] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] तिलोयपणती [ गाथा : २६४ [३४४ { ४० + ग ( ३७५०० – ६२५०० ) -६२५०० ४ ३७५००}] (२०) २. ३४४ { ४० ४१० ( ग ४ २५००० ) -- ६२५०० ४ ३७५०० }]] (१०),.४ १२५१२४ ज०- ( १९४६४०१.२५००१)-(१०३८४१३५०० ४ ४.००) यो. ३ .. जग० x जग० ३४४४ जग० ४ २५००० _ ३४४४६२५००४३७५००यो. = ७८४ * (१०) १४४४x (१०००००) १००००० (१०००००)X(१०००००)" जग०४ जग०. =३४( ३ जग० – ४५ योजन । 10)- ५६००००० १६ इन खण्डशलाकाओंको ४ से गुरिणत करके स्वयम्भूरमरण समुद्र की खण्ड-शलाकाओंमेंसे घटा देनेपर स्वयम्भूरमणसमुद्र की प्रक्षेपभूत ( अतिरिक्त ) संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है । यथा स्वयम्भूरमरणसमुद्रकी खण्ड-शलाकाएं- [(-३४ ) + (३ )-(६ यो०)] – स्वयम्भूरमण- द्वीप को खण्ड शलाकाएँ ४४=(3APRT )-३६००००० १६ ] = (१३.जा.. + - ३.. )-(यो०-४५. यो. ) ____३ जग०. + ९ योजन । अथवा .... धरण जोयणाणि ९ । ! ७००००० ग्यारहवाँ-पक्ष ग्यारहवें पक्षके अल्पबहुत्वमें दो सिद्धान्त कहते हैं(१) अधस्तन द्वीप-समुद्रोंकी शलाकानोंसे उपरिम द्वीप या समुद्र की शलाका-बृद्धि चौगुनी से २४ अधिक हैएक्कारसम-पक्खे अप्पबहुलं वत्तइस्सामो । सं जहा-लवणसमुदस्स खंड-सलागार संखादो धावईसंड-दीवस्स खंड-सलागाणं वड्ढी वीसुत्तर-एक्क-सएशभहियं होदि १२० । लवणसमुहस्स-खंड-सलागाणं सम्मिलिद-बादईसंड-दीवस्स खंड-सलागाणं संखादो कालो Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६४ ] पंचमो मल्लाहियारो [२३ दग समुदस्स खंड-सलागाणं बड्ढो चउरुत्तर-पंच-सएगभहियं होदि ५०४ । एवं धादईसंखस्स वढि'-पहुदि हेष्टिम-दीव-उवहीणं समूहादो अणंतरोवरिम-दीयस्स या रयणायरस्स वा खंड-सलागाणं वड्ढी चउग्गुणं च उवीस-रूवेहि अब्भहियं होऊण गच्छइ जाब सयंभूरमण-समुद्दो ति॥ अर्थ - ग्यारहवें-पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं। बह इसप्रकार है-लवणसमुद्र-सम्बन्धी खण्डशलाकारों की संख्या से धातकीखण्ड-द्वीपको खण्ड-शलाकारों की वृद्धि का प्रमाण एकः सौ बीस है १२० । लवरणसमुद्र की खण्ड-शलाकाओं को मिलाकर धातकीखण्ड द्वीप-सम्बन्धी खण्ड-शलाकाओं को संपासे कालोदक समुद्र-सम्बन्धी खण्ड-शलाकोंकी वृद्धि का प्रमाण पांच सौ चार है ५०४ । इसप्रकार धातकीखण्डद्वीप-सम्बन्धी शलाका-वृद्धिसे प्रारम्भ कर स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त अधस्तन द्वीप-समुद्रों के शलाका-समूह से अनन्तर उपरिम द्वीप अथवा समुद्र की खण्ड-शलाकाओं की वृद्धि चौगुनी और चौबीस संख्या से अधिक होती गई है। विशेषार्थ-लवणसमुद्र सम्बन्धी २४ खण्डशलाकाओं से धातकीखण्ड-द्वीप की १४४ खण्डशलाकाओं में वृद्धि का प्रमाण ( १४४–२४ = ) १२० है । लवणसमुद्र और धातकीखण्ड द्वीप की सम्मिलित (२४ + १४४%) १६८ खण्डशलाकारों से कालोद समुद्र सम्बन्धी ६७२ खण्डशलाकारों में वृद्धिका प्रमाण ( ६७२-१६८-- ) ५०४ है। जो ४ गुनी होकर २४ अधिक हैं । यथा५०४= ( १२०४४ ) + २४ । । ___ इसप्रकार धातकी खण्डद्वीप सम्बन्धी शलाका बृद्धि से प्रारम्भ कर स्वयम्भरमण समुद्र पर्यन्त अधस्तन द्वीप-समुद्रों के शलाका-समूह से उपरिम द्वीप या समुद्र की शलाकारों की वृद्धि ४ गुनी और २४ से अधिक होती गई है । यथा--पुष्करवर द्वीप की २८८० खण्ड - शलाकारों में वृद्धि का प्रमाण २०४० = [ { { ५०४ ) x ४ }+ २४ ] है । अधस्तन द्वीप-समुद्रों के शलाका समूह से स्वयम्भूरमण समुद्र की शलाकारों में वृद्धि का प्रमाण कितना है ? तत्थ अंतिम वियप्पं बत्तइस्सामो-सयंभूरमण-समुद्दादो हेटिम-सय्व-दीव-रयणायराणं खंड-सलागाण-समूहं सयंभूरमण-समुद्दस्स खंड-सलागम्मि अणिदे बढि-पमाणं केत्तियमिदि भणिदे जगसेढोए वग्गं अट्ठाणउदि-सहस्स-कोडि-जोयणेहि भजिदं पुणो सत्तलक्ख-जोयणेहि भजिद-तिण्णि-जग-सेढी-अब्भहियं पुरणो चोद्दस-कोसेहि परिहोणं होवि । तस्स ठवरणा-........... पण जोयणाणि ...... रिण कोस १४ । १. द. ब. क. ज. वद्धि पुहृदी। २. द. ब. पादइसंडसलागाणं । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २६५ अर्थ -- स्वयम्भूरमण समुद्र से अधस्तन समस्त द्वीप समुद्रोंके खण्ड-शलाका - समूहको स्वयम्भूरमरणसमुद्रकी खण्ड-शलाकाओं में से घटा देनेपर वृद्धिका प्रमाण कितना है ? ऐसा कहनेपर ग्रानबे हजार करोड़ योजनोंसे भाजित जगच्छ पीके वर्गसे अतिरिक्त सात लाख योजनोंसे भाजित तीन जगच्छ्रणी अधिक त १४ कोरा है। उसकी स्थापना इसप्रकार है - १४ कोस । जग० X अग० ३ जग० = ९८x (१०) १०+ ७००००० यो० तय्वड्ढी आणयण हेदुमिमं गाहा-सुतं लक्खेण भजिद - अंतिम घासस्स' कबीए एग-रुकणं । अट्टगुणं हिद्वारणं, संकलणावो दु उवरिमे वड्ठी ।। २६५ ।। अर्थ – इस वृद्धि प्रमाणको प्राप्त करने हेतु यह गाथा - सूत्र है एक लाख से भाजित अन्तिम विस्तारका जो वर्ग हो उसमेंसे एक कम करके शेषको आठसे गुणा करने पर अधस्तन द्वीप समुद्रोंके शलाका-समूहसे उपरिम द्वीप एवं समुद्रकी खण्ड-शलाकाओंकी वृद्धिका प्रमाण आता है ।। २६५ ।। विशेषार्थ --- गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है— योजन है । वरित खण्ड-शलाका वृद्धि = [ -{ अन्तिम विस्तार १००००० )'-१]x उदाहरण - मानली - यहाँ वारुणीवर समुद्र इष्ट है । उसका विस्तार १२८ लाख वारुणीवर समुद्रकी वरिगत खण्ड-शलाका वृद्धि [१२८००००० = - { ( 23488889 ) – १ ] × 5 = ( १६३०४ - १ ) x = =१३१०६४ योजन । इसीप्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र-सम्बन्धी -- जग० मरिणत खण्ड-शलाका वृद्धि = [ ( २८ + ७५००० यो० ) – १ ] x = १००००० १. द. वास, ब. वास्स । २. द. ब. क. न. अट्ठ गुणंतिदां । 1 . C । i 1 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६५ ] = ( 1=1 जगच्छ्रणो २०००००० जग ० x जग ० ७०००००४ १४००००० = [( जग० x जग० २५०००००x२८००००० + जग० x जग० ९८०००००००००० योο ३ + 2 ) 2 – १ ] x = २ पंचमी महाहियारो + × 5 ) + ( ८ - + ९ १६ ३ जग० ७००००० यो X 5 ३ जग० ७००००० पी० ) + ( - १४ कोम । २ × ३ जग ० 7500000X8 [ ६५ × ८ ) - ६ (२) इच्छित द्वीप या समुद्र से अधस्तन द्वीप समुद्रोंकी खण्ड-शलाकाग्रोंका पिंड-फल प्राप्त करने की विधि - पुणो इटुस्स बोबस्स वा समुदस्स वा हेट्टिम-दीव - रयणायराणं मेलावणं भण्णमाणे' लवणसमुदस्स खंड सलागादो लवरपसमुह - संमिलित घावईसंड- वीचस्स खंडसलानाओ सत्तगुणं होदि । लवण-णीररासि खंड सलाग-संमिलिद धावईसंड-खंडसलागावो कालोबग-समुद्द- खंड- सलाग-संमिलिद हेट्ठिम-खंड-सलागाओ पंच-गुणं होदि । कालोदग- समुद्दस्स खंड - सलाग-समिलिय हैट्ठिम-वीवोवहीणं खंड सलागादो पोक्खरबर- दीनखंड-सलाग - संमिलिब-हेट्टिम-दीव - रयणायराणं खंड-सलागा चउग्गुणं होऊण तिष्णि-सथसट्ठि - रूवेहि अमहियं होदि । पोक्खरवरदीय खंड - सलाग-संमिलिद हेडिम-दीव - रयणायराणं खंड-सलागादो पोक्खरवर समुद्दस्स संमिलिद हेट्ठिम दीवोव होणं खंड- सलागा चउग्गुणं होऊण सत्त-सय- चउदाल-रूवेहिं अमहियं होदि । एतो उवरिम- चउग्गुणं चउग्गुणं पक्खेव मूव-सत्त-सय- चउदाल दुगुण-दुगुणं होऊण चजयीस-रूवेहि प्रभहियं होऊण गच्छई जाय सयंभूरमण समुद्दोसि ॥ अर्थ - पुनः इष्ट द्वीप अथवा समुद्र के अधस्तन द्वीप समुद्रोंकी खण्ड-शलाकाओं का मिश्रित कथन करने पर लवण समुद्रकी खण्ड-शलाकाओं से लवणसमुद्र - सम्मिलित घातकीखण्ड द्वीपकी खण्डशलाकाएँ सात- गुणी हैं । लवणसमुद्रकी खण्ड - शलाकाओं से सम्मिलित घातकीखण्डद्वीप सम्बन्धी खण्ड-शलाकाओं की अपेक्षा कालोदसमुद्रकी खण्डशलाकाओं सहित यधस्तन द्वीप समुद्रोंकी खण्डशलाकाएँ पाँच - गुणी हैं । कालोदसमुद्रकी खण्ड-शलाका - सम्मिलित अधस्तन द्वीप समुद्रों-सम्बन्धी खण्ड - शलाकाकी प्रपेक्षा पुष्करवरदीपकी खण्डालाकाओं सहित अधस्तन द्वीप समुद्रोंकी खण्ड १. द. ब. क. ज. भणिमाखे । २. व. ब. क. ज. सलागादो । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] तिलोत्त [ गाथा : २६५ खण्ड शलाकाएँ चौगुनी होकर तीन सौ साठ अधिक हैं । पुष्करवरद्वीप की शलाकाओं सहित श्रधस्तन द्वीप समुद्रों-सम्बन्धी खण्ड - शलाकानोंकी अपेक्षा पुष्करवर समुद्रसम्मिलित स्तन द्वीप समुद्रोंकी खण्डशलाकाएं चौगुनी होकर सात सौ चवालीस श्रधिक है। इससे ऊपर स्वयम्भूरमण-समुद्र पर्यन्त चौगुनी चौगुनी होनेके अतिरिक्त प्रक्षेप-भूत सात सौ चवालीस दुगुने - दुगुने और चौबीस अधिक होते गये हैं || विशेषार्थf --- इष्ट द्वीप अथवा समुद्र के अधस्तन द्वीप समुद्रोंकी खण्ड-शलाकाओं का मिश्रित कथन किया जाता है । लवणसमुद्रकी खण्डशलाकाओं ( २४ ) से लवणसमुद्र सहित घातकीखण्ड arat खण्डशलाका ( २४ + १४४ - १६८ ) सात गुनी ( २४४ ७ = १६८ ) हैं । लवणसमुद्र और धातकी खण्ड द्वीप सम्बन्धी सम्मिलित १६८ खण्ड -दालाकाओं में कालोद - समुद्रकी ६७२ खण्ड शलाकाएं मिला देनेपर ( २४ + १४४ + ६७२- ) ६४० खण्ड-शलाकाए प्राप्त होती हैं । जो लवरणसमुद्र और धातकीखण्ड की सम्मिलित ( २४+ १४४ = ) १६८ खण्डशलाकाओं से ५ गुनी ( १६८४५ = ८४० ) हैं । ८४० पुष्करवरद्वीप से वस्तन द्वीप - समुद्रोंकी सम्मिलित ( २४ + १४४ + ६७२ = } खण्ड-शलाकाओं में पुष्करवर द्वीप की २६८० खण्ड-शलाकाओं में मिला देनेपर ( ८४० + २५०० } = ३७२० खण्ड-शलाकाऍ होती हैं; जो प्रधस्तन द्वीप समुद्रोंकी सम्मिलित ८४० खण्ड-शलाकानों की अपेक्षा ३६० अधिक ४ गुनी हैं। यथा - ( ८४०४४} + ३६० ३७२० । पुष्करवर समुद्र से अधस्तन द्वीप समुद्रों को सम्मिलित ( २४ + १४४+६७२ + २८८० = } ३७२० खण्ड-शलाकाओं में पुष्करवरसमुद्रकी ११९०४ खण्ड - शलाकाएँ मिला देनेपर पुष्करवरसमुद्र पर्यन्तकी सम्मिलित खण्ड - शलाकाएँ ( ३७२० + ११९०४ = ) १५६२४ हैं | जो अधस्तन द्वीपसमुद्रोंकी सम्मिलित ३७२० खण्डशलाकाओं की अपेक्षा ७४४ अधिक ४ गुनी हैं । यथा -- ( ३७२०x४) + ७४४=१५६२४ । इससे ऊपर स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त ४ गुना-४ गुना होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत खण्डशलाकाऍ २४ अधिक ७४४ की दुगुनी - दुगुनी होती चली गई हैं। यथा- वारुणीवर द्वीपसे अधस्तन द्वीप समुद्रोंकी सम्मिलित ( २४ + १४४ + ६७२+२८८०+ ११६०४= ) १५६२४ खण्ड - शलाकाओं में वारुणीवर द्वीपकी ४८३८४ खण्डशलाकाएँ मिला देनेपर areणीवरद्वीप पर्यंन्त की सम्मिलित खण्डशला काएँ ( १५६२४+४८३८४= ) ६४००८ हैं । जो अधस्तन द्वीप समुद्रोंकी सम्मिलित १५६२४ खण्डशलाकाओंकी अपेक्षा ४ गुनी होनेके प्रतिरिक्त प्रक्षेपभूत शलाका २४ अधिक ७४४ की दुगुनी हैं । यथा- Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६६-२६७ ] पंचमो महाहियारो [ ९७ ६४००८ = [ ( १५६२४४४ )+( ७४४४२ )+२४ ] तम्बड्ढी-प्राणयण-हेतुमिमं गाहा-सुत्तं अंतिम-विक्खंभद्ध, लक्षणं लक्ख-होण-यास-गुरां । पण-घण-कोडोहि हिवं, इट्ठाको हेट्ठिमाण पिंज-फलं ।।२६६।। अर्थ- इस वृद्धि को प्राप्त करने हेतु यह गाषा-सूत्र है अन्तिम विस्तारके अर्ध भागमेंसे एक लाख कम करके शेष को एक लाख कम विस्तार से गुणा करके प्राप्त राशिमें पाँचके धन अर्थात् एक सौ पच्चीस करोड़ का भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना इच्छित द्वीप या समुद्रसे अधस्तन द्वीप-समुद्रों का पिण्डफल होता है ॥२६६।। गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है इष्ट द्वीप या समुद्रसे अधस्तन द्वीप-समुद्रका पिण्डफल... अन्तिम विस्तार .-१००००० ) - ( अन्तिम विस्तार – १००००० । १२५००००००० उदाहरण-मानलो- यहाँ क्षीरवर द्वीप इष्ट है । जिसका विस्तार २५६ लाख योजन प्रमाण है। क्षीरवर द्वीपसे अधस्तन ( जम्बूद्वीपसे वारुणीवर समुद्र पर्यन्त ) द्वीप - समुद्रका पिण्डफल--- पिण्डफल - ( २५६००००० -१००००० ) ( २५६००००० - १००००० १२५००००००० १२७०००००४२५५००००० -२५६००० योजन । १२५००००००० सादिरेय-पमाणाणयगढ़ इमं गाहा-सुत्तं दो-लक्लेहि विभाजिव-सम-सग-वासम्मि लड-हवेहि । सम-सग-खंडसलागं, भजिदे अदिरेग - परिमारणं ॥२६७।। अर्थ :- अतिरिक्त प्रमाण प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र है अपने-अपने विस्तार में दो लाखका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसका अपनी-अपनी खण्डशलाकात्रों में भाग देनेपर अतिरेकका प्रमाण आता है ।। २६७ ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] तिलोयफ्पाती पिा : २६७ विशेषार्थ :--गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है निज खण्डशलाकाएँ वरिणत अतिरेक= निज विस्तार २००००० उबाहरण-मानलो-यहां क्षीरवर द्वीप इष्ट है । जिसका विस्तार २५६००००० योजन है और खण्डशलाकाएँ ७८३३६० हैं। वशित अतिरेक-२५६००००० २००००० ७८३३६०६१२० । १२८ बारहवां-पक्ष Mon--- . . जम्बूद्वीपको छोड़कर समुद्रसे द्वीप और द्वीपसे समुद्रका विष्कम्भ दुगुना एवं आयाम दुगुनेसे १ लाख योजन अधिक हैबारसम-पक्खे अप्पबहुलं वसइस्सामो । तं जहा-जाव जंबद्वीयमवणिज्ज लवणसमुहस्स विक्खंभे वेषिण-लक्खं पायामं रणव-लक्खं, पादईसंड-दीवस्स विखंभं चत्तारिलक्खं आयामं सत्तावीस-लक्वं, कालोदगसमुहस्स विक्खंभं अट्ठ-लक्वं प्रायाम तेसदिठलक्खं, एवं समुद्दादो वीवस्स दीवादी समुदस्स विक्खंभावो विक्खंभं गुणं आयामावो आयामं दुगुणं णव-लक्खेहि प्रभहियं होऊण गच्छद जाव सयंभूरमणसमुद्दो ति ।। अर्थ--बारहवें पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं। वह इसप्रकार है-जम्बूद्वीपको छोड़कर लवणसमुद्र का विस्तार दो लाख यो और आयाम नौ लाख योजन है । धातकीखण्डका विस्तार चार लाख यो० और आयाम सत्ताईस लाख योजन है । कालोदसमुद्र का विस्तार आठ लाख यो० और आयाम तिरेसठ लाख योजन है । इसप्रकार समुद्रसे द्वीपका और द्वीपसे समुद्रका विस्तार दुगुना तथा आयामसे पायाम दुगुना और नौ लाख अधिक होकर स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त चला गया है। विशेषार्थ---जम्बूद्वीपको छोड़कर लवणसमुद्रका विस्तार २ लाख योजन है और आयाम ९००००० योजन है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६७ ] पंचमी महाहियारो [ ९९ इसी अधिकारकी गाथा २४४ के अनुसार प्रायाम निकालनेकी विधि :-इच्छित क्षेत्रके विस्तारमेंसे एक लाख कम करके शेषको नौसे गुणा करने पर इच्छित द्वोप या समुद्रका आयाम होता है। तदनुसार लबरणसमुद्रका अायाम (२ लाख - १ लाख ) ४९= ९ लाख योजन है। धातकीखण्डद्वीपका विस्तार ४ लाख योजन है और आयाम (४ लाख यो-१ लाख) ४९=२७ लाख योजन है। ___ कालोद समुद्र का विस्तार ८ लाख योजन है और आयाम ( लाख यो०-१ लाख)x९= ६३ लाख यो० है। इसीप्रकार समुद्रसे द्वीपका और द्वीपसे समुद्रका विस्तार दुगुना तथा आयाम से पायाम दुगुना और ९ लाख बोजन अधिक होदर भूमणममुद्र पर चला जाता है। अधस्तन द्वीप या समुद्र के क्षेत्रफलसे उपरिम द्वीप या समुद्रका क्षेत्रफल चौगुना तथा प्रक्षेप ७२००० करोड़ योजन हैलवणसमुदस्स खेतफलायो धादईसंडस्स खेत्तफलं छग्गुणं, धादईसंडदीवस्स खेतफलादो कालोदगसमुहस्स खेतफलं चउग्गुणं बाहरि-सहस्स-कोडि-जोयणेहि अमहियं होदि । खेत्तफलं ७२०००००००००० । एवं हेट्ठिम-दीवस्स वा गोररासिस्स वा खेत्तफलादो तवणंतरोबरिम-योवस्स वा रयणायरस्स वा खेसफलं चउम्गरण पक्खेवभवबाहत्तरि-सहस्स-कोडि-जोयणारिण दगुण-द्गुणं होऊण गच्छइ जाव सयंभूरमण-समुद्दो त्ति ॥ अर्म-लवरणसमुद्रके क्षेत्रफलसे धातकीखण्डका क्षेत्रफल छह-गुणा और धातकीखण्डद्वीपके क्षेत्रफलसे कालोदसमुद्रका क्षेत्रफल चौगुना एवं बहत्तर हजार करोड़ योजन अधिक है-७२०००००००००० । इसप्रकार अधस्तन द्वीप अथवा समुद्रके क्षेत्रफलसे तदनन्तर उपरिम द्वीप अथवा समद्र का क्षेत्रफल चौगुना और प्रक्षेपभूत बहत्तर हजार करोड़ योजन स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त दुगुने होते गये हैं। विशेषार्थ-गा० २४३ के अनुसार जम्बूढीपका क्षेत्रफल ३ x ( ५०००० )" या ७५०००००००० वर्ग योजन है अतः अन्य द्वीप-समुद्रोंके क्षेत्रफलमें जम्बूद्वीप सदृश जो खण्ड हुए हैं उनमेंसे प्रत्येक खण्डका प्रमाण ७५० करोड़ वर्ग योजन है। लवणसमद्रके क्षेत्रफलसे धातकीखण्डद्वीपका क्षेत्रफल ६ गुना अर्थात् ( लवण की खंडशलाकाएँ २४ हैं अतः ) २४४६=१४४ है। धातकीखण्डद्वीपके क्षेत्रफलसे कालोदक-समद्रका क्षेत्रफल ९६ से अधिक ४ गुना है । अर्थात् ६७२ = ( १४४४४)+९६ खण्डशलाकाएं हैं। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' १०० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २६७ जब एक खण्डशलाका का प्रमाण ७५० करोड़ वर्ग योजन है सब ६६ खण्डशलाकामोंका क्या प्रमाण होगा? इसप्रकार राशिक करनेपर उपर्युक्त ( ७५० करोड़ X९६= ) ७२००० करोड़ वर्ग योजन अतिरेक रूप में प्राप्त होते हैं । इमप्रकार अधस्तन द्वीप या समुद्रके क्षेत्रफलसे तदनन्तर उपरिम द्वीप या समुद्रका क्षेत्रफल ४ गुना पार प्रक्षेपभूत ७२०००००००००० वर्ग यजिन दुगुना-दुगुना होता हुआ स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त चला गया है। स्वयम्भूरमण द्वीप का विस्तार, पायाम एवं क्षेत्रफल तस्थ अंतिम-वियप्प बत्तइस्सामो-सयभरमण-दीवस्स विक्खंभं छप्पण्ण-रूवेहि भजिव-जगसेढी पुणो सत्त-तीस-सहस्स-पंच-सय-जोयणेहि अम्भहियं होवि । तस्स ठवणा५६ । धण जोयणारिस ३७५०० । प्रायाम पुण छप्पण्ण-रूयेहि हिव-रणव-जगसेढीओ पुणो पंच-लक्ख-बासट्ठिसहस्स-पंच-सय-जोयणेहि परिहीणं होदि । तस्स ठवणा । रिण जोयणाणि ५६२५०० । पुणो विक्खंभायाम परोप्पर-गुणिदे खेत्तफल रज्जूवे कवि रणव-हवेहि गुणिय चउसदिछ-रूवेहि भजिवमेत्तं किचूर्ण होदि । तस्स किचूरणं पमाणं रज्जू ठविय अट्ठावीससहस्स-एक्क-सय-पंच-बीस-हवेहि गुरिण दमेत्तं पुणो पण्णास-सहस्स-सत्त'-तीस-लक्ख-णवकोडि-अम्भहिय-वोणि-सहस्स-एक्क-सय-कोडि-जोयणमेतं होदि । तस्स ठवणा । । रिण ७ । २८१२५ रिण जोयणाणि २१०९३७५०००० ।। अर्थ- इनमें से अन्तिम विकल्प कहते हैं --स्वयम्भूरमण-द्वीपका विस्तार छप्पनसे भाजित जगच्छणी प्रमाण और सेंतीस हजार पाँच सौ योजन अधिक है। उसकी स्थापना इसप्रकार हैजग +३७५०० योजन। स्वयम्भूरमणद्वीपका आयाम छप्पनसे भाजित नौ जगच्छपियों से पांच लाख बासठ हजार पाँचसो योजन कम है । उसकी स्थापना इसप्रकार हैजग ९ -- ५६२५०० योजन । १. य. तेत्तीस । २. ८. २. उवणा ४ । ६ । ६४ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६७ ] पंचमो महाहियारो [ १०१ इस विस्तार और प्रायामको परस्पर गृरिणत करने पर स्वयम्भूरमणद्वीपका क्षेत्रफल राजू वर्गको नौसे गुणा करके चौंसठका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उससे कुछ कम होता है । इस किचित् कमका प्रमाण राजूको स्थापित करके प्रट्ठाईस हजार एक सौ पच्चीससे गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उतना और दो हजार एकसी नौ करोड़ सैंतीस लाख पचास हजार वर्ग योजन प्रमाण है । इसकी स्थापना इसप्रकार है - -- राजू x राजू X ४ – ( १ राजू २८१२५ यो० + २१०९३७५०००० ) 1 विशेषार्थ - स्वयम्भू रमणद्वीपका विस्तार= जग० +३७५०० योजन ५६ स्वयम्भूरमण द्वीपका आयाम = = ( द्वीपका विस्तार - १००००० ) x ९ जग - { + ३७५००-१०००००) ९ ५६ अर्थात् ३ राजू + ३७५०० योजन है । जग० × ९ ) – ५६२५०० योजन या है राजू ५६ स्वयम्भूरमणद्वीपका क्षेत्रफल - इस द्वीप के विस्तार और आयाम को परस्पर गुणित करनेसे स्वयम्भूरमण द्वीपका क्षेत्रफल राजूके वर्गको ९ से गुणित कर ६४ का भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उससे कुछ कम होता है । यथा कुछ कम स्वयं द्वीपका क्षेत्रफल == विस्तार x आयाम | o = ५६२५०० यो० । = ( ६ राजू + ३७५०० यो० ) x ( १ राजू - ५६२५०० यो० ) -X (राजू ) ' +- राजू ( - ५०००००+ ३५०० ) -- ३७५०० ५६२५०० ३२.५००० राजू - २१०९३७५०००० वर्ग योजन | कमका प्रमाण (राजू ) * स्वयम्भू रमणद्वीपका क्षेत्रफल ४ (राजू ) से कुछ कम कहा गया है। इस किञ्चित् — - २८१२५ राजू २१०६३७५०००० वर्ग योजन है । इसकी स्थापना इसप्रकार है है। रिए । २८१२५ रिए जोयराणि २१०९३७५०००० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] तिलोयपणती [ गाथा : २६७ स्वयम्भूरमणसमुद्र के विष्कम्भ, आयाम और क्षेत्रफलका प्रमाण सयंभूरमणसमुहस्स विक्खंभं अट्ठायोस-रूवेहि भजिव-जगसेढी पुणो पंचहत्तरिसहस्स-जोयणेहि अभहि होदि । आयाम गहतीस-महि शनि-णव-जगसेढी पुरणो दोणि-लक्ख-पंचवीस-सहस्स-जोयणेहि परिहोणं होदि । तस्स ठवणा--२८ धरण ७५००० । आयाम : रिण २२५००० । खेतफलं रज्जूए कदी णव-रूवेहिं गुणिय सोलस-रूवेहि भजिदमत्तं पुणो रज्जू ठयिय एक्क-लक्ख-बारस-सहस्स-पंच-सय-जोयहि गुरिणव-किचूणिय-कदिमेतेहि अमहियं होदि । तं किंचूर-पमाणं पण्णास-लक्ख-सत्तासीदि-कोडि-अमहिय-छस्सय-एक्क-सहस्सकोडि-जोयणमेतं होदि । तस्स 'ठवणा-- । धण ७ । ११२५०० । रिण १६८७५००००००। अर्घ–स्वयम्भूरमरणसमुद्रका विस्तार अट्ठाईससे भाजित जगन्छे रणी और पचहत्तर हजार योजन अधिक है तथा प्रायाम अट्ठाईससे भाजित नौ जगच्य गोमेंसे दो लाख पच्चीस हजार योजन कम है । उसकी स्थापना इसप्रकार है-विस्तार- +७५००० योजन । पायाम = जग०९–२२५००० योजन । २८ __ स्वयम्भूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल राजूके वर्गको नौसे गुणा करके प्राप्त राशिमें सोलहका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना और राजूको स्थापित करके एक लाख बारह हजार पाँच सौ योजनसे गुरिणत लब्धमेंसे कुछ कम करके जो शेष रहे उससे अधिक है । इस किश्चित् कमका प्रमाण एक हजार छह सौ सतासी करोड़ पचास लाख योजन है । उसकी स्थापना इसप्रकार है-- [ ( राजू ) ४९- १६ ] + ( राजू १४११२५०० यो० ) -- १६८७५०००००० । विशेषार्थ-स्वयम्भूरमण समुद्रका विस्तार जगणी +७५००० योजन । - राजु + ७५००० योजन । स्वयम्भूरमणसम्द्रका प्रायाम = ( विस्तार -- १००००० )४९ =[ राज+७५००० - १००००० ]४९ = राजू – २२५००० योजन । २८ १. द. व. उमणा Ye | १६ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६८ ] पंचमो महायिारो [ १०३ स्वयम्भूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल-( विस्तार x अायाम ) = ( राजू + ७५००० यो०)x ( राजू- २२५००० योजन । = (राजू) + राजू [ 1 x ( – २२५००० ) + (३ x ७५०००)] -७५००० ४२२५००० यो । = ४ (राजू) + राजू ( – ५६२५० + १६८७५० ) - १६८७५०००००० | =t (राजू) + (११२५००) राजू - १६५७५०००००० बर्ग योजन । ___ गोलाकार क्षेत्रका क्षेत्रफल प्राप्त करनेकी विधिएवं दीवोबहीणं विक्खंभायाम-खेत्तफलं च पल्वण-हेतुमिम गाहा-सुत्तं लक्ख-विहीणं रुदं, णवहि गुणं इच्छियस्स वोहतं । तं चैव य द - गुणं, खेत्तफलं होदि वलयाणं' ॥२६८।। पर्थ-इसप्रकार द्वीप-समुद्रके विस्तार, आयाम और क्षेत्रफलके निरूपण हेतु यह गाथा एक लाख कम विस्तारको नौसे गुणा करनेपर इच्छित दीप या समुद्रकी लम्बाई होती है। इस लम्बाईको विस्तारसे गुणा करनेपर गोलाकार क्षेत्रोंका क्षेत्रफल होता है ।। २६८ ॥ उदाहरण-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैइष्ट द्वीप या समुद्रका आयाम ( लम्बाई )=( विस्तार-१००००० ) ४९ इष्ट द्वीप या समुद्रका क्षेत्रफल = लम्बाई (पायाम ) x विस्तार मानलो-यहाँ नन्दीश्वर द्वीप इष्ट है, जिसका विस्तार १६३८४००००० योजन है। नन्दीश्वरद्वीपका आयाम=(१६३८४००००० – १००००० )४९ =१४७४७००००० योजन । मन्दीश्वरद्वीपका क्षेत्रफल- १४७४४७०००००४ १६३८४००००० । =२४१५७७१६४८०००००००००० बर्ग बोजन। १. ब. लवयाणं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ) तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २६९ 'अधस्तन द्वीप या समुद्रके क्षेत्रफलसे उपरिम द्वीप या समुद्रके क्षेत्रफलको सातिरेकताका प्रमाणहेदिम-दीवस्स या रयणायरस्स वा खेत्तफलावो उरिम-दोबस्स या तरंगिणीणाहस्स बा खेत्तफलस्स साविरेयत्त-परूवण-हेदुमिमा गाहा-सुत्तं-- कालोदगोवहीदो, उरिम-दीवोवहीण पत्तक्कं । रुदं णव-लक्ख-गुणं, परिवड्डी होदि उवरुवरि ॥२६॥ प्रथ-अधस्तन द्वीप या समुद्रके क्षेत्रफलसे उपरिम द्वीप या समुद्र के क्षेत्रफलकी सातिरेकता के निरूपण हेतु यह गाथा-सूत्र है __ कालोदसमुद्रसे उपरिम द्वीप-समुद्रोंमेंसे प्रत्येकके विस्तारको नौ लाखसे गुणा करनेपर ऊपर-ऊपर वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है 11 २६९ ।। विशेषार्थ-कालोद समुद्र के बाद अधस्तन द्वीप या समुद्रके क्षेत्रफलसे उपरिम द्वीप या समृद्रका क्षेत्रफल चार-चार गुना होता गया है और प्रक्षेप ( ७२००० करोड़) दूना-दूमा होता गया है। उपर्युक्त गाथा द्वारा प्र ( सातिरेक ) का प्रमाण प्राप्त करनेकी विधि दर्शाई गई है । यथा गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैवरिणत ऊपर-ऊपर वृद्धि-( कालोदसे ऊपर इष्ट द्वीप या स० का विस्तार ) ४९ मानलो-नन्दीश्वर समुद्रके प्रक्षेप ( सातिरेक ) का प्रमाण इष्ट है । इससे अधस्तन स्थित नन्दीश्वर द्वीपका विस्तार १६३८४ लाख योजन है अत: १६३८४०००००x१०००००=१४७४५६०००००००००० योजन है जो ७२००० करोड़ योजनोंका दूना होता हुआ २०४८ गुना है यथा-७२००० करोड़ x २०४८=१४७४५६०००००००००० । तेरहवां-पक्ष अधस्तन द्वीप-समुद्रोंके पिण्डफल एवं प्रक्षेपभूत क्षेत्रफलसे उपरिम द्वीप या समुद्रका क्षेत्रफल कितना होता है ? उसे कहते हैंतेरसम-पक्खे अप्पबहुलं बतइस्सामोजबूबीवस्स खेत्तफलादो लवणभोरपिस्स खेत्तफलं घउवीस'-गुणं । जंबूद्वीप-सहिय-लवणसमुहस्सखेत्तफलादो धादईसंउदोवस्स खेस १. द. उणवीस । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६६ ] पंचमो महाह्यिारो [ १०५ फलं पंच-गुणं होऊण चोहस-सहस्स बे-सय-पण्णास-कोडि-जोयणेहि अम्भहियं होदि १४२५०००००००० । जंबूद्वीक-लवणसमुद्द-सहिय-घावईसंडदोवस्स खेत्तफलादो कालोदगसमुदस्स खेत्तफलं तिगुरु होऊण एध-लक्ख-सत्रास-सहस्स-सत्तस-पण्णास-कोडि-जोयहि अब्भहियं होदि । तस्स ठवरणा--१२३७५०००००००० । एवं कालोदग-समुद्द-पहुदिहेदिम-दीव रयणायराणं पिड-फलादो उपरिम-दीवस्स या रयणायरस्स वा खेसफल पत्तेयं तिगुणं पक्खेवभूद-एय-लक्ख-तेवीस-सहस्स-सत्तसय-पण्णास-कोडि-जोयणारिण कमसो दुगुण-दुगुणं होऊण वीस-सहस्स-दु-सय-पण्णास-कोडि-जोयणेहि पमाणं २०२५०००००००० अभहियं होऊण गच्छई जाव सयंभूरमणसमुद्दो त्ति ।। अर्थ-तेरह पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं-जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलसे लवण समुद्रका क्षेत्रफल चौबीस (२४) गुना है । जम्बूद्वीप सहित लवणसमुद्रके क्षेत्रफलसे धातकीखण्डद्वीपका क्षेत्रफल पांच गुना होकर चौदह हजार दो सौ पचास करोड़ योजन अधिक है-१४२५.०००००००० । जम्बूद्वीप और लवणसमुद्रके क्षेत्रफलसे युक्त धातकीखण्डद्वीपके क्षेत्रफलसे कालोदसमुद्रका क्षेत्रफन तिगुना होकर एकलाख तेईस हजार सात सौ पचास करोड़ योजन अधिक है । उसकी स्थापना-१२३७५०००००००० । इसप्रकार कालोदसमुद्र आदि अधस्तन द्वीप-समुद्रोंके पिण्डफलसे उपरिम द्वीप या समुद्रका क्षेत्रफल प्रत्येक तिगुना होने के साथ प्रक्षेपभूत एक लाख तेईस हजार सात सौ पचास करोड़ योजन क्रमसे दुगुने-दुगुने होकर बीस हजार दो सौ पचास करोड़ योजन २०२५०००००००० अधिक होता हना स्वयम्भूरमरणसमुद्र पर्यन्त चला गया है ।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल १ खण्ड-शलाका और लवरणसमुद्रका क्षेत्रफल २४ खण्ड शलाका स्वरूप है । जम्बूद्वीप सहित लवरणसमुद्रके (१+ २४ = २५ खंडशलाका स्वरूप) क्षेत्रफलसे धातकीखण्डद्वीपका ( १४४ खण्डशलाका स्वरूप ) क्षेत्रफल ५ गुना होकर १९ खण्डशलाका प्रमाण वर्ग योजनसे अधिक है । यथा (२५४५)+ १९-१४४ । एक खण्डशलाका ३ x ( ५०००० ) अथवा ७५४(१०) वर्ग योजन प्रमाण होती है प्रतः १९ खण्डशलाकाओंके [ १६ x ३ ( ५०००० ) या ५७ ४ २५ x (१०) = ] १४२५०००००००० वर्ग योजन प्राप्त हुए। धातकी खण्डका प्रक्षेपभूत ( अधिक धनका ) यही प्रमाण ऊपर कहा गया है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ । तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २६९ जम्बुद्वीप, लवणसमुद्र और धासकोखण्डके सम्मिलित (१+ २४+ १४४=१६९ खण्डशलाका स्वरूप ) क्षेत्रफलसे कालोदका (६७२ खण्डशलाका स्वरूप) क्षेत्रफल ३ गुना ( १६९४३= ५०७) होकर ( ६७२ .-५०७ - ) १६५ खण्डशलाका प्रमाण वर्ग योजनसे अधिक है। यथा--६७२-- { १६६४३)+१६५ । एक खण्डशलाका ७५४ (१०) वर्ग योजन प्रमाण है अत: १६५ खण्डशलाकाओंका प्रमाण १६५४७५४ (१०)-१२३७५०००००००० वर्ग योजन है। कालोदधिका प्रक्षेपभूत ( अधिक धनका ) यही प्रमाण ऊपर कहा गया है। इसप्रकार अधस्तन द्वीप-समुद्रोंके पिण्डफलसे कालोदकका क्षेत्रफल-६७२ खण्ड० = (१+ २४+ १४४ ) x ३ खंडश० + १२३७५०००००००० वर्ग यो० है। ___ भानलो-यहाँ पुष्करवरद्वीपकी प्रक्षेप वृद्धि प्राप्त करना इष्ट है । जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, घातकीखण्डद्वीप और कालोदसमुद्रके सम्मिलित (१+२४ + १४४ + ६७२ = ८४१ खण्डशलाका स्वरूप ) क्षेत्रफलसे पुष्करवरद्वीपका (२८८० खण्डशलाका स्वरूप ) क्षेत्रफल तिगुना (८४१४३ - २५२३ ) होकर ( २८८० - २५२३- ) ३५७ खण्डशलाका प्रमाण वर्ग योजनोंसे अधिक है। यथा-- २८८०- ( ८४१४३ )+ ३५७ । एक खण्डशलाका ७५४ (१०) वर्ग योजन प्रमाण है अतः ३५७ खण्डशलाकाओंका प्रमाण ( ३५७४७५x (१०) २६७७५.०००००००० वर्ग योजन प्राप्त होता है । यही पुष्करबर द्वीपका प्रक्ष पभूत ( अधिक धन ) क्षेत्र है। जो कालोदधिके प्रक्ष पभूत क्षेत्रके दुगुनेसे २०२५०००००००० वर्ग यो० अधिक है । इसका सूत्र पु० दीपका प्रक्षेप० क्षेत्र={ कालोदधिका प्रक्षप x २) + २०२५ x { १०) । २६७७५४ (१०)=(१२३७५०००००००० x २)+ २०२५००००००००। कालोदधि समुद्र के ऊपर द्वीप या समुद्रका क्षेत्रफल प्राप्त करनेकी विविमें दो नियम निमल हैं १. अधस्तन द्वीप-समुद्रके पिण्डफल क्षेत्रफलसे परिम द्वीप-समुद्रका पिण्डफल क्षेत्रफल नियमसे तिगुना होता हुआ अन्त-पर्यन्त जाता है । २. अधस्तन द्वीप या समुद्रके प्रक्षेप [ १२३७५४ (१०) ] से उपरिम द्वीप या समुद्रका प्रक्षेप नियमसे दुगुना होता हुग्रा अन्त पर्यन्त जाता है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६९ ] पंचमो महाहियारो [ १०७ अब यहाँ प्रक्षेपके ऊपर जो २०२५ (१०) - अधिक धन कहा गया है वह ऊपर-ऊपर किस विधिसे प्राप्त होता है ? उसे दर्शाते हैं कालोद समुद्र के प्रक्षेपसे पुष्करवर द्वीपका प्रक्षेपभूत दुगुने से २०२५ (१०) वर्ग योजन अधिक है । इस २०२५ ४ (१०) वर्ग योजन अधिककी १ शलाका मानकर उपरिम द्वीप या समुद्रका यह अधिक धन अवस्तन द्वीप समुद्रकी शलाका से १ अधिक दुगुना है। इसका सूत्र इसप्रकार है इष्ट द्वीप या स० का अधिक धन - [ ( अधस्तन द्वीप या स० की खण्ड श० x २ ) + १ ] ×२०२५× (१०) * । ×× ] पुष्करवर समुद्रका अधिक धन - [ ( १२ ) + १ ]x २०२५००००००००। - ३ x [ २०२५४ (१०) ० = ६०७५०००००००० वर्ग योजन है । अर्थात् पु० स० का अधिक धन - ( प्रक्षेप युक्त अधिक धन ) ( प्रक्षेप x ४ ) पु० समुद्रका प्र० धन ६०७५× (१०) ' = [ ५५५७५ × (१०) ' ] – [१२३७५ X (१०) - वारुणीवर द्वीपका अधिक धन = [ ( ३x२ } +१]×२०२५× (१०) =१४१७५००००००००= [ ७२०२५०००००००० ] वर्ग योजन । इसीप्रकार आगे भी जानना चाहिए। जम्बूद्वीप और स्वयम्भूर मरणसमुद्र के मध्य स्थित समस्त द्वीप- समुद्रों के क्षेत्रफलका प्रमाण तत्थ अंतिम वियष्वं वत्तइस्लामो सयंमूरमण समुहस्स हेट्ठिम दोरा उथहाओ सव्वाओ जंबूदीव-विरहिदाओ ताणं खेत्तफलं रज्जूबे कढी ति-गुणिय सोलह भजिवमेतं, पुणो णव-सय-सत्तहोस - कोडि-प्रण्णास लक्ख-जोयणेहिं श्रम्भहियं होति । पुणो एक्क-लक्खबारस' - सहस्स पंच-सय- जोयणेहि गुणिद-रज्जूए होणं होवि । तस्स ठक्षणा - श्रण जोयणाणि ६३७५०००००० रिण - रज्जूओ ७ । ११२५०० - अर्थ- इसमें से अन्तिम विकल्प कहते हैं- स्वयम्भूरमण समुद्र के नीचे जम्बुद्वीपको छोड़कर जितने द्वीप - समुद्र हैं उन सबका क्षेत्रफल राजूके वर्गको तिगुना करके सोलहका भाग देनेपर जो लब्ध १. ब. बारसहस्स । २. द. ब. दवणा - ४६ । १६ । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २७० प्राप्त हो उतना और नो सौ सैंतीस करोड़ पचास लाख योजन अधिक एवं एक लाख बारह हजार पांच सौ योजन से गुणित राजूसे होन है । उसको स्थापना इस प्रकार है- ३×( राज )* ) +९३७५०००००० वर्ग यो० } — राजू ४ ११२५०० यो० ) ( १६ इट्टादो हेमि-दीवोवहीणं पिउफलमाणयण गाहा-सुतं- sfor-ataबहीए, विक्सभायामयम्मि अवर्णज्जं । इrि - ब लक्ख सेसं, ति हिवं इच्छा हेट्ठिमाणफलं ॥ २७० ॥ अर्थ — इच्छित द्वीप या समुद्रसे प्रधस्तन द्वीप समुद्रोंके पिण्डफलको प्राप्त करने हेतु यह गाथा सूत्र है इच्छित द्वीप या समुद्र विष्कम्भ एवं आयाममें से क्रमश: एक लाख और नौ लाख कम करे । पुनः शेष (के गुणनफल ) में तीनका भाग देनेपर इच्छित द्वीप या समुद्रके ( जम्बूद्वीपको छोड़कर ) अधस्तन द्वीप समुद्रों का पिण्डफल प्राप्त होता है ।। २७० ॥ विशेषार्थ -- गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है- इष्ट द्वीप या समुद्रसे अधस्तन द्वीप - समुद्रोंका सम्मिलित पिण्डफल विस्तार 2 ( इष्ट द्वीप या स० का विस्तार १००००० ) x [ { ( इष्ट द्वीप या स० का १०००००)×९} ९००००० ] ÷३ । उदाहरण - मानलो--यहाँ नन्दीश्वर द्वीप इष्ट है । जिसका विस्तार १६३८४००००० योजन है ओर श्रायाम [ ( १६३८४००००० - १००००० ) x ९ = ] १४७४४७००००० योजन है । श्रतः लवणसमुद्र से क्षौद्रवरसमुद्रका पिण्डरूप - = क्षेत्रफल - ( १६३८४००००० १६३८३००००० X १४७४३८००००० - १००००० ) x (१४७४४७००००० ९ ला०)÷३ -- =८०५१५८९१५०००००००००० वर्ग योजन । इसोप्रकार जम्बूद्वीप और स्वयम्भूरमण समुद्रके मध्यवर्ती समस्त द्वीप- समुद्रोंका - Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो महाहियारो गाथा : २७१ ] क्षेत्रफल= [ १०९ = (THE +७५०००-१००००० )x [ ( जम +७५०००-१००००० } x९९००००० ] :- ३ = ( जगः –२५००० ) x [ ( जगः-२५००० )४९-९०.०००३ = ( अगः –२५०००}x[ ( ९ जग० --२२५००० )-९००००० ] ३ = ( जगः -- २५०००) x { ९ जन० – ११२५०००) * ३ = (१० २५००० ) ४ ( १ ज – १९९५.०५.) = ( ० -२५०.. ) x ( ३ जग० –३७५००० ) ==३x {जग०) : जग० x { ३७५००० + ७५००० ) यो० + २५०.०४ ३७५००० वर्ग योजन। -३४ (जगः-जग: x(४५००००)यो + ९३७५०००... वर्ग यो । (२८९७४४ -- (११२५००) यो०+९३७५००.००० वर्ग यो । -३ (राजू०) + (५३७५०००००० ) वर्ग यो - ( राजू ४ ११२५०० यो०)। = x + ६३७५०००००० - ४११२५७ ० । सादिरेयस्स आणयणटु गाहा-सुतं-- इच्छिय-वासं दुगुणं, दो-लक्खूणं ति-लक्स-संगुणियं । जंबूदोष - फलूणं, सेसं तिगुणं हवेदि अविरेगं ॥२७१॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती अर्थ -- सातिरेकका प्रमाण प्राप्त करने हेतु यह गाथा सूत्र है इच्छित द्वीप या समुद्र के दुगुने विस्तारमेंसे दो लाख कम करके शेष को तीन लाखसे गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे जम्बूद्वीप के क्षेत्रफलको कम करके शेषको तिगुना करने पर अतिरेक ( प्रक्षेपभूत) का प्रमाण प्राप्त होता है ।। २७१ || ११० ] गाथानुसार सूत्र इस प्रकार है वरित अतिरेक प्रमाण = ३ [ १२ × इष्ट द्वीप या स० का विस्तार -- २०००००१४ ( ३००००० ) - ३४ ( १००००० ) ] [ गाधा २७१ उदाहरण - मानली यहाँ पुष्करवर समुद्र इष्ट है। जिसका विस्तार ३२००००० लाख योजन है । इसका प्रक्षेपभूत ३ x प्रतिरेक प्रमाण = ३ [ १२ × ३२००००० २००००० } ४ ३००००० - २५०००००० ] H -- - ३ [ ६२००००० × ३००००० ७५०००००० ] =३x[ १८५२५०००००००० ]= ५५५७५०००००००० वर्ग योजन । अर्थात् पुष्करवर द्वीप क्षेत्रफलको तिगुनाकर ५५५७५४ (१०) ' जोड़ देनेसे पुष्करवर समुद्रका क्षेत्रफल प्राप्त होता है । चौदहवाँ - पक्ष अधस्तन समुद्र के विष्कम्भ और आयामसे उपरिम समुद्रका विष्कम्भ और आयाम कितना अधिक होता हुआ गया है ? उसे कहते हैं - २०००००, चोसम - क्ले अपबहुलं वत्तइस्लामो - लवणसमुहस्स विवखंभं वेण्णि-लक्खं आयाम व लक्ख ६००००० । कालोवगसमुद्द-विषखंभं प्रटु-लक्खं ८०००००, आयामं तेसट्ठि लक्खं ६३००००० | पोक्खरवरसमुद्दस्स विक्खंभं बसोस - लक्ख श्रायामं एक सीवि - लक्खेण भहिप-बे-कोडीओो होइ २७६००००० । एवं हेट्टिम-समुद्द- विषखंभादो जयरिम-समुहस्स विक्कभं चउग्गुणं, प्रायामादो आयामं चउग्गुणं सत्तावीस लक्ष्येहि अग्भहियं होऊण गच्छइ जाव सयंनूरमणसमुद्दो ति ॥ ३२०००००. २ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७१ } पंचमो महाहियारो | ११? अर्थ-चौदहवें पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं-लवणसमुद्रका विस्तार दो लाख योजन और आयाम नौ लाख योजन है । कालोदक समुद्रका विस्तार आठ लाख योजन और आयाम निरेमठ लाख ६३००००० योजन है । पुष्करवरसमुद्रका विस्तार ३२ लाख योजन और आयाम दो करोड़ उन्यासी लाख २७६००००० योजन है। इस प्रकार अधस्तन समुद्र के विष्कम्भसे उपरिम समुद्र का विष्कम्भ चौगुना तथा आयाम से आयाम चौगुना और २७ लाख योजन अधिक होकर स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त चला गया है। विशेषार्थ-अधस्तन समुद्रको अपेक्षा उपरिम समुद्रका विस्तार चार गुना होता हुआ जाता है । यथा-- कालो० स० का वि० ८००००० यो०- ( ल० स० का बि० २००००० )४४ । पुष्कर० स० का वि० ३२००००० गोल - ( काम का वि० ८०००००) ४४ । बाहरणी स० का वि० १२८००००० यो० =(पु० स० का वि० ३२०००००) x ४ प्रादि । अधस्तन समुद्रकी अपेक्षा उपरिम समुद्रका आयाम चौगुना और २७००००० योजन अधिक होता हुआ जाता है । यथा--- कालोद समद्रका मायाम ६:००००० योo - ( ६ लाख x ४ )+: ५ लाख । पुष्कर० स० का आयाम २७९००००० यो-(६३००० ००५ ४) + २७०० ००० यो । वारुणी स० का आयाम ११४३००००० यो =(२७९ लाख ४४) + २५००० ० ० योः । अधस्तन समुद्रके क्षेत्रफलसे उपरिम समुद्रका क्षेत्रफल लवणसमुद्दस्स खेतफलादो कालोदक समुदस्स खेत्तफलं अट्ठावीस - गणं, कालोदकसमुहस्स खेत्तफलादो पोक्खरवर-समुदस्स खेत्तफलं सत्तारस-गणं होऊण तिष्णिलक्ख-सट्रि-सहस्स-कोडि-जोयणेहि अन्भहियं होदि ३६०००००००००००। पोक्खरवर. समस्स खेत्तफलादो वाणिवर समुदस्स खेतफलं सोलस-गुणं होऊण पुणो चोसीस-लक्खछप्पण्ण-सहस्स-कोडि-जोयरहि प्रभाहियं होदि ३४५६००००००००००। एतो पहदि हेष्ट्रिम-णीररासिस्स खेत्तफलादो तवणंतरोधरिम-णोररासिस्स खेतफलं सोलस-गणं पक्खेवभूद-चोतीस-लक्ख-छप्पण्ण-सहस्स-कोडि-जोयणाणि चउग्गुणं होऊण गच्छा जाव सयंभरमणसमुद्दो त्ति ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २७१ अर्थ – लवणसमुद्रके क्षे त्रफलसे कालोदकका क्षेत्रफल अट्ठाईस गुना और कालोदक - समुद्र के क्षेत्रफल से पुष्करवरसमुद्रका क्षेत्रफल सत्तरह गुना होकर तीन लाख साठ हजार करोड़ योजन अधिक है ३६००००००००००० । पुष्करवरसमुद्रके क्षेत्रफलसे वारुणीवरसमुद्रका क्षेत्रफल सोलहगुना होकर चौतीस लाख छप्पन हजार करोड़ योजन अधिक है ३४५६००००००००००१ यहाँसे आगे ग्रधस्तन समुद्रके क्षेत्रफलसे अनन्तर उपरिम समुद्रका क्षेत्रफल स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त क्रमशः सोलह-गुना होने के प्रतिरिक्त प्रक्ष ेपभूत चौंतीस लाख छप्पन हजार करोड़ योजनोंसे भी चौगुना होता गया है । 1 विशेषार्य - जम्बूद्वीपका क्ष ेत्रफल ३४ (५००००) वर्ग योजन है । जिसका मान १ खण्ड शलाका है। इसप्रकार लवणसमुद्रकी २४, कालोदककी ६७२, पुष्करवरसमुद्रकी ११९०४ और वारुणीवरसमुद्रको १९५०७२ खण्ड-शलाकाएँ हैं । लवर समुद्रके ( २४ खं० श० स्वरूप ) क्षेत्रफलसे कालोदक-समुद्रका क्षेत्रफल २८ गुना । यथा कालोदकका क्षेत्रफल ६७२ खं० श० प्रमाण- ( २४ खं० श० x २८ ) कालोदके क्षेत्रफलसे पुष्करवरसमुद्रका ( ११९०४ खण्डशलाका स्वरूप ) क्षेत्रफल १७ गुने से ३६४ (१०) ११ वर्ग योजन अधिक है । जो ११९०४ - ( ६७२४१७ ) = ४८० बं० श० प्रमाण है । यथा ११९०४=( ६७२ × १७ खं० ० ) + [ ४८० X ३ (५०००० ) ] = ६७२ १७० श० ) + ४८० ७५०००००००० वर्ग यो० । == ६७२ × १७ खं० श० + ३६००००००००००० वर्ग योजन । पुष्करवर समुद्र के क्षेत्रफल से वाइपीवरसमुद्रका ( १९५०७२ खण्ड शलाका स्वरूप ) क्षेत्रफल १६ गुने से ३४५६४ (१०) १० वर्गयोजन अधिक है। जो १९५०७२ - ( ११९०४ १६) = ४६०८ खण्डशलाका प्रमाण है । यथा— १९५०७२=(११९०४ १६ खं० श० ) + [४६०८४३ (५०००० ) * ] = ( ११९०४×१६ बं० श० ) + ४६०८४७५०००००००० वर्ग यो० =११९०४ × १६ खं० श० + ३४५६०००००००००० वर्ग योजन । इससे आगे श्रधस्तन समुद्रके क्षेत्रफलसे उपरिम समुद्रका क्षेत्रफल अन्तिम समुद्र पर्यन्त क्रमशः १६ गुना होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत ३४५६४ (१०) १० वर्ग योजनोंसे भी चौगुना होता गया है । यथा 1 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७१ ] पंचमी महाहियारो [ ११३ मानलो - क्षीरवरसमुद्र इष्ट है। इसका विस्तार ५१२००००० यो० और खण्डशलाकाएं ३१३९५६४ हैं । अधिक हैं । ३१३९५८४ – ( १९५०७२ x १६ खं० श० ) = १८४३२ खं० श० वारुणी समुद्र से ३१३९५८४=(१९५०७२४१६ बं० श० ) + १८४३२४३ (५०००० ) 2 ] = ( १९५०७२ ×१६ खं० श० ) + १३८२२४०००००००००० वर्ग यो० है । क्षीरवर समुद्रका यह १३८२२४४ (१०) १० वर्ग योजन प्रक्षेप वारुणीवर समुद्र के ३४५६४ (१०) १* वर्ग योजनसे ४ गुना है । तत्थ विवखभायाम खेत्तफलागं अंतिम वियप्पं बस इस्सामो अर्थ - उनमें विस्तार, आयाम और क्षेत्रफलके अन्तिम विकल्पको कहते हैंअहीन्द्रवर समुद्रका विस्तार और आयाम १३ अहिंदवरसमुद्दस्स विक्खंभं रज्जूए सोलस-भागं पुरणो अट्ठारस- सहस्स सससयपणास जोयणेहि अम्भहियं होदि । तस्स ठषणा ७ । २. धण जोयपाणि १८७५० । तस्स श्रायाम णव रज्जू ठविय सोलस-रूवेहि भजिदमेतं पुणो सप्त-लक्खएक्कलीस-सहस्स वेण्णि-सय-पण्णास जोयणेहि परिहीणं होदि । तस्स ठवरणा-७ रिण जोयणाणि ७३१२५० ।। अर्थ - अहीन्द्रवर समुद्रका विस्तार राजूका सोलहवाँ भाग और अठारह हजार सात सौ पचास योजन अधिक है। उसकी स्थापना इसप्रकार है: - राजू +१८७५० यो० । 1 इस समुद्रका आयाम नौ राजुओोंको रखकर सोलहका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से सात लाख इकतीस हजार दो सौ पचास योजन हीन है। उसकी स्थापना - १६ राजू योजन || ७३१२५० विशेषार्थ - अहोन्द्र व रसमुद्रका विस्तार - राजू X १६ + १८७५० योजन है । इसी समुद्रका आयाम = ( राज + १८७५० - १००००० } xx "" ९, राजू - ( ८१२५० x ९ ) = ९ राजू – ७३१२५० योजन । - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती स्वयम्भूरमणसमुद्रका विस्तार और आयाम— सयंसूरमणसमुदस्स विक्खंभं एक्क-सेढि ठfषय अट्ठावीस-रूवेहि भजिवमेत्तं पुणो पंचहतरि सहस्स- जोयणेहि अब्भहियं होषि । तस्स ठेवणा- धण जोयणाणि ७५००० । जस्सेव प्रायामं णव-सेढि ठविथ अट्ठावीसेहि भजिदमेत्तं पुणो दोणि-लक्खपंचवीस- सहस्स - जोयणेहि परिहोणं होदि । तस्स ठेवणा- २ । रिण जोयणाणि २२५००० । ११४ ] अर्थ – स्वयम्भूरमणसमुद्रका विस्तार एक जगच्छु णीको रखकर उसमें अट्ठाईसका भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना और पचहत्तर हजार योजन अधिक है । उसकी स्थापना - जग० :- ७५००० योजन 1 द [ गाथा : २७१ उसका श्रायाम नो जगच्छ्र गियोंको रखकर अट्ठाईसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें दो लाख पच्चीस हजार योजन कम है । उसकी स्थापना - जग० ई २२५००० योजन विशेषार्थ -- स्वयम्भूरमण समुद्रका विस्तार जग० + ७५००० योजन । 2 स्वयम्भूरमण समुद्रका आयाम = ( + जग० + ७५००० - १००००० )×९ श् २२५००० योजन | ९ जग० २८ अहीन्द्रवर समुद्रका क्षेत्रफल श्रविवरसमुद्दस्स खेसफलं रज्जूए कढी नव-रूवेहि गुणिय बेसद छप्पण्ण-रूवेहि भजिदमेत्तं पुणो एक लक्ख चालीस - सहस्स छस्सय पंचवीस-जोयणेहि गुणिय मेत्तं रज्जूए भागं पुणो एक्क सहस्स-तिष्णि सय एक्कहतरि कोडीओ णव - लक्ख- सत्ततीस-सहस्सरिण रज्जू तस्स ठवणापंच-सय-जोयणेहि परिहीणं होदि । १४०६२५ रिण जोरपारि १३७१०६३७५०० 1 - 1 अर्थ- होन्द्रवरसमुद्रका क्षेत्रफल राजुके वर्गको नौसे गुणाकर दो सो छप्पनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमेंसे एक लाख चालीस हजार छह सौ पच्चीस योजनोंसे गुपित राजू का चतुर्थ भाग और एक हजार तीन सौ इकहत्तर करोड़ नौ लाख सैंतीस हजार पाँचसौ योजन कम है । स्थापना इस प्रकार है -- H ! 2 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७१ ] ९ रा २५६ = पंचमी महाहियारो -- ( राजू है × १४०६२५) १३७१०९३७५०० । विशेषार्थ – महीन्द्रवरसमुद्रका क्षेत्रफल = प्रायाम x विस्तार ( राजू - ७३१२५० ) x ( ६ राजू + १८७५० ) - ९ (राजू) + | राजू {६ × १६७५० – ४७३१२५० } | – ७३१२५० × १८७५० =९ (राजू)*+ [ राजू× ८७ १६२६४२५ ) ] – १३७१०६३७५०० = ९ (राज)' – ( राजु × १४०६२५ ) -- १३७१०६३७५०० वर्ग यो० । स्वयम्भूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल - == सयंमूरमण - णिष्णग-रमणस्स खेतफलं रज्जूए कदी जम-रूवेहि गुणिय सोलसरूहि भजिवमेत्तं पुणो एक्क- लक्ख-बारस- सहस्स-पंच सय जोयणेहि ( गुणिद- रज्जूए ) अम्भहियं पुणो एक्क- सहस्स- इस्सय सत्तासीदि-कोडि-पण्णास-लख-जोयणेहि परिहीणं होदि । तस्स ठवरणा । धण रज्जू ७ । ११२५०० रिण जोयणाणि १६८७५०००००० || अर्थ – स्वयम्भूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल राजूके वर्गको नौसे गुणा करके सोलहका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना होकर एक लाख बारह हजार पाँचसो योजनोंसे गुणित राजूसे अधिक और एक हजार छह सौ सतासी करोड़ पचास लाख योजन कम है। उसकी स्थापना इसप्रकार है १६८७५०००००० ९. राजू 2 + ( राजू × ११२५०० यो० ) विशेषार्थ - स्वयम्भूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल -- आयाम x विस्तार - (Sa जग० [ ११५ - २२५००० यो० ) x (जग० + ७५००० यो० ) e (जग० = 2 ( 1 ) - + जग० [(२५ × ७५०००) (X२२५०००)]- २२४०००७१००० । जग०) २८ * To ) 2 जग० + × [१६८७५० – ५६२५० ] – २२५००० ७५००० यो० । 19 =2(राज्)* + राजू × ११२५०० यो० - १६८७५०००००० वर्ग योजन । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] तिलोयपणती [ गाथा : २७२ अदिरेयस्स पमाणं आणयण-हेदु इमं गाहा-सुत्तं-- वाररिगवरावि-उपरिम-इच्छिय-रयणायरस्स रुवातं । सत्तायीसं लक्खे गुणिदे, अहियस्स परिमाणं ॥२७२॥ अर्थ-अतिरेकका प्रमाण प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र है वारुणीवर समुद्रको प्रादि लेकर उपरिम इच्छित समुद्रके विस्तारको सत्ताईस लाखसे गुणा करने पर अधिकतन: प्रासाला होता है । विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इस प्रकार हैवरिणत अतिरेक धन- ( उपरिम इच्छित समुद्रका विस्तार) x २७००००० । उदाहरण-मानलो-यहां क्षीरवरसमुद्रका अतिरेक धन प्राप्त करना इष्ट है। जिसका विस्तार ५१२००००० योजन है अतः क्षीर० स० का अतिरेक धन=५१२०००००४ २७००००० । =१३८२४०००००००००० योजन । पन्द्रहवाँ-पक्ष अधस्तनसमुद्रके ( पिण्डफल+प्रक्षेपभूत ) क्षेत्रफलसे उपरिम समुद्रका क्षेत्रफल कितना होता है ? पण्णारस-पक्खे अप्पबहुलं वत्तइस्सामो-तं जहा-लवरणसमुहस्स खेत्तफलादो कालोगसमुहस्स खेत्तफलं अट्ठावीस-गुणं । लवणसमुद्द-सहिद-कालोगसमुहस्स खेत्तफलादो पोक्लरवरसमुहस्स खेत्तफलं सत्तारस-गुणं होऊण चउवण्ण-सहस्स-कोरि-जोयणेहि प्रभहियं होदि ५४०००००००००० । लवण-कालोदग-सहिद पोक्खरवर-स मुद्दस्स खेत्तफलादो वारुणिवर-णीररासिस्स खेत्तफलं पण्णारस-गुणं होऊण पणदाल-लक्ख-चउवष्णसहस्स-कोरि-जोयणेहि अउहियं होइ ४५५४०००००००००० । एवं वारुणिवरणोरगसिप्पहवि-हेछिम-णीररासीणं खेत्तफल-समूहावो उरिम-णिण्णगणाहस्स खेचफलं पत्तेय पण्णारस-गुणं पक्खेवमूद-पणदाल-लक्ख-घउवण-सहस्स-कोडीयो चउग्गुणं होऊण पुणो एक्क-लक्ख-बासट्ठि-सहस्स-कोरि-जोयणेहि अमहियं होइ १६२०००००००००० । एवं दव्यं जाय सयंभूरमणसमुद्दो त्ति । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७२ ] पंचमो महाहियारो [ ११७ अर्थ - पन्द्रहवें पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं। वह इस प्रकार है- लवरणसमुद्र क्षेत्रफल से कालोदकसमुद्रका क्षेत्रफल अट्ठाईस गुरणा है । लवणसमुद्र सहित कालोदक समुद्रके क्षेत्रफलसे पुष्करवरसमुद्रका क्षेत्रफल सत्तरह गुणा होकर चौवन हजार करोड़ योजन अधिक है ५४०००००००००७ । लवण एवं कालोद सहित पुष्करवरसमुद्रके क्षेत्रफलसे वारुणीवर-समुद्रका क्षेत्रफल पन्द्रह गुना होकर पैंतालीस लाख चौवन हजार करोड़ योजन अधिक है ४५५४००००००००००। इसप्रकार वारुणीवरसमुद्रसे सब अधस्तन समुद्रांके क्षत्रफल समूहसे उपरिम समुद्रका क्षेत्रफल प्रत्येक पन्द्रह-गुरणा होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत पैंतालीस लाख चौवन हजार करोड़ योजनोंसे चोगुणा होकर एक लाख बासठ हजार करोड़ योजन अधिक है १६२०००००००००० इसप्रकार यह क्रम स्वयम्भूरमण - समुद्र पर्यन्त जानना चाहिए || विशेषार्थ - लवणसमुद्रके क्षेत्रफल से कालोदकका क्षेत्रफल २८ गुना है । यथा =६७९=२४४२८ खण्डशलाका स्वरूप है । लवणसमुद्र और कालोदकके ( २४ + ६७२ - ६९६ खण्डशलाकारूप ) क्षेत्रफलसे पुष्करवर समुद्रका ( ११९०४ खं० श० रूप ) क्षेत्रफल १७ गुना होकर [ ११९०४ – (६९६४१७) = ७२ खं० श० रूप ] ५४४ (१०) १० वर्ग योजन अधिक है । यथा वृद्धि सहित क्षेत्रफल ११९०४ = (६९६ × १७ खं० श० ) + ( ७२७५०००००००० ) = ( ६९६ × १७ खं० श० ) + ५४०००००००००० वर्ग योजन । लवणसमुद्र, कालोदक प्रौर पुष्करवरसमुद्रके ( २४ + ६७२ + ११९०४ = १२६०० खं० श० रूप ) क्षेत्रफलसे वारुणीवर समुद्रका ( १९५०७२ खं० श० रूप ) क्षेत्रफल १५ गुना होकर [१९५०७२ - (१२६००×१५) ६०७२ | खं० श० रूप ) ] ४५५४ ४ (१०) १० वर्ग योजन अधिक है । यथा— वृद्धि सहित क्षेत्रफल १९५०७२ खं० श० रूप- ( १२६००×१५ खं० श० ) + [ ६०७२ खं० श० X ७५ x ( १० ) ] = ( १२६०० × १५ खं० श० ) + ४५५४०००००००००० वर्ग यो ა इसप्रकार वारुणीवर समुद्र से लेकर सर्वं प्रधस्तन समुद्रोंके क्षेत्रफल समूह उपरिम समुद्रका क्षेत्रफल प्रत्येक १५ गुना होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत ४५५४ (१०) १० से ४ गुना होकर १६२४ (१०) १० वर्ग योजन प्रधिक है । यथा वारुणीवरसमुद्रसे उपरिम क्षीरवर समुद्रका विस्तार ५१२ लाख योजन है और इसकी खं० श० ३१३९५८४ हैं । जो लबसमुद्र, कालोबकसमुद्र, पुष्करवरसमुद्र और वारुणीवर समुद्रको Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २७२ ( २४+६७२ + ११९०४ + ११५०७२ ) - २०७६७२ सम्मिलित खण्डशला काओंसे १५ गुना होकर [३१३९५८४ - (२०७६७२४ १५ ) + २४५०४ खण्ड श० रूप ] ४५५४ ४ (१०) १० वर्ग योजनका ४ गुना होते हुए १६२ (१०) १० वर्ग योजन अधिक है । यथा क्षी० स० का क्षेत्र० ३१३९५८४ खं० श० रूप- ( २०७६७२ बं० श० x १५ ) + (२४५०४ ० ० ) है । अथवा २०७६७२ × १५ – ३११५०८० सं० श० रूप क्षेत्रफल + [ ४५५४ ४ (१०)१०x४= १-२१६४ (१०) ° ] + १६२०००००००००० वर्ग यो० है । अधिक धन प्राप्त करने की दूसरी विधि क्षीरवर समुद्रके क्षेत्रफल में अधिक धनका प्रमाण १६२०००००००००० वर्ग योजन प्रमाण है । इस अधिक धनकी एक शलाका मानकर उपस्मि समुद्रका अधिक वन अस्तन समुद्रकी शलाकासे १ अधिक ४ गुना होता है। इसका सूत्र इसप्रकार है इष्ट स० का अधिक धन = [ (अधस्तन स० की शलाका ४ ४ ) + १ ] x १६२४ (१०) १० घृतवरसमुद्रका अधिक धन == [ ( १x४ ) + १ ] × १६२४ (१०) १० =५× १६२ × (१०) १० = ८१००००००००००० वर्ग योजन है । लवणसमुद्र से ग्रहीन्द्रवरसमुद्र पर्यन्त के सब समुद्रों के क्षेत्रफलका प्रमाण -- तर अंतिम वियप्पं वस इस्सामो सयंभूश्मण- णिण्गग णाहावी हेट्ठिम-सथ्यगोररासीणं वेत्तफल- पमाणं रज्जूए वग्गं ति-गुणिय असीदि-रूवेहि भजिवमेतं पुणो एक्कसहस्स छस्सय-सलसीदि को डि- पण्णास' - लक्ख-जोयणेहि अग्भहियं होदि पुणो बावण्णसहस्स-पंच-सय-जोयणेहि गुणिद-रज्जूहि परिहीणं होदि । तस्स लवणा – ।। धण जोयणाणि १६८७५०००००० रिण रज्जुप्रो ७५२५०० । अर्थ – इसमें से अन्तिम विकल्प कहते हैं स्वयम्भूरमणसमुद्र के नीचे अधस्तन सब समुद्रोंके क्षेत्रफलका प्रमाण राजूके वर्गको तीनसे गुणा करके अस्सीका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतने प्रमाण होकर एक हजार छह सौ सतासी १. ६. ब. क. ज. पण्णारस । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७३ ] पंचमो महाहियारो [ ११९ करोड़ पचास लाख योजन अधिक और बावन हजार पाँच सौ योजनोंसे गुणित राजुसे हीन है । उसकी स्थापना - ( (राजू ) * x ३ 40 ) + १६८७५०००००० वर्ग योजन - राजू x ५२५०० वर्ग यो० ॥ स्वयम्भूरमणसमुद्रका क्षेत्रफल सयंमूरमणसमुहस्स खेतफलं रज्जूए वग्गं राव-रूवेहि गुणिय सोलस-रूहि भजिदमे, पुणो एक्क-लक्लं बारस सहस्त-पंच-सय-जोयणेहि गुणिद-रज्जू - श्रम्भहियं होइ, पुणो पण्णास लक्ख सत्तासीदि- कोडि - अब्भहिय छस्सय एक्क-सहत्स की जोयह तस्स ठरणा परिहोणं होदि । १६८७५००००००। ।। धण ७ t ११२५०० रिण अर्थ – स्वयम्भूर मरणसमुद्रका जो क्षेत्रफल है उसका प्रमाण राज्के वर्गको नौसे गुणा करके सोलहका भाग देनेपर जो प्राप्त हो उतना होनेके अतिरिक्त एक लाख बारह हजार पाँच सौ योजनोंसे गुणित राजूसे अधिक और एक हजार छह सौ सतासी करोड़ पचास लाख योजन कम है। उसकी स्थापना (राजू ) 2 × ९ १६ ४ 6 + ( राजू x ११२५०० वर्ग यो० ) - १६८७५०००००० वर्ग यो० । लम्बीणं आणयण - हेतुमिमं गाहा-सुतं - तिय- लक्खूपं अंतिम रु णव लक्ख- रहिद आयामो । पण्णरस - हिदे संगुण-लद्ध हेटिल्ल-सय- उबहि फलं ॥। २७३३ श्रधस्तन समस्त समुद्रोंका क्षेत्रफल अर्थ - इन वृद्धियोंको प्राप्त करने हेतु यह गाथा सूत्र है -- तीन लाख कम अन्तिम विस्तार और नौ लाख कम आयामको परस्पर गुणित करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें पन्द्रहका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना अधस्तन सब समुद्रोंका क्षेत्रफल होता है ।।२७३ ॥ विशेषार्थ - गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है इष्ट समुद्रका विस्तार - ३००००० ) x ( श्रायाम - ९००००० ) १५ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : २७४ उदाहरण-१. पुष्करवर समुद्रका विस्तार ३२००००० योजन और पायाम २७९००००० योजन है। वणित क्षेत्रफल - ( ३२०००००-३०००००) x (२७९००००० -- ९०००००) _२६०००००४२७०००००० -५२२०००००००००० वर्ग योजन। १५ यह पुष्करवर समुद्रके पूर्व स्थित लवण और कालोदसमुद्रका सम्मिलित क्षेत्रफल है । २. स्वयम्भूरमणसमुद्रसे अधस्तन समस्त समुद्रोंका क्षेत्रफल -- स्वयम्भूरमणसमुद्रका विस्तार = राजू + ७५००० योजन । स्वयम्भूरमणसमुद्रका अायाम = ९ राज – २२५००० योजन । स्वयं० समुद्रसे अधस्तन] _राजू + ७५०००-३००००००] » । राजू-२२५०००यो०-९०००००] समुद्रों का क्षेत्रफल । = [ राजू – २२५०००]x [ राजू – ११२५००० -९ राजू राजू [EX २२५०.०४ ११२५००० यो०]+(२२५००० x ११२५००० यो०) __३(राजू) ७८७५०० राजू यो २५३१५४ (१०) वर्ग योजन । -३ (राजू) -५२५०० राज यो०+ १६८७५४ १०' वर्ग योजन । यहां राजू योजन का अर्थ है राजुओका योजनोंके साथ गुणा करना । सादिरेय-पमारणमारणयरण-णिमित्तं गाहा-सुत्तं तिविहं सूइ-समूह, वारुणिवर-उवहि-पहुवि-उरिल्लं । चउ-लक्ख-गुणं अहियं, अदरस-सहस्स-कोडि-परिहोणं ।।२७॥ प्रपं--सातिरेक प्रमाण प्राप्त करने हेतु यह गाथा सूत्र है वारुणीवरसमुद्र आदि उपरिम समुद्रकी तीनों प्रकारकी सूचियोंके समूहको चार लाखसे गुणा करके प्राप्त राशि मेंसे अठारह हजार करोड़ कम कर देनेपर अधिकताका प्रमाण आता है ।।२७४।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ; २७४ ] पंचमो महाहियारो [ १२१ विशेषार्य-गाथानुसार सुत्र इसप्रकार हैवरिणत सातिरेकता = ( समुद्रको तीनों सूचियोंका योग )x४०००००-१८ x (१०). उदाहरण बारुणीवर समुद्र । -(२५३०००००+३८१००००० + ५०९००००० ) x ४००००० सम्बन्धी सातिरेकता । -१८०००००००००० । -- ४५५४०००००००००० वर्ग योजन । स्वयम्भूरमणसमुद्रकी अभ्यन्तर सूची ३ राजू-१५०००० योजन है, मध्यम सूची। राजू-७५००० यो० और बाह्य सूची १ राजू प्रमाण है । इन सूचियोंके सम्बन्धसे उक्त समुद्र सम्बन्धी ( रा०-१५००००) (१ रा.–७५००० यो०) + (१ राजू ) ] x सातिरेकता ४०००००–१८४(१०)१० यो । = [ रा० + ३ रा. + १ रा०)- २२५००० यो० ] x ४००००० - १८०००००००००० यो । - राजू ४४०००००)-९०००००००००० --- १००००००००००० योजन । -- ९००००० राजू--२७४ (१०)१° यो० । अधस्तन समुद्रोंके क्षेत्रफलका प्रमाण= [.(राज) ..५२५०० रा०४ यो +१६८७५४ (१०) वर्ग यो०] है। इसमें १५ का गुणाकर उपयुक्त सातिरेकताका प्रमाण जोड़ देनेपर स्वयंभूरमण समुद्रका क्षेत्रफल प्राप्त होता है | यथास्वमं० स० का क्षेत्र०=[* राजू -- ५२५०० रा०४ यो० + १६८७५४ (१०)"] x १५ + ९००००० रा०-२७४(१०) वर्ग योजन Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] तिलोयपपपत्ती ही राजू - ( ५२५०० रा० यो०४ १५–९००००० राजू) + [१६८७५४ १५४ (१०) --२७४ (१०)१० ] वर्ग यो० राजू २-(९८५५००-९०००००) रा० यो० + (२५३१२५००००००-- २७००००००००००) - राजू+ ११२५०० राजू x यो०-१६८७५.०००००० वर्ग योजन। सोलहवां-पक्ष अधस्तन द्वीपके विष्कम्भ और पायामसे उपरिम द्वीपका विष्कम्भ और आयाम कितना अधिक होता हुआ गया है ? उसे कहते हैंसोलसम-पक्खे अप्पबहलं वत्त इस्सामो। तं जहा--धादईसंडदीवस्स विक्खंभं चत्तारि-लक्खं, आयामं सत्तावीस-लक्खं । पोक्खवरदीव-विषखंभं सोलस-लक्खं, मायाम पणतीस-लक्ख-सहिय-एय-कोडि-जोयण-पमाणं । वारुणिवरदीव-विक्खंभं चउसद्धि-लक्खं, आयाम सत्तसटि-लक्ख-सहिय-पंच-कोडोओ। एवं हेट्ठिम-विषखंभादो उपरिम-विषखंभं चउग्गुणं, पायामाको मायाम चउग्गुणं सत्तावीस-लक्खेहि अम्भाहियं होऊण गच्छइ जाव सयंभूरमणदीओ ति॥ अर्श-सोलहवें पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इसप्रकार है-धातकीखण्डद्वीपका विस्तार चार लाख और आयाम सत्ताईस लाख योजन है। पुष्करवरद्वीपका विस्तार सोलह लाख और आयाम एक करोड़ पैतीस लाख गोजन है । वारुणीवरद्वीपका विस्तार चौंसठ लाख और आयाम पांच करोड़ सड़सठ लाख योजन है । इसप्रकार अधस्तन द्वीपके विस्तारसे तदनन्तर उपरिम द्वीपका विस्तार चौगुना और प्रायामसे पायाम चौगुना होनेके अतिरिक्त सत्ताईस लाख योजन अधिक होता हुआ स्वयम्भूरमरण-द्वीप पर्यन्त चला गया है। विशेषार्थ-अधस्तन द्वीपकी अपेक्षा उपरिम द्वीपका विस्तार ४ गुना होता हुया जाता है। यथा धातकी द्वीपका वि० ४००००० यो० = (जम्बूद्वीपका वि० १०००००) ४४ पुष्कर द्वीपका वि० १६००००० यो० =(घातकी०का विस्तार ४०००००)x४ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा : २७४ ] पंचमो महाहियारो [ १२३ वारुणी द्वीपका वि० ६४००००० यो०= (पुष्कर० का विस्तार १६०००००) ४४ अादि अधस्तन द्वीपके आयामकी अपेक्षा उपरिम द्वीपका पायाम चौगुना होनेके अतिरिक्त २७००००० योजन अधिक होता हुआ जाता है । यथा धातकी द्वीपका पायाम २७०० ००० यो०=( ४००००० - १००००० )४९ पुष्कर० द्वीपका पायाम १३५००००० यो० = (२७०००००४४) +२७००००० यो० । वारुणी द्वीपका आयाम ५६७००००० यो=(१३५०००००x४)+२७००००० यो. आदि। अधस्तनद्वीपके क्षेत्रफलसे उपरिम द्वीपका क्षेत्रफलधादईसोध-खेत्तफलादो पोखरवरदोषस्स खत्तफलं बीस-गुणं । पुक्खरयर. दीवस्स खेत्तफलादो थारुणीवरदीवस्स खेसफलं सोलस-गुणं होऊण सत्तारस-लक्खअठ्ठावीस-सहस्स-कोडि-जोयणेहि अभिहियं होइ १७२८००००००००००। एवं हेट्रिमबीवस्स खेत्तफलादो तदरतरोबरिम-दीवस्स खेत्तफलं सोलस-गुरगं पक्खेवभूद-सत्तारसलक्ख-अट्ठावीस-सहस्स-कोडीओ चउग्गुणं होऊण गच्छद जाव सयंभूरमणदोओ त्ति ।। अर्म-धातकीखण्डद्वीपके क्षेत्रफलसे पुष्करवरद्वीपका क्षेत्रफल बीस-गुना है । पुष्करवरद्वीपके क्षेत्रफलसे वारुणीवर द्वीपका क्षेत्रफल सोलह गुना होकर सत्तरह लाख अट्ठाईस हजार करोड़ वर्ग योजन अधिक है १७२८०००००००००० । इसप्रकार स्वयम्भूरमण-द्वीप पर्यन्त अधस्तन द्वीपके क्षेत्रफलसे अनन्तर उपरिम द्वीपका क्षेत्रफल सोलह गुना होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत सत्तरह लाख अट्ठाईस हजार करोड़ योजनोंसे चौगुना होता गया है ।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल ७५४ (१०) वर्ग योजन है । इसकी एक शलाका मानी गई है । इसी मापके अनुसार धातकी खण्डकी १४४, पु० द्वीपकी २८८० और बारुणी० द्वीपकी ४८३८४ खण्डशलाकाएं हैं। धातकीखण्डद्वीपके क्षेत्रफलसे पुष्करवरद्वीपका क्षेत्रफल २० गुना है। यथापुष्करवरद्वीपका क्षेत्रफल २८८० खं० श० प्रमाण-१४४४२० । पष्करवरद्वीपके क्षेत्रफलसे वारुणीवरद्वीपका क्षेत्रफल १६ गुना होकर १७२८४ (१०१० वर्ग यो० अधिक है । जो ४८३८४ - ( २८८० x १६ खे० श० )=२३०४ खंड श० प्रमाण है। यथा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] तिलोमसी ४८३८४= ( २८८० × १६ खं० श० ) + [ २३०४ खं० श० ४ ७५४ (१०) ' ] X = २८५० x १६+१७२८०००००००००० वर्ग योजन 1 इससे आग अधस्तु क्षेत्रफल रिम द्वीपका क्षेत्रफल अन्तिम द्वीप पर्यन्त क्रमशः १६ गुना होने के अतिरिक्त प्रक्षेपभूत १७२८४ (१०) १० वर्ग योजनोंसे भी चोगुना होता गया है। यथा [ गाथा : २७४ मानलो - क्षोरवरद्वीप इष्ट है । इसका विस्तार २५६ लाख योजन और खण्डशलाकाएं ७८३३६० हैं - ७८३३६० खं० श० - (४८३८४४१६ खं० श० ) - ६२९६ खं० श० वारुणी द्वीपसे अधिक हैं ७८३३६०- ( ४८३८४ X १६ खं० श० ) + ( ९२१६७५४ (१०) = ( ४८३८४४१६ खं० श० ) + ६९१२०००००००००० वर्ग योजन । क्षीरवरद्वीपका यह ६९१२४ ( १० ) १० वर्ग योजन प्रक्षेप वारुणीवरद्वीप के १७२८४ (१०) १० वर्ग योजनसे ४ गुना है । एत्थ विभायाम खेत्तफलाणं अंतिम वियध्वं यत्तइस्सामो श्रथ - उनमें विस्तार, आयाम और क्षेत्रफलका अन्तिम विकल्प कहते हैं-श्रहीन्द्रवरद्वीपका विस्तार और प्रायाम 3 विरदीचस्स विषखंभं रज्जूए बत्तीसम-भागं पुणो णव सहस्स- तिष्णि-सयपंचसरि जोयणेहि प्रभहियं होदि । श्रायामं णव- रज्जू उविय बत्तीस रूबेहि भागं धत्तूण पुणो अट्ठ-लख- पण्णारस - सहस्स छस्सय पणवीस जोयणेहि परिहीणं होइ । तस्स ठेवणा। ३२ पण जोयणाणि ६३७५ । आयामं ७ । । रिण जोयणाणि ८१५६२५ । अर्थ- हीन्द्रवरद्वीपका विस्तार राजूके बत्तीसवें भाग और नौ हजार तीन सौ पचास योजन अधिक है तथा इसका आयाम नौ राजुओंको रखकर बत्तीसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से आठ लाख पन्द्रह हजार छह सौ पच्चीस योजन हीन है । उसकी स्थापना इसप्रकार है विस्तार == राजू १३ + ६३७५ यो० । आायाम = राजू 3 = १५६२५ यो० । राजू x २ + ६३७० योजन । विशेषा - श्रहीन्द्रवरद्वीपका विस्तार इसी द्वीपका आयाम = ( राजू X ३३ + ९३७० १०००००) ४९ = ९ राज - ( ९०६३० ४९ ) = ९ राजू - ६१५६७० योजन । — Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७४ ] पंचमो महाहियारो [ १२५ अहीन्द्रवर द्वीपका क्षेत्रफल___ अहिंदवरदीवस्स खेतफलं रज्जूए वगं णव-रूबेहि गुणिय एषक-सहस्स-च उवीस रूवेहि भजिवमेतं, पुणो रज्जए सोलसम-भागं ठबिय तिण्ण-लक्ख-पंच-सटि-सहस्स-छस्सयपणवीस-जोयणेहि गुणिवमेत परिहीणं होदि, पुणो सत्तसय चउटि-कोडि-च उसद्धिलक्ख-चउसीदि-सहस्स-ति-सय-पंचहत्तरि-जोयणेहि परिहीणं होदि । तस्स ठवणा-- । ६. रिण रखको ७ .. रिभ कोषमाणि ७६४६४८४३७५ । अर्थ-अहीन्द्रवरद्वीपका क्षेत्रफल राजूके वर्गको नौसे गुणा करके एक हजार चौबीसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमेंसे, राजूके सोलहवें भागको रखकर तीन लाख पैसठ हजार छह सौ पच्चीस योजनोंसे गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उतना कम है, पुनः सातसो चौंसठ करोड़ चौसठ लाख चौरासी हजार तीन सौ पचहत्तर योजन कम हैं । उसकी स्थापना इसप्रकार है९.राजू--( रा० ११४३६५६२५ यो०)-७६४६४८४३७५ । __विशेषार्थ-अहीन्द्रवरद्वीपका क्षेत्रफल विस्तार आयाम ! = ( राज+९३७५ ) x ( ९ राजू-८१५६२५ यो० ) =९ (राजू) + राज़ - [ ( ९३७५४९ )-८१५६२५ यो०]-९३७५४ ८ १५६२५ वर्ग यो । = १ राजू -राज ७३१२५० यो० - ७६४६४८४३७५ वर्ग यो० । == ९ राज---राजू x ३६५६२५ यो० -- ७६४६४८४३७५ वर्ग योजन । स्वयम्भूरमणद्वीपका विस्तार एवं आयामसयंभूरमणदोवस्स विक्खंभं रज्जए अट्टम-भागं पुणो सत्सत्तीस-सहस्स-पंचसयजोयणेहि प्रभाहियं होदि, आयामं पुणो णव-रज्जूए अट्ठभ-भागं पुरषो पंच-सपख-बासद्धिसहस्स-पंच-सय-जोयणेहि परिहोणं होई । तस्स ठवणा -७ । धरण जोयणाणि ३७५०० । प्रायाम ७ । रिण जोयणाणि ५६२५०० ।। अर्थ –स्वयम्भूरमणद्वीपका विस्तार राजूका आठवा भाग होकर सैंतीस हजार पाँच सौ योजन अधिक है और इसका पायाम नौ राजुओंके आठवें भागमेंसे पाँच लाख बासठ हजार पाँच सौ योजन हीन है । उसकी स्थापना इसप्रकार है वि०= राजू + ३७५०० यो । आयाम= राजू-५६२५०० यो० ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ । तिलोयपगत्ती [ गाथा : २७४ विशेषार्थ स्वयम्भूरमरणद्वीपका विस्तार- राजू + ३७५०० योजन । स्वयम्भूरमणद्वीपका पायाम- ( राज -+३७५०० – १०००००)- १ = ९रा-५६२५०० योजन है । स्वयम्भूरमरणद्वीपका क्षेत्रफलपुरणो खेत्तफलं रज्जूए कदी णव-रूवेहि गुणिय चउसट्ठि-रूवेहि भजियमेतम्मिपुणो रज्जू ठधिय अट्ठावीस-सहस्स-एक्कसय-पंचवीस-रूवेहि गुरिसदमेत्ता, पुणो पण्णाससहस्स-सत्तत्तीस-लक्ख-णव-कोडि-अब्भहिय-दोणि-सहस्स-एक्कसय-कोडि-गोयणं एदेहि' दोहि रासोहि परिहोणं पुग्विल्ल-रासी होदि । तस्स ठवरणा- रिण रज्जनो छ । २८१२५ रिण जोयणाणि २१०९३७५०००० ॥ अर्थ-पुनः इस ( स्वयम्भूरमण ) द्वीपका क्षेत्रफल राजूके वर्गको नौसे गुणा करके प्राप्त राशिमें चौंसठका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमेंसे, राजूको स्थापित करके अट्ठाईस हजार एक सो पच्चीससे गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसे और दो हजार एकसौ नौ करोड़ संतीस लाख पचास हजार योजन, इन दो राशियोंको कम कर देनेपर अवशिष्ट पूर्वोक्त राशि प्रमाण है । उसकी स्थापना इसप्रकार है- राजू – ( रा० १४२८१२५ यो० ) – २१०९३७५०००० ।। विशेषार्थ-स्वयम्भूरमणद्वीपका क्षेत्रफल = विस्तार आयाम इस द्वीपका विस्तार= राम+३७५०० योजन है और पायाम- ९राज -- ५६२५०० यो० है । इस द्वीपका क्षेत्रफल=(राज़ + ३७५०० यो० )x { ९रा०-५६२५०० यो० ) = ९राज + राज [EX ३७५००---५६२५०० यो०]–३७५०० ४ ५६२५०० ] = ९राजू + (राजू x २८१२५ यो०)-२१०९३७५०००० वर्ग यो । = राजू-२८१२५ राजू यो०--२१०९३७५०००० वर्ग योजन। १. द. एवे हृदाइ, . एदे हवाह । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७५ ] पंचमो महाहियारो [ १२७ अदिरेयस्स पमाणारयण-हेदुमिमा सुत्त-गाहा सग-सग-मझिम-सूई, णव-लक्ख-गुणं पुणो वि मिलिदव्वं । सत्तावीस • सहस्सं, कोडोयो तं हवेदि अदिरेगं ॥२७॥ अर्थ – अतिरेकका प्रमाण प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र है--- अपनी-अपनी मध्यम-सूचीको नौ लाखसे मुरणा करके उसमें सत्ताईस हजार करोड़ और मिला देनेपर वह अतिरेक-प्रमाण होता है ।।२७५॥ विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैअतिरेक का प्रमाण-(निज मध्यम सूची ४९०००००)+२७४ (१०) वर्ग योजन । उदाहरण-(१) वारुणीवरद्वीपको मध्यम सूचीका प्रमाण १८९ ला० योजन है । वारुणी० द्वीप सम्बन्धी अतिरेक-प्रमाण-( १८६०००००४६०००००) + २७०००००००००० वर्ग योजन । -१७२८०००००००००० वर्ग योजन है। (२) स्वयम्भूरमणद्वीपकी मध्यम सूचीका प्रमाण ( ई रा०–१८७५०० यो० ) है। इसके अतिरेक प्रमाण = [( रा०-१८७५०० यो०) x ९०००००+२७ x { १० )" वर्ग यो -( है रा० x ९००००० यो०)-(१८७५००४ ९०००००) + २७०००००००००० वर्ग योजन = २७०१००० रा. यो० -- १६८७५००००००० + २७०००००००००० वर्गयो. -३३७५०० रा० यो० + १०१२५००००००० वर्ग योजन है। इस अतिरेकके प्रमाणमें अहीन्द्रवरद्वीपका १६ गुना क्षेत्रफल जोड़ देनेपर स्वयम्भरमणद्वीपका क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है । यथा ( अहीन्द्रवर द्वीपका १६ गुना क्षेत्रफल = राजू -- ३६५६२५ रा. यो. -- १२२३४३७५०००० वर्ग यो०)+ (अतिरेकका प्रमाण-३३७५०० रा० यो०+१०१२५००००००० वर्ग यो०)। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] तिलोयपणात्ती [ गाथा : २७५ राजू-२८१२५ रा. यो०-२१०६३७५०००० वर्ग योजन स्वयम्भूरमण द्वीपका क्षेत्रफल है। सत्तरहवा-पक्ष अधस्तन द्वीपके ( पिण्डफल+प्रक्षेपभूत ) क्षेत्रफलसे उपरिम समुद्र का क्षेत्रफल कितना होता है ? सत्तारसम-पक्खे अप्पबहुलं वत्त इस्सामो । तं जहा-घादईसंड-खेत्तफलादो पक्खरवरखीवस्स खेत्तफलं बीस-गुणं । धादईसंड - सहिद - पोखरवरदीव - खेत्तफलादो वारुणिवर-खेत्तफसं सोलस-गुणं । धादईसंड-पोषखरवरदीव-सहिय-वारुणियरदीव-खेत्तफलादो खीरवरवीव-खेत्तफलं पण्णारस-गुणं होऊण सीदि-सहस्स-सहिय-एक्काणउवि-लक्खकोडीनो अम्भहियं होइ ६१८०००००००००००। एवं खीरवर-दीव-प्पहुवि अभंतरिमसध-वीव गउवि-लक्ख-कोडोप्रो चउग्गुणं होऊण एयलक्ख-अट्ठ-सहस्स-कोडि-जोयणेहि अभिहियं होइ १०८०००००००००० 1 एवं रणेदवं जाव सयंभूरमण-दीनो ति ।। प्रयं-सत्तरहवें पक्षमें अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इसप्रकार है-धातकीखण्डके क्षेत्रफलसे पएकरवरद्वीपका क्षेत्रफल बीस गुना है । धातकीखण्ड सहित पुष्करवरद्वीपके क्षेत्रफलसे वारुणीवरदीपका क्षेत्रफल सोलह गुना है । धातकीखण्ड और पुष्करवरद्वीप सहित वारुणीवरद्वीपके क्षेत्रफलसे क्षीरवरद्वीपका क्षेत्रफल पन्द्रह गुना होकर इक्यान लाख अस्मी हजार करोड़ योजन अधिक है ९१८००००००००००० । इसप्रकार क्षीरवर प्रादि अभ्यन्तर सब द्वीपोंके क्षेत्रफलसे अनन्तर बाह्य भागमें स्थित द्वीपका क्षेत्रफल पन्द्रह गुना होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत इक्यानबै लाख अस्सी हजार करोड चौगुने होकर एक लाख आठ हजार करोड़ योजनोंसे अधिक है १०८००००००००००। यह क्रम स्वयम्भूरमणद्वीप पर्यन्त जानना चाहिए। विशेषार्ष-धातकीखण्डके क्षेत्रफलसे पुष्करबरद्वीपका क्षेत्रफल २० गुना है। यथा पु० द्वीपकी खं० श० २८८० =(धा० की खं० श० १४४)x२० । १. द. ब. कट्ठारस । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७५ } पंचमो महाहियारो [ १६ धातकीखण्ड और पुष्करबरदीपके ( १४४ +२८८०=३०२४ खं० श० रूप ) क्षेत्रफलसे वारुणीवरदीपका ( ४८३८४ खण्डशलाका रूप ) क्षेत्रफल १६ गुना है । यथा वारुणीवर द्वीपकी ख० श० ४८३८४ = ( ३०२४ ख श०) x १६ ! धातकीखण्ड, पुष्करवरद्वीप और बारुणीवरद्वीपके (१४४ + २८८० +४८३८४-- ५१४०८ ख० श० रूप ) क्षेत्रफलसे क्षीरव रद्वीपका ( ७८३३६० ख० श० रूप ) क्षेत्रफल १५ गुना होकर [७८३३६० ख० श० ---( ५१४०८ ख० श० x १५)=१२२४० ख० श० रूप ] ६१८४(१०)" वर्ग योजन अधिक है । यथावृद्धि सहित क्षेत्रफल ७८३३६० स्व० श० रूप=(५१४०८४१५ ख श०) + १२२४० वंश. x ७५४(१०) =( ५१४०८ x १५ ख० श० ) + ९१८००००००००००० वर्ग यो० इसप्रकार क्षीरवर आदि अभ्यन्तर सब द्वीपोंके क्षेत्रफलसमूहसे उपरिम द्वीपका क्षेत्रफल प्रत्येक १५ गुना होनेके अतिरिक्त प्रक्षेपभूत ९१८ x (१०)" से ४ गुना होकर १०८ x (१०)° वर्ग योजन अधिक है । यथा क्षीरवरद्वीपसे ऊपर घृतवरद्वीप है। जिसका विस्तार १०२४ लाख योजन और आयाम [(१०२४ लाख ) ४ (१०२४ ला० – १ ला० )४९ ] योजन है। इस द्वोपकी खण्ड श. १२५७०६२४ हैं । जो धातकी खण्ड, पुष्करवरद्वीप, वारुणीवरद्वीप और क्षीरवरद्वीपकी ( १४४+ २८८०+४८३८४ : ५५३३६० - ) ८३४७६८ सम्मिलित खण्ड शलाकारोंसे १५ गुना होकर [ १२५७०६२४ -( ८३४७६८ x १५ )+ ४९१०४ ख श० रूप ] ९१८४ (१०/११ वर्म योजन का ४ गुना होते हुए १०८४(१०)1° बर्ग योजन अधिक है । यथा घृत० द्वीपका क्षेत्र० १२५७०६२४ ख० श० रूप-(८३४७६८ ख० श०x१५)+ ( ४९१०४ ख श. ) अथवा ८३४७६८ x १५-- १२५२१५२० ख० श० रूप क्षेत्र + [६१८४ (१०)"४४-३६७२००००००००००० ] + १०८०००००००००० वर्ग योजन है। स्वयम्भूरमणद्वीपके अधस्तन सर्व-दीपोंके क्षेत्रफलका प्रमाण तत्थ अंतिम-वियप्पं वत्तइस्सामो-सयंभूरमणदीवस्स हेझिम-सव्व-दीवाणं खेत्तफल-पमाणं रज्जूए वग्गं ति-गुणिय धोसुत्तर-तिय-सदेहि भजिवमेत्तं, पुणो एक्कसहस्सं तिण्णि-सय-उणसद्वि--कोडीनो सत्ततीस-लक्खं पण्णास-सहस्स-जोयहि अमहियं होइ । पुणो एक्कतीस-सहस्सं अट्ट-सय-पंचहत्तरि-जोयणेहि गुणिद-रज्जूए' परिहोणं होइ । - - - - ... -... ..--- -- -- - १. ३. में. रज्जएवि। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २७६ तस्स ठवणा- ३० । धण जोयणाणि १३५६३७५०००० । रिण रज्जू ७ । ३१८७५ । अर्थ-स्वयम्भूरमगाद्वीपके अधस्तन सब द्वीपोंके क्षेत्रफलका प्रमाण राके वर्गको तिगुना करके तीनसौ बीसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें एक हजार तीन सौ सनसठ करोड़ सैंतीस लाख पचास हजार योजन अधिक तथा इकतीस हजार आठ सौ पचहत्तर योजनोंसे गुणित राजसे होन है । उसकी स्थापना( A) + १३५९३७५०००० यो० .- ( रा०४३१८७५ ) । स्वयम्भूरमणद्वीपका क्षेत्रफलसयंभूरमणदीवस्स खेत्तफलं रज्जूए कदी णव-रूबेहि गुणिय चउसट्टि - हवेहि भजिदमेतं, पुणो रज्जू ठविय अट्ठावीस-सहस्स-एक्कसय-पंचवीस'-रूवेहि गुणिवमेतं, पुणो पण्णास-सहस्स-सत्ततीस-लक्ख-रणव-कोडि-अभहिय-वोण्णि-सहस्स-एक्सय-कोडि-जोयण, एदेहि वह रासीहि परिही मुश्विाल रासी होदि । तस्स ठवणा-।। रिण रज्जओ । २८१२५ रिण जोयणाणि २१०६३७५०००० । अर्थ-स्वयम्भूरमरणद्वीपका क्षेत्रफल राजूके वर्गको नौसे गुणा करके चौंसठका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमेंसे, राजूको स्थापित करके अट्ठाईस हजार एक सौ पच्चीससे गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसको तथा दो हजार एक सौ नो करोड़ सैंतीस लाख पचास हजार योजन, इन दो राशियोंको कम कर देनेपर अवशिष्ट पूर्वोक्त राशि प्रमाण है। उसको स्थापना-[ ९ (राजू)२] -( १ राजू x २८१२५ ) --२१०९३७५०००० । अभ्यन्तर समस्त द्वीपोंका क्षेत्रफल प्राप्त करनेकी विधिअभंतरिम-सव्य-दीव-खेत्तफलं मेलावेदूरण आणयण-हेतुमिमा सुत्त-गाहा विक्खंभायामे इगि सगोसं लक्समवणमंतिमए । पण्णरस-हि लद्ध, इच्छादो हेडिमाण' संकलणं ॥२७६।। अर्थ-अभ्यन्तर सब द्वीपोंके क्षेत्रफलको मिलाकर निकालने के लिए यह गाथा-सूत्र है १. द ब. ज. पंचवीससहस्स | २. द. ब. क. ज. पणारससहस्स । ३. द. हेष्टिमाह । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७६ ] पंचमो महाहियारो [ १३१ अन्तिम द्वीप के विष्कम्भ और आयाम में क्रमशः एक लाख और सत्ताईस लाख कम करके ( शेष के गुणनफल में ) पन्द्रहका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना इच्छित द्वीपसे ( जम्बुद्वीपको छोड़कर) अधस्तन द्वीपोंका संकलन होता है ।।२७६ ॥ विशेषाय-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है अभ्यन्तर समस्त ( अन्तिम द्वीपका विष्कम्भ - १०००००) ४ ( उसीका आयाम - २७००००० ) द्वीपों का क्षेत्रफल १५ उदाहरण - ( १ ) मानलो - यहां अन्तिम इष्ट द्वीप वारुणीवर है। जिसका विष्कम्भ ६४००००० योजन और आयाम ५६७००००० योजन है । धातकी० और पु० द्वीपका सम्मिलित क्षेत्रफल क्षेत्रफलका प्रमाण } ={६४००००० - १००००० स्वयम्भू रमरणद्वीपका क्षेत्रफल - २९६८०००००००००० वर्ग यो० । (२) स्वयंम्भूरमणद्वीपसे अप्रस्तन समस्त ( जम्बूद्वीपको छोड़कर ) द्वीपोंके सम्मिलित = ३ रा ३२० 1 ) ४ (५६७००००० - २७००००० 10 ) १५. ६३००००० x ५४०००००० १५. स्वयम्भूरमणद्वीपका विष्कम्भ = है राजू + ३७५०० योजन । स्वयम्भूरमणद्वीपका आयाम = राजू - ५६२५०० योजन । - ( राजू + ३७५००-१०००००) ४ ( राजू - ५६२५००-२७०००००वर्ग यो ० ) x १५. ( राजू + ६२५०० ) x ( राजू - ३२६२५००) १५ [ राजू' + राजू (–३२६२५००- ९६२५००) यो० + ६२५०० × ३२६२५०० वर्ग यो० ] १५. - राजू - ४७८१२५ रा० यो०+२०३९०६२५०००० वर्ग यो० १५ - रा० थो० ३१८७५+ १३५५९३७५०००० वर्ग योजन । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाभा : २७७ १३२ ] तिलोयपणाती अहिय-पमाणमाणयण-हेदुमिमा सुत्त-गाहा खीरवरदीव-पदि, उपरिम-दीवस्स दोह-परिमाणं । चउ - लक्खे संगुणिदे, परियड्डो होइ उघश्वरि ।।२७७।। अर्थ--अधिक प्रमाण प्राप्त करने हेतु यह गाथा-सूत्र है-- क्षीरवरद्वीपको 'ग्रादि लेकर उपरिम द्वीपकी दीर्घताके प्रमाण अर्थात आयामको चार लाखसे गुणित करने पर ऊपर-ऊपर वृद्धिका प्रमाण होता है ।।२७७॥ विशेषार्थ- गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है---- वाणन वृद्धि होपका आयाम ) x ४००००० उदाहरण-(१) क्षीरवर द्वीपका पायाम २२९५००००० योजन है। =२२९५००...४४००००० =९१८००००००००००० वर्ग योजन । यह क्षीरवरद्वीपसे अधस्तन ( पहलेके ) द्वीपोंके क्षेत्रफलसे १५ गुना होकर अधिकका प्रमाण है । जो क्षीरवरद्वीपमें प्राप्त होता है । (२) अश्वस्तन द्वीपोंके क्षेत्रफलसे १५ गुना होकर जो अधिकताका प्रमाण स्वयम्भूरमणद्वीपमें पाया जाता है वह इसप्रकार है स्वयम्भूरमणद्वीपवा आयाम राजू-५६२५०० योजन वृद्धि-प्रमाण-क्षेत्रफल - ( रा०-५६२५०० यो०) ४४००००० यो० =४५०००० रा० यो० – २२५४ (१०) वर्ग यो० इसलिए स्वयम्भूरमणद्वीपका क्षेत्रफल = राजू २-४७८१२५ रा. यो.+ २०३९०६२५०००० वर्ग यो० सातिरेकका प्रमाण ४५०००० रा. यो०-२२५००००००००० वर्ग योजन -- राजू२-२८१२५ रा. बो०-२१०९३७५०००० वर्ग योजन । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो महाहिमारो अठारहवाँ पक्ष श्रधस्तन द्वीप - समुद्रोंके त्रिस्थानक सूची-व्यास द्वारा उपरिम द्वीप- समुद्रोंका सूची-व्यास प्राप्त करनेही ि अट्ठारसम-पक्खे अप्पबहुलं वत्तइस्सामो गाया : २७७ ] लवणणीरधोए' श्रादिम-सूई एक्क लववं, मज्झिम-सूई तिष्णि-लक्लं, बाहिरसूई पंच-लक्वं, एवेसि ति द्वाण-सूईणं मके कमसो चज छक्कडु - लक्खाणि मेलिदे धावईसंडदीवस श्रादिम-मज्झिम बाहिर सूईश्री होंति । पुणो धावईसंडदीवस्स तिद्वाण-सूईणं म पुयिल्ल-पक्वं दुगुणिय कमसो मेलिडे कालोदग-समुद्दस्स तिट्ठाण सूईश्रो होवि । एवं हैट्ठिम दीवस्स वा रयणायरस्त वा तिट्ठाण सूईणं मज्भे च छषकटु-लक्खाणि प्रभहियं करिय उवरिम- दुगुण-दुगुणं कमेण मेला वेदव्वं जान सयंभूरमणसमुद्दोति ॥ वरणसमुद्र की अर्थ-यारहवें पक्ष में अल्पबहुत्य कहते हैं लबणसमुद्रकी आदिम सूची एक लाख, मध्यम सूची तीन लाख और बाह्य सूची पाँच लाख योजन है। इन तीन सूचियोंके मध्य में क्रमशः चार लाख, छह लाख और आठ लाख मिलाने पर धातकी खण्डकी आदिम, मध्यम और बाह्य सूची होती है । पुनः धातकीखण्डकी तीनों सूचियों में पूर्वोक्त प्रक्षेपको दुगुना कर क्रमशः मिला देनेपर कालोदक समुद्रकी तीनों सूचियाँ होती हैं। इसप्रकार अधस्तन द्वीप अथवा समुद्र की त्रिस्थान सूचियोंमें चार बह और आठ लाख अधिक करके आगे-आगे स्वयम्भरमरण समुद्र पर्यन्त दूने दूने क्रमसे मिलाते जाना चाहिए || विशेषार्थ प्रक्षेप = धातकीखण्डदीपकी दुगुना प्रक्षेप कालोदक समुद्रकी = दुगुना प्रक्षेप पुष्करवर द्वीपकी 9 0 १००००० यो० + ४००००० यो० ५००००० यो० + ३००००० यो० + ६००००० मो. ६००००० यो० + ६००००० × २ २१००००० यो० ४०००००X२ १३००००० यो० + ५०००००X२ १२०००००x२ २९००००० मो० ४५००००० यो० इसीप्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र पन्त ले जाना चाहिए । १. द. न. लवणणीरखीए । + [ १३३ ५००००० यो० + 400000 410 १३००००० घो० + ८०००००x२ २९००००० यो० + १६०००००x२ ६१००००० यो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ } तिलोय पण्णत्ती स्वयम्भूर मरणसमुद्रकी तीनों सूचियां प्राप्त करने की विधि- F तत्थ अंतिम वियष्वं यत्तत्साम तं जहा संयंभूरमणकीवस्स प्राविम-सूईमज्झे रज्जूए चउब्भागं पुणो पंचहत्तरि सहस्स जोयणाणि संमिलिदे सयंभूरमणसमुहस्स आदिम-सूई होदि । तस्स ठेवणा- ७ । ४ धण जोयणारि ७५००० । पुणो तद्दोवस्स मज्झिम सुइम्मितिय रज्जूणं श्रट्टम-भाग पुणो एक्क- लक्ख बारस- सहस्स-पंचसय जोयणाणि संमिलिदे सयंभूरमण समुद्दस्स मज्झिम- सूई होइ । तस्स ठवणा - ७ । धण जोयणाणि । ११२५०० । पुणो सयंभूरमणवीवस्स बाहिर सूई- मज्के रज्जूए 'अद्ध ं पुणो विवड्ढ - लवखजोयणाणि समेलिदे चरम समुद्द अंतिम सूई होइ । तस्स ठेवणा- ७ । २ धण जोयणाणि १५०० अर्थ - उनमें अन्तिम विकल्प कहते हैं । वह इसप्रकार है- स्वयम्भूरम रणद्वीपकी श्रादिम सूची में राजू के चतुर्थ-भाग और पचहत्तर हजार योजनों को मिलाने पर स्वयम्भूरमण समुद्रकी आदिम सूची होती है । उसकी स्थापना- राजू + ७५००० यो० । पुनः इसी द्वीपको मध्यम सूची में तीन राजुओं के आठवें भाग और एक लाख बारह हजार पाँच सौ योजनों को मिलाने पर स्वयम्भूरमणसमुद्र की मध्यम सूची होती है। उसकी स्थापना राजू + ११२५०० यो० । पुनः स्वयम्भूरमणद्वीपकी बाह्य सूचीमें राजूके अर्ध भाग और डेढ़ लाख योजनोंको मिलानेपर उपरिम (स्वयम्भूरमण ) समुद्रको अन्तिम सूची होती है। उसकी स्थापना - रा० + १५०००० यो० ॥ एत्थ वढोण प्राणयण हे दुमिमा सुत्त गाहा- [ गाथा : २७८ धाasis - पहुवि इच्छ्रिय दीवोवहीण संबद्ध । दु-ति-च-रूवेहि, हवो ति द्वाणे होदि वरिवड्ढी ॥ २७८ ॥ अर्थ - यहाँ वृद्धियों को प्राप्त करने हेतु यह गाथा सूत्र है घातकीखण्ड श्रादि इच्छित द्वीप - समुद्रों के आधे विस्तारको दो, तीन और चारसे गुणा करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो क्रमसे तीनों स्थानों में उतनी वृद्धि होती है || २७८ || विशेषार्थ - गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है- इष्ट द्वीप या समुद्रका विस्तार २ क्रमशः तीनों वृद्धियाँ = x क्रमशः २, ३ र ४ । १. द. ब. ज. पिंडं । २. द. ब. ज. मेलिषोपरिम, क. मेलिदोवरिम | Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २७८ ) पंचमो गहाजियारो [ १३५ उदाहरण-(१) मानलो यहाँ क्षीरवर समुद्र इष्ट है । जिसका विस्तार ५१२००००० योजन है अत:---- क्षीर० स० में तीनों वृद्धियाँ-१२०००००४ २, ३ और ४ अर्थात् २५६०००००४२=५१२००००० योजन आदिम सूची का वृद्धि प्रमाण । २५६०००००४ ३-७६८००००० योजन मध्यम सूची का वृद्धि प्रमाण । २५६०००००x४ - १०२४००००० योजन बाह्य सूची का वृद्धि प्रमाण । अर्थात् क्षीरवरद्वीपके तीनों सूची-व्यासमें इन तीनों वृद्धियोंका प्रमाण जोड़ देनेपर क्षीरवर समुद्र के तीनों सूची-व्यास का प्रमाण प्राप्त हो जाता है । (२) यहाँ अन्तिम समुद्र इष्ट है । जिसका विस्तार : राजू +७५००० योजन है अत :अन्तिम स० में तीनों वृद्धियां- राजू + ७५००० यो.xक्रमशः २, ३ और ४ अर्थात् राजू + ३७५०० यो०४२= राजू +७५००० यो० । 4 राजू +३७५०० यो०४३- ३ राजू + ११२५०० यो । ३ राज+३७५०० यो०x४= राजू+१५०००० यो । स्वयम्भूरमणद्वीपकी प्रादि सूची ३ रा०-२२५००० यो, मध्यम सूची ३ राज ---- १८७५०० यो० और अन्त सूची ३ राजू-१५०००० यो० है। इसमें उपयुक्त प्रक्षेपभूत वृद्धियाँ क्रमशः जोड़ देनेसे अन्तिम समुद्रको तीनों सूचियों का प्रमाण क्रमशः प्राप्त हो जाता है । यथास्वयम्भूरमणद्वीपका आदि सूची-व्यास रा०-२२५००० यो० प्रक्षेप: रा०+७५००० यो ।। स्वयम्भूरमणसमुद्रका आदि सूची-व्यास : रा० -- १५०००० यो. स्वयम्भूरमणद्वीपका मध्यम सूची-व्यास है रा० - १८७५०० यो० प्रक्षेप है रा० + ११२५०० यो० स्वयम्भूरमरण समुद्रका मध्यम सूची-व्यास रा० - ७५००० यो० स्वयम्भूरमण द्वीपका अन्तिम सूची-ग्यास ३ राजू - १५०००० यो. प्रक्षेप ३ राजू + १५०००० यो. स्वयम्भूरमण समुद्रका अन्तिम सूची-न्यास १ राजू - - - - Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्तो उन्नीसवाँ - पक्ष अधस्तन द्वीप समुद्र से उपरि त्रीप-समुद्र के आयाम में वृद्धिका प्रमाणएकवीसदिम-पव अप्पबहुलं वत्तइस्तामी । तं जहा — लवणसमुद्दस्सा यामं व-लखं, तम्मि अट्ठारस लक्खं संमेलिदे धादईसंडदोवस्त ग्रायामं होदि । बादईसंडदीवस्स' प्रायामम्मि पक्खेबभूव अट्ठारस- लक्खं दु-गुणिय मेलिदे कालोद समुहस्स होइ । एवं पक्खेयभूद अट्ठारस लक्खं दुगुण-दुगुणं होऊण गच्छद्द जाव सयंभूरमणसमुद्दति ॥ १३६ } श्रर्थ - उन्नीसवें पक्ष में अल्पबहुत्व कहते हैं-लवरणसमुद्रका आयाम नौ लाख है । इसमें श्रठारह लाख मिलानेपर धातकीखण्डका श्रायाम होता है । धातकीखण्डके आयाम में प्रक्षेपभूत अठारह लाख को दुगुना करके मिलाने पर कालोदक समुद्र का आयाम होता है । इसप्रकार स्वयम्भूरमणसमुद्र पर्यन्त प्रक्षेपभूत ग्रठारह लाख दुगुने दुगुने होते गये हैं । स्वयम्भूरमाद्वीप के आयाम स्वयं समुद्रके आयाम में वृद्धि का प्रमाण | गाथा : २७९ तत्य ग्रंतिम विययं वत्तइस्लामो - तत्थ सयंभूरमण-दीवस्स प्रायामादो सयंभूरमणसमुहस्स श्रायाम-चड्ढी णव- रज्जूणं श्रदुम-भागं पुणो तिष्णि-लक्ख सचतीससहस्स-पंचसय जोयहं अन्भहियं होइ । तस्स ठवणा - ७ । ६ क्षण जोयाणि ३३७५०० । अर्थ-यहाँ अन्तिम त्रिकल्प कहते हैं- स्वयम्भूर मरण द्वीप के आयामसे स्वयम्भूरम ए समुद्र के आयाममें नौ राजुओंके आठवें भाग तथा तीन लाख सैंतीस हजार पांच सौ योजन अधिक वृद्धि होती है । उसकी स्थापना – राजू + ३३७५०० यो० ॥ आयाम वृद्धि प्राप्त करने की विधि लवणसमुद्दादि - इच्छिय दीव- रयणायराणं आयाम - वड्ढि पमाणाणयण हेदु इमं गाहा-सुतं - धावइसंड- प्पहूदि इच्छिय दीवोबहीण वित्थारं । अयि तं वहि गुणं, हेद्विमयो होदि उवरिमे बढी ॥२७६॥ - एवं दोबोधहोणं णाणाविह खेत्तफल- परूवणं समत्तं ॥ ५ ॥ १. द. ब. दोवे । 1. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८० ] पंचमी महाहियारो [ १३७ अर्थ-लवणसमुद्रको आदि लेकर इच्छित द्वीप-समुद्रोंकी प्रायाम-वृद्धिके प्रमाणको प्राप्त करने हेतु यह माथा-सूत्र है धातकीखण्डको आदि लेकर द्वीप-समुद्रोंके विस्तारको आधा करके उसे नौसे मुरिणत करने पर प्राप्त राशि प्रमाण अधस्तन द्वीप या समुद्रसे उपरिम द्वीप या समुद्रके मायाममें वृद्धि होती है ॥२७९॥ विशेषार्थ-इसी अधिकारकी गाथा २४४ के नियमानुसार लवणसमुद्रका अायाम [( २ लाख – १ लाख )xt=९ लाख योजन, धातकीखण्ड द्वीपका [ ( ४ लाख --- १ लाख) xt] =२७ लाख योजन और कालोदक-समुद्रका ६३ लाख योजन है । अधस्तन द्वीप-समुद्रके आयाम प्रमाणसे उपरिम द्वीप-समुद्रके भायाममें वृद्धि-प्रमाण प्राप्त करने हेतु उपयुक्त गाथानुसार सूत्र इस प्रकार है वणित वृद्धि इष्ट द्वीप – समुद्रका विस्तार उदाहरण-(१) मानलो–यहाँ कालोदक समुद्र इष्ट है । जिसका विस्तार ६ लाख योजन है अतः वणित वृद्धि -- ८०४.० यो०४९-३६००००० यो० । धातकीखण्डद्वीपके २७ लाख योजन आयाममें ३६००००० यो० की वृद्धि होकर कालोदकसमुद्रके आयामका प्रमाण ( २७ लाख +३६ लाख= ) ६३ लाख योजन प्राप्त होता है। (२) स्वयम्भूरमणसमुद्रका विस्तार : राजू + ७५००० योजन है। अतएव उपयुक्त नियमानुसार स्वयम्भूरमणद्वीपके आयामसे उसकी अायामवृद्धिका प्रमाण इसप्रकार होगाआयाम वृद्धि= राजू +७५००० यो०० = राजू + ३३७५०० योजन । अर्थात वृद्धिका प्रमाण ! राज+३३७५०० यो० = ( स्वयंभूरमणसमुद्रका प्रायाम ६ रा० – २२५००० यो० ) – ( स्वयम्भूरमणद्वीपका आयाम रा० - ५६२५०० यो०)। इसप्रकार द्वीप-समुद्रोंके नाना प्रकारके क्षेत्रफलका प्ररूपण समाप्त हुआ ।।५।। तिर्यञ्च जीवोंके भेद-प्रभेदएयक्ख-वियल-सयला, बारस तिय दोषिण होंति उत्त-कमे। भू - आउ - तेउ - वाऊ, पत्तेक बावरा सुहमा ॥२०॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] तिलोय पण्णत्तो साहारण पत्तेय - सरीर वियप्पे वणप्फई' साहारा यूलिदरा, पदिडिदिवरा' य · बादर पृथिवीका० ४ जलका० ४ - अथं - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय जीव कहे जाने वाले क्रमसे बारह, तीन और दो भेदरूप हैं । इनमें से एकेन्द्रियोंमें पृथिवी, जल, तेज और वायु, ये प्रत्येक बादर एवं सुक्ष्म होते हैं । साधारण शरीर और प्रत्येक शरीरके भेदसे वनस्पति कायिक जीव दो प्रकार हैं। इनमें साधारणशरीर जोब बादर और सूक्ष्म तथा प्रत्येक शरीरें जीव प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित ( के भेदसे दो-दो प्रकारके ) होते हैं ।। २८०-२६१।। T विशेषार्थ एकेन्द्रियोंके २४ भेद तेजका० ४ | सूक्ष्म बा० सू० बा० वायुका ० ४ [ गाथा : २८१ सू० बा० दुविहा । पसेयं ॥ २८१ ॥ वनस्पतिकायिक सू० साधारण प्रत्येक पर्याप्त अप०प० अ० प० अ० प० अ० प० अ० प० अ० प० ० ० ० बादर सू० प्रति० श्रप्रति० प० अप० प० प्र० प० अ० प० अप० १. द. ब. क. ज. वणप्पई । २. द. ब. क. ज. धूलि दिदा । ३. द. व क.अ. परिदिट्ठिदिरा 1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८२ ] पंचमो महाहियारो [ १३९ तिर्यञ्च त्रस जीवों के १० भेद और कुल ३४ भेद---- वियला बि-ति-च-रक्खा, सयला सण्णी असण्णिणो एदे । पज्जस्तेवर - मेदा', चोत्तीसा अह अणेय - विहा ॥२८२।। पृथिवी० ४ अप० ४ | तेज. ४ | वायु ४ साधा० ४ पनय ४ बा० सू० । बा० सु० | बा० सू० बा० सू० | बा० सू० । प० प्र० बि०२ | ति०२ | च० २ | असंज्ञी २ १ संज्ञी २ | प०अ० | ५० प्र० । ५० प्र० । ५० अ० | १० अ० । एवं जीव-भेद-परूवणा गदा ॥६॥ अर्थ-दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रियके भेदसे विकल जीव तीन प्रकार के तथा संज्ञो और असंज्ञीके भेदसे सकल जीव दो प्रकारके हैं। ये सब जीव ( १२+३+२ ) पर्याप्त एवं अपर्याप्तके भेदसे चौंतीस प्रकारके होते हैं । अथवा अनेक प्रकारके हैं ।।२८२॥ विशेषार्थद्वीन्द्रिय २ वीन्द्रिय २ चतुरिन्द्रिय २ पंचेन्द्रिय ४ पर्याप्त अप०प० अ० Ca ५० अ० संजी प्रसंज्ञी प० अ० प० अ० इसप्रकार एकेन्द्रियके २४, द्वीन्द्रियके २, त्रीन्द्रियके २, चतुरिन्द्रियके २ और पंचेन्द्रियके ४, ये सब मिलकर तिर्यञ्चोंके ३४ भेद होते हैं। इसप्रकार जीवोंकी भेद-प्ररूपणा समाप्त हुई ॥६।। १. ६. ब. क.अ. भेदो। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] तिलोषपाती एतो चोत्तीस - विहाणं तिरिक्खाणं परिमाणं उच्चदे अर्थ - यहसि आगे चौंतीस प्रकार के तिर्यञ्चों का प्रसारण कहते हैं--- जिस्कायिक जीव राशिका उत्पादन विधान- [ गाथा २८२ गुरु पाइरिय-परा-गदोवदेसेण ते उक्काइय- रासि उपायण- विहाणं इसाम । तं जहा - एग 'घणलोगं सलागा- सूदं ठविय श्रवरेगं घणलोगं विरलिय एक्क्क - वस्स घरगलोगं दादूण वग्गिद संवग्गिदं करिय सलागा-रासोदो एगरूवमवणेपव्वं । ताहे एका अण्णोष्ण- गुणगार - सलागा लद्धा हवंति । तस्सुप्पण्ण-रासिस्स पलिदो - मस्त प्रसंखेज्जदिभागमेत्ता वग्ग सलागा हवंति । तस्सद्धच्छेदणय- सलागा असंखेज्जा लोगा, रासी वि असंखेज्जलोगमेत्तो जादो । अर्थ- सूत्रसे अविरुद्ध आचार्य परम्परासे प्राप्त उपदेश के अनुसार तेजस्कायिक राशिका उत्पादन- विधान कहते हैं । वह इसप्रकार है- एक घनलोकको शलाकारूपसे स्थापित कर और दूसरे घनलोकका विरलन करके एक-एक रूप के प्रति घनलोक प्रमाणको देकर और वर्गित संबंगित करके शलाका राशिमेंसे एक रूप कम करना चाहिए। तब एक अन्योन्यगुणकार शलाका प्राप्त होती है । इसप्रकार से उत्पन्न हुई उस राशिकी वर्गालाकाएँ पत्योपमके असंख्यातवें भाग-प्रमाण होती हैं । इसीप्रकार की अर्धच्छेदशलाकाएँ प्रसंख्यात लोक प्रमाण और वह राशि भी असंख्यात लोक प्रमाण होती है । पुणो दि महारासि विरलिदृण तत्थ एक्केषक बस्स उद्विद- महारासि - प्रमाणं दादूण वग्गिद संवग्गिदं करिय सलागा-रासीदो श्रवरेगरुवमवणेयवं । ताहे" अण्णोष्ण- गुणगार सलागा दोषिण, वग्ग-सलागा अद्धच्छेदणय-सलागा रासो च प्रसंखेज्जा लोगा । एवमेदेण कमेण णेदब्बं जाव लोगमेत्त- सलागा - रासी समत्तोति । ताहे अण्णोषणगुणगार-सलामा पमाणं लोगो', सेस - तिगमसंखेज्जा लोगा । अर्थ -- पुनः उत्पन्न हुई इस महाराशिका विरलन करके उसमेंसे एक-एक रूपके प्रति इसी महाराशि-प्रमाणको देकर और वर्गित संवर्गित करके शलाकाराशिमेंसे एक अन्य रूप कम करना चाहिए | इससमय अन्योन्य-गुणकार शलाकाएं दो और वर्गशलाका एवं अर्धच्छेद-शलाका - राशि असंख्यातलोक-प्रमाण होती है। इसप्रकार जब तक लोक प्रमाण शलाकाराशि समाप्त न हो जावे तब तक इसी क्रमसे करते जाना चाहिए। उस समय अन्योन्यगुरण कार - शलाकाएँ लोकप्रमाण और शेष १. द. ब. क. ज. पुणलोगस्स । २. द. ब. क. ज. पुणलोगं । ३. ८. ब. एक्केवर्क सदस्य । ४. द. क्र. ज. इद्रिद, व. ईट्ठिद । ५. द ब. क. ज. ता जह। ६ द. ब. क. ज. लोगा । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८२ ] पंचमो महाहियारो [ १४१ तीन राशियों ( (१) उस समय उत्पन्न हुई महाराशि (२) उसकी वर्गशलाकाओं और (३) अर्धच्छेदशलाकाओं) का प्रमाण असंख्यातलोक होता है ।। पुणो उठ्ठिद - महारासि - विरलिदूण तं चेव सलागा-भूद ठविय विरलिय एक्केवक-रूवस्स उप्पण्ण-महारासि-पमाणं दादूण वग्गिव-संवग्गिदं करिय' सलागारासीदो एग-रूवमयणेयच्वं । ताहे अण्णोणणगुणगार-सलागा लोगो स्वाहिओ, सेस-तिगमसंखेज्जा लोगा ॥ अर्थ---पुन: उत्पन्न हुई इस महाराशिका विरलन करके इसे ही शलाकारूपसे स्थापित करके विरलित राशिके एक-एक रूपके प्रति उत्पन्न महाराशि-प्रमाणको देकर और वगित-संगित करके शलाकाराशिमेंसे एक रूप कम करना चाहिए। तब अन्योन्यगुणकार-शलाकाएं एक अधिक लोवा-प्रमाण और शेष तीनों राशियाँ असंख्यात-लोक-प्रमाण ही रहती हैं। पुणो उप्पण्णरासि विरलिय रूवं पडि उप्पण्णरासिमेव दादूण वग्गिद-संवग्गिवं करिय सलागा-रासोदो अणेग रूवमवणेयन्वं । ताहे अपणोष्ण-गुणगार-सलागा लोगो दुरूवाहिनो, सेस-तिगमसंखेज्जा लोगा । एवमेदेण कमेण दुरूयूणुक्कस्स-संखेज्जलोग-मेत्त लोग-सलागासु दुरूवाहिय लोगम्मि पविट्ठासु चत्तारि वि असंखेज्जा-लोगा हवंति । एवं णेदव्वं जाव विदियवार-ट्टविद-सलागारासी समत्तो ति । ताहे चत्तारि वि असंखेज्जा लोगा। अर्थ - पुनः उत्पन्न राशिका विरलन करके एक-एक रूपकं प्रति उत्पन्न राशिको ही देकर और वगित-संगित करके शलाकाराशिमेंसे अन्य एक रूप कम करना चाहिए । तब अन्योन्य-गुणकारशलाकाएं दो रूप अधिक लोक-प्रमाण और शेष तीनों राशियां असंख्यात लोक-प्रमाण ही रहती हैं । इसप्रकार इस क्रमसे दो कम उत्कृष्ट-संख्यातलोक-प्रमाण अन्योन्य-गुणकार-शलाकारोंके दो अधिक लोक-प्रमाण अन्योन्य-गुणकार-शलाकाओंमें प्रविष्ट होनेपर चारों ही राशियां असंख्यात लोकप्रमाण हो जाती हैं। इसप्रकार जब तक दूसरीबार स्थापित शलाकाराशि समाप्त न हो जावे तब तक इसी क्रमसे करना चाहिए । तब भी चारों राशियाँ असंख्यात - लोक - प्रमाण होती हैं। १ द. ब. क. ज. वग्गिद करिय । २. द. ब. क. ज. दुरूवाणुक्कस्स । ३. द.ब. वि सियसंखेज्जा । ४. द. ब. क. ज. पषिट्ठो । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ । तिलोयपणती [ गाथा : २१२ पुणो उद्विद-महारासि सलागाभूदं ठविय अवरेगमुट्टिद'-महारासि विरलिदूण उद्विद-महारासि-पमारणं दादूण वग्गिद-संवग्गिदं करिय सलागा-रासीदो एग-रूयमवणेयध्वं । ताहे चत्तारि वि असखेज्जा लोगा । एवमेदेण कमेण वन्य जाय तदियवारं दृविद-सलागारासो समत्तो त्ति । ताहे चत्तारि वि असंखेज्जा लोगा। अर्थ-पुनः उत्पन्न हुई महाराशिको शलाकारूपसे स्थापित वारके उसी उत्पन्न महाराशि का बिरलन करके उत्पन्न महाराशि प्रमाणको एक-एक रूपके प्रति देकर और बगित-संगित करके शलाकाराशि में से एक कम करना चाहिए । इससमय चारों राशियाँ असंख्यात-लोकप्रमाग रहती हैं। इसप्रकार तीसरीवार स्थापित शलाका-राशिके समाप्त होने तक इसी क्रमसे ले जाना चाहिए । तब चारों हो रासिया असंख्यात-लोक-प्रमाण रहती हैं। तेजकायिक जीव राशि और उनकी अन्योन्य-गुणकार-शलाकाओंका प्रमाण पणो उहिद-महारासि तिप्पडि-रासि कादूण तत्थेग सलागाभूदं ठविय प्रणेगरासि विरलिदूण तत्थ एक्केक्क-रूवस्स एग-रासि-पमाणं दादूण बग्गिव-संवग्गिवं करिय सलागा-रासीदो एग रूबमवणेयन्वं । एवं पुणो पुणो करिय णेदव्यं जाव" अदिक्कतअण्णोण-गुणगार-सलागाहिऊण-घउत्थयार-दृविद-अण्णोरण-गुणगार-सलागारासी समत्तो त्ति । ताहे तेउकाइय-रासी उठ्ठिदो हवदि = रि । तस्स गुणगार-सलागा चउत्थवारठविद-सलागा-रासि-पमाणं होदि ॥६॥' अर्थ- पनः इस उत्पन्न महाराशिकी तीन महाराशियाँ करके उनमें से एकको शलाकारूपसे स्थापित कर और दुसरी एक राशिका विरलन करके उसमेंसे एक-एक-रूपके प्रति एक राशिको देकर और वगित-संगित करके शलाका राशिमेंसे एक रूप कम करना चाहिए । इसप्रकार पुन: पुनः करके जब तक अतिक्रान्त अन्योन्य-गुणकार-शलाकामोसे रहित चतुर्थवार स्थापित अन्योन्य-गुणकारशलाका-राशि समाप्त न हो जावे तब तक इसी क्रमसे ले जाना चाहिए। तब तेजस्काथिक-राशि उत्पन्न होती है जो असंख्यात-घनलोक-प्रमाण है । ( यहाँ घनलोककी संदृष्टि = तथा असंख्यात की संडष्टि रि है।) उस तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य-गुणकार-शलाकाएं चतुर्थवार स्थापित शलाका-राशिके सदृश होती हैं। (इस राशिके असंन्यातको संदृष्टि ६ है । ) ---- १६. क. ज. वगेतमुदि , द. वेत्तागमुठ्ठिद ! २. द. समागं । ३ ६. ब. णाबन्दं । ४. द. ब. क. ज. ताटे । ५. दब.क. ज. जाम। ६ द.ब.क.ज. ताद। ७.द. ब. तेउकायपरासी। द ल का - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी महाहियारो सामान्य पृथिवी, जल और वायुकायिक जीवोंका प्रमाण पुणो तेउका इयरासिमसंखेज्ज - लोगेख भागे हिदे लद्ध तस्मि चेव पक्लित्ते पुढविकाइयरासी होदिरि । ॥ गाथा : २८२ ] अर्थ - पुनः तेजस्कायिक- राशिमें श्रसंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे इसी (तेजस्कायिक) राशिमें मिला देनेपर पृथिवीकायिक जीव राशिका प्रमाण होता है । विशेषार्थ - यथा— इसका सूत्र इसप्रकार है (सामान्य) पृथिवीकायिक राशि = तेजस्कायिक राशि + या = रि+रिया = रि । नोट- यहाँ १० का अंक असंख्यात लोक + १ का प्रतीक है । तम्मि असंखेज्जलोगेण भागे हिंदे' लद्ध तम्मि चेव पक्खित्ते आउकाइय-रासी होदि = रि । ३ । । विशेषार्थ --- ( सामान्य ) जलकायिक राशि अर्थ - इसमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे इसी राक्षिमें मिला देनेपर जलकायिक जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है । ते० का० रा० असं० लोक विशेषार्थ --- ( सामान्य ) वायुकायिक राशि : या रि + = १. ब. हि । २ द. या ≡रि +≡रि या रि I तमि श्रसंखेज्जलोगेण भागे हिदे लद्ध तम्मि चेव पविखते वाउकाइय-रासी होइ = रि1 | ।। 3 रि १० १० [ १४३ अर्थ – इसमें भसंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे इसी राशिमें मिला देनेपर वायुकायिक जीवराशिका प्रमाण होता है । पृ० का० रा० + पृ० का ० राशि असं० लोक - वा० का० राशि + ज० का० रा० असं लोक ब, । १०१ । ३.८.३०३३ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ । तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : २८२ या रि .. बादर और सूक्ष्म जीव राशियोंका प्रमाणपुणो एदे चत्तारि सामण्ण रासोप्रो पोषक तप्पासोग्ग-प्रसंखेज्जलोगेण खंरिदे । तत्थेग'-खंडं सग-सग-बावर-रासि-पमाणं होदि । तेउ = रि पुढदि = रि१° । आउ =रि । वाउ =रि । सेस-बहुभागा सग-सग-सुहुम-जीवा होति । तेउ = रि। पढवि : रि । प्राउ =रि: । बाउ =रि ॥ प्रर्प-पुनः इन चारों सामान्य राशियों से प्रत्येकको अपने योग्य असंख्यात लोकसे खण्डित करने पर एक भाग रूप अपनी-अपनी बादर राशिका प्रमाण होता है और शेष बहुभाग-प्रमाण अपनेअपने सूक्ष्म जीव होते हैं। विशेषार्थ-वादर ते. का० राशि तेज० राशि विशषाय-वायरस लोक या = रिया = रि या = रि बादर तेजस्कायिक जीवोंका प्रमाण । सूक्ष्म ते० का राशि= (सा०) ते० का. राशि-बादर तेज० राशि या = रि- रि या = रि-=रि + या = रि-- =रिx या = रि ( -1) या :रि सूक्ष्म ते० का० राशिका प्रमाणः । नोट--यहाँ ८ का अंक असंख्यात लोक - १ का प्रतीक है। बादर पृ० का राशि-पृ० का० राशि असं० लोक या =रि या = रि० बादर पृ० का जीवोंका प्रमाण। सूक्ष्म पृ० का० राशि = पृ० का० राशि- बादर पृ० का० राशि १. द. तज्जग,ब.क ज. तज्जेग । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २-२ ] या = रि = र या = रि ( है ) या ॥ बादर जल का राशि जलका राशि अस० लोक प ९ १ रि = पंचम महाहियारो सूक्ष्म पृ० का ० जीवोंका प्रमाण । या = रि या रि° १ है बादर जलका० राशिका प्रमाण । सूक्ष्म जलका राशि= जलका ० राशि या रि या = रि — - = र - बादर जलका० राशि ( बादर वायु का ० राशि = वायु का राशि प्रसं० लोक ) या =र सूक्ष्म ज० का० राशिका प्रमाण । या = रि या = रिहै बादर वायु का० जीवोंका प्रमाण सूक्ष्म वायु का० राशि वायु का० रा० - बादर वायु का० राशि या = रि = रि TERY(4-}) या = रि सूक्ष्म वायु का जीवोंका प्रमाण । पृथिवीकायिक आदि चारोंकी पर्याप्त अपर्याप्त जीव राशिका प्रमाण -- पुणो पलिदोवमस्स श्रसंखेज्जवि भागमेस- जगपवरं प्रावलियाए प्रसंखेज्जदिभागेण गुणिव पवरंगुलेहि भागे हिवे पुढविकाइय- बादर-पज्जल रासि पमाणं होवि [ १४५ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८२ अर्थ - पुनः श्रावली असंख्यातवें भागसे गुरिणत प्रतरांगुलका जगत्प्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसका पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव राशिका प्रमारण होता है || विशेषार्थ या या पमाणं होदि या 11 होती है | सम्मि = प रि *x* प रि पृथिवीका बादर पर्याप्त राशि: या = ४ प रि = या - ४ प रि जगत्प्रतर प्रा० अस० रि x बादर पृथिवीका पर्याप्त जीवोंका प्रमाण । ४ प प्र० x अर्थ - इसे आवली के अस ख्यातवें भागसे गुग्गित करनेपर बादर जलकायिक पर्याप्त जीवराशिका प्रमाण होता है । विशेषार्थ - जलका बादर पर्याप्त राशि पस्य ० अस बलियाए प्रसंखेज्जदि-भागेण गुणिदेहि बाबर - आउ-पज्नत्त- रासि - F X या र जलकायिक बादर पर्याप्त राशिका प्रमाण । पुणो घणावलिस्स प्रसंखेज्जदि भागे बाबर - तेउ-पज्जत- जीव- परिमाणं होदि पृथिवी० बादर पर्याप्त x आवली ० अस ं ० अर्थ - पुनः घनावली के अस ख्यातवें भाग-प्रमाण बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव राशि Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८२ ] पंचमो महाहियारो [ १४७ विशेषार्थ-तेजस्कायिक बादर पर्याप्त राशि-धनावली या । पुणो लोगस्स संखेजदि-भागे बादर-बाउ-पज्जत्त-जीव-पमाणं होदि । प्रर्थ–पुनः लोकके संख्यातवें भागरूप बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवराशि होती है। विशेषार्थ-वायु बादर पर्याप्त राशि लोक या । सग-सग-बाबर-पज्जत्त-रासि सग-सग-बावर-रासीदो सोहिदे सग-सग-बावरअपज्जत-रासी होवि । पुढ : रि १० मि - २ | पास: १० ५० रिय-- तेउ = रि रिण 5 | वाउ = रि १० १० १० रिण :, 8 अर्थ-अपनी-अपनी बादर राशिमेंसे अपनी-अपनी बादर पर्याप्त राशिको घटा देने पर शेष अपनी-अपनी बादर अपर्याप्त राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। विशेषार्ष-तेजस्का० बादर अपर्याप्त राशि=ते. बा. राशि -ते. बा० पर्याप्त राशि पा = रि}-- या = रि रिण है। पृ० का० बादर अप० राशि-पृ० का० बादर – पृ० का बादर पर्याप्त राशि या = रि -४रि। या = रि_१०१ -- ८ | १ पृ० कायिक बा० अपर्याप्त राशि । कायिक बा०अपर्याप्त राशि । जलका० बादर अप० राशि- जलका० बादर - जलका० पर्याप्त राशि । ___ या : रि १० १०१ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : २८२ या : रि.१० १० - अलका बादर अपर्याप्त राशि । संख्यात वायुका० बादर अप० राशिवायुका० बादर राशि - वायुकर० पर्याप्त राशि । या = रि-१० १० १० १- वायुका० बादर अपर्याप्त राशि ! . पुणो पुढविकायावोरणं सुहुम-रासि-पत्तेयं तप्पाओग्ग संखेज-वेहि खंडिदे बहुभाग सुटुम-पज्जत-जीव-रासि-पमाणं होदि । पुढवि = रि १०६४ । आउ = रि १९ १९६५ । तेउ = रि, | वायु = रि१९९५ । अर्थ–पुनः पृपिवीकायिकादि जीवोंकी प्रत्येक सूक्ष्मराशिको अपने योग्य संख्यात रूपोंसे खण्डित करनेपर बहुमागरूप सूक्ष्म पर्याप्त जीव राशिका प्रमाण होता है । विशेषार्थ-पृथिवीकायिक सूक्ष्म पर्याप्त राशि=Z० मध्म रा ( बहुभाग )। या = रि १६ । जलकायिक सूक्ष्म पर्याप्त राशि-ज० सूक्ष्म रा० या = रि १० । तेजस्कायिक सूक्ष्म पर्याप्त राशि ते० सूक्ष्म रा० सख्यात या = रि । वायुकायिक सूक्ष्म पर्याप्त राशि वायु० सूक्ष्म रा० सख्यात या = रि १० १० १९६४ तत्यंगभाग सग-संग-सुहुम-अपज्जत्त-रासि परिमाणं होवि । पुढवि = र १० ; रि १० १०५ = रि १० १० १०८ ९ ५ सस्यात रि८ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा : २८२] पंचमो महायिारो [ १४६ अर्थ-इसमें से एक भागरूप अपनी-अपनी सूक्ष्म अपर्याप्त जीवराशिका प्रमाण होता है । विशेषार्थ-पृथिवी सूक्ष्म अपर्याप्त राशि =रि १६ । जलकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त राशि = रि तेजस्कायिक सूक्ष्म अपर्याप्त राशि = रि वायुकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त राशि = रि १० १० १०६। [ तालिका को अगले पृष्ठ पर देखिये ] सामान्य बनससिकायिक जीवोंका प्रमाणपुणो सम्व-जीव-रासीदो सिद्ध-रासि-तसकाइय-पुढविकाइय-आउकाइय-सेउकाइय-बाउकाइय जीवरासि पमाणमणिदे अवसेसं सामण्ण-वणप्फविकाइय-जीवरासि परिमाणं होदि ॥१३॥ अर्थ–पुनः सब जीवराशिमेंसे सिद्धराशि, सकायिक, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवोंके राशि-प्रमाणको घटा देनेपर शेष सामान्य वनस्पतिकायिक जीवराशिका प्रमाण होता है ।।१३।। विशेषार्थ-सामान्य वन० जीवराशि = [सर्व जीवराशि] रिया { (सिद्ध) धण (स) धरण (तेज०) धरण (पृ० ) धरण (जल) घण (वायु)} __ या [१६] – { (३) + (1) + (= रि) + ( = रि ) + ( = रि 3) + ( =रि 912.3% )} या १३ – ( ( है ) +=रि ( ३ + 2 + १४+३५६° )} या १३ – ६ ( ) +=रि s} Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार स्थावर जीवों में सामान्य, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त राशियों का प्रमाण । स्थावर जीवोंके। सामान्य राशिका नाम प्रमाण बादर राशिका प्रमाण बादर पर्याप्त राशिका प्रमाण बादर अपर्याप्त राशि सूक्ष्म पर्याप्त | सूक्ष्म अपर्याप्त । राशि | प्रतीक राशि = रिरिस | १. | पृथिवीकायिक | = रिरिरि रिहा = रि५५ रि" रेण =रि जल-कायिक AAR vie - लोकका चिल्ल. रि असंख्यातका चिह्न । ९ प्रसंख्यात लोकका चिह्न सख्यात बहुभाग का और संख्यात एक मागका चिह्न है। तिलोयपात्ती | ३. तेजस्कायिक ! – रि =रि =रि F = रि = रि । रिरिण . ४. | वाय कायिक - [ गाथा : २८२ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी महाहियारो [ १५१ या संसार राशि १३ – { ( = २ ) + =रि ४२ } सामान्य वनस्पतिकाधिक जीव४रि गाथा : २८२ ] राशिका प्रमाण है । साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंका प्रमाण तम्मि श्रसंखेज्जलोग- परिमाणमवणिदे सेसं साधारण- वणप्फटिकाइय-जीवपरिमाणं होदि । १३= । अर्थ - इसमें ( सामान्य वनस्पतिकायिक जीवराशि में ) से असंख्यात लोकप्रमाणको घटाने पर शेष साधारण वनस्पतिकायिक जीवोंका प्रमाण होता है । विशेषार्थ- - सामान्य वनस्पतिकायिक जीवराशि -- १३ – { ( 3 ) + = } - {= रिरि} रि अर्थात् १३ = प्रमाण है । • असंख्यात लोक | ― साधारण बाद वनस्पतिका० और साधारण सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंका प्रमाण तं तप्पा मोग्ग-प्रसंखेज्जलोगेण खंडिदे तत्थ एग-भागो साहारण - बावर-जोब परिमाणं होदि । १३ अथ - इसे अपने योग्य श्रसंख्यात लोकसे खण्डित ( भाजित ) करने पर उसमेंसे एक भाग साधारण बादर जीवोंका प्रमाण होता है । विशेषार्थ-साधारण बादर बन० जीव राशि साधारण वनस्पति० जीव राशि - प्रसंख्यात लोक अर्थात् ( १३ | ) प्रमाण है । =(135) प्रमाण है । सेस - बहुभागा साहारण-सुहुमरासि परिमाणं होदि । १३३ 1 अर्थ - शेष बहुभाग साधारण सूक्ष्म जीव राशिका प्रमाण होता है । विशेषार्थ- - साधारण सूक्ष्म वन० जीवराशि = साधा० वन जीवराशि श्रसं० लोक - १ X असंख्यात लोक १ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] तिलोयपपणती [ माया : २८२ साधारण बादर पर्याप्त-अपर्याप्त राशिका प्रमाणपुणो साहारण-बादररासि तप्पाप्रोग्ग-असंखेज्जलोगेण खंडिदे तत्येग भागं साहारण-बादर-पज्जप्सरासि परिमारणं होदि १३ । सेस-बहुभाया साहारण-बावरअपज्जत्तरासि परिमाणं होदि १३८ । अर्थ-पुनः साधारण बादर वनस्पतिकायिक जोव राशिको अपने योग्य असख्यात लोकसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक भाग साधारण बादर पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है और शेष बहुभाग साधारण बादर अपर्याप्त जीव राशिका प्रमाण होता है। विशेषार्थ- साधारण बादर पर्याप्त बन का जीवराशि=साधारण बादर वन० का जीव असंख्यात लोक या १३८७ अर्थात् १३-3) प्रमाण है। साधारण बादर अपर्याप्त वन० का जीवराशि-सा. बादर वन० जीव - असं - १ असंख्यात अर्थात् ( १३३) प्रमाण है। साधारण सूक्ष्म पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंका प्रमाण-- पुणो साहारण-सुहुमरासि तप्पानोग्ग-संखेज्ज-हवेहि खंडिय तत्थ बहुभाग साहारण-सुहम-पज्जत्त-परिमाणं होदि १३ । सेसेगभागं साहारण-सुहम-अपज्जत्तरासि-पमाणं होदि १३।। अर्थ-पुनः साधारण सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव राशिको अपने योग्य संख्यात रूपोंसे खण्डित करनेपर उसमेंसे बहुभाग साधारण सूक्ष्म पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है और शेष एक भाग साधारण सूक्ष्म-अपर्याप्त जीवोंकी राशिका प्रमाण होता है। विशेषार्थ- साधारण सूक्ष्म धन० पर्याप्त जीव= सा० सूक्ष्म वनः जीव संख्यात -१ संख्यात = (१३ प्रमाण है । साधारण सूक्ष्म वन० अपर्याप्त जीवराशि = साधारण सूक्ष्म बन० जीव राशि संख्यात अर्थात् ( १३-१३) प्रमाण है ।। प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीवोंके भेद-प्रभेद और उनका प्रमाण पुणो पुवमणिद-असंखेन्जलोग-परिमाणरासी पत्तेयसरीर-वणफदि-जीवपरिमाणं होदि _ रि = रि॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८२ ] नमो महाहियारो [ १५३ अर्थ–पुनः पूर्व में घटाई गई असंख्यात लोक प्रमाण राशि प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीवोंका प्रमाण होता है ।। विशेषार्थ-सामान्य वनस्पतिकायिक जीव राशिमेंसे साधारगा-वनस्पतिकायिक जोबराशि घटा देनेपर प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवराशि शेष रहती है। जिसका प्रमाण = रिरि है। तप्पत्त यसरीर-वणप्फई दुविहा बादर-णिगोव-पदिट्टिद-अपदिट्ठिद-भेदेण । तत्थ अपविद्धिव-पत्तय-सरीर-यणप्फई असंखेज्जलोग-परिमाणं होइ - रि तम्मि असंखेज्जलोगेण गुणिदे बादर-णिगोद-पविडिद-रासि-परिमाणं होदि = रि = रि ।। अर्थ-बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित ( सहित ) और अप्रतिष्ठित ( रहित ) होने के कारण वे प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार हैं। इनमेंसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव असंख्यातलोक प्रमाण हैं। इस अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवराशिको असंख्यात लोकोंसे गुणा करने पर बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित प्रत्येक भारीर बनस्पति जीवराशि का प्रमाण होता है। विशेषार्थ-अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीवराशिका प्रमाण असंख्यातलोक प्रमाण ( == रि ) है। सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवराशि=अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवराशि x असंख्यात लोक । अर्थात् ( = रि रि ) है। ___ बादर निगोद प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका प्रमाण ते दो विरासी पज्जत्त-अपज्जत-भेदेण दुविहा होति । पुणो पुव्वत्त-बादरपुढवि-पज्जत्त-रासि-मावलियाए असंखेजदि-भागेरस खंडिदे बादर-णिगोद-पविहिद-पज्जत रासि परिमारणं होदि । तं आवलियाए प्रसंखेज्जवि-भागेण भागे । र हिदे बाबर-णिगोव-अपदिद्विद-पज्जत्तरासि परिमाणं होदि 1 ॥ अर्थ-ये दोनों ही राशियां पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दो प्रकार हैं । पुनः पूर्वोक्त बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवराशिको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर बादर-निगोदप्रतिष्ठित-पर्याप्त-जीवोंकी राशिका प्रमाण होता है । इसमें आवलोके असंख्यातवें भागका भाग Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८२ देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना बादर- निगोद-अप्रतिष्ठित पर्याप्त जोबोंकी राशिका प्रमाण होता है । विशेषादष्टि शरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव राशि = पृथिवोका बादर पर्याप्त जीव-राशि: श्रावली असंख्यात O = (-7 ÷ 3) = ( = १ ९ ९ - (GCT) ४ रि १ बादर- निगोद- अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर वन० का० पर्याप्त जीवराशि= बादर-नि० प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर वन पर्याप्त जीवराशि :- आवली असंख्यात - प ९९९ = प ९ ९ = - {{{+}) - (5 ४रि १ १ रासि माणं होदि । ९ ४रि १ १ १ - ) बादर निगोद प्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित अपर्याप्त जीवराशिका प्रमाण --- सग-सग - पज्जत्त - रासि सग-सग-सामण्ण-रासिम्मि अवणिदे सग-सग अपज्जत बादर - णिगोव-पबिट्ठिद रि रि रिण बावर निगोद- अपविट्ठिद = रि रिण = ६ ६ । ४ प रि - ६ ६ ६ । ४ प अर्थ-अपनी-अपनी सामान्य राशिमेंसे अपनी-अपनी पर्याप्त राशि घटा देनेपर शेष अपनीअपनी अपर्याप्त राशिका प्रमाण होता है ।। विशेषार्थ -- बादर निमोद अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति० श्रपर्याप्त जीवराशि = अप्रति० प्रत्येक० वन० जीवराशि - अप्रति० प्रत्येक० वन० पर्याप्त जीवराशि = (रि) - (१९६९) ४रि १ १ बादर- निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येक० वनस्पति अपर्याप्त जीवराशि Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८२ ] पंचमो महाहियारो [ १५५ = सप्रति. प्रत्येक शरीर बन जीवराशि–सप्रति. प्रत्येक बन० जीव राशि = ( = रि = रि) ---( =प.९!: त्रस जीवोंका प्रमाण प्राप्त करनेकी विधिपुणो आवलियाए असंखेज्जदि-भागेण पदरंगुल-मवहारिय लक्षण जगपदरे भागं घेत्तूण लद्ध - । १ » r तं प्रावलियाए असंखेज्जवि-भागेण खंडियूणेगखंड पि पुधं ठविय सेस-बहुभागे घेत्तूण चत्तारि सम-पुजं काव्रण पुधं ध्येयव्य' प्रयं-पुनः प्रावलीके असंख्यातवें भागसे भाजित प्रतरांगुलका जगत्प्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित कर एक भागको पृथक् स्थापित करके और शेष बहुमागको ग्रहण करके उसके चार समान पुञ्ज करके पृथक् स्थापित करना चाहिए। विशेषार्थ-आवलोके असंख्यातवें भागसे भाजित प्रतरांगुलका भाग जगत्प्रतरमें देने से - लब्ध प्राप्त होता है। यही सामान्य त्रस-राशिका प्रमाण है । इसमें प्रावलीके असंख्यातवें (1) भागका भाग देना चाहिए । यथा-(-2)। इसका एक भाग अर्थात् ( = के चार समान पुञ्ज करके पृथक् स्थापित करना चाहिए । यथा १.प. ब. क. ज. टुवेमंतये । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : २८२ -- द्वीन्द्रिय जीवोंका प्रमाणपुणो आवलियाए असंखेज्जदि-भागे विरलिदूण अवणिव-एगखंड करिय दिण्णे तत्थ बहुखंडे पढम-पुजे पविखत्ते' बे-इचिया होति । अर्थ-पुन: आवलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर अपनीत एक खण्डके समान खण्डकर उसमें से बहुभागको प्रथम पुञ्जमें मिला देनेपर दो इन्द्रिय जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है ।। विशेषार्थ-अलग स्थापित - राशिका बहुभाग प्राप्त करने हेतु उसे आवलीके प्रसंख्यातवें भाग ( 3 ) से गुरिणत करने पर [= (x a ] प्राप्त होते हैं । इन्हें गुण्य मान राशिमेंसे घटा देने पर जो शेष बचता है, वही उसका बहुभाग है। यथा ! = - -- । इस राशिको प्रथम स्थापित राशि पुजमें जोड़ देनेपर दो इन्द्रिय जीव-राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा - = + = ६।। . = [ (kxxx )+ = (xx48)] अथवा म. = [ (Exix)+(trxxs)] १.१.ब.क.ज. पक्खे ते। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८२ ] या पंचम महाहियारो 1⁄2 = ( ८ × ६१ × ९ ) + ( EX४ = १ ) या ८१४८१ रि अथवा = J Awa रि या करने पर - ६५११ सामान्य द्वीन्द्रिय जीव-राशिका प्रमाण है । तेन्द्रिय जीव राशिका प्रमाण पुरणो श्रावलियाए असंखेज्जभागं विरलितॄण दिण्ण-सेस-सम-खंड करिय दादूरा तत्थ बहुभागे बिदियपुजे पक्खित्ते तेइ दिया होंति । पुय्व-विरलणादो' संपहि विरलरणा कि सरिसा कि साहिया कि ऊणेति पुच्छिदे णत्थि एत्थ उबएसो ॥ अर्थ - पुनः आवली के असंख्यातवें भागका विरलन करके देनेसे अवशिष्ट रही राशि के सदृश खण्ड करके देनेपर उसमेंसे बहुभागको द्वितीय पुजमें मिलानेसे तीन इन्द्रिय जीवोंका प्रमाण होता है । इस समयका विरलन पूर्व विरलनसे क्या सदृश है ? क्या साधक है, कि वा न्यून है ? इसप्रकार पूछने पर यही उत्तर है कि इसका उपदेश नहीं है । विशेषार्थ - अलग स्थापित ( [(?×?×8)+ ५८३२+२५९२ } ६५६१ रि प्राप्त होते हैं। इसे गुष्यमान राशिमेंसे घटा देनेपर शेष बहुभागका प्रमाण = को पूर्व स्थापित राशिके द्वितीय पुञ्जमें मिला देनेसे तीन इन्द्रिय जीव - राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा } या {8} + - [ १५७ & प्राप्त होता है । इसको पुनः आवलीके प्रसंख्यातवें रूप से गुणित कर प्राप्त लब्ध - 히 f = 1 राशिका बहुभाग प्राप्त करनेके लिए उसे से गुणित ( zfx¥xer ) ] १. द. ब. क. ज. विरलणाउ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ माथा : २८२ १५८ ] तिलोयपण्पत्ती ___= [(Ext )+ {sxxxai)] या २(८४७२६) + (८४४४६) या :-३५८३२ + २८८ ८१XE१ ६१X८१ ३६१२० सामान्य तीन इन्द्रिय जीवोंका प्रमाण । 2TYL चार इन्द्रिय जीवोंका प्रमाण पुगो तप्पानोग्ग प्रावलियाए असंखेज्जविभागं विरलिदूण सेस-खंड सम-खंड करिय दिण्णे तस्थ बहुखंडे तदिय पुजे पक्खित्ते घरिरिया होंति ॥ अर्थ-पुनः तत्प्रायोग्य पावलीके 'असंख्यातवें भागका विरलनकर शेष खण्डके सदृश ( समान ) खण्ड करके देनेपर उनमेंसे बहुभागको तृतीय पुञ्जमें मिला देनेसे चार इन्द्रिय जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । विशेषार्थ-अलग स्थापित राशि - 2 को से गुणितकर लब्धराशि को ( पूर्ववत् ) गुण्यमान राशिमेंसे घटा देनेपर = लब्ध प्राप्त होता है । इसे ! से गुणितकर लब्ध को पुनः ! से मुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसे पूर्व स्थापित तृतीय पुञ्ज में मिला देनेसे चार इन्द्रिय जीव-राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा || 18 + = ६xx -- [(३xx ) + - ( efxix)] Hrde Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५९ गाथा । २८२ । पंचमो महाहियारो - [(Exis) +(afxax¥)] --3(८४७२९) + (८४४) या = ८१४८१ ५६३२+३२ ६५६१ - सामान्य चार इन्द्रिय जीवोंका प्रमाण है। पंचेन्द्रिय जीव-राशिका प्रमाणसेसेग-खंडं चउत्थ-पुजे पक्खित्ते पंचेंदिय--मिच्छाइट्ठी होति । तस्स ठवणा + || Pre: अर्थ-शेष एक खण्डको चतुर्थ पुजमें मिलानेपर पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण होता है । उनको स्थापना इसप्रकार है विशेषार्थ-सामान्य प्रस-राशिके -- प्रमाणमें प्रावलीके असंख्यातवें भाग (2) का भाग देनेपर प्राप्त हुए उसके एक भाग = को जो पूर्व में अलग स्थापित किया था उसमेंसे प्रत्येक बार अपने-अपने बहुभागको प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुञ्जमें मिला देनेके पश्चात् जो शेष बचा है उसे चतुर्थ पुज में मिला देनेपर पंचेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा - Me Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणाती [ गाथा : २८२ - || - [(३xx३% ) + = (xxx)] || xAF ) + (२x६३४)] || (८४७२६+ १४४ ) या - २१x१ ( ५८३२+४) ८ १४८१ (443) सामान्य पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण है। ||moti सामान्य द्वीन्द्रियादि जीवों का प्रमाण - क्र० नाम समभाग + देय-भाग - प्रमाण 1 + AN तीन्द्रिय जीब-1 राशि RANI ||| चन्द्रिय जीव राशि BIHAR चतुरिन्द्रिय जीव ६ + राशि + || पंचेन्द्रिय जीव राशि पर्याप्त प्रस जीवोंका प्रमाण प्राप्त करने की विधिपुणो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण जगपदरे' भागं घेत्तूण जं लद्धतं प्रावलियाए असंखेन्जदिमागेण खंडिऊणेग-खंडं पुधं ठवेदूण सेस-बहुभागं घेत्तूण चत्तारि सरिसकादूण ठवेयव्वं ॥ १. द. क ज, जगपदर, ब. जगपदरं। २. द. य. क. ज. वेयं था। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८२ ] पंचमो महाहियारो अर्थ-पुनः जगत्प्रतरमें प्रतरांगुलके संख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे प्रावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर एक भागको पृथक् स्थापित करके शेष बहुभागके चार सदृश पुञ्ज करके स्थापित करना चाहिए। __ जगत्प्रतर में प्रत रांगुलके संख्यातवें भागका भाग देनेपर - लब्ध प्राप्त होता है। यही पर्याप्त स राशिका प्रमाण है। इसमें प्रावलीके असंख्यातवें भाग ( 2 ) का भाग देना चाहिए । यथा- । । इसका एक भाग ( = ! ) अलग स्थापित कर शेष बहुभाग ( = ! ) के चार समान पुञ्ज करके पृथक् स्थापित करना चाहिए। पर्याप्त तीन-इन्द्रिय जीवोंका प्रमाणपुणो आवलियाए असंखेजविभागं बिलिदगण अणिव-एय-खंड सम-खंड करिय दिण्णे' तत्थ बहुखंडे पढम-पुजे पक्खित्ते ते-इंखिय-पज्जत्ता होंति ॥ प्रर्य-पुनः प्रावलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर पृथक् स्थापित किये हुए एक खण्डके सदृश करके देनेपर उसमें से बहुभागको प्रथम पुञ्जमें मिला देनेसे तीन-इन्द्रिय पर्याप्त जीवों का प्रमाण होता है ।। विशेषार्थ-अलग स्थापित { = ) राशिका बहुभाग करने हेतु उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुरिणत कर प्राप्त { = ?x}) राशिको गुण्यमान राशिमेंसे घटा देनेपर जो ( = 2-27) = x शेष बचा वही उसका बहुभाग है । इस राशिको प्रथम स्थापित राशि-पुजमें जोड़ देनेसे पर्याप्त तोन इन्द्रिय जीव-राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा-- = [[fxxxz३) + = (afxx६३)] ३८४९४८१) + (८४४४८१) ८१४८१ - ३५८३२ + २५९२ या FE ५१x६१ .- ...- --...- --. -. १.प.प.ज. दिण्णो । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] तिलोयपणात्ती [ गाथा : २८२ पर्याप्त दो इन्द्रिय उीजोंना प्रमाणपुणो मावलियाए असंखेज्जदिभागं विरलिटूण सेस-एय-खंडं सम-खंडं काढूण विण्णे तत्थ बहुखंड विदिय-पुजे पक्खित्ते बे-इदिय-पज्जत्ता होति ।। __ अर्थ—पुन: प्रावलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर शेष एक भागके सदृश खण्ड करके देनेपर उसमें से बहुभागको द्वितीय पुञ्जमें मिला देनेसे दो इन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। विशेषार्थ-- {(६xxx ) + = (xxx)] या है । ( ८ ४९४८९) + (८५४४९) ___E१४८१ भी ५८३२+२८८ या - ८१४८१ पर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवोंका प्रमाणपणो प्रावलियाए असंखेज्जविभागं विरलिदूण सेस-एय-खंडं सम-खंड कारण विष्णे तत्थ बहुभागं तविय-पुजे पविखते पंचेंदिय-पज्जता होंति ॥ पर्थ-पुनः आवलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर शेष खण्ड के समान खण्ड करके देनेपर उसमेंसे बहुभागको तीसरे पुञ्जमें मिला देनेपर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है । = [(Exaxsxe ) + (xxx)] - १८४६४८१ ) + (८४४) ८१४८१ या ५८३२ + ३२ या ६५६१ पर्याप्त चार-इन्द्रिय जीवोंका प्रमाणपुणो सेस - भागं घउत्थ - पुजे पविखत चरिदिय - पज्जत्ता होति । तस्स ठवणा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २०२ ] ती || 25 या [ ( × × × {7})+ क्र० १. या १ ५८३२+४ या ६५६१ २. Y अर्थ- पुनः शेष एक भागको चतुर्थ पुञ्ज में मिला देनेपर चार इन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। इसकी स्थापना इसप्रकार है (*xxx¥) ] ३. 1xs ४. वि (८×९×८१)+४ ८१८१ नाम पर्याप्त तेन्द्रिय जीवों का प्रमाण पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों का प्रमाण पर्याप्त पञ्चेन्द्रियों का प्रमाण पर्याप्त चतुरिन्द्रियों का प्रमाण पंचमो महाहियारो पर्याप्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका प्रमाण समभाग + 7*1+ ६ * * + 1 t*5 * * vka २ । + + ५८६४ ६५६ देयभाग== des ३३ दुवै TH च = 115 105 [ १६३ २६३६ प्रमाण ffi ३ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८२ अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका प्रमाणपुणो 'पृथ्वस्त-मोड़ दियादि-सामाण्ण-रासिम्मि सग-सग-पज्जत्त-रासिमबणिदे सग-सग-अपज्जस-रासि-पमाणं होदि । तं चेयं -. . P M वि ना . . -८४२४ । रि। ४।४।६५६१। ५। ८४२४ =६१२० । रि। । ४।४ । ६५६१ -५८६४। रि। । ४।४। ६५६१ । । ५। ५८६४ । -५८३६ । रि। ४।४।६५६१ । अर्थ-पुनः पूर्वोक्त दोइन्द्रियादि सामान्य राशिमेंसे अपनी-अपनी पर्याप्त राशिको घटा देनेपर शेष अपनी-अपनी अपर्याप्त राशिका प्रमाण होता है ।। यथा अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका प्रमाण नाम सामान्य जीवराशि पर्याप्त जीवराशि अपर्याप्त जीव-राशि द्वीन्द्रिय जीव IIrd = 500 = SK11 [ (८४२४)-५(६१२०)]। रि - - तेइन्द्रिय जीव ४।।1६५६१ -५१ चतुरिन्द्रिय ४.४।६५६१ [3(५८६४-५ ५८३६)] पंचन्द्रिय कई = SAII ।।४।४।६५६१ [3(५८३६)-५ (५ ४.६५६४ (५८६४) १.६ पृऊत्तर, म पुज्यत्तर । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म । . - गाथा : २८२ ] पंचमो महाहियारो [ १६५ तिर्वञ्च असंज्ञी पर्याप्त जीवोंका प्रमाणपुणो पंचेन्द्रिय - पज्जत्तापञ्जत्त - रासीणं मझे देव-धोरइय-मणुस-देवरासिसंखेज्जविभागभूद-तिरिक्ख-सण्णि-रासिमवणिवे अवसेसा तिरिक्ख - असण्णि - पज्जत्तापज्जत्ता होति । तं चेदं पज्जत्त । - रिण रासि = ४।६५५३६ ५६६ ११३ मू० ४ । ६५५३६।७। ७ । ५' अर्थ-पुन: पंचेंन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त राशियोंके मध्यमेंमे देव, नारकी, मनुष्य तथा देवराशिके संख्यातवें भाग प्रमाण तिर्यञ्च संजी जीवोंकी राशिको घटा देनेपर शेष तिर्थञ्च असंशी पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है । विशेषार्थ-सम्पुर्ण पंचेन्द्रिय पर्याप्त राशिका प्रमाण ५५४ है। और देव राशिका प्रमाण । ६५५३६ । नरक राशिका - २ मू । पर्याप्त मनुष्य राशि का ---- तथा तिर्यंच संज्ञी राशिका प्रमाण ३ । ६५५३६ । ७ । ७ । । है। उपर्युक्त पंचेन्द्रिय पर्याप्त राशिमेंसे देव, नारकी, पर्याप्त मनुष्य और संज्ञी तियंच, इन चारों राशियों को घटा देनेपर जो शेष बचता है वही असंज्ञी पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है । जो स्थापना मूलमें की गई है उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है – =जगत्प्रतर और ४ प्रतरांगुलका प्रतीक है। -२ मू का अर्थ है, जगच्छरणीका दूसरा वर्गमूल। - 4_ का अर्थ है, सूच्यांगुलके प्रथम एवं तृतीय मूल का परस्पर गुरसा करने १।३ । मू पर जो लब्ध प्राप्त हो उससे जगच्छ्रेणीको भाजित कर १ घटा देना चाहिए । पश्चात् जो अवशेष रहे वह पर्याप्त मनुष्यकी संख्याका प्रमाण होता है। तिर्यञ्च संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त जीवराशिका प्रमाण पुणो पुव्वं अवणिद-तिरिक्ख-सण्णि-रासीणं तप्पाओग्ग-संखेज्ज-हवेहि खंडिने तस्थ बहभागा तिरिक्ख-सपिण-पंचेदिय-पज्जत्त-रासो होधि, सेसेगभाग सण्णि-पंचेदियअपज्जत्त-रासि-पमाणं होदि । तं चेदं । ६५ = । ७ । ७ । । । । ६५= | 01७६। एवं संखा-परूवणा समता ॥७॥ अर्थ—पुनः पूर्व में अपनीत तियंञ्च संज्ञी राशिको अपने योग्य संख्यात रूपोंसे खण्डित करने पर उसमें से बहभाग तिर्यञ्च संज्ञी पधेन्द्रिय पर्याप्त जीवराशि होती है और शेष एक भाग (तिर्यञ्च) संज्ञी पधेन्द्रिय अपर्याप्त जीवराशिका प्रमाण होता है ।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २८३-२८५ विशेषार्य-तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय पर्याप्त राशिका प्रमाण देवराशि ( ३ । ६५= । ७ } के संख्यातवें भाग प्रमाण अथान् । ६५ । ७ । ७ होता है । अथवा ३ । ६५५३६ । ७ १७ । होती है । यहाँ-जगत्प्रतर, ४ प्रतरांगुल, ६५=पण्णट्ठी अर्थात् ६५५३६ तथा ७ संख्यातका प्रतीक है । इसलिए इस राशि को तत्प्रायोग्य संख्यात (५) से खण्डित करनेपर बहुभाग मात्र संजी और पर्याप्त तियं च प चेन्द्रिय जीवराशि ६ ६५५३६ ५ ७ । ७३ प्रमाण होती है । तथा शेष एक भाग संज्ञो पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीव राशि ३ । ६५५३६ । ७ । ७११ प्रमाण होती है । इसप्रकार संख्या-प्ररूपणा समाप्त हुई ।।७।। स्थावर जीवोंकी उत्कृष्टायुसुद्ध-खर-भू-जलाणं, बारस बाबीस सत्त य सहस्सा । तेउ-तिय विवस-तियं, बरिसं ति-सहस्स दस य जेट्ठाऊ ॥२३॥ १२००० । २२००० । ७००० । दि ३ । व ३००० । व १०००० । अर्थ-शुद्ध पृथिवोकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट प्रायु बारह हजार { १२००० ) वर्ष, स्वर पृथिवीकायिक की बाईस हजार ( २२०००) वर्ष, जलकायिक की सात हजार ( ७०००) वर्ष, तेजस्कायिक की तीन दिन, वायुकायिककी तीन हजार ( ३०००) वर्ष और वनस्पतिकायिक जीवोंकी दस हजार ( १०००० ) वर्ष प्रमाण है ॥२८३।। विकलेन्द्रियों और सरीसृपोंकी उत्कृष्टायुवास-दिण-मास-बारसमुगुवगणं छक्क वियल-जेट्ठाऊ । णय • पुच्वंग - पमाणं, उक्कस्साऊ सरिसबाग' ॥२८४।। व १२ । दि ४९ । मा ६ । पुवंग है। अर्थ-बिकलेन्द्रियोंमें दोइन्द्रियोंकी उत्कृष्टायु बारह (१२) वर्ष, तीन इन्द्रियोंकी उनचास दिन और चारइन्द्रियोंकी छह (६) मास प्रमाण है। (पंचेन्द्रियोंमें ) सरीसृपोंकी उत्कृष्टायु नौ पूर्वाङ्गप्रमाण होती है ।।२८४।। पक्षियों, सर्पो और शेष तिर्यंचोंकी उत्कृष्टायु-- बाहत्तरि बादालं, वास-सहस्साणि पक्खि-उरगाणं । अवसेसा - तिरियाणं, उक्कस्सं पुरुब - कोडीओ ॥२८॥ ७२००० । ४२००० । पुषकोडि १। १. व. ब. सरिपाणं। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८६-२८९ ] पंचमो महाहियारो [ १६७ प्रयं-पक्षियोंकी उत्कृष्ट आयु बहत्तर हजार ( ७२००० ) वर्ष और सर्पोको बयालीस हजार (४२००० ) वर्ष प्रमाण होती है। शेष तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि प्रमाण है।॥२८॥ तिर्यञ्चोंके यह उत्कृष्ट आयु कहाँ-कहाँ और कब प्राप्त होती हैएदे उक्कसाऊ, पुष्यावर-बिवेह-जाद'-तिरियाणं । सरसावधि-सिक्य, बाहरमागे संबंपह-गिरीको ।।२०६॥ तत्थेव सव्वकालं, केई जीवाण भरह - एरवदे । तुरिमस्स पढमभागे, एवार होदि उक्कस्सं ॥२७॥ प्रर्थ-उपर्युक्त उत्कृष्ट आयु पूर्वापर विदेह क्षेत्रों में उत्पन्न हुए तिर्यञ्चोंके तथा स्वयम्प्रभ पर्वतके बाह्य कर्मभूमि-भागमें उत्पन्न हुए तिर्यञ्चोंके ही सर्वकाल पायी जाती है । भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर चतुर्थकालके प्रथम भागमें भी किन्हीं तिर्यचोंके उक्त उत्कृष्ट प्रायु पायी जाती है ।। २८६-२८७ ।। कर्मभूमिज तिर्यचोंको जघन्य आयु– उस्सासस्स - द्वारस - भागं एइदिए जहण्णाऊ । वियल - सलिबियाणं, तत्तो संखेज्ज - संगुणिदे ॥२८८।। मर्थ - एकेन्द्रिय जीवोंकी जघन्य प्रायु उच्छ्वासके अठारहवें भाग प्रमाण और विकलेन्द्रिय एवं सकलेन्द्रिय जीवोंकी क्रमशः इससे उत्तरोत्तर संख्यात-गुणी है ॥२८८।। भोगभूमिज तिर्यंचोंकी प्रायुवर-मज्झिमवर-भोगज-तिरियारणं तिय दुगेक्क-पल्लाऊ । प्रवरे वरमिम तत्तिय - मविणस्सर - भोगभूवाणं ॥२८६।। प३ । १२ । प १ । प्रर्व-उत्कुष्ट, मध्यम और जघन्य भोगभूमिज तिर्यंचोंकी आयु क्रमश: तीन पल्प, दो पल्य और एक पल्य प्रमाण है । अविनश्वर भोगभूमियोंमें जघन्य एवं उत्कृष्ट आयु उक्त तीन प्रकार ही है ॥ २८९ ॥ --. -.. - १. ब. जदि। २... क. अ. गिरियो । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] तिलोयपण्यत्ती [ गाथा : २९०-२९४ समय-जुद -पुण्य- मोती, पदहराम हेगग-जहण्णयं आऊ । उक्कस्समेक्क - पल्लं, मज्झिम • भेयं अणेयविहं ।।२६०॥ अर्थ-जघन्य भोगभूमिजोंको जघन्य आयु एक समय अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट प्रायु एक पल्य-प्रमाण है । मध्यम प्रायुके अनेक प्रकार हैं ।।२९०।। समय-जुद-पल्लमेक्क, जहग्णय मज्झिमम्मि अवराऊ । उक्कस्सं दो - पल्लं, मज्झिम - भेयं अणेय - विहं ॥२६॥ अर्थ-मध्यम भोगभूमिमें जघन्य आयु एक समय अधिक एक पल्य और उत्कृष्ट प्रायु दो पल्य प्रमाण है । मध्यम आयुके अनेक प्रकार हैं ।।२९१।।।। समय-जुद-दोणि-पल्लं, जहण्णयं तिण्णि-पल्लमुक्कस्सं । उक्कसिय • भोयभुए, मज्झिम - भेयं अणेय - विहं ॥२६२।। आऊ समत्ता ॥८॥ अर्थ उत्कृष्ट भोगभूमिमें जघन्य आयु एक समय अधिक दोपल्य और उत्कृष्ट तीन पल्यप्रमाण है । मध्यम अायुके अनेक भेद हैं ।।२९२।। आयुका वर्णन समाप्त हुआ 11८॥ तिर्यञ्च आयुके बन्धक भाव-- प्राउग-बंधण-काले', भू - भेदट्ठी - उरभयस्सिगा। चक्क-मलो व्य कसाया, छल्लेस्सा - मज्झिमंसेहि ।।२६३।। जे जुत्ता णर-तिरिया, सग-सग-जोहि लेस्स-संजुत्ता । णारइ - वेषा केई, णिय-जोग-तिरिक्खमाउ बंधति ॥२६४॥ आउग-बंधण-भावं समत्त ॥६॥ अर्थ-आयुके बन्धकालमें भरेखा, हड्डी, मेढ़ेके सींग और पहियेके मल ( ओंगन ) सदृश क्रोधादि कषायोंसे संयक्त जो मनुष्य और तिर्यंच जीव अपने-अपने योग्य छह लेण्यायोंके मध्यम अंशों सहित होते हैं तथा अपने-अपने योग्य लेश्याओं सहित कोई-कोई नारकी एवं देव भी अपने-अपने योग्य तिर्यच आयुका बन्ध करते हैं ।।२९३-२९४।।। ___ आय-बन्धक भावोंका कथन समाप्त हुआ ॥९॥ - -. . .. . १६. ब क, ज. कालो । २. उग्गुरुभयस्सिगा। . - - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । २९५-२९९ ] पंचमो महायिारो तिर्यंचोंकी उत्पत्ति योग्य योनियांउपती तिरियाणं, मान-समुग्थियो ति सलगं । सचिवस-सीद-संबद-सेदर-मिस्सा य जह - जोग्गं ॥२६५॥ अर्थ-तिर्यञ्चोंको उत्पत्ति गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्मसे होती है । इनमेंसे प्रत्येक जन्मकी सचित्त, शीत, संवृत तथा इनसे विपरीत प्रचित्त, उष्ण, विकृत और मिश्र (सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत }, ये यथायोग्य योनियाँ होती हैं ।।२९५।।। गम्भम्भव-जीवाणं, मिस्सं सच्चित्त - णामधेयस्स । सीदं उण्हं मिस्सं, संवद - जोणिम्मि मिस्सा य ॥२६॥ प्रर्थ-गर्भसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सचित्त नामक योनिमसे मिश्र (सचिताचित्त), शीत, उष्ण, मिश्र ( शीतोष्ण ) और संवृत योनिमें से मिश्र ( संवृत-विवृत ) योनि होती है ॥२९६।। समुच्छिम-जीवाणं, सचित्ताचित्त-मिस्स-सीदुसिणा । मिस्सं संवद - वियुदं, णव-जोणीओ हु सामण्णा ॥२६७॥ अर्थ-सम्मूर्छन जीवोंके सचित्त, अचित्त, मिश्र, शीत, उष्ण, मिश्र, संवृत, वित्त और संवृत-विवृत, ये साधारणरूपसे नो ही योनियां होती हैं ।।२९७॥ तिर्यचोंको योनियोंका प्रमाणपुढवी-आइ-चउक्के, णिच्चिविरे सत्त-लक्ख पत्तक्क । दस लक्खा रुक्खाणं, छल्लक्खा वियल-जीवाणं ॥२६॥ पंचक्खे चउ-लक्खा, एवं बासट्टि-लक्ख-परिमाणं । णाणाविह - तिरियाणं, होति हु जोणी विसेसेणं ॥२६॥ एवं जोणी समता ॥१०॥ अर्थ-पृथिवी आदिक चार तथा नित्यनिगोद एवं इतरनिगोद इनमें प्रत्येकके सात लाख, वृक्षोंके दस लाख, विकल-जीवोंके छह लाख और पंचेन्द्रियोंके चार लाख, इसप्रकार विशेष रूपसे नाना प्रकारके तिर्यचोंके ये बासठ लाख प्रमाण योनियां होती हैं ।।२६८-२९९।। इसप्रकार योनियोंका कथन समाप्त हुआ ॥१०॥ १.... गम्भुविभव । २. ६. ब. क. ब. माद। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णसी तिचोंमें सुख-दुःखकी परिकल्पना सवे भोगभुवाणं, संकप्पवसेण होइ सुहमेषकं । कम्माचरिंग - तिरियाणं, सोक्खं द्रवखं च संप्पो ॥ ३०० ॥ सुह- दुक्खं समत्तं ॥ ११ ॥ अर्थ- - सब भोगभूमिज तिर्यंचोंके संकल्पबश केवल एक ही ( मात्र ) सुख होता है और कर्मभूमिज तिथंच जीवोंके सुख एवं दुःख दोनोंकी कल्पना होती है ॥ ३०० ॥ सुख-दुःखका वर्णन समाप्त हुआ ।।११।। तिर्यंचोके गुणस्थानोंका कथन तेत्तीस - मेद-संजु - तिरिक्ख-जीयारण सम्ब- कालम्मि | मिच्छत्त गुणद्वाणं, वोच्छं सण्णीण तं माणं ।। ३०१ ।। १७० ] - [ गाथा : ३००-३०४ अर्थ -- संज्ञी ( पर्याप्त ) जीवोंको छोड़कर शेष तैंतीस प्रकारके भेदोंसे युक्त तिर्यंच जीवोंके सब कालमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है । अब संज्ञी जीवोंके गुणस्थान- प्रमाणका कथन करते हैं ||३०१ || पण पर अज्जाखंडे, भरहेरावदम्मि मिच्छ गुणठाणं । अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कमाइ दीसंति ॥ ३०२ ॥ अर्थ- - भरत और ऐरावत क्षेत्र स्थित पाँच-पाँच श्रार्यखण्डों में जघन्य रूपसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते हैं ।। ३०२ || पंच- विदेहे सट्टी, समदि सद-अज्जखंडए तत्तो । विज्जाहर सेढीए, बाहिरभागे सयंपह - गिरीदो || ३०३ || - सासण- मिस्स - विहीणा, तिगुणद्वाणाणि थोय-कालम्म | अवरे यरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ वीति ॥ ३०४ ॥ - पाँच विदेहक्षेत्रोंके एक सौ साठ आर्य खण्डों में, विद्याधर थे णियों में और स्वयम्प्रभ पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोड़ तीन गुणस्थान जघन्यरूपसे स्तोक कालके होते हैं । उत्कृष्टरूपसे पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं ।। ३०३-३०४।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३०५-३०६ ] पंचमो महाहियारो [ १७१ सध्वेसु वि भोगभुवे, दो गुणठाणाणि थोषकालम्मि ! दीसंति चउ-वियप्पं, सच्च-मिलिच्छम्मि' मिच्छत्तं ॥३०५॥ अर्थ सर्व भोगभूमियोंमें दो ( मिथ्यात्व और अविरत स. ) गुणस्थान और स्तोककालके लिए चार गुणस्थान देखे जाते हैं। सब म्लेच्छ खण्डोंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है ।।३०५॥ जीवसमास आदिका वर्णनपज्जत्तापज्जत्सा, जीवसमासाणि सयल-जीवाणं । पज्जत्ति - अपज्जत्ती, पाणाम्रो होति णिस्सेसा ॥३०६।। प्रर्ष सम्पूर्ण जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों जीव-समास, पर्याप्ति एवं अपर्याप्ति तथा सब ही प्रारण होते हैं ॥३०६॥ घउ-सण्णा तिरिय-गवी, सयलाओ इंदियाम्रो छपकाया। एक्कारस जोगा तिय - येवा कोहादिय - कसाया ॥३०७॥ छग्णाणा वो संजम, तिय-दसण वव्व-भावदो लेस्सा । छच्चेव य भविय - दुगं छस्सम्मत्तेहिं संजुत्ता ॥३०८।। सण्णि-असण्णी होलि हु, ते पाहारा तहा प्रणाहारा। णाणोघजोग - सण • उवजोग - जुदाणि ते सध्ये ॥३०६।। एवं गुणठाणादि-समत्ता ॥१२॥ अर्थ सब तिर्यंच जीवोंके चारों संज्ञाएँ, तिर्यंचगति, समस्त इन्द्रियाँ, छहों काय, ग्यारह योग ( वैऋियिक, वैऋियिकमिश्र, प्राहारक और आहारक मिश्रको छोड़कर ), तीनों वेद, क्रोधादिक चारों कषाय, छह ज्ञान ( ३ ज्ञान, ३ प्रज्ञान ), दो संयम ( असयम एवं देशसंयम ), केवलदर्शनको छोड़कर शेष तीन दर्शन, द्रध्य और भावरूपसे छहों लेश्याएं, भव्यत्व-अभन्यत्व और छहों सम्यक्त्व होते हैं । ये सब तिथंच संज्ञी एवं प्रसंज्ञो, पाहारक एवं अनाहारक तथा ज्ञान एवं दर्शनरूप दोनों उपयोगों सहित होते हैं ।।३०७-३०६ ।। इसप्रकार गुणस्थानादिका कथन समाप्त हुआ ।।१२।। १.व.क. मेलम्चम्मि । २.ब. सव्य । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] तिलोयपण्णत्तो [ गाथा : ३१०-३१३ तिर्यंचोंमें सम्यक्त्व ग्रहणके कारणकेइ पडिबोहणेण य, केइ सहावेण तासु भूमोसु। बठ्ठणं सुह - दुक्खं, केइ तिरिक्खा बहु-पयारा ।।३१०॥ जादि-भरणेण केई, केइ जिरिणदस्स महिम-वंसणदो। जिबिब-दंसणेण य, पढमुवसम' वेदगं च गेहति ॥३११॥ सम्मन-गहणं गवं ॥१३॥ अर्थ --उन भूमियोंमें कितने ही सिर्यच भी विरोध और कितने ही स्वभावसे भी प्रथमोपशम एवं वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं । इसके अतिरिक्त बहुत प्रकारके तिर्यंचोंमेंसे कितने ही सुख-दुःखको देखकर, कितने ही जातिस्मरणसे, कितने ही जिनेन्द्र महिमाके दर्शनसे और कितने ही जिनबिम्बके दर्शनसे प्रथमोपशम एवं वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ।।३१०-३११।। इसप्रकार सम्यक्त्व ग्रहणका कथन समाप्त हुआ ।।१३।। तिथंच जीवों की गति-आगतिपुढवि-प्पहदि-वणप्फदि-अंतं वियला य कम्म-गर-तिरिए । ण लहंति तेउ - वाउ, मणुवाउ अणंतरे जम्भे ॥३१२॥ अभ-पृथिवीको प्रादि लेकर वनस्पतिकायिक पर्यन्त स्थावर और विकलेन्द्रिय जीव कर्मभमिज मनुष्य एवं तिर्यचोंमें उत्पन्न होते हैं । परन्तु विशेष इतना है कि तेजस्कायिक और वायकायिक जीव अनन्तर जन्ममें मनुष्यायु नहीं पाते हैं ।।३१२॥ बत्तीस-भेव-तिरिया, ण होंति कहयाइ भोग-सुर-णिरए। सेढिघणमेत - लोए, सच्चे अक्खेसु जायंति ॥३१३॥ अर्थ-बत्तीस प्रकारके तिर्यच जीव, भोगभूमिमें तथा देव और नारकियोंमें कदापि उत्पन्न नहीं होते । शेष जीव श्रेणीके धनप्रमाण लोकमें सर्वत्र ( कहीं भी ) उत्पन्न होते हैं ॥३१३।। विशेषार्थ'-गाथा २८२ में तिथंच जीवोंके ३४ भेद कहे हैं इनमें से संज्ञी पर्याप्त और असंझी पर्याप्त ( जीवों ) को छोड़कर शेष ३२ प्रकारके तिर्यच जीव भोगभूमिमें तथा देव और नारकियों में कदापि उत्पन्न नहीं होते । १. द. ब. क.ज. पढमुवसमें। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३१४-३१६ ] पंचमो महाहियारो [ १७३ पढम-धरंतमतण्णी, भवतिए सयल-कम्म-गर-सिरिए। सेबिघणमेत्त - लोए, सन्चे अक्खेसु जायंति ॥३१४॥ अर्थ- असंज्ञीजीव प्रथम पृथिवीके नरकोंमें, भवनत्रिक में और ममस्त कर्मभूमियोंके मनुष्यों एवं तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं । ये सब थे गोको घनप्रमाण लोकमें कहीं भी पैदा होते हैं ।।३१४।। संखेज्जाउव-सणी, सदर-सहस्सारो त्ति जायति । णर-तिरिए णिरएसु, वि संखातीदाउ जाव ईसाणं ॥३१५॥ अर्थ-स'ख्यातवर्षकी प्रायुबाले सज्ञी तिर्यच जीव शतार सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त ( देवोंमें ) तथा मनुष्य, तिर्यंच और नारकियों में भी उत्पन्न होते हैं। परन्तु असंख्यातवर्ष की आयुवाले संजी जीव ईशान कल्प पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं ।।३१५।। चोत्तीस-मेद-संजुद-तिरिया हु अणंतरम्मि जम्मम्मि । ण हुँति सलाग - रणरा, भजणिज्जा णिवुदि-पवेसे ॥३१६।। एवं संकमणं गई ॥१४॥ अर्थ--चौंतीस भेदोंसे संयुक्त तिर्यंच जीव निश्चय ही अनन्तर जन्म में शलाका-परुष नहीं होते । परन्तु मुक्ति-प्रवेशमें ये भजनीय हैं । अर्थात् अनन्तर जन्ममें ये कदाचित् मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं ।।३१६।। इसप्रकार संक्रमणका कथन समाप्त हुआ।१४।। तिर्यंच जीवोंके प्रमाएका चौंतीस पदोंमें अल्पबहुत्व--- एतो चोसीस-पदमप्पबहुलं वत्तइस्लामो । तं जहा–सन्वत्थोवा तेउकाइयबादर-पज्जत्ता। रि। पंचेंदिय - तिरिक्ख - सण्णि - अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा ।४। ६५५३६ । ७।७।। सण्णि-पज्जत्ता संखेज्जगुणा । ४ । ६५५३६ । ७ । ।। चरिदिय-पज्जत्ता संखेज्जगुणा: । पंचेविय-तिरिक्खा असगिणपज्जता विसेसाहिया ।। १५ । रिण रासि ३ । ६५५३६ । - २ मू । । । । । ६५५३६ ॥ ५ ॥ बोइदिय-पज्जत्ता विसेसाहिया ।। ६३.९ । सोइ दिय-पज्जत्ता विसेसाहि । । चरिदिय-असणिण-अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३१६ ५। ५८६४ 13 | रि | रिण हैं । ६५५३६ । ७ १७ । । । चरिदिय-अपज्जसा विसेसाहिया = | ५८६४ । रि। ४ । ४ । ६५६१ । ती दिय-अपज्जत्ता वि ५1८४२४ -|६१२० । रि। ४।४। ६५६१। ५। ६१२०। बीई दिय-अपज्जत्ता बिसेसाहिया = १६४२४रि । ४। ४१६५६१ । || अपविटिव-पज्जता असंखेज्जगुणा F ॥ पविडिव-पत्ता असंखेज्जगुणा ॥ पुढवि-दादर-पज्जत्ता-प्रसंखेज्जगुणा ४ आउ-बावर-पज्जत्ता असंखेज्जगुणा Ra बाउ-बादर-पन्जत्ता असंखेज्जगुणा = ७ । अपदिट्टिद-अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा = रि रिण ।।९।। । ।९।१। पदिदिद-अपज्जत्ता असंखेजगुणा = रि = रि रिण <|| १।९।९। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७५ गाथा : ३१६ ] पंचमो महायिारो तेउ-बादर-अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा = रि ? रिण । पुढवि-बादर-प्रपज्जत्ता विसेसाहिया == रि ! : रिण 1 है। पाउ-बादर-अपज्जत्ता विसेसाहिया : रि १० १० : रिण ६ PAKI याउ'-बादर-अपज्जता बिसेसाहिया = रि... रिण । तेउ.सुहुम-अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा :- रि । पुढवि-सुहुम-अपज्जत्ता बिसेसाहिया = रि १०६३। प्राउ-सुहम-अपज्जत्ता विसेसाहिया --- रि १०१०१। बाउ-सुहम-अपज्जत्ता विसेसाहिया = रि १० ... । तेउकाय-सुहुम-पज्जत्ता संखेज्जपुणा = रि । पुढवि-सुहुम-पजत्ता विसेसाहिया - रि ०६६। आउ-सुहम-पज्जत्ता विसेसाहिया = रि याउ-सुहुम-पज्जत्ता विसेसाहिया : रि० १० १०६ साहारण-यादर-पज्जत्ता-अणंतगुणा १३ = । साहारण-बादर-अपज्जत्ता प्रसंखेज्जगुणा १३ = । साहारण-सुहुम-अपज्जत्ता' असंखेज्जगुणा १३ =१। साहारण-सुहम-पज्जत्ता असंखेज्जगुणा १३ = ६। एवमप्पबहुलं समत्तं ॥१५॥ १.द. ब. आउबादरपज्जत्ता। २. द.ब. पज्जत्ता। ३. द.म. पज्जत्ता । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३१६ अर्थ - अब यहाँ से आगे चौतीस प्रकारके तिर्यत्रों में अल्पबहुत्व कहते हैं । वह इसप्रकार (१) बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव सबसे थोड़े हैं । (२) इनसे प्रसंख्यातगुणे पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी अपर्याप्त हैं । (३) इनसे संख्यातगुणे संज्ञी पर्याप्त हैं। (४) इनसे संख्यातगुणे चार इन्द्रिय पर्याप्त हैं । (५) इनसे विशेष अधिक पन्वेन्द्रिय तिर्यंच प्रसंज्ञी पर्याप्त हैं । ( ६ ) इनसे विशेष अधिक दो इन्द्रिय पर्याप्त हैं । ( 9 ) इनसे विशेष अधिक तीन इन्द्रिय पर्याप्त हैं । (5) इनसे असंख्यात गुणे असंज्ञी अपर्याप्त हैं । (९) इनमें विशेष अधिक चार इन्द्रिय अपर्याप्त हैं । (१०) इनसे विशेष अधिक तीन इन्द्रिय अपर्याप्त हैं । ( ११ ) इनसे विशेष अधिक दो इन्द्रिय अपर्याप्त हैं । (१२) इससे असंख्यातगुणे अप्रतिष्ठित पर्याप्त प्रत्येक हैं । (१३) इनसे असंख्यातगुणे प्रतिष्ठित पर्याप्त प्रत्येक जीव हैं । (१४) इनसे असंख्यातगुणे पृथिवीकायिक बादर पर्याप्त जीव हैं । (१५) इनसे असंख्यातगुणे बादर जलकायिक पर्याप्त जीव हैं। (१६) इनसे असंख्यातगुणे बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव हैं । (१७) इनसे असंख्यातगुणे अप्रतिष्ठित अपर्याप्त हैं । (१०) इनसे असंख्यातगुणे प्रतिष्ठित पर्याप्त हैं। (१९) इनसे असंख्यातगुणे तेजस्काधिक बादर अपर्याप्त हैं । (२०) इनसे विशेष अधिक पृथिवीकायिक बादर पर्याप्त जीव हैं । (२१) इनसे विशेष अधिक जलकायिक बादर अपर्याप्त जीव है । (२२) इनसे विशेष अधिक वायुकायिक बादर अपर्याप्त जीव हैं । ( २३ ) इनसे प्रसंख्यातगुणे तेजस्कायिक सूक्ष्म अपर्याप्त हैं । (२४) इनसे विशेष अधिक पृथिवोकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त हैं । i Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७७ गाया : ३१७-३१८ ] पंचमो महाहियारो (२५) इनसे विशेष अधिक जलकाधिक सूक्ष्म अपर्याप्त हैं । (२६) इनसे विशेष अधिक वायुकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त है। (२७) इनसे संख्यातगुणे तेजस्कायिक सूक्ष्म पर्याप्त हैं। (२८) इनसे विशेष अधिक पृथिवीकायिक सूक्ष्म पर्याप्त हैं । (२९) इनसे विशेष अधिक जलकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त हैं । (३०) इनसे विशेष अधिक वायुकायिक सूक्ष्म पर्याप्त हैं । (३१) इनसे अनन्तगुण साधारण बादर पर्याप्त हैं । (३२) इनसे असख्यात गुण साधारण बादर अपर्याप्त हैं। (३३) इनसे असंख्यातगुणे साधारण सूक्ष्म अपर्याप्त हैं । और (३४) इनसे संच्यातगुणे साधारण सूक्ष्म पर्याप्त है। इसप्रकार अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुना ॥१५॥ सर्व जघन्य अवगाहनाका स्वामी प्रोगाहणं त अवरं, सुहम-णिगोवस्सपुग्ण-लहिस्स । अंगुल - असंखभागं, जावस्स य तदिय-समयम्मि ||३१७।। अर्थ-सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके उत्पन्न होनेके तीसरे समयमें अंगुलके असल्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना पायी जाती है ।।३१७।। सर्वोत्कृष्ट अवगाहनाका प्रमाणतत्तो पदेस-वढी, जाव य दोहं तु जोयण-सहस्सं । तस्स वलं विक्खंभं, तस्सद्ध बहलमुक्कस्सं ॥३१॥ अर्य- तत्पश्चात् एक हजार योजन लम्बे, इससे आधे अर्थात् पांच सौ योजन चौड़े और इससे प्राधे अर्थात् ढाईसौ योजन मोटे शरीरकी उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त प्रदेश-वृद्धि होती गई है ।।३१८॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] तिलोयपणाती पा : ३१९-३२० एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय पर्यन्त उत्कृष्ट अवगाहनाका प्रमाणजोयण-सहस्समहिनं, बारस कोसूणमेक्कमेक्कं च । दोह-सहस्सं पम्मे, वियले सम्मुच्छिमे महामच्छे ॥३१९॥ १००० । १२ ।। १ । १००० । अर्थ-कुछ अधिक एक हजार (१०००) योजन, बारह योजन, एक कोस कम एक योजन, एक योजन और एक हजार ( १००० ) योजन यह क्रमशः पद्म, विकलेन्द्रिय जीव और सम्मूच्छंन महामत्स्यको अवगाहनाका प्रमाण है ।1३१९।। पर्याप्त वस जीवों में जघन्य अवगाहनाके स्वामीबि-ति-चउ-पुण्ण-जहण्णे, अणुधरी - कुथु-काण-मच्छोसु । सित्थय - मच्छोगाहं, विदंगुल-संख-संख-गुणिव-कमा ।।३२०॥ ७७७७ | ७७७७७७ अर्थ-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें क्रमशः अनुन्धरी, कुन्थु और कानमक्षिका तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सिक्थक-मत्स्यके जघन्य अवगाहना होती है। इनमें से अनुन्धरीकी अवगाहना घांगुलके सख्यातवेंभागप्रमाण और शेष तीनकी उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यातगुणी है ।।३२०॥ ___विशेषार्य-पर्याप्त दो इन्द्रिय अनुन्धरीकी जघन्य अवगाहना चार बार संख्यातसे भाजिस घनांगुल प्रमारण अर्थात् + है । पर्याप्त तीन इन्द्रिय कुन्थुकी जघन्य अवगाहना तीन बार सख्यातसे भाजित घनांगूल (0) प्रमाण है । पर्याप्त चार इन्द्रिय कानमक्षिकाकी जघन्य अवगाहना दो बार संख्यातसे भाजित धनांगुल (0) प्रमाण है और पर्याप्त पंचेन्द्रिय तन्दुल मत्स्यकी जघन्य अवगाहना एक बार संख्यातसे भाजित घनांगुल (3) प्रमाण है । नोट-सहोष्टमें ६ का अंक धनांगुलके ओर ७ का अंक संख्यातके स्थानीय है। ___ अवभाहनाके विकल्पोंका क्रमएस्थ ओगाहण-वियप्पं वत्त इस्सामो । तं जहा-सुहम-णिगोद-लद्धि-अपज्जत्तयस्य तबिय-समयत्तब्भवस्थस्स एगमुस्सेह - धणंगुलं ठविय तप्पासोग्ग - पलिबोवमस्स असंखेज्जविभागेण भागे हिबे वलद्धं एविस्से सव-जहण्णोगाहणा-पमाणं होदि । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ १७९ अर्थ-अब यहाँ अवगाहनाके विकल्प कहते हैं। वे इसप्रकार हैं-उत्पन्न होनेके तीसरे समयमें उस भव में स्थित सूक्ष्मनिगोदिया(१)-लब्ध्यपर्याप्त जीवकी सर्व जघन्य अवगाहनाका प्रमाण, एक उत्सेध-घनांगुल रखकर उसके योग्य पस्योपमके अस ख्यातवें भागसे भाजित करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना है ।। एदस्स उरि एग-पदेसं वढिदे सुहम-णिगोद-लद्धि-अपज्जत्तयस्स भग्झिमोगाहण-वियप्पं होवि । तदो दु-पदेसुत्तर-ति-पदेसुत्तर-चदु-पदेसुत्तर-जाव सुहम-रिंगगोदलद्धि-अपज्जत्तयस्स सव्व - जहपगोगाहणा - णुवरि जहण्णोगाहणा रूकणावलियाए असंखेज्जवि-भागेण गुणिदमेत्तं वढिदा ति। तादे सुहम-वाउकाइय-लद्धि- अपज्जतयस्स सन्य-जहण्णोगाणा दोसइ ।। अर्थ-इसके ऊपर एक प्रदेशकी वृद्धि होनेपर सूक्ष्म-निगोदिया-लब्ध्यपर्याप्तको मध्यम अवगाहनाका विकल्प होता है । इसके पश्चात् दो प्रदेशोतर, तीन प्रदेशोतर एवं चार प्रदेशोत्तर क्रमशः सूक्ष्मनिगोदिया-लब्ध्यपर्याप्तको सर्व-जघन्य अवगाहनाके ऊपर, यह जघन्य अवगाहना एक कम पावलोके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो, उतनी बढ़ जाती है। उस समय सूक्ष्म वायुकायिक(२) लब्ध्यपर्याप्तककी सर्व जघन्य अवगाहना दिखती है ।। ..' एवमवि सुहमणिगोद-लद्धि-अपज्जत्तयस्स मज्झिमोगाहियाण वियप्पं होदि । तदो इमा प्रोगाहणा पदेसत्तर-कमेण वड्ढावेदव्या । तवणंतरोगाहणा रूवणालियाए असंखेजदिभागेण गुणिदमेत्तं वढियो ति। तावे सुहुमतेउकाइय-लद्धि-अपज्जत्तस्ससव्व-जहणोगाहणा दोसइ ।। अर्थ---यह भी सूक्ष्म-निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तककी मध्यम अवगाहनाका विकल्प है। तत्पश्चात इस अवगाहनाके ऊपर प्रदेशोत्तर क्रमसे वृद्धि करना चाहिए। इसप्रकार वृद्धिके होनेपर वह अनन्तर अवगाहना एक कम आवलीके असंख्यातवें भागसे गुरिणतमात्र वृद्धिको प्राप्त हो जाती है । तब सूक्ष्म तेजस्कायिक(३) लब्ध्यपर्याप्तकका सर्वजघन्य अवगाहना स्थान प्राप्त होता है ।। ___ एवमधि पुघिल्ल-दोणं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं होदि । पुणो एदस्सपरिम-पदेसत्तर-कमेण इमा प्रोगाहणा रूऊणावलियाए असंखेज्जदि-भागेण गिदमे बढिदो ति । तादे सहम - प्राउक्काइय • लद्धि-अपज्जत्तयस्स सव्व-जहण्योगाहणा दोसई॥ १. ६. ब. क. ज. वरतीदो त्ति । २. द.ब. पज्जत्तयस्स । ३. द. ब. लदपज्जत्तयस्स। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] तिलोयपणाती [ गाथा : ३२० अर्थ-यह भी पूर्वोक्त दो जीवोंकी मध्यम अवगाहना का ही विकल्प होता है। पुनः इसके ऊपर प्रदेशोतर-मागे वृद्धि होनेपर यह अवगाहना एक कम आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित मात्र वृद्धिको प्राप्त हो जाती है। तब सूक्ष्म जलकायिक(४) लब्ध्यपर्याप्तककी सर्व जघन्य अवगाहना प्राप्त होती है 11 एदमवि पुटिवल्ल-तिण्हं जोवाण मज्झिमोगाहण-वियप्पं होदि । तदो पदेहत्तरकमेण च उण्हं जीवाण मज्झिमोगाण-वियप्पं यदि जाव इमा भोगाहणा हवूणावलियाए प्रसंखेज्जविभागेण गुणिवमेत्तं वड्ढिदो त्ति । तादे सहुम-पुढधिकाइय-लद्धि-अपज्जत्तयस्स सव्य-जहण्णोगाहणा वीसइ ॥ अर्थ-यह भी पूर्वोक्त तीन जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प है। पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे चार जीवों की मध्यम अवगाहना चालू रहती है । जब यह अवगाहना एक कम प्रावलोके असंख्यातवें भागसे गुणितमात्र वृद्धिको प्राप्त होती है, तब मूक्ष्म-पृथिवीकायिक(५) लब्ध्यपर्याप्तकको सर्व जघन्य अवगाहना ज्ञात होती है ।। तदो पहुवि पदेसुत्तर-कमेण पंचण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं यदि । इमा प्रोगाहणा ऊण-पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदमेत वढिदो ति । सादे बादर-बाउकाइय-लद्धि-अपज्जत्तयस्स सम्व-जहण्गोगाहणा दोसइ ।। अर्थ--यहाँसे लेकर प्रदेशोत्तर अमसे पाँच जीवोंकी मध्यम अवगाहमा चालू रहती है । यह अवगाहना एक कम पस्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणितमात्र वृद्धि प्राप्त हो जाती है । तब बादर वायुकायिक(६) लक्ष्यपर्याप्तककी सर्व-जघन्य अवमाहना दिखती है । तो उपरि पवेसत्तर-कमेण छगणं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बदि जाव इमा प्रोगाइणा हऊण-पलिदोयमस्स असंखेज्जवि-भागेण गुणिवमेत वढिदो त्ति । तावे बावर तेउकाइय-अपज्जत्तस्स सन्त्र-जहण्णोगाहणा वीसइ । अर्थ-इसके ऊपर प्रदेशोत्तर क्रमसे छह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प प्रारम्भ रहता है। जब यह अवगाहना एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुरिगतमात्र वृद्धिको प्राप्त होती है, तब बादर तेजस्कायिक(७)-अपर्याप्तककी सर्व-जघन्य अवगाहना दिखती है ।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [१८१ तदोपदेसुत्तर-कमेण सत्तण्हं जोवारणं मज्झिमोगाहणा-वियप्पं यट्टदि जाव इमा ओगाहणामुवरि 'रूऊण-पलिदोवमस्स असंखेज्जदि-भागेण गुणिद-तदणंतरोगाहण-पमाण वढिदो त्ति | ताद बादर-पाउ-लद्धि-अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं बीसइ ।। अर्थ - पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे सात जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प चालू रहता है जब इस अवगाहनाके ऊपर एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुपित उस अनन्तर अवगाहना का प्रमाण बढ़ चुकता है, तब बादर जलकायिक(८) लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर-कमेण अटण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण - वियप्पं वदि जाव तवणंतरोवगाहणा रूऊण-पलिदोवमस्स असंखेदिभागेण गुणितमेतं तरि नजिद्दो ति । तादे बावर-पुढवि-लद्धि-अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं दोसइ ।।। अर्थ--तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे पाठ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प चाल रहता है। जव तदनन्तर अवगाहना एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणितमात्र ( इस )के ऊपर वृद्धिको प्राप्त होती है, तब बादर पृथिवीकायिक(s) लब्ध्यपर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर-कमेण णवण्हं जोधाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बढदि जाव तवणंतरोगाहणा रूऊण-पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण गुणिवमेत्तं तदुरि वढिदो त्ति । तादे बावर-णिगोद-जीव-लद्धि-अपज्जत्तयस्स सम्व जहण्णोगाहणा होति ।। पर्थ--तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-कमसे उपर्युक्त नो जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है। जब तदनन्तर अवगाहना एक कम फ्ल्योपमके असंख्यातभागस गुरिणतमात्र (इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त होती है, तब बादर निगोद(१०)-लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी सर्व जघन्य अवगाहना होती है ।। तदो पदेसुत्तर-कमेण दसण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बढदि एविस्से ओगाहणाए उरि इमा ओगाणा रूऊण - पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिवमेतं बलिदो ति । तादे णिगोद-पदिट्ठिव-लद्धि-अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाला दोसइ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] तिलोयपपत्ती [ गाथा : ३२० अर्थ—पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे उक्त दस जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है, जब इस अवगाहनाके ऊपर यह अवगाहना एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागस गुरिणतमात्र वृद्धिको प्राप्त हो चुकती है, तब निगोदप्रतिष्ठित(११) लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है । तदो पदेसुत्तर-कमेण एक्कारस-जीवाण मज्झिमोगाहण-वियप वढदि जाव इमा प्रोगाहणा-मुवरि रूऊण-पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण गुणिद-तदणंतरोगाहरणमेतं वडिढदो' ति । ताहे बादर-वणप्फविकाय-पत्तेय-सरोर-लनि-अपज्जसयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ॥ अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे उक्त ग्यारह जोवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढता जाता है, जब इस अवगाहनाके ऊपर एक कम पस्योपमके असंख्यातवें भागसे गुरिणत तदनन्तर अवगाहना प्रमाण वृद्धि हो चुकती है, तब बादर वनस्पतिकायिक(१२)-प्रत्येक शरीर लब्ध्यपर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखती है ॥ तको पदेसुत्तर-कमेण बारसण्हं जीवाण मज्झिमोगाहग-वियप्पं बड्ढदि तवणंतरोवगाहणा रूऊण-पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण गुणिवमेतं तदुरि बढिदो ति । तादे बोइंदिय-लद्धि-अपज्जत्तयस्स सव-जहण्णोगाहणा बीसइ॥ अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे उक्त बारह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है जब तदनन्तर अवगाहना एक कम पल्पोपमके असंख्यातवें भागसे गणितमात्र (उसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त हो चुकती है, तब दो इन्द्रिय(१३) लब्ध्यपर्याप्तककी सर्व जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तवो पहुवि पदेसुत्तर-कमेण तेरसण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बडढदि जाव तदणंतरोगाहण-ऊरण-पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेरण गुणिवमेत्तं तदुवरि वडिलदो त्ति । तदो तोइविय-लद्धि-अपज्जप्तयस्स सव्व जहष्णोगाहणा दीसइ ॥ अपं- तत्पश्चात् यहाँसे आगे प्रदेशोत्तर-क्रमसे उक्त तेरह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है जब तदनन्तर अवगाहना-विकल्प एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुरिणतमात्र ( उस )के ऊपर वृद्धिको प्राप्त हो चुकती है, तब तीन इन्द्रिय(१४) लब्ध्यपर्याप्तककी सर्व जघन्य अवगाहना दिखती है। --- १. द. ब. बहिदि । २. द. ज.तधे। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो महाहियारो [ १८३ गाथा : ३२० } तदो पदेसुत्तर - कमेशा चोद्दसहं जीवाण मज्झिमोगाहण वियप्पं बढदि तदनंतरोगाहणं रूऊण-पलिबोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदमेत्तं तदुवरि वढिदो चि । तावे चरिदियलद्धि- प्रपज्जतयस्त सव्व जहणोगाहणा दोसइ || - अर्थ - इसके पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे उक्त चौदह जीवोंकी मध्यम अवगाह्नाका विकल्प बढ़ता जाता है जब तदनन्तर अवगाहना एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणितमात्र ( उस ) के ऊपर वृद्धिको प्राप्त हो चुकती है, तब चार- इन्द्रिय (१५) लब्ध्यपर्याप्तककी सर्व जघन्य श्रवगाहना दिखती है || तो पदेसुत्तर - कमेण पणारसहं जीवाण मज्झिमोगाहण वियत्वं वढदि सदणंतरोगाणां रूऊण-पलिदोषमस्स श्रसंखेज्ज विभागेण गुणिदमेत तदुवरि वडिवो ति । तादे' पंचेंदिय-लद्धि- प्रपज्जत्तयस्त जहणोगाहणा दीसइ ॥ श्रर्थ - इसके पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे उक्त पन्द्रह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है जब तदनन्तर अवगाहना एक कम पत्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणितमात्र ( इस ) के ऊपर वृद्धिको प्राप्त कर लेती है, तब पंचेन्द्रिय (१६) - लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य प्रवगाहना दिखती है । तदो पदेसुत्तर- कमेण सोलसण्हं [ जीवाण ] मज्झिमोगाहण- वियत्वं वड्ढदिव तप्पाश्रोग्म-प्रसंखेज्ज-पदेस वहिदो ति । तवो सहुम-रिगगोद णिव्यत्ति प्रपज्जत्तयस्स सव्व जहण्णा ओगाहणा दीसह || अर्थ- तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रम से उक्त सोलह [ जीवोंकी ] मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है, जब तक इसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि प्राप्त होती है । पश्चात् सूक्ष्मनिगोद ( १७ ) निर्वृत्यपर्याप्तककी सर्व जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर - कमेण सत्तारसहं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं होदि जाय तप्पा ओग्ग- श्रसंखेज्ज -पदेसं बढिदो त्ति । तावे सुहुम- णिगोद-लद्धि- अपज्जत्तयस्स उक्करोगाणा बीसइ || अर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे उक्त सत्तरह जीवोंकी मध्यम श्रवगाह्नाका विकल्प होता है जब इसके योग्य प्रसंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि हो जाती है । तब सूक्ष्मतिगोद (१८) - लब्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । १. द. तदे । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ३२० तदुवरि णत्थि सहमणिगोद-लद्धि प्रपज्ज रायस्स ओगाहरण-वियप्पं, सक्क सोगाहणं पत्तत्तादो । तदुर्बार हम बाउकाइय-लद्धि अपज्जलय- प्पहृदि सोलसहं जोवाणं मज्झिमोगाहण- बियप्पं बच्चदि, तप्पाश्रोग्ग-असंखेज्ज -पदेस पूरण-पंचेदिय-लद्धिअपज्जत्त- महष्णोगाहरणा रूऊणावलियाए असंखेज्जदि-भागेण गुणिधमेत्तं तदुवरि बढिदो सि। तावे सुहुम- णिगोद- निव्वत्ति- पज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दीसइ ॥ १८४ ] अर्थ - इसके ऊपर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी अवगाहनाका विकल्प नहीं रहता, क्योंकि वह उत्कृष्ट अवगाहनाको प्राप्त हो चुका है, इसलिए इसके आगे सूक्ष्मदायुकायिक- लब्ध्यपर्याप्तकको आदि लेकर उक्त सोलह जीवोंकी ही मध्यम अवगाहनाका विकल्प चलता है। जब इसके योग्य प्रसंख्यात प्रदेश कम पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य मवगाहना एक कम आवलीके प्रसंख्यातवें भाग से गुणितमात्र ( इस ) के ऊपर वृद्धिको प्राप्त होती है, तब सुक्ष्मनिगोद (१९) निवृत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाना दिखती है ।। तो पहुदि पदेसुत्तर- कमेण सत्तरसहं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बढवि तबणंतरोगाहणावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेग भागमेतं तदुवरि बडिवो ति । तादे सुम - निगोव-निव्वत्ति अपज्जत्रायस्स उक्कस्सोगाहणा वीसइ || श्रये - फिर यहाँसे आगे प्रदेशोत्तर क्रमसे तदनन्तर अवगाहनाके प्रावलीके असंख्यात भागसे खण्डित एक भागमात्र ( इस ) के ऊपर बढ़ जाने तक उक्त सत्तरह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है, तब सूक्ष्मनिगोद ( २० ) निर्वृत्यपर्याप्तक्की उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ॥ तदो जबरि णत्थि तस्स ओगाहरण- वियप्पा । तं कस्स होदि ? से काले पज्जती होदि ति बिस्स । तदो पहूदि पदेसुत्तर- कमेण सोलसण्हं मज्झिमोनाहावियप्पं वदि जाव इमा ओगाहणा आवलियाए श्रसंखेज्जवि भागेर खंडिवेग-खंड मे तबुवरि वडियो त्ति । तावे सहुम- णिगोव- गिब्बत्ति - पज्जत्तयस्स ओगाहण - बियप्पं थक्कवि, सव्य-उथकस्सोग्गहण ँ-पत्रात्तादो । तदो पवेसुत्तर - कमेण पण्णारसहं मज्झिमोगाहणविष्पं वच्चदि तपाओग असंखेज्ज-पवेसं वढिदो शि । तावे सुहुम-वाउफाइय- णिव्वणि अपज्जशयस्स सभ्य जहणोगाहणा दीसइ ॥ १. द. ब. क. ज. दि २. द. व. क. ज. पत्तं तादो । ३. ६. ब. गाणं पत्तं तो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ १८५ - इसके आगे उस सूक्ष्म निगोद निर्वृत्यपर्याप्तककी प्रवगाह्नाके विकल्प नहीं रहते । यह अवगाहना किसके होती है ? ग्रनन्तरकालमें पर्याप्त होनेवालेके उक्त अवगाहना होती है । यहाँस आगे प्रदेशोत्तर क्रमसे अवगाहनाके आावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भागमात्र ( उस ) के ऊपर बढ़ जाने तक उक्त सोलह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता जाता है। इस समय सूक्ष्म - निगोद (२१) निर्वृत्ति पर्याप्तककी अवगाहनाका विकल्प स्थगित हो जाता है, क्योंकि वह सर्वोत्कृष्ट अवगाहनाको प्राप्त हो चुका है । पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे उसके योग्य प्रसंख्यात प्रदेशों को वृद्धि हलिक पन्द्रह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प चलता है । तदनन्तर सूक्ष्मवायुकायिक (२२) निवृत्यपर्याप्तककी सर्व जधन्य अवगाहना दिखती है ॥ तो पवेसुत्तर- कमेण सोलसण्हं मज्झिमोगाहण- वियत्यं यच्चवि तप्पा मोरय असंखेज्ज -पदेस - वडिदो त्ति । तादे सुहुम-वाउकाइय-लद्धि अपज्जत्तयस्स प्रोगाहण'farri थक्कदि, समुक्करसोगा हण-पत्तत्तादो । तावे पदेसुसर कमेण पण्पारसहं व मोगाह - विष्पं वच्चदि । केत्तियमेत्तेण ? सुडुम णिगोद- णिव्यत्ति पज्जत्तस्स उक्करसोगाहणं रूऊणावलियाए प्रसंखेज्जदि भागेण गुणिदमेतं हैट्ठिम तप्पा ओग्ग-प्रसंखेज्जपवेसेणूरणं तदुवरि वढिदो त्ति । तावे सुहुम बाउकाइय णिवत्ति पज्जत्तयस्स जहण्णो गाहणा दीसइ || अर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक सोलह जीवोंकी मध्यम श्रवगाहनाका विकल्प चलता है । तब सूक्ष्मवायुकायिक ( २३ ) लब्ध्यपर्याप्तकको अवगाह्नाका विकल्प स्थगित हो जाता है, क्योंकि वह उत्कृष्ट अवगाहनाको पा चुका है। तब प्रदेशोत्तर क्रमसे पन्द्रह जीवोंके समान मध्यम अवगाहनाका विकल्प चलता रहता है। कितने मात्रसे ? सूक्ष्मतिगोद निवृत्ति पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाको एक कम आवली के श्रसंख्यायें भागसे गुरिणतमात्र अधस्तन उसके योग्य असंख्यात प्रदेश कम उसके ऊपर वृद्धि होने तक । तब सूक्ष्म वायुकायिक (२४) निर्वृत्ति पर्याप्तककी जघन्य श्रवगाह्ना दिखती है । तो पवेसुत्तर- कमेण सोलसहं श्रोगाहण - वियष्पं यद्यदि इमा श्रोगाहणा आवलियाए प्रसंखेज्जदिभागेण खंडिबेग - खंड डिवो त्ति । तादे सुहुम बाउकाइयवित्त-अपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणा दीसइ ॥ - अर्थ -- तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे सोलह जीवों की अवगाहनाका विकल्प तब तक चालू रहता है, जब तक ये अवगाहनायें आवली के असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भाग प्रमाण वृद्धिको १. ६. ब. संभोगाहणं । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३२० प्राप्त न हो जायें। उस समय सूक्ष्म-वायुकायिक(२५) निर्वृत्ति-अपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तको पदेसुत्तर-कमेण पण्णारसहं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तदणंतरोगाहरणा आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेग-खंड तदुवरि वढिदो ति । तावे सुहमवाउकाइय-णिवत्ति-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा होदि । तदो पदेसुत्तर-कमेण चोद्दसण्हं ओगाहण-वियप्पं वच्चदि तप्पासोग्ग-असंखेज्ज-पदेस बडि ढदो ति । तावे सुहम-तेउकाइयणिव्वत्ति-अपज्जत्तयस्स जहागोगाहणा दीसइ ।। अर्थ-तत्पश्चान् प्रदेशोत्तर-फ्रमसे पन्द्रह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक कि तदनन्तर अवगाहना प्रावलीके असंख्यात भागसे खण्डित एक खण्ड-प्रमाण इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त न हो चुके । उस समय सूक्ष्म-वायुकायिक(२६) निर्वृत्ति-पर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना होती है । तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे चौदह जीवोंकी अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक बढ़ता जाता है । उस समय सूक्ष्म तेजस्कायिक(२७) निर्वृत्तिअपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है । तदो पदेसुत्तर कमेण पण्णारसण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चवि तप्पासोग्गअसंखज्ज-पदेसं वडि ढदो ति । तादे सुहम-तेउकाइय-लखि-अपज्जत्तयस्य प्रोगाहण-वियप थक्कदि, स उक्कस्सोगाहणं पत्तत्वादो। तदो पदेसुत्तर-कमेण चोद्दसण्हं प्रोगाहण-वियप्पं बच्चदि । केत्तियमेतेण ? सुहम-याउकाइय-णिवत्ति-पज्जत्तयस्स उपकस्सोगाहणा रूऊणावलियाए असंखेज्जदि - भागेण गुणिदं तप्पाओग्ग-असंखेज्ज-पदेसेणणं तदुरि बडि ढदो ति । तावे सुहम - तेउकाइय - णिवत्ति पज्जत्तयस्स जहष्णोगाहणा दोसइ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-ऋमसे उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक पन्द्रह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विवाल्प चलता है । उस समय सूक्ष्मतेजस्कामिक(२८)-लब्ध्यपर्याप्तककी अवगाहनाका विकल्प बिश्नान्त हो जाता है, क्योंकि वह उत्कृष्ट अवगाहनाको प्राप्त हो चुका है। तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे चौदह जीवोंको अवगाहनाका विकल्प चलता रहता है। कितने मासे ? सक्ष्मवायुकायिक-निवृत्तिपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहनाको एक कम आवलोके असंख्यात भागसे गुणित इसके योग्य असंख्यात प्रदेश कम (उस)के ऊपर वृद्धिके होने तक । तब सूक्ष्मतेजस्कायिका २९)निबत्ति-पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ १८७ तदो पदेसुत्तर-कमेण पण्णारसहं प्रोगाहण-वियप्पं गच्छदि तवणंतरोगाहणं पायलियाए असंखेज्जवि-भागेण खंडिदेग-खंड वढिदो त्ति । लादे सहम-तेउकाइयणिव्यत्ति-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा दोसइ ।। अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे पन्द्रह जीवोंकी अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहना आवलोके असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भागप्रमाण बृद्धिको प्राप्त न हो जावे। उस समय सूक्ष्म - तेजस्कायिक(३०) नित्यपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। तदो पदेसुस्तर कामेण चौहसण्हं मनमोगाहण-वियष्य वच्चदि तवणंतरोगाहणं आवलियाए संखेज्जदि-भागेण खंडिदेग-खंडं तदुवरि वडि ढदो सि । तादे सहम-तेउकाइयशिवत्ति-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा दीसइ । एतियमेत्ताणि चेव तेउकाइय जोवस्स प्रोगाहण-बियप्पा । कुदो ? समुक्कस्सोगाहण-वियप्पं पत्तं ॥ पर्ष पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे चौदह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक कि तदनन्तर अवगाहना प्रावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भागमात्र ( इस )के ऊपर वृद्धिको प्राप्त न हो जावे, तब सूक्ष्म-तेजस्कायिक(३१) निवृत्ति पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । इतने मात्र ही तेजस्कायिक जीवको अवगाहनाके विकल्प हैं, क्योंकि वह उत्कृष्ट अवगाहनाको प्राप्त हो चुका है। तादे पदेसत्तर-कमेण तेरसण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण - वियप्पं वच्चदि तप्पाओग्ग असंखेज्ज-पदेसं बढिदो त्ति । तादे सुहुम-प्राउकाइय - णित्ति - अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ ।। अर्थ-इसके पश्चात् प्रदेशोत्तर-कमसे तेरह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चालू रहता है जब तक कि उसके योग्य असंख्यात-प्रदेशोंकी वृद्धि न हो चुके, तब फिर सूक्ष्मजलकायिक(३२)- नित्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है। __ तदो पवेसुत्तर-कमेण चोइसण्हं जीवावं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तप्पाप्रोग्ग-असंज्ज-पदेसं वढिदो त्ति । ताहे सुहुम-ग्राउकाइय-लद्धि-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा दीसइ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ३२० प्रर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर - क्रमसे चौदह जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशों की वृद्धि होने तक चलता रहता है । इस समय सूक्ष्म जलकायिक (३३) लब्ध्यपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है || I तो पदेसुत्तर - कमेण तेरसहं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं वच्चदि । के तियमेण ? सुहूम-तेजकाइय-वित्ति-पज्जत्वकस्सोगाणं रूऊणावलियाए प्रसंखेज्जदिभागेण गुणिदमेतं पुणो तप्पा श्रोग्ग श्रसंखेज्ज -पदेस-परिहोणं तदुवरि वढिदो ति । तादे सुहुम-प्राजकाइय णिच्वति पज्जत्तयस्स जणोगाहणा दीसह || अर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसं तेरह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प चलता रहता है । कितने मात्रसे ? सूक्ष्मतेजस्कायिक निर्वृत्ति पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना के एक कम श्रावलीके ग्रसंख्यातर्व-भाग से गुणितमात्र पुनः उसके योग्य असंख्यात - प्रदशोंसे रहित इसके ऊपर वृद्धि होने तक 1 तब सूक्ष्मजलकायिक ( ३४) निर्वृत्ति पर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तो पदेसुतर-कमेण चोद्दसहं जीवाणं मज्झिमोगाहण - वियप्पं यच्चदि तवांत रोगाणा' प्रावलियाए असंखेज्जदि भागेण खंडिदेग-खंडमेत्तं तदुवरि वड्ढिदो ति । तादे सुहुम- श्राउका इय णिव्वति अप्पज्जत्तयस्स उबकस्सोगाणा दीसइ ॥ श्रथं - तत्पश्चात् प्रदेशोनर क्रमसे चौदह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक कि तदनन्तर अवगाहना झावली के असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भागमात्र इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त न हो चुके । तब सूक्ष्म जलकायिक (३५) - निवृत्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है || तव पदेसुतर-कमेण तेरसहं मज्झिमोगाहण-वियष्पं वच्चवि तदनंतरोगाहणा श्रावलियाए असंखेज्जदि-भागेण खंडिदेग-खंडमेत तदुवरि बढिदो ति । तादे सुमउकाइय- निव्वति पज्जतयस्स उक्कस्सोगाहरणा होबि । एत्तियमेत्ता याउकाइय-जीवाणं गाह - विप्पा | कुदी ? सन्वोक्करसोगाहणं पत्रात्तादो ॥ अर्थ-तत्पश्चात् प्रदशोत्तर क्रमसे तेरह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहना आवली के श्रसंख्यातवें भागसे खण्डित एक भागमात्र उसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त न हो चुके । उस समय सूक्ष्मजलकामिक ( ३६ ) - निर्वृत्ति-पर्याप्तकको उत्कृष्ट १. द. व. तदंतरोगातॄणा । २. द ब वियपं । ३. द. ब. क. ज. पत्तं तादो ! : Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ १८९ अवगाहना होती है । इसने मात्र ही जलकायिक जीवोंकी अवगाहनाके विकल्प हैं, क्योंकि सर्वोत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त हो चुकी है। ___ तदो पवेसुत्तर - कमेण बारसण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं वच्चदि तप्पाओग्गअसंखेज्ज-पदेसं वढिदो त्ति । तादे सुहुम-पुढविकाइय-णिव्यत्ति-अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ ।। अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे बारह-जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चालू रहता है। तब सूक्ष्मपृथिवीकायिक(३७)-निवृत्यपर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखतो है ।। तवो पहदि पवेसुत्तर-कमेण तेरसण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तप्पाओग्गअसंखेज्ज-पदेसं वढिदो त्ति । तावे सुहम-पुढवि-लद्धि-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा दीसह ॥ अर्थ- यहांसे आदि लेकर प्रदेशोत्तर-क्रमसे तेरह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक पता रहता है । तब सूक्ष्म-पृथिवोकायिक (३८)लब्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तदो' पदेसुत्तर - कमेण बारसहं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं वददि । केत्तियमेत्तण ? सुहम-आउकाइय-णिवत्ति-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं रूऊणावलियाए असंखेज्जदिभागेरण गुणिदमेत पुणो तप्पागोग्ग-असंखेज्ज-पदेसेणूणं तदुवरि वढिदो त्ति । तादे सुहुम-पढविकाइय-णिवत्ति-पज्जतयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ । अर्थ-पश्चात प्रदेशोत्तर-क्रमसे बारह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प बढ़ता रहता है ! कितने मासे ? सूक्ष्म-जलकायिक-निवृत्ति-पर्याप्तकको उत्कृष्ट अबगाहनाके एक कम आवलोके असंख्यात. भागसे गुणितमात्र पुनः उसके योग्य असंख्यात-प्रदेशोंसे कम इसके ऊपर वृद्धि होने तक । उस समय सूक्ष्म-पृथिवीकायिक(३९) निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर-कमेण सेरसण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तवणंतरोगाहणं आवलियाए असंखेज्जदि-भागेण खंडिदेय-खंडमे तदुवरि वढिदो ति । तावे सुहम-पढवि-णिव्वत्ति-अपज्जत्तयस्स उबकस्सोगाहणं दोसइ ।। - -. -. - ... १. द.ब.क.ज, तदा। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] तिलोयपगत्ती [ गाथा : ३२० अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे तेरह-जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता रहता है, जब तक तदनन्तर अवगाहना प्रावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भाग प्रमाण उसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त न हो जाए। तब सूक्ष्म-पृथिवीकायिक(४०) निवृत्त्यपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तदो' पदेसुत्सर-कमेण बारसण्ह जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तदणंतरोगाहणा प्रावलियाए असंखेज्जदि-भागेण खडिय तत्थंग-भागं तदुरि वड्ढिवो प्ति । तदो सुहुभ-पुढदि-काइय-णिवत्ति-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं दोसइ । तदोवरि सुहुमपुढविकाइयस्स ओगाहण-वियप्पं णत्थि ।। अर्थ–पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे बारह जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाको आवलोके असंख्यात भागसे खण्डित करके उसमेंसे एक भाग प्रमाण उसके ऊपर वृद्धि होने तक चलता रहता है। तत्पश्चात् सूक्ष्म-पृथिवीकायिक(४१)-निवृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । इसके आगे सूक्ष्म-पृथिवोकायिककी अवगाहनाका विकल्प नहीं है । तबो पवेसुत्तर-कमेण एषकारसहं जीवाणं मज्झिमोगाहण - वियप्पं वच्चदि तप्पासोग्ग-असंखेज्ज-पदेसं वढियो ति । तादे बादर-याउकाइय-णिवत्ति-अपज्जत्तयस्स जहणोगाहणं दोसइ ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे ग्यारह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात-प्रदेशों की वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब बादर-वायुकायिक(४२) निवृत्त्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है । तदो पदेसुत्तर-कमेण बारसण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बड्ढदि तप्पाश्रोग्ग-प्रसंखेज्ज-पदेसं वढिदो ति । सादे बावर-वाउकाइय-लद्धि-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं दोसई ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे बारह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक बढ़ता रहता है । उस समय बादर वायुकायिक(४३) लब्ध्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। - - . १.द.ब. तदा। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ १९१ तदो पदेसुत्तर-कमेण एक्कारसहं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि । तं केतिघमेतण ? इदि उत्ते सुहुम-पुढविकाइय-णिवत्ति-पज्जत्तयस्स उपकस्सोगाहणा रूऊणपलिदोषमसंखेज्जदि-भागेण गुणिदं पुणो तप्पाओग्ग-प्रसंखेज्ज-पदेस-परिहोणं तदुरि वडिढदो ति । तादे बादर - वाउकाइय - णिव्वत्ति - पज्जत्तयस्स जहणिया प्रोगाहणा बोसइ ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे ग्यारह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प चलता रहता है। वह कितने मात्रसे ? इसप्रकार कहनेपर उत्तर देते हैं कि सूक्ष्म-पृथिवीकायिक निवृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित पुनः उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंसे होन उसके ऊपर वृद्धि होने तक ! उस समय बादर वायुकापिक(४४) निवत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।।। तदो पदेसुत्तर-कमेण बारसण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तवणंतरोगाहरणं प्रावलियाए असंखेज्जदि-भागेण खंडियमेततं तदुवरि बढिदो त्ति । सादे बादर-बाउकाइयणिश्यत्ति-अपज्जत्तयस्स उकस्सोगाहपा दोसइ ॥ अर्थ--पश्चात् प्रदेशोत्तर-अमसे बारह जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक कि तदनन्तर अवगाहना प्रावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित मात्र इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त होती है। तब बादर वायुकायिक(४५) नित्य पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्चर-कमेण एक्कारसण्हं मशिमोगाहण - वियप्पं वच्चदि तदणंतरोगाहणं आवलियाए असंखेज्जवि-भागेण खंडिदेग-खंडं तदुवरि वढिदो ति। तादे बाबरवाउकाइय-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं दीसइ । तदुवरि तस्स ओगाहण-वियप्पा पस्थि, सव्वुक्कस्सं पत्तत्तायो । अर्थ—पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे ग्यारह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चालू रहता है, जब तक तदनन्तर अबगाहना प्राबलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर एक भाग प्रमाण उसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त होती है । तब बादर वायुकायिक (४६) निति-पर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। तदो पदेसुत्तर-कमेण दसण्हं जीवारण मज्झिमोगाहरण-वियप्पं वाचदि तप्पाप्रोग-प्रसंखेज्ज-पदेस वडिदो ति। तादे बाबर - तेउकाइय - रिणव्यत्ति - अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहरणा दीसइ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३२० श्रर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे दस जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य बादर तेजस्कायिक (४७) -निवृत्यपर्याप्तककी अशोकवृति है जघन्य अवगाहना दिखती है || तदो पत्तर- कमेण एक्का रसण्हं मज्झिमोगा हण-वियध्वं वच्चदि तप्पा ओग्गअसंखेज्जदि-पवेसं वड्ढिदो' ति । तादे बादर तेजकाइय-लद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा दीस || 1 श्रयं तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे ग्यारह जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य श्रसंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है। तब बादर- तेजस्कायिक (४८) - लब्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । तदो पढेसुत्तर- कमेण दसह मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि बाबर थाउकाइयव्वित्ति-पज्जत्तयस्स उक्करसोगाणं रूऊण-पलिदोवमस्स प्रसंवेज्जदि-भागेण गुणिय पुणो तप्पा ओग्ग- असंखेज्ज-पदेस-परिहीणं तदुवरि वढिदो त्ति । तादे बादर-तेजकाइयव्वित्ति पज्जसयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे दस जीवों की मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता रहता है जब तक वादर वायुकायिक- निवृत्ति पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाको एक कम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणा करके पुनः इसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंसे रहित उसके ऊपर वृद्धि होती है । तब बादर-तेजस्कायिक (४९) निवृत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है || तदो पदेसुत्तर - कमेरा एक्कारसहं जीवाणं मज्झिमोगाहण वियप्पं वच्चदि तदनंतरोगाहणा श्रावलियाए असंखेज्जदि-भागेण खंडिय तत्थेग - खंड लडुवरि बढिदो ति । तादे बादर-सेकाइय-निव्वत्ति-अपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणं दीसह अर्थ - पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे ग्यारह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करके उसमेंसे एक भाग प्रमाण उसके ऊपर वृद्धि न हो जावे । तब बादर-तेजस्कायिक (५०) निर्वृ स्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । १. द. ब. वडिदि । 1 I I Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग १] महाहियारो [ १९३ तदो पदेसुत्तर - कमेण बसण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहरण थियप्पं वच्चदि तदणंतरोगाहणं प्रावलियाए असंखेज्जदि भागेण खंडिय तबेगभागं तदुवरि वढिदो त्ति । तादे' बादर ते उकाइय- रिगव्यत्ति पज्जत्रायस्स उषकस्सोगाहणं दीसह । [ लघुरि तस्स श्रोगाहण· वियप्पं णत्थि, उक्कस्सोगाहणं पत्तत्तादो। ] - अर्थ - पश्चात् प्रदेशीत्तर क्रमसे दस जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता रहता है जब तक तदनन्तर श्रवगाहनाको श्रावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करके उसमेंसे एक भाग प्रमाण उसके ऊपर वृद्धि हो चुकती है । तब बादर- तेजस्कायिक (५१) निर्वृत्ति-पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । [ इसके श्रागे उसकी अवगाहना के विकल्प नहीं हैं, क्योंकि वह उत्कृष्ट अवगाहनाको प्राप्त कर चुका है । ] ती पदेसुतर कमेण णवण्हं मज्झिमोगाहण वियप्पं यच्चदि तप्पाओग्गअसंखेज्ज -पदेस - वड्ढिदो शि । तावे बादर आउकाइय-पिठयत्ति प्रपज्जत्तयस्स जहणोगाणं दीसइ || अर्थ -- तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे नौ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है। इस समय बादर जलकायिक (५२) - निर्वृत्यपर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखती है || तो पढेसुतर-कमेण दसहं जीवाणं मज्झिमोगाहरण- वियत्यं गच्छदि तप्पा - श्रोग्ग- श्रसंखेज्ज -पदेसं वडिवो त्ति । तादे बादर- श्राउ-लद्धि - अपज्जत्तयस्सर उक्कस्सोगाणा वीसइ ॥ अर्थ -- तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे दस जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है। तब बादर जलकायिक (५३) लम्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । तदो पदेसुत्तर- कमेण वहं मज्झिमोगाहण-वियप्पं गच्छवि रूऊण-पलिबोवमस्स असंखेज्जवि भागेण गुणिव तेजकाइय- णिव्यत्ति पज्जरायस्स उक्करसोगाहणं पुणो तप्पा ओश्य-श्रसंखेज्ज -पदेस-परिहीणं तदुवरि वदिवो ति । तावे बादर - श्राउकाइयपिव्यत्ति - पज्जत्तयस्स जहष्णोगाहणा दीसइ || १. द. व. क. ज. तवे । २. द. ब. पंज्जतयस्स । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] तिलोयपण्णत्तो [ गाथा : ३२० मर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे नौ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक एक क्रम पल्योपमके असंख्यातवें भागसे मुणित तेजस्कायिक निर्वृत्ति-पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना पुनः उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंसे हीन इसके ऊपर बृद्धिको प्राप्त नहीं हो जाती। तब बादर जलकामिक(५४) निति-पप्तिककी जघन्य अवगाहना निखती है ।। तदो पवेसुत्तर-कमेण दसहं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तवणंतरोगाहणं ग्रावलियाए असं नदि-भागेगा पंडित साग- दंतुनि वढिदो सि । ताद बादरप्राउकाइय-णिववत्ति-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं दीसइ ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे दस जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहना आवलीके असंख्यात भागसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त नहीं हो जाती । तब बादर जलकायिक(५५) नित्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तवो पदेसुत्तर - कमेण एवण्हं मज्झिमोगाहण - वियप्प बच्चदि तदरणंतरोगाहणा प्रावलियाए असंखेज्जवि भागेरण खंडिदेग-खंडं तदुरि डिदो ति। ताद बादर अाउकाइय - णिव्यत्ति - पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं दोसइ । तदोवरि णस्थि एवस्त प्रोगाहण-वियप। अर्थ--पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे नौ जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहना आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भाग प्रमाण इसके ऊपर नहीं बढ़ जाती । तब बादर जलकायिक(५६) निवृत्ति-पर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। इसके आगे उसको अवगाहनाके विकल्प नहीं हैं ।।। तदो पदेसुत्तर - कमेण अट्टण्हं मज्झिमोगाहण - वियष्प वच्चदि तप्पागोग्गअसंखेज्ज-पदेसं वढिबो' ति । तावे बादर-पुढधिकाइय-णिव्यत्ति-अपज्जत्तयस्स जहणोगाहणा दोसइ॥ अर्थ-पप्रचात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे आठ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब बादर-पृथिवीकायिक(५७) नित्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना दिखती है ।। १. द. ब. क. ज. वढिदि । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ १६५ तदो पदेसुत्तर - कमेण णवण्हं मज्झिमोगाहण - वियप्प वचदि तप्पाप्रोग्गअसंखेज्ज-पदेसं वढियो ति । तावे बादर-पुढविकाइय-लद्धि-अपज्जत्तयस्स उपकस्सोगाहणा दोसइ ।। प्रर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे नी जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प इसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब बादर पृथिवीकायिक(५८) लब्ध्यपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तवो पदेसुत्तर - कमेण अढण्हं मज्झिमोगाहण - वियप वच्चदि। बादर आउकाइय-णिव्वत्ति-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहरणं रूऊण-पलिदोवमस्स असंखेजदि भागेण गुणिदत्तं तप्पासोग्ग असंखेज्ज-पदेसं परिहीणं तदुवरि वडिढदो त्ति । तादे बावर पुढविकाइय-णिव्यत्ति-पज्जत्त यस्स जहणोगाहणं दोसइ ।। अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे आठ जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता रहता है जब तक बादर जलकायिक-नित्ति पर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहनाको एक कम पल्योपम के असंख्यातवें भागसे गुरिणतमात्र उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंसे रहित उसके ऊपर वृद्धि होती है। तब बादर पृथिवीकायिक(५९) निर्वृत्ति-पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पवेसुत्तर-कमेण णवण्हं मज्झिमोगाहण - वियप्पं बच्चवि तवणंतरोगाहणं प्रावलियाए असंखेज्जदि-भागेण खंडिय तत्थेग-खंडं तदुरि वडि ढवो त्ति । तादे बादरपुढवि-णिव्यत्ति-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहण दोसइ ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे नौ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है, जब तक तदनन्तर अवगाहना प्रावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर एक भाग प्रमाण उसक ऊपर वृद्धिको प्राप्त न हो चुके । तब बादर-पृथिवीकायिक(६०)-निवृत्ति-अपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तदो पवेसूत्तर-कमेण अट्टण्हं मझिमोगाहरण-वियप यच्चदि तवणंतरोगाहणा आवलियाए असंखेज्जदि-मागेण-खंडिदेग-खंड तबुधरि वडिलदो ति । तादे बादर-पुधि काइय-णिव्यत्ति-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं बीसइ॥ प्रथ-तब प्रदेशोत्तर-क्रमसे आठ जोवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहना पावलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करके उसमें से एक खण्ड प्रमाण Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्रगतो [ गाथा : ३२० उसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त नहीं हो जाती। तब बादर-पृथिवीकायिक(६१) निवृत्ति-पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। तदो पदेसुत्तर-कमेण सत्तण्हं मज्झिमोगाहरण - वियप यच्चदि तप्पासोग्गराखेप पलेस बलियो सि । हार-णिगोद-णिन्वत्ति-अपज्जत्तयस्स जहह्मणोगाहणा दोसइ ।। अर्थ -पश्चात् प्रदेशोत्तर-ऋमसे सात जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तव बादर-निगोद(६२) निर्वृत्त्यपर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखती है ॥ तदो पदेसुत्तर - कमेण अट्टहं मज्झिमोगाहरण-वियप्पं वच्चदि तप्पाप्रोग्गअसंखेज्ज-पदेस वडि ढदो ति। तादे बादर-णिगोद लद्धि-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं बोसइ॥ ___ अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे आठ जीवोंको मध्यम प्रवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब बादर निगोद(६३) लब्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर-कमेण सत्तण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्प बच्चदि रूऊण-पलिदोवमस्स असंखेज्जवि-भागेण गुणिद बादर-पुढविकाइय-णिव्वत्ति-पज्जत्तयस्स उपकस्सोगाहणं पुणो तप्पासोग्ग-असंखेज्ज-पदेस-परिहोणं तदुवरि वडि ढदो त्ति । तादे बादर - रिणगोदणिध्वत्ति-पज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दीसइ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-प्रामसे सात जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता रहता है जब तक एक कम पल्योपम असंख्यातवें भागसे गुणित बादर-पृथिवीकायिक-निवृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उसके योग्य असंख्यात प्रदशोंसे हीन होकर इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त नहीं हो जाती। तब बादर निगोद(६४)-निर्वृत्ति-पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है। तदो पदेसुत्तर-कमेण प्रदण्हं मज्झिमोगाहण-वियष्पं गच्छदि तवणंतरोगाहणं श्रावलियाए असंखेज्जाद - भागेण खंडिदेग - खंडं तदुरि वढिदो त्ति । तादे बावरणिगोद-णिव्यत्ति-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा वीस ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे आठ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प चलता है । जब तदनन्तर अवगाहना प्रावली के असंख्यातवें भागसे खण्डित एक भागमात्र उसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त हो जाती है तब बादर-निगोद(६५) नित्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ १९७ तदो पर कमेण सत्तष्ठं मज्झिमोगाहण-वियपं वच्चदि तदनंतरोगाहणं आवलियाए असंखेज्जवि भागेण खंडिय तत्येग-खंडं तदुवरि डिहदो ति । तावे बादररिगोद-मिथ्वति पज्जतयस्स उवकस्सोगाहणा दीसइ || अर्थ - पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे सात जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता रहता है जब तक तदनन्तर अवगाहना आवली के असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमें से एक भाग प्रमाण इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त न हो जावे । तब बादर - निगोद (६६) निवृत्ति-पर्याप्तकको उत्कृष्ट श्रवगाहना दिखती है || पदे दोसइ || तदो पत्तर- कमेण छण्हं मज्झिमोगाहण- वियत्वं बच्चदि तप्पाश्रोग्ग-असंखेउजदो । तादे बादर - णिगोद- पविट्टिब- निव्यति-अपज्जतयस्स जहगोगाहणं अर्थ – पश्चात् प्रदेशोनर क्रमसे छह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसक योग्य संख्यात प्रदेशों की वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब बादर - निगोद (६७) प्रतिष्ठित निवृत्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है || तदो पवेसुत्तर कमेण ससन्हं मज्झिमोगाहण विधत्य वच्चदि तपाओग श्रसंखेज्ज-पदेसं वदिदो त्ति । तादे बादर-णिगोव-पदिदि लखि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाणा दीसह ॥ - अर्थ-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे मात जीवोंको मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चालू रहता है। तब बादर-निगोद (६८) प्रतिष्ठित लब्ध्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट श्रवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर - कमेण छण्हं मज्झिमोगाहण वियप्पं बच्चवि बादर - निगोदणिव्यत्ति-पज्जस- उषकस्सोगाणं रूऊण-पलिदोषमस्स असंखेज्जदि भागेण गुणिय पुषो तप्पानोग्ग-असंखेज्ज -पदेसेणूणं तदुवरि वडिवो त्ति । लाबे बादर- णिगोद-पविट्टिद- णिव्यतिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दीसड़ || · - अर्थ - पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे छह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चालू रहता है जब तक बादर - निगोद-निवृत्ति पर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना एक कम पत्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित होकर पुनः उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंसे रहित इसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त नहीं हो जाती है । तब बादर - निगोद ( ६९ ) प्रतिष्ठित निवृत्ति- पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३२० तको पदेसुत्तर-कमेण सत्तण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तवरणंतरोगाहणं श्रावलियाए असंखेज्जवि-भागेण खंडिदेग-खंड तदुरि बढ़िवो ति । ता बादर-णिगोवपदिदिद-णिव्यत्ति-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा दीसइ । अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे सात जीवोंकी मध्यम अवगाह्नाका विकल्प तब तक चलता रहता है जब तक तदनन्तर अवगाहना आवलीके असंख्यात भागसे खण्डित करनेपर एक भाग प्रमाण उसके ऊपर वृद्धिको ... नहीं हो पाती । । नारनिगो ७०) प्रतिष्ठित-नित्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। ___ तदो पदेसुत्तर - कमेण खण्हं मज्झिमोगाहण - वियप्पं बच्चवि तदणंतरोगाहणं प्रावलियाए असंखेन्जदि-भागेण खंडिय तत्थेग-खंडं तदुवरि वढिदो ति । तादे बादरणिगोद-पदिट्टिद-णिन्वत्ति-पज्जत्तयस्स उपकस्सोगाहणा वीसइ ।। अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे छह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चालू रहता है जब तक तदनन्तर अवगाहना आवलीके प्रसंख्याता भागसे खण्डित कर उसमेंसे एक भाग प्रमाण उसके ऊपर वृद्धिको प्राप्त नहीं हो जाती । तन बादरनिगोद(७१) प्रतिष्टित-निवृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर - कमेण पंचण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियष्णं बच्चवि तप्पाप्रोग्ग-असंखेज्ज-पदेसं बड्ढिदो ति। तावे बादर-वणफदिकाइय-पत्त यसरीर-णिज्यत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ ।। __ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-ऋमसे पाँच जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात-प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब बादर-बनस्पतिकायिक(७२)-प्रत्येकशरीरनिर्वृत्त्यपर्याप्त ककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसत्तर-कमेण छण्हं मझिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तपाओग्ग-असंखेज्जपदेसं यढिदो त्ति । तादे बादर-वणप्फदिकाइय-पत्तेय-सरीर-लद्धि-अपज्जत्तयस्स-उक्कस्सोगाहणा दीसह ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे छह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब बादर वनस्पतिकायिक (७३) प्रत्येकशरीर लब्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तो पवेसुत्तर-कमेण पंचण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चवि राऊण. पलिदोवमस्स असंखेजदि - भागेरण गुणिव-बादर-णिगोव-पदिद्विद-णिवत्ति-पज्जत्तयस्स Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमी महाहियारो [ १९९ उक्करसोगाहणं पुणो तप्पा ओग्ग-प्रसंखेज्ज-पदेस-परिहीणं तबुवरि बढिदो ति । तादे बादरवणफदिकाइय- पत्तेयसरीर- निव्वति पज्जत्तयस्स जहष्णोगाहणं दीसइ || अर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे पाँच जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता रहता है जब तक बादर - निगोद-प्रतिष्ठित निवृत्ति पर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहनाको एक कम पत्थोपमके असंख्पातवें भागसे गुणा करके पुनः उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंसे रहित उसके ऊपर वृद्धि नहीं हो जाती । तब बादर-वनस्पतिकाधिक (७४) प्रत्येकशरीर निवृति-पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ॥ तदो पदेसुत्तर - कमेण छण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण-वियध्वं यच्चदि तप्पाश्रोग्गअसंखेज्ज -पदेसं बढदो त्ति । तावे बीइंबिय लद्धि अपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणा दोसs || अर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे छह जीवॉकी मध्यम श्रवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशों की वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब दो - इन्द्रिय (७५) लब्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। ▾ तदो पदेसुत्तर- कमेण पंचण्हं जीवाणं मज्झिमोगाहण- वियप्पं बच्चवि तप्पा ओग्गप्रसंखेज्ज-पदेसं वड्ढिदो त्ति । तादे तीइंदिय-लद्धि - श्रवज्ञत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा दीसइ || अर्थ- पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे पांच जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशों की वृद्धि होने तक चलता रहता है। तब सोन-इन्द्रिय (७६) लब्ध्य- पर्याप्तककी उत्कृष्ट श्रवगाहना दिखती है || तो पवेसुतर कमेण चउन्हं मज्झिमोगाण वियप्पं वच्चदि तप्पाओग्गप्रसंखेज्ज-पदेसं वदिवो त्ति । तादे चरिदिय-लद्धि-प्रपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणा दीसह || - - श्रयं - पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे चार जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब चार इन्द्रिय (७७) लब्ध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट श्रवगाहना दिखती है || - तदो पवेसुत्तर - कमेण तिष्हं मज्झिमोगाह्ण वियष्पं वच्चदि तप्पा श्रोग्गअसंखेज्ज -पवेसं' यड्ढदो ति । तादे पाँचदिय लद्धि - अपज्जरायस्स उक्करसोगाहणा १. द. ब. पदेस संवडिदो । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ] तिलोयपणती [ गाथा : ३२० दोसइ । तदो एवमवि घणंगुलस्स असंखेज्जाद'-भागो। एतो उवरि प्रोगाहणा घणंगुलस्स संखेज्ज - भागो कत्थ यि घणंगुलो, कत्य वि संखेज - घणंगुलो त्ति घेत्तन्वं ॥ अर्थ तत्पश्चान् प्रदेशोत्तर-क्रमसे तोन जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चालू रहता है । तब पंचेन्द्रिय(७८) लब्ध्यपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । तब यह भी धनांगुलके असंख्यातवें भागसे है । इससे आगे अवगाहना धनांगुलके संख्यातवें भाग, कहीं पर धनांगुल प्रमाण और कहींपर संख्यात धनांगुल-प्रमाण ग्रहण करनी चाहिए । तदो पदेसुत्तर - कमेण दोण्हं मज्झिमोगाहण - क्यिप्पं बच्चदि तप्पाप्रोग्गअसंखेज्ज-पदेस बढिदो ति । तावे तीइंदिय • णिव्यत्ति - अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ । अर्ष-तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे दो जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता रहता है । तब तीनइन्द्रिय (७९) इन्द्रिय नित्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर-कमेण तिण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तप्पाप्रोग्ग-प्रसंखेउजपदेसं वढिदो ति । तादे चरिदिय-णिण्वसि-अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा दोसइ । अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे तीन जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता है। तब चार-इन्द्रिय(८०) नित्यपर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखती है ॥ तदो पदेसुत्तर - कमेण चउण्हं मज्झिमोगाहण - वियप्पं बच्चदि तप्पाम्रोग्गअसंखेज्ज-पदेसं वढिदो ति। तावे बीई दिय-रिणवत्ति-अपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहरणा बीसइ ॥ अर्ष पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे चार जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता है। तब दो इन्द्रिय(८१) नित्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है । १. द ब. असंखेयदिभागेण । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० ] पंचमी महाहियारो [ २०१ तदो पवेसुत्तर - कमेण पंचण्हं मज्झिमोग्राहण वियष्यं वचचदि तप्पाोगअसंखेज्ज-पदेसं वलिदो ति । तादे पंचेंबिय णिव्वत्ति प्रपज्ज सहस्त्र जहण्णोगाहणा दोसs || - अर्थ - पश्चात् प्रगत कमजोर विकल्प उसके योग्य प्रसंख्यात प्रदेशोंकी वृद्धि होने तक चलता है। तब पंचेन्द्रिय (५२) निर्वृत्यपर्याप्तकको जघन्य अवगाहना दिखती है ॥ दो पमुत्तर - कमेण छष्णं मज्झिमोगाहण-वियप्पं वचचदि तपाओग्ग-प्रसंखेज्ज पदेसं वढिको ति । तावे बीई वियणिव्यत्ति पज्जत्तयस्स जष्णोगाणा बोस || अर्थ - तत्पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे छह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प उसके योग्य असंख्यात प्रदेशों की वृद्धि होने तक चलता है । तब दो इन्द्रिय (६३) निर्ऋत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ॥ ताव एवाणं गुणगार-रूवं विचारेमो बादरवणफटिकाइय- पत्तेय सरीर- णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहृष्णोगाहण-पहुदि बोई दिय निव्वत्ति-पज्जत-जहणोगाहणमवसाणं जाव एवम्मि अंतराले' जादाणं सव्वाणं मिलिदे कित्तिया इदि उत्ते बावर- यणम्पदिकाइयपत्तेयसरी रणिव्वत्ति- पज्जत्त यस्स जहण्णोगाणं रूऊरण - पलिदोषमस्त प्रसंखेज्जदि-भागेण गुणिदमे तदुवरि वढिदो त्ति घेत्तध्वं । तदो पदेसुत्तर- कमेण सत्त मज्झिमोगाहणवियष्पं वच्चदि तदणंत रोगाहणं तप्पा ओग्ग संखेज्ज-गुणं पत्तो त्ति । तादे तोइ दिय-वित्तिपज्जत यस्स सव्व जहण्णोगाहणा दीसह || अर्थ- - अब इनकी गुणकार संख्याका विचार करते हैं- - बादर वनस्पतिकाधिक प्रत्येकशरीर निवृत्यपर्याप्तककी जधन्य अवगाहनाको लेकर दोइन्द्रिय निर्वृत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना तक इनके अन्तरालमें उत्पन्न सबके सम्मिलित करनेपर 'कितनी है' इसप्रकार पूछने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर निवृत्ति पर्याप्तककी जघन्य श्रवगाहनाको एक कम पत्योपमके असंख्यातवें भाग से गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उतनी इसके ऊपर वृद्धि होती है, इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए | पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे सात जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहना उसके योग्य संख्यातगुणी प्राप्त न हो जावे। तब तीन इन्द्रिय (८४) निवृत्ति पर्याप्तकको सर्व जघन्य अवगाहना दिखती है || १. द. व. क. ज. अन्तरालो । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] तिलोयपपणत्ती [ गाथा : ३२० तदो पदेसुत्तर कमेण अढण्हं प्रोगाहण-वियप्पं बसचदि तवणंतरोगाहण - वियप्पं तप्पामोग्ग-संखेज्ज गुणं पत्तो' त्ति | तादे चरिदिय - णित्ति - पज्जतायस्स जहण्णोगाहणा दोसइ ॥ __ अर्थ–पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे आठ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तब तक चलता है जब तक तदनन्तर अवगाहना-विकल्प उसके योग्य संख्यात-गुणा प्राप्त न हो जावे। तब चार इन्द्रिय (८५) निवृत्ति-पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर - कमेण णवण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं वच्चवि तवणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं पत्तो त्ति । तावे पंचेंदियणन्यत्ति-पज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा वीसइ ।। अर्य-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे नौ जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अबमाइनाके संख्यातगुणी प्राप्त होने तक चलता रहता है । तब पंचेन्द्रिय(८६) निवृत्ति-पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना दिखती है ।। तदो पदेसुतर-कमेण दसण्हं मज्झिमोगाहरण-वियप्पं वच्चदि तवणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं पत्तो ति। तादे सीई दिय - णिव्यत्ति - अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं दोसइ । अर्थ--पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे दस जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाके संख्यातगुणी प्राप्त होने तक चलता रहता है। तब तीनइन्द्रिय(८७) नित्यपर्याप्तक की उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। __ तदो पवेत्तर-कमेण णवण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तवरणंतरोगाहणं संखेज्ज - गुणं पत्तो त्ति । तादे चउरिविय - णिवत्ति - अपज्जत्तयस्स उपकरसोगाहणं दोसह ।। प्रथ-पश्चात प्रदेशोत्तर-क्रमसे नी जीवोंको मध्यम प्रवगाहनाका विकल्प तदनन्सर अवगाहनाके संख्यातगुणी प्राप्त होने तक चलता है । तब चार इन्द्रिय(८८) नित्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। तदो पदेसत्तर-कमेण अट्टाहं मज्झिमोगाहण-वियप यच्चदि तदणंतरोगाहणं संखेज्ज - गुणं पत्तो त्ति । तावे बीई दिय - णिव्यत्ति - अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं बोसइ ।। १.द, ब. क. ज. पज्जत्तो। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा : ३२० ] पंचमो महाहियारो [ २०३ अर्थ-पश्चात प्रदेशोत्तर क्रमसे थाट जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाके संख्यात-गुणी प्राप्त होने तक चलता रहता है । तब दोइन्द्रिय(८९) निर्वत्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। तको पदेहत्तर-कमेण सतण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्प बच्चदि तदणंतरोगाहणं संखज्ज-गुण पत्तो ति । तादे बाबर वरणफदिकाइय-पत्तेयसरीर-णिन्वत्ति-अपज्जत्तयस्स' उक्कस्सोगाहरणा दोसइ ॥ अर्थ--पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे सात जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाके संख्यातगुणी प्राप्त होने तक चलता है। तब बादर-वनस्पतिकायिका(९०) प्रत्येकशरीर निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवमाहना दिखती है ।। तदो पदेसुत्तर-कमेण छहं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तवणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं पत्तो ति । तावे पंचेंदिय-णिन्दत्ति-अपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं दोसइ ।। अर्थ- पश्चात् प्रदेशोत्तर-अमसे छह जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाके संख्यात-गुणी प्राप्त होने तक चलता है । तब पंचेन्द्रिय(९१) नित्यपर्याप्तकको उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है ।। श्रीन्द्रिय जीव (गोम्ही) की उत्कृष्ट अवगाहनातदो पदेसुत्तर-कमेण पंचण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चवि तदरणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं पचो त्ति । [तावे तीइंदिय-णिवत्ति-पज्जचयस्स उक्कस्सोगाहणं दोसइ । ] तं कस्स होदि त्ति भणिये तीई विपस्स-णिव्यचि-पज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा बट्टमाणस्स सयंपहाचल-परभाग-ट्ठिय-खेत्ते उप्पण्ण-गोहोए उक्कस्सोगाहणं कस्सइ जीवस्त वीसइ । तं केत्तिया इदि उत्ते उस्सेह-जोयणस्स तिण्णि-चउभागो पायामो 'तदट्ट-भागो विक्खंभो विक्खंभद्द-बहलं । एदे तिणि वि परोप्परं गुणिय पमाण-घणंगुले कदे "एक्क-कोडिउरणवीस-लक्ख' तेवाल-सहस्स-णव-सय-छत्तीस रूवेहि गुरिणद • घणंगुला होति । ६ । ११६४३९३६ । अर्थ-पश्चात प्रदेशोत्तर-क्रमसे पाच जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाके संख्यात-गुणी प्राप्त होने तक चलता रहता है। [ तब तीनइन्द्रिय(९२) निवृत्ति . - -.. १. द. ब. पज्जप्सयस्स । २. द. ब. क. ज. अंतं-उक्कस्स । ३. द. ब. क. ज. तदरभागे। ४. द. न. क. विकलभद्द । ५. द. क. एक्ककादीए, ब, एक्के कोडीए, अ. एक्कोकोही । ६. ए. ब. लक्खा। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ } तिलोमपणती [ गाथा : ३२० पर्याप्तककी उत्कृष्ट श्रवगाहना दिखती है । ] यह अवगाहना किस जीवके होती है ? ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि स्वयम्प्रभाचलके बाह्य भागमें स्थित क्षेत्रमें उत्पन्न और उत्कृष्ट अवगाहनामें वर्तमान किसी गोम्ही के वह उत्कृष्ट भवगाहना होती है, यह उत्तर है । वह कितने प्रमाण है ? इसप्रकार कहनेपर उत्तर देते हैं कि उसका एक उत्सेध योजनके चार भागों में से तीन भाग प्रमाण श्रायाम, इसके आठवें भाग प्रमाण विस्तार और विस्तारसे आधा बाहुल्य है । इन तीनोंका परस्पर गुरणा करके प्रमाण घनांगुल करनेपर एक करोड़ उन्नीस लाख तैंतालीस हजार नौ सौ छत्तीस रूपोंसे गुणित नांगुल होते हैं । विशेषार्थ - असंख्यात द्वीपों में स्वयम्भूरमण अन्तिम द्वीप है, इस द्वीप के वलयव्यासके बीचों-बीच एक स्वयम्प्रभ नामक पर्वत है । इस पवतके बाह्य भागमें कर्मभूमिको रचना है । उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय (स) जीव वहीं पाये जाते हैं । यहाँ स्थित श्रीन्द्रिय जीव गोम्ही (चींटी) का व्यास उत्सेध (व्यवहार) योजनसे योजन ( ६ मील), लम्बाई और योजन ( मील) और ऊँचाई योजन ( मील ) है । जिसका घनफल ( ३ यो० x ३ यो० X यो० ) और उत्सेध घन योजन प्राप्त होता है । जबकि एक योजनके ७६८००० अंगुल होते हैं तब धन योजनके कितने अंगुल होंगे? इसप्रकार राशिक करनेपर २७६८०००७६६००० X ७६८००० घनांगुल होते हैं । ये उत्सेध घनांगुल हैं । ५०० उत्सेध घनांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है अतः उपर्युक्त उत्सेधांगुलोंके प्रमाणांगुल बनाने हेतु उन्हें ५०० के घनसे भाजित करनेपर ७६६०००७६८०००७६८००० ==३६२३=७८६५६ होते हैं। इनका गोम्हीक शरीरके उत्सेध घन योजनों में गुणा कर देनेपर * ३६२३८७८६५६ ) संख्यात घनांगुल ( ६ ) प्राप्त होते हैं । यहाँ घनांगुलका चिन्ह ५००×५०० x ५०० ( ६ है । अथवा—८१४३ × ३६२३८७८६५६-११९४३९३६ प्रमाण घनांगुल गोम्होको अवगाहनाका घनफल है । चतुरिन्द्रिय जीव ( भ्रमर ) की उत्कृष्ट अवगाहना तदो पत्तर- कमेण चदुन्हं मज्झिमोगाहण- वियप्पं वच्चदि तदणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं पत्तोति । तादे चउरिदिय णिवत्ति-पज्जत यस्स उपकस्सोगाहणं दीसह । तं कस्स होदित्ति भणिदे सयंपहाचल - परभाग-ट्ठिय-खेले उप्पण्ण- भमरस्स उक्कस्सोगाहणं nees बीसइ । तं केलिया इदि उत्ते उस्सेह-जोयणायामं श्रद्ध जोयणुस्सेहं जोयणद्धपरिहि विषभं विय विक्खंभद्ध मुस्सेह-गुणमायामेण गुरिणदे उस्सेह - जोयणस्स तिणि Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२० J पंचमी महाहियारो [ २०५ अभागा हवंति । तं चेदं । ते पमाण-घणंगुला कीरमाणे एक्कलय' - पंचतीस - कोडीए उरण उदि लक्ख च उषण्ण- सहस्स-च उ-सय-छण्णउदि रूयेहिं गुणिद घगुलाणि हवंति । तं चेदं । ६ । १३५८६५४४६६ । - अर्थ - पश्चात् प्रदेशोत्तर - कमसे चार जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर श्रवगाहना संख्यात गुणी होने तक चलता रहता है। तब चारइन्द्रिय (९३) निर्वृत्ति पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। वह किस जीवके होती है, इसप्रकार कहनेपर उत्तर देते हैं कि स्वयम्प्रभाचलके बाह्य भागस्थ क्षेत्रमें उत्पन्न किसी भ्रमरके उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। वह कितने मात्र है, इसप्रकार कहने पर उत्तर देते हैं कि उत्सेध योजनसे एक योजन प्रमारण आयाम, आधा योजन ऊँचाई और अर्ध योजनकी परिधि प्रमारण विष्कम्भ को रखकर विष्कम्भके आधेको ऊँचाईसे गुणा करके फिर आयामसे गुणा करनेपर एक उत्सेध योजनके माठ भागों में से तीन भाग होते हैं । इनके प्रमाणांगुल करनेपर एक सौ पैंतीस करोड़ नवासी लाख चौपन हजार चारसो छयानबं रूपोंसे गुणित घनांगुल होते हैं । वह इसप्रकार है । ६ । १३५८९५४४९६ । विशेषार्थ-चतुरिन्द्रियजीव भ्रमरके शरीरकी अवगाहनाका प्रमाण उत्सेध योजनोंसे १ योजन लम्बा, ई योजन ऊँचा और ( ३४३ - १३ योजन चौड़ा है । उपर्युक्त कथनानुसार अर्ध योजन ऊँचाई की परिधि ( यो० ) के प्रमाण स्वरूप विष्कम्भके अर्धभाग (३) यो० को ऊंचाई और श्रायामसे गुरिणत करनेपर उत्सेध योजनोंमें ( 7 ) घन यो० घनफल प्राप्त होता है | इसके प्रमाण गुल बनानेके लिए - ( ७६८००० × ७६८००० ४७६८००० = ) ३६२३८७८६५६ ५००४५००× ५०० से गुणा करना चाहिए । यथा - ३ x ३६२३८७८६५६ = संख्यात घनांगुल ( ६ ) अथवा १३५८९५४४९६ घनांगुल भ्रमरकी अवगाहनाका घनफल है । कीन्द्रिय जीव ( शंख ) की उत्कृष्ट अवगाहना तदो पदेसुर- कमेण तिरहं मज्झिमोगाहण- वियप्पं वच्चवि तबणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं पत्ती ति । तादे बीइंदिय णिव्वति पज्जतयस्स उक्कस्सोगाहणं होइ । तं कम्हि होइ ति भणिवे सयंपहाचल - परभाग-ट्ठिय-खेत्ते उप्पण्ण - बीइंदियरस ( संस्वहस ) उक्करसोगाणा कस्सइ दोसइ । तं केसिया इवि उत्ते बारस जोयणायाम - चउ-जोयणमुहस्स- खेत्तफलं - १. द ज एक्कस मयंक समय ब. क. एक्कस मयंकसेस य । २. य. ब. तदा । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] तिलोयपण्णत्ती [ माथा : ३२१-३२२ अर्थ-पश्चात् प्रदेशोत्तर-क्रमसे तीन जीवोंकी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाके संख्यात-गुग्गी प्राप्त होने तक चलता रहता है । तब दोइन्द्रिय(९४) निति-पर्याप्तककी उत्कुष्ट अवगाहना होती है। यह कहाँ होती है ? इसप्रकार कहनेपर उत्तर देते हैं कि स्वयम्प्रभाचलके बाह्य भागमें स्थित क्षेत्रमें उत्पन्न किसो दोइन्द्रिय (शंख) की उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । वह कितने प्रमाण है ? ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि बारह योजन लम्बे और चार योजन मुखवाले { शंखका ) क्षेत्रफल व्यासं' तावत् कृत्वा, बदन-दलोनं मुखार्ध-वर्ग-युतम् । द्विगुणं चयिभक्तं, सनाभिकेऽस्मिन् गणितमाहुः ॥३२१ । एवेण सुत्तेण खेत्तफलमाणिदे 'तेहत्तरि-उस्सेह-जोयणाणि हवंति ॥७३॥ अर्थ-विस्तारको उतनी बार करके अर्थात् बिस्तारको विस्तारसे गुणा करनेपर जो राश्चि प्राप्त हो उसमेंसे मुखके आधे प्रमाणको कम करके शेषमें मुखके आधे प्रमाणके वर्गको जोड देनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे दुना करके चारका भाग देने पर जो लब्ध आचे उसे शंखक्षेत्रका गणित कहते हैं ॥३२१।। इस सूत्रसे क्षेत्रफलके लानेपर तिहत्तर (७३) उत्सेध वर्ग योजन होते हैं । विशेषार्थ--शंखका पायाम १२ योजन और मुख ४ यो० प्रमाण है । क्षेत्रफल प्राप्त करने हेतु गाथानुसार सूत्र इसप्रकार है _२x[ (आयाम x आ.)-(मुख व्यास ) + (अर्ध मुख ध्यास')] Mah यथा शंखका क्षेत्रफल = २४ [ (१२४ १२) – (४+ २) + (२४२) ] -२ [ १४४-२+४ ] »७३ वर्ग योजन । शंखका बाहल्यआयामे मुह-सोहिय, पुणरवि आयाम-सहिद-मुह-भजियं । बाहन्लं णायचं, संखायारट्टिए खेत्ते ॥३२२।। - - - - - १. यह प्रलोक संस्कृतमें है किन्तु इस पर भी माथा नं. दिया गया है। २ द. ब. तेहसर। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२२ ] पंचमो महाहियारो [ २०७ एवेण सुत्तेण बाहल्ले प्राणिदे पंच-जोयण-पमाणं होवि ॥५॥ पर्ष-पायाममेंसे मुख' कम करके शेषमें फिर आयामको मिलाकर मुखका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना शंख के प्राकारसे स्थित क्षेत्रका बाहल्य जानना चाहिए ।।३२२।। इस सूक्ष्म बाहत्यको लानेपर उसका प्रमाण पांच योजन होता है । विशेषार्थ-गाथानुसार सूत्र इसप्रकार हैशंखका बाल्य ( आयाम-मुख ) + मायाम मुख = (१२-४) + १२==५ यो० वाहस्य । पुदमाणोद-तेहत्तरि-भूद-खेत्तफलं पंच-जोयग-बाहल्लेण गुणिदे घण-जोयणा तिविण-सय-पण्णी होति । ३६५ । एवं घण-पमाणंगलाणि कदे एक्क-लक्ख-बत्तीस-सहस्स बोण्णि-सय-एक्कहत्तरी-कोडोओ सत्तावण्ण - लक्ख णव-सहस्स-चउ-सय-चालीस-रूबेहि गुणिद-घणंगुलमेदं होदि । तं चेई। ६ । १३२२७१५७०९४४० ॥ अर्थ - पूर्व में लाये हुए तिहत्तर वर्ग योजन प्रमाण क्षेत्रफलको पाँच योजन प्रमाण बाहल्यसे गुणा करनेपर तीनसौ पैंसठ (३६५) घन योजन होते हैं । इसके धन-प्रमारपांगुल करनेपर एक लाख बत्तीस हजार दो सौ इकहत्तर करोड़ सत्तावन लाख नौ हजार चार सौ चालीस (१३२२७१५७०९४४०) रूपोंसे गुणित घनांगुलप्रमाण होता है । विशेषार्थ-पूर्वोक्त ७३ उत्सेध वर्ग योजनोंको ५ योजन बाहल्यसे गुणित कर देनेपर ( ७३ ४ ५= ) ३६५ उत्सेध धन योजन प्राप्त होते हैं। इनके प्रमाणांगुल बनाने के लिए ७६८०००४७६८०००४७६८००० का गुणा करना चाहिए यथा५००-५००४ ५०० ३६५४३६२३८७८६५६ = १३२२७१५७०९४४० घनांगुल शंखकी अवगाहनाका घनफल है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निति-पर्याप्तक (कमन) की उत्कृष्ट अवगाहनातदो पदेसुत्तर - कमेण बोण्हं मज्झिमोगाहण-वियप्पं बच्चदि तवणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं वत्तो ति। तादे बादर-वणप्फदिकाइय-पतेय-सरीर-णिबत्ति-पज्जत्तयस्स Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३२२ उक्कस्सोगाहणं दीसइ । कम्हि खेत्ते कस्स वि जीवस्स कम्मि प्रोगाहणे वडमाणस्स होदि चि भणिवे सर्यपहाचल-परभाग-ट्ठिय-खेत्त-उपाण-पउमस्स उपकस्सोगाहरणा कस्सह दीसइ । तं केत्तिया इदि उत्ते उस्सेह-जोयणेए कोसाहिय-एक्क-सहस्सं उस्सेहं एक्कजोयण-बहलं समवट्ट । तं पमाणं जोयरण-फल ७५० । को १ । घणंगुले कदे दोणिलक्स-एक्कहचरि-सहस्स-अट्ठसय-अट्ठावण्ण-कोडि-चउरासीदि-लक्ख-ऊणहत्तरि - सहस्स-धुसय-अद्वत्ताल-रूबेहि गुणिद पमाणंगुलाणि होदि । तं चेदं ।।१।६।२७१८५८८४६६२४८ ॥ अर्थ-पश्चात् प्रदेशात्तर-नामस दो जावोंकी मध्यम-अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहनाक संख्यातगुणी प्राप्त होने तक चलता रहता है । तब बादर-वनस्पतिकायिक (९५) प्रत्येक शरीर नियंत्ति-पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। किस क्षेत्र और कौनसी अवगाह्नामें वर्तमान किस जीवके यह उत्कृष्ट अवगाहना होती है, इसप्रकार कहनेपर उत्तर देते हैं कि स्वयम्प्रभाचलके बाह्य भागमें स्थित क्षेत्रमें उत्पन्न किसी पद्म (कमल) के उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है। वह कितने प्रमाण है ? इसप्रकार पूछने पर उत्तर देते हैं कि उत्सेध योजनसे एक कोस अधिक एक हजार योजन ऊंचा और एक योजन मोटा समवृत्त कमल है। उसकी इस अवगाहनाका घनफल योजनों में सातसौ पचास योजन और एक कोस प्रमाण है । इसके प्रमाण-घनांगुल करनेपर दो लाख इकहत्तरहजार आठ सौ अट्ठावन करोड़ चौरासी लाख उनहत्तर हजार दो सौ अड़तालोस ( २७१८५८८४६६२४८ ) रूपोंसे गुरिणत प्रमाण-घनांगुल होते हैं । विशेषार्थ- कमलको ऊँचाई १००० योजन और बाहल्य १ योजन है । वासो तिमुणो परिही, वास-चउत्था-हदो दु खेत्तफलं । खेत्तफलं वेह - गुणं, खातफलं होइ सब्बत्थ 11 इस गाथानुसार धनफल प्राप्त करनेका सूत्र एवं घनफलका प्रमाण इसप्रकार हैकमलका घनफल = ( व्यास x ३४ व्यास x ऊँचाई ) यथा ४ १६ - १४३४१ ४४००१ = १२००३ या ७५०१ घन योजन ! इन ७५० उत्सेध धन योजनोंके प्रमाणांगुल बनानेके लिये इनमें ! ७६८००० x ७६८००० x ७६८००० .. ८०" का गुणा करना चाहिए । यथा५००-५००४५०० Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२२ ] ७५० था अवगाहनाका घनफल है । पंचमी महाहियारो [ २०६ 2003 ' x ३६२३८७८६५६ = २७१८५८८४६९२४८ घनांगुल कमल को पर पंचेन्द्रिय जीव ( महामत्स्य) की सर्वोत्कृष्ट अवगाहना तदो पदेसुसर - कमेण पंचेंद्रिय - णिग्वत्ति-पज्जतयस्स मज्झिमोग्राहण- वियत्पं यच्चवि तरणंतरोगाहणं संखेज्ज-गुणं पत्तो सि । [तादे पंचेंधिय- णिश्वत्ति-पज्जरायस्स कस्तो गाणं दीes । ] तं कम्मि खेत्ते कस्स जोवस्स होदि ति उत्ते सपहाचलपरभागट्ठिए खेते उप्पण-संमुच्छिम महा मच्छस्स सव्वोक्करसोगाहणं कस्सइ बीसइ । तं केलिया इदि उसे उस्सेह-जोयणेण एक्क सहस्लायामं पंच-सय-विवखंभं तवद्ध-उस्सेहं । तं पमाणंगुले कीरमाणे चउ-सहस्स-पंच-सय- एकणतीस कोडीनो चुलसीदि- लक्ख-तेसीवि सहस्स दुसय कोडि रूवेहि गुणिक पमाण घणंगुलाणि हवंति । तं चेदं । ६ । ४५२६८४८३२००००००००० ॥ - = | एवं ओगाहण - विययं समतं ॥ १६ ॥ अर्थ - पश्चात् प्रदेशोत्तर क्रमसे पंचेन्द्रिय निवृत्ति पर्याप्तककी मध्यम अवगाहनाका विकल्प तदनन्तर अवगाहना के संख्यातगुणी प्राप्त होने तक चलता है। [द्र (९६) निवृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना दिखती है । ] यह अवगाहना किस क्षेत्रमें और किस जीवके होती है ? इसप्रकार पूछनेपर उत्तर देते हैं कि स्वयम्प्रभाचलके बाह्य भाग स्थित क्षेत्र में उत्पन्न किसी सम्मूच्छंन महामत्स्यके सर्वोत्कृष्ट श्रवगाहना दिखती है । वह कितने प्रमाण है ? इसप्रकार कहनेपर उत्तर देते हैं कि उसकी अवगाहना उत्सेध योजनसे एक हजार योजन लम्बी पांचसौ योजन विस्तारवालो और इससे आधी अर्थात् ढाई सौ योजन प्रमाण ऊंचाई वाली है । इसके प्रमाणांगुल करनेपर चार हजार पाँच सौ उनतीस करोड़ चौरासी लाख तेरासी हजार दो सौ करोड़ रूपोंसे गुणित प्रमाण- घनांगुल होते हैं । विशेषार्थ - महामत्स्यकी लम्बाई १००० उत्सेध यो०, विस्तार ५०० उत्सेध यो० और ऊँचाई २५० उ० यो० है । मत्स्यका घनफल लम्बाई x विस्तार × ऊंचाई - = १००० यो० X ५०० यो० x २५० यो० = १२५०००००० उत्सेध घन योजन । इन उत्सेध घनयोजनों के प्रमाणांगुल बनानेके लिए ७६८००० ४७६८००० x ७६८००० का गुणा करना चाहिए । ५००× ५००× ५०० यथा - १२५००००००३६२३८७८६५६ महामत्स्यके शरीरकी प्रवगाहनाका घनफल है। ४५२९८४६३२००००००००० घनांगुल इसप्रकार अवगाहना-भेदोंका कथन समाप्त हुआ ।। १६ ।। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] तिलोयपात्ती [ माथा : ३२२ समस्त प्रकार के स्थावर एवं ब्रस जीवोंकी जघन्य प्रव० वाले सूक्ष्म लळयपर्याप्त जीव जघन्य अवगाहना बाले सूक्ष्म-निवृत्त्यपर्याप्तक जीव जघन्य अवगा० चाले सुक्ष्म नित्ति पर्याप्तक जीव स्थान-५ जघन्य-अव० वाले बादर लब्ध्यपर्याप्त जीब स्थान-५ स्थान-५ स्थान-७ निगोद निगोद १९ निगोद घायुकायिक | १७ | निगोद वायुकायिक वायुकायिक २४ | वायुकायिक तेजस्कायिक तेजस्कायिक | २७। तेजस्कायिक |२६| तेजस्कायिक जलकायिक जलकायिक जलकायिक जलकायिक पृथिवीकायिक पृथिवीकायिक ३७/ पृथिवीकायिक | ३९ पृथिवीकायिक १० निगोद निगोद प्रतिष्ठित वनस्पतिप्रत्येक शरीर Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२२ ] जघन्य - उत्कृष्ट अवगाहनाका क्रम जघन्य अवगाहना बाले बादर निवृत्य पर्याप्त जीव स्थान- ७ ६७ निगोद प्रतिष्ठित जघन्य भव० वाले बादर निवृतिपर्याप्तक जीव स्थान- ७ ७२ वनस्पति प्रत्येक शरीर ४२ | वायुकायिक ४४ वायुकायिक द्वीन्द्रिय ४७ तेजस्कायिक ४९ तेजस्कायिक १४ तेइन्द्रिय ५२ जलकायिक ५४ | जलकायिक १५ द्रिय ५७ पृथिवीकायिक ५२ | पृथिवीकायिक १६ पंचेन्द्रिय ६२ निगोद ६४ निगोद ६९ निगोद पंचमो महाहियागे प्रतिष्ठित I ७४ वनस्पति प्रत्येक शरीर जघन्य अव० वाले स लब्ध्यपर्याप्त जीव स्थान-४ १३ जघन्य अव० वाले निवृत्ति अपर्याप्तक जीव स्थान- ४ ७९ ८० तेइन्द्रिय ८३ चतुरिन्द्रिय | ८४ द्वीन्द्रिय ८२ पंचेन्द्रिय जघन्य श्रव वाले सनिवृत्ति पर्याप्तक जीव स्थान- ४ | २११ ८६ द्वीन्द्रिय तेइन्द्रिय ८५ चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३२२ उत्कृष्ट अव० वाले सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक जीव उत्कृष्ट प्रवः वाले सूक्ष्म निर्वत्ति अपर्याप्त जीव उत्कृष्ट अव० वाले सुक्ष्म निर्वत्ति पर्याप्तक जीव उत्कृष्ट प्रवः वाले बादर लब्ध्यपर्या जीव स्थान-५ स्थान-५ स्थान-५ स्थान-७ १८ निगोद निगोद निगोद वायुकायिक २३ । वायुकायिक | २५ वायुकायिक वायुकायिक तेजस्कायिक तेजस्कायिल !! तेजस्कायिक तेजस्कायिक जलकायिक जलकायिक | ३५; जल कायिक | ३६ : जलकायिक वीकायिक पृथिवी कायिक पृथिवीकायिक | ४१ पृथिवीकायिक निगोद निगोद प्रति बनस्पति प्रत्येक शरीर Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२२ ] पंचमो महाहियारो [२१३ उत्कृष्ट अव० वाले उत्कृष्ट अव० वाले उत्कृष्ट अव० वाले उत्कृष्ट प्रव० वाले उत्कृष्ट अव० वाले बादर निवृत्ति- बादर निति अस लब्ध्यपर्याप्तक | निवृत्ति अपर्याप्तक नित्ति पर्याप्तक अपर्याप्तक जीव पप्सिक जीव जीव जीव जीव स्थान-७ स्थान-७ स्थान-४ स्थान-४ स्थान-४ वायुकायिक | ४६ वायुकायिक | ७५ : द्वीन्द्रिय ८७ तेइन्द्रिय ९२ | तेइन्द्रिय ५० | तेजस्कायिक | ५१ तेजस्कायिक | ७६ ! तेइन्द्रिय ८८' चतुरिन्द्रिय / ९३ चतुरिन्द्रिय ५५ | जलकायिक | ५६ जलकायिक | ७७ ! चतुरिन्द्रिय | ८९. तीन्द्रिय ६४ | दोन्द्रिय पृथिवीकायिका ६१ पृथिवीकायिक ७८ | पंचेन्द्रिय ९१ पंचेन्द्रिय ६६ | पंचन्द्रिय | निगोद |६६ | निगोद | निगोद प्रति०७१ | निगोद प्रति० घनस्पप्ति | १५ | वनस्पति प्रत्येक शरीर प्रत्येक शरीर Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] तिलोयपण्णती [ गाथा : ३२३ अधिकारान्त मङ्गलजंणाण'-रयण-दीपो, लोयालोय-प्पयासण-समस्थो । पणमामि पुप्फयंत, सुमइकरं भव्य - संघस्स ॥३२३॥ एवमाइरिय-परंपरागय-तिलोयपप्णत्तीए तिरिय-लोय-सहय-णिरूवण-पण्णत्ती पाम पंचमो महाहियारो समत्तो ॥५॥ अर्थ-जिनका ज्ञानरूपी रत्नदीपक लोक एवं प्रलोकको प्रकाशित करनेमें समर्थ है और जो भव्य-समूहको सुमति प्रदान करनेवाले हैं ऐसे पुष्पदन्त जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता है ॥३२३।। इसप्रकार प्राचार्य-परम्परागत त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें तियंग्लोक स्वरूप निरुपए प्रशस्ति नामक पाँचवाँ महाधिकार समाप्त हुआ ॥५॥ ... म.ज. रायरयण । प. णरणारय । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती छो महाहियारो मङ्गलाचरणचोचीसादिसएहि', विम्हय-जणणं सुरिव-पहुंदोणं । णमिऊण सीदल - जिण, उतरलोयं णिहवेमो ॥१॥ अर्थ-चौतीस अतिशयोंसे देवेन्द्र प्रादिको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले शीतल जिनेन्द्रको नमस्कार करके व्यन्तरलोकका निरूपण करता हूँ ॥१॥ अन्तराधिकारोंका निरूपणवेंतर-णिवासखेरा, भेदा एवाण विविह-चिन्हाणि । कुलभेदो गामाइं, भेदविही दक्खिणुसरियाणं ॥२॥ आणि आहारो, उस्सासो पोहिणाण-सत्तीओ। उस्सेहो संखाणि, जम्मरण-मरणाणि एक्क-समयस्मि ॥३॥ प्राउग-बंधण-भावो, दसरण-गहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणादि - वियप्पा, सत्तरस हवंति अहियारा ॥४॥ ।१७। १.द, बउतीसा। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५-७ अर्थ-व्यन्तर देवोंका निवास-क्षेत्र१, उनके भेदर, विविध चिन्ह ३, कुलभेद४, नाम५, दक्षिण-उत्तर इन्द्रोंके भेद६, प्रायु७, आहार८, उच्छ्वासह, अवधिज्ञान १०, शक्ति११, ऊँचाई१२, संख्या १३, एक समय में जन्म-मरण १४, प्रायुके बन्धक भाव १५, सम्यक्त्वग्रहणके विविध कारण१६ और गुणस्थानादि-विकल्प १७, ये सत्तरह (अन्तर) अधिकार होते हैं ॥२-४।। व्यन्तरदेवोंके निवासक्षेत्रका निरूपणरज्जु-कदी गुणिदब्बा, णवणउदि-सहस्स-अहिय-लक्खेरणं । तम्मज्झे ति - वियप्पा, वेंतरदेवारण होंति पुरा ।।५।। । १९६००० । अर्थ-राजूके वर्गको एक लाख निन्यानब हजार ( १९९०००) योजनसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके मध्यमें व्यन्तर देवोंके तीन प्रकारके पुर होते हैं ।।५।। विशेषार्थ'-"जगसे वि-सत्त भागो रज्ज" इस गाथा-सूत्रानुसार जगच्छणीके सातवें भाग को राजू कहते हैं । संदृष्टिके का अर्थ एक वर्ग राजू है । क्योंकि जगच्छ्र णी (-) के वर्ग (=) में ७ के वर्ग (४९) का भाग देने पर जो एक वर्ग राजू का प्रमाण प्राप्त होता है वही तिर्यग्लोकका विस्तार है अर्थात् तिर्यग्लोक एक राधू लम्बा और एक राजू चौड़ा ( १४ १= १ वर्ग राजू ) है । रत्नप्रभा पृथिवी १८०००० हजार योजन मोटी है । इसके तीन भाग हैं । अन्तिम अब्बहुलभाग ५०,००० योजन मोटा है, जिसमें नारकियोंका वास है । अवशेष एक लाख योजन रहा । सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है जिसमेंसे १००० यो० की उसकी नींव उपयुक्त एक लाखमें गर्भित है अतः चित्रा पृथिवीके ऊपर मेरुकी ऊंचाई ६ हजार योजन है । इसप्रकार पंकभागसे मेरुपर्वतको पूर्ण ऊंचाई पर्यन्तका क्षेत्र { १०००००+९९००० = ) १९९००० यो० होता है। इसीलिए गाथामें राजूके वर्ग को एक लाख निन्यानबे हजार योजनसे गुणा करने को कहा गया है । व्यन्तर देवोंके निवास, भेद, उनके स्थान और प्रमाण आदिका निरूपरण भवणं भवणपुराणि, आवासा इय हवेति ति-घियप्पा । जिण - मुहकमल - विणिग्गव-वतर- पत्ति णामाए ॥६॥ रयणप्पह-पुढवीए, भवणाणि 'वीव-उवहि-उवरिम्मि । भयणपुराणि दह - गिरि • यहुदीणं उबरि श्रावासा ॥७॥ १..ब. भवरिण । २, द, ब, अ. तिचिहप्पा 1 ३. द. वीचकोहि । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ८-१२ पंचमो महाहियारो [ २१७ प्रर्थ-जिनेन्द्र भगवान् के मुखरूपी कमलसे निकले हुए व्यन्तर-प्रज्ञप्ति नामक महाधिका रमें मवन, भवनपुर और आवास इसप्रकार तीन प्रकारके निवास कहे गये हैं। इनमेंसे रत्नप्रभा पृथिवीमें भवन, द्वीप-समुद्रोंके ऊपर भवनपुर और द्रह ( तालाब ) एवं पर्वतादिकोंके ऊपर प्रावास होते हैं ।।६-७॥ बारस-सहस्स-जोयरप-परिमारणं होदि जेट-भवणारणं । पत्तक्कं विखंभो, तिणि सयाणि च बहलत्तं ॥८॥ १२५०० । ब ३०० । अर्थ-ज्येष्ठ भवनोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार बारह हजार (१२०००) योजन और बाहल्य तीनसो (३००) योजन प्रमाण है ।।८।। पणुवीस जोयणाणि, रुव-पभाणं जहण्ण-भवणाणं । पत्तेक्कं बहलतं, ति - चउभाग - पमाणं च ॥६॥ अर्थ-जधन्य (लघु) भवनों में से प्रत्येकका विस्तार पच्चीस योजन और बाहल्य एक योजनके चार भागोंमेंसे तीन भाग ( यो०) प्रमाण है ।।६।। ग्रहवा रुंद-पमाणं, पुह-पुह कोसा जहण्ण-भवणाणं । तब्वेदी उच्छेहो, कोदडारिण पि पणुवीसं ॥१०॥ को १ । दं २५ । पाठान्तरम् । अर्थ-अथवा जघन्य भवनोंके विस्तारका प्रमाण पृथक्-पृथक् एक कोस और उनकी वेदी को ऊँचाई पच्चीस (२५) धनुष प्रमाण है ॥१०॥ कूट एवं जिनेन्द्र भवनोंका निरूपणबहल-ति-भाग-पमारणा, कडा भवरणाण होंति बहुमज्झे । वेदी चउ - वण - तोरण - दुवार - पहुदीहि रमणिज्जा ॥११॥ अर्थ-भवनोंके बहुमध्य भागमें वेदी, चार वन और तोरण-द्वारादिकोंसे रमणीय ऐसे बाहल्य के तीसरे भाग [ ( ३००४) अर्थात् १०० योजन ] प्रमाण ऊँचे कूट होते हैं ॥११॥ फूजाण उवरि भागे, चेते जिणरिद-पासादा । कणयमया रमदमया, रयणमया विविह-विण्णासा।।१२॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १३-१७ अर्थ- --इन कूटोंके उपरिम भागपर अनेक प्रकारके विन्याससे संयुक्त सुवर्णमय, रजतमय और रत्नमय जिनेन्द्र- प्रासाद हैं ||१२|| भिंगार - कलस दप्पण-चय-चामर- वियण- छत्त - सुपइट्ठा । इय अट्ठत्तर - मंगल - जुत्ता य पत्तेषकं ॥ १३ ॥ अर्थ - प्रत्येक जिनेन्द्र प्रासाद भारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चंबर, बीजना, छत्र और ठोना, इन एक सौ आठ एकसौ आठ उत्तम मंगल द्रव्योंसे संयुक्त है ।। १३ ।। दु दुहि मयंग मद्दल जयघंटा पडह कंसतालाणं । वीणा वंसादीर्ण, - - - सद्दहि णिच्च हलबोला ॥१४॥ अर्थ - (वे ) जिनन्द्र प्रासाद दुन्दुभी, मृदङ्ग, मर्दल, जयघण्टा, भेरी, झांझ, वीणा और बांसुरी आदि बादित्रोंके शब्दोंसे सदा मुखरित रहते हैं || १४ || कृत्रिम जिनेन्द्र- प्रतिमाएं एवं उनकी पूजा - सिंहासनादि सहिया, चामर करणाग जवख मिहुण-जुदा । तेसु अकिट्टिमाओ, जिदि पडिमा विजयंते ।।१५।। प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ।। १६ ।। अर्थ – उन जिनेन्द्र भवनों में सिंहासनादि प्रातिहार्यों सहित और हाथ में घामर लिए हुए नागयक्ष देव-युगलों से संयुक्त अकृत्रिम जिनेन्द्र- प्रतिमाएँ जयवन्त होती हैं ।। १५ ।। कम्मखवण- णिमितं, म्भिर भत्तीय विविह-वहिं । सम्माट्ठी देवा, जिवि पडिमा पूजति ॥१६॥ श्रर्य - सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षयके निमित्त गाढ़ भक्ति से विविध द्रव्यों द्वारा उन जिनेन्द्र एदे कुलदेवा इय, मण्णता मिच्छाइट्ठी देवा, पूजति - देव बोहण बलेन । जिणिद पडिमा ॥१७॥ - - अर्थ – ग्रन्थ देवोंके उपदेशयश मिध्यादृष्टि देव भी 'ये कुलदेवता हैं' ऐसा मानकर उन जिनेन्द्र - प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ||१७|| १. द. क. ज. सध्येहि । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८-२२ ] पंचमो महाहियारो [ २१९ व्यन्त र प्रासादों (भवनों) की अवस्थिति एवं उनकी संख्याएवाण कहाणं, समतदो वेतराण पासामा । सत्तट्ट-पहुवि-भूमी, विण्णास - विचित्त • संठाणा ॥१॥ अर्थ-इन जिनेन्द्र कुटोंके चारों ओर व्यन्तरदेवोंके सात-आठ आदि भूमियोंके विन्यास और अद्भुत रचनाओं वाले प्रासाद हैं ॥१८॥ लंयंत-रयणमाला, वर तोरण-रइद-सुदर-दुवारा । जिम्मल-विचित्त-मणिमय-सयपासण-णियह-परिपुण्णा ॥१६॥ अयं-ये प्रासाद लटकती हुई रत्नमालाओं सहित, उत्तम तोरणोंसे रचित सुन्दर द्वारों वाले हैं और निर्मल एवं अद्भुत मणिमय शय्याओं तथा आसनोंके समूहमे परिपूर्ण हैं ॥१९॥ एवं बिह-रूवाणि, तीस-सहस्साणि होति भवणाणि । पुस्खोविद-भवणामर - भषण - समं अण्णणं सयलं ॥२०॥ भवणा समत्ता ॥१॥ प्रयं-इसप्रकारके स्वरूपवाले ये प्रासाद तीस हजार ( ३००००) प्रमाण हैं। इनका सम्पूर्ण वर्णन पूर्वमें कहे हुए भवनवासी देवोंके भवनोंके सदृश है ॥२०॥ भवनोंका वर्णन समाप्त हुआ। भवनपुरोंका निरूपणवट्टादि' - सरूवाणं, भवण • पुराणं वेदि जेट्ठाणं । जोयण · लक्खं दो, जोयणमेक्कं जहण्णाणं ॥२१॥ १००००० मो।१॥ अर्थ-वृत्तादि स्वरूपवाले उत्कृष्ट भवनपुरोका विस्तार एक लाख ( १०००००) योजन और जवन्य भवनपुरोंका विस्तार एक योजन प्रमाण है ॥२१॥ कूड़ा जिणिद-भवणा, पासादा वेदिया वण-प्पहदी। भवरण - सरिचर्छ सन्वं, भवरणपुरेसु पि दट्टय्वं ॥२२॥ भवणपुरं । - . - -- १. प. बलादि। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] तिलोयपण्यात्ती [ गाथा : २३-२६ ___ अर्थ-कूट, जिनेन्द्र-भवन, प्रासाद, वेदिका और वन आदि सब ( की स्थिति ) भवनोंके सदृश ही भवनपुरोंमें भी जाननी चाहिए ।।२२।। भवनपुरोंका वर्णन समाप्त हुआ । आवासों का निरूपण-- बारस-सहस्स-बे-सय-जोयण-कासा य जेट्ट-आवासा । होति जहण्णावासा, ति-कोस-परिमाण-वित्थारा ॥२३॥ __ जो १२२०० १ को ३३ अर्थ-व्यन्तरदेवोंके ज्येष्ठ ग्रावास बारह हजार दो सौ ( १२२०० ) योजन प्रमाण और जघन्य प्रावास तीन (३) कोस प्रमाण विस्तारवाले हैं ।।२३।। कूडा जिणिव-भवरणा पासादा वेदिया वण-प्पहुदी' । भवण - पुराण सरिच्छं, आवासाणं पि णादव्वा ॥२४॥ प्रावास समत्ता। णियास-खेतं समत्तं ॥१॥ प्रयं--कट, जिनेन्द्र-भवन, प्रासाद, वेदिका और वन आदि भवनपुरोंके सदृश ही आवासों के भी जानने चाहिए ॥२४॥ आवासों का वर्णन समाप्त हुआ। इसप्रकार निवास क्षेत्रका कथन समाप्त हुा ।।१॥ ध्यन्तरदेवोंके ( कुल- ) भेद एवं (कुल) भेदोंकी अपेक्षा भवनोंके प्रमाणका निरूपण किणर-किंपुरुस-महोरगा य गंधव-जक्ख-रक्खसया । भूद - पिसाचा एवं, अट्ठ - विहा चेतरा होति ॥२५॥ अर्थ-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच, इसप्रकार ध्यन्तरदेव आठ प्रकारके होते हैं ॥२५॥ चोद्दस-सहस्स-मेत्ता, भवणा भूदाण रक्खसाणं पि । सोलस - सहस्स - संखा, सेसाणं स्थि भवणाणि ॥२६॥ १४००० । १६०००। वेंतरभेवा समत्ता ॥२॥ १. द. क.ज. पहुँदि । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : २७-३० ] पंचमो महाहियारो [ २२१ अर्थ - भूतोंके चौदह हजार ( १४००० ) प्रमाण और राक्षसोंके सोलह हजार ( १६००० ) प्रमाण भवन हैं। शेष व्यन्तर देवोंके भवन नहीं होते हैं ॥ २६ ॥ विशेषार्थ - रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग में भूत व्यन्तरदेवोंके १४००० भवन हैं तथा पक भागमें राक्षसों के १६००० भवन हैं। शेष किन्नरादि छह कुलोंके भवन नहीं होते हैं । व्यन्तरदेवोंके भेदोंका कथन समाप्त हुआ ॥२॥ चैत्य-वृक्षोंका निर्देश fore किंपुरुसादिय - बेंतर- देवाण अटू भेयाणं । ति- वियप्प - णिलय पुरवो, चेत्त वुमा होंति एक्केक्का ||२७|| अर्थ - किन्नर - किम्पुरुषादिक आठ प्रकारके व्यन्तर देवों सम्बन्धी तीनों प्रकारके ( भवन, भवनपुर, आवास ) भवनों के सामने एक-एक चैत्य - वृक्ष है ||२७|| · कमसो असोय-चंपय-नागद्दुम-तु बुरू य णग्गोषो । कंटय- रुक्खो तुलसी, कदंब विडओ ति ते श्रट्ठ ॥ २८ ॥ अर्थ -- अशोक, चम्पक, नागद्रम, तुम्बुरु, न्यग्रोध ( वद ) कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष, इसप्रकार क्रमशः वे चैत्यवृक्ष आठ प्रकारके हैं ||२८|| ते सव्वे चेत्त-तरू, भावण- सुर- चेत्त रुक्ख सारिच्छा । जीवुप्पचि लयाणं, हेल पुढवी सरूवा · ||२६|| अर्थ – ये सब चैत्यवृक्ष भवनवासी देवोंके वैत्यवृक्षोंके सदृश ( पृथिवीकायिक ) जीवोंकी उत्पत्ति एवं विनाशके कारण हैं और पृथिवीस्वरूप हैं ||२९|| विशेषार्थ -- चैत्यवृक्ष अनादि निधन हैं अतः उनका कभी उत्पत्ति या विनाश नहीं होता है। किन्तु उनके श्राश्रित रहने वाले पृथिवीकायिक जीवों का अपनी-अपनी आयु के अनुसार जन्म-मरण होता रहता है । इसीलिये चैत्यवृक्षोंको जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण कहा है। जिनेन्द्र प्रतिमाओं का निरूपण मूलम्मि चज - दिसासु, चेत-तरूणं जिरिगद - पडिमाओ । चत्तारो चत्तारो, चड तोरण सोहमाणाश्री ॥३०॥ - अर्थ - चैत्यवृक्षोंके मूलमें चारों ओर चार तोरणोंसे शोभायमान चार-चार जिनेन्द्रप्रतिमाएँ विराजमान हैं ||३०| Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ । तिलोयषण्णत्तो [ गाथा : ३१-३५ पल्लंक-आसणाओ, सपाडिहेरानो रयण-मइयानो । सणमेत - णिवारिद - दुरिताओ तु वो मोक्खं ॥३१॥ चिण्हाणि समत्ताणि ॥३॥ अर्थ-पल्यङ्कासनसे स्थित, प्रातिहार्यों सहित और दर्शनमात्रसे हो पापको दूर करनेवाली बे रत्नमयो जिनेन्द्र-प्रतिमाएं आप लोगोंको मोक्ष प्रदान करें ।।३१॥ इसप्रकार चिन्होंका कथन समाप्त हुआ ॥३॥ व्यन्तरदेवोंके कुल-भेद, उनके इन्द्र और देवियोंका निरूपणकिणर-पहुधि-चउक्क, दस-रस-भेदं हयेवि पत्तक्कं । जक्खा जारल-मेदा. सता-निमणि रासार ३२॥ भूवाणि तेत्तियाणि, पिसाच-णामा पउद्दस-बियप्पा। दो दो इंदा दो हो, वेवोनो दो-सहस्स-वल्लहिया ॥३३।। कि १०, किंपु १०, म १०, गं १०, ज १२, र ७, भू ७, पि १४ १ २ । २ । २००० । कुल-भेदा समत्ता ॥४।1 अर्थ---किन्नर आदि चार प्रकारके व्यन्तर देवोंमेंसे प्रत्येकके दस-दस, यक्षोंके बारह, राक्षसों के सात, भूतोंके सात और पिशाचोंके चौदह भेद हैं। इनमें दो-दो इन्द्र और उनके दो-दो ( अन) देवियाँ होती है। ये देवियाँ दो हजार बल्लभिकानों सहित ( अर्थात् प्रत्येक अग्रदेवीकी एक-एक हजार बल्लभिका देवियाँ ) होतो हैं 11३२-३३॥ कुल-भेदोंका वर्णन समाप्त हुआ ॥४॥ किन्नर जातिके दस भेद, उनके इन्द्र और उनकी देवियोंके नाम ते फिपुरिसा किणर-हिदयंगम-रूयपालि-किंणरया । किणणिदिद गामा, मणरम्मा किंणरुतमया ॥३४॥ रतिपिय-जेट्टा तारणं, किंपुरिसा किंणरा दुवे इंदा । प्रयतंसा केनुमदी, रविसेरणा-रदिपियाओ देवीमो ॥३५॥ किणरा गदा। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ३६-३९ ] पंचमी महाहियारो [ २२३ अर्थ - किम्पुरुष, किन्नर, हृदयङ्गम, रूपपाली, किन्नरकिन्नर, अनिन्दित, मनोरम, किन्नरोत्तम, रतिप्रिय और ज्येष्ठ, ये दस प्रकारके किन्नर जातिके देव होते हैं। इनके किम्पुरुष और किन्नर नामक दो इन्द्र तथा इन इन्द्रोंके अवतंसा, केतुमती, रतिसेना एवं रतिप्रिया नामक ( दो-दो ) देवियाँ होती हैं ।। ३४-३५।। किसका कथन समाप्त हुआ । किम्पुरुषोंके भेद आदि पुरुसा पुरुसुतम सप्पुरुस - महापुरुस - पुरुषपभ- णामा । अतिपुरुसा तह महओ', मरुवेव- मरुप्पहा जसोवंता ॥३६॥ इय किपुरुसा-इंदा, सप्पुरुसो ताथ तह महापुरुसो । रोहिणी हरिया, पुरफवदीओ वि देवीश्री ॥३७॥ किपुरुसा गदा । अर्थ- पुरुष, पुरुषोत्तम, सत्पुरुष, महापुरुष, पुरुषप्रभ, अतिपुरुष, मरु, मरुदेव, मरुत्प्रभ और यशस्वान्, इसप्रकार ये किम्पुरुष जाति ( देवोंके ) दस भेद हैं। इनके सत्पुरुष और महापुरुष नामक दो इन्द्र तथा इन इन्द्रोंके रोहिणी, नवमी, ह्री एवं पुष्पवती नामक ( दो-दो ) देवियाँ होती हैं ।। ३६-३७।। 1 किम्पुरुषोंका कथन समाप्त हुआ । महोरगदेवोंके भेद आदि- भुजगा भुजंगसाली, महतणु-अतिकाय खंधसाली य । मणहर प्रसणिज महसर, गहिरं पियदंसणा महोरगया ॥ ३८ ॥ महकाओं अतिकाश्री, इंदा एवारण होंति देवीयो । भोगा. भोगवदीश्रो, श्रणिविदा पुष्पगंधोश्रो ॥३६॥ महोरगा गया । अर्थ - भुजग, भुजंगशाली, महातनु, प्रतिकाय, स्कन्धशाली, मनोहर, अश निजब, महेश्वर, गम्भीर और प्रियदर्शन, ये महोरग जातिके देवोंके दस भेद हैं। इनके महाकाय और अतिकाय नामक १. द. ब. क. ज. श्रमरा । २ द. ब. क. अ. ईद । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] तिलोयपात्ती [ गाथा : ४०-४४ इन्द्र तथा इन इन्द्रोंके भोगा, भोगवती, अनिन्दिता और पुष्पगन्धी नामक ( दो-दो ) देवियाँ होती हैं ।। ३८-३९।। महोरग जातिके देवोंका कथन समाप्त हुआ। गन्धर्वदेवोंके भेद आदिहाहा-हूहू-रणारच-तुबुर-वासव-कदंब - महसरया । गोदरदी - गोक्यसा, बहरवतो होति गंधवा ॥४०।। गोदरदी गोदयसा, इंदा ताणं पि होंति देवीश्रो। सरसइ-सरसेणाग्रो, दिणि-पियनसणालो वि ॥४१॥ गंधव्या गदा । अर्थ-हाहा, हूहू, नारद, तुम्बुरु, वासव, कदम्ब, महास्वर, गीतरति, गीतयश और वनवान्, ये दस भेद गन्धोंके हैं। इनके गीतरति और गीतयश नामक इन्द्र और इन इन्द्रोंके सरस्वती, स्वरसेना, नन्दिनी और प्रियदर्शना नामक ( दो-दो ) देवियाँ हैं ।।४०-४१।। गन्धर्वजातिके देवोंका कथन समाप्त हुआ। ___ यक्षदेवोंके भेद आदिग्रह माणि-पुण्ण-सेल-मणो-भद्दा भद्दका सुभद्दा य । तह सव्वभद्द-माणुस-धणपाल-सरूव - जक्खरखा ।।४२॥ जक्खुत्तम-मणहरषा, ताणं बे माणि पुण्ण-द्दिदा । कुवा - बहुपत्तामो, तारा तह उत्तमानो देवीओ ॥४३।। जक्खा गदा । अर्थ-माणिभद्र, पूर्णभद्र, शलभद्र, मनोभद्र, भद्रक, सुभद्र, सर्व भद्र, मानुष, धनपाल, स्वरूपयक्ष, यक्षोत्तम और मनोहरण, ये बारह भेद यक्षोंके हैं । इनके मारिणभद्र और पूर्णभद्र नामक दो इन्द्र हैं और उन इन्द्रोंके कुन्दा, बहुपुत्रा, तारा तथा उत्तमा नामक ( दो-दो ) देवियां हैं ।।४२-४३।। यक्षोंका कथन समाप्त हुना। राक्षसों के भेद आदिभीम-महभीम-विग्घा'-विणायका उदक-रक्खसा तह य । रक्खस - रक्खस - णामा, सत्तमया बम्हरक्खसया ॥४४। ----.-- -. . १. द. क. ज. विप्पू, व. भीप्पू । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४५-४६ ] पंचमो महाहियारो रक्खस-इंदा भीमो, 'महभीमो ताण होंति देवीओ। पउमा - वसुमित्ताओ, 'रयरगड्ढा - कंचणपहाओ ॥४५॥ रक्खसा गदा । अर्थ -भीम, महाभीम, विघ्न-विनायक, उदक, राक्षस, राक्षस राक्षस और साता नम्राक्षस, इसप्रकार ये सात भेद राक्षस देवों के हैं । इन राक्षसोंके भीम तथा महाभीम नामक इन्द्र और इन इन्द्रोंके पद्या, वसुमित्रा, रत्नाढया तथा कञ्चनप्रभा नामक ( दो-दो ) दवियाँ हैं ॥४४-४५।। राक्षसोंका कथन समाप्त हुआ। भूतदेवोंके भेद आदिभूदा इमे सुरूवा, पडिरूवा भूदउत्तमा होति । पडिभूद - महाभूवा, पडिछण्णाकासभूद ति ।।४६।। भूविका य सरूवो, पडिरूवो ताण होंति देवीप्रो । रूववदी बहुरूवा, सुमुहो णामा सुसोमा ५ ॥४७।। भूवा गवा । अर्थ-स्वरूप, प्रतिरूप, भूतोत्तम, प्रतिभूत, महाभूत, प्रतिच्छन्न और आकाशभूत, इसप्रकार ये सात भेद भूतदेवोंके हैं। उन भूतोंके इन्द्र स्वरूप एवं प्रतिरूप हैं और उन इन्द्रोंके रूपवती, बहुरूपा, सुमुखी तथा सुसीमा नामक देवियाँ हैं ॥४६-४७॥ भूतोंका कथन समाप्त हुआ। पिशाचदेवोंके भेद आदिकुंभंड-जक्ख-रक्खस-संमोहा तारमा अचोक्खक्खा । काल-महकाल-चोक्खा, सतालमा बेह - महदेहा ॥४८।। तुहिन-पवयण-णामा, पिसाच-इंदा म काल-महकाला । कमला - कमलपहुप्पल - सुदसणा ताण देवोनो ॥४६॥ पिसाचा गदा । अर्य-कुष्माण्ड, यक्ष, राक्षस, संमोह, तारक, अशुचि ( नामक }, काल, महाकाल, शुचि, सतालक, देह, महादह, तूष्णीक और प्रवचन, इसप्रकार पिशाचोंके ये चौदह भेद हैं। काल एवं महा - - --.. १. व. क. ज. महा। २. क. ज. द. रयणंदा । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] तिलोयपण्णत्ती काल, ये पिशाचोंके इन्द्र हैं तथा इन इन्द्रोंके कमला, कमलप्रभा, उत्पला एवं सुदर्शना नामक (बो-दो) देवियाँ हैं ।।४८-४९।। पिशाचोंका कथन समाप्त हुआ। गणिका महत्तरियोंका निरूपणसोलस- भोम्मिदाणं, किंगर-पहुदोण होत्ति पत्तक्कं । गणिका महद्धियानो', दुवे दुवे रुववत्तोओ ॥५०॥ अर्थ-किन्नर प्रादि सोलह व्यन्तरेन्द्रों से प्रत्येक इन्द्र के दो-दो रूपवती गणिकामहत्तरी होती हैं ॥५०॥ महुरा महुरालाथा, सुस्सर-मिदुभासिरणीनो णामेहिं । पुरिसपिय-पुरिसकंता, सोमानो पुरिससिणिया ॥५१॥ भोगा - भोगवदीओ, भजगा भुजगप्पिया य णामेणं । विमला सुघोस • णामा अणिविधा सुस्सरक्खा य ॥५२॥ तह य सुभदा भद्दाओ मालिणी पम्ममालिणीयो वि । सम्वसिरि • सवसेणा, रुद्दावइ रुद्द - णामा य ॥५३॥ भूदा य भूदकंता, महबाहू भूवरत्त - णामा य । अंबा य कला णामा, रस-सुलसा तह सुदरिसणया ॥५४॥ अर्थ-मधुरा, मधुरालापा, सुस्वरा, मृदुभाषिणी, पुरुषप्रिया, पुरुषकान्ता, सौम्या, पुरुषदशिनी, भोगा, भोगवती, भुजगा, भुजगप्रिया, विमला, सुघोषा, अनिन्दिता, सुस्वरा, सुभद्रा, भद्रा, मालिनी, पपमालिनी, सर्वश्री, सर्वसेना, रुद्रा, रुद्रवती, भूता, भूतकान्ता, महाबाहू, भूतरक्ता, अम्बा, कला, रस-सुरसा और सुदर्शनिका, ये उन गणिका-महत्तरियोंके नाम हैं ।। ५१-५४।। ___ व्यन्तरोंके शरीर-वर्णका निर्देशकिणरदेवा, सव्वे, पियंगु - सामेहि देह - वणेहि । उम्भासते कंचण • सारिच्छेहि पि किंपुरुसा ।।५।। अर्थ-सब किन्नर देव प्रियंगु सदृश देह वर्णसे और सब किम्पुरुषदेव सुवर्ण सदृश देह- वर्णसे शोभायमान होते हैं ।।५५॥ कालस्सामल-वण्णा, महोरया अच्च कंधण-सवण्णा । गंधवा जक्खा तह, कालस्सामा विराजंति ॥५६॥ . . १. द. ब. क.ज. महच्चियामो। २. द. ब, क. ज. देसिगिया। ३. द. ब. क. ज, जम। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५७-५९ ] पंचमो महाहियारो [ २२७ प्रयं-महोरगदेव काल-श्यामल वर्णवाले, गन्धर्वदेव शुद्ध सुवर्ण सदृश तथा यक्ष देव कालश्यामल वर्णसे युक्त होकर शोभायमान होते हैं ॥५६।। सुद्ध-स्सामा रक्खस-देवा भवा वि कालसामलया। सव्ये पिसाचदेवा, कज्जल • इंगाल - कसण - तणू ।।५७।। अर्थ-राक्षसदेव शुद्ध-श्यामवर्ण, भूत कालश्यामल और समस्त पिशाचदेव कज्जल एवं इंगाल अर्थात् कोयले सदृश कृष्ण शरीर वाले होते हैं ।।५७।। किणर-पहुदी उतरदेवा सम्वे वि सुदरा होति । सुभगा विलास - जुत्ता, सालंकारा महातेजा ॥५८।। एवं णामा समत्ता ।।५॥ अर्थ-किन्नर आदि सब ही व्यन्तरदेव सुन्दर, सुभग, विलासयुक्त, अलङ्कारों सहित और महान् तेजके धारक होते हैं ॥५८॥. ५सका बागका कान उमाश हुआ ।।५।। दक्षिण-उत्तर इन्द्रोंका निर्देशपढमुच्चारिद-णामा, दक्षिण-इंदा हवंति एवेसु। चरिमुच्चारिद-णामा, उत्तर - ईका पभाव-जुदा ॥५६॥ अर्प-इन इन्द्रों में प्रथम उच्चारणवाले दक्षिणेन्द्र मोर अन्तमें (पीछे) उच्चारण नामवाले उत्तरेन्द्र हैं । ये सब इन्द्र प्रभावशाली होते हैं ॥५९|| [ तालिका पृष्ठ २२८ पर देखिये ] Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ । तिलोयपण्णती [ गाथा : ५९ चैत्यवृक्ष कुल-नाम शरीरबर्ण इन्द्रोंके नाम । दक्षिणोत्तरेन्द्रोम न-देवियों के नाम बल्लभिकाएँ गा० ३३ गणिका महत्तरी किम्पुरुष १./ किन्नर अशोक किन्नर सुस्वरा सत्पुरुष २. किम्पुरुष । चम्पक स्वर्ण-सदृश महापुरुष महाकाय ३. महोरग नागद्रम कालश्यामल अतिकाय ४.| गन्धर्व तुम्बरु स्वर्ण गीतरति गीतयशा । दक्षिणेन्द्र अवतंसा, केतुमती २००० मधुरा मधुरालापा उत्तरेन्द्र रतिसेना,रतिप्रिया २००० मुंदुभाषिणी दक्षिणेन्द्र रोहिणी, नवमी | २००० पुरुषप्रिया पुरुषकान्ता उत्तरेन्द्र हो पुष्पवती |२००० सौम्या पुरुषदर्शिनी दक्षिणेन्द्र भोगा, भोगवती २००० भोगा भोगवती उत्तरेन्द्र निदिता, पुष्पगं. २००० भुजगा भुजगप्रिया दक्षिणेन्द्र सरस्वती,स्वरसेना २००० विमला सघोषा | उत्तरेन्द्र नंदिनी, प्रियदर्शना २००० अनिन्दिता सुस्वरा दक्षिणेन्द्र कुन्दा, बहुपुत्रा |२००० सुभद्रा भद्रा उत्तरेन्द्र तारा, उत्तमा |२००० मालिनी पक्षमालिनी दक्षिणेन्द्र पया, वसुमित्रा |२००० सर्वश्री सर्वसेना उत्तरेन्द्र रत्नाढया २००० रुद्रा . कंचनप्रभा रुद्रवती दक्षिणेन्द्र | रूपयती, बहुरूपा २००० भूता भूतकान्ता उत्तरेन्द्र सुमुखी, सुसीमा महाबाह भूतरक्ता ...-. ५. यक्ष कालश्यामल मणिभद्र पूर्णभद्र भीम . राक्षस कण्टक श्यामवर्ण महाभीम ' स्वरूप तुलसी कालश्यामल प्रतिरूप ' काल -. पिशाच कदम्ब कज्जलसदृश दक्षिणेन्द्र कमला, कमलप्रभा २००० अम्बा कला २००० रस-सुरसा सूदर्श निका महाकाल उत्तरेन्द्र उत्पला, सुदर्शना Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६०-६१ ] पंचमो महायिारो [ २२९ व्यन्तरदंवोंके नगरोंके आश्रयरूप द्वीपोंका निरूपणताण णय राणि अंजणक-वज्जधातुक-सुवण्ण-मणिसिलका । दीवे वज्जे रजदे, हिंगुलके होंति हरिदाले ॥६०।। प्रर्थ - उन व्यन्तरदेवों के नगर अंजनक, वज्रधातुक, सुवर्ण मन:शिलक, बन, रजत, हिंगुलक और हरिताल द्वोपमें स्थित हैं ।। ६० ।। नगरोंके नाम एवं उनका अवस्थानणिय-णामक मझे, पह-कंतावत्त-मज्झ-णामारिंग । पुन्वादिसु इवाणं, सम-भागे पंच पंच जयरारिंग ॥१॥ अर्थ-सम-भागमें इन्द्रोंके पांच-पांच नगर होते हैं। उनमें अपने नामसे अंकित नगर मध्य में और प्रभ कान्त, पावर्त एवं मध्य, इन नामोंसे अंकित नगर पूर्यादिक दिशाओंमें होते हैं ।।६।। विशेषार्थ-व्यन्तरदेवोंके नगर समतल भूमिपर बने हुए हैं ; भूमिके नोचे या पर्वत आदिके ऊपर नहीं हैं। प्रत्येक इन्द्र के पांच-पांच नगर होते हैं । मध्यका नगर इन्द्र के नामवाला ही होता है तथा पूर्वादि दिशाओंके नगरोंके नाम इन्द्र के नामके आगे क्रमश: प्रभ, कान्त, आवर्त और मध्य जुड़कर बनते हैं । यथा-- इन्द्र-नाम मध्य-नगर पूर्वदिशामें दक्षिण दिशामें पश्चिम दिशा में | उत्तर दिशामें किम्पुरुष किन्नर | किम्पुरुषनगर किम्पुरुषप्रभ | किम्पुरुषकान्त किम्पुरुषावर्त |किम्मुरुषमध्य | किन्नरनगर | किन्नरप्रभ । किन्नरकान्त | किन्नरावर्त किन्नरमध्य | सस्पुरुषनगर | सत्पुरुषप्रभ | सत्पुरुषकान्त | सत्पुरुषावर्त सत्पुरुषमध्य महापुरुषनगर महापुरुषप्रभ महापुरुषकान्त महापुरुषावर्त | महापुरुषमध्य सत्पुरुष महापुरुष इसीप्रकार शेष बारह इन्द्रोंके नगर भी जानने चाहिए । पाठों द्वोपोंमें इन्द्रोंका निवास-विभागअंबूदीव-सरिच्छा, दक्षिण-इदा य वविखणे भागे । उत्तर - भागे उत्तर - इंवा णं तेसु वीवेसु॥२॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] तिलोयपात्ती [ गाथा : ६३-६५ प्रर्य-जम्बूद्वीप सदृश उन द्वीपोंमें दक्षिण-इन्द्र दक्षिण भागमें और उत्तर इन्द्र उत्तर भागमें निवास करते हैं ॥२॥ विशेषार्थ-- अञ्जनकद्वीपकी दक्षिण दिशा में किम्पुरुष और उत्तर दिशामें किन्नर इन्द्र रहता है । वज्रधातुकद्वीपको दक्षिण दिशामें सत्पुरुष और उत्तर दिशामें महापुरुष इन्द्र रहता है। सुवर्णद्वीपकी दक्षिण दिशामें महाकाय और उत्तरदिशामें अतिकाय इन्द्र रहता है। मनःशिलकद्वीपको दक्षिण दिशामें गीतरति और उत्तरदिशामें गीतयश इन्द्र रहता है । वनद्वीपको दक्षिण दिशामें माणिभद्र और उत्तर दिशामें पूर्णभद्र इन्द्र रहता है । रजतद्वीपको दक्षिण दिशामें भीम और उत्तरदिशामें महाभीम इन्द्र रहता है । हिगुलकद्वीपकी दक्षिण दिशामें स्वरूप और उत्तर दिशामें प्रतिरूप इन्द्र रहता है । हरिताल द्वीपकी दक्षिण दिशामें काल और उत्तरदिशामें महाकाल इन्द्र रहता है। व्यन्त रदेवोंके नगरोंका वर्णनसमचउरस्स ठिदीणं, पायारा तप्पुराण कणयमया । विजयसुर-णयर-वगिव-पायार-चउस्थ-भाग-समा ॥६॥ पर्ष-समचतुष्करूपसे स्थित उन पुरोंके स्वर्णमय कोट विजयदेवके नगरके वर्णनमें कहे गये कोटके चतुर्थ भाग प्रमाण है ॥६३।। विशेषार्थ--अधिकार ५ गाथा १८३-१८४ में विजयदेवके नगर-कोटका प्रमाण ३७१ योजन ऊँचा, ३ योजन अवगाह, १२३ योजन भूविस्तार और ६४ योजन मुख विस्तार कहा गया है। यहां व्यन्तरदेवोंके नगर-कोटोका प्रमाण इसका चतुर्थ भाग है । अर्थात् ये कोट ९३ यो० ऊँचे, ३ योजन प्रवगाह, ३६ यो० भूविस्तार और १५ यो० मुख-विस्तारवाले हैं। ते णयराणं बाहिर, असोय-समच्छवाण वणसंडा । चंपय - चूदाण' तहा, पुवादि - विसासु पत्तेक्कं ॥६४।। अर्थ-उन नगरोंके बाहर पूर्वादिक दिशानों से प्रत्येक दिशामें अशोक, सप्तच्छद, चम्पक तथा आम्र-वृक्षोंके वनसमूह स्थित हैं ।।६।। जोयण-लक्खायामा, पण्णास-सहस्स-व-संजुत्ता । ते धणसंडा बहुविह - विदय - विभूवीहि रेहति ॥६५॥ .- ... - .... - १.६.क. ज, भूदाण । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६६-७० ] पंचमो महायिारो अर्थ-एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन प्रमाण विस्तार युक्त वे वन-समूह बहुत प्रकारकी विटप ( वृक्ष ) विभूतिसे सुशोभित होते हैं अर्थात् अनेकानेक प्रकारके वृक्ष वहाँ और भी हैं ॥६५|| रपयरेसु तेसु विवा, पासावा करण्य-रजद-रयणमया उच्छेहादिसु सेसु, उवएसो संपइ पणट्ठो ॥६६।। अर्थ-उन नगरोंमें सुवर्ण, चाँदी एवं रत्नमय जो दिव्य प्रासाद हैं। उनकी ऊंचाई प्रादिका उपदेश इससमर नष्ट हो गया है ।।६६।।। व्यन्तरेन्द्रों के परिवार देवोंकी प्ररूपणाएनेसु वेतरिदा, कोडते बहु - विभूति • भंगोहि । णाणा-परिवार-जुदा, भरिणमो परिवार-णामाई ॥६७।। अर्थ-इन नगरोंमें नाना परिवारसे संयुक्त व्यन्तरेन्द्र प्रचुर ऐश्वर्य पूर्वक क्रीड़ा करते हैं। (अब) उनके परिवारके नाम कहता हूँ ॥६७।। पडिइंदा सामाणिय, तणुरक्खा होति तिणि परिसायो। सत्ताणीय - पइण्णा, अभियोगा ताण पत्तेयं ।।६।। प्रयं-उन इन्द्रों मेंसे प्रत्येकके प्रतीन्द्र, सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक और आभियोग्य, इसप्रकार ये परिवार देव होते हैं ।।६।। प्रतीन्द्र एवं सामानिकादि देवोंके प्रमाणएक्केको पडिइंदो, एक्केक्कारणं हवेदि इंदाणं । चत्तारि सहस्सारिंग, सामाणिय - णाम - देवारणं ॥६६॥ १ । सा ४०००। अर्थ-प्रत्येक इन्द्र के एक-एक प्रतीन्द्र और चार-चार हजार ६४००० --- ४०००) सामानिक देव होते हैं ।।६९।। एक्केक्कस्सि इदे, तणुरक्खाणं पि सोलस-सहस्सा । अट्ठ-वह - बारस - कमा, तिप्परिसासु सहस्साणि ॥७०॥ १६००० । ८००० । १०००० । १२००० । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] तिलोयपपत्ती [ गाथा : ७१-७५ अर्थ-एक-एक इन्द्रके तनुरक्षकोंका प्रमाण सोलह हजार ( १६००० ) और तीनों पारिषद देवोंका प्रमाण क्रमशः आठ हजार (८०००), दस हजार ( १००००) तथा बारह हजार ( १२००० ) है ।।७०।। सप्त अनीक सेनामोंके नाम एवं प्रमाणकरि-हय-पाइक्क तहा, गंधवा गट्टा रहा बसहा । इय सत्तापीयाणि, पत्तेक होति इदाणं ॥७१।। मर्थ-हाथी, घोड़ा, पदाति, गन्धर्व, नर्तक, रथ और बैल, इसप्रकार प्रत्येक इन्द्रके ये सात-सात सेनाएं होती हैं ।।७१।। कुजर-तुरयावीणं पुह पह चेति सत्त कक्खायो । तेसु पढमा कक्खा, अट्ठावीस सहस्साणि ॥७२॥ - २८०००। अर्थ-हाथी और घोड़े श्रादिको पृथक्-पृथक् सात कक्षाएँ स्थित हैं । इनमेंसे प्रथम कक्षाका प्रमाण अट्ठाईस हजार ( २८००० ) है ।।७२।। बिदियावीणं दुगुणा, बुगुणा ते होंति कुजर-प्पहुदी । एदाणं मिलिदाणं परिमाणाई परूवेमो ॥७३॥ अर्थ-द्वितीयादिक कक्षात्रोंमें वे हाथी मादि दूने-दूने हैं । इनका सम्मिलित प्रमाण कहता हूँ ।।७३|| पंचवीसं लक्खा, छप्पण्ण-सहस्स-संजुवा ताणं । एक्केवकस्सि इवे, हत्थीणं होति परिमाणं ॥७४॥ ३५५६००० । अर्थ-उनमेंसे प्रत्येक इन्द्रके हाथियोंका { हाथी, घोड़ा, पदाति आदि सातों सेनाओंका पृथक-पृथक् ) प्रमाण पैतीस लाख और छप्पन हजार ( ३५५६००० ) है ।७४॥ बाणउदि-सहस्साणि, लक्खा अडवाल बेण्णि कोडीयो। इंसाणं पत्तेक्क, सत्ताणीयाण परिमाणं ।।७।। २४८९२००० 1 अर्थ-प्रत्येक इन्द्रकी सात अनीकोंका प्रमाण दो करोड़ अड़तालीस लाख बानदै हजार ( ३५५६००० ४७-२४८९२००० ) है ।।७।। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा : ७६ ] पंचमो महाहियारो [२३३ विशेषार्थ --पदका जितना प्रमाण हो उतने स्थानमें २ का अङ्क रखकर परस्पर गुणा करें। जो लब्ध प्राप्त हो उसमेंसे एक घटाकर शेष में एक कम गाला भाय ना. जो लब्ध आबे, उसका मुखमें गुणाकर देनेसे सङ्कलित धनका प्रमाण प्राप्त होता है। इस नियमानुमार सङ्कलित धन-यहाँ पद प्रमाण ७ और मुख प्रमाण २८००० है अत: - २८००० x [ {( २x२x२x२x२x२x२ ) - १} : (२ - १)] - ३५५६००० एक अनीककी सात कक्षाओंका प्रमाण पोर ३५५६००० x ७ = २४८६२००० मातों अनीकोंका कुल एकत्रित प्रमाण है । अथवा-. कक्षाएं हाथी घोड़ा । पदाति | रथ । गन्धर्व नर्तक बैल ५६००० प्रथम २८००० २८००० | २८००० २८००० २८००० २८००० २८००० द्वितीय [५६००० | ५६००० ५६००० । ५६००० | ५६००० ५६००० | ११२००० | ११२००० ११२००० | ११२०००/११२००० ११२००० चतुर्थ २२४०००२२४००० २२४००० २२४००० ०२२४०००२२४००० पञ्चम | ४४८००० ४४८०००/४४८०००४४८००० ४४८०००/४४८००० ११२००० २२४००० षष्ठ ८९६०००८९६००० ८९ १०००८९६०००८९६००० | ८९६००० सप्तम १७९२०००१७९२०००१७९२०००/१७९२०००१७९२०००१७२२०००/१७९२००० योग ३५५६०००|३५५६०००३५५६०००३५५६०००३५५६०००३५५६०००/३५५६००० - + १५४ * + २४८९२००० कुल इन्द्र १६ हैं और सभी समान अनीक-धनके स्वामी हैं अत: २४८६२०००४१६= ३९८२७२००० सम्पूर्ण व्यन्तरदेवोंकी सेनाका सर्वधन है । प्रकीर्णकादि व्यन्तरदेवोंका प्रमाण -- भोमिवाण पडण्णय-अभिजोग्ग-सुरा हवंति जे केई । तारणं पमाण - हेदू उवएसो संपइ पणट्ठो ॥७६॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : ७७-८२ अर्थ-व्यन्तरेन्द्रोंके जो कोई प्रकीर्णक और आभियोग्य आदि देव होते हैं, उनके प्रमाणका निरूपक उपदेश इम-समय नष्ट हो चुका है ।।७६॥ एवं विह - परिधारा, वेतर - इंदा सुहाइ भुजंता । गंदंति णिय - पुरेसु, बहुयिह कीडामो' कुडमाणा ॥७७॥ अर्थ-इस प्रकारके परिवारसे संयुक्त होकर सुखोंका उपभोग करनेवाले व्यन्तरेन्द्र अपनेअपने पुरोंमें बहुत प्रकारकी क्रीडाए करते हुए प्रानन्दको प्राप्त होते हैं ।।७७॥ गणिकामहत्तरियोंके नगरोंका अवस्थान एवं प्रमाणणिय-णिय-इंदपुरीगं, वो नितु होति माणि । गणिकामहल्लियाणं, वर - वेडी - पहुदि - जुत्ताणि ॥७॥ अर्थ-अपने-अपने इन्द्रकी नगरियोंके दोनों पार्श्वभागोंमें उत्तम वेदो आदि सहित गरिएकामहत्तरियोंके नगर होते हैं 11७८॥ चलसीवि-सहस्साणि, जोयणया तप्पुरीण वित्थारो । तेत्तियमेत्तं बोहं, पत्तेक्क होदि णियमेण ॥७६।। ८४०००। प्रर्थ-उन नगरियों में से प्रत्येक नगरीका विस्तार चौरासी हजार ( ८४०००) योजन प्रमाण और लम्बाई भी नियमसे इतनी ( ८४००० यो०) ही है ।।७९॥ नीचोपपाद व्यन्तरदेवोंके निवास-क्षेत्रका निरूपणणीचोषवाद - देवा, हत्थ - पमाणे वसंति भूमीदो। विगुवासि-सुरा • अंतरणियासि - कुभंड - उप्पण्णा ॥५०॥ अणपण्णा अपमाणय, गंध-महगंध-भुजंग-पीविफया । बारसमा प्रायासे, उयवण्ण यि इंद - परिवारा ॥८॥ उरि उरि वसंते, तिण्णि विणीचोववाद-ठाणादो । दस हत्थ - सहस्साइ', सेसा विउणेहि पत्तेक्क ॥२॥ ताणं विण्णास रूव संविट्ठी-- १. द. फेदीमो, ब. क. ज. केदायो। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : . ] पंचमो महाहियारो [ २३५ २०००० २०००० २०००० irrrrror २०००० २०००० १०००० १०००० १०००० दक्षिण-उत्सर-इंदाणं परूषणा समत्ता ।।६।। अर्थ-नीचोपपाद देव पृथिवीसे एक हाथ प्रमाण ऊपर निवास करते हैं। उनके ऊपर दिग्वासी, अन्तरनिवासी, रुप्माण्ड, उत्पन्न, अनुत्पन्न, प्रमाणक, गन्ध, महागन्ध, भुजंग, प्रीतिक और बारहवें आकाशोत्पन्न, इन्द्र के ये परिवार-देव क्रमश: ऊपर-ऊपर निवास करते हैं। इनमेंसे प्रारम्भ तीन प्रकारके देव नीचोपपाद देवों के स्थानसे उत्तरोत्तर दस-दस हजार हस्त प्रमाण अन्तरसे तथा शेष देव बीस-बीस हजार हस्तप्रमाण अन्तरसे निवास करते हैं ।।८०-८२।। विशेषार्थ-चित्रा पृथिवीसे एक हाथ ऊपर नीचोपपादिक देव स्थित हैं। इनसे १०००० हाथ ऊपर दिग्वासी देव हैं । इनसे १०००० हाथ ऊपर अन्तरवासी और इनसे १०००० हाथ ऊपर वाष्माण्ड देव निवास करते हैं । इनसे २०००० हाथ ऊपर उत्पन्न इनसे २०००० हाय ऊपर अनुत्पन्न, इनसे २०००० हाथ ऊपर प्रमाणक, इनसे २०००० हाथ ऊपर गन्ध, इनसे २०००० हाथ पर महागन्ध, इनसे २०००० हाथ ऊपर भुजङ्ग, इनसे २०००० हाथ ऊपर प्रीतिक और इनसे २०००० हाय ऊपर पाकाशोत्पन्न व्यन्तरदव निवास करते हैं। यही इनकी विन्यासरूप संदृष्टि है। इसप्रकार दक्षिण-उत्तर इन्द्रोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई ।।६।। व्यन्तरदेवोंको प्रायुका निर्देशउक्कस्साऊ पल्लं, होदि असंखो य मज्झिमो आऊ । बस वास - सहस्साणि, भोम्म - सुराणं जहणणाऊ ॥३॥ प १ । रि । १०००० । अर्थ-व्यन्तरदेवोंको उत्कृष्ट आयु एक पल्य प्रमाण, मध्यम आयु असंख्यात वर्ष प्रमाण और जघन्यायु दस हजार ( १७०००) वर्ष प्रमाण है ।।३।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणती [ गाथा ! ८४-८७ इंद-पडिइंद-सामारिणयाण • पत्तक्कमेक्क - पल्लाऊ । गणिका-महल्लियाणं, पल्लद्धं सेसयाण जह-जोग्गं ॥४॥ अर्थ-इन्द्र, प्रतोन्द्र एवं सामानिक देवोंमेंसे प्रत्येककी आयु क्रमशः एक-एक पल्प है। गणिकामहत्तरियों की आयु अर्धपल्य और शेष देवोंको आयु यथायोग्य है ।।४।। बस वास-सहस्साणि, प्राऊ णीचोयवाद - देवाणं । तत्तो जाव असीदि, तैत्तियमत्ताए यडीए ॥१५॥ अह चलसीवी पल्लट्ठमंस - पावं' कमेण पल्लद्धं । दिवासि - पहदीणं, भरिणवं प्राउस्स परिमाणं ॥८६॥ १०००० । २०००० १ ३००००। ४०००० । ५०००० १६०००० । ७०००० ! ८०००० । १४००० | प|प। ८४२ आऊपरूवणा समत्ता ॥७॥ अर्थ-नीचीपपाद देवोंकी आयु दस हजार वर्ष है। पश्चात् दिग्बासी आदि प्रोष (७) दवोंकी आयु क्रमश: दरा-दस हजार वर्ष बढ़ाते हुए अस्सी हजार वर्ष पर्यन्त है । शेष चार देवोंकी आयु क्रमशः चौरासी हजार वर्ष पल्यका आठवां भाग, पल्यका एक पाद ( चतुर्थ भाग) और अर्धपल्य प्रमाण कही गई है ।।८५-८६॥ विशेषा-नीचोपपाद भ्यन्तर देवोंकी आयुका प्रमाण १०००० वर्ष, दिवासीका २०००० वर्ष, अन्तरवासोका ३०००० वर्ष, कूष्माण्डका ४०००० वर्ष, उत्पन्न का ५०००० वर्ष, अनुत्पन्नका ६०००० वर्प, प्रमाणकका ७०००० वर्ष, गन्धका ८०००० वर्ष, महागन्धका ८४००० वर्ष, भुजङ्ग देवोंका पल्यके आठवें भाग, प्रीतिकका गल्यके चतुर्थभाग और आकाशोत्पन्न देवोंकी आयु का प्रमाण पल्यके अर्धभाग प्रमाण है । । इसप्रकार प्रायु-प्ररूपणा समाप्त हुई ॥७॥ व्यन्तर देवों के प्राहारका निरूपणदिवं प्रमन्नाहारं, मणेण भुजति किंणर-प्पमुहा । देवा देवीओ तहा, तेसु कवलासणं णस्थि ।।७। १. द. ब. पादक्कमेण, क, पादकमे 1 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ८८-९१ ] पंचमो महाहियारो [ २३७ अर्थ-किन्नर ग्रादि व्यन्तर देव तथा देवियां दिव्य एवं अमृतमय प्राहारका उपभोग मनसे ही करते हैं, उनके कवलाहार नहीं होता ।1८७।। पल्लाउ-जुदे देथे, कालो असणस्स पंच विवसाणि । दोषिण च्चिय गाववो, दस-यास-सहस्स-आउम्मि ।।८।। पाहार-परूवणा समत्ता ।।८।। अर्थ-पल्यप्रमाण आयुसे युक्त देवोंके आहारका काल पाँच दिन ( बाद ) और दस हजार वर्ष प्रमाण आयुवाले देवोंके आहारका काल दो दिन ( बाद ) जानना चाहिए ।।८।। प्राहार-प्ररूपणा समाप्त हुई ।।८।। उच्छ्वास निरूपणपलिदोषमाउ-जतो, पंच-मुहुत्तेहि एवि उस्सासो । सो अजुबाउ-अवे वेतर • वेवम्मि अ सत्त पाणेहिं ॥८६॥ उस्सास-परूवणा समत्ता ॥६॥ अर्थ-व्यन्तर देवोंमें जो पल्यप्रमाण आयुसे युक्त हैं वे पांच मुहूर्तों ( के बाद ) में और जो दस हजार वर्ष प्रमाण प्रायुसे संयुक्त हैं वे सात प्राणों ( उच्छ्वास-निश्वास परिमित काल विशेषके बाद ) में हो उच्छ्वासको प्राप्त करते हैं ।।८।। । उच्छ्वास-प्ररूपणा समाप्त हुई ।।९।। ध्यन्तरदेवोंके अवधिज्ञानका क्षेत्रप्रवरा प्रोहि-धरित्ती, अजुवाउ-जुदस्स पंच-कोसाणि । उक्किट्ठा पण्णासा, हेटोवरि पस्समाणस्स ॥६॥ को ५ । को ५० अर्थ-दस हजार वर्ष प्रमाण आयुवाले व्यन्तर देवोंके अवधिज्ञानका विषय ऊपर और नीचे जधन्य पांच (५) कोस तथा उत्कृष्ट पचास ( ५०) कोस प्रमाण है ॥६०14 पलिदोवमाउ-जुत्तो, बेंतरदेवो तलम्मि उरिस्मि । अवहीए जोयणाणि, एक्कं लक्खं पलोएवि ॥११॥ १००००० प्रोहि-गाणं समत्तं ॥१०॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ९२-९६ अर्थ - पल्योपम प्रमाण भायुवाले व्यन्तरदेव अवधिज्ञानसे नीचे और ऊपर एक-एक लाख ( १००००० ) योजन प्रमाण देखते हैं ।। ११ ।। २३८ ] अवधिज्ञानका कथन समाप्त हुआ ।। १ । व्यन्तरदेवोंकी शक्तिका निरूपण--- बस - वास- सहस्साऊ, एक्क-सयं भारसाण मारेदु । पोसेदु पि समत्थो, एक्केक्को वैतरो देवो ।। ६२ ।। अर्थ – दस हजार वर्ष प्रमाण आवाला प्रत्येक त्तरदेव एक पालन करने में समर्थ होता है ॥१२॥ मनुष्यों को मारने एवं पण्णाधिय-सय-खंड, पमान- विक्खंभ- बहल जुत्तं सो । खेतं णि सत्तीए, उपखणिवणं 'ठवेदि अण्पत्थ ॥ ६३ ॥ | अर्थ – वह देव अपनी शक्तिसे एकसौ पचास धनुष प्रमाण विस्तार एवं ब्राहृल्यसे युक्त क्षेत्र को उखाड़ ( उठा कर अन्यत्र रख सकता है ।। ९३ ।। पहलट्टे बि भुजेहि, छबडाणि पि एक्क- पल्लाऊ । मारेदु पोसेदु, तेसु समस्थो दिवं लोयं ॥ ६४ ॥ अर्थ - एक पत्र प्रमाण आयुवाला व्यन्तरदेव अपनी भुजाओंसे छहखण्डों को उलटने में समर्थ है और उनमें स्थित मनुष्यों को मारने तथा पालने में भी समर्थ है १२९४ || ४. द. ब. दिदं । उक्कस्से रूव सदं देवो विकरेदि अजुवमेत्ताऊ | अवरे सग-वाणि मज्झिमयं विविहस्वाणि ॥६५॥ - अर्थ- दस हजार वर्ष की आयुवाला व्यन्तरदेव उत्कृष्ट रूपसे सौ रूपों की, जघन्यरूपसे सात रूपोंकी और मध्यमरूपसे विविध रूपों की अर्थात् सात से अधिक श्रोर सोसे कम रूपोंकी विक्रिया करता है ।।५।। सेसा वैतरदेवा, जिय-जिय-प्रोहोण जेत्तियं खेत्तं । पुरंति तैत्तियं पिहू, पत्तेक्कं विकरण-बलेां ॥ ६६ ॥ अर्थ - शेष व्यन्तरदेवों मेंसे प्रत्येक देव अपने-अपने अवधिज्ञानका जितना क्षेत्र है, उतने प्रमाण क्षेत्रको विक्रिया बलसे पूर्ण करते हैं ॥ ९६ ॥ १. दरवेदि । २. व. पल्लबोहि ब. क. ज. पल्लद्धदि ५ ६ लक्खदेण पि रु. छखंड लिपि । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया : ९७-९९ ] पंचमो महाहियारो [ २३९ संखेज्ज - जोयणाणि, संखेज्जाऊ य एषक-समयेरणं । जादि असंखेज्जाणि, तारिण असंखेज्ज - आऊ य ॥१७॥ । सत्ति-परूवणा समसा ॥११॥ अर्थ-संख्यात वर्ष प्रमाण आयुवाला व्यन्तरदेव एक समय में संख्यात योजन और असंख्यात वर्ष प्रमाण प्रायवाला वह देव असंख्यात योजन जाता है ।।१७।। शक्ति-प्ररूपणा समाप्त हुई ।।११।। व्यन्त रदेवोंके उरसेधका कथन-- अट्ठाण वि पत्तषक, किणर-पहुदीण वैतर-सुराणं । उच्छेहरे गादत्रो, बस - कोवंडं पमाणेरणं ॥६॥ उच्छेह-परूवणा समत्ता ॥१२॥ अर्थ-किन्नर आदि पाठों श्यन्तरदेवोंमेंसे प्रत्येककी ऊंचाई दस धनुष प्रमाण जाननी चाहिए ।।६८॥ उत्सेध-प्ररूपणा समाप्त हुई ॥१२॥ ज्यन्तरदेवोंको संख्याका निरूपणचउ-लक्खाधिय-तेवीस-कोडि-अंगुलय-सूइ-बग्गेहि । भजिदाए सेढीए, बग्गे भोमाण परिमाणं ॥६॥ ३ । ५३०८४१६०००००००००० | संखा समत्ता ॥१३॥ अर्थ तेईस करोड़ चार लाख सूच्यंगुलोंके वर्गका जगले पीके वर्गमें अर्थात् ६५५३६४८१४१० शून्य रूप प्रतरांगुलोंका जगत्प्रतरमें ( 7 ) भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना ज्यन्तरदेवोंका प्रमाण है ॥९९।। विशेषाप-जगच्छु णीका चिह्न और जगत्प्रतरका चिह्न = है तथा एक सूच्यगुलका चिह्न २ और सूच्यंगुलके वर्गका चिह्न (२४२-४) होता है, अतः संदृष्टिके F चिह्नका अर्थ है जगत्प्रतर में ५३०८४१६०००००००००० प्रतरांगुलोंका भाग देना । एक योजनमें ७६८००० अंगुल होते हैं प्रतः ३०० योजनों में (७६८००० x ३००-) २३०४००००० अंगुल हुए । इनका वर्ग करनेपर (२३०४०००००)२५५३०८४१६०००००००००० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : १००-१०२ प्रतरांगुल प्राप्त होते हैं । जगत्तर में इन्हीं प्रतरांगुलों का भाग देनेपर व्यन्तर देवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । संख्याका कथन समाप्त हुआ ।।१३।। एक समय में जन्म-मरणका प्रमाण संखातीद- विभत्ते, बेंतर वासम्मि लद्ध परिमाणा । उष्पज्जंता जीवा, मर अथवा= " | उप्पजण मरणा समता ॥ १४ ॥ अर्थ – व्यन्तरदेवोंके प्रमाण में असंख्यातका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो वहाँ उतने जीव ( प्रति समय ) उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते हैं ।। १०० ।। उत्पद्यमान और त्रियम (स्वन्तर देलों) समापन समाज ।।१४।। आयु बन्धक भाव प्रादि श्राउस - बंधण भावं, दंसण- गहणाण कारणं विविहं । गुणठाण - प्यहूदीणि, भरमाणं भाषण समारिष ।।१०१ ॥ - माणा होंति तम्मेत्ता ॥१००॥ अर्थ-व्यन्तरोंके श्रायु बन्धक परिणाम, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण और गुणस्थानादिकों का कथन भवनवासियोंके सदृश ही जानना चाहिए ।।१०१ ॥ जगत्प्रतर आयुबंध के परिणाम, सम्यक्त्व ग्रहणकी विधि और गुरणस्थानादिकों का कथन करने वाले तीन अधिकार पूर्ण हुए ।।१५-१६-१७।। व्यन्तरदेव-सम्बन्धी जिनभवनोंका प्रमाण - जोयण-सद-तिय-कदी, भजिदे पवरस्स संभागम्मि । जं लद्ध तं माणं, वेंतर लोए जिण घराणं ॥ १०२ ॥ - संख्यात x ५३०८४१६०००००००००० 7 | ५३०८४१६०००००००००० | श्रयं जगत्प्रतर के संख्यात भागमें तीनसो योजनोंके वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध आवे, जिनमन्दिरोंका उतना प्रमाण व्यन्तरलोक में है ।। १०२ ॥ विशेषाय - व्यन्तरलोकके जिनभवन = · जगत्प्रतर संख्या (३००) 1 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! १०३ ] पंचमो महाहियारो [ २४१ अधिकारान्त मङ्गलाचरणइंद-सब-पमिद-चलणं, अणंत-सुह-णाण-विरिय-दसणया । भव्यंबुज - बण - भाण, सेयंस • जिणं 'णमंसामि ।।१०३।। एवमाइरिय-परंपरागय-तिलोयपण्णत्तीए नेलोग-सकल-गगणतो णाम छुटुमो __महायिारो समत्तो ॥६॥ अर्थ सौ इन्द्रोंसे नमस्करणीय चरणोंबाले, अनन्त सुख, अनन्तज्ञान, अनन्तवीयं एवं अनन्तदर्शनवाले तथा भव्यजीवरूप कमलवनको विकसित करने के लिए सूर्य-सदृश श्रेयांस जिनेन्द्रको { मैं ) नमस्कार करता हूँ ।।१०३॥ इसप्रकार आचार्य-परंपरागत त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें व्यन्तरलोक-स्वरूप-प्रज्ञप्ति नामक छठा महाधिकार समाप्त हुआ। १. द.ब.क, ज. पसादम्मि । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती सत्तमो महाहियारो मङ्गलाचरणअक्खलिय-सारण-दसण-सहियं सिरि-वासुपुज्ज-जिणसामि । णमिऊणं वोच्छामो, जोइसिय • जगस्त पणणचि ॥१॥ अर्थ-अस्खलित ज्ञान-दर्शनसे युक्त श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्रको नमस्कार करके ज्योतिर्लोकको प्रनप्ति कहता हूँ ॥१॥ रात्तरह अन्तराधिकारोंका निर्देशाजोइसिय-णिवासखिदी, भेडो संखा तहेब विण्णासो । परिमाणं चर - चारो, अचर - सरूवाणि आऊ य ।।२।। पाहारो उस्सासो, उच्छेहो प्रोहिणाण - सत्तीयो । जीवाणं उप्पत्ती - मरणाई एक्क - समम्मि ।।३।। आउग-बंधण-भावं, दसण-गहरणस्स कारणं विविहं । गुण ठाणावि - पवण्णणमहियारा सत्तरसिमाए ॥४।। । १७ ।। अर्थ-ज्योतिषी देवोंका निवासक्षेत्र, २भेद, ३संख्या, ४विन्यास, परिमाण, ६चर ज्योतिषियोंका संचार, ७अचर ज्योतिषियोंका स्वरूप, वायु, ९माहार, १० उच्छ्वास, ११उत्सेध, १२अबधिज्ञान, १३शक्ति, १४एक समय में जीवोंकी उत्पत्ति एवं मरण, १५आयु के बन्धक भाब, १६सम्य Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५-६ ] पंचमो महाहियारो [ २४३ ग्दर्शन ग्रहण के विविध कारण मौर १७गुणस्थानादि वर्णन, इसप्रकार ये ज्योतिर्लोकके कथनमें सत्तरह अधिकार हैं ।।२-४॥ ज्योतिषदेवोंका निवासक्षेत्र-- रज्जु-कवी गणिदव्वं, एक्क-सय-दसुत्तरेहि जोयणए । तस्सि अगम्म - देसं', सोहिय सेसम्मि जोइसया ॥५॥ प्रर्थ - राजुके वर्गको एक सौ दस योजनों गुणा ( राजू२ ४११०) करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमेंसे अगम्य देशको छोड़कर शपमें ज्योतिषी देव रहते हैं ।।५।। अगम्य क्षेत्रका प्रमाणतं पि य अगम्म - खेतं, समवट्ट जंबुदीव - बहुमज्झे । पण-एक्क-स्त्र पण-दुग-णव-दो-ति-ख-तिय-एक्क-जोयणंक कमे ।।६।। १३०३२९२५.० १५ । णिवास-खेतं समत्तं ॥१॥ अर्थ यह अगम्य क्षेत्र भी समवृत्त जम्बूद्वीपके बहुमध्य-भागमें स्थित है । उसका प्रमाण पांच, एक, शून्य, पांच, दो, नौ, दो, तीन, शून्य, तीन और एक इस अक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उत्तने योजन प्रमाण है ।।६।। विशेषार्ष-त्रिलोकसार गाथा ३४५ में कहा गया है कि "ज्योतिर्गण सुमेरु पर्वतको ११२१ योजन छोड़कर गमन करते हैं" । ज्योतिर्देवोंके संचारसे रहित सुमेरुके दोनों पार्श्वभागोंका यह प्रमाण (११२१४२)=२२४२ योजन होता है। भूमिपर सुमे रुका विस्तार १०००० योजन है। इन दोनों को जोड़ देमेपर ज्योतिर्देवों के अगम्य क्षेत्रका सूत्री-व्यास ( १००००+ २२४२ = ) १२२४२ योजन प्राप्त होता है। इसी ग्रन्थ के चतुर्थाधिकार की गाथा ९ के नियमानुसार उक्त सूची-व्यासका सूक्ष्म परिधि प्रमाण एवं क्षेत्रफल प्राप्त होता है । यथा- १२२४२२४१० = ३८७१३ योजन परिधि । ( वर्गमूल निकालने पर ३८७१२ यो० ही आते हैं । किन्तु शेष बची राशि आधे से अधिक है। अत: ३८७१३ योजन ग्रहण किये गये हैं। ) ( परिधि ३८७१३ )x(१२३४२ व्यास का चतुर्थाश )= १. द. अग्गमदेसि । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपात्ती [ गाथा : ७ क्षेत्रफल प्राप्त हुआ। "खेत्तफलं वेह-गुणं खादफलं होइ सब त्य" ।।१७॥ त्रि. सार के नियमानुसार क्षेत्रफलको ऊँचाईसे गुणित करनेपर अगम्य क्षेत्रका प्रमाण (eg x १२१४२४12) = १३०३२९२५०१५ धन योजन प्राप्त होता है। गाथा ६ में धन-योजन न कहकर मात्र योजन कहे गये हैं, जो विचारणीय हैं । । निबासा माग समाप्त हुँच ॥१५॥ ज्योतिषदेवोंके भेद एवं वातवलयसे उनका अन्तरालचंदा दिवायरा गह-णक्खत्ताणि पपण-तारानो। पंच - विहा जोदि - गणा, लोयंत घणोदहि पुट्ठा ।।७॥ 11 = प्र , फ२ । इ १६०० । ल १०८४ ।। अर्थ-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारा, इसप्रकार ज्योतिषी देवों के समूह पांच प्रकारके हैं। ये देव लोकके अन्त में घनोदधि वातवलयको स्पर्श करते हैं ।।७।। विशेषार्थ -संद्दष्टिका स्पष्ट विवरण= जगत्प्रतर का चिह्न है। प्र प्रमाण है । यहां प्रमाण राशि ३६ रज्जू है। , यह रज्जू शब्द का चिह्न है और ये ३३ रज्जू हैं । ' फल है । यहाँ फल राशि : २ अर्थात् २ रज्जू है। इच्छा है । जो १९०० योजन है । अर्थात् चित्रा पृथिवी एक हजार योजन मोटी है और ज्योतिषी देवों को अधिकतम ऊँचाई चित्राके उपरिम तलसे ९०० योजन की ऊंचाई पर्यन्त है अतः { १००० +९००) = १६०० योजन इच्छा है । ल लन्ध है । जो १०८४ योजन है । शंका-१०८४ योजन लब्ध कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-अर्वलोक, मध्यलोकके समीप एक राजू चौड़ा है और ३३ राजूकी ऊंचाई पर ब्रह्मालोक के समीप ५ राजू चौड़ा है । एक राजू चौड़ी त्रस नाली छोड़ देनेपर लोकके एक पार्श्वभागमें ( ३३ राजूपर ) दो राजका अन्तराल प्राप्त होता है । ज्योतिषी देव मध्यलोकसे प्रारम्भकर १९०० योजनयी ऊँचाई पर्यन्त ही हैं अतः जबकि राजू की ऊंचाई पर (एक पार्श्वभागम) २ राजू E - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६-९ ] पंचमी महाहियारो [ २४५ अन्तराल है तब १९०० की ऊँचाई पर कितना अन्तराल प्राप्त होगा ? इसप्रकार वैराशिक करनेपर फल x इच्छा - =लब्ध | अर्थात् २x१६००X२ प्रमाण 19 है । जो प्रराशि १०८४ से १ यो० अधिक है । = = ७६०० यो० अर्थात् १०८५३ यो० प्राप्त होता सब ग्रहों में शनि ग्रह सर्वाधिक मन्दगतिवाला है, यदि इसकी तीन योजन ऊंचाई गौण करके मंगलग्रहकी ऊँचाई पर्यन्त इच्छा राशि ( १०००+७९०+१०+०+४+४+३+३+३) - १८९७ यो० ग्रहण को जाय तो लब्धराशि ( *XX SE७ ) = १०८४ योजन प्राप्त हो जाती है । ( यह विषय विद्वानों द्वारा विचारणीय है ) । रविसेसो पुग्नावर दगउतरे भागे । अंतरमत्थि सि ण ते, छिवंति जोइग्गणा वाऊ ॥ ८ ॥ अर्थ-विशेष इतना है कि पूर्व पश्चिम, दक्षिण और उत्तर भागोंमें अन्तर है । इसलिए ज्योतिषी देव उस घनोदधि वातवलयको नहीं छूते हैं ॥८॥ विशेषार्थ - - गाथा ७ में कहा गया है कि ज्योतिषी देव लोकके अन्तमें घनोदधि वातवलय का स्पर्श करते हैं और गाथा में स्पर्शका निषेध किया गया है । इसका स्पष्टीकरण यह है कि लोक दक्षिण-उत्तर सर्वत्र ७ राजू चौड़ा है अतः इन दोनों दिशाओं में तो इन देवों द्वारा वातवलयका स्पर्श हो ही नहीं सकता | इसका विवेचन गा० १० में किया जा रहा है। पूर्व-पश्चिम स्पर्शका विषय भी इस प्रकार है कि मध्यलोकमें लोककी पूर्व-पश्चिम चौड़ाई एक राजू है वहाँ ये देव घनोदधिवातबलयका स्पर्श करते हैं, क्योंकि गाथा ५ में इनका निवासक्षेत्र अगम्यक्षेत्र से रहित राजू राजू ११० घन योजन प्रमाण कहा गया है । किन्तु जो ज्योतिषी देव चित्राके उपरिम तलसे ऊपर-ऊपर हैं वे पूर्व-पश्चिम दिशाओं में भी वातवलयका स्पर्श नहीं करते। इसे ही गाथा ९ में दर्शाया जा रहा है | पूर्व-पश्चिम दिशामें अन्तरालका प्रमाण goaावर विचचालं, एक्क सहस्सं बिहत्तरम्भहिया । जोयणया पत्तेक्कं रूवस्सासंखभाग परिहीणं ॥६॥ ر १०७२ |रिए १ रि I - अर्थ - पूर्व-पश्चिम दिशाओंमें प्रत्येक ज्योतिषी- बिम्बका यह अन्तराल एक योजन असंख्य भाग होन एक हजार बहत्तर (१०७२ ) योजन प्रमाण है ||९ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १०-११ विशेषार्थ-मध्यलोक पूर्व-पश्चिम एक राज है । यहाँ वातवलयोंका औसत-प्रमाण १२ योजन है । उपयुक्त गाथा ८ में जो लन्धराशिरूप १०८४ योजन अन्तराल आया है। उसमें से वातवलयके १२ योजन घटा देनेपर ( १०८४- १२) १०७२ योजन शेष रहते हैं। यही वातवलय क्रमशः वृद्धिंगत होते हुए ब्रह्मलोकके समीप ( ७ +५+४)- १६ योजन हैं । इसप्रकार ३२ राजूकी ऊंचाई पर वातवलयोंकी वृद्धि ( १६-१२)=४ योजन है, यह १९०० यो० की ऊँचाई पर आकर बढ़त-बढ़ते असंख्यातवें भाग प्रमाण हो जाएगी। अतएव ग्रन्थकारने संदृष्टिमें १०७२ योजनों में से रूप ( एक अंक ) का असंख्यातवाँ भाग घटाया है । दक्षिण-उत्तर दिशामें अन्तरालका प्रमाणतद्दषिखणुसरेसु, स्वस्सासंख - भाग - अहियायो। बारस - जोयण - होणा, पत्तक्क तिण्णि रस्जूश्रो ॥१०॥ : । रिण जो १२ । १ । रि भेदो समतो ॥२॥ अर्थ-दक्षिण-उत्तर दिशाओं में प्रत्येक ज्योतिषी-बिम्बोंका यह अन्तराल रूपके असंख्यातवें भागने अधिक एवं १२ योजन कम तीन राजू प्रमाण है ।।१०।। विशेषार्थ-लोक दक्षिणोत्तर ७ राजू विस्तृत ( मोटा ) है और इसके मध्य में प्रस नाली मात्र एक राजू प्रमाण मोटी है, अतः इन दिशाओं में ज्योतिषीदेवोंका स्पर्श वातवलयोंसे नहीं होता अर्थात् स नालीसे वातवलय ३ राजू दूर हैं । पूर्वोक्त गाथानुसार तीन राजूमेंसे वातवलय सम्बन्धी १२ योजन और रूपका असंख्यातवाँ भाग घटाया गया है। संदृष्टिम : का यह चिह्न राजूका है और एक बटा असंख्यातवाँ भागका चिह्न है। अर्थात् ३ राजू – (१२ +8) अन्तर है । भेदका कथन समाप्त हुआ ॥२॥ ज्योतिष देवोंको संख्याका निर्देश - भजिदम्मि सेढि-बग्गे, बे-सय-छप्पण्ण-अंगुल-कवीए । जं लद्ध सो रासी, जोइसिय - सुराण सम्वाणं ॥१॥ । ६५५३६ । प्रयं-दो सौ छप्पन अंगुलोंके धर्ग (२५६४२५६-६५५३६ प्रतरांगुलों) का जगच्छ्रेणी के वर्ग ( जगत्प्रतर ) में भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतनी सम्पूर्ण ज्योतिषीदेवोंकी { जगच्छगो२ ६५५६६ ) राशि है ।।११।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२-१६ पंचमो महाहियारो [ २४७ इन्द्र स्वरूप चन्द्र ज्योतिषो देवोंका प्रमाणअट्ठ-चउ-दु-ति-ति-सत्ता सत्त य ठाणेसु णवस सणाणि । छत्तीस-सत्त-वु-रणय-अटा-ति-पक्का होति अंश कमा ।।१२।। । ४३८९२७३६०००००००००७७३३२४८ । एदेहि गणिद-संखेज्ज-रूव-पदरंगुलेहि भजिदाए । सेदि - कदीए लद्ध', माणं चंदाण जोइसिदाणं ॥१३॥ अर्थ - पाठ, चार, दो, तीन, तीन, सात, सात, नौ स्थानोंमें शून्य, छत्तीस, सात, दो, नो, आठ, तीन और चार ये अंक क्रमशः होते हैं। चन्द्र ज्योतिषी देवोंके इन्द्र हैं और इनका प्रमाण उपर्युक्त अंकोंसे गुणित संख्यात रूप प्रतगंगुलोंका जगच्छेणीचे वर्गमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना [ जगच्छ्रेणी :- ( संख्यात प्रतरांगुल )x(४३८९२७३६०००००००००७७३३२४८}}] है ॥१२-१३।। प्रतीन्द्र स्वरूप सूर्य ज्योतिषी देयों का प्रमाणतेतियमेता रविणो, हयति चंबाण ते पडिद सि । प्रवासीदि गहाणि, एक्केकाणं मयंकाणं ॥१४॥ । ४३८९२७३६०००००००००७७३३२४६ । प्रथं-सूर्य, चन्द्रोंके प्रतीन्द्र होते हैं। इन (सूर्यो) का प्रमाण भी उतना [ जगच्छणीर :- {( संख्यात प्रतरांगुल ) ४ ( ४३८९२७३६०००००००००७७३३२४८ )}] ही है। प्रत्येक चन्द्र के अठासी ग्रह होते हैं ॥१४॥ अठासी ग्रहों के नामबुह-सुक्क-बिहप्पइणो, मंगल-सणि-काल-लोहिदा कणओ। णोल - विकाला केसो, कवयवो कणय - संठाणा ॥१५॥ दु'दुभिगो रत्तणिभो, णीलम्भासो असोय - संठाणो । कंसो त्यणिभक्खो, 'फंसयवण्णो य संखपरिणामा ॥१६॥ १.ब.क.१४ । २. द.ब.क, ज, कंचयवण्णो । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गापा : १७-२२ तिलपुच्छ-संखवण्णोदय-वण्णो पंचवण-णामक्खा । उम्पाय - धूमकेतू, तिलो य णभ - छाररासी य ॥१७॥ पी सरिस धी, लेराभिण्ण-गंधि-माणयया । कालक-कालककेदू, णियव-अणय-विज्जुजीहा य ॥१८॥ | १२ । सिंहालक- णिदुक्खा, काल-महाकाल-रुद्द-महरुद्दा । संताण - विउल - संभव - सव्वट्टी खेम - चंदो य ॥१६॥ णिम्मत-जोइमंता, विससंठिय-विरद-बीतसोका य । णिच्चल-पलंब-भासुर-सयंपभा विजय-बइजयंते य ॥२०॥ ।११ । सोमंकरावराजिय-जयंत-विमलाभयंकरो वियसो । कट्टी वियरों कज्जलि, अग्गीजालो असोकयो केटू ॥२॥ । १२ । खोरसघस्सवरण-ज्जलकेवु-केदु-अंतरय-एक्कसंठाणा । अस्सो य भावग्गह, चरिमा य महग्गहा गामा ॥२२॥ । १० । अर्थ-बुध, २शुक्र, ३बृहस्पति, ४मंगल, ५शनि, ६काल, ७लोहित, कनक, ९नील, १०विकाल, ११केश, १२कवयव, १३कनकसंस्थान, १४दुंदुभिक, १५१क्तनिभ, १६नीलाभास, १७अशोकसंस्थान, १८कंस, १९रूपनिभ, २० कंसकवणं, २१संखपरिणाम, २२तिलपुच्छ. २३संखवर्ण, २४उदकवणं, २५पंचवर्ण, २६उत्पात, २७धूमकेतु, २८तिल, २६नभ, ३०क्षारराशि, ३१विजिष्णु, ३२सदृश, ३३संधि, ३४कलेवर, ३५प्रभिन्न, ३६ग्रंथि, ३७मानवक, ३८कालक, ३९कालकेतु ४०निलय, ४१अनय, ४२विध जिह्व, ४३सिंह, ४४अलक, ४५निदु:ख, ४६काल, ४७महाकाल, ४८रुद्र, ४९ महारुद्र, ५०सन्तान, ५१विपुल, ५२सम्भव, ५३सर्वार्थी, ५४क्षेम, ५५चन्द्र, ५६निमन्त्र, ५७ज्योतिष्मान्, १. ६, ब. १०। २.८, ब. क. ज, १२ । ३. द. ब. क. ज. १०। ४. द. न. क. ज. जय । ५ ६.ब. क. ज. शिमला । Fत. ब. क. बिमको।.. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २३-२६ ] पंचमो महाहियारो [ २४९ ५८दिससंस्थित, ५९विरत, ६०वीतशोक, ६१निश्चल, ६२प्रनम्ब, ६३भासुर, ६४स्वयंप्रभ, ६५विजय, ६६वैजयन्त, ६७सीमङ्कर, ६८अपराजित, ६६जयन्त, ७० विमल, ७१अभयंकर, ७२विकस, ७३काष्ठी, ७४विकट, ७५कज्जली, ७६अग्निज्वाल, ७७अशोक, ७८केत, ७९क्षीरस, ८० अघ, श्रवण, ८२जलकेतु, ८३ केतु, ८४अन्तरद, ८५एकसंस्थान, ८६मश्व, ८७ भावग्रह और अन्तिम ८८महाग्रह, इसप्रकार ये अठासी ग्रह हैं ।।१५-२२।। सम्पूर्ण ग्रहोंकी संभ्याका प्रमाणछप्पण छक्क छक्क, छण्णव सुण्णाणि होति' दस-ठाणा । दो - व - पंचय - छक्क, अट्ठ-चऊ-पंच-अंक-कमे ॥२३॥ एदेण गुणिद - संखेज्ज - रूव - पदरंगुलेहि भजिदूणं । सेढिकदो एक्कारस-हदम्मि सवग्गहाण परिमाणं ॥२४॥ १ ५४८६५९२००००००००००९६६६५६ । अर्थ -छह, पाँच, छह, छह, छह, नौ, दस स्थानोंमें शून्य, दो, नौ, पांच, छह, पाठ, चार और पांच, इस अङ्क-क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे गुणित संख्यातरूप प्रतरांगुलोंका जगच्छणीके वर्ग में भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे ग्यारहसे गुणित करनेपर सम्पूर्ण ग्रहोंका प्रमाण [{ज. श्रे. ( सं० प्रतरांगुल ) - ( ५४८६५९२००००००००००९६६६५६ )} x ११ ] होता है ।।२३-२४॥ नोट-गाथा ११ से १४ और २३-२४ में संदृष्टि रूपसे स्थापित चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देवोंका यह प्रमाण कैसे प्राप्त किया गया है ? इसे जानने का एक मात्र साधन त्रिलोकसार गा० ३६१ की टीका है, अतः वहां जानना चाहिए। एक-एक चन्द्र के नक्षत्रोंका प्रमाण एवं उनके नामएक्केक - ससंकाणं, अट्ठावीसा हुवंति णक्खत्ता । एदाणं गामाई, कम - जुत्तीए पहवेमो ॥२५॥ प्रथ-एक-एक चन्द्रके अट्ठाईस-अट्ठाईस नक्षत्र होते हैं । यहाँ उनके नाम क्रम-युक्तिसे अर्थात् क्रमश: कहते हैं ।।२५।। कित्तिय-रोहिणि-मिगसिर -प्रद्दानो' पुणवसुतहा पुस्सो। असिलेसादी मघमो, पुवाओ उत्तराओ हत्थो य ॥२६।। १. ब. क. हुंति । २ द. ब. मिगतिरे। ३. व. अद्दउ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - २५० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २७-३१ चिताओ सादीप्रो, होति विसाहाणुराह - जेट्टायो । मूलं पुव्वासाढा, तत्तो वि य उत्तरासाढा ॥२७॥ अभिजी-सवण-धणिट्ठा, सदभिस-णामाओ पुनभद्दपदा । उत्तरभद्दपदा रेवदीओ तह अस्सिणी भरणी ॥२८॥ अर्थ-कृत्तिका, २रोहिणी, ३मृगशीर्षा, ४ार्दा, ५पुनर्वसु, ६ पृष्य, ७अाश्लेषा, मघा, ९पूर्वाफाल्गुनी, १०उत्तराफाल्गुनी, ११हस्त, १२चित्रा, १३स्वाति, १४विशाखा, १५अनुराधा, १६ज्येष्ठा, १७मूल, १८पूर्वाषाढ़ा, १९उत्तराषाढ़ा, २०अभिजित्, २१श्रवण, २२धनिष्ठा, २३शत. भिषा, २४पूर्वभाद्रपदा, २५उत्तराभाद्रपदा, २६रेवती, २७अश्विनी और २८भरणी ये उन नक्षत्रों के नाम हैं ।।२६-२८॥ समस्त नक्षत्रोंवा प्रमाणदुग-इगि-तिय-ति-ति-गवया, एक्का ठाणेसु णवसु सुष्णारिंग । चउ-टु-एक्क-तिय-सत्त - वय - गयणेक्क अंक - कमे ।।२६।। एदेहि गुणिव - संखेज्ज - रूघ - पदरंगलेहि भजिदूर्ण । सेडि - कदो सच - हदे, परिसंखा सव्य - रिक्खाणं ॥३०॥ 5 ! १०९७३१८४०००००००००१९३३३१२ । अर्थ-दो, एक, तीन, तीन, तीन, नौ, एक, नौ स्थानोंमें शून्य, चार, पाट, एक, तीन, सात, नो, शून्य और एक, इस अंक ऋमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे गुरिणत संख्यात रूप प्रतरांगुलोंका जगच्ट्रेणीके वर्गमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे सातसे गुणा करनेपर सब नक्षत्रोंकी संख्याका प्रमाण [ { जगच्छ्रेणी ( संख्यात प्रतरांगुल }x(१०९७३१८४००००००००० १९३३३१२) }x ७ ] होता है ।।२९-३०॥ एक चन्द्र सम्वन्ध ताराओंका प्रमाणएक्केषक - मयंकाणं, हवंति ताराण कोडिकोडीयो। छावट्ठि-सहस्साणं, रणव - सया पंचहत्तरि - जुदाणि ॥३१॥ ६६९७५००००००००००००००। अर्थ-एक एक चन्द्रके छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर-कोडाकोड़ी तारागण होते Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२-३६ ] पंचमो महाह्यिारो । २५१ तारानोंके नामोंके उपदेशका अभावसंपहि फाल-वसेरणं, तारा-णामारण णस्थि उबएसो। एदाणं सन्वाणं, परमारगाणि पख्वेमो ॥३२॥ अर्थ-इस समय कालके वशसे तारानों के नामोंका उपदेश नहीं है। इन सबका प्रमाण कहता हूँ॥३२॥ समस्त तानोंका प्रमाण-- दुग-सत्त-चउक्काई, एक्कारस - ठाणएसु सुग्णाई । णव - सत्त - छद्दुगाई, अंकाण कमेण एदेणं ॥३३॥ संगुपियहि संसजसव - पचरंगलहि मजिदव्यो।। सेढी-वग्गो तत्तो, पण-सत्त - त्तिय - चउपकट्टा ॥३४॥ णन-अट्ठ-पंच-णव-दुग-अट्ठा-सत्तट्ठ-णह-चउक्कारिण । अंक - कमे गुणिदथ्यो, परिसंखा सम्व - ताराणं ॥३५॥ ___ =४०८७८२९५८९८४३७५ ४ । ७ । २६७९०००००००००००४७२ । एवं संखा समत्ता ॥३॥ अर्थ-दो, सात, चार, ग्यारह स्थानोंमें शून्य, नौ, सात, छह और दो, इस अंक क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उससे गुरिणत संख्यातरूप प्रतरांगुलोंका जगच्छणीके वर्गमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसको पांच, सात, तीन, चार, आठ, नौ, आठ, पाँच, नौ, दो, पाठ, सात, आठ, शून्य और चार, इन अंकोंसे गुणा करनेपर समस्त ताराओंका प्रमाण [ { जगच्छणी ( संख्यात प्रतरांगुल ) x{ २६७९०००००००००००४७२) }x (४०८७८२९५८९८४३७५) ] होता है ।।३३-३५।। ___ इसप्रकार संध्याका कथन समाप्त हुना ॥३॥ - चन्द्र-मण्डलोंकी प्ररूपणागंतूणं सीदि - जुवं, अट्ठसया जोयणाणि चित्ताए। उरिम्मि मंडलाई, चंदाणं होति गयणम्मि ॥३६॥ । ८८० । प्रर्य-चित्रा पृथिवीसे पाठ सौ अस्सी ( ८८० ) योजन ऊपर जाकर आकाशमें चन्द्रोंके मण्डल ( विमान ) हैं ।।३६।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] तिलोदगणपती उत्ताणावद्विद-गोलकद्ध' सरिसाणि ससि-मणिमयाणि । ताणं पुह पुहु बारस - सहस्स- सिसिरतर-मंद-किरणाणि ॥ ३७॥ [ गाथा : ३७-४० । १२००० । श्रथं चन्द्रों के मणिमय विमान उत्तानमुख अर्थात् कर्ध्वमुखरूपसे अवस्थित अर्ध गोलक सहा हैं। उनकी पृथक्-पृथक् बारह ( १२००० ) हजार प्रमाण किरणें अतिशय शीतल एवं मन्त्र हैं ||३७|| विशेषार्थ – जिसप्रकार एक गोले ( गेंद ) के दो खण्ड करके उन्हें ऊर्ध्वमुख रखा जावे तो चौड़ाईका भाग ऊपर और गोलाईवाला संकरा भाग नीचे रहता है । उसीप्रकार ऊर्ध्वमुख अर्धगोलेके सदृश चन्द्र विमान स्थित है। सभी ज्योतिषी देवोंके विमान इसीप्रकार उत्तानमुख अवस्थित हैं || तेसु ठिद- पुढवि-जीवा, जुत्ता उज्जोव कम्म उदएणं । जम्हा तुम्हा ताणि, फुरंत सिसिरयर- मंद-किरणाणि ||३८|| अर्थ - उन ( चन्द्रविमानों ) में विद्यमान पृथिवीकाधिक जीव उद्यांत नामकर्मके उदयसे संयुक्त हैं अतः वे प्रकाशमान् अतिशय शीतल और मन्द किरणोंसे संयुक्त होते हैं ||३८|| एक्कट्ठी - भाग-कदे, जोयणए तारा होदि छप्पण्णा । उघरिम-तला संवं, तबद्ध' बहलं पि पत्तेक्कं ॥३६॥ - । ५६ । ३६ । अर्थ :- एक योजनके इकस भाग करने पर उनमें से छप्पन भागोंका जितना प्रमाण है, उतना विस्तार उन चन्द्र विमानोंमेंसे प्रत्येक चन्द्र विमानके उपरिम तलका है और बाहुल्य इससे आधा है ||३९|| एदाणं परिही, पुह पुह बे जोयणाणि अदिरेको । ताणि अकिट्टिमाणि, अणाइणिहणाणि बिबाणि ॥४०॥ अर्थ :- इनकी परिधियाँ पृथक् पृथक् दो योजनसे कुछ अधिक हैं। वे चन्द्र बिम्ब अकृत्रिम एवं अनादिनिधन हैं ॥४०॥ विशेषार्थ :- प्रत्येक चन्द्र विमान का व्यास १६ योजन और परिधि २ योजन ३ कोस, कुछ कम १२२५ धनुष प्रमाण है । १. द. ब. गोलगट २. द. ब. क. ज दलद्ध 1 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ४१-४७ ] पंचमो महायिासे [२५३ चउ-गोउर-संजुत्ता, तड-वेदी तेसु होदि पसेयकं । तम्मझे वर - बेदी - साहिई रायंगणं रम्मं ॥४१॥ अर्थ :-उनमेंसे प्रत्येक विमानको तट-वेदी चार गोपुरोंसे संयुक्त होती है । उसके बीच में उत्तम वेदी सहित रमणीय राजाङ्गण होता है ।।४।। रायंगण-बहु-मझे, वर-रयणमयाणि दिव्व-कूडाणि । कूडेसु जिण - घराणि, वेदो चउ - तोरण जुदाणि ॥४२॥ अर्थ :- राजाङ्गणके ठीक बीच में उत्तम रत्नमय दिव्य नट और उन कूटोंपर वेदी एवं चार तोररणोंसे संयुक्त जिन-मन्दिर अवस्थित हैं ॥४२॥ से सध्ने जिण-णिलया, मुत्तालि-कणय-दाम-कमणिज्जा । वर-वज्ज-कवाड-जुदा, दिव्य - विदाणेहिं रेहति ॥४३॥ अर्थ वे सब जिन-मन्दिर मोती एवं स्वर्णकी मालाओंसे रमणीक और उत्तम वजमय किवाड़ोंसे संयुक्त होते हुए दिव्य चन्दोवोंसे सुशोभित रहते हैं ।।४३।। दिपंत-रयण-दीवा, अट्ठ-महामंगलेहि परिपुष्णा । वंबणमाला-चामर - किकिणिया - जाल - साहिल्ला ॥४४॥ अर्थ-वे जिन-भवन देदीप्यमान रत्नदीपकों एवं अष्ट महामंगल द्रव्योंसे परिपूर्ण और वन्दनमाला, चंबर तथा क्षुद्र घण्टिकानोंके समूहसे शोभायमान होते हैं ११४४।। एवेसुणसभा, अभिसेय - सभा विचित्त-रयरणमई । कीडण - साला विविहा, ठाण - द्वाणेसु सोहंति ।।४५॥ अर्थ-- इन जिन-भवनों में स्थान-स्थान पर विचित्र रत्नोंसे निर्मित नाटय सभा, अभिषेक सभा और विविध क्रीड़ा-शालाएं सुशोभित होती हैं ॥४५॥ मद्दल-मुइंग-पटह-पहृदीहि विविह दिव्य - तूरेहि । उदहि-सरिच्छ-रहि, जिण-गेहा णिच्च-हलबोला ॥४६॥ अर्थ-वे जिन-भवन समुद्र सश गम्भीर शब्द करने वाले मर्दल, मृदंग और पटह आदि विविध दिव्य वादित्रोंसे नित्य शब्दायमान रहते हैं ।।४६॥ छत्त-त्तय - सिंहासण - भामंडल - चामरेहि जुत्ताई। जिण • पडिमानो तेसु, रयणमईयो विराजंति ॥४७॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] तिलोयपणत्ती [ गाथा : ४८-५३ अर्थ-उन जिन-भवनोंमें तीन छत्र, सिंहासन, मामण्डल और चामरोंसे संयुक्त रत्नमयो जिन-प्रतिमाएं विराजमान हैं ॥४७॥ सिरिदेवी सुददेवी, सव्वाण सणक्कुमार-जक्खाणं'। रूवाणि मण - हराणि, रेहति जिणिद - पासेसु॥४॥ अर्थ जिनेन्द्र बिम्बके पार्वमें श्रीदेवी, श्र तदेवी, सर्वाहयक्ष और सनत्कुमार यक्षकी मनोहर मूर्तियाँ शोभायमान होती हैं ।।४८! जल-गंध-कुसुम-तंडुल-वर-भक्ख-पदीव-धूव-फल-पुण्णं । कुवंति ताण पुज्ज, णिभर - भत्तीए सव्व - सुरा ॥४६॥ अर्थ-सब चन्द्र देव गाढ भक्तिसे उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की जल, गन्ध, तन्दुल, फूल, उत्तम नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजा करते हैं ।।४९।। चन्द्र-प्रासादोंका वर्णनएवाणं कडाणं, समतदो होंति चंद - पासादा। समचउरस्सा दोहा, णाणा - विण्णास - रमणिज्जा ॥५०॥ अर्थ-इन कूटोंके चारों ओर समचतुष्कोण लम्बे और अनेक प्रकारके विन्याससे रमणीय चन्द्रोंके प्रासाद होते हैं ।।१०।। मरगय-वण्णा केई, केई कुवेंदु-हार-हिम-धण्णा । अपरणे सुवण्ण-वण्णा, प्रवरे वि पवाल-णिह-वण्णा ॥५१॥ अर्थ इनमें से कितने ही प्रासाद मरकतवर्ण वाले, कितने ही कुन्दपुष्प, चन्द्र, हार एवं बर्फ जैसे वर्णवाले; कोई स्वणं सदृश वर्णवाले; और दूसरे ( कोई } मुंगे सदृश वर्णवाले हैं ।। ५१॥ उययाव-मंदिराई, अभिसेय-घराणि भूसण-गिहाणि । मेहुण-कोडण-सालाओ भंत - अस्थाण - सालानो ॥५२॥ अर्य-इन भवनोंमें उपपाद मन्दिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीड़ाशाला, मन्त्रशाला और प्रास्थान-शालाएँ ( सभाभवन ) स्थित है ।।५।। ते सवे पासादा, वर-पायारा विचित्त-गोउरया । मरिण-तोरण-रमणिज्जा, जुत्ता बहुचिन-भित्तीहि ॥५३॥ १. ६. क. रज्जाएं। २. द. ब. क. ज. भित्तीप्रो । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५४-६० ] पंचमी महाहियारो उववरण- पोखरणीहि विराजमारता विचित्त-ख्वाह । कणयमय - विरल- थंभा, सणास बहुत श्रथं वे सब प्रासाद उत्तम कोटों तथा विचित्र गोपुरोंसे संयुक्त मणिमय तोरणों से रमणीय, नाना प्रकारके चित्रोंवाली दीवालोंसे युक्त, विचित्र रूपवाली उपवन-वापिकाओं से सुशोभित और स्वर्णमय विशाल खम्भोंने युक्त हैं तथा शयनासनों आदि से परिपूर्ण हैं ।।५३-५४ ॥ सद्द - रस-रूव-गंध, पासेहि जिरूयमेहिं सोक्खाणि । देति विविहाणि दिव्वा, पासादा धूव अर्थ-धूपकी सुगन्धसे व्याप्त ये दिव्य प्रासाद शब्द, अनुपम सुख प्रदान करते हैं ।। ५५ ।। गंधड्ढा ।। ५५ ।। रस, रूप, गन्ध और स्पर्शसे विविध सट्ट यहुदीग्रो, भूमीग्रो सूसिदाओ कूडेह । विष्फुरिद - रयण - किरणावलोश्रो भवणेसु रेहति ॥५६॥ - अर्थ – (उन) भवनों में कूटोंसे विभूषित और प्रकाशमान रत्न - किरण पंक्तियोंसे संयुक्त सातआठ आदि भूमियाँ शोभायमान होती हैं ।। ५६ ।। चन्द्र के परिवार देव - देवियोंका निरूपण - तमंदिर - मज्भे चंदा सिहासणहसमारूढा पत्तेक्कं चंदाएं चत्तारो अग्ग महिसीओ ॥ ५७॥ ! ५४ ॥ , - । ४ । अर्थ - इन मन्दिरों के बीच में चन्द्रदेव सिहासनोंपर विराजमान रहते हैं । उनमें से प्रत्येक चन्द्र के चार ग्रमहिपियाँ ( पट्टदेवियाँ ) होती हैं ।। ५७|१ चंदाभ-सुसीमा, पहंकरा' श्रचिचमालिणी ताणं । पत्लेषक परिवारा, चत्तारि सहस्स देवीश्रो ॥५८॥ यि यि परिवार-सम, विविकरियं वरिसियंति देवीओ । चंदा परिवारा, अटु वियप्पा य पत्वक' ॥ ५६ ॥ १. द. ब. क. ज. हंकरा । - - - [ २५५ पडदा सामायि त रक्खा तह हवंति लिप्परिसा 1 सत्ताणीय पइण्णय प्रभियोगा किव्विसा देवा ||६०|| Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा ६१-६४ अर्थ-चन्द्रामा, सुसीमा, प्रभङ्करा और अचिमालिनी, ये उन अग्र- देवियों के नाम हैं । इनमें से प्रत्येक को चार-चार हजार प्रमाण परिवार देवियाँ होती हैं । अग्रदेवियाँ अपनी-अपनी परिवार देवियोंके सदृश अर्थात् चार हजार रूपों प्रमाण विक्रिया दिखलाती हैं। प्रतीन्द्र, सामानिक, लनुरक्ष तीनों पारिषद, सात अतीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्विष इसप्रकार प्रत्येक चन्द्रके आठ प्रकारके परिवार देव होते हैं ।।५८-६० ।। सलदाण पडदा एक्केक्का होंति ते वि श्राइच्चा | सामाणियतणुरक्ख-प्पहूदी संखेज्ज परिमाणा ॥ ६१ ॥ अर्थ – सब चन्द्र इन्द्रों के एक-एक प्रतीन्द्र होता है। वे ( प्रतीन्द्र ) सूर्य ही हैं । सामानिक श्रीर तनुरक्ष आदि देव संख्यात प्रमाण होते हैं ॥ ६१ ॥ रायंगण - बाहिरए, परिवाराणं हवंति पासादा । विवि- वर- रयण-रवा, विचित्त विण्णास भूदहि ॥६२॥ - अर्थ – राजाङ्गके बाहर विविध उत्तम रत्नोंसे रचित और अद्भुत् विन्यासरूप विभूति ग्रहित परिवार देवोंके प्रासाद होते हैं ||६२ ॥ चन्द्र विमानके वाहक देवोंके आकार एवं उनको संख्या सोलस - सहरसमेता प्रभिजोग-सुरा हवंति पत्तेक्क ं । वाण घरतलाई, विविकरिया साविणो णिच्चं ॥ ६३ ॥ । १६००० । अर्थ - प्रत्येक ( चन्द्र ) इन्द्र के सोलह हजार प्रमाण अभियोग्य देव होते हैं जो चन्द्रोंके ग्रहतलों (विमानों ) को नित्य ही विक्रिया धारण करते हुए बहन करते हैं ।। ६३ ।। चउ-च-सहस्समेत्ता, पुत्रादि- दिसासु कुद-संकासा । केसरि-करि-वसहाणं, जडिल - तुरंगाण 'रूबधरा ॥६४॥ अर्थ - सिंह, हाथी, बैल और जटा युक्त घोड़ोंको धारण करने वाले तथा कुन्द पुष्प सदृश सफेद चार-चार हजार प्रमाण देव ( क्रमशः ) पूर्वादिक दिशाओं में ( चन्द्र - विमानों को बहन करते } हैं ॥ ६४ ॥ चन्द्र - विमान का चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ! १. द. ब. क. ज. स्वचरा । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६५-६६ ] पंचमो महाहियारो चन्द्र विमान B जिन भवन बाल्य २८/६१ ब्यास ४६३६१० १२००० किरणें सूर्य मण्डलों की प्ररूपणा चित्तोवरिम-तलादो, उवरि गंतूण जोयणट्ट-सए 1 दिगयर - जयर-तलाई, णिच्चं चेट्ठति गयणम्मि ||६५ || | २५७ । ८०० 1 अर्थ- चित्रा पृथिवीके उपरिमतल से ऊपर माठ सो ( ८०० ) योजन जाकर आकाश में नित्य ( शाश्त्रत ) नगरतल स्थित हैं ॥ ६५ ॥ उत्तारणावद्विद-गोलकद्ध' सरिसाणि रथि - मणिमयाणि । ताणं पुह पुह बारस- सहस्त उन्हयर - किरणाणि ॥ ६६ ॥ । १२००० । अर्थ- सुके मणिमय विमान ऊर्ध्व अवस्थित प्रधं गोलक सदृश हैं । उनकी पृथक्-पृथक् बारह हजार ( १२०००) किरणें उष्णतर होती हैं ॥१६६॥ १. व. ब. क्र. ज. गोलद्ध । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती तेसु ठिद-पुढवि-जीवा, जुत्ता आदाब कम्म उदएणं । जम्हा तम्हा ताण, फुरंत उण्हयर किराणि ॥ ६७ ॥ अर्थ-क्योंकि उन ( सूर्यं विमानों ) में स्थित पृथिवीकायिक जीव आताप नामकर्मके उदयसे संयुक्त होते हैं अतः वे प्रकाशमान उष्णतर किरणोंसे युक्त होते हैं ॥ ६७॥ 'एक्कडी - भाग- कवे, जोयणए ताण होंति घडवालं । उवरिम तलाण रुदं तदद्ध बहलं पि पत्तक्क ।। ६८ ।। २५= ] - - । ६६ । ३३ । प्रथं - एक योजनके इकसठ ( ६१ ) भाग करनेपर उनमें से अड़तालीस (४८ ) भागोंका जितना प्रमाण है उतना विस्तार उन सूर्य विमानोंमेंसे प्रत्येक सूर्य बिम्बके उपरिमतलका है और बाहस्य इससे आधा होता है ||६८ || एवाणं परिहीओ, पुह पुह ने जोयणाणि श्रविरेगा । ताणि अकिट्टिमाणि, प्रणाइणिहाणि बिबाणि ॥ ६६ ॥ - - अर्थ - इनको परिधियाँ पृथक्-पृथक् दो योजनोंसे अधिक हैं । वे सूर्य-बिम्ब अकृत्रिम एवं अनादिनिधन है । ६९॥ विशेषार्थ - प्रत्येक सूर्य विमानका व्यास योजन और परिधि २ योजन १ कोस, कुछ कम १६०७ धनुष प्रमाण है । [ गाथा : ६७-७२ पत्रोक्क' तड- वेदो, चउ-गोउर-दार-सुंदरा ताणं । तम्भ वर वेदो सहिवं रायंगणं होदि ॥७०॥ - अर्थ -- उनमें से प्रत्येक सूर्य- विमानकी लट-वेदी चार गोपुरद्वारों से सुन्दर होती है । उसके बीच में उत्तम वेदीसे संयुक्त राजाङ्गण होता है ||७०|| रायंगणस्स मझे, वर- रयणमयाणि दिव्य कूडाणि । तेसु जिण पासावा, चेट्ठते सूर तमया ॥७१॥ अर्थ – राजाङ्गणके मध्य में जो उत्तम रत्नमय दिव्य कूट होते हैं उनमें सूर्यकान्त मणिमय जिन भवन स्थित हैं ॥ ७१ ॥ १. ब. क. ज. एक्फस्सट्टिय ब. एक्कस्सतिय । एदाणं मंदिराणं, मयंकपुर कूड भवण-सारिन्छ । सम्यं चिय वण्णणयं, गिउणेहिं एत्थ वत्तव्यं ।।७२ || - Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ७३-७८ ] पंचम महाहियारो [ २५९ अर्थ - निपुण पुरुषों को इन मन्दिरोंका सम्पूर्ण वर्णन चन्द्रपुरोंके कुटोंपर स्थित जिनभवनों के सदृश यहाँ भी करना चाहिए ||७२ ॥ तेसु जिण-पडिमाश्रो, पुण्योदिव-वण्णणा पयाराश्री | विविचचण दहि, ताम्र पूजति सम्य सुरा ॥७३॥ अर्थ - उनमें जो जिन प्रतिमाएं विराजमान है उनके वर्णनका प्रकार पूर्वोक्त के ही सहश है । समस्त देव अनेक प्रकारके पूजा- द्रव्योंसे उन प्रतिमाओंकी पूजा करते हैं ॥७३॥ सदृश है ||७४|| एवाणं कूडाणं, होदि समतेण सूर पासादा । ताणं पिवण्णणाश्रो, ससि पासावेहि सरिसाओ ॥७४॥ तलिया 1 अर्थ - - इन कूटोंके चारों ओर जो सूर्य प्रासाद हैं उनका भी वर्णन चन्द्र प्रासादों के वर - · - मज्भे, दिवायरा विश्व-सिंह- पीढेसु । छत - चमर जुत्ता, चेट्ठ ते विध्वयर तेया ।।७५ || - अर्थ- - उन भवनोंके मध्यमें उत्तम छत्र चँवरोंसे संयुक्त और अतिशय दिव्य तेजको धारण करने वाले सूर्य देव दिव्य सिहासनों पर स्थित होते हैं ॥१७५॥ सूर्यके परिवार देव देवियोंका निरूपण - जुदिसु दि-पहंकराओ, सूरपहा - अचिमालिनो पत्तेक्कं चत्तारो, दु- मणीणं अग देवी वि । . ॥७६॥ अर्थ - प्रत्येक सूर्यकी युतिश्रति प्रभङ्करा, सूर्यप्रभा और अचिमालिनी, ये चार अग्र देवियाँ होती हैं ||७६ ॥ देबोणं परिवारा, पत्तेषकं च सहस्स - देवीओ । यि णिय परिवार-सम, विविकरियं ताओ मेच्हति ॥७७॥ अर्थ- इनमें से प्रत्येक अग्र-देवीकी चार हजार परिवार देवियाँ होती हैं। वे अपने-अपने परिवार सदृश अर्थात् चार-चार हजार रूपोंकी विक्रिया ग्रहण करती हैं ॥७७॥ सामायि तरखा, तिप्यरिसाधो पइण्णयाणीया । अभियोगा बिसिया, सत्त-विहा सूर-परिवारा ॥ ७८ ॥ अर्थ – सामानिक, तनुरक्षक, तीनों पारिषद, प्रकीर्णक, अनीक, अभियोग्य और किल्विषिक, इसप्रकार सूर्य देवोंके सात प्रकार के परिवार देव होते हैं ||७८ || Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] तिलोय पणती रायंगण बाहिरए, परिवाराणं हवंति पासादा | वर - रयण भूमिदाणं, फुरंत तेयाण सव्वाणं ॥७६॥ - - अर्थ - उत्तम रत्नों से विभूषित धौर प्रकाशमान तेज को धारण करने वाले समस्त परिवारदेवों के प्रासाद राजाङ्गरण के बाहर होते हैं ||७९|| सूर्य विमान वाहक देवोंके आकार एवं उनकी संख्या सोलस - सहरसमेत्ता, प्रभिजोग-सुरा हवंति पत्तेषक । दिrयर-यर- तलाई, विकिरिया - हारिणो' णिच्वं ॥ ८० ॥ · । १६००० 1 अर्थ -- प्रत्येक सूर्यके सोलह (१६००० ) हजार प्रमाण श्रभियोग्य देव होते हैं जो नित्य ही विक्रिया करके सूर्य नगरतलोंको ले जाते हैं ||50|| सेवावि- दिसासु, केसरि करि सह- जडिल- हय-हवा । च च सहस्समेत्ता, कांचण वण्णा विराजते ॥८१॥ सूर्य विमान १. द. ब. क. ज. कारिणो । [ गाथा : ७९-८१ " बाहल्य २४/६१ व्यास ४८ /६१ १२००० किरणें ! 1 . : ---------- Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! ८२-८६ ] पचमो महाहियारी [ २६१ अर्थ –सिंह हाथी, बैल और जटा-युक्त घोड़ेके रूपको धारण करनेवाले तथा स्वर्ण सदृश वर्ण संयुक्त वे पाभियोग्य देव क्रमशः पूर्वादिक दिशाओं में चार-चार हजार प्रमाण विराजमान होते हैं ।।८१॥ ग्रहोंका अवस्थानचित्तोवरिम - तलादो, गंतूणं जोयणाणि अट्ठ-सए । अउसीदि-जुवे गह-गण-पुरीओ बो-गुणित-छक्क-बहलम्मि ।।२।। ।८८८ । १२ । मर्थ-चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे आठ सौ अठासी (465 ) योजन ऊपर जाकर बारह ( १२) योजन प्रमाण बाहल्य में ग्रह-समूह की नगरियाँ हैं ।।२।। बुध-नगरोंकी प्ररूपणाचित्तोरिम-तलादो, पुचोरिद-जोयणाणि गंतूणं । तासु बुह-गयरोओ, णिचं चेति गयणम्मि ॥८३।। अर्थ – उनमें से चित्रा पृथिवीके उपरिम-तलसे पूर्वोक्त आठ सौ अठासी योजन ऊपर जाकर आकाश में बुधकी नगरियाँ नित्य स्थित हैं ।।३।। एवानो सब्यायो, कणयमईयो य मंब-किरणाम्रो । उत्ताणावट्टिद - गोलकद्ध - सरिसाओ णिच्चायो ।४।। पर्थ-ये सब नगरियाँ स्वर्णमयी, मन्द किरणोंसे संयुक्त, नित्य और ऊर्ध्व अवस्थित अर्धगोलक सदृश हैं ॥४॥ उरिम - तलाण रुबो, कोसस्सद्ध तदद्ध-बहलतं । परिही दिवड्ड - कोसो, सविसेसा ताण पत्तेक्कं ॥८५।। प्रध-उनमेंसे प्रत्येकके उपरिम तलका विस्तार अर्ध कोस, बाहल्य इससे आधा और परिधि डेढ़ कोससे कुछ अधिक है ।।५।। एक्केक्काए पुरीए, तड-वेदी पुव्य-धण्णणा होदि । तम्मज्झे बर - वेदी - जुत्तं रायंगणं रस्म ॥८६।। अर्ष-प्रत्येक पुरीकी तट-वेदी पूर्वोक्त वर्णनासे युक्त होती है । उसके बीचमें उसम वेदीसे संयुक्त रमणीय राजाङ्गण स्थित रहता है ।।६।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ७-६२ तम्माझे वर-कूडा, हवंति तेसु जिणिद - पासादा । कडाण-समंतेणं, बुह णिलया पुश्य सरिस-वण्णणया ।।७।। अर्थ-राजाङ्गणा के मध्य में उत्तम बाट और उन कुटोंपर जिनेन्द्र-प्रासाद होते हैं। कूटोंके चारों ओर पूर्व भवनों सदृश वर्णन वाले बुध-ग्रहके भवन है ।।८।। दो-दो सहस्समेत्ता, अभियोगा-हरि-करिय-असह-हया। पुवादिसु पत्तेक्क, कणय-णिहा बुह-पुराणि धारंति ।।८॥ अर्थ-सिंह, हाथी, बैल एवं घोड़ोंके रूपको धारण करनेवाले तथा स्वर्ण सदृश वर्ण संयुक्त दो-दो हजार प्रमाण प्राभियोग्य देव क्रमशः पूर्वादिक दिशाओं में से प्रत्येक दिशामें बुधोंके पुरोंको धारण करते हैं ।।८।। शुक्रग्रहके नगरोंकी प्ररूपणा--- चित्तोरिम-तलादो, णव-णिय-णव-सयाणि जोयणया। गंतूण गहे उरि, सुक्काणि पुराणि चेते ॥८६॥ । ५९१ । अर्थ चित्रा पृथिबीके उपरिम तलसे नौ कम नौ सौ (८९१) योजन प्रमाण ऊपर जाकर आकाशमें शुक्रोंके नगर स्थित हैं ॥९॥ ताणं णयर-सलाणं, पण-सय-दु-सहस्समेस-किरणाणि। उत्ताण - गोलकद्धोवमाणि वर - रुप्य - मइयारिण ॥६॥ । २५०० । अर्थ - ऊर्ध्व अवस्थित गोलकार्धके सदृश और उत्तम चांदीसे निर्मित उन शुक्र-नगरतलों मेंसे प्रत्येककी दो हजार पांच सौ (२५००) किरणे होती हैं ॥१०॥ उवरिम-तल-विक्खंभो, कोस-पमारणं तदद्ध-बहलत्तं । ताणं अकिट्टिमाणं, खचिदाणं विविह - रयणेहिं ॥१॥ १ को १ । को । अर्थ-विविध रत्नोंसे खचित उन अकृत्रिम पुरोंके उपरिम तलका विस्तार एक कोस और बाहल्य इससे आधा अर्थात् अर्ध कोस प्रमाण है ।१९१।। पुह पुह ताणं परिही, ति-कोसमेत्ता हदि सविसेसा । सेसाओ वण्णणाश्रो, बुह - एयराणं सरिच्छाओ ॥१२॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ९३-९७ ] पंचमो महाहियारो [ २६३ अर्थ–जनको परिधि पृथक्-पृथक् तीन कोससे कुछ अधिक है। इन नगरोंका शेष सब वर्णन बुध नगरोंके सदृश है ।।९२॥ गुरु-ग्रहके नगरोंकी प्ररूपणाचित्तोवरिम-तलावो, छयकोणिय-णव-सएण जोयणए। . गंतूण हे उरि, चेति गुरूण गयराणि ।।३।। । ८९४ । अर्थ-चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे छह कम नौ सौ ( ८९४ ) योजन ऊपर जाकर भाकाशमें गुरु ( बृहस्पति ) ग्रहोंके नगर स्थित हैं ।।९३।। ताणि 'जयर-सलारिंग, फलिह-मयाणि सुमंव-किरणाणि । उत्ताण - गोलकद्धोवमाणि णिच्चं सहावाणि ॥१४॥ मर्थ-स्फटिकमरिणसे निर्मित, उन गुरु-ग्रहोंके नगर-तल सुन्दर मन्द किरणोंसे संयुक्त, ऊर्ध्वमुख स्थित गोलका के सदृश और नित्य-स्वभाव वाले हैं ।।१४।। उरिम-तल-विषखंभा तागं कांसस्य पारम-भागा या सेसाओ वण्णणामो, सुक्क • पुराणं सरिच्छामो ॥६५॥ अर्थ-उनके उपरिम तलका विस्तार कोस के बहुभाग अर्थात् कुछ कम एक कोस प्रमाण है । उनका मोष वर्णन शुक्रपुरों के सदृश है ॥९५।। मंगल ग्रहके नगरोंकी प्ररूपरणाचित्तोवरिम तलावो, तिय-णिय-व-सयाणि जोयणए । गंतूरण उरि गयणे, मंगल - रपयराणि चेति ॥६॥ | ८९७ । प्रयं-चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे तीन कम नौ सौ ( ८९७ ) योजन ऊपर जाकर आकाशमें मङ्गलनगर स्थित हैं ।।९६।। ताणि णयर-तलाणि, हिरारुण-पउमराय-महयाणि । उत्ताण-गोलकद्धोक्माणि सव्वाणि मंब-किरणाणि ॥७॥ अर्म-वे सब नगर-तल रुधिर सदृश लाल वर्णवाले पद्मराग-मणियोंसे निर्मित, कर्ध्वमुख स्थित गोलकार्घ सदृश और मन्द-किरणोंसे संयुक्त होते हैं ।।१७।। १. म. णयरि । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] तिलोयपत्ती तबद्ध बहलत्तं' । उवरिम-तल - विवखंभा, कोसस्स सेसाओ वण्णा, ताणं पुग्बुस सरिसाओ ॥ ६८ ॥ अर्थ- उनके उपरिम तलका विस्तार अर्ध कोस एवं बाहुल्य इससे आधा अर्थात् पाव कोस प्रमाण है । इनका शेष वर्णन पूर्वोक्त नगरोंके सदृश है ||१८|| - शनि ग्रहके नगरोंकी प्ररूपणा - चित्तोवरिम-तलादो, गंतूणं णव सारंग जोये गए । उवरि सुवण-मयाणि, सणि-णयराणि णहे होंति ॥६६॥ । ९०० । - चित्रा पृथिवीके उपरिम तलसे नौ सौ ( ९०० ) योजन ऊपर जाकर आकाश में शनि ग्रहों के स्वर्णमय नगर हैं ।। ९९ ।। [ गाथा: ९८-१०२ उवरिम-तल - विक्खंभा', कोसद्ध होंति ताण पत्तेक्कं । सेसाओ वाओ, पुथ्व पुराणं सरिच्छाओं ॥ १०० ॥ - श्रथं- उनमें से प्रत्येक शनि नगरके उपरिम तलका विस्तार अर्ध कोस प्रमाण है। इनका शेष वर्णन पूर्वोक्त नगरोंके सदृश ही है || १०० ॥ अवशेष ८३ ग्रहोंकी प्ररूपणा - अवसेलाण गहाणं, जयश्री उवरि चित्त-भूमीदो । गंतून बुह सगीणं, विश्चाले होंति णिच्चाओ ।। १०१ ।। - श्रवशिष्ट ( ३ ) ग्रहोंकी नित्य ( शाश्वत ) नगरियां चित्रा पृथिवीके ऊपर जाकर बुध ग्रहों और शनि ग्रहों के अन्तरालमें अवस्थित हैं ।। १०१ ॥ १. द. ज. बहलब । विशेषार्थ -- गाथा १५ से २२ तक अर्थात् आठ गाथाथों में बुधको आदि लेकर ८८ ग्रहोंके नाम दर्शाये गये हैं । इनमेंसे बुध, शुक्र, गुरु, मंगल और शनि ग्रहोंका वर्णन ऊपर किया जा चुका है । शेष ८३ ग्रहोंका अवस्थान चित्रा पृथिवीसे ऊपर जाकर बुध और शनि ग्रहोंके अन्तराल अर्थात् ८८८ योजनसे ९०० योजनके बीचमें है । ताणि यर-तलारिंग, जह जोग्गुद्दिट्ठ-वास बहलागि । उताण - गोलकद्धोवमाणि बहु रयण मइयाणि ॥ १०२ ॥ - - Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १०३-१०७ ] पंचमो महाहियारो [ २६५ अर्य-ये ( ८३ ) नगर तल यथायोग्य कहे हुए विस्तार एवं बाहल्यसे संयुक्त, ऊर्ध्वमुख गोलकार्ध सदृश और बहुत रत्नोंसे रचित हैं ।।१०२॥ सेसाओ घण्णणाओ, पुग्घिल्ल-पुराण होंति सरिसायो। कि पारेमि' भणेदु, जोहाए एक्कमेत्ताए ॥१३॥ अर्थ -इन ग्रहोंका शेष वर्णन पूर्वोक्त पुरोंके सदृश है। मात्र एक जिह्वासे इनका विशेष कथन करते हुए क्या पार पा सकता हूँ? ॥१०३।। नक्षत्र नगरियोंकी प्ररूपणाअट्ठ-सय-जोयगाणि, चउसोवि-जुदाणि उवरि-चित्तायो। गंतुण गयण - मग्गे, हवंति णखत - णयराणि ।।१०४॥ ।८८४ । अर्थ-चित्रा पृथिवीसे आठसौ चौरासो ( ८८४ ) योजन ऊपर जाकर आकाश-मार्गमें नक्षत्रोंके नगर हैं ।।१०४।। ताणि रणयर-तलाणि, बहु-रयण-मयाणि मंद-फिरणाणि । उत्साण - गोलकद्धोवमाणि रम्माणि रेहति ॥१०॥ प्रयं-ये सब ( नक्षत्रोंके ) रमणीय नगरतल बहुत रत्नोंसे निर्मित, मन्द किरणोंसे युक्त और ऊर्ध्वमुख गोलकाध सदृश होते हुए विराजमान होते हैं ।।१०५॥ उपरिम-तल-वित्थारो, ताणं कोसो तबद्ध-बहलाणि । सेसाप्रो वण्णणामो, दिणयर-णयराण सरिसाओ ॥१०६॥ प्रर्ष-उनके उपरिम तलका विस्तार एक कोस और बाहल्य इससे प्राधा है । इनका शेष वर्णन सूर्य-नगरोंके सदृश है ।।१०६।। णवरि विसेसो देवा, अभियोगा सीह-हत्थि-वसहस्सा। ते एक्केक्क - सहस्सा, पव-दिसासु ताणि धारंति ॥१०७॥ अर्थ-इतना विशेष है कि सिंह, हाथी, बैल एवं घोड़ेके प्राकारको धारण करने वाले एक-एक हजार प्रमाण आभियोग्य देव क्रमशः पूर्वादिक दिशाभोंमें उन नक्षत्र नगरोंको धारण किया करते हैं ।।१०७।। १. द.ब. पावेदिमणामो। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १०८-११२ तारा नगरियोंको प्ररूपणाउदि-जुद सत्त-जोयण-मातागि गतण उनर चिनायो । गयण-तले ताराणं, पुराणि बहले दहत्तर सदम्भि ।।१०८॥ अर्थ-चित्रा पृथिवीसे सात सौ नब्बै ( ७९० ) योजन ऊपर जाकर आकाश तलमें एक नौ दस ( ११० ) योजन प्रमाण बाहत्यमें साराओंके नगर हैं ।।१०८॥ ताणं पुराणि णाणा-वर-रयण-मयाणि मंद-किरणाणि । उत्तारण - गोलकद्धोवमाणि सासद · सरूवाणि ॥१०६।। अर्थ -उन ताराओंके पुर नाना प्रकारके उत्तम रत्नोंसे निमित, मन्द किरणोंसे संयुक्त, ऊर्ध्वमुख स्थित मोलकाधं सदृश और नित्य-स्वभाव वाले हैं ।।१०९।। ताराओंके भेद और उनके विस्तारका प्रमाणवर-अवर-मज्झिमाणि, ति-वियप्पाणि हवंति एवाणि । उवरिम - तल - विक्खंभा, जेद्वाणं वो-सहस्स-दंडाणि ।।११०॥ । २००० 1 प्रर्थ-ये उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम तीन प्रकारके होते हैं। इनमेंसे उत्कृष्ट नगरोंके उपरिम तलका विस्तार दो हजार ( २००० ) धनुष प्रमाण है ।।११०॥ पंच- सयारिण धणि, तं विक्खंभा हवेदि अवराणं । दु-ति-गुणिवावर-माणं, मन्झि - मयाणं दु-ठाणेसु॥१११।। । ५०० । १००० । १५०० । अर्थ-जघन्य नगरोंका (वह) विस्तार पांच सौ ( ५०० ) धनुष प्रमाण है। इस जघन्य प्रमाणको दो और तीनसे गुणा करनेपर क्रमश: दो स्थानोंमें मध्यम नगरोंका विस्तार क्रमशः ( ५००४२ = ) १००० धनुष एवं ( ५०० ४३= ) १५०० घनुष है ।।१११॥ ताराओंका अन्तराल एवं अन्य वर्णनतेरिच्छमंतरालं, जहण - ताराण कोस - सत्संसो। जोयणया पण्णासा, मज्झिमए सहस्समुक्कस्से ॥११२।। को । जो ५० । १०००। । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११३ ] पंचमो महाहियारो [ २६७ कोस, अर्थ- जघन्य ताराओं का तिर्यग अन्तराल एक कोस का सातवाँ भाग प्रथवा मध्यम ताराओं का यही अन्तराल ५० योजन और उत्कृष्ट ताराग्रोंका तिर्यग अन्तराल एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है ।। ११२ ।। सेसाओ वण्णणाम्रो, पुष्य पुराणं हवंति सरिसाणि । एत्तो गुरुयइट्ठ पुर परिमाणं परूवेमो ॥ ११३ ॥ | एवं विष्णासं समत्तं ॥४॥ अर्थ- - इन ताराओंका शेष वर्णन पूर्व पुरोंके सदृश है । अब यहाँसे आगे गुरु द्वारा उपदिष्ट पुरों ( नगरों ) का प्रमाण कहते हैं ।। ११३ ॥ || इस प्रकार विन्यासका कथन समाप्त हुआ || ४ || - [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ] १. व. ब. क. ज. सम्मता । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v W ४. ग्रह شد चन्द्र सूर्य बुध शुक्र ५. गुरु मंगल शनि चित्रा पृ० से ऊंचाई | विस्तार ( मोटाई) योजनों मीलों में योजना में मीलों में चन्द्रादि ग्रहोंके अवस्थान, विस्तार, बाहुल्य एवं वाह्न देवोंका प्रमाण बाहुल्य (गहराई ) योजनों म ८६१ ३५६४००० १ कोस १००० मी. ३ को ० कुछ कम ८९४ ३५७६०००१ कोस ९०० | ३५२००००१६ यो० ३६७२६६ १६ यो० १८३६६ ४००० ४०००+ ८८० ८०० ३२००००० यो० ३१४७३३ २६ यो० | १५७३ | ४०००+ ४००० + | ४००० + ४००० = १६००० ८८८३५५२०००२ को ० ५०० मी० १ को ० ८९७ ३५८८००० को ० ५०० मी० को ० ८६४ नक्षत्र उ० तारा ९. म० तारा ७९० ज० तारा ५०० कुछ कम कुछ कम कुछ कम १००० मी. २ को ० ५०० ३६००००० ३ को० ५०० मी० को ० मीलों में ३५३६००० १ कोस | १००० मी० २००० १००० मी० १६०००० धनुष १५४०० मी० } ५०० घ. २५० मी० २५० २५० २५० वाहन देवोंका आकार और प्रमाण पूर्व दिशा में दक्षिण में | पश्चिम में उत्तर में सिंह हाथी बैल घोड़ ५०० योग ४००० + ४००० १६००० २०००+ २०००+ २००० + २००० = ८००० २०००+ २०००+ २०००+ २०००= ८००० २०००+ ०००+ २००० + २०००= २०००+ ०००+ २०००+ २०००= ८००० ८००० २०००+ १०००+ २०००+ २०००= ८००० १०००+ १०००+ १०००+ १००० ४००० ५००+ ५००+ ५००+ ५०० २००० २६८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ११३ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ११४-११७ 1 पंचमो महाहियारो चन्द्र प्रादि देयोंके नगरों प्रादिका प्रमाणणिय-णिय-रासि-पमारणं, 'एवाणं जं मयंक-पहुवीणं । णिय-णिय-णयर-पमाणं, तेत्तियमेत्तं च कूड-जिराभवणं ॥११४।। अर्थ-इन चन्द्र आदि देवोंको निज-निज राशिका जो प्रमाण है, उतना ही प्रमाण अपनेअपने नगरों, कूटों और जिन-भवनोंका है ।।११४।। विशेषार्थ ---गाथा ११ सं ३५ पर्यन्त चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारानों को निज-निज राशिका अलग-अलग जो प्रमाण कहा गया है, वहीं प्रमाण उनके नगरों, कूटों और जिनभवनोंका है। लोकविभागानुसार ज्योतिष-नगरोंका बाहल्य - जोइग्गण - यशेम, सम्मा माग सारिन्छ । बहलत्तं मण्णंते, लोयविभायस्स प्राइरियाए ॥११॥ पाठान्तरम् । ।। एवं परिमाणं समतं ।।५।। अर्थ:-'लोकविभाग' के आचार्य समस्त ज्योतिर्गरणोंको नगरिमों के विस्तार प्रमाण के सदृश ही उनके बाहल्यको भी मानते हैं ।।११५।। इसप्रकार परिमाणका कथन समाप्त हुआ ॥५ चन्द्र विमानोंकी संचार-भूमिचर-विबा मणुवाणं, खेत्ते तस्सि च जंबु-दीवम्मि । वोणि मियंका ताणं, एक्कं चिय होदि चारमही ॥११६॥ अर्थ-चर अर्थात् गमनशील ज्योतिष बिम्ब मनुष्य क्षेत्र में ही हैं, मनुष्य क्षेत्रके मध्य स्थित जम्बूद्वीपमें जो दो चन्द्र हैं उनकी संचार-भूमि एक ही है ।।११६।। पंच-सय-जोयणाणि, दसुत्तराई हवेवि "विक्वंभो । ससहर - चारमहीए, विरगयर - बिबाहिरितारिण ॥११७॥ । ५१० । । । १. द. र. क. ज. पाहावं । २. द. क, अ, जम्हयंक, च. जमयंक । ३. द. ब. क. ज. मोठ्ठा । ४. द.न.क. ज. विपश्यंभा । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] अर्थ – चन्द्रकी संचार भूमिका विस्तार योजनसे अधिक पाँच सौ दस ( ५१० ) अर्थात् ५१० तिलोयपण्णत्ती बोसून बेसर्याणि जंबूदीवे चरंति सीबकरा । रवि-मंडलाधियाणि तीसुत्तर-तिय-सयाणि लयणम्मि ॥ ११८ ॥ | १८० । ३३० । ६ । [ गाथा : ११८-१२१ सूर्य- बिम्बके विस्तारसे अतिरिक्त अर्थात् योजन प्रमाण है ।। ११७ ।। पाचन्द सौ तीस (३३०) योजन प्रमाण लवणसमुद्र में संचार करते हैं ।। ११८ ।। (१०) रोज जम्बूद्वीपमें और सूर्यमण्डल से अधिक तीन - विशेषार्थ - जम्बूद्वीप सम्बन्धी दोनों चन्द्रोंके संचार क्षेत्र का प्रमाण ५१०३ योजन प्रमाण है। इसमें से दोनों चन्द्र जम्बूद्वीपमें १८० योजन क्षेत्र में और अवशेष ( ५१०६ १८०० ) ३३०१६ योजन लवणसमुद्र में विचरण करते हैं । चन्द्र गलीके विस्तार श्रादिका प्रमाण पारस ससहराणं, बोहोओ होंति चारखेत्तम्मि । मंडल - सम- रुंदाओ, तदद्ध बहलाओ पत्तेक्कं ।।११६।। - । । । अर्थ – चन्द्र बिम्बोंके चार क्षेत्र ( ५१०६ यो० ) में पन्द्रह गलियाँ हैं । उनमें से प्रत्येक गलीका विस्तार चन्द्रमण्डलके बराबर योजन और बाहुल्य इससे आधा है ॥११॥ योजन ) - सुमेरु पर्वत से चन्द्र की अभ्यन्तर वीथीका अन्तर प्रमाणसट्ठि-जुदं तिसयाणि, मंदर-सं बं च अंबु- विक्वं । सोहिय बलिते लद्ध, चंबाबि महीहि-मंदरंतरयं ॥ १२० ॥ चउदाल सहस्साणि, वीसुत्तर- अड-सयाणि मंदरदो । गच्छिय सम्बम्भंतर वीही इंदूरण परिमाणं ।।१२१ ।। | ४४५२० । अर्थ- जम्बूद्वीप के विस्तारमेंसे तीन सौ साठ योजन और सुमेरुपर्वतका विस्तार कम करके शेषको आधा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना चन्द्रकी प्रथम ( श्रभ्यन्तर ) संचार पृथिवी ( वीथी ) से सुमेरुपर्वतका अन्तर हैं । ( अर्थात् ) सुमेरुपर्वतसे चवालीस हजार आठ सौ बीस (४४५२० ) योजन प्रमारण आगे जाकर चन्द्रकी सर्वाभ्यन्तर ( प्रथम ) वीथी प्राप्त होती है ।। १२०-१२१। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२२-१२४ ] पंचमी महाहियारो [ २७१ विशेषार्थ - जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन है। जम्बूद्वीप के दोनों पार्श्वभागों में चन्द्र के चार क्षेत्रका प्रमाण ( १८०x२ ) = ३६० योजन है और सुमेरुपर्वतका भू-विस्तार १०००० योजन है । अत: १००००० ३६०= ६६६४० योजन जम्बूद्वीपको प्रथम अभ्यन्तर ) वीथी में स्थित दोनों चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर है और इसमेंसे सुमेरुका भू-विस्तार घटाकर शेषको प्राधा करने पर (६६६४००००० - ४४८२० योजन सुमेरुसे अभ्यन्तर ( प्रथम ) वीथी में स्थित चन्द्रके अन्तरका प्रमाण प्राप्त होता है ॥ } चन्द्रकी प्रमाण एषक-सट्टीए गुरिंदा, पंच-सया जोयणारिण दस - जुत्ता । ते अडदाल - विमिस्सा, ध्रुवरासी णाभ चारमही ।। १२२ । अर्थ - पाँचसो दस योजनको इकसठसे गुणा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें वे अड़तालीस भाग और मिला देनेपर ध्रुवराशि नामक चारक्षेत्रका विस्तार होता है ।। १२२ ।। विशेषार्थ-चन्द्रोंके संचार क्षेत्रका नाम चारक्षेत्र है। जिसका प्रमाण ५१० योजन है । गाथामें इसी प्रसारण को समान छेद करने ( भिन्न तोड़ने ) पर जो राशि उत्पन्न हो उसे ध्रुवराशि स्वरूप धारक्षेत्र कहा है । यथा - ५१०४६१-३१११०, ३१११०+४६= ३११५८ अर्थात् यो ध्रुवराशि स्वरूप चारमही का प्रमाण है । गाथा १२३ में इन्हीं ३११५८ को ६१ से भाजितकर प्राप्त राशि ५१०३ को वराशि कहा है । एक्कत्तीस सहस्सा, अट्ठावण्णुत्तरं सर्द तह य । इगिसट्टीए भजिये, धुबरासि पमाणमुद्दिट्ठ ।। १२३ ।। ७१३५८ अर्थ --- इकतीस हजार एक सौ अट्ठावन ( ३११५८ ) में इकसठ (६१) का भाग देनेपर जो ( ५१० यो० ) लब्ध श्रावे उतना ध्रुव राशिका प्रमाण कहा गया है । चन्द्रकी सम्पूर्ण गलियोंके अन्तरालका प्रमाण पण्णरसेहि गुणिदं हिमकर-बिंब-प्यमाणमवणेज्जं । ध्रुवरासीदो सेसं विश्वालं सयल बीहोणं ॥ १२४ ॥ ३०,३१८ । 3031 - प्रथं-- चन्द्रबिम्बके प्रमाणको पन्द्रहसे गुणा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे ध्रुवराशिमें से कम कर देने पर जो अवशेष रहे वही सम्पूर्ण गलियोंका अन्तराल प्रमाण होता है ।। १२४ ।। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पणती [ गाथा : १२५-१२७ विशेषार्थ :- चन्द्रकी एक वीथीका विस्तार योजन है तो, १५ वोथियोंका विस्तार कितना होगा? इसप्रकार त्रैराशिक करनेपर (१५) -योजन गलियोंका विस्तार हुआ । इसे चार क्षेत्र विस्तार ५१०३६ यो० में से घटा देनेपर ( १५८ ) 03 योजन १५ गलियोंका अन्तराल प्रमाण प्राप्त होता है। 1= चन्द्रकी प्रत्येक वीथीका अन्तराल प्रमाण २७२ ] तं चोइस पवित्तं, हवेदि एक्केवक- कोहि विच्चालं । पणुतीस जोयणाणि, अविरेकं तस्स परिमाणं ।। १२५ ।। - श्रविरेकस्स पमाणं, चोट्स मदिरिच- बेण्णि-सदमंसा । सायीसम्भहिया, चत्तारि सया हवे हारो ॥ १२६ ॥ ३५ । ११४ । श्रथ :--इस ( ) में चौदहका भाग देनेपर एक-एक वीथी के अन्तरालका प्रमाण होता है । जो पैंतीस योजनों से अधिक है । इस अधिकताका जो प्रमाण है उसमें दो सौ चौदह (२१४) अंश और चार सौ सत्ताईस ( ४२७ ) भागहार है ।।१२५-१२६ ।। 3093 विशेषार्थ - चन्द्रमा की गलियाँ १५ हैं किन्तु १५ गलियों के अन्तर १४ ही होंगे, अतः सम्पूर्ण गलियोंके अन्तराल प्रमाण में १४ का भाग देनेपर प्रत्येक गलीके अन्तरालका प्रमाण ( 300 = १४ ) = ३५२१ योजन प्राप्त होता है । चन्द्रके प्रतिदिन गमन क्षेत्रका प्रमाण पढम पहादो चंदो, बाहिर-मग्गस्स गमण-कालम्मि । वीहि पडि मेलिज्जं विच्चालं बिंब संजुत्तं ॥ १२७ ॥ - ३६ । १३६ । अर्थ - चन्द्रोंके प्रथम वीथीसे द्वितीयादि बाह्य वीथियोंकी ओर जाते समय प्रत्येक वीथीके प्रति, बिम्ब संयुक्त अन्तराल मिलाना चाहिए ।। १२७ ।। विशेषार्थ -- चन्द्र की प्रत्येक गलीका विस्तार योजन है और प्रत्येक गलीका अन्तर प्रमाण ३५१ योजन है । इस अन्तरप्रमाण में गलीका विस्तार मिला देनेपर ( ३५३३ + ६ == ) ३६४६४ योजन प्राप्त होते हैं । चन्द्रको प्रतिदिन एक गली पारकर दूसरी गली में प्रवेश करने तक ३६४३६ मो० प्रमाण गमन करना पड़ता है । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७३ गाथा : १२८-१३१ ] - पंचमो महाहियारो द्वितीयादि वीथियोंमें स्थित चन्द्रोंका सुमेरु पर्वतसे अन्तरचउदाल-साहस्सा अड-सयाणि छप्पण्ण-जोयणा अहिया । उणसोदि-जद-सयंसा, बिदियद्ध-गदेंदु-मेरु - विच्चालं ॥१२॥ ४४८५६ । । अर्थ द्वितीय प्रध्व ( गली ) को प्राप्त हुए चन्द्रमाका मेरु पर्वतसे चवालीस हजार आठ सो छप्पन योजन और ( एक योजनके चारसौ सत्ताईस भागोंमेंसे ) एक सो उन्यासी भाग-प्रमाण अन्तर है ।।१२८॥ विशेषार्थ :- मेरु पर्वतसे चन्द्रकी प्रथम वीथीका अन्तर गाथा १२१ में ४४८२० योजन कहा गया है । उसमें चन्द्रकी प्रतिदिनको गति का प्रमाण जोड़ देनेपर सुमेरुसे द्वितीय वोथी स्थित चन्द्र का अन्तर { ४४८२० + ३६११) ४४८५६३३६ योजन प्रमाण है। यही प्रक्रिया मागे भी कही गई है। चउबाल-सहस्सा अड-सयाणि बाणदि जोयणा भामा । सरवणुपम प्रति माया. लगियह ग तुरंदर-पमाणं ॥१२६।। ४४८९२ । ३२६ । प्रर्थ -तृतीय गलीको प्राप्त हुए चन्द्र और मेरु-पर्वतके बीच में चवालीस हजार आठ सौ बानब योजन और तीन सौ अट्टावन भाग अधिक अन्तर-प्रमाण है ।।१२९।। यथा-४४८५६१११ यो० + ३६१३० यो०- ४४८६२११६ यो । चउदाल-सहस्सा णव-सयाणि उणतीस जोयणा भागा। वस-जुत्त-सयं विच्चं, चउत्थ-पह-गव-हिमंसु-मेलणं ॥१३०॥ ४४९२९।११। अर्थ-चतुर्थ पथको प्राप्त हुए चन्द्रमा और मेरुके मध्य चबालीस हजार नौ सौ उनतीस योजन और एक सौ दस भाग प्रमाण अधिक अन्तर है ।।१३० ।। ४४८९२३३६ + ३६४१-४४९२९४३० योजन । चउवाल-सहस्सा णव-सयाणि पण्णटि जोयरणा भागा। दोणि सया उणणउदी, पंचम-पाह-इंदु-मंदर-पमाणं ॥१३॥ ४४९६५ । ३६७। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] तिलोयपणरणत्तो [ गाथा : १३२-१३५ अर्थ-पंचम पथको प्राप्त चन्द्र का मेरु पर्वतसे चवालीस-हजार नौ सौ पैंसठ योजन और दो सौ नवासी भाग ( ४४९६५३४ यो० ) प्रमाण अन्तर है ॥१३१॥ ४४९२९१२+३६ -४४९६५२ यो० । पणाल-सहस्सा बे-जोयण-जुत्ता कलाओ इगिवालं । छट्ट-पह-टिव-हिमकर-चामीयर - सेल - विच्चालं ॥१३२॥ ___ ४५००२ । ३.1 प्रथं-छठे पथम स्थित चन्द्र और मेरु पर्वतकं मध्य पंतालीस हजार दो योजन और इकतालीस कला ( ४५००२४३४ यो०) प्रमाण अन्तर है ।।१३२॥ ४४९६५३६३ + ३६१ ४५००२४३५ यो० । पणदाल-सहस्सा जोयणाणि अडतीस दु-सय-वीसंसा । सत्तम-वोहि-गदं सिद - मयूख - मेरूरण विच्चालं ॥१३३॥ ४५०३८ । ३३ । प्रयं-सातवीं गली को प्राप्त चन्द्र और मेकके मध्य पैंतालीस हजार अड़तीस योजन । और दो सौ बीस भाग-( ४५०३८४ यो०) प्रमाण अन्तर है ।।१३३।। ४५००२३६३= ४५०३८१३० यो० । पणवाल-सहस्सा चउहत्तरि-अहिया कलाप्रो तिण्णि-सया। णवणववो विच्चालं, अटुम - वोही - गदिदु - मेरुणं ॥१३४॥ ४५०७४ । ३ । प्रर्थ-आठवीं गलीको प्राप्त चन्द्र और मेरुके बीच पैंतालीस-हजार चौहत्तर योजन और तीन सौ निन्यानबे कला ( ४५०७४३६६ यो०) प्रमाण अन्तर है ।।१३४॥ ४५०३८३३+३६१३-४५०७४३॥ यो । पणवाल-सहस्सा सयमेक्कारस-जोयणाणि कलाण सयं । इगिवण्णा विच्चालं, गथम - पहे चंद - मेरूणं ॥१३५।। ४५१११ । १११। अर्थ-नौवें पथमें चन्द्र और मेरुके मध्य में पैंतालीस हजार एक सौ ग्यारह योजन और एक सौ इक्यावन कला ( ४५११११५३ यो०) प्रमाण अन्तराल है ।।१३।। ४५०७४३ + ३६१३१=४५१११३३१ यो । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३६पंचमो महाहियारो [ २७५ पणवाल-सहस्सा सय, सत्तत्तालं कलाण तिणि सया। तीस - जुदा बसम-पहे, विच्चं हिमकिरण - मेरूणं ॥१३६।। ४५१४७ । ३३ । अर्थ-दसवें पथमें स्थित चन्द्र और मेरुका अन्तराल पैंतालीस हजार एक सौ संतालोस योजन और तीन सौ तीस कला ( ४५१४७३१० यो० ) प्रमाण है ।।१३६॥ ४५१११:23 + ३६३६-४५१४७१३४ यो० । पणदाल-सहस्साणि, चुलसीदो जोयमाणि एक्क-सपं । बासीदि-कला विच्चं, एक्करस - पहम्मि एदारणं ॥१३७॥ ४५१८४ । १७ । प्रर्ष-ग्यारहवें पथमें इन दोनोंका अन्तर पैंतालीस हजार एक सौ चौरासी योजन मौर बयासी कला ( ४५१८४१२२ यो०) प्रमाण है ॥१३७।। ४५१४७१३४+३६१४५१८४४७ यो । पणदाल-सहस्साणि, वीसुत्तर-दो-सयाणि जोयगया। इगिसद्वि-पु-सय-भागा, बारसम - पहम्मि तं विच्चं ॥१३॥ ४५२२० । १३१ अर्थ - बारहवें पथमें वह अन्तराल पंतालीस हजार दो सौ बीरा योजन और दो सौ इकसठ भाग (४५२२०२१७ यो०) प्रमाण है ।।१३८।। ४५१८४४३+३६ -- ४५२२०३३७ यो । पणदाल-सहस्साणि, दोगिण सया जोयरपाणि सगवण्णा । तेरस • कलाओ तेरस - पहम्मि एदाण विच्चालं ॥१३६।। ४५२५७ । । प्रयं-तेरहवें पथमें इन दोनोंका अन्तराल पंतालीस हजार दो सौ सत्तावन योजन और तेरह कला ( ४५२५७१ यो० ) प्रमाण है ।।१३९॥ ४५२२०१३+३६१ -४५२५७६५० यो० । पणदाल-सहस्सा बे, सयाणि ते-उदि जोयणा अहिया। अट्ठोरण-दु-सय-भागा, चोद्दसम - पहम्मि तं विच्चं ॥१४०।। ४५२९३ । ११२३ अर्थ- चौदहवें पथमें वह अन्तराल पैंतालीस हजार दो सौ तेरानबे योजन और आठ कम दो सौ भाग अधिक अर्थात् ( ४५२९३१६३ यो० ) है ।। ४५२५७१३+३६४१-४५२६३३६ यो । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] तिलायपष्णता [ गाथा । १४१-१४४ पणवाल-सहस्साणि, तिम्णि सया जोयणाणि उणतीसं । इगिहत्तरि-ति-सय-कला, पण्णरस-पहम्मि तं विच्चं ॥१४॥ ४५३२९ । । । मर्थ-पन्द्रहवें पथमें वह अन्तराल पैंतालीस हजार तीन सौ उनतीस योजन और तीन सौ इकहत्तर कला ( ४५३२९४७ यो०) प्रमाण है ।।१४१।। विशेषार्थ-- ४५२९३१६३+ ३६४१=४५३२९३३३ योजन । यह ४५३२९॥ योजन ( १८१३१९४७५३५ मील ) मेरु पर्वतसे बाह्य वीथी में स्थित चन्द्र का अन्तर है। बाहिर-पहादु ससिणो, प्रादिम-बोहोए प्रागमण-काले । पुथ्वप-मेलिद-खेदं, 'फेलसु जा चोइसादि-पढ़म-पहं ॥१४२॥ अर्थ-बाह्य ( पन्द्रहवें ) पयसे चन्द्रके प्रथम वीथीकी और प्रागमनकालमें पहिले मिलाए हुए क्षेत्र ( ३६९३७ यो० ) को उत्तरोत्तर कम करते जानेसे चौदहवीं गलीको आदि लेकर प्रथम गलो तकका अन्तराल प्रमाण आता है ।।१४२।। प्रथम वीथीमें स्थित दोनों चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तरसाद जवं ति-सयाणि, सोहेज्जसु जंबुदीव-वासम्मि । जं सेसं प्राबाहं, अभंतर • मंडलेंदूणं ॥१४३।। णषणद-सहस्साणि, छस्सय-चालीस-जोयणाणि पि । चंबाणं विच्चाल. अभंतर - मंडल - ठिवाणं ॥१४४।। ___ ९९६४० । अर्ष-जम्बूद्वीपके विस्तार से तीन सौ साठ योजन कम कर देनेपर जो शेष रहे उतना अभ्यन्तर मण्डलमें स्थित दोनों चन्द्रोंके आबाधा अर्थात् अन्तरालका प्रमाण है। अर्थात् अभ्यन्तर मण्डल में स्थित दोनों चन्द्रोंका अन्तराल निन्यानबे हजार छह सौ चालीस ( ९९६४० ) योजन प्रमाण है ।।१४३-१४४॥ विशेषार्थ जम्बूद्वीपका व्यास एक लाख योजन है। जम्बूद्वीपके दोनों पार्श्वभागों में चन्द्रमाके चार क्षेत्रका प्रमाण ( १८०४२ )=३६० योजन है । इसे जम्बूद्वीपके व्यासमेंसे घटा देने पर (१०००००-३६० = ) ९९६४० योजन शेष बचते हैं । यही ९९६४० योजन प्रथम वीथीमें स्थित दोनों चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर है । १. द. फेलमु। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । १४५ - १४८ 1 पंचमो माहिया चन्द्रोंकी अन्तराल वृद्धिका प्रमाण ससहर पह-सूचि-बड्डी, बोहिं गुणिवाए होविजं लय । सा आबाधा घड़ी, पडिमग्गं चंद चंदारणं ॥ १४५ ॥ - - - ३५८ ७२ । १६ । अर्थ - चन्द्रकी पथ- सूचो वृद्धिका जो ( ३६३ यो० ) प्रमाण है, उसे दो से गुणा करने पर जो ( ३६३३६ x २ = ७२१३९ यो० ) लब्ध प्राप्त हो उतना प्रत्येक गली में दोनों चन्द्रोंके परस्पर एक दूसरे के बीच में रहने वाले अन्तरालकी वृद्धिका प्रमाण होता है ।। १४५ ।। प्रत्येक पथमें दोनों चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर बारस-जुद सत्त-सया, गवणउदि सहस्स जोयणाणं पि । श्रवण्णा ति-सय-कला, बिदिय पहे चंद चंदस्स || १४६ ॥ - - - ९९७१२ । ३६ । अर्थ - द्वितीय पथ में एक चन्द्र से दूसरे चन्द्रका अन्तराल निन्यानवे हजार सात सौ बारह योजन और तीन सौ अट्ठावन कला (९९७१२३ यो० ) प्रमाण है || १४६ ॥ [ २७७ विशेषार्य - गाथा १४३ में प्रथम बीथो स्थित दोनों चन्द्रोंके अन्तरका प्रमाण १९६४० योजन कहा गया है। इसमें अन्तरालवृद्धिका ( ७२१ यो० ) प्रमाण जोड़ देनेपर द्वितीय वीथी स्थित दोनों चन्द्रोंका अन्तराल प्रमाण ( ६६६४०+७२३३६ ) ९९७१२ योजन प्राप्त होता है । अन्य वीथियोंका अन्तराल भी इसी प्रकार निकाला गया है । वरणउदि सहस्साणि, सत्त-सया जोयणाणि पणसीबी । उणणउदी दुसय कला, तबिए विच्चं सिहंसूणं ॥ १४७ ॥ ९९७८५ । १२७ । अर्थ - तृतीय पथमें चन्द्रोंका ( पारस्परिक ) अन्तराल निन्यानबे हजार सात सौ पचासी योजन और दो सौ बीस कला ( ९९७८५ यो० ) प्रमाण है ।। १४७ ।। ९९७१२ + ७२० ९९७८५३ यो० । नवणउवि सहसारिंग, श्रटु-सया जोयणाणि अडवण्णा । वीसुतर- दु-सय-कला, ससीण विष्वं तुरिम ममगे ॥ १४८ ॥ ९९६५८ | २३ | Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] तिलोयपणती [ गाथा : १४९-१५२ मर्य-चतुर्थ मार्गमें चन्द्रोंका अन्तराल निन्यानबे हजार आठ सौ अट्ठावन योजन और दो सौ बीस कला ( ९९८५८१३॥ यो० ) प्रमाण है ।।१४८॥ ___६६७८५३ +९१२३१४ =९९८५८१३. यो । णवणउवि-सहस्सा-णव-सयाणि इगितीस जोयणाणं पि । इगि-सद इगि-वण्ण-कला, विच्चालं पंचम - पहम्मि ।।१४।। ९९९३१ 1 १७४। प्रथ-पांचवें पथमें चन्द्रोंका अन्तराल निन्यानबे हजार नौ सौ इकतीस योजन और एक सौ इक्यावन कला ( ९९९३१:२३ यो० ) प्रमाण है ।।१४९।। ६९८५८३३७+७२%=६६६३१११ यो । एक्कं जोयण-लक्खं, चउ-अन्भहियं हवेदि सविसेसं । बासीवि - कला - छ?, पहम्मि चंदाण विच्चालं ॥१५॥ अर्थ-छठे पथमें चन्द्रोंका अन्तराल एक लाख चार योजन और बयासी कला ( १००००४४३५ यो० ) प्रमाण है ।।१०।। ९९९३१४३१ + ७२१९६६६३११११ यो । सत्तत्तरि-संजुत्तं, जोयण - लक्खं च तेरस कलाओ। सतम - मग्गे दोण्हं, तुसारकिरणाण विच्चालं ॥१५॥ १०००७७४। अर्थ-सात मार्ग में दोनों चन्द्रोंका अन्तराल एक लाख सतत्तर योजन और तेरह कला ( १०००७७४१ यो०) प्रमाण है ॥१५१॥ १००००४१+७२३५६ - १००७७७४६ यो० । उणवण्ण-अबेक्क-सयं, जोयरण-लक्खं कलाओ सिण्णि-सया । एक्कत्तरी ससीणं, अट्ठम - मग्गम्मि विच्चालं ॥१५२॥ १०.१४९ । ३५. अर्थ-आठवें मार्गमें चन्द्रोंका अन्तराल एक लाख एक सौ उनन्चास योजन और तीन सौ इकहत्तर कला ( १००१४९३३३ यो० ) प्रमाण है ॥१५२॥ १०००७७१३+७२३५४८- १०० १४६३ यो० । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 787 / 223-220) महारा एक्कं जोयण- लक्खं, बावीस-जुदाणि योष्णि य सर्वाणि । दो - उत्तर-ति-सय- कला, नवम पहे ताण विद्यालं ॥ १५३॥ - १००२२२ । १३३ । अर्थ – नौवें मार्गमें उन चन्द्रोंका अन्तराल एक लाख दो सौ बाईस योजन और तीन सौ दो कला ( १००२२२१२३ यो० ) प्रमाण है ।। १५३ ॥ १००१४९१३७ + ७२३ - १००२२२३ यो० 1 एक्कं जोयण - लक्खं, पणणउदि जुदाणि दोषि य सयाणि । बे- सय तेत्तीस कला, विश्वं वसमम्मि इंद्रणं ॥ १५४ ॥ १००२६५ । १३३ । अर्थ -- दसवें पथमें चन्द्रोंका अन्तराल एक लाख दो सौ पंचानबे योजन और दो सौं तैंतीस कला ( १००२९५३३४ यो० ) प्रमाण है ।। १५४ ।। - १००२२२१३३ + ७२३ - १००२६५४३३ यो० है । एक्कं जोयण- लक्खं अट्ठा-सट्टी जुदा य तिष्णि सया । चउ-सडि सय कलाश्रो, एक्करस-पहम्मि तं विच्चं ॥ १५५ ॥ १०००३६८ । ६४ । अर्थ- ग्यारहवें मार्ग में यह अन्तराल एक लाख तीन सौ अड़सठ योजन और एक सौ चौसठ कला – ( १००३६८१३ यो० ) प्रमाण है || १००२९५३३३+७२३३७ = १००३६८१३ यो । एक्के लक्खं च सय, इगिदाला जोयणाणि श्रविरेगे । पण उदि कला मग्गे, बारसमे अंतरं ताणं ॥ १५६ ॥ - १००४४१ । ४२७ । अर्थ- बारहवें मार्ग में उन चन्द्रोंका अन्तर एक लाख चार सौ इकतालीस योजन पंचानवे कला ( १००४४१ यो० ) प्रमाण है ।। १५६ ।। १००३६८१३७ + ७२३ - १००४४१४यो । - उवस- जुव-पंच-समा, जोयरा- लक्खं कलाओ छब्बीसं । तेरस पहम्मि दोहं विच्चालं सिसिरकिरणाणं ॥ १५७ ॥ १००५१४ । ४८२२७ । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] तिसोयपण्णत्ती [ गाथा ! १५५-१६१ पर्य-तेरहवें पथमें दोनों चन्द्रोंका अन्तराल एक लाख पांच सौ चौदह योजन और छब्बीस कला ( १००५१४१ यो० ) प्रमाण है ॥१५७।। ___१००४४११३+७२३१ - १००५१४१३ यो० । लक्खं पंच-सयाणि, 'छासीदी जोयणा कला ति-सया । चउसीदी चोद्दसमे, पहम्मि विच सिवकराण ॥१५॥ १००५८६ । । अर्ष-चौदहवें पथमें चन्द्रोंका अन्तराल एक लाख पाँच सौ छयासी योजन और तोन सो चौरासी कला ( १००५८६३३ यो०) प्रमाण है ।।१५८।। १००५१४४ + ७२६५६ = १००५८६४६४ यो० । लक्खं छच्च सयारिंग, उणसट्ठी जोयणा कला ति-सया । पण्णरस - जुदा मग्गे, पण्णरसं अंतरं ताणं ।।१५।। १००६५९ । । अर्थ --पन्द्रहवें मार्गमें उनका अन्सर एक लाख छह सौ उनसठ योजन और तीन सौ पन्द्रह कला ( १००६५९३३३ यो० ) प्रमाण है ।।१५९।। १००५८६३+७२१५१-१००६५९.१५ यो० । बाहिर-पहादु-ससिणो, आदिम-मग्गम्मि आगमण-काले। पुग्यप-मेलिद-खेत्तं, सोहसु जा चोद्दसादि-पढम-पहं ॥१६॥ मर्थ-चन्द्रके बाह्य पथसे प्रथम पथकी मोर पाते समय पूर्व में मिलाए हुए क्षेत्रको उत्तरोतर कम करने पर चौदहवें पथसे प्रथम पथ तक दोनों चन्द्रोंका अन्तराल प्रमाण होता है ।।१६०।। चन्द्रपथकी अभ्यन्तर वीथीकी परिधिका प्रमाणतिय-जोयण-लक्खाणि, पण्णरस-सहस्सयाणि उणणउदी। अभंतर - वोहीए, परिरय - रासिस्स परिसंखा ॥१६१॥ H अर्थ-अभ्यन्तर वीथीके परिरय अर्थात् परिधिकी राशिका प्रमाण तीन लाख पन्द्रह हजार नवासी ( ३१५०८९ ) योजन है ।।१६१॥ १.द. उणसट्री। २.द.ब.क. अ. सीदकराणं । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १६२-१६५ ] पंचमी महाहियारो [ २८१ विशेषार्थ :- गाथा १२१ में मेरु पर्वतसे चन्द्रकी अभ्यन्तर दीथीका जो अन्तर प्रमाण ४४६२० योजन कहा गया है वह एक पार्श्वभागका है। दोनों पार्श्वभागका अन्तर अर्थात् चन्द्रकी अभ्यन्तर बीथीका व्यास और सुमेरुका पूल विस्तार [ ४४००२ ) + १०००० ] = Ec६४० योजन है । इसकी परिधिका प्रमाण ९९६४० x १०= ३१५०७६ योजन प्राप्त हुआ । जो शेष बचे ये छोड़ दिये गये हैं । I परिधि के प्रक्षेपका प्रमाण ---- साणं वीहीणं, परिही परिमाण जाणण- णिमित्तं' । परिहि खेवं भणिमो, गुरूवदेसानुसारेणं ॥ १६२॥ अर्थ :- शेष वीथियोंके परिधि प्रमाणको जानने के लिए गुरुके उपदेशानुसार परिधिका प्रक्षेप कहते हैं ।। १६२।। चंद पह सूइ बड्ढी - दुगुरणं काढूण वग्गणं च । · - दस - गुणिदे अंमूलं, 'परिहि खेथो स गादी ।। १६३।। ७२ । १५६ ।। प्र-चन्द्रपथों की सूची - वृद्धिको दुगुना करके उसका वर्ग करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसे दससे गुणा करके वर्गमूल निकालनेपर प्राप्त राशिके प्रमाण परिधिप्रक्षेप चाहिए ।।१६३ ।। जानना सयमंता । अन्भहिया ॥ १६४ ॥ तीसुतर-बे-सय- जोधणाणि तेदाल जुत्त हारो चचारि सया, सत्तावीसेहि २३० । ३ । पर्थ - प्रक्षेपकका प्रमारण दो सौ तीस योजन और एक योजनके चार सौ सत्ताईस भागों में से एक सौ तैंतालीस भाग अधिक ( २३०४४३ यो० ) है ।। १६४ ।। = २३३२ यो० बचे जो छोड़ विशेषार्थ- चन्द्रपथ सूची- वृद्धि के प्रमाण का दूना ( ३६२५६ × २ ) होता है, ग्रतः (२) २ x १०१०३५३ योजन प्राप्त हुए और ५३४३१ अवशेष दिए गये हैं । इसप्रकार 43 - २३०१४३ योजन परिधि प्रक्षेप का प्रमाण प्राप्त हुआ । चन्द्रको द्वितीय आदि पथोंकी परिधियोंका प्रमाणतिय-जोयण- लक्खाणि, पण्णणरस - सहस्स-ति-सय- उणवीसा । तेदाल जुद सयंसा, बिदिय पहे परिहि परिमाणं ॥ १६५ ॥ ३१५३१९ । ¥¥३ । १. ६. ब. गमितं । २. द. न. परिह्निक्खेदं । ३. द. ब. क. ज. परिक्खेद्यो । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ) ___ तिलोयपणती [ गाथा : १६६ - १६९ अयं-द्वितीय पथमें परिधिक प्रमाण तीन लाख मह हमार सन जो उन्नीस योजन और एक सो तैतालीस भाग ( ३१५३१९३४. यो० ) प्रमाण है ।।१६५।। विशेषार्थ-गाथा १६१ में प्रथम पथ की परिधिका प्रमाण ३१५०८६ योजन कहा गया है। इसमें परिधि प्रक्षेपका प्रमाण मिला देनेपर ( ३१५०८५+२३०६३) = ३१५३१९१४. यो० द्वितीय पथको परिधिका प्रमाण होता है । यही प्रक्रिया सर्वत्र जाननी चाहिए। उरणवण्णा पंच-सया, पण्णरस-सहस्स जोयण-ति-लक्सा। छासोदो दुसय-कला, सा परिही तदिय - धीहीए ॥१६॥ ३१५५४९ । ३६६। अर्थ--तृतीय वीथीको वह परिधि तीन लाख पन्द्रह हजार पाँच मी उनचास योजन और दो सौ छयासी भाग-प्रमाण है ।।१६६।। ३१५३१६१३३ + २३०१ =३१५५४५४६१ यो है। सोदी सत्त-सयाणि, पण्णरस-सहस्स जोयण-ति-लक्खा । दोहि कलाप्रो परिही, चंबस्स चउत्थ - वीहीए ॥१६७॥ ३१५७८० । ४३७ । प्रयं- चन्द्रकी चतुर्थ वीथीकी परिधि तीन लाख पन्द्रह हजार सात सौ अस्सी योजन और दो कला है ।।१६७॥ ३१५५४९१६६ २३०१५ : १५७८०.३.. यो० । तिय-जोयण-लक्खाणि, बहुत्तरा तह य सोलस-सहस्सा। पणदाल - जुद - सयंसा, सा परिही पंचम - पहम्मि ॥१६॥ ३१६०१० । १४॥ प्रर्ष-पांचवें पथमें वह परिधि तीन लाख सोलह हजार दस योजन और एक सौ पैतालीस भाग है ॥१६८।। ३१५७८०४३+२३०१७३३१६०१०१६ यो० । चालीस दु-सय सोलस-सहस्स तिय-लक्ख जोयणा अंसा । अट्ठासीदी दु - सया, छ? - पहे होदि सा परिही ।।१६६।। ३१६२४० । ३६६। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७०-१७३ ] पंचमो महाहियारो [ २८३ पर्थ - छठे पथमें वह परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ चालीस योजन और दो सौ अठासी भाग प्रमाण है ।। १६९ ।। ३१६०१०१३६ + २३०१३ ३१६२४०१ यो० । सोलस- सहस्स चउ सय, एक्कत्तरि-हिय जोयरण ति लक्खा । चत्तारि कला सप्तम पहम्मि परिही मयंकस्स ॥ १७० ॥ ३१६४७१ | ४३० । धर्म –चन्द्र के सातवें पथ में वह परिधि तीन लाख सोलह हजार चार सौ इकहत्तर योजन और चार कला अधिक है || १७० ॥ ३१६२४०३६६+२३०१७ - ३१६४७१४३ यो० । सोलस - सहस्स सग-सय, एक्कम्भहिया य जोयण-ति- लक्खा । वनं लगता, भागा श्रम पहे परिही ।। १७१३ M ३१६७०१ | ३७ श्रथ - नाठवें पथमें उस परिधिका प्रमाण तीन लाख सोलह हजार सात सौ एक योजन और एक सौ सैंतालीस भाग अधिक है ।। १७१ ॥ ३१६४७१४३+२३०१३३३१६७०१४३७ यो० । सोलस - सहस्स - जव-सय-एक्कत्तोसादिरित-तिय-लक्खा । उबी- जुव-दु-सय- कला, ससिस्स परिही णवम - मग्गे ॥ १७२ ॥ ३१६९३१ | ु । अर्थ - चन्द्रके नौवें मार्ग में वह परिधि तीन लाख सोलह हजार नौ सौ इकतीस योजन और दो सौ नब्बे कला प्रमाण है ।। १७२ ।। ३१६७० ११३७ + २३०४३२ = ३१६९३१ यो० । बासट्टि - जुप्त - इगि-सय-' सत्त रस - सहस्स जोयरण ति लक्खा । छ aिय कलाओ परिही, हिमंसुणो वसम बोहोए ॥ १७३ ॥ ३१७१६२ । १७ । १. ब. क. द. सत्तर - Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-४ | तिलोमपणती [ गाथा १७४ - १७७ अर्थ – चन्द्रकी दसवीं वीथीकी परिधि तोन लाख सत्तरह हजार एक सौ बासठ योजन और छह कला प्रमाण है ।। १७३ ।। ३१६९३१३३७+२३०४३३ - ३१७१६२४१७ गो० । तिय-जोधरण - लक्खाणि, सत्तरस' - सहस्स-ति-सय-बाणउदी । उगवण - जब सबसा, परिही एक्कारस पम्म ।।१७४।। ३१७३९२ । १३६ । प्रथ- ग्यारहवें पथ में वह परिधि तीन लाख सत्तर हजार तीन सौ बानबं योजन और एक सौ उनंचास भाग प्रमारा है || १७४ | | ३१७१६२४ + २३०४३ = ३१७३९२१ यो० । बावीसुतर- छस्सय सत्तरस सहस्स - जोय रण-ति-लक्खा । अट्ठोणिय-सि-सय-कला बारसम पहम्मि सा परिही ॥ १७५ ॥ - ३१७६२२ । ३÷३ । अर्थ --- बारहवें पथ में यह परिधि तीन लाख सत्तरह हजार छह सौ बाईस योजन और आठ कम तीन सो अर्थात् दो सो बानवे कला प्रमाण है ।। १७५ ।। ३१७३९२४+२३०१-३१७६२२३३ यो० । · तेवष्णु सर- अज-सय-सत्तरस सहस्त- जोय रण-ति-लक्खा । - कलाओ परिही, तेरसम · और आठ कला प्रमाण है ।।१७६ ।। पहम्मि सिद रुचिणो ॥ १७६ ॥ ■ ३१७८५३ | ४२७ । अर्थ - चन्द्र के तेरहवें पथमें वह परिधि तीन लाख सत्तरह हजार आठ सौ तिरेपन योजन ३१७६२२१३३+२३०३ - ३१७८५३४ यो० । तिय-जोयण - लक्खाणि, अट्टरस-सहस्सयाणि तेसीवी । इगिवण्ण-खुद सयंसा, चोहसम पहे इमा परिही ।।१७७॥ ३१८०८३ | 733 / १. द. अ. क्र. ज. सत्तर २. द. नं. सत्तर । ३. द. व. सत्तर i Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा : १७८-१८१ ] पंचमो महाहियारो [ २८५ अर्थ-चौदहवें पथमें वह परिधि तीन लाख अठारह हजार तेरासी योजन और एक सौ इक्यावन भाग प्रमाण है ।।१७७॥ ३१७८५३४४ + २३० =३१८०८३१५७ यो । तिय-जोयण-लक्खाणि, अट्टरस-सहस्स-ति-सय-तेरसया । बे-सय-च उणादि-कला, बाहिर - मग्गम्मि सा परिहो।।१७८।। २१८३१३ । ३६४। मर्प-बाह्य ( पन्द्रहवें ) मार्ग में वह परिधि तीन लाख अठारह हजार तीन सौ तेरह योजन और दो सौ चौरानबे कला प्रमाण है ।।१७८।। ३१८०८३१४ + २३०१४-३१८३१३३६४ यो । समानकालमें असमान पारधियोंके परिभ्रमण कर सकनेका कारण चंचपुरा सिग्धगदी, जिग्गच्छता हवंति पविसंता । मंदगदी असमाणा, परिहोमो भमंति सरिस-कालेणं ॥१७६ ।। प्र-चन्द्र विमान बाहर निकलते हुए ( बाह्यमार्गोकी ओर जाते समय ) शीन-गतिवाले और ( अभ्यन्तर मार्गको प्रोर ) प्रवेश करते हुए मन्दगतिवाले होते हैं, इसलिए वे समान काल में ही असमान परिधियोंका भ्रमण करते हैं ।।१७।। चन्द्रके गगनखण्ड एवं उनका अतिक्रमण-कालएक्कं चेव य लक्खं, गवय सहस्सारिण अड-सयाणं पि । परिहीणं हिमंसुणो, ते कादम्बा गयणलंडा ॥१८०॥ ।१०९८०० । अर्थ-उन परिधियोंमें दो चन्द्रोंके कुल गगनखण्ड एक लाख नौ हजार आठ सौ (१०९८०० ) प्रमाण हैं ॥१०॥ चन्द्र के बीथी-परिभ्रमणका कालगच्छदि 'मुहृत्तमेक्के, अडसष्टि-जुल-सत्तरस-सयाणि । णभ-खंडाणि ससिगो, तम्मि हिवे सव्य-ायण-खंडाणि ॥११॥ १७६८। १. ब. मुहत्तमेतमेक्के । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १८२-१८५ बासहि - मुहत्तागि, भागा लेबोस तस्स हाराई। इगियीसाहिय बिसवं, लद्धं तं गयण - खंडावो ॥१२॥ मर्थ-चन्द्र एक मुहूर्तमें एक हजार सात सौ अड़सठ गगनखण्डों पर जाता है। इसलिए इस राशिका समस्त गगनखण्डोंमें भाग देने पर उन गगनखण्डोंको पार करने का प्रमाण बासठ मुहूर्त और तेईस भाग प्राप्त होता है । इस तेईस अंशका भागहार दो सौ इक्कीस है ।।१५१-१५२।। विशेषार्थ :- एक परिधि को दो चन्द्र पूरा करते हैं। दोनों चन्द्र सम्बन्धी सम्पूर्ण गगनखण्ड १०९८०० हैं। दोनों चन्द्र एक मुहूर्त में १७६८ गगनखण्डों पर भ्रमण करते हैं, अतः १०९८०० गगनखण्डोंका भ्रमणकाल प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण गगनखण्डोंमें १७६८ का भाग देनेपर ( १०९८००: १७६८ )=६२ मुहूर्त प्राप्त होते हैं। चन्द्रके वीथी-परिभ्रमणका कालअभंतर-वीहीदो, बाहिर-पेरंत दोभिण ससि-बिवा । कमसो परिम्भमंते, बासटि • मुहत्तएहि अहिएहि ॥१८॥ अविरेयस्स पमाणं, अंसा तेवीसया मुहत्तस्स । हारो दोणि सयाणि, जुत्ताणि एक्कवीसेरगं ॥१८४॥ प्रयं-दोनों चन्द्रबिम्ब क्रमशः अभ्यन्तर वीथीसे बाह्य-वीथी पर्यन्त बासठ मुहूर्तसे कुछ अधिक कालमें परिभ्रमण (पूरा) करते हैं । इस अधिकता का प्रमाण एक मुहूर्त के तेईस भाग प्रौन दो सौ इक्कीस हार रूप अर्थात् " मुहूर्त हैं ।। १८३-१८४॥ प्रत्येक थीथी में चन्द्रके एक मुहूर्त-परिमित गमनक्षेत्रका प्रमाणसम्मेलिय बाहि, इच्छिय - परिहीए भागमवहरिवं। तस्सि तस्सि ससिणो, एक्क - मुहत्तम्भि गदिमाएं ॥१५॥ ___ १३१५ । ३१५०८९ । १। अर्थ-समच्छेदरूपसे बासठको मिलाकर उसका इच्छित परिधिमें भाग देनेपर उस-उस वीथीमें चन्द्रका एक मुहूर्त में गमन प्रमाण भाता है ।।१८५॥ १. ६. व. २२/२३ । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा । १६६-१८५८ ] पंचमी महाहियारो [ २८७ विशेषार्थ - ६२६३ मुहूर्तों को समच्छेद विधानसे मिलाने पर अर्थात् भिन्न तोड़नेपर '३३३" मुहूतं होते हैं । इसका चन्द्रको प्रथम वीथीकी परिधिके प्रमाण में भाग देनेपर 4 ( 399946 : 13674 ) = ५०७३६९७५ योजन अर्थात् २०२९४२५६४६४६ मील प्राप्त होते हैं । 1 3 चन्द्रका यह गमन क्षेत्र एक मुहूर्त अर्थात् ४५ मिनिट का है ! इसो गमन क्षेत्र में ४५ का भाग देने से चन्द्र का एक मिनिट का गमन क्षेत्र (२०२९४२५६९ - ४८) - ४२२७९७६ मील होता है । अर्थात् प्रथम मार्ग में स्थित चन्द्र एक मिनिट में ४२२७९७१ मील गमन करता है । पंच सहस्सं अहिया, तेहत्तरि-जोयणाणि तिय-कोसा । लद्ध" मुहुत्त गमणं, पढम पहे सोदरिणस्स ||१८६॥ ५०७३ । को ३ । अर्थ - प्रथम पथमें चन्द्रके एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट ) के गमन क्षेत्रका प्रमाण पाँच हजार तिहत्तर योजन और तीन कोस प्राप्त होता है !! - विशेषार्थ-चन्द्रका प्रथम वीथीका गमनक्षेत्र गाथामें जो ५०७३ यो० और ३ कोस कहा गया है । वह स्थूलता से कहा है । यथार्थ में इसका प्रमाण [ 21066 ] ५०७३ योजन, २ कोस, ५१३ धनुष, ३ हाथ और कुछ अधिक ५ अंगुल है । I सत्तत्तरि सविसेसा, पंच सहस्सारिण जोयणा कोसा । - लख मुहुत्त गमणं, चंबल्स दुइज्ज वीहीए ।।१८७।। ५०७७ १ को १ । - अर्थ - द्वितीय वीथी में चन्द्रका मुहूर्त काल-परिमित गमनक्षेत्र पाँच हजार सतत्तर (५०७७ ) योजन और एक कोस प्राप्त होता है ।। १६७॥ १. ६. ज. अद्ध विशेषार्थ - द्वितीय वीथी में चन्द्रका एक मुहूर्त का गमनक्षेत्र [ ३१५३१९१३३३३५ ] ५०७७ योजन, १ कोस, १८४ धनुष, २ हाथ और कुछ कम १३ अंगुल प्रमाण हैं । जोयण-पंच सहस्सा, सोदी- जुत्ता य तिणि कोलाणि । लद्ध मुहुत्त गमणं, चंदस्स तहज्ज बोहोए ।। १६८ ।। ५०८० | को ३ । - तृतीय वीथी में चन्द्रका मुहूर्त-परिमित गमनक्षेत्र पाँच हजार अस्सी (५०८० ) योजन और तीन कोस प्रमाण प्राप्त होता है ||१८८|| - - Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलीयपष्पत्ती [ गाथा : १८९-१९२ विशेषार्थ - तृतीय पयमें चन्द्रका एक मुहूर्तका गमन क्षेत्र [ ३१५५४९१६६ = २३६३५ ] ५०८० योजन, ३ कोस, १८५४ धनुष, ३ हाथ और कुछ अधिक १० अंगुल प्रमाण है ।। पंच-सहस्सा जोरण, चुलसीदी तह दुवेहिया-कोसा 1 लद्ध मुहुत गमर्थ, पंवस कथनमयि ॥१८६॥ २८८ ] · ५०८४ । को २ | अर्थ-चतुर्थ मार्ग में चन्द्रका मुहूर्त-परिमित गमन पाँच हजार चौरासी ( ५०८४ ) योजन तथा दो कोस प्रमाण प्राप्त होता है ।।१६९ ।। विशेषार्थ - चतुर्थ पथ में चन्द्रका एक मुहूर्तका गमनक्षेत्र [ ३१५७८०४३ + ३३३५ ] ५०८४ योजन, २ कोस, १५२६ धनुष, १ हाथ और कुछ अधिक ३ अंगुल है । अट्ठासीदी अहिया, पंच सहस्सा य जोयणा कोसो लद्ध मुहुस गमणं, पंचममगे ५०५८ को १ । मियंकस्स ||१०|t - अर्थ - पांचवें मार्ग में चन्द्रका मुहूर्त-गमन पाँच हजार अठासी ( ५०८८ ) योजन और एक कोस प्रमाण प्राप्त होता है ||१०|| विशेषार्थ – पाँच मार्ग में चन्द्रका एक मुहूर्तका गमनक्षेत्र [ ३१६०१०१ ÷ १५ ] ५०८८योजन, १ कोस, ११९७ धनुष, ० हाथ और कुछ अधिक १० अंगुल प्रमाण प्राप्त होता है । बाणउदि उत्तराणि पंच-सहस्वाणि जोपणा च । गमणं हिमसुखो छट्ट मग्गमि ॥१६॥ लद्ध मुहत्त ५०९२ । अर्थ – छटे मार्ग में चन्द्रका मुहूर्त-गमन पाँच हजार बानव ( ५०९२ ) योजन प्रमाण प्राप्त होता है ॥१९१॥ विशेषार्थ - छठे मार्ग में गमन क्षेत्रका प्रमाण [ ३१६२४०४६÷ १३३३५] ५०९२ योजन, ० कोस, ३ हाथ और कुछ अधिक १८ अंगुल है । - पंचैव सहस्सा, पणणउदी जोयणा ति-कोसा य । लख मुहुत्त गमणं, सीवंसुणो सक्षम पहम्मि ।। १६२ ।। ५०९५ । को ३ । - सातवें पथमें चन्द्रका मुहूर्त-गमन पाँच हजार पंचानबे योजन और तीन कोस प्रमाण - प्राप्त होता है ।।१९२।। विशेषाय - सातवें पथ में चन्द्रका एक मुहूर्तका गमन क्षेत्र [३१६४७ १४७÷१३६३] ५०९५ योजन, ३ कोस, ५३८ धनुष, ३ हाथ और कुछ अधिक १ अंगुल है | Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १९३-१९६ ] सप्तमो महाहियारो [ २८६ पण-संख-सहस्साणि, णवणउदी जोयषा दुवे कोसा । · लवं मुहत्त - गमणं, प्रहम - मग्गे 'हिमरुचिस्स ॥१९॥ ५. १९ । क २ प्रयं-आठवें पथमें चन्द्रका मुहूर्त गमन पाँच हजार निन्यानवं योजन और दो कोस प्रमाण प्राप्त होता है ।।१९३॥ विशेषार्थ-पाठवें पथमें चन्द्र एक मुहूर्त में [ ३१६७०११५ 33874] ५०६६ योजन, २ कोस, २०९ धनुष, २ हाय और कुछ कम ९ अंगुल गमन करता है। पंचेव सहस्साणि, ति उत्तरं जोयणाणि एक्क-सयं । लद्धमुहुत्त - गमणं, णवम - पहे तुहिणरासिस्स ॥१६४।। अर्थ-नौवें पधमें चन्द्रका मुहूर्त-गमन पांच हजार एक सौ तीन योजन प्रमाण प्राप्त होता है ।।१९४।। विशेषापं-नौवें पथमें चन्द्र एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट ) में [ ३१६९३११३५ १६१] ५१०३ योजन, • कोस, १८८० धनुष, १ हाथ और कुछ अधिक १६ अंगुल गमन करता है । पंच-सहस्सा छाहियमेक्क-सयं जोयणा ति-कोसा य । लद्ध मुहुत्त - गमणं, बसम - पहे हिममयूखाणं ॥१६५।। ५१०६ । को ३। अर्थ-दसवें पथमें चन्द्रोंका मुहूर्त-गमन पांच हजार एक सौ छह योजन और तोन कोस प्रमाण पाया जाता है ॥१९५।। विशेषार्थ - दसवें पथमें चन्द्र एक मुहूर्त में [ ३१७१६२५६० + २५१५] ५१०६ योजन, ३ कोस, १५५१ धनुष और कुछ कम १ हाथ गमन करता है । पंच-सहस्सा वस-जुव-एक्क-सया जोयणा बुवे कोसा। लद्ध मुहस - ममणं, एक्करस - पहे ससंकस्स ॥१६॥ ५११० । को २। प्रर्य-ग्यारहवें पथमें चन्द्रका मुहूर्त-गमन पाँच हजार एक सौ दस योजन और दो कोस प्रमारण प्राप्त होता है ।।१९६॥ १.प.हिमरविस्स, ब. हिमरसिसि । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १९७-२०० विशेषार्थ-ग्यारहवें पथमें चन्द्र एक मुहूर्तमें [३१७३९२४ : ३३१३५] ५११० योजन, २ कोस, १२२२ धनुष, • हाथ और कुछ कम ७ अंगुल प्रमाण गमन करता है । जोयण-पंच-सहस्सा, एक्क-सयं चोद्दसुत्तरं कोसो। लद्ध मुहत्त • गमरणं, बारसम - पहे सिदंसुस्स ।।१६७।। ५११४ १ को १५ अर्थ-बारहवें पथमें चन्द्रका मुहूर्त-गमन पांच हजार एक सौ चौदह योजन और एक कोस प्रमाण प्राप्त होता है ।।१९७।। विशेषार्थ-बारहवें पथमें चन्द्र एक मुहूर्त में [ ३१७६२२४३३ ३३४३५ ] ५११४ योजन, १ कोस, ८५२ धनुष, ३ हाथ और कुछ अधिक १४ अंगुल प्रमाण गमन करता है ।। अट्ठारसुत्तर - सयं, पंच • सहस्साणि जोयणाणि च । लद्ध मुहत्त - गमणं, तेरस - मग्गे हिमंसुस्स ॥१९॥ अर्थ-तेरहवें मार्ग में चन्द्रका मुहूर्त-गमन पाँच हजार एक सौ अठारह योजन प्रमाण प्राप्त होता है ।।१९८॥ विशेषार्थ- तेरहवें पथमें चन्द्र एक मुहूर्त में [ ३१७८५३१६४ १५ ] ५११८ योजन, ० कोस, ५६३ धनुष, २ हाथ और कुछ अधिक २१ अंगुल प्रमाण गमन करता है। पंच-सहस्सा इगिसमिगिधीस-जुदं च जोयण ति-कोसा। लद्ध मुहत्त - गमण, चोइसम - पहम्मि चंवस्स ॥१६॥ ५१२१ १ को ३। अर्थ-चौदहवें पथमें चन्द्रका मुहूर्त-गमन क्षेत्र पांच हजार एक सौ इक्कीस योजन और तोन कोस प्रमाण प्राप्त होता है ॥१९९।। विशेषार्थ-चौदहवें मार्ग में चन्द्र एक मुहूर्त में [ ३१८०८३३९४११९३५ ] ५१२१ योजन, ३ कोस, २३४ धनुष, २ हाथ और कुछ अधिक ४ अंगुल प्रमाण गमन करता है। पंच-सहस्सेक्क-सया, पणुवीस जोयणा दुवे कोसा। लद्ध मुहुरा - गमणं, सीवंसुणो बाहिर - पहम्मि ॥२०॥ ५१२५ । को २ । अर्थ-बाह्य पथमें चन्द्रका मुहूर्त-गमन पांच हजार एक सौ पच्चीस योजन और दो कोस प्रमाण प्राप्त होता है ॥२०॥ विशेषार्ष-बाह्य ( पन्द्रहवें ) मार्गमें चन्द्र एक मुहूर्तमें [ ३१८३१३३९४१११५] ५१२५ योजन, १ कोस, १८९१ धनुष, २ हाथ और कुछ कम २२ अंगुल प्रमाण गमन करता है । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २०० ] वीथी संख्या प्रत्येक बीथी में मेरुसे चन्द्रका अन्तर ( योजनों में ) 21 " १. ४४८२० यो० २. ४४८५६४३ " ३ | ४४८९२४३६ ४. ४४९२९४२७ ९९८५ ३१५७८०४२७ ५. ४४९६५ ९९९३११२ ३१६०१०४३७·· ६ ४५००२४७ १००००४४ ३१६२४० ७. ४५०३८१ ,, १०००७७४२,, ३१६४७१४ईड, ८. ४५०७४३६ १००१४९३३, ३१६७०१४, ९. ४५११११ १००२२२१२, ३१६६३१३२, १०. ४५१४७१३७ १००२९५१३३, ३१७१६२ ११. ४५१८४४ २७ १००३६८१३, ३१७३९ १४३ १२. ४५२२०३३3 १३. ४५२५७४२ १४. ४५२९३४६, १००५८६१६, ३१८०८३७, १५.४५३२९४३ १००६५९०३ ३१८३१२१३ 37 " " 19 " तमो महाहियारो चन्द्रके अन्तर प्रमाण यादिका विवरण 37 चन्द्रका चन्द्रसे अन्तर (योजनों में) ९९६४० यो० | ३१५०५९ यो० ९९७१२१३४ ३१५३१९१¥¥,, ९९७८५६ 71 चन्द्रकी प्रत्येक बीथोकी परिधि का प्रमाण ( योजनों में ) , ३१५५४९ 13 27 ४५७ " 2911 ४२७ " " प्रत्येक वीथी में चन्द्रका एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट) का गमन-क्षेत्र योजन ५०७३ ५०७७ ५०८० ५०८४ क्रोम BY Our १ ५०८५ १ ५०९२ ० ५०९५ ३ ५.३८ ५०६६ २ २०६ ५१०३ ० ५१०६ ३ १५५१ ५११० 749 11 २ १२२२ १००४४१४३७३१७६२२ई. ५११४ १ ८६२ १००५१४४३७, ३१७६५२४४ ५.११८ ५.६३ ३ २ धनुष ० ५१३ १८४ १८५४ १५२६ ११६७ ० ܘܟܟܐ ५१२१ ३ २३४ ५१२५ ૬ १८६१ हाथ ३ कुछ अ० ५ २ कुछ कम १३ ३ कुछ अ. १० १ कु० श्र० ३ कु० प्र० १० ३ कु० प्र०१८ ३ कु० अ० १ २ कुछ कम ६ १ कु० अ० १६ १ कु० कम ० कु० कम ७ कु. अ. १४ २ कु. अ. २१ २ कु. अ. ४ २ कु० कम २२ ० [ २९१ ० ३ अंगुल Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ । तिलोयपात्ती [ गाथा : २०१-२०५ राहु विमानका वर्णन - ससहर-णयर-तलावो, चत्तारि पमाण-अंगुलाणं पि । हेद्वा गच्छिय होंति हुँ, राहु विमाणस्स धयदंडा ॥२०॥ अर्थ-चन्द्र के नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर राहु-विमानके ध्वज-दण्ड होते हैं ।।२०१।। विशेषार्थ--एक प्रमारगांगुल ५०० उत्सेधांगुलों के बराबर होता है । (ति० १० प्रथम प्र० गाथा १०७-१०८ के ) इस नियमके अनुसार ४ प्रमाणांगुलोंके धनुष आदि बनाने पर ( AP) २० धनुष, ३ हाथ और ८ अंगुल प्राप्त होते हैं । चन्द्र-विमान तलसे राहु विमान का ध्वज दण्ड २० धनुष, ३ हाथ और ८ अंगुल नीचे है । ते राहुस्स विमाणा, अंजणवण्णा अरिद-रयणमया । किचूणं जोयणयं, विक्खंभ - जुदा तदव • बहलत्तं ॥२०२॥ अर्थ-अरिष्ट रत्नोंसे निर्मित अंजनवर्णवाले राहुके वे विमान कुछ कम एक योजन प्रमाण विस्तारसे संयुक्त और बिस्तारसे अर्घ बाहल्यवाले हैं ।।२०२॥ पण्णासाहिप-दु-सया, कोदंडा राहु-एयर-बाहलत्त । एवं लोय - विणिच्छय • कत्तायरियो परवति ॥२०३॥ पाठान्तरं। अर्थ-राहु-नगरका बाहल्य दो सौ पचास धनुष-प्रमाण है; ऐसा लोकविनिश्चय-कर्ता आचार्य प्ररूपण करते हैं ।।२०३।। पाठान्तर। चउ-गोउर-जुत्तेसु य, जिनमंदिर-मंडिदेसु णयरेसु। तेसुबहु • परिवारा, राहू गामेण होंति सुरा ॥२०४॥ प्रर्य-चार गोपुरोंसे संयुक्त और जिनमन्दिरोंसे मुशोभित उन नगरोंमें बहुत परिवार सहित राह नामक देव होते हैं ।।२०४॥ । राहुओंके भेदराहूण पुर-तलाणं, दु-वियप्पारित हवंति गमणाणि । दिरण-पन्व-वियप्पेहि, दिणराहू ससि-सरिच्छ-गई ॥२०५।। अपं-दिन और पर्व के भेदसे राहुओंके पुरतलोंके गमन दो प्रकार होते हैं । इनमेंसे दिनराहुकी गति चन्द्र के सदृश होती है ।।२०५॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहियारो पूर्णिमाकी पहिचान - जस्स मग्ने ससहर - बिनं दिसेदि य तेसु परिपुणं । सो होदि पुण्णिमषखो, दिवसो इह माणुसे लोए ॥ २०६ ॥ गाथा : २०६-२११ ] अर्थ – उनमें से जिस मार्ग में चन्द्र निम्न परिपूर्ण दिखता है, यहाँ मनुष्य लोक में वह पूर्णिमा नामक दिवस होता है || २०६ ॥ कृष्ण पक्ष होनेका कारण तवीहीदो लंघिय दोवस्त मारुद-हुदास - दिसादो । तदनंतर बीहीए, ऐति हु विणराहु-ससि-विनां ।। २०७ ।। अथ - -उस ( अभ्यन्तर ) दीधीको लांघकर दिनराहु और चन्द्र- बिम्ब जम्बुद्वीपकी वायव्य और आग्नेय दिशासे तदनन्तर ( द्वितीय ) वीथी में आते हैं || २०७ ताधे ससहर-मंडल सोलस-भागेसु एक्क भागंसो । आवरमाणो दीसदि, राहू लंघरण विसेसेणं ॥ २०८ || · - - अर्थ - द्वितीय वीथीको प्राप्त होनेपर राहुके गमन विशेषसे चन्द्रमण्डलके सोलह भागों में से एक भाग आच्छादित दिखता है ||२०८ || अल-विसाए लंधिय, ससिबिंबं एवि वोहि अद्धसो । सेसद्ध खुण गच्छवि, अवर ससि भमिद हेदूवो ॥ २०६॥ - 1 २९३ अर्थ --- पश्चात् चन्द्रबिम्ब आग्नेय दिशासे लांघकर वीथीके अर्थ भागमें जाता है, द्वितीय चन्द्रसे भ्रमित होनेके कारण शेष अर्ध-मागमें नहीं जाता है ( क्योंकि दो चन्द्र मिलकर एक परिषि को पूरा करते हैं ) || २०९ ॥ तदनंतर मग्गाई, रिणच्चं लंघेति राहु-ससि बिबा । परग्गि दिसाहितो, एवं सेसासु बीही ॥२१० ॥ - अर्थ – इसीप्रकार शेष वीथियों में भी राहु और चन्द्रबिम्ब वायव्य एवं आग्नेय दिशासे नित्य तदनन्तर मार्गों को लांघते हैं ।। २१० । - बिबस दिणं पड, एक्केषक-पहम्मि भागमेक्केक्कं । पच्छादेदि हु राहू, पणगरस कलाउ परियंतं ।।२११॥ अर्थ – राहु प्रतिदिन एक-एक पथ में पन्द्रह कला पर्यन्त चन्द्र- बिम्बके एक-एक भागको आच्छादित करता है ।। २११ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २१२-२१४ अमावस्याको पहिचानइध एक्कक्क-कलाए, आवरिवाए खु राह - बिबेणं । चंदेक्क-कला मग्गे, जस्सि दिस्सेवि सो य अमवस्सा ॥२१२|| प्रथ-इसप्रकार राहु-बिम्बके द्वारा एक-एक करके कलाओंके आच्छादित हो जानेपर जिस मार्ग में चन्द्रको एक ही कला दिखती है वह अमावस्या दिवस होता है 11२१२।। चान्द्र-दिवसका प्रमाणएक्कत्तीस - मुहुत्ता, अदिरेगो चंद-वासर-पमाणं । तेवीसंसा हारो, चउ - सय - बादाल - मेत्ता य ।।२१३॥ प्रर्य - चान्द्र दिवसका प्रमाण इकतोस मुहूर्त और एक मुहूर्त के चार सौ बयालीस भागोंमेंसे तेईस भाग अधिक है ।।२१३।। विशेषार्थ-चन्द्रकी अभ्यन्तर वीथोकी परिधि ३१५०८६ योजन है, जिसे दो चन्द्र ६२ मुहर्तमें पूर्ण करते हैं अतः एक चन्द्रका दिवस प्रमाण ( ६२१ २ = ) ३१४ मुहूर्त होता है। FDHA अथवा एक चन्द्रके कुल गगनखण्ड ५४६ ० ० हैं और चन्द्र एक मुहूर्त में १७६८ गगनखण्डोंपर भ्रमण करता है अत: सम्पूर्ण गगनखण्डोंपर भ्रमण करने में उसे ( ५४९०० १७६८= ) ३१४४६ मुहूर्त लगेंगे । यही उसका दिवस प्रमाण है । १५ दिन पर्यन्त चन्द्र कलाकी प्रतिदिनको हानिका प्रमाण-- पडिवाए वासरादो, वीहि पडि ससहरस्स सो राह। एक्केवक - कलं मुचवि, पुणिमयं जाव लंघणदो ॥२१४।। प्रथं-वह राहु प्रतिपद् दिनसे एक-एक वीथीमें गमन विशेष द्वारा पूर्णिमा पर्यन्त चन्द्रकी एक-एक कला को छोड़ता है ।।२१४।। विशेषार्थ-चन्द्र विमानका विस्तार योजन है और उसके भाग १६ हैं, अतः जब १६ भागोंका विस्तार यो० है तब एक भागका विस्तार ( १६- ) योजन होता है अर्थात् राह प्रतिदिन प्रत्येक परिधिमें यो० ( २२९१५ मील ) ध्यास वाली एक-एक कला को छोड़ता है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१५-२१८ ] सत्तमो महायिारो [ २६५ मतान्तरसे कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष होने के कारणप्रहवा ससहर-जिंबं, पण्णरस-दिणाइ तस्सहावेणं । कसरणाभं सुकलाभ, तेत्तियमेत्ताणि परिणमदि ॥२१५।। अर्थ-अथवा, चन्द्र-बिम्ब अपने स्वभाव से ही पन्द्रह दिनोंतक कृष्ण कान्ति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कान्ति स्वरूप परिणमता है ।।२१५।। चन्द्र ग्रहणका कारण एवं कालपुह पुह ससि-बिवाणि, छम्मासेसु च पुण्णिमंतम्मि । छावंति पव्य - राहू, णियमेणं गदि - विसेसेहि ।।२१६।। अर्थ - पर्व-राह नियमसे गति-विशेषके कारण छह मासोंमें पूणिमाके अन्तमें पृथक्-पृथक् चन्द्र-बिम्बोंको आच्छादित करते हैं ।।२१६॥ विशेषार्थ -कुछ कम एक योजन विस्तारवाले राहु विमान चन्द्र विमानसे चार प्रमाणांगुल ( २० धनुष, ३ हाथ और ८ अगुल ) नोचे हैं । इनमेंसे पर्वराहु अपनी गति विशेषके कारण पूर्णिमाके अन्तमें जो चन्द्र विमानोंको पाच्छादित करते हैं तब चन्द्र ग्रहण होता है। सूर्यको संचार भूमि का प्रमाण एवं अवस्थानजंबूदोवम्मि दुवे, विवायरा ताण एकक - चारमही । रविबिबाहिय-पण-सय-बहुत्तरा जोयणाणि तब्वासो ॥२१७॥ ५१० ।।।। अर्थ-जम्बूद्वीपमें दो सूर्य हैं । उनकी चार-पृथिवी एक ही है । इस चार-पृथिवीका विस्तार सूर्य बिम्बके विस्तार यो०) से अधिक पाच सौ दस ( ५१॥ ) योजन प्रमाण है ।।२१७॥ सीदी - जुदमेक्क - सयं, जंबूदीये चरति मत्तंडा । तीसुत्तर-ति-सयाणि, विणयर-बिबाहियाणि लवणम्मि ॥२१८।। १५० । ३३० । । अर्थ-सूर्य एक सौ अस्सी ( १८० ) योजन जम्बूद्वीपमें और दिनकर बिम्ब ( के विस्तार यो ) से अधिक तीनसौ तीस ( ३३०) योजन लवणसमुद्र में गमन करते हैं ॥२१८॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] तिलोयपण्णत्ती [गाया : २१६-२२२ सूर्य-वीथियोंका प्रमाण, विस्तार प्रादि और अन्तरालका वर्णन चउसीदी-हिय-सयं, विणयर-भग्गाओ' होंति एदाणं । बिब - समाणा वासा, एक्केक्काणं तदद्ध - बहलां ॥२१६।। अर्थ-- सूर्यकी गलियां एक सौ चौरासी ( १८४ ) हैं । इनमेंसे प्रत्येक गलोका विस्तार बिम्ब-विस्तार सदृश योजन और बाहल्य इससे प्राधा ( ३ योजन ) है ।।२१।। तेसोदी-अहिय-सयं, दिणेस-वीहीण होदि विस्चालं । एक्क-पहम्मि चरंते, दोणि पि य भाणु-धियाणि ॥२२०॥ मर्थ-सूर्य की ( १८४ ) गलियों में एक सौ तेरासी ( १८३ ) अन्तराल होते हैं। दोनों ही सूर्य-बिम्ब एक पथमें गमन करते हैं ।।२२०।। सूर्यको प्रथम वीथीका और मेरुके बीच अन्तर-प्रमाणसट्रि-जुई ति-सयाणि, मंडर-रुवं च जंबुवीवस्स । वासे सोहिय दलिदे, सूरादिम-पह-सुरहि-विच्चालं ॥२२॥ ३६० । ४४८२० । अर्य-जम्बद्वीपके विस्तारमेंसे तीन सौ साठ ( ३६० ) योजन और मेरुके विस्तारको घटाकर शेषको आधा करनेपर सूर्यके प्रथम पथ एवं मेहके मध्यका अन्तरालप्रमाण प्राप्त होता है ॥२२॥ विशेषार्य-जम्बूद्वीपका वि० १००००० यो० – ( १८०४२) = ६६६४० यो । ९९६४० - १००००० मेरु वि०-८९६४०; २६६४० : २=४४८२० यो प्रथम पथ और मेरुके बीचका अन्तराल । विशेषके लिए इसी प्र० को गाथा १२१ का विशेषार्थ द्रष्टव्य है। सूर्यकी ध्र व राशिका प्रमाणएक्कत्तीस-सहस्सा, एक्क-सयं जोयणाणि अडवण्णा । इगिसट्ठीए भजिवे, धुव - रासी होदि दुमणोणं ॥२२२॥ मर्थ -इकतीस हजार एक सौ अट्ठावन योजनों में इकसठका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना ( १८ या ५१० यो०) सूर्योकी ध्र वराशिका प्रमाण होता है ।।२२२।। १. द बिबाओ, ब. धीहीओ । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९७ गाथा : २२३-२२५ ] सत्तमो महाहियारो सूर्य-पथोंके बीच अन्तरका प्रमाणदिवसयर - विन - चलमीनीसमाहिय - सएणं । घुवरासिस्स प मज्झ, सोहेज्जसु तत्थ अवसेसं ॥२२३॥ तेसीवि-जुद सदेणं, भजिदव्यं तम्मि होवि जं लद्ध। घोहिं पद्धि णादव्यं, तरणोणं लंघण - पमाणं ।।२२४।। अर्य-ध्र वराशिमेंसे एक सौ चौरासी ( १८४ ) से गुणित सूर्य-बिम्बका विस्तार घटा देनेपर जो शेष रहे उसमें एक सो तेरासीका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो, उतना सूर्यों का प्रत्येक वीथीके प्रति लंघनका प्रमाण अर्थात् एक वीथीसे दूसरी वीथोके बोचका अन्तराल जानना चाहिए ।।२२३-२२४।। विशेषार्थ-ध्र वराशिका प्रमाण १५ ( ५१०१६) योजन, सूर्य-बिम्बका विस्तार योजन, सूर्यकी वीथियां १८४ और वीथियोंके अन्तराल १८३ हैं। सूर्यको एक वीथोका विस्तार यो० है तब १८४ वीथियोंका विस्तार कितना होगा? इसप्रकार राशिक करने पर ४१४= 4 योजन प्राप्त हुए । इसे ध्र बराशि ( चारक्षेत्र ) के प्रमाणमेंसे घटा देनेपर (१५-१६)=२२३१२ योजन १८४ गलियोंका अन्तराल प्राप्त होता है। १८४ गलियोंके अन्तराल १५३ ही होते हैं अतः सम्पूर्ण गलियोंके अन्तर-प्रमाणमें १८३ का भाग देनेपर एक गलीसे दूसरी गलीके बीचका अन्तर ( ३२१२६ : १८३ )-२ योजन प्राप्त होता है । सूर्य के प्रतिदिन गमनक्षेत्रका प्रमाणसम्मेत्तं पह-विच्चं, तं माणं दोणि जोयणा होति । तस्सि रवि - बिंब - जुदे, पह - सूचीयो विरिणवस्स ।।२२।। अर्थ-प्रत्येक वीथीके उतने अन्तरालका प्रमाण दो योजन है । जिसमें सूर्यबिम्बका विस्तार ( यो०) मिला देनेपर सूर्य के पथ-सूचीका प्रमाण २४६ योजन अथवा योजन होता है अर्थात् सूर्यको प्रतिदिन एक गली पार कर दूसरी गली में प्रवेश करने तक २१ योजन प्रमाण गमन करना पड़ता है ।।२२।। १. द. ब. क. ज.. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] तिलोयपणाती ।:२२६-२२९ मेरुस साथियों का अन्तर प्राप्त करनेका विधानपढम-पहादो रविणो, बाहिर-मग्गम्मि गमण-कालम्मि । पति- मग - मेत्तियं खिव - विच्चालं मंदरकाणं ॥२२६।। अर्थ--सूर्यके प्रथम पथसे ( द्वितीयादि ) बाह्य वीथियोंकी अोर जाते समय प्रत्येक मार्ग ( की परिधि के प्रमाण ) में इतना ( यो० ) मिलाते जाने पर मेरु और सूर्य के बीचका अन्तर प्राप्त होता है ।।२२६॥ अहवा रूऊणं इ8 - पहं, पह-सूचि-चएण गुणिय मेलज्ज । तवणादिम-पह-मंदर-विच्चाले होदि इट्ठ - विच्चालं ॥२२७॥ अथवा, एक कम इष्ट पथको पथ सूची चयसे गुणा करके प्राप्त प्रमाणको सूर्यके आदि ( प्रथम ) पथ और मेरुके बीच जो अन्तराल है उसमें मिला देनेपर इष्ट अन्तरालका प्रमाण होता है ।।२२७।। विशेषापं यथा-मेरुसे पाँचवें पथका अन्तराल प्राप्त करने के लिए-- इष्ट पथ ५ - १ =४; ( पथसूचीचय ) x ४ = १०- ११४५४४८२० + ११४५- ४४८३११६ योजन अन्तर मेरुसे पांचवीं वीथीका है। प्रथमादि पथों में मेरुसे सूर्यका अन्तरचउबाल-सहस्साणि, अट्ठ-सया जोयणाणि बोसं पि । एवं पढम-पह-द्विव-दिरणयर - कणयदि - विच्चालं ॥२२॥ ४४८२० अर्थ-प्रथम पथमें सूर्य और मेरुके बीच चवालीस हजार आठ सौ बीस (४४८२०) योजन प्रमाण अन्तराल है ।।२२८।। चउबाल-सहस्सा अड-सयाणि बावीस भाणुबिब-जुवा। जोयणया विश्यि-पहे, तिच्वंसु सुमेरु - विघालं ॥२२६॥ ४४८२२ । । अर्थ-द्वितीय पथमें सूर्य और मेरुके बीच सूर्यबिम्ब सहित चवालीस हजार आठ सौ बाईस ( ४४८२२६) योजन-प्रमाण अन्तराल है ॥२२९॥ १. द. ४४८२२। ब. ४४०२२। ४८. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तम महाहियारो चउदाल- सहस्सा अड-सयाणि पणुयोस जोयणाणि कला । पणुतीस तइज्ज पहे पतंग हेमद्दि विकचालं ॥ २३०॥ ४४८२५ । ३१ । एवमादि- मज्झिम-प-परियंतं वेदव्यं । गाथा : २३० - २३२ ] इसप्रकार श्रादि ( प्रथम पथ ) से लेकर मध्यम ( अयं - तृतीय पथ में सूर्य और सुवर्ण पर्वतके बीच चवालीस हजार आठ सौ पच्चीस योजन और पैंतीस कला ( ४४८०२५३३ यो० ) प्रमाण अन्तराल है ।। २३० ।। मध्यम पथमें सूर्य और मेरुका अन्तर पंचाल - सहस्सा, पणहतरि जोयणाणि श्रविरेका । मज्झिम-पह - ठिव-दिवमणि चामीयर सेल विश्वालं ।। २३१ ॥ ४५०७५ । - एवं दुचरिम-मगंतं दव्वं । अर्थ - मध्यम पथमें स्थित सूर्य और सुवर्णशैल के बीचका अन्तराल कुछ अधिक पैंतालीस हजार पचहत्तर योजन है ॥२३१॥ - इसप्रकार द्विचरम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए । विशेषार्थ - मध्यम वीथीमें स्थित सूर्यका मेरु पर्वत से अन्तर प्रमाण ४४८२० + (Nx १३ ) = ४५०७५ योजन है । गाथा में अदिरेगा पद क्यों दिया गया है, यह समझमें नहीं आया । बाह्य पथ स्थित सूर्यका मेरुसे अन्तर 3 ) मार्ग पर्यन्त जानना चाहिए । - पणदाल सहस्साण, तिष्णि-सया तीस- जोयणायरिया । बाहिर पह र-पह-ठिद-वासरकर कंत्रण सेल विच्चालं ॥ २३२ ॥ - ( ४५३३० ) योजन प्रमाण अन्तराल कहा गया है ।।२३२ || [ २ee - यथा -- ४४८२०+ (४१५३ ) = ४५३३० योजन | ४५३३० । बाह्य पथ में स्थित सूर्य और सुवर्णशेलके बीच पैंतालीस हजार तीन सौ तीस Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] तिलोय पण्णत्ती बाहिर बहादु श्रादिम-मग्गे तवणस्स श्रागमण-काले । पुध्वं खेवं सोह, दुरिम-पह पहुबि जाव पढम-पहं ॥ २३३ ॥ अर्थ- सूर्यके बाह्य मार्गसे प्रथम मार्गकी ओर आते समय पूर्व वृद्धिको कम करनेपर द्विचरम पथसे लेकर प्रथम पथ पर्यन्तका अन्तराल प्रमाण जानना चाहिए ॥२३३॥ दोनों सूर्यका पारस्परिक अन्तर अन्तराल । [ गाथा : २३३ - २३७ सहि जुदा ति सारिंग, सोहज्जसु जंबुदीव-दम्मि | जं सेसं पढम पहे दोन्हं दुमणीण विचचाल ॥ २३४ ॥ - पथ ( स्थित ) दोनों सूर्योंके बीच अन्तराल रहता है ||२३४|| विशेषार्थ - जम्बूद्वीपका विस्तार १००००० यो० अर्थ- जम्बूद्वीप के विस्तार डीसी साठ योजन कम करने पर जो शेष रहे उतना प्रथम - - ( १८०x२ ) = ९९६४० यो० नवउदि सहस्सा छस्सयाणि चउदाल- जोयणाणि पि । तवरणाणि श्रावाहा, अम्भंतर मंडल ठिवाणं ॥ २३५ ॥ । ९९६४० । अर्थ - श्रभ्यन्तर मण्डलमें स्थित दोनों सूर्यका अन्तराल निन्यानबं हजार छह सौ चालीस ( १९६४० ) योजन प्रभार है ।। २३५ ।। सूर्योकी अन्तराल वृद्धिका प्रमाण विणव- पह-सूचि-चए, दोस' गुणिवे हवेदि भाणूगं । श्रबाहाए बड्ढी, जोयरपया पंच पंचतीस - कला ॥ २३६ ॥ । ५ । ३१ । अर्थ- सूर्य की पथ सूची- वृद्धिको दो से गुणित करने पर सूर्योकी अन्तराल-वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है जो पाँच योजन और पैंतीस कला अधिक है ।। २३६ ।। विशेषार्थ - सूर्य - पथ- सूची ४ ४ २ प्रमाण है । - या योजन अन्तराल वृद्धिका ALBA सूर्यका अभीष्ट अन्तराल प्राप्त करनेका विधान - रूघोणं इठ - पहं, गुणिवणं मग्ग सूइ वड्डीए । पढमामाहामिलियं वासरणाहाण इट्ठ विश्वचालं ॥ २३७॥ 4 , Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २३८ - २३६ ] सत्तमो महाहिया [ ३०१ अर्थ – एक कम इष्ट- पथको द्विगुणित मार्ग सूची - वृद्धिसे गुणा करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे प्रथम अन्तराल में मिला देनेसे सूर्यका अभीष्ट अन्तराल प्रमाण प्राप्त होता है ।। २३७॥ द्वितीयादि पथों में सूर्यका पारस्परिक अन्तर प्रमाण णवणउदि सहस्सा छस्सयाणि पणदाल जोयराणि कला । पणतीस दुइज्ज पहे, दोन्हं भाणूण विच्चालं ||२३८ ॥ ९९६४५ । ३१ । एवं मज्किम मतं वयं । श्रयं - द्वितीय पथमें दोनों सूर्योका अन्तराल निन्यानबे हजार छह सौ पैंतालीस योजन और पैंतीस भाग ( ९९६४५३५ यो० ) प्रमाण है || २३८ ॥ इस प्रकार मध्यम मार्ग तक लेजाना चाहिए । विशेषार्थ - यहाँ इष्ट पथ २रा है। गा० २३७ के नियमानुसार २ - [ ( १५ ) + e९६४० ] - ९९६४४३५ यो० अन्तराल है । एक्कं लवलं पण भहिय-सयं जोयणाणि अदिरेगो । मज्झिम-पहम्मि दोहं, सहस्स-किरणाण-विच्चालं ।। २३६ ॥ १००१५० । १ = १ ॥ एवं दुचरिम-मग्गतं वयं । अर्थ- - मध्यम पथमें दोनों सूर्योका अन्तराल कुछ अधिक एक लाख एक सौ पचास ( १०० १५० ) योजन प्रमाण होता है ।। २३९ ॥ विशेषार्थ - इष्ट पथ ९३ वाँ है । इसमेंसे १ घटा देनेपर ९२ शेष रहते हैं यही ९२ वीं चौथी मध्यम पथ है । ( द्विगुणित पथ सूची २ ) २=५१२६ यो० । ( प्रथम पथमें सूर्योका अन्तराल ९९६४० यो० ) + ५१२४६ यो० = १००१५२३६ मो० मध्यम पथमें सूर्योका अन्तराल है। मूल संदृष्टिसे यह प्रमाण अधिक है । इसीलिए गाथा में 'अदिरेगो' पद आया है । इसीप्रकार द्विचरम अर्थात् १८२ वीधियों पर्यन्त ले जाना चाहिए । सूर्यकी गलिया १८४ हैं किन्तु प्रक्षेप केवल १८३ पथमें मिलाया जाता है, इसलिए द्विचरम पथ १८२ होगा ! Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ } तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४०-२४३ एक्कं जोयण-लक्वं, सट्ठी-जुत्ताणि छस्सयाणि पि । माहिर - पहम्मि दोह, सहस्सकिरणाण विच्चालं ॥२४०॥ १००६६०। प्रयं-बाह्य पथमें दोनों सूर्योका ( पारस्परिक ) अन्तराल एक लाख छह सौ साठ (१००६६०) योजन प्रमाण है ॥२४०11 विशेषार्थ – इष्ट पथ १८४ – १=१८३ । ६९६४० + ( १८३ ) -- १००६६० योजन अन्तराल है। सूर्यका विस्तार प्राप्त करनेकी विधिइच्छंतो रवि-बियं, सोहेज्जसु सयल बोहि विच्चालं । धुवरासिस्स य मझे, चुलसीवी-जुद-सवेण भजिवव्वं ॥२४१।। ११५८ | १२३ । अर्थ-यदि सूर्यबिम्बका विस्तार जाननेकी इच्छा हो तो ध्र बराशिमेंसे समस्त मार्गान्तरालको घटाकर शेषमें एक सौ चौरासीका भाग देना चाहिए । इसका भागफल ही सूर्यबिम्ब के विस्तारका प्रमाण है ।।२४१॥ विशेषार्थ -ध्र बराशिका प्रमाण यो० है और सर्व पथोंके अन्तरालका प्रमाण २३३२० योजन है। 91१५ - १२ = 4 यो I -3 १८४- योजन सूर्यबिम्बके विस्तार का प्रमाण । रविमग्गे इच्छंतो, वासरमणि-बिब-बहल संखाए । तस्स य बीही बहलं, भजिणं से वि पाणयेदव्यं ॥२४२॥ अर्थ-यदि सूर्य के मार्गको जाननेकी इच्छा हो तो उसके बिम्बके बाहल्य ( विस्तार) का वीथी-विस्तार ( . यो. ) में भाग देकर मार्गोका प्रमाण ले आना चाहिए ।।२४२।। अहवा सूर्य-मार्गोका प्रमाण प्राप्त करनेकी विधिविणवइ-पहंतराणि, सोहिय धुवरासिम्मि भजिवूणं । रवि - बिबेणं आणसु, रविमग्गे विजणबाणउदी ॥२४३॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : २४४ - २४६ ] = अथवा... - वराशिमेंसे सूर्य के मार्गान्तरालोंको घटाकर शेषमें रविबिम्ब ( विस्तार ) का भाग देनेपर बानबे के दूने अर्थात् एक सौ चौरासी सूर्यमार्गीका प्रमाण प्राप्त होता है || २४३ || विशेषार्थ - ( वराशि ३१७८ ) -- २३६२० ११ *** १८४ बीथियाँ ( सूर्य की ) हैं । चारक्षेत्रका प्रमाण प्राप्त करनेकी विधि सतमो महाहियारो | १२ । १८४ । ' विणवइ-पह सूचि-चए', तिय-सीदी-जूद सण संगुणिदे | होबि हु चारकखेत्तं बिंबूणं तज्जुदं सयलं ।। २४४ ।। t - = १३२७० । १८३ । लद्ध ५१० । अर्थ – सूर्य की पथ सूची- वृद्धिको एक सौ तेरासीसे गुणा करने पर जो ( राशि ) प्राप्त हो उतना बिम्ब विस्तारसे रहित सूर्यका चारक्षेत्र होता है। इसमें बिम्ब विस्तार मिला देनेपर समस्त चार क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है || २४४॥ 1 दिन-रय णि जाणण मंदर परिहि प्हुदि, विशेषार्य -- ( सूर्य पथ सूची वृद्धि ३° यो० ) x १८३ = 31110 - ५१० यो० बिम्ब रहित चारक्षेत्र; ५१० + ५१०६ यो० समस्त चारक्षेत्रका प्रमाण । प्रतिज्ञा - श्रावव तिमिराण काल-परिमाणं । [ ३०३ चडणवदि सयं परूवेमो ॥ २४५ ॥ - १६४ । अर्थ - ( अब ) दिन और रात्रिको जानने के लिए आतप और तिमिरके काल प्रमाणका एवं मेरु परिधि आदि एक सी चौरानबे ( १९४ ) परिधियोंका प्ररूपण करते हैं ।। २४५ ।। मेरु- परिधिका प्रमाण एक्कत्तीस - सहस्सा, जोयणया इस्सयापि बाबीसं । मंदरगिरिव परिरय रासिस्स हवेदि परिमाणं ॥ २४६ ॥ ३१६२२ । १६.क. १८०२ । १४८ । २. ६. ब. क. ज. बीए । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ) तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४७-२४८ मधं-सुमेरु पर्वतको परिधि-राशि इकतीस हजार छह सौ बाईस ( ३१६२२) योजन प्रमाण है ॥२४६।। विशेषार्थ- मेरु विष्कम्भ १०००० योजन है और इसकी परिधि ३१६२२ योजन है। वर्गमूल निकालने पर जो अवशेष बचे हैं वे छोड़ दिये गये हैं। क्षेमा और अवध्या के प्रणिधि भागोंकी परिधिणभ-छक्क-सत्त-सत्ता, सत्तेक्कंक - कमेण जोयरगया। अट्ट-हिब'-पंच भागा, खेमावझाण पणिधि-परिहि त्ति ।।२४७॥ १७७७६० ।।। अर्थ-क्षेमा और अवध्या नगरीके परिणधिभागोंमें परिधि शून्य, छह, सात, सात, सात और एक, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् १७७७६० योजन और एक योजनके पाठ भागोंमेंसे पाच भाग प्रमाण है ।।२४७॥ विशेषार्थ -जम्बूद्वीप स्थित सुमेरु पर्वतका तल विस्तार १०००० यो०, सुमेरुके दोनों ओर स्थित भद्रशाल वनोंका विस्तार ( २२०००४ २ )=४४००० यो० और इसके आगे कच्छा, सुकच्छा आदि ३२ देशोंमें से प्रत्येक देशका विस्तार २२१२५ योजन है । गाथामें कच्छादेश स्थित क्षेमा नगरी और गन्धमालिनी देश स्थित अवध्या नगरीके परिणविभाग पर्यन्तकी परिधि निकाली है; जो इसप्रकार है १०००० +४४००० + २२१२६ यो = ५६२१२६ यो । चतुर्थाधिकार गाथा E के नियमानुसार इसकी परिधिV(५६२१२३)२-१० = १४२३०८५ - १७७७६०५ योजन प्राप्त होती है। यहाँ एवं आगे भी सर्वत्र वर्गमूल निकालनेके उपरान्त जो राशि शेष रहती ( बचती है वह छोड़ दी गई है। क्षेमपुरी और अयोध्याके प्रणिधिभागमें परिधिका प्रमाणअक्क-एच-चउक्का गवेक-अंक-कमेण जोयणया । सि-कलामओ परिहि संखा, खेमपुरी-यउज्माण मझ-पणिषीए ॥२४॥ १९४९१८ ।।। १ द.क. क. ज. हिदा-पंचभागे । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४९-२५० ] सत्तमो महाहियारो [ ३०५ अर्थ –क्षेमपुरी और अयोध्या नगरीके प्ररिण विभागमें परिधिका प्रमाण पाठ. एक, नौ चार, नौ और एक इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् १९४९१८ योजन और तीन कला अधिक है ।।२४८।। विशेषार्थ-क्षेमपुरी और अयोध्या नगरीके पूर्व ५००-५०० योजन विस्तार वाले चित्रकूट एवं देवमाल नामक दो वक्षार पर्वत हैं । पूर्व परिधिमें दो क्षेत्रों और इन दो पर्वतोंकी परिधि मिला देनेसे क्षेमपुरी एवं अयोध्याके प्रणिधिभागोंकी परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा १००० + ४४२५१ यो०-५४२५१ योजन । (५४२५३) x १०=१६' = १७१५७६ योजन । (पूर्व परिधि १७७७६०५ यो०)+ १७१५७१ = १९४९१५६ योजन । खड्गपुरी और अरिष्टाके प्रणिधिभागोंकी परिधिचउ-गयण-सत्त-णव-गह-दुगाण अंक-क्कमेण जोयणया। ति-कलाओ खम्गरिट्टा पणिधीए परिहि परिमाणं ॥२४६॥ २०९७०४।। अर्थ-खड्गपुरी और अरिष्टा नगरियोंके प्रणिधिभागमें परिधिका प्रमाण चार, शून्य, सात, नौ, शून्य और दो, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् २०६७०४ योजन और तीन कला अधिक है ।।२४६।। विशेषार्थ-खड्गपुरी और अरिष्टाके पूर्व में १२५-१२५ योजन विस्तार वाली अमिमालिनी और द्रवती विभंगा नदियाँ हैं । पूर्व परिधिमें दो क्षेत्रों और इन दो नदियों की परिधि मिला देने पर उपयुक्त प्रमाण प्राप्त होता है। यथा ४४२५४ + २५० = ४६७५३ = ? यो० । Virg3}. x १० = ५६१४४ = १४७८६ योजन । १९४६१८३ + १४७८४ =२०९७०४३ योजन । चक्रपुरो और अरिष्टपुरीके प्रणिधिभागोंकी परिधिदुग-छक्क-अटु-छक्का, दुग-युग-अंक-एकमेण जोयणया। एक्क-कला परिमाणं, चक्कारिद्वाण पणिधि-परिहीए ॥२५०॥ २२६८६२ ।। - अर्थ-चक्रपुरी और अरिष्टपरीके प्ररिंग विभागमें परिधिका प्रमाण दो, छह, पाठ, छह, दो और दो इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् २२६८६२ योजन और एक कला अधिक है ।।२५०।। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपती [ गाया | २५१-२५३ विशेषार्थ- दो क्षेत्रों और नागगिरि एवं नलिनकुटकी परिधि पूर्व परिधिमें मिला देनेपर उपर्युक्त परिधि प्राप्त होती है। यथा - २०९७०४ + १७१५७ - २२६८६२ यो० । खड्गा और अपराजिताको परिधि ३०६ ] अढ चउ-छक्क एक्का, चउ-दुग- अंक-धकमेण जोयणया । एक्क-कला वग्गार जिवाण णयरी मज्भ-परिहो सा ।। २५१ ॥ २४१६४८ । 2 । अर्थ – खड्गा और अपराजिता नगरियोंके मध्य उस परिधिका प्रमाण आठ, चार, ग्रह, एक, चार और दो, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् २४१६४८ योजन और एक कला है ।। २५१ ।। विशेषार्थ - दो क्षेत्र और ग्राह्वती एवं फेनमालिनी इन दो विभंगा नदियोंकी परिधि पूर्व परिधि में मिला देनेपर ( २२६६६२३ + १४७८६ ) २४१६४८६ योजन परिधि प्राप्त 11= होती है । मंजूषा और जयन्ता पर्यन्त परिधि प्रमाण - पंच-गयण अट्ठा, पंच दुर्गक ककमेण जोयणमा । सप्त कलाओ मंजुस जयंतपुर- मज्झ-परिही सा ॥ २५२ ॥ ✔ २५८८०५ । । अर्थ- मंजूषा और जयन्तपुरोंके मध्य में परिधि पाँच, शून्य, आठ, आठ, अंकों के क्रमसे अर्थात् २५८८०५ योजन और सात कला प्रमाण है ।।२५२ ॥ पाँच और दो, इन विशेषार्थ - दो क्षेत्रों और पद्मकूट एवं सूर्यगिरि वक्षार पर्वतोंकी परिधि, पूर्व प्रमाण में मिला देनेपर उपर्युक्त क्षेत्रोंकी ( २४१६४५३ + १७१५७ यो० } = २५८८०५१ योजन परिधि प्राप्त होती है । श्रौषधिपुर और वैजयन्तीको परिधि - एक्कणव पंच-तिय-सत्त दुगा अंक- वकमेण जोषणया । सत्त कलाश्री परिही, श्रोसहिपुर बद्दजयंताणं ॥ २५३॥ - २७३५९१ । १ । अर्थ - औषधि और वैजयन्ती नगरीकी परिधि एक, नी, पाँच, तीन, सात और दो, इन अंकों क्रमसे अर्थात् २७३५२१ योजन और सात कला प्रमाण है ।। २५३ ।। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २५४-२५६ ] सत्तमो महायिारो [ ३०७ विशेषार्थ-दो क्षेत्रों एवं पंकवती और गभीरमालिनी नदियोंकी परिधि, पूर्व प्रमाण में मिसा देनेपर (२५८८०५१ + १४७८६ यो०)=२७३५९१६ योजन उपर्युक्त परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है। विजयपुरी और पुण्डरी किणीको परिधिणव-चउ-सत्त-णहाई, णवय-दुगा जोयणाणि अंक-कमे । पंच-कलाप्रो परिही, विजयपुरी- पुरीगिरणीणं पि ॥२५४॥ २९०७४६ 1:। अर्थ - विजयपुरी और पुण्डरी किणी नगरियोंकी परिधि नी, चार, सात, शून्य, नौ और दो, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् २९०७४६ योजन और पौच कला प्रमाण है ॥२५४।। विशेषार्थ-दो क्षेत्रों और चन्द्रगिरि एवं एक शैल वक्षारोंकी परिधि, पूर्व परिधिके प्रमाणमें मिला देनेपर ( २७३५९१ + १७१५७३ )-२६०७४९३ योजन उपयुक्त परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है। सूर्यकी अभ्यन्तर वीथीको परिधितिय-जोयण-लक्खाणि, पण्णरस-सहस्सयाणि उणणउदी। सयभंतर - मग्गे, परिरय - रासिस्स परिमारणं ॥२५५।। ३१५०८९। अर्थ -सूर्यके सब मार्गी मेंसे अभ्यन्तर मार्गमें परिधि-राशिका प्रमाण तीन लाख पन्द्रह हजार नवासी ( ३१५०८६ ) योजन है ।।२५५।। विशेषार्थ -जम्बूद्वीपमें सूर्यके चारक्षेत्रका प्रमाण १८० योजन है। दोनों पार्श्वभागोंका ( १८०४२)-३६० योजन । (ज० का वि० १००००० यो०) --- ३६० यो०-६६६४० योजन सूर्यको प्रथम बोथीका व्यास है और इसको परिधिV { ६६६४०x१०-३१५०८६ योजन है । जो शेष बचे थे छोड़ दिए गये हैं । सूर्य के परिधि प्रक्षेपका प्रमाणसेसाणं मग्गाणं, परिही परिमाण-जाणण-णिमित्तं । परिहि खेबं वोच्छं, गुरूबदेसाणुसारेणं ॥२५६।। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ 1 तिलोयपण्णत्ती [ गाया : २५७-२६० अर्थ - शेष मार्गों के परिधि प्रमाणको जानने हेतु गुरु-उपदेशके अनुसार परिवि-प्रक्षेप कहते हैं ।। २५६ ।। सूर-पह - सुइ वड्डी, दुगुणं काढूण वग्गिदृणं च । दस गुनिये जं मूलं, परिह्निक्लेको इमो होइ ।। २५७।। अर्थ - सूर्य-पथों की सूची - वृद्धिको दुगुना करके उसका वर्ग करनेके पश्चात् जो प्रमाण प्राप्त हो उसे दस से गुणा करनेपर प्राप्त हुई राशिके वर्गमूल प्रमारण उपर्युक्त परिधिक्षेप ( परिक्षिवृद्धि ) होता है || २५७ ॥ विशेषाथ- सूर्यपथ - सूचीवृद्धिका प्रमाण यो० है । = 4 √(¥× २ ) *X १०८ १७१६ यो० परिधि वृद्धि | सरस- जोयणाणि अदिरेगा तस्स होई परिमाणं । अट्ठक्षीसं प्रंसा, हारो तह एक्कसी य ॥ २५८ ॥ १७ । ३६ । अर्थ - उक्त परिधि - प्रक्षेपका प्रमाण सत्तरह योजन और एक योजनके इकसठ भागों में से अड़तीस भाग अधिक ( १७३६ यो० ) है ||२५|| द्वितीय आदि वोथियोंकी परिधि ति-जोयण-लक्खाणि, पण्ण रस- सहस्स एक्क-सय छक्का । अट्ठत्तीस कलाओ, सा परिही विदिय मग्गमि ।। २५६ ॥ कला है ।। २५९|| ३१५१०६ । १६ । अर्थ- द्वितीय मार्ग में वह परिधि तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ छह योजन और अड़तीस - ३१५७८९ + १७३६३१५१०६३६ योजन । चवीस-जुदेवक-सयं, पण्णरस सहस्त जोयण ति-लक्खा । पण्णरस कला परिहो, परिमाणं तविय वीहीए ॥ २६०॥ ३१५१२४ । ।। । अर्थ - तृतीय बीधी में परिधिका प्रमाण तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ चोबीस और पन्द्रह् कला ( ३१५१२४११ ० ) है ।२६० ।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । २६१-२६४ ] सत्तमो महाहियारो [ ३०६ ३१५१०६३ + १७३६३१५१२४६२ योजन । एक्कत्तालेषक-सयं, पणरस-सहस्स जोयण ति-लक्खा। तेवण्ण • कला तुरिमे, पहम्मि परिहीए परिमाणं ॥२६१॥ ___ ३१५१४१ १ ५३। अर्थ चतुर्थपथमें परिधिका प्रमाण तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ इकतालीस योजन और तिरेपन कला ( ३१५१४१३३ यो० ) है ।।२६१।। ३१५.१२४११+१ =३१५१४१५१ योजन है । उपसद्वि-जदेषक-सयं, पण्णरस-सहस्स जोयण ति-लक्खा। इगिसट्ठी - पविहत्ता, तीस - कला पंचम - पहे सा ॥२६२॥ ३१५१५९ । । प्रयं-पंचम पथमें वह परिधि तीन लाख पन्द्रह हजार एक सो उनसठ योजन और इकसठ से विभक्त तीस कला अधिक है ।।२६२॥ ३१५१४११+१७.६१५१५६६६ योजन ! एवं पुबुप्पण्णे, परिहि-खेव 'मेलिदूण उवरि-उधार । परिहि-पमाणं जाव - बुचरिम - परिहिं ति दध्वं ॥२६॥ अर्थ – इसप्रकार पूर्वोत्पन्न परिधि-प्रमाणमें परिधिक्षेप मिलाकर द्विचरम परिधि पर्यन्त प्रागे-आगे परिधि प्रमाण जानना चाहिए ।।२६३।। सूर्यके बाह्य-पथका परिधि प्रमाणचोहस-जुम-ति-सयाणि, प्रहरस-सहस्स जोयण ति-लक्खा । सूरस्स बाहिर • पहे, हवेदि परिहीए परिमाणं ॥२६४॥ ३१८३१४ । अर्घ-सूर्यके बाह्य पथ में परिधिका प्रमाण तोन लाख अठारह हजार तीन सौ चौदह ( ३१८३१४ } योजन है ।।२६४।। विशेषार्थ-सूर्यकी अन्तिम (बाह्य) वीथीकी परिधिका प्रमाण १३१५०८९+ (१७६x १८३) }= ३१८३१४ योजन है ।। १. द. माण उवरिवरि, ब, माण उबरुवरि । २. ६, ब. क. ज सामादब्वं । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] तिलोयपण्यत्ती [ गाथा : २६५-२६७ लवणसमहके जलषष्ठ भागकी परिधिका प्रमाणसत्तावीस-सहस्सा, छावा जोयणाणि पण-लखा। परिही लवणमहष्णव - विक्खंभं छह - भागम्मि ॥२६॥ ५२७०४६ । अर्थ-लवण समुद्रके विस्तारके छठे भागमें परिधिका प्रमाण पाच लाख सत्ताईस हजार छयालीस ( ५२७०४६ ) योजन है ।।२६५! विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके सूर्य तम और तापके द्वारा लवण-समुद्र के छठे भाग पर्यन्त क्षेत्रको प्रभावित करते हैं । जिसका व्यास इसप्रकार है लवरणसमुद्रका बलय व्यास दो लाख योजन है । इसके दोनों पार्श्वभागोंका छठा भाग ( २००५०x२)=६६६६६० योजन हुआ । इसमें जम्बूद्वीपका व्यास जोड़ देनेपर जलषष्ठ भागका व्यास ( १०००००+६६६६६७) १६६६६६३ योजन होता है । जिसकी परिधि {१६६६६६ )२४१०=५२७०४६ योजन प्राप्त होती है। यहाँ जो शेष बचे, वे छोड़ दिये गये हैं। समान कालमें विसदृश प्रमाणवाली परिधियोंका भ्रमण पूर्ण कर सकनेका कारण रवि-चिंबा सिग्घ-गदी, णिग्गच्छंता हवंति पविसंता। मंद - गदी असमारणा, परिही साहति सम - काले ॥२६६।। अर्थ- सूर्यबिम्ब बाहर निकलते हुए शोघ्रगतिबाले और प्रवेश करते हुए मन्दगतिवाले होते हैं, इसलिए ये समान कालमें भी असमान परिधियों को सिद्ध करते हैं ॥२६६॥ सूर्य के कुल गगनखण्डों का प्रमाणएक्कं चेवय लक्खं, णवय-सहस्साणि अड-सयाणं पि । परिहोणं पयंगका, कादब्बा' गयण - खंडाणि ॥२६॥ १०९८०० अर्थ-इन परिधियोंमें ( दोनों) सूर्योके ( सर्व ) गगनखण्डोंका प्रमाण एक लाख नौ हजार प्राय सी ( १०९८०० ) है ।।२६७।। १. द. ब. क्र.ज. कालं वा। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तमी महाहियारी गगनखण्डों का अतिक्रमण काल -- गच्छदि मुहुत्तमेव, तोसम्महियाणि अट्टर - सयाणि । भ-खंडाणि रविणो, तम्मि' हिदे सम्व-गयण थंडा || २६८ || गाथा : २६६-२७१ 1 १८३० । अर्थ- सूर्य एक मुहूर्त में अठारह सौ तीस ( १८३० ) गगनखण्डों का प्रतिक्रमण करता है, इसलिये इस राशिका समस्त गगनखण्डों में भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतने मुहूर्त प्रमाण सम्पूर्ण खण्डों के अतिक्रमणका काल होगा ।। २६८ ॥ विशेषायं -सूर्य एक मुहूत में १८३० गगनखण्डोंका अतिक्रमण करता है, तब १०९८०० गगनखण्डों पर भ्रमण करने में कितना समय लगेगा ? १०९८०० ÷ १८३० = ६० मुहूर्त लगेंगे । प्रबभंतर- वीहीदो, दु-ति-च-पहृदीसु सम्ब-वीहीसु । कमलो से रविबिना, भमंति सट्टो मुहतहि ॥ २६६॥ - अर्थ - अभ्यन्तर वीथी से प्रारम्भकर दो, तीन, चार इत्यादि सब वीथियों में क्रम से ( प्रत्येक ahar में आमने-सामने रहते हुए ) दो सूर्य-बिम्ब साठ मुहूर्तों में भ्रमण करते हैं ।। २६९ ।। सूर्यका प्रत्येक परिधि में एक मुहूर्त का गमन-क्षेत्र - इच्यि परिहि पमाणं, सहि-मुहुलेहि भाजिदे लखौं । सेसं दिवसकराणं, मुहुच गमणस्य परिमाणं ॥ २७० ॥ ॥ | ३११ - ५२५१ । ३ । अर्थ-इट परिधि में साठ (६०) मुहूर्तीका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो और जो (आदि ) शेष बचे वह सूर्यके एक मुहूर्त कालके गमन क्षेत्रका प्रमाण जानना चाहिए || २७० ॥ १. ख. तम्मि लिदे, फ. ज. तु मिलिये । विशेषार्थ - यथा - प्रथम परिधिका प्रमाण ३१५०८९ योजन है, अतः ३१५०८९÷६० ५२५१ योजन प्रथम वीश्री में एक मुहूर्त का गमनक्षेत्र है । पंच सहस्त्राणि दुवे, सयाणि इगिवण्ण जोयणा श्रहिया । उणतीस-कलाप हम्मि विणयर- मुहुत-गविमाणं ॥ २७१ ॥ ५२५१ । २९ । एवं दुरिम- मग्गतं वव्यं । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] सिलोयपण्णती [ गाथा : २७२-२७४ प्रर्थ-प्रथम पथमें सूर्यकी एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट ) की गतिका प्रमाण पाँच हजार दो सौ इक्यावन योजन और एक योजनको साठ कलानों में से उनतीस कला अधिक ( ५२५१३६ योजन) है ।।२७१।। इसप्रकार द्विचरम अर्थात् एक सौ ले रासीवे मार्ग तक ले जाना चाहिए। बाह्य वीथीमें एक मुहूर्तका प्रमाण क्षेत्रपंच-सहस्सा ति-सया, पंचच्चिय जोयणाणि अदिरेगी। चोद्दस-कलाप्रो बाहिर पहम्मिविणवाइ-मुहुस-गदिमाणं ॥२७२॥ ५३०५ । । अर्थ-बाह्य अर्थात् एक सौ चौरासी ( १८४ ३) मार्ग में सूर्यकी एक मुहूर्त परिमित गतिका प्रमाण पाँच हजार तीन सौ पाँच योजन और चौदह कला अधिक है ।।२७२।। विशेषार्थ-सूर्यको बाह्य वीथीकी परिधि ३१८३१४ योजन है। ३१८३१४६०८ ५३०५३४ योजन बाह्यपथमें स्थित सूर्यकी एक मुहूर्तकी गतिका प्रमाण है। केतु बिंबोंका वर्णनविणयर-णयर-तलावो, चत्तारि पमाण-अंगुलाणि च । हेटा गच्छिय होंति, अरिट - विमाणाण घय-वंडा ॥२७३॥ अर्थ-सूर्य के नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट ( केतु ) विमानोंके ध्वज. दण्ड होते हैं ।।२७३॥ विशेषार्थ-केतु विमानके ध्वजा-दण्डसे ४ प्रमाणांगुल अर्थात् ( उत्सेधांगुलके अनुसार) =२० धनुष, ३ हाथ और ८ अंगुल ऊपर सूर्य का विमान है। रिद्वाएं एयरतला, अंजणवण्णा अरिट-रयणमया । किचूरणं जोयण, पत्तेक्कं वास - संजुत्तं ॥२७४।। अर्थ -अरिष्ट रत्नोंसे निमित केतुनोंके नगरतल अंजनवर्णवाले होते हैं। इनमे से प्रत्येक कुछ कम एक योजन प्रमाण विस्तारसे संयुक्त होता है ।।२७४।। १. द. ब. क. ज, २५६ । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१३ गाथा : २७५-२७६ ] सत्तमो महायिारो पण्णाधिप-दु-सयाणि, कोदंडाणं हवंति पत्तेक्कं । बहलत्तण - परिमाणं, तण्णयराणं' सुरम्माणं ॥२७५।। २५० । अर्थ-उन सुरम्य नगरोंमेंसे प्रत्येकका बाहल्य प्रमाण दो सौ पचास ( २५०) धनुष होता है ।।२७।। नोट :--गाथा २०२ में राहु नगरका बाल्य कुछ कम अर्ध यो. कहा गया है तथा पाठान्तर गाथा में २५० धनुष प्रमाण कहा गया है । किन्तु गाथा २७५ में ग्रन्थकर्ता स्वयं केतु के विमान का व्यास कुछ कम एक योजन मानते हुए भी उसका बाहुल्य २५० धनुष स्वीकार कर रहे हैं । जो विचारणीय है, क्योंकि राहु और केतुका ब्यास प्रादि शराबर ही होता है । घउ-गोउर-जुत्तेतु, जिणभवण-भूसिवेसु रम्मेसु । चेते रिट - सुरा, बहु - परिवारेहि परियरिया ।।२७६॥ अर्थ–चार गोपुरोंसे संयुक्त और जिन भवनोंसे विभूषित उन रमणीय नगरतलोंमें बहुत परिवारोंसे घिरे हुए केतुदेव रहते हैं ।। २७६।। छम्मासेसुपुह पुह, रवि-बिंबाणं परि? - बिबाणि । अमवस्सा अवसाणे, छावते गदि - विसेसेणं ॥२७७॥ मर्ष-गति विशेषके कारण अरिष्ट ( केतु) विमान छह मासोंमें अमावस्याके अन्त में पृथक्-पृथक् सूर्य-बिम्बोंको आच्छादित करते हैं ।।२७७।। अभ्यन्तर और बाह्य वीथीमें दिन-रात्रिका प्रमाणमतंङ-मंडलाणं, गमण - विसेसेण मणव - लोयम्मि । जे 'दिण • रत्ति मेवा, जावा तेसि पहवेमो ॥२७॥ प्रषं -मनुष्यलोक ( अढ़ाई द्वीप ) में सूर्य-मण्डलोंके गमन-विशेषसे जो दिन एवं रात्रिके विभाग हुए हैं उनका निरूपण करते हैं ।।२७८।। पढम-पहे विणबइणो, संठिड-कालम्भि सम्व-परिहीसु। अट्टरस - मुहत्ताणि, विवसो बारस णिसा होवि ॥२७॥ १८ । १२ । १, प. ब. तं पराणं। २. द. ब. क. ज. खेत्तेसु। ३. ६. ब. दिणवति । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : २८० - २८२ अर्थ- सूर्य के प्रथम पथमें स्थित रहते समय सब परिक्षियों में अठारह (१८) मुहूर्त का दिन और बारह (१२) मुहूर्त की रात्रि होती है ।। २७९ ॥ बाहिर - मग्गे रविणो, संठिब- कालम्मि सन्ध-परिहीसु । अट्टरस मुहुत्ताण, रत्ती बारस दिणं होदि ॥ २८० ॥ - १६ । १२ । प्रथं सूर्य के ब्राह्ममार्ग में स्थित रहते समय सर्व परिधियों में अठारह (१८) मुहूर्त की रात्रि और बारह (१२) मुहूर्तका दिन होता है || २८० ॥ विशेषार्थ - श्रावणमास में कर्क राशिपर स्थित सूर्य जब जम्बूद्वीप सम्बन्धी १८० योजन चार क्षेत्रकी प्रथम ( अभ्यन्तर ) परिधि में भ्रमण करता है तब सर्व ( सूर्यकी १८४, क्षेमा अवघ्या नगरियोंसे पुण्डरी किणी - विजया पर्यन्त क्षेत्रोंकी ८, मेरु सम्बन्धी १ और लवणसमुद्रगत जलषष्ठ सम्बन्धी १, इसप्रकार १८४+६+१+१=१९४ ) परिधियों में १८ मुहूर्त ( १४ घण्टा २४ मिनिट ) का दिन और १२ मुहूर्त ( ६ घण्टा ३६ मिनिट ) की रात्रि होती है । किन्तु जब माघ मासमें मकरराशि स्थित सूर्य लवणसमुद्र सम्बन्धी ३३० योजन चार क्षेत्रकी बाह्य परिधिमें भ्रमण करता है तब सर्व (१९४) परिधियोंम १८ मुहूर्तकी रात्रि और १२ मुहूर्तका दिन होता है । १५४ है । रात्रि और दिनको हानि-वृद्धिका चय प्राप्त करने की विधि एवं उसका प्रमाण भूमीए 'मुहं सोहिय, रूऊणेणं पण भजिवयं । सा रत्तीए दिणादो, बड्ढी दिवसस्स रत्तोदो' ।। २८१ ।। तस्स पमाणं दोणि य, मुहुत्तया एक्क सद्वि-पविहत्ता । दोहं विण रत्तीर्ण, पडिदिवस हारिण वड्डीश्रो ।। २८२ ॥ है। अर्थ - भूमिमेंसे मुखको कम करके शेषमें एक कम पथ प्रमालका भाग देतेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी वृद्धि दिनसे रात्रि में और रात्रिसे दिनमें होती है । उस वृद्धिका प्रमाण इकसठसे विभक्त दो () मुहूर्त हैं । प्रतिदिन दिन-रात्रि दोनों में मिलकर उतनी हानि-वृद्धि हुआ करती है ।।२८१-२८२ ।। विशेषार्थ - भूमिका प्रमाण १८ मुहूर्त, मुखका प्रमाण १२ मुहूर्त और पथका प्रमाण - - १. ६. ब. क. ज. दिगं । २. ब. रक्षितो । ३. ६.१२ । ३ । सेवा १७३ । । I Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! २८३-२८७ ] सत्तमो महाहियारो [ ३१५ ( १८ - १२): ( १८४ - १) या मुहूर्त । ४८ मिनिट का १ मुहूर्त होता है अतः मुहूर्त में १ मिनिट ३४३१ सेकेण्ड की वृद्धि या हानि होती है । सूर्यके द्वितीयादि पथोंमें स्थित रहते दिन-रात्रिका प्रमाणविदिय-पह-द्विद-सूरे, सत्तरस-मुहत्तयाणि होदि दिणं । उणसट्टि - कलम्भहियं, छक्कोणिय-दु-सय-परिहीसु॥२८३॥ अर्थ-सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित रहनेपर छह कम दो सौ अर्थात् १६४ परिधियोंमें दिन का प्रमाण सत्तरह मुहूर्त और उनसठ कला अधिक ( १७F ) होता है ।।२८३॥ बारस-मुहत्तयाणि, दोषिण कलाओ णिसाए परिमाणं । बिदिय-पह-दि-सरे, तेत्तिय - मेत्तासु परिहीसु ॥२४॥ प्रर्प-सूर्य के द्वितीय मार्ग में स्थित रहनेपरः उतनी ( १९४) ही परिधियोंमें रात्रिका प्रमाण बारह मुहूर्त और दो कला ( १२ मुहूर्त ) होता है ॥२४॥ तदिय-पह-ट्टिव-तवणे, सत्तरस-मुहत्तयाणि होदि दिएं। सत्तावण कलाप्रो, तेत्तिय - मेत्तासु परिहीसु॥२५॥ प्रयं-सूर्यके तृतीयमार्गमें स्थित रहनेपर उतनी ही परिधियोंमें दिनका प्रमाण सत्तरह मुहूर्त और सत्तावन कला ( १७२५ मुहूर्त ) होता है ॥२८५।।। बारस-मुहत्तयाणि, चत्तारि कलामो रति-परिमाणं । तपरिहोसु सूरे, प्रदेि 'तिदिय - मागम्मि ॥२८६।। अर्थ- सूर्यके तृतीय मार्गमें स्थित रहनेपर उन परिधियोंमें रात्रिका प्रमाण बारह मुहूर्त और चार कला अधिक ( १ मु०) होता है ।।२८६॥ सत्तरस-मुहलाई, पंचावण्णा कलाश्रो परिमाणं । दिवसस्स तुरिम-मग्ग-छिदम्मि तिव्वंसु - जिंबम्मि ॥२८॥ १.प. दिक्यि । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ } तिलोयपण्णत्ती [ गाया : २८८-२९० अर्थ-तोत्रांशुबिम्ब (सूर्यमण्डल ) के चतुर्थ मार्ग में स्थित रहनेपर दिनका प्रमाण सत्तरह मुहूर्त और पचपन कला अधिक ( १७११ मु० ) होता है ।।२८७॥ बारस मुहरयाणि, छक्क-कलाओ वि रत्ति-परिमाणं । तुरिम-पह - द्विद - पंकयबंधव - बिंबम्मि परिहीसु॥२८॥ १२। । एवं मनिझम-पहंतं दत्वं । अर्थ-सूर्य बिम्बके चतुर्थ पथमें स्थित रहने पर सब परिधियोंमें रात्रिका प्रमाण बारह मुहूर्त और यह कला (Akोर" है ।२८॥ इसप्रकार मध्यम पथ पर्यन्त ले जाना चाहिए । सूर्यके मध्यमपथमें रहनेपर दिन एवं रात्रि का प्रमाणपण्णरस - मुहत्ताई, पत्तेयं होंति दिवस - रत्तीओ। पुग्बोदिद - परिहीसु, मज्झिम-मग-ट्ठिदे तवणे ॥२८६।। ।१५। एवं दुचरिम-मरगत णेदव्वं ।। प्रयं-सूर्यके मध्यम पथमें स्थित रहनेपर पूर्वोक्त परिधियों में दिन और रात्रि दोनों पन्द्रहपन्द्रह महूर्त प्रमाणके होते हैं ।।२८९॥ विशेषार्थ--जब एक पथमें 1 मुहूर्त की हानि या वृद्धि होती है तब मध्यम पथ '६' में कितनी हानि-वृद्धि होगी? इसप्रकार राशिक करनेपर (४६)=३ मुहूर्त प्राप्त हुए। इन्हें प्रथम पथके दिन प्रमाण १८ मु० में से घटाकर उसी पथके रात्रि प्रमाण १२ मुहूर्तमें जोड़ देनेपर मध्यम पथमें दिन और रात्रि का प्रमाण १५-१५ मुहूर्त प्राप्त होता है। इस प्रकार द्विचरम पथ तक ले जाना चाहिए। सूर्यके बाह्य पथमें स्थित रहते दिन-रात्रिका प्रमाणअट्ठरस-मुहसाणि, रत्ती बारस दिणो व विणणाहे । बाहिर-मग्ग-पवण्णे, पुचोदित - सव्य - परिही ॥२०॥ १८ । १२ । अर्थ-सूर्यके बाह्य मार्गको प्राप्त होनेपर पूर्वोक्त सब (१९४) परिधियोंमें अठारह (१८) मुहूर्त प्रमाण रात्रि और बारह ( १२ ) मूहूर्त प्रमाण दिन होता है ।।२९०।। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा।२९१ [ ३१७ सत्तमो महाहियारो बाहिर - पहादु पत्ते, मग्गं अम्भंतरं सहस्सकरे । पुधावण्णिव - खेवं, पाखेवसु दिरण - पमाणम्मि ॥२६१॥ प्रथं सूर्य के बाह्य पश्रसे अभ्यन्तर मार्गको प्राप्त होनेपर पूर्व-वर्णित क्रमसे दिन-प्रमाणमें उत्तरोत्तर इस वृद्धि-प्रमाणको मिलाना चाहिए ।।२९१।। इय बासर-रत्तीओ, एक्कस्स रविस्स मदि-विसेसेण । एदाणं दुगुणाश्रो, हवंति दोण्हं विरिणाणं ॥२६२।। । दिण-रत्तीणं भेदं समत। अर्थ- इसप्रकार एक सूर्यको गति-विशेषसे उपयुक्त प्रकार दिन-रात हुग्रा करते हैं । इनको दुगुना करनेपर दोनों स्योको गति-विशेषसे होने वाले दिन-रात का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२९२।। दिन-रातके भेदका कथन समाप्त हुआ। on दुर ITIE RUR / incli ३ RE -AS-IPil: 4... Yatra KALA ६२/tam - Rasik प्रतिज्ञा एत्तो बासर-पाहुण्ण, गमण-विसेसेण मणव-लोम्मि । जे प्रावव - तम - खेत्ता, जादा ताणि परूथेमो ॥२६३॥ अर्थ-अब यहाँसे आगे वासरप्रभु ( सूर्य ) के गमन विशेषसे जो मनुष्यलोकमें आतप एवं तम क्षेत्र हुए हैं उनका प्ररूपण करते हैं ।।२९३।। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ । तिलोयपण्णत्ती आतप एवं सम क्षेत्रोंका स्वरूप मंदरगिरि-मज्भादो, लवणोदहि-छट्ट-भाग-परियंतं । यिदायामा आदव तम खेरां सकट उद्धि-जिहा ॥ २६४॥ 4 - अर्थ- मन्दरपर्वत के मध्य भागसे लेकर लवरणसमुद्रके ले भाग पर्यन्त नियमित आयाम - बाले गाड़ीकी उद्धि ( पहियेके श्रारे ) के सदृश श्रातप एवं तम क्षेत्र हैं ।। २६४।। प्रत्येक प्रातप एवं तम क्षेत्रको लम्बाई- तेसीबि - सहस्सारिंग, तिष्णि-सया जोयणाणि तेतीसं । स-ति-भागा पत्तेक्कं श्रादय तिमिराण श्रायामो ॥ २६५ ॥ - ८३३३३ । १ । अर्थ- प्रत्येक आतप एवं तिमिर क्षेत्रकी लम्बाई तेरासी हजार तीनसौ तैंतीस योजन और एक योजनके तृतीय माग सहित है ।। २६५|| w [ गाया : २६४ - २६६ विशेषार्थ - मेरुके मध्यसे लवणसमुद्र के छठे भाग पर्यन्तका क्षेत्र सूर्यके आतप एवं तमसे प्रभावित होता है । लवणसमुद्रका अभ्यन्तर सूची - व्यास ५ लाख योजन है । इसमें ६ का भाग देनेपर ( ५००००० + ६ ) = ८३३३३३ योजन होता है। यही प्रत्येक श्रातप एवं तम क्षेत्रकी लम्बाईका प्रमाण है ॥ - प्रथम पथ स्थित सूर्यकी परिधियों में ताप क्षेत्र निकालने की विधि - इट्ठ परिरय-रास, ति-गुणिय बस-भाजिदम्मि जं लखौं । सा घम्म खेत्त परिही, पठम पहायवे सूरे ॥ २६६ ॥ - है। अर्थ- इच्छित परिधि राशिको तिगुना करके दसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर उस ताप क्षेत्र की परिधिका प्रसारण होता है ।। २९६॥ विशेषार्थ-दो सूर्य मिलकर प्रत्येक परिधिको ६० मुहूर्त में पूरा करते हैं। सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहते सवं ( १६४ ) परिधियों में १८ मुहूर्तका दिन होता है । विवक्षित परिधि में १८ मुहतका गुणा करके ६० मुहूतौका माग देनेपर ताप व्याप्त क्षेत्रको परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है । इसीलिए गाथा में ( 14 ) ३ का गुणाकर दसका भाग देने को कहा गया है । I Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहियारो प्रथम पथ स्थित सूर्य की क्रमश: दस परिधियोंमें ताप परिधियोंका प्रमाण -- णव य सहस्सा उसय, छासीदो जोयणाणि तिष्णि-कला | पंच-हिदा ताव- खिदी, मेरु-णगे पढम पह ठिकम्मि ।१२६७॥ गाथा | २६७-३०० ] - ९४८६ । ३ । अर्थ - सूर्य के प्रथम पथ में स्थित रहनेपर मेरु पर्वत के ऊपर नौ हजार चार सौ छघासो योजन और पाँचसे भाजित तीन कला प्रमाण ताप-क्षेत्र रहता है ।। २९७॥ विशेषार्थ - मेरु पर्वत की परिधिको ३ से गुणित कर १० का भाग देनेपर मेरु पर्वत के ऊपर ताप क्षेत्रका प्रमाण ( ३३ ) = ९४८६३ योजन प्राप्त होता है । खेमा पण लेनसर ति-सय- अडबीसा' । T सोलस-हिदा तियंसा, ताथ - खिदी पढम-पह ठिकम्भि ||२६८ ॥ ५३३२८ । २६ । अर्थ --- सूर्य के प्रथम पथमें स्थित रहनेपर क्षेमा नामक नगरीके प्रणिधिभाग में ताप क्षेत्रका प्रमाण तिरेपन हजार तीन सौ अट्ठाईस योजन और एक योजनके सोलह भागों में से तीन भाग अधिक होता है ||२८|| (2321)× विशेषार्थ - क्षेमा नगरी के प्ररिधिभागकी परिधि १७७७६०३ यो० =२५३३५१५३३२८६६ योजन | [ ३१६ खेमपुरी- पणिधीए, अडवण्ण-सहस्स चउसयारणं पि । पंचत्तरि जोयणया, इगिवाल-कलाओ सीदि-हिया ॥ २६६॥ ५८४७५१ । । अर्थ- यह तापक्षेत्र क्षेमपुरीके प्रणिधिभाग में अट्ठावन हजार चार सौ पचत्तर योजन और अस्सीसे भाजित इकतालीस कला प्रमाण रहता है ।। २९९ ।। विशेषार्थ - क्षेमपुरीके प्रणिविभागको परिधि १६४६१८६ यो० = ( १५५६३४७ ) × १० = ५८४७५] योजन तापक्षेत्रका प्रमाण । १. प. प्रतीसा । रिट्ठाए पणिधीए, बासट्ठि सहस्स णव सयाणं पि । एक्कारस जोयणया, सोलस-हिद- पण-कलाओ ताव- खिदी ||३००। ६२९११ ।। । - Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ३०१-३०३ श्रयं - वह तापक्षेत्र अरिष्टनगरी के विभाग में करा हमार दो ग्यारह योजन और साहस भाजित पांच कला प्रमाण है ||३००। विशेषार्थ - भरिष्ट नगरीके प्रणिधिभागकी परिधि २०६७०४३ (१¥¥24 ) ×6= ६२९११९६ योजन तापक्षेत्र है ! अट्ठासट्ठि सहस्सा, अट्ठावण्णा य जोयणा होंति । narrat कलाओ, रिट्ठपुरी- पणिधि-साव-खिदी ।। ३०१ ॥ ६८०५८ । है । अर्थ - यह तापक्षेत्र अरिष्टपुरीके प्रणिधिभाग में अड़सठ हजार अट्ठावन योजन और एक योजनके अस्सी भागोंमेंसे इक्यावन कला अधिक रहता है ||३०१ || विशेषार्थ - अरिष्टपुरी के प्रस्पिधिभाग में परिधि २२६८६२१ = ( १७१६*) * ६८०५८६ योजन तापक्षेत्र । बाहत्तरी सहस्सा, चउस्सया जोयणाणि चणवदी । सोलस-हिव-सत्त- कला, स्वग्गपुरी- पणिषि-ताब- मही ।। ३०२ || ७२४६४ । ६ । खड्गपुरी प्रणिधिभाग में ताप क्षेत्रका प्रमाण बहत्तर हजार चार सौ चौरानबे योजन और सोलह भाजित सात कला अधिक है ।। ३०२ ।। विशेषार्थ – खड्गपुरीके प्रणिधिभाग की परिधि २४१६४८ ३ = ( १९३¥¢* }x%= ७२४९४६ योजन ताप क्षेत्र । प्रमाण । सत्तसरी सहस्सा, छच्च सया जोयणाणि इगिवालं । सीबि -हिदा इगिसट्ठी, कलाओ मंबुसपुरम्मि ताब-मही ॥ ३०३ ॥ ७७६४१ । १७ । अर्थ- मंजूषपुर में ताप क्षेत्रका प्रमाण सतत्तर हजार छह सौ इकतालीस योजन और अस्सीसे भाजित इकसठ कला अधिक है ॥ ३०३ ॥ विशेषार्थ – २५८८०५६ २०५४४७ = ७७६४१६३ यो० मंजूषपुर में तापक्षेत्र का i | Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३०४-३०७ ] सत्तमो महाहियारो बासीदि-सहस्साणि, सत्तचरि जोयगाणि णव अंसा । सोलस-भजिदा ताओ, 'प्रोसहि-गयरस्स पणिधीए ॥३०४।। ८२०७७ 1 । अर्थ-प्रौषधिपुरके प्ररिए धिभागमें तापक्षेत्र बयासी हजार सततर योजन और सोलहसे भाजित नौ भाग अधिक है ।।३०४।। विशेषार्थ-२७३५९१६ - २१६६४३५४८२०७७६६ यो औषधिपुरमें तापक्षेत्रका प्रमाण । सत्तासीवि-सहस्सा, बु-सया चवीस जोयणा अंसा। एक्कत्तरि सोहि-हिदा, ताव-खिदो पुडरोगिणी -णयरे ॥३०५।। १७२२४ । । प्रयं-पुण्डरीकिणी नगरमें तापक्षेत्र सतासी हजार दो सौ चौबीस योजन और अस्सीसे भाजित इकहत्तर भाग अधिक है ॥३०५।। विशेषार्थ -२९०७४९३ = २५५१४६७४-८७२२४६१ योजन पुण्डरीकिणीपुरके ताप क्षेत्रका प्रमाण। घउणउदि-सहस्सा पण-सयाणि छब्बीस जोयणा सत्ता। अंसा बसेहि भजिदा, पठम - पहे ताय-खिदि-परिही ॥३०६॥ १४५२६ । । प्रथं-प्रथम पथमें ताप क्षेत्रकी परिधि चौरान हजार पाँच सौ छब्बीस योजन और दससे माजित चार माग अधिक है ।।३०६।। विशेषार्थ-(प्रथम पथको अभ्यन्तर परिधि ३१५०८६ यो० )x; ६४५२६यो. तापक्षेत्रकी परिधिका प्रमाण । द्वितीय पयमें तापक्षेत्रको परिधिचउणावि-सहस्सा, पणु-सयाणि इगितीस जोयणा अंसा । चत्तारो पंच - हिता, विविय • पहे ताव-खिदि-परिही ॥३०७॥ १. द. य. क. ज. होदि । २. व. ब. पुरगिणी, क. ज. पुरिंगिणी। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ] एवं मन्क्रिम-मग्गतं वव्यं । तिलोयपण्णत्ती ९४५३१ । । अर्थ - द्वितीय पथमें ताप - क्षेत्रको परिधि चौरानबे हजार पाँच सौ इकतीस योजन और पाँचसे भाजित चार भाग अधिक है ।। ३०७॥ विशेषार्थ - द्वितीय पथ में परिधिका प्रमाण ३१५१०६३६ योजन प्रमाण है। इससे योजन छोड़कर का गुणा करनेपर तापक्षेत्रको परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा - ३१५१०६ × २४= ६४५३१ योजन । इसप्रकार मध्यम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए । 4 [ गाथा : ३०५-३०९ मध्यम पथमें तापक्षेत्रको परिधि - पंचाणउबि सहसा, बसुसरा जोयणाणि तिष्णि कला । पंच वित्ता मज्झिम पम्मि तावस्स परिमाणं ॥ ३०८ ॥ ६५०१० । ६ । → एवं बुचरिम-मग्गंत गोवध्वं । अर्थ - मध्यम पथ में तापका प्रमाण पंचानव हजार दस योजन और पाँचसे विभक्त तीन कला अधिक ( ९५०१० योजन ) है ।।३०८ || इसप्रकार द्विचरम मार्ग तक ले जाना चाहिए। बाह्य पथमें तापक्षेत्रका प्रमाण पण उदि सहस्सा चउ-सारिण चरणउदि जोयणा सा । पंच हिदा बाहिरए, पढम पहे संठिदे सूरे ॥ ३०६ ॥ ६५४९४ । ६ । प्रयं सूर्य के प्रथम पथमें स्थित रहनेपर बाह्य मार्गमें तापक्षेत्रका प्रमाण पंचानबे हजार चार सौ चौरानवे योजन और एक योजन के पांचवें भागसे अधिक है ।। ३०६ ॥ ३१८३१४×१६५४९४२ योजन तापक्षेत्रका प्रमाण Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहियारो लवणोदधिके छठे भागकी परिधि में तापक्षेत्रका प्रमाण श्रावण सहस्सा, एक सयं तेरसुहारं 'लवलं । जोयरणया च शंसा, पवित्ता पंच रुहि ॥३१० ॥ १५८११३ । ६ । गाया : ३१०-३१३ } - एवं होदि पमाणं, लवणोदहि-वास छटु-भागस्स । परिहोए ताव-खेतं, दिवसयरे पक्षम - २ भग्ग ठिदे ॥१३११॥ -- अर्थ -- सूर्यके प्रथम मार्ग में स्थित रहनेपर लवणोदधिके विस्तार के छठे भागकी परिधि में ताप क्षेत्रका प्रमाण एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन और पाँच रूपोंसे विभक्त चार भाग अधिक है ||३१०-३११॥ विशेषार्थ - लवण समुद्र के षष्ठ भागकी परिधि ५२७०४६ यो० है । ५२७६¥EX3 = १५८११३ योजन ताप क्षेत्रका प्रमाण । सूर्यके द्वितीय पथ स्थित होनेपर इच्छित परिधियों में ताप-क्षेत्र निकालने की विधि इट्ठ परिरय रासि चहतरि वो सएहि गुणिदध्वं । नव-सय- पण्णरस सहिवे, ताव-खिदे बिदिय पह-द्विदक्कस्स ।।३१२।। [ ३२३ १५५ अर्थ - इष्ट परिधि राशिको दो सौ चौहत्तरसे गुरणा करके नौ सौ पन्द्रहका भाग देनेपर — जो लब्ध आवे उतना द्वितीय पथ में स्थित सूर्यके ताप क्षेत्रका प्रमाण होता है ।।३१२ ।। विशेषार्थ -दो सूर्य मिलकर प्रत्येक परिधि को ६० मुहूर्त में पूरा करते हैं । सूर्यके द्वितीयपथमें स्थित रहते सर्व ( १६४ ) परिधियों में १७५३ मुहूर्तका दिन होता है । विवक्षित परिधि में १७ मुहूर्त का गुणाकर ६० मुहूर्तका भाग देनेपर ताप क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए गाथामें २७४ का गुणा कर ६१५ का भाग देने को कहा गया है । सूर्यके द्वितीय पथ स्थित होनेपर मेरु आदि परिधियोंमें ताप क्षेत्रका प्रमाणणवय सहसा चढ सय, उणहत्तरि जोयणा दु-सय-ता । से- णउदि जुदा 'ताही मेरुरणगे-बिदिय पह-ठिवे तपणे ॥ ३१३|| ६४६६ । १६६ । १. द. ब. क. ज. लक्खा । २. द. ज. वासरभाग ३. क. ज. तहा Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ 1 तिलोयपण्णसी [ गाथा : ३१४-३१६ प्रर्य-सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित रहनेपर मेरु पर्वतके ऊपर ताप क्षेत्रका प्रमाण नौ हजार चार सौ उनहत्तर योजन और दो सौ ते रानबै भाग अधिक है ।।३१३।। मेरु परिधि 31932x32-९४६९१ तापक्षेत्र। इगि-ति-व-ति-पंच-कमसो, जोयणया तह कलायो सग-तीसं । सग-सय बत्तीस-हिवा, खेमा - पणिधीए ताव - खिदो ॥३१४॥ ५३२३१ । ७१। प्रयं-सेमा नगरीके प्रणिधिभागमें एक, तीन, दो, तीन और पांच, इन अंकोंके क्रमसे प्रर्थात तिरेपन हजार वो सौ इकतीस योजन और सातसो बत्तीससे भाजित सैंतीस कला अधिक है ।।३१४॥ ( क्षेमा-परिधि १७७७६०३== १४३४६५ )xy= १ = ५३२३१/- तापक्षेत्रका प्रमाण । अढ-छ-ति-अटु-पंचा, अंक-कमे णव-परण-छ-तिय अंसा । पभ-छ-उछत्तिय-भजिवा, खेमपुरी-पणिधि-ताप-खिदो ॥३१॥ ५८३६८ । १५ । अर्थ-क्षेमपुरीके प्रणिधिभागमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण पाठ, छह, तीन, आठ और पांच, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् अट्ठावन हजार तीन सौ प्रड्सठ योजन और तीन हजार छह सौ साठसे भाजित तीन हजार छह सौ उनसठ भाग अधिक है ॥३१॥ (क्षेमपुरीकी परिधि १६४६१६=१५५६३४७) x = ५८३६८१११ योजन ताप क्षेत्र। छण्णव-सग-दुग-छक्का, अंक-कमे पंच-तिय-छ-दोणि कमे। पभ-छ पत्तिय-हरिया, रिट्ठा - पणिधीए ताव - खिदी ॥३१६॥ ६२५६६ । । प्रयं-अरिष्टा नगरीके प्ररिणधि-भागमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण छह, नो, सात, दो और छह इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् बासठ हजार सात सौ छ्यान योजन और तीन हजार छह सौ साठसे भाजित दो हजार छह सौ पैंतीस भाग अधिक है ॥३१६॥ (अरिष्टा की परिधि २०९७०४६ = ११.५५३५) x = २२६ ६२७९६१ यो० ताप-क्षेत्र है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] माथा : ३१७-३२. ] सत्तमो महाहियारो [ ३२५ चउ-तिय-णवसग-छक्का, अंक-फमे जोयणाणि अंसा प । णव-चउ-चउक्क दुगया, रिद्वपुरी-पणिधि-ताब-खिदी ।।३१७।। ६७६३४ । । अर्थ-अरिष्टपुरोके परिणविभागमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण चार, तीन, नौ, सात और छह इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् सड़सठ हजार नौ सौ चौंतीस योजन और दो हजार चार सौ उनचास भाग अधिक है ।।३१७॥ (अरिष्टपुरीको परिधि - २२६८६२६ = xeku ) x 1 = ExeECE =६७९३४। यो तापक्षेत्र । दुग-छपक-ति-ग-सत्ता, अंक-कमे जोयणाणि घसा य । पंच-बु-चउक्क-एक्का, खरगपुरं परिणधि-ताव-खिदो ॥३१८।। मर्य-खड़गपुरीके प्रणिधिभागमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण दो, छह, तीन, दो और सात इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् बहत्तर हजार तीन सौ बासठ योजन और एक हजार चार सौ पच्चीस भाग अधिक होता है ।।३१॥ (खड़गपुरीकी परिधि २४१६४८१ = १४३३१८५) x y = ५ -७२३६२११३७ यो० ताप-क्षेत्र। णभ-गयण-पंच-सत्ता, सत्तंक-कमेण जोयणा अंसा । णव-तिय-दुगेक्कमेसा, मंजुसपुर-पणिधि-ताब-खिदी ॥३१६।। ७७५०० । । मर्थ-मंजूषपुरके प्रणिधिभागमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण शून्य, शून्य, पांच, सास और सात, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् सतत्तर हजार पांच सौ योजन और एक हजार दो सौ उनतालीस भाग प्रमाण होता है ।।३१९।। ( मंजूषपुरकी परिधि – २५८८०५६ - Ritaxxs ) x = २८ - ७७५०० यो ताप-क्षेत्रका प्रमाण । प्रष्टु-दु-णवेषक-अट्ठा, अंक-कमे जोयणाणि मंसा य । पंचेश्क-बुग-पमारणा, ओसहिपुर-पणिधि-ताव-खिवी ॥३२०॥ ८१९२८ । -१५ । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३२१-३२३ अर्थ---औषधिपुरके परिणधिभागमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण पाठ, दो, नौ, एक और आठ, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् इक्यासी हजार नौ सौ अट्ठाईस योजन और दो सौ पन्द्रह भाग अधिक होता है ॥३२०।। ( औषधिपुरकी परिधि – २७३५९१३ = २१६६७३५) x == ५ =८१९२८। यो तापक्षेत्रका प्रमाण है । छ-च्छक्क-गयण-सत्ता, अटुक-कमेग जोयणागि कला। एक्कोणत्तीस - मेत्ता, ताघ - खिदी पुंडरिगिणिए ॥३२१।। ८७०६६ । । अर्थ-पुण्डरी किरणी नगरीमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण छह, छह, शून्य, सात और आठ, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् सतासी हजार छयासठ योजन और उनतीस कला प्रमाण होता है ।। ३२१॥ {पुण्डरीकिणीपुरकी परिधि - २९०७४९५ = २33948 ) x 1 = HA५. -=८७०६६१- योजन ताप-क्षेत्रका प्रमाण है। सूर्यके द्वितीय पथ स्थित होनेपर अभ्यन्तर ( प्रथम ) वीथीमें ताप क्षेत्रका प्रमाण चउ-पंच-ति-चउ-णवया, अंक-कमे छक्क-सत्त-चउ-अंसा । पंचेषक-रणव-हिदायो, बिविय-पहपकम्मि पढम-पाह तायो ॥३२२॥ ९४३५४ II अयं-द्वितीय पथ स्थित सूर्यका तापक्षेत्र प्रथम ( अभ्यन्तर ) यीथीमें चार, पाँच, तीन, चार और नी, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् चौरानबे हजार तीन सौ चौवन योजन और नौ सौ पम्बहसे भाजित चार सौ छयत्तर भाग अधिक होता है ||३२२॥ ( अभ्यन्तर वीथीकी परिधि-३१५०८९) - ६४३५४१ योजन ताप-क्षेत्रका प्रमारा। द्वितीय पथको द्वितीय वीथीका तापक्षेत्रघउ-णउदि-सहस्सा तिय-सयाणि उणसहि नोयरणा अंसा। उमसट्ठी पंच-सया, विविय-पहक्कम्मि बिडिय-पह-तावो ॥३२३॥ ९४३५९ । ५७६। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३२४-३२५ ] प्रथं - ( सूर्यके ) द्वितीय चौरानबे हजार तीन सी उनसठ है ।।३२३ ॥ सतमो महाहियारो [ ३२७ पथ में स्थित रहनेपर द्वितीय वीथीमें ताप क्षेत्रका प्रमाण भोजन और पाँच सौ उनसठ भाग अधिक होता विशेषार्थ - द्वितीय पथकी परिधि प्रमाण ३१५१०६१६ योजनमें से योग छोड़कर यो० का गुणा करनेपर यहाँ के तापक्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा : ३१५१०६ यो०×१५ - ९४३५९३१ योजन परिधि है । = द्वितीय पथकी तृतीय वीथीका तापक्षेत्र चजण वि-सहस्सा तिय-सयाणि पर्णाट्टि जोयणा सा । afr-रू होंति तदो, बिदिय पहक्कम्मितबिध-पह-तानी ॥ ३२४ ॥ ९४३६५ । ९१५ । एवं मम पहस्स वाइल्ल-पह परियंतं णदव्वं । अर्थ – (सूर्यके) द्वितीय पथमें स्थित रहने पर तृतीय वीथीमें ताप क्षेत्रका प्रमाण चौरानवे हजार तीन सौ पैंसठ योजन और एक भाग प्रमाण अधिक ९४३६५३१४ यो० होता है || ३२४ ॥ इसप्रकार मध्यम पथके आदि पथ पर्यन्त ले जाना चाहिए । द्वितीय पथकी मध्यम वीथीका ताप क्षेत्र सरा-तिय-टु- चउणव-संक-बकमेण जोयणाणि श्रंसा । तेरी चारि-सया, विडिय-पहक्कम्मि मञ्झ-पह तावी ।।३२५।। ९४८३७ । ४१३ । एवं बाहिर यह हेट्टिम - पहंतं वव्थं । प्र - ( सूर्यके ) द्वितीय मार्गमें स्थित रहनेपर मध्यम पथमें तापका प्रमाण सात, तीन, माठ, चार और नौ, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् चौरानबे हजार आठ सौ सैंतीस योजन और चार सो रानवे भाग अधिक ९४८३७६योजन होता है ।। ३२५३॥ इसप्रकार बाह्य पथके अधस्तन पथ तक ले जाना चाहिए । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] तिलोयपण्णत्ती द्वितीय पथकी बाह्य बोधोका ताप क्षेत्र - पणणउदि सहस्सा तिय-सयाणि बीसुत्तराणि जोयणया । छत्तीस-दु-सय-अंसा, बिदिय पहक्कस्मि अंत पह-तायो ॥ ३२६ ॥ ९५३२० । १३६ । [ गाथा : ३२६-३२८ अर्थ - (सूर्य) द्वितीय पथमें स्थित होनेपर अन्तिम पथमें तापका प्रमाण पंचानबै हजार तीन सौ बीस योजन और दो सौ छत्तीस भाग अधिक ( ९५३२०११ योजन ) है || ३२६ || सूर्यके द्वितीय पथ में स्थित होनेपर लवण समुद्रके छठे भाग में ताप-क्षेत्र - पंच- दुग- अट्ठ-सत्ता, पंचेक्कक वकमेरा जोयणया । सा णव दुग-सत्ता, बिडिय पहक्कम्मि लवण- छडू से ।। ३२७ ।। १५७८२५११६ ० प्र--सूर्यके द्वितीय पथ में स्थित होनेपर लवणसमुद्रके छठे भागमें ताप क्षेत्रका प्रमाण पाँच, दो, आठ, सात, पांच और एक इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् एक लाख सत्तावन हजार आठ सौ पच्चीस योजन और सात सौ उनतीस भाग अधिक ( १५७८२५९६ योजन ) है ॥ ३२७॥ सूर्यके तृतीय पथमें स्थित होनेपर परिधियों में ताप - क्षेत्र प्राप्त करने की विधि इट्ट परिरय रासि सगवालम्भहिय-पंच-सय-गुणिदं । भ-तिय-अटुक्क हिरे, तायो तवरणम्मि तदिय-मग्ग-ठिवे ॥ ३२८ ॥ - ५४०. 12301 - इष्ट परिधिको पाँच सौ सैंतालीस से गुणित करके उसमें एक हजार आठ सौ तीसका भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहनेपर विवक्षित परिधि में ताप क्षेत्रका प्रमाण रहता है ।। ३२८ ।। विशेषार्थ - यहाँ सूर्य तृतीय पथमें स्थित है और इस पथमें दिनका प्रमाण (+ - - ) १७३१-२६४ मुहूर्त है । अतः विवक्षित परिधिके प्रभाण में '* मुहूतौंका गुणाकर ६० सुहूतों का भाग देने पर अर्थात् (X=TENS ) ५४७ का गुणाकर १८३० का भाग देनेपर ताप-क्षेत्र प्राप्त होता है । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! ३२९-३३२ ] सत्तमो महाहियारो [ ३२९ सूर्य के तृतीय पथमें स्थित होनेपर मेरु आदि परिधियोंमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण णवय-सहस्सा चउस्सयाणि बावण्य-जोयणाणि कला । चउहतरि-मेत्ताओ, तदिय • पहक्कम्मि मंदरे तानो ॥३२६।। ६४५२ ! १४. अर्थ-(सूर्यके ) तृतीय मार्ग में स्थित होनेपर सुमेरु पर्वतके ऊपर ताप-क्षेत्रका प्रमाण नौ हजार चार सौ बावन योजन और चौहत्तर कला प्रमाण अधिक है ।।३२९॥ ( मेरु परिधि – 113 xty:=६४५२६६ योजन तापक्षेत्र है । तिय-तिय-एक्क-ति-पंचा, अंक-कमे पंच-सस-छ-दुग-कला। अद-दु-णय-दुग-भजिदा, तावो खेमाए तदिय - पह - सूरे ॥३३०॥ ५३१३३ । ३ । अर्थ (सूर्यके ) तृतीय मार्ग में स्थित होनेपर क्षेमा नगरी में तापका प्रमाण तीन, तीन, एक, तीन और पांच इन अंकोंके क्रमसे अर्थात तिरेपन हजार एक सौ तेतीस योजन और दो हजार नौ सौ अट्ठाईससे भाजित दो हजार छह सौ पचहत्तर कला है ।।३३०॥ (क्षेमाकी परिधि १७७७६०५= 12306)४ -१५१५२=५३१३३३११ योजन सूर्यके तृतीय पथ स्थित क्षेमानगरीके ताप क्षेत्रका प्रमाण । दुग-छ-दुग-प्रह-पंचा, अंक • कमे णव-बुगेक्क-सत्त-कला। ख-चउ-छ-चउ-इगि-भजिबा, तदिय-पहक्कम्मि खेमपुर-तायो ।॥३३॥ ५८२६२ । । अर्थ-(सूर्यके ) तृतीय मार्ग में स्थित रहते क्षेमपुरीमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण दो, छह, दो, आठ और पांच, इन अंकोंके क्रमसे अट्ठावन हजार दो सौ बासठ योजन और चौदह हजार छह सौ चालीससे भाजित सात हजार एक सौ उनतीस कला है ॥३३१।। ( क्षेमपुरीकी परिधि १९४९१६६ = १५५६३४७ ) x = "TE - ५८२६२१११ योजन ताप-क्षेत्र । दुग-प्र-छ-दुग-छक्का, अंक-कमे जोयणाणि अंसा य । पंचय-छ-अट्ठ-एक्का, तायो रिद्वान तबिय-पह-सूरे ॥३३२॥ ६२६८२ । । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणती [ गाथा : ३३३-३३५ अर्थ-( सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित रहते अरिष्टा नगरीमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण दो, पाठ, छह, दो और छह, इन अंकोंके क्रमसे बासठ हजार छह सौ बयालीस योजन और एक हजार आठ सौ पैंसठ भाग है ॥३३२॥ (अरिष्टाको परिधि २०६७०४३ - १६५१३३५) x = १८१४१३६ = ६२६८२ यो० तापक्षेत्र । गयणेक्क-अट्ठ-सत्ता, छक्क अंक-क्कमेण जोयणया। अंसा णव-पण-दु-ख-इगि, तक्यि-पहपकम्मि रिद्वपुरे ॥३३३॥ ६७८१० । ११ । अर्थ-( सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित होने पर अरिष्टपुरमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण शून्य, एक, आठ, सात और छह, इन अंकोंके क्रमसे सड़सठ हजार आठ सौ दस योजन और दस हजार दो सौ उनसठ भाग है ।।३३३॥ (अरिष्टपुरी की परिधि २२६८६२६ = ४१४८७ ) x = FERTER =६७८१०१४0 योजन तापक्षेत्र। भ-तिय-दुग-दुग-ससा, अंक-कमे जोयणाणि अंसा य । पण-णव-णव-घउमेत्ता, तावो खग्गाए तधिय-पह-तवणे ॥३३४।। ७२२३० १ . अर्थ-( सूर्य के ) तृतीय मार्ग में स्थित रहने पर खड्गापुरीमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण शून्य, तीन, दो, दो और सात इन अंकोंके क्रमसे बहत्तर हजार दो सौ तीस योजन और चार हजार नौ सौ पंचानब भाग है ।।३३४।। (खड्गपुरीकी परिधि २४१६४८१ = 182८५) x ५४५ -- Hest = ७२२३० योजन ताप-क्षेत्रका प्रमाण है। अट्ठ-परण-तिदय-सत्ता, सत्तंक-कमे णवट-ति-ति-एक्का। होति कलाओ तावो, तदिय-पहक्कम्मि मंजुसपुरोए ॥३३५॥ ७७३५८ । १३ । प्रपं-(सूर्यके ) तृतीय मागंमें स्थित होनेपर मंजूषापुरीमें तापक्षेत्रका प्रमाण आठ, पाँच, तोन, सात और सात इन अंकोंके क्रमसे सतत्तर हजार तीन सौ अट्ठावन योजन और तेरह हजार तीन सौ नवासी कला अधिक है ॥३३५।। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३३६-३३८ ] सत्तमो महाहियारो [ ३३१ ( मंजूषपुरको परिधि २५८८०५६ = २४४४४७ ) x = ०१११.३ ७७३५८111 योजन ताप-क्षेत्र है । अद्व-सग-सत्त-एकका, अट्ठक-कमेण पंच-दुग-एक्का। अट्ट य अंसा तावो, तबिय-पहक्कम्मि प्रोसहपुरोए ॥३३६॥ ८१७७८ । १०। अर्थ-(सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित होने पर औषधिपुरोमें तापक्षेत्रका प्रमाण आठ, सात, सात, एक और आठ, इन अंकोंके क्रमसे इक्यासी हजार सात सौ अठहत्तर योजन और पाठ हजार एक सौ पच्चीस भाग है ।।३३६।। (औषधिपुरीकी परिधि २७३५९१ = २१४१3५) x =- - ८१७७८॥३६ यो तापक्षेत्र । सत्त-शभ-पवय-छक्का, अट्ठक कमेण णव-सग? क्का । अंसा होवि हु तावो, तविय-पहक्कम्मि पुडरिगिणिए ॥३३७॥ ८६९०७ I I प्रर्ष-(सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित होनेपर पुंडरी किणी नगरीमें तापक्षेत्र सात, शून्य, नो, छह और आठ, इन अंकोंके क्रमसे छयासी हजार नौ सौ सात योजन और एक हजार पाठ सौ उन्यासी माग है ।।३३७॥ (पुण्डरीकिणीपुरीकी परिधि २६०७४६१=२३१५६४) x - RAY= १६६०७४ योजन तापक्षेत्र । सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते अभ्यन्तर वीथी का तापक्षेत्रदुग-अटु-एक्क-चउ-णव, अंक-कमे ति-दुग-छक्क अंसा य । णभ-तिय-अठेक्क-हिवा, तविय-पहक्कम्मि पढ़म-पह-ताचो ॥३३८।। ९४१८२ । । अर्ष-( सूर्य के ) तृतीय पथमें स्थित होनेपर प्रथम वीथी में ताप-क्षेत्र दो, आठ, एक, चार और नौ, इन अंकोंके क्रमसे चौरानब हजार एक सौ बयासी योजन और एक हजार आठ सौ तीस से भाजित छह सौ तेईस भाग प्रमाण है ।।३३८॥ ( अभ्यन्तर वीथी को परिधि ३१५०८६ ) x = =९४१८२ योजन ताप-क्षेत्र । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३३९-३४२ सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते द्वितीय वीथी का ताप-क्षेत्रचउ-णउदि-सहस्सा इगि-सयं च सगसीदि जोया अंसा । बाहत्तरि सत्त-सया, तदिय-पहक्कम्मि बिविय-पह-तावो ॥३३६॥ ९४१८७ । । अर्थ-( सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित रहने पर द्वितीय वीथीमें ताप-क्षेत्र चौरानबै हजार एक सौ सतासी योजन और सात सौ बहत्तर भाग प्रमाण है ॥३३९।। द्वितीय पथकी परिधि ३१५१०६ यो० ४ ॐ यो०८९४१८७१११ यो० ताप क्षेत्र है । सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते तृतीय वीथी का ताप-क्षेत्र-- चउणउदि-सहस्सा इगि-सयं च बाणउदि जोयणा अंसा। सोलस-सया तिरधिया, तविय- पकम्मि तबिय-पह-तावो ॥३४०॥ ९४१९२ । 1881 प्रथ-(सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित होनेपर तृतीय वीथीमें ताप-क्षेत्रका प्रमाण पौरान हजार एक सौ बानबै योजन और सोलह सौ तीन भाग अधिक अर्थात् ( ९४१९२१६४ योजन ) है ॥३४०॥ सूर्य के तृतीय पथमें स्थित रहते चतुर्थ वीथीका ताप-क्षेत्रघउ-उदि-सहस्सा इगि-सयं च अडगउदि जोयणा अंसा। तेसठ्ठी दोणि सया, तविय-पहक्कम्मि तुरिम-पह-तायो ।।३४१॥ ९४१९८ । ४.! एवं मरिझम-पह-पाइल्ल-परिहि-परियतं णेदव्यं । अर्थ-(सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित होनेपर चतुर्थ वीथीमें तापक्षेत्र चौरानबै हजार एक सौ अट्ठान योजन और दो सौ तिरेसठ भाग ( ६४१६८ योजन ) प्रमाण है ।।३४१।। इसप्रकार मध्यम पथकी आदि ( प्रथम ) परिधि पर्यन्त ले जाना चाहिए । सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते मध्यम पथका ताप-क्षेत्रचउपउवि सहस्सा छस्सयाणि घउसटि जोयणा प्रसा। चउहतरि अट्ठ-सया, तदिय-पहक्कम्मि मझ-पह-तावो ॥३४२॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ३४३-३४५ ] सत्तमो महाहियारो [ ३६३ ६४६६४ । । एवं दुचरिम-मग्गंत णेदव्वं । अर्थ-(सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित रहते मध्यम पथमें ताप-क्षेत्र चौरानबे हजार छह सौ चौंसठ योजन और पाठ सौ चौहत्तर भाग ( ६४६६४६४. योजन) प्रमाण है ।।३४२।। इसप्रकार द्विचरम मार्ग तक ले जाना चाहिए। सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते बाह्य वीथीका तापक्षेत्रपणणउदि सहस्सा इगि-सयं च छादाल जोयणाणि कला। अठ्ठत्तरि पंच-सया, तविय-पहक्कम्मि बहि-पहे-तावो ॥३४३॥ ९५१४६ ।१७। अर्थ-( सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित होनेपर बाह्य पथमें ताप-क्षेत्र पंचानब हजार एक सो छयालीस योजन और पांच सौ अठहत्तर कला (१५१४६१११ योजन ) प्रमाण है ॥३४३॥ सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते लवणसमुद्रके छठे-भागमें ताप-क्षेत्र सम-तिय-पण-सग-पंचा, एपकं कमसो बु-पंच-घउ-एक्का । अंसा हवेदि तावो, तविय-पहपकम्मि लवण - छठसे ॥३४४॥ १५७५३७ । १४१। अर्थ-( सूर्यके ) तृतीय मार्ग में स्थित होनेपर लवण-समुद्रके छठे भागमें ताप-क्षेत्र सात, तीन, पाँच, सात, पांच और एक इन अंकोंके क्रमसे एक लाख सत्तावन हजार पाँच सौ सैंतीस योजन और एक हजार चार सो बावन भाग प्रमाण है ॥३४४।। विशेषार्थ-लवणसमुद्रके छठे भागकी परिधिका प्रमाण ५२७०४६ यो है। सूर्य तृतीय वीथी में स्थित है और उस समय दिन १७१७=११ मुहर्लोका होता है। इन मुहूतोंका परिधिके प्रमाणमें गुणा कर ६० मुहूर्ताका भाग देनेपर ताप-क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा५२०१४ x xt= PG= १५७५३७४१ योजन । शेष वीथियोंमें तापक्षेत्रका प्रमाणधरिऊण विण-महत्तं', पशि-वीहि सेसएसु मग्गेसु। सय्य - परिहोण तावं, दुचरिम - मग्गंत जेवव्यं ॥३४५॥ १. द. ब. क. ज. मुहृत्त। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : ३४६-३४७ अर्थ-इसीप्रकार प्रत्येक वीथी में दिनके मुहूतौका प्राश्रय करके शेष मार्गोंमें द्विचरम मार्ग पर्यन्त सब-परिधियोंमें ताप-क्षेत्र शात कर लेना चाहिए ।।३४५।। ___ षा-प्रथम, द्वितीय और तृतीय पथ स्थित सूर्यके तापक्षेत्रका प्रमाण प्रत्येक वीथोके दिन मुहूतोंका प्राश्रय कर १९४ परिधियों में से कुछ परिधियोंमें कहा जा चुका है और बाह्य वीथी स्थित सूर्य के तापक्षेत्रका प्रमाण कुछ परिधियों में आगे कहा जा रहा है। शेष ( १८४ - ४= ) १८० वीथियोंमें स्थित सूर्य के ताप क्षेत्रका प्रमाण प्रत्येक वीथोके दिन मुहूर्तांका आश्रय कर पूर्वोक्त नियमानुसार ही सर्व परिधियों में ज्ञात कर लेना चाहिए । सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होने पर इच्छित परिधिमें तापक्षेत्र निकालनेकी विधिपंच - बिहत्ते इच्छिय-परिरय-रासिम्मि होवि सं लक्ष। सा'ताव-खेत्त-परिही, बाहिर-मग्गम्मि दुरिण-ठिव-समए ॥३४६॥ अर्थ-इच्छित परिधिकी राशिमें पाँचका भाग देनेपर ओ लब्ध आवे उतनी सूर्यके बाह्य मार्ग में स्थित रहते समय ताप क्षेत्रको परिधि होती है ।।३४६।। विशेषा–यहाँ सूर्य बाह्य ( १८४ वीं ) वीथीमें स्थित है और इस वीथी में दिनका प्रमाण केवल १२ मुहूर्तका है । विवक्षित परिधिके प्रमाणमें १२ मुहूर्तका गुणा कर ६० मुहूर्ताका भाग देनेपर अर्थात् (2)- ५ का भाग देनेपर तापक्षेत्र का प्रमाण प्राप्त होता है । सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर मेरु आदि की परिधियों में ताप-क्षेत्रका प्रमाणछस्स सहस्सा ति-सया, चउवीसं जोयणाणि दोणि कला । पंच-हिवा मेक - णगे, ताथो बाहिर-पह-विक्कम्मि ॥३४७॥ ६३२४ १६। अर्थ-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर मेरु पर्वतके ऊपर ताप-क्षेत्रका प्रमाण छह हजार तीन सौ चौबीस योजन प्रौर पाँचसे भाजित दो कला रहता है ।।३४७॥ ( मेरु परिधि ३१६२२ )*-५-६३२४३ योजन तापक्षेत्र है । १ . तवयेसा। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहियारो पंचतीस - सहस्सा, पण-सय बावण्ण जोयणा प्रसा । प्रट्ठ-हिदा मोवर, तावो बाहिर पह-विवकम्मि ।। ३४८ || ३५५५२ । । । अर्थ- सूर्य बाह्य पथमें स्थित रहनेपर क्षेमा नगरीके ऊपर ताप-क्षेत्र पैंतीस हजार पाँच सौ बावन योजन और योजनके आठवें भाग प्रमाण रहता है ||३४८।। गाथा | ३४८ - ३५१ ] ( क्षेमानगरी की परिधि १७७७६०१ = १४९३०८५ ] x =८४१७ == ३५५५२६ योजन तापक्षेत्र है । तिय-प्रणव-तिया, अंक-कमे सत्त दोणि असा य । चाल विहसा तायो, खेमपुरी बाहि-पह द्विदक्कम्म ||३४६ ॥ - ३८६८३ । ३ । अयं -सूर्य के बाह्य पथ में स्थित होनेपर क्षेमपुरी में तापक्षेत्र तीन, आठ, नौ, आठ और तीन, इन अंकों क्रमसे अड़तीस हजार तो सो तेरासी योजन और चालीस से विभक्त सत्ताईस भाग प्रमाण रहता है ||३४९।। { क्षेमपुरीकी परिधि ११४६१८३ = १५५१४० ) x = १५७३४० = ३८६८३३ योजन तापक्षेत्र है । एक्कत्ताल सहस्सा णव सय चालीस जोयणा भागा । पणतीसं रिट्ठाए, 'तायो बाहिर पह-ट्ठिदवकम्मि ।।३५० ।। [ ३३५ ४१९४० । ३ । अर्थ - सूर्य के बाह्यपथ में स्थित होनेपर अरिष्टा नगरी में तापक्षेत्र इकतालीस हजार नौ सौ चालीस योजन और पैंतीस भाग प्रमाण रहता है ।। ३५० ।। ( श्ररिष्टा नगरीकी परिधि २०६७०४६ योजन तापक्षेत्र है। १६७2534 ) X = १७५५२०४१९४०३ = पंचत्ताल- सहस्सा बाहत्तरि ति सय जोयणा सा । सत्तरस रिट्ठपुरे, ताचो बाहिर पह-विक्कम्मि ।। ३५१ ॥ ४५३७२ । । । १. द. ज. वाहो । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] तिलोयपण्णत्तो [ गाथा : ३५२-३५४ अर्थ-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर अरिष्टपुरमें तापक्षेत्र पैतालीस हजार तीन सौ बहत्तर योजन और सत्तरह भाग प्रमाण रहता है ।।३५१।।। (अरिष्टपुरी की परिधि २२६८६२६ =14188 )x=10४६६ = ४५३७२१ योजन तापक्षेत्र है। अठ्ठत्ताल-सहस्सा, ति-सया उणतोस जोयणा प्रसा। पणवीसा खग्गोवरि, तावो बाहिर-पह-ट्टिदक्कम्मि ॥३५२॥ ४८३२६ । ५। अर्थ-सूर्यके बाह्यपथमें स्थित होनेपर खड्गानगरीमें ताप-क्षेत्र अड़तालीस हजार तीन सौ उनतीस योजन और पच्चीस भाग प्रमाण है ॥३५२।। (खड्गानगरी की परिधि २४१६४८८=18381८५)xt=३८६१३-४८३२९ योजन तापक्षेत्र है। एक्कावण-साहस्सा, सत्त-सया एक्कसठि जोयणया । सत्तंसा बाहिर - पह - ठिन • सूरे मंजुसे तावो ॥३५३॥ ५१७६१। । अर्ष-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर मंजूषा नगरीमें तापक्षेत्र इक्यावन हजार सात सौ इकसठ योजन और सात भाग प्रमाण रहता है ।।३५३।। ( मंजूषापुरकी परिधि २५८८०५५ - १०५४७ )xt Payxx = ५१७६११ योजन तापक्षेत्र है। बउवण्ण-सहस्सा, सग-सयाणि अठरस जोयणा प्रसा। पण्णरस प्रोसहिपुरे, तावो बाहिर-पह-ठिबक्कम्मि ॥३५४॥ ५४७१८ । । अर्म--सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर औषधिपुरमें तापक्षेत्र चौवन हजार सात सौ अठारह योजन और पन्द्रह भाग प्रमाण रहता है ।।३५४।। ( औषधिपुरकी परिधि २७३५९१३ - ११४34)x x3gpx6-५४७१६६ योजन तापक्षेत्र है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३५५-३५८ ] सत्तमो महाहियारो अट्ठावण्ण-सहस्सा, इगि-सय-उगवण्ण जोयणा प्रसा। सगतीस बहि-पह-वि-तवणं तावो पुरीम्म चरिमम्मि ॥३५॥ ५८१४९।३०। अर्थ-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर अन्तिमपुर अर्थात् पुण्डरीकिणी नगरीमें ताप-क्षेत्र अट्ठावन हजार एक सौ उनचास योजन और सैंतीस भाग प्रमाण रहता है ॥३५५।। ( पुण्डरी किणीपुरकी परिधि २९०७४९५ - २११५• )x1=23386 = ५६१४९३४ योजन तापक्षेत्र है। सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर प्रथम पथमें ताप-क्षेत्रतेसट्टि - सहस्साणि, सत्तरसं जोयणाणि घउ-प्रसा। पंच-हिदा बहि-मग्ग-दिम्मि दुमणिम्मि पढम-पह-तावो ॥३५६॥ प्रयं-सूर्यके बाह्यमार्गमें स्थित होनेपर प्रथम पथ (अभ्यन्तर वीथी ) में ताप-क्षेत्र तिरेसठ हजार सत्तरह योजन और पांचसे भाजित चार भाग प्रमाण रहता है ।।३५६११ (प्रथम पथ की परिधि ३१५०८९ }-५-६३० १७१ योजन तापक्षेत्रका प्रमाण है। सूर्यके बायपथ स्थित रहते द्वितीय बीथीमें तापक्षेत्रतेसटिठ-सहस्साणि, जोयणया एक्कवीस एक्ककला । बिदिय-पह-ताव-परिही, बाहिर-मग्ग-दिठवे तवणे ॥३५७॥ ६३०२१ ।। एवं मज्झिम-पहंत णेवब्छ । पर्ष-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर द्वितीय वीथी की ताप-परिधिका प्रमाण तिरेसठ हजाब इक्कीस योजन और एक भाग प्रमाण है ॥३५७।। ( द्वितीय पथ की परिधि ३१५१०६ यो०)xt=६३०२११ योजन ताप-परिधि है । इसप्रकार मध्यम पथ पर्यन्त ले जाना चाहिए । सूर्यके बाह्यमार्गमें स्थित होनेपर मध्यम पपमें तापक्षेत्रतेसठि-सहस्सागि, ति-सया चालीस भोयरणा दु-कला। मझ-पह-ताव-खेसं, विरोधणे बाहि • मगा - ट्ठिवे ॥३५॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] तिलोय पण्णत्ती ६३३४० । ६ । एवं चरिम-मग्गतं दव्वं । अर्थ- वैरोचन ( सूर्य ) के बाह्यमाग में स्थित होनेपर मध्यम पथमें ताप - क्षेत्रका प्रमाण तिरेसठ हजार तीन सौ चालीस योजन और दो कला रहता है ।। ३५८ ।। ( मध्यम पथकी परिधि ३१६७०२ ) ÷५-६३३४० योजन ताप-क्षेत्र है । इसप्रकार द्विचा मार्ग पर्यन्त जाना चाहिए प्रमाण है । [ गाथा: ३५६-३६१ सूर्यके बाह्य पथ स्थित होनेपर बाह्यपथमें तापक्षेत्र- तेसट्ठि सहस्सा णि छत्तय वासट्ठि जोयणाणि कला । तारो बहि-मग्गा विम्मि तरणिम्मि बहि-पहे- ताओ ।। ३५६॥ ६३६६२ । ६ । अर्थ -- सूर्य के बाह्य पथ में स्थित होनेपर बाह्यमार्ग में ताप क्षेत्र तिरेसठ हजार छह सौ बासठ योजन और चार कला प्रमाण रहता है ||३५९ ।। ( बाह्य पथकी परिधि ३१८३१४ ) ÷५६३६६२ योजन तापक्षेत्रका प्रमाण है । सूर्य बाह्य पथमें स्थित रहते लवण समुद्र के छठे भाग में तापक्षेत्रका प्रमाण एक्कं लक्खं गध- जुद- चउण्ण-सयाणि जोयणा श्रं सा । बाहिर पह-द्विवनके, ताव खिदी लवण छूट्ट से ।।३६० ॥ १०५४०६ । ६ । - - अर्थ- सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर लवखसमुद्र के छठे भाग में ताप क्षेत्र एक लाख पाँच हजार चार सौ नौ योजन और एक भाग प्रमाण है || ३६० ।। ( लवण समुद्रके छठे भागकी परिधि ५२७०४६ ) : ५ - १०५४०११ योजन तापक्षेत्रका सूर्य की किरण शक्तियों का परिचय- मादिम पहावु बाहिर पहम्मि भाणुस्स गमण-कालम्मि | हाएवि फिरण सची, वडदि आगमण समयम्मि ।। ३६१ || Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६२-३६४ । सत्तमो महायिारो [ ३३६ अर्थ-प्रथम पथसे बाह्य पथकी ओर जाते समय सूर्य की किरण-शक्ति होन होती है और बाह्म पथसे आदि पथकी ओर वापिस आते समय वह किरण-शक्ति वृद्धिगत होती है ॥३६१॥ दोनों सूर्योका तापक्षेत्रताव खिवी परिहोओ, एवाओ एक्क-कमलणाहम्मि । बुगुणिव-परिमाणाओ, सहरूस - किरणेसु दोहम्मि ।।३६२॥ ताव-खिदि-परिही समत्ता । प्रथ-एक सूर्यके रहते ताप-क्षेत्र-परिधिमें जितना ताप रहता है उससे दुगुने प्रमाण ताप दो सूर्योके रहनेपर होता है ।१३६२।। ताप-क्षेत्र परिधिका कथन समाप्त हुआ 1 सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहते रात्रिका प्रमाणसम्बासुपरिहीसु', पढम-पह-ट्ठिद-सहस्स-किरणम्मि । बारस • मुहुत्तमेत्ता, पुह पुह उप्पज्मदे रत्ती ॥३६३॥ अर्थ-सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर पृथक्-पृथक् सब ( १९४) परिधियोंमें बारह मुहूर्त प्रमाण रात्रि होती है ॥३६३।। सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहते इच्छित परिधिमें तिमिरक्षेत्र प्राप्त करने की विधिइच्छिम-परिहि-पमाणं, पंच-विहत्तम्मि होदि जं लद्ध। सा तिमिर-खेत्त-परिही, पढम-पह-टिव-विणेसम्मि ।।३६४॥ मर्ष-इच्छित परिधि-प्रमाणको पाँचसे विभक्त करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सूर्य के प्रथम पथमें स्थित होनेपर तिमिर क्षेत्रको परिधिका प्रमाण होता है ।।३६४।। विशेषार्थ---यहाँ सूर्य प्रथम वीथी में स्थित है और इस बोथीमें रात्रिका प्रमाण १२ मुहूर्तका है। विवक्षित परिधिके प्रमाणमें १२ मुहूर्तका गुणाकर ६० मुहूर्तीका भाग देनेपर अर्थात् (28) अर्थात् ५ का भाग देनेपर तिमिर-क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३४० ] तिलोयपण्णत्तो [ गाथा : ३६५-३६८ सूर्यके प्रथम पथमें रहते मेरु प्रादि परिधियोंमें तिमिर क्षेत्रका प्रमाण छस्स सहस्सा ति-सया, चउवीस जोयणाणि वोणि कला । मेगिरि · तिमिर • खेत्तं, मादिम - मग्गद्विवे तवणे ॥३६॥ ६३२४ ।। अर्थ-सूर्यके प्रादि ( प्रथम ) मार्गमें स्थित होनेपर मेरु पर्वतके ऊपर तिमिरक्षेत्रका प्रमाण छह हजार तीन सौ चौबीस गोजन और दो भाग अधिक है ।।३६५11 { मेह परिधि ११३२ )x=६३२४३ योजन तिमिरक्षेत्र । पणतीस-सहस्सा पण-सयाणि बावण्ण-जोयणा अंसा । अटु-हिवा खेमाए, तिमिर-खिदी पढम-पह-ठिद-पयंगे ॥३६६।। ३५५५२११। अर्थ-पतंग (सूर्य) के प्रथम पथ में स्थित होनेपर क्षेमा नगरी में तिमिरक्षेत्र पैतीस हजार पांच सौ बावन योजन और एक योजनके आठवें भाग-प्रमाण रहता है ।।३६६।। (क्षेमाकी परिधि १७७७६०१=१४३३०८५) ४ -२८४.४१ = ३५५५२१ योजन तिमिरक्षेत्र। तिय-अटू-णवट्ठ-तिया, अंक-कमे सग-दुगंस चाल-हिदा । खेमपुरी-तम-खेत्तं, दिवायरे पढम • मग्ग - ठिदे ||३६७।। ___३६६८३ । । मर्थ--सूर्यके प्रथम मार्ग स्थित होनेपर क्षेमपुरीमें तम-क्षेत्र तीन, आठ, नो, पाठ और तीन, इन अंकोंके क्रमसे अड़तीस हजार नौ सौ तेरासी योजन और सत्ताईस भाग-प्रमाण रहता है ||३६७।। (क्षेमपुरीकी परिधि १९४६१८१-१५५ )xt=१४३४*=३८९८३१४ योजन तिमिरक्षेत्र है। एक्कत्ताल-सहस्सा, णव-सय-चालीस जोयणाणि कला। पणतीस तिमिर-खेत्तं, रिट्ठाए पढम-पह-गद-विणेसे ॥३६॥ ४१९४० । । . R Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६६-३७१ ] सत्तमो महाहियारो [ ३४१ अर्थ- सूर्य के प्रथम पथको प्राप्त होनेपर अरिष्टा नगरीमें तिमिर क्षेत्र इकतालीस हजार नौ सौ चालीस योजन और पैंतीस कला - प्रमाण रहता है ।। ३६८ ॥ ( अरिष्टानगरी की परिधि २०९७०४१ = १६७६३५) (2) योजन तिमिरक्षेत्र है । - बहत्तर योजन और सत्तरह भाग प्रमाण रहता है ।। ३६६।। बावत्तरिति-सयाणि, पणबाल सहस्स जोयणा श्रंसा । सत्तरस अरिट्ठपुरे, तम खेत्तं पढम पह सूरे ॥३६२॥ ( अरिष्टपुरीकी परिधि २२६६६२ = १९१४ ) x + योजन तिमिरक्षेत्र है । · ४५३७२ । १७ । अर्थ- सूर्यके प्रथम पथ में स्थित होनेपर अरिष्टपुर में तम क्षेत्र पैंतालीस हजार तीन सो ( खड्गा नगरीको परिधि २४१६४८ - १६३१८५ ) X (7) योजन तमक्षेत्र है । तम क्षेत्र है । = - 33५५२७ - H अट्ठत्ताल सहस्सा, ति-सया उणतीस जोयणा श्रंसा । पणुवीसं खग्गाए, बहुमहिम- पणिधि-तम- खेत्तं ॥ ३७० ॥ ४८३२९ | १५ | अर्थ-खड्गा नगरीके बहुमध्यम प्रणिधिभाग में तमक्षेत्र भड़तालीस हजार तीन सौ उनतीस योजन और पच्चीस भाग-प्रमाण रहता है ।। ३७० ।। १८ ८१३०४८४८०० = = ४१९४० एक्कावण्ण-सहस्सा, सत-सया एक्कसट्ठि जोयणया । सत्तंसा तम खेतां, मंजुसपुर मज्झ पणिधोए ।। ३७१ ॥ ४५३७२४७ |७८६६३७= ४५३२६५ ५१७६१ | ४ | अर्थ- मंजूषपुरकी मध्य प्ररिधि में तम क्षेत्र इक्यावन हजार सात सौ इकसठ योजन और सात भाग-प्रमाण रहता है || ३७१ || ( मंजूषापुरकी परिधि २४८८०५१ १०००४४० x १०७००४४० = ५१७६१४० योजन Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ | तिलोयपण्णत्ती चवण्ण- सहस्सा सग-सद्याणि श्रट्ठरस-जोयणा अंसा । पण्णरस प्रोसहोपुर- बहुमज्झिम- पणिधि तिमिर खिदी ॥ ३७२ ॥ ५४७१८ । । । । अर्थ - श्रोषधपुरकी बहुमध्यप्रणिधिमें तिमिरक्षेत्र चौवन हजार सात सौ अठारह योजन और पन्द्रह भाग-प्रमाण रहता है ।। ३७२ ।। ( औषधिपुरकी परिधि २७३५६१७ - २१८८७७५ ) × १ = ४३७७४० = ५४७१८ ( 2 ) योजन तमक्षेत्र है । [ गाथा : ३७२-३७५ श्रावण - सहस्सा, इगिसय उणवण्ण जोयणा श्रंसा । सगतीस पुंडरीगिणि- पुरीए बहु-मज्झ पणिषितमं ॥ ३७३ ॥ ५०१४६ । । अर्थ- पुण्डरीकिणी पुरीकी बहुमध्य-प्रणिधिमें तमका प्रमाण अट्ठावन हजार एकसो उनंचास योजन और संतीस भाग अधिक रहता है ।। ३७३|| { पुण्डरीकी नगरीकी परिधि २६०७४९५ तमक्षेत्र है | = २१२५६४* ) × ३=५८१४९ योजन सूर्य के प्रथम पथमें स्थित रहते अभ्यन्तर दीधी में तमक्षेत्रका प्रमाणतेसट्ठि सहस्सा, सत्तरसं जोयणा चउ-कलाओ । पंच-हिदा पढम-प, तम परिही पह-ठिद दिसे || ३७४ || ६३०१७ । ३ । अर्थ -- सूर्य के प्रथम पथमें स्थित होनेपर प्रथम पथमें तमक्षे त्रको परिधि तिरेसठ हजार सत्तरह योजन और चार भाग-प्रमाण होती है ।। ३७४ ।। ( प्रथम पथकी परिधि १५०८० X ६३०१७ योजन । द्वितीय पथमें तम क्ष ेत्र एक्क - कला सहि सहस्साणि, जोयणया एक्कवीस बिदिय-पह तिमिर- खेां श्रादिम मग हिदे सूरे ||३७५ || ६३०५१ । ६ । · Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३७६-३७८ सती माहियारो [ ३४३ अर्थ-सूर्य के प्रथम पथमें स्थित होनेपर द्वितीय वीथी में तिमिर-क्षेत्र तिरेसठ हजार इक्कीस योजन और एक कला अधिक रहता है ।। ३७५।। ( द्वितीय वीथीकी परिधि 3140 }x=६३०२१३ योजन । तृतीय पथमें तम-क्षेत्रतेसट्ठि-सहस्साणि, चउवीसं जोयणाणि चउ प्रसा। तविय-पह-तिमिर-मूमी, मत्तंडे पढम - मग्म - गवे ॥३७६। ६३०२४ । । । एवं मज्झिम-मगंतं जेवब्वं । अर्थ-सूर्यके प्रथम मार्ग में स्थित रहने पर तृतीय पथमें तिमिर क्षेत्र तिरेमठ हजार चौबीस योजन और चार भाग अधिक रहता है ।।३७६॥ (तृतीय पथकी परिधि 18x) =६३०२४३ योजन । इसप्रकार मध्यम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए । __ मध्यम पथमें तम-क्षेत्र--- तेसटि-सहस्साणि, ति-सया चालीस जोयणा दु-कला। मज्झिम-पह-तिमिर-खिदी, तिक्ष्वकरे पढम-मम्ग-ठिवे ॥३७७।। ६३३४० ।। एवं दुचरिम-परियंत णेदव्यं । प्रर्थ-तीवकर ( सूर्य के प्रथम पथमें स्थित होनेपर मध्यम पथमें तिमिर-क्षेत्र तिरेसठ हजार तीन सौ चालीस योजन और दो कला अधिक रहता है ।।३७७।। ( मध्यम पथको परिधि-१०२ )x=६३३४०१ योजन। इसप्रकार द्विचरम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए। बाह्य पथमें तम-क्षेत्र-- तेसट्रि-सहस्साणि, छुस्सय-बास दिल-जोयणाणि कला । चत्तारो बहिमम्गे, तम - खेत्तं पढम-पह-ठिवे तवणे ॥३७॥ ६३६६२ ।। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोषपणसी [ गाथा : ३७६ सो अर्थ- सूर्य के प्रथम पथमें स्थित होनेपर बाह्य मार्ग में तम क्षेत्र तिरेसठ हजार छह बासठ योजन और चार कला अधिक रहता है ।। ३७८ || ३४४ } ( बाह्य पथकी परिधि - ३१८३१४ ) x =६३६६२ योजन तमक्षेत्र | लवण समुद्र के छठे भाग में तम क्षेत्र क्षेत्र है । एक्कं लक्खं णव जुद- चउण्ण-सारिण जोयणा प्रसा । जल-छट्ठ-भाग- तिमिरं, उण्हयरे पढम मग्ग - ठिदे ॥ ३७६ ॥ - १०५४०९ । ६ । अयं -- सूर्य के प्रथम मार्ग में स्थित होनेपर लवणसमुद्र-सम्बन्धी जलके छठे भागमें तिमिरक्षेत्र एक लाख पाँच हजार चार सौ नौ योजन और एक भाग अधिक रहता है ।। ३७९ ।। ( लवणसमुद्र के छठे भागकी परिधि = ५१७०४ ) x = १०५४०६१ योजन तिमिर ( तालिका पृष्ठ ३४५ पर देखिये ) [ I Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३७९ ] १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ सत्तमो महाहियारो दोनों सूर्य के प्रथम पथमें स्थित रहते ताप और तम क्षेत्रका प्रमाण -- सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहते ९ १० ११ १२ १३ ફુ૪ १५ विवक्षित परिधि क्षत्र मेरु पर क्षेमा पर क्षेमपुरी पर अरिष्टा पर अरिष्टपुरी खड़गपुरी मंदापुरी प्रथम वीथी द्वितीय वीथी तृतीय वीथी मध्यम बीथी बाह्य वीथी ताप - क्षेत्रका प्रमाण तम क्षेत्रका प्रमाण (योजनों में) (योजनों में ) गाथा - २६७-३१० गाथा - ३६५-३७९ लवरणोदधि के छठे भाग पर पु पुण्डरीकणी पुरीपर ६७२२४३+ ६४८६ ६३२४३= १५८११x२ - ३१६२२ योजन ५३३२८+ ३५५५२ - ८८८८०१२ = १७७७६०३ ५८४७५६४ + ३८९८३ ६७४५६६६ × २= १९४९१=३, ६२६११+४१९४०३ = १०४८५२१३२ - २०६७०४६, ६८०५८६०+४५३७२११ = ११३४३११४ २ २२६८६२६, ७२४६४ + ] ४८३२९५ १२०८२४३६४२२४१६४८६ ७७६४१६३+ | ५१७६१४० = | F - ८२०७७१६+ ५४७१८६ ५८१४६१ = _६४५३१+ ९४५३७+ ९५०१०१ + ६५४६४ + १५८११३¥ + दो सूर्यका सम्मिलित क्षेत्र [ ३४५ १२९४०२३३x२= २५८८०५७ १३६७९५१५४२ - २७३५६१४ १४५३७४१३४२२९०७४९६, ९४५२६१६+६३०१७ १५७५४४३ ४२ = ३१५०८९ १५७५५३४२ - | ३१५१०६ | १५७५६२x२= ३१५१२४ परिधियोंका प्रमाण गाया २४६-२६५ " " " 37 ६३०२१ ६३०२४= ६३३४०= १५८३५१x२=३१६७०२, ६३६६२६ १५९१५७४२ = ३१८३१४ १०५४०९१= |२६३५२३४२ = ५२७०४६" 23 23 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ) तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३८०-३८१ नोट-साप और तम क्षेत्र की कुल (१++१८४+१= ) १९४ परिधियां हैं। इनमें से मेरु पर्वतको १+ोमा आदि नगरियोंकी ८+लवण० की १+और सूर्यकी (प्रारम्भिक ३+ मध्यम १+ और बाह्य १= ) ५ परिधियोंका अर्थात् १५ परिधियोंका विवेचन किया जा चुका है । इसीप्रकार शेष १७६ परिधियोंका भी जानना चाहिए। सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित रहते इच्छित परिधिमें तिमिर क्षेत्र प्राप्त करनेकी विधिइच्छिय-परिरय-रासिं, सगसट्ठी-तिय-सएहि गुणिणं । रणभ-तिय-अट्ठकक-हिंद, तम-खेत्तं बिविय-पह-ठिदे-सूरे ॥३०॥ अर्थ-इष्ट परिधि राशि को तीन सौ सड़सठसे गुणा करके प्राप्त गुणनफलमें अठारह सौ तीसका भाग देनेपर जो लन्ध प्रावे उतना सूर्य के द्वितीय पथमें स्थित रहने पर विवक्षित परिधिमें तम-क्षेत्रका प्रमाण होता है ।।३८०।। विशेषा- यहाँ सूर्य द्वितीय पथ में स्थित है । इस वीथीमें रात्रिका प्रमाण ( १२+11) =१२= मुहूर्तका है । विवक्षित परिधिके प्रमाणमें : मुहूतौका गुणाकर ६० मुहूर्तों का भाग देनेपर अर्थात् NH4 में से ३६७ का गुणाकर १८३० का भाग देनेपर तम-क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है । सूत्र के द्वितीय पथमें स्थित होनेपर मेरु आदिको परिधियों में तम-क्षेत्रका प्रमाणएक्क-चउक्क-ति-छक्का, अंक-फमे दुग-दुग-न्छ-अंसा य । पंचेक्क-णवय-भजिदा, मेर-तमं बिदिय- पह-ठिदे सूरे ॥३१॥ ६३४१ । १३ वर्ष-सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित होनेपर मेरु पर्वतके कपर तम-क्षेत्र एक, चार, तीन और छह इन अंकोंके क्रमसे छह हजार तीन सौ इकतालीस पोजन और नौ सौ पन्द्रहसे भाजित छह सौ बाईस भाग अधिक रहता है ॥३८१।। (मेस्की परिधि - ११२९) १५- 1 =६३४१६१ योजन तम-क्षेत्र है। १. द.ब.क.ब. परिषितवरणे। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तम महाहियारो गव-घउ-छ- पंच-तिया, अंक-कमे सत्त छक्क सत्तंसा | अटु-दु-पव- बुग भजिदा, लेमाए मज्झ पणिधि-तमं ॥ ३८२॥ गाथा : ३८२-३६५ ] ३५६४६ । ४ । ७६७ ३६२८ अर्थ-क्षेमा नगरीके मध्य प्रणिधि भाग में तम क्षेत्र नौ बार छह पांच और तीन इन अंकों क्रमसे पैंतीस हजार छह सौ उनंचास योजन और दो हजार नौ सौ अट्ठाईससे भाजित सात सौ सड़सठ भाग प्रमाण रहता है ।। ३८२ ।। ( क्षेमा नगरीकी परिधि = १७७७६०३ - १४२३७८५ X ३५६४९६ योजन तम क्षेत्र है । भ - णव णभणवय-तिया, अंक-कमे णव चउवक सग-दु-कला 1 णभ-च-छ-चउ एक्क-हिदा, खेमपुरी परिधि तम खेत्तं ॥ ३८३ ॥ ३६०६० | २४ अर्थ - क्षेमपुरी के प्रणिविभाग में तम क्षेत्र शून्य, नौ, शून्य, नी और तीन इन अंकों के क्रमसे उनतालीस हजार नब्बे योजन और चौदह हजार छह सौ चालीससे भाजित दो हजार सात सौ उनंचास कला प्रमाण रहता है ।। ३८३ || ( क्षेमपुरीकी परिधि १९४९१८६ = ३९०९०६०४४० योजन तम क्षेत्रका प्रमाण है । १४ ) X (अरिष्टाकी परिधि २०१७०४३ १९७५) योजन तम क्षेत्रका प्रमाण है 1 369 = - पंच-पण-गण-दुग-चड, अंक-कमे पण चक्क - प्रड-छक्का । शंसा तिमिरवखेत्ते मज्झिम पणिधीए रिट्ठाए ||३८४|| [ ३४७ 1= १०४३८१०३६ राष्ट TO Te38 ४२०५५ । १४६४ । अर्थ-अरिष्टा नगरीके मध्यम प्रणिधिभाग में तिमिर क्षेत्र पाँच, पाँच, शून्य, दो और चार, इन अंकों के क्रमसे बयालीस हजार पचपन योजन और छह हजार ग्राऊ सौ पैंतालीस भाग अधिक रहता है ||३८४|| "शश्य - ५७३३८० ४२०५४३६ छण्णव - चउक पण चउ, अंक-कमे णवय पंच सग पंचा। सा मज्झिम- पणिही तम खेत्तमरिट्ठ जयरीए ॥ ३८५ ॥ ४५४९६ ।। ५७५० अर्थ - अरिष्टपुरीके मध्यम प्रणिधिभाग में तम क्षेत्र छह, नौ, चार, पाँच और चार इन अंकों क्रमसे पैंतालीस हजार चार सौ छयानबे योजन और पांच हजार सात सौ उनसठ भाग अधिक रहता है ||३८|| Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] ( श्ररिष्टपुरीको परिधि योजन तम क्षेत्र है । ५७५ ४५४६६१ तिलोय पण्णत्ती = |२२६८६२३ – १८१६ } X एक्कं छउ अड्डा, चउ अंक कमेण पंच पंचट्ठा । वय कलाश्री खग्गा - मज्झिम- पणधीए तिमिर-खिदी ।। ३८६ ॥ .६८५५ ४८४६१ अर्थ-खड्गापुरी के मध्यम प्रणिधिभाग में तिमिर क्षेत्र एक, छह, चार, भाठ और चार, इन अंकों क्रमसे अड़तालीस हजार चार सौ इकसठ योजन और नौ हजार आठ सौ पचपन कला अधिक रहता है ।। ३८६॥ ( खड्गपुरीकी परिधि = २४१६४८ - १३३) ४८४६१२३ योजन सम क्षेत्रका प्रमाण है । - दुग-भ-वेवक-पंचा, अंक-कमे सावय-छक्क सचट्ठा । सा मंजुसणयरी - मज्झिम पणधीए तम खेत्तं ॥ ३८७॥ [ गाथा : ३६६-३८९ ६२६०४७१88 = १४४ ( मंजूषा नगरीकी परिधि २५८८०५७ Raspxv X ५१९०२४योजन ताप-क्षेत्रका प्रमाण है । - = ५१६०२ ।। अर्थ - मंजूषा नगरीके मध्यम प्रण विभाग में तम - क्षेत्र दो, शून्य, नौ, एक और पाँच इन अंकों क्रमसे इक्यावन हजार नौ सौ दो योजन और आठ हजार सात सौ उनहतर भाग प्रमाण रहता है || ३८७|| - = १४१८ २०३८ सत्त-छ-अटु- चउक्का, पंचक कमेण जोयणा अंसा । पंच-छ- प्र दुगेवकर, श्रोसहिपुर -पणिषि-तम-खेत्तं ॥ ३८८ ॥ १४६४० ७५१८५४०४३ १४६४० ५४८६७ । १६ । अर्थ - श्रपधिपुर के प्रणिधिभाग में सम क्षेत्र सात, छह, आठ, चार और पांच इन अंकों के क्रमसे चौवन हजार आठ सौ सड़सठ योजन और बारह हजार आठ सौ पैंसठ भाग प्रमाण रहता है ||३८|| ( औषधिपुरकी परिधि २७३५६११ – २१८*५ ) x = " ५४८६७३७३१ योजन तमक्षेत्रका प्रमाण है । अट्ठख-ति प्रट्ठ- पंचा, अंक-कमेण जोयणाणि अंसा य । ब- सग-सग एक्क्का, सम-खेत्तं पु'डरिंगिणी - णयरे ॥ ३६६ ॥ ८३०८ 2 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३९० ३९२ ] सत्तमो महाहियारो [ ३४९ अर्थ-पुण्डरीकिणी नगरीमें तम-क्षेत्र पाठ, शून्य, तीन, आठ और पांच इन अंकोंके क्रमसे अट्ठावन हजार तीन सो पाठ योजन और ग्यारह हजार सात सौ उन्यासी भाग प्रमाण रहता है ।।३८६।। (पुण्डरी किणीपुरकी परिधि : २९०७४६५-२32240 ) x = RAHEAF५८३० योजन तम-क्षेत्र । ___ अभ्यन्तर पथमें तम-क्षेत्रणाल अषक-ति नका, अंक - म तिमान-प्रस-एक्कंसा । एभ-तिय-अद्रुक्क हिवा, विदिय-पहक्कम्मि पढम-पह-तिमिरं ॥३६॥ ६३१८९ अर्थ-सूर्यके द्वितीय पयमें स्थित होनेपर प्रथम मार्ग में तमक्षेत्र नौ, पाठ, एक, तीन और छह इन अंकोंके ऋमसे तिरेसठ हजार एक सौ नवासी योजन और एक हजार पाठ सौ तीससे भाजित एक हजार सात सौ तेरानबै भाग अधिक रहता है ।।३९०।। (प्रथम पथकी परिधि-31 )xs="५१ = ६३१८९१४४ योजन तम-क्षेत्रका प्रमाण। द्वितीय पथमें तम-क्षेत्रतिय-रणव-एक्क-ति-छक्का, अंकाण कमे दुगेक्क-सत्तंसा । पंचेक्क-णव-विहत्ता, बिदिय-पहक्कम्मि विविध-पह-तिमिरं ॥३६॥ प्रम-सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित होनेपर द्वितीय वीथीमें तिमिर-क्षेत्र तीन, नो, एक, तीन और छह, इन अंकोंके क्रमसे तिरेसठ हजार एक सौ तेरानबै योजन और नौ सौ पन्द्रहसे भाजित सात सौ बारह भाग प्रमाण रहता है ।।३९१॥ ( द्वितीय पथकी परिधि ३१५१०६ यो ) 8६३१९३४१३ यो । तृतीय पथमें तम-क्षेत्रछण्णव-एक्क-ति-छक्का, अंक • कमे अड - दुगह एक्कंसा। णय-तिय-अठेक्क-हिता, विविय-पहक्कम्मि तदिय-मग्ग-तमं ॥३९२॥ ___६३१९६ । १४३। एवं मज्झिम-मनगंतं बव्वं । अर्थ—सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित होनेपर तृतीय मार्ग में तम-क्षेत्र छह, नौ, एक, तीन और छह, इन अंकोंके क्रमसे तिरेसठ हजार एक सौ छयानबै योजन और एक हजार आठ सौ तीससे भाजित एक हजार आठ सौ अट्ठाईस भाग प्रमाण रहता है ॥३९२।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] तिलोयपण्णत्तो [ गाथा ! ३९३-३९५ (तृतीय पथको परिधि=141४)xy = "१५२५४ = ६३१९६३:३४ योजन तम-क्षेत्र है। इसप्रकार मध्यम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए । ____ मन यो तम-क्षेत्रका प्रमाणतेसद्वि-सहस्सा पण-सयाणि तेरस जोयरणा अंसा । घउवाल-जुवट्ठ-सया, विदिय-पहक्कम्मि मज्म-मग्ग-तमं ॥३६॥ ६३५१३ । १४ । एवं दुचरिम-मम्गंतं' णेदव्यं । प्रर्य-सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित होनेपर मध्यम मार्गमें तम-क्षेत्र तिरेसठ हजार पाँच सौ तेरह योजन और पाठ सो चवालीस भाग अधिक रहता है ॥३६३।। ( मध्यम पथकी परिधि = 1 )xgr= N ६३५१३१११ योजन तम-क्षेत्रका प्रमाण है। इसप्रकार विचरममार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए। बाह्य पथ में तम-क्षेत्रछ-तिय-अट्ठ-ति-छक्का, अंक-कमे गवय-सत्त-छक्केसा। पंचक्क-णव-विहत्ता, विदिय-पहपकम्मि बाहिरे तिमिरं ॥३४॥ ६३८३६ I 11 प्रर्ष-सूर्यके द्वितीय मार्गमें स्थित होने पर बाह्य पथमें तिमिर-सत्र छह, तीन, पाठ, तीन और छह, इन अंकोंके क्रमसे तिरेसठ हजार आठ सौ छत्तीस योजन और नौ सौ पन्द्रहसे भाजित छह सौ उन्यासी भाग अधिक है ।।३९४।।। (बाह्य क्षेत्रकी परिधि= )xf= = ६३८३६ योजन तमक्षेत्र का प्रमाण है। लवणोदधिके छठे भागमें तम-क्षेत्रसत्त-गव-छपक-पण-णभ-एक्कंक-कमेण दुग-सग-तियंसा । णभ-तिय-प्रदुषक-हिवा, लवणोदहि - छ? - भागतं ।।३६५॥ १०५६९७ । १७ 1.६.ब.क.ज. मागो ति। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा ३१६-३९० ] सत्तनी महाहियारो [ ३५१ अर्थ- सूर्यके द्वितीय मार्ग में स्थित होनेपर लवणोदधिके छठे भाग में तिमिरक्षेत्र सात, नौ, छह, पाँच, शून्य और एक इन अंकों के क्रमसे एक लाख पांच हजार छह सौ सप्तानये योजन और एक हजार आठ सौ सीससे भाजित तीन सौ बहत्तर भाग अधिक है ।। ३९५ । ४१०५६९७योजन तम ( लवणसमुद्र के छठे भाग की परिधि - क्षत्रका प्रमाण है | शेष परिधियों में तम क्ष ेत्र - एवं सेस पहेतु, वीहि पडि जामिणी मुहुचाणि । ठविकणाणेज्ज तमं, छत्रकोणिय दु-सय-परिहीसु ॥ ३६६ ॥ · १९४ | अर्थ--- इस प्रकार शेष पथोंमेंसे प्रत्येक बीथी में रात्रि मुहूतोंको स्थापित करके छह कम दो सौ ( १९४ ) परिधियों में तिमिर-क्ष ेत्र ज्ञात कर लेना चाहिए ।। ३९६ ॥ नोट - विशेष के लिए गाथा ३४५ का विशेषार्थे द्रष्टव्य है । सूर्यके बाह्यपत्र में स्थित होनेपर तम क्षेत्रका प्रमाण सव्व-परिही ति, अट्ठरस- मुहत्तयाणि रविबिले' । बहि-यह- ठिमि एवं धरिकण भणामि तम- खेसं ॥ ३६७॥ अर्थ- सूर्य बिम्ब के बाह्य पथमें स्थित होनेपर सब परिधियों में अठारह मुहूर्त -प्रमाण रात्रि www है, इसका प्राश्रय करके तम क्षेत्रका वर्णन करता हूँ ।। ३९७ ।। सूर्यके बाह्य पथमें स्थित रहते विवक्षित परिधि में तम क्षेत्र प्राप्त करने की विधि - इच्छिय-परिय-रासि, तिगुणं काढूण दस-हिदे लद्ध' । होदि तिमिरस्स खेत्तं, बाहिर - मग्ग - हिबे सूरे ।। ३६८ || ,%! अर्थ- इच्छित परिधि - राशिको तिगुरणा करके दसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सूर्यके बाह्य मार्ग में स्थित होनेपर विवक्षित परिधि में तिमिर-क्षेत्र होता है ।। ३९८ ।। १. द. व. का. ज. दिवं । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ } तिलोयपण्णसी [ गाया : ३९९-४०२ विशेषार्थ-बाल पथमें रात्रिका प्रमाण १८ मुहूर्त है इसमें ६० मुहूर्ताका भाग देनेपर (३) प्राप्त होते हैं । विवक्षित परिधिके प्रमाणमें ३ का गुणाकर १० का भाग देनेपर तम-क्षेत्र का प्रमाण प्राप्त होता है। सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर मेरु आदि की परिधियों में तम-क्षेत्रका प्रमाणणव य सहस्सा चउ-सय, छासोदी जोयणाणि तिणि कला। पंच - हिवा मेर - तमं, बाहिर - मग्गे ठिवे तवणे ॥३६॥ ९४८६ ।। अर्य-सूर्यके बाह्य मार्ग में स्थित रहनेपर मेरुके ऊपर तम-क्षेत्र नौ हजार चार सौ छयासी योजन और पाचसे भाजित तीन कला ( ९४८६६ योजन ) प्रमाण रहता है ।।३९९॥ तेवण्ण-सहस्साणि, ति-सया पडवीस-जोयणा ति-कला। सोलस-हिदा यसमा - मज्झिम - पणधीए तम-लेत्तं ।।४००॥ ५३३२८ ।।। अर्थ-क्षेमा नगरीकै मध्यम प्रणिधिभागमें तम-क्षेत्र तिरेपन हजार तीन सौ अट्ठाईस योजन और सोलहसे भाजित तीन कला ( ५३३२८योजन ) प्रमाण रहता है ॥४०॥ अट्ठावण्ण-सहस्सा, चत-सय-पणहत्तरी य जोधणया । एक्कत्ताल - कलाओ, सीदि - हिवा खेम - णयरीए ॥४०१॥ ५८४७५ । । प्रर्य-क्षेमपुरी में तम-क्षेत्र अट्ठावन हजार चार सौ पचहत्तर योजन और प्रस्सीसे भाजित इकतालीस कला ( ५८४७५३ योजन ) प्रमाण है ।।४०१।। बासद्वि-सहस्सा णव-सयाणि एक्करस जोयणा भागा। पणवीस सीवि-भजिदा, रिठाए मझ-पणिषि-तमं ॥४०२॥ प्रपं-अरिष्टा नगरीके मध्य प्रणिधिभागमें तम-क्षेत्र बासठ हजार नौ सौ ग्यारह योजन पौर अस्सीसे भाजित पच्चीस भाग ( ६२९११परे योजन ) प्रमाण रहता है ।।४०२।। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४०३ - ४०७ ] सत्तमो महाहियारो अट्ठासहि सहस्सा, एक्कावण्णं तिमिरं ठावण्णा य जोयणा सा । रिट्ठपुरी मज्झ पणिधी ||४०३ ।। - - ६८०५८ ।१ मथं - अरिष्टपुरीके मध्य - प्रणिधिभाग में तिमिरक्षेत्र अड़सठ हजार अट्ठावन योजन और इक्यावन भाग ( ६८०५८३ योजन ) प्रमाण रहता है ||४०३ || बाहतरि सहस्सा, चउ-सय-चडणउदि जोयणा श्रंसा । पणुतीसं खग्गाए मज्झिम-पणिधीए तिमिर खिदी ||४०४ ॥ ७२४६४ । १५ । अर्थ – खड्गा नगरीके मध्यम प्रणिधिभाग में तिमिर-क्षेत्र बहत्तर हजार चार सौ चौरानबे योजन और पैंतीस भाग ( ७२४९४६६ योजन ) प्रमाए रहता है ||४०४ ।। सत्तर सहस्सा, खस्सय इगिवाल जोवणाणि कला | एक्कासट्ठी मंजुस जयरी पणिहीए तम खेत्तं ॥४०५॥ - [ ३५३ ७७६४१ । ३ । अर्थ- मंजूषानगरी के प्रणिधिभाग में तम क्षेत्र सतत्तर हजार छह सौ इकतालीस योजन और इकसठ कला ( ७७६४ ९ ६) योजन ) रहता है ||४०५ || - बासीदि-सहस्साणि, सप्तप्तरि जोधणा कलाश्रो वि । पंचत्तालं ओसहि पुरीए बाहिर पह-ट्ठिदक्कम्म ||४०६ ॥ ८२०७७ । ४५ । अर्थ- सूर्य के बाह्य मार्ग में स्थित होनेपर औषधिपुरीमें तम क्षेत्र बयासी हजार सतत्तर योजन और पैंतालीस कला ( ८२०७७१ योजन ) प्रमाण रहता है ||४०६ ॥ सासोदि सहस्सा, बे-सय- चउबीस जोयणा श्रंसा । एक्कत्तरीय 'तमिस - परिधीए पुंडरिंगिणी - जयरे ॥ ४०७ ॥ ८७२२४ । । । अर्थ - पुण्डरीकिणी नगरीके प्रणिविभाग में तिमिर-क्षेत्र सतासी हजार दो सौ चौबोस योजन और इकहत्तर भाग ( ८७२२४६२ योजन ) प्रमाण रहता है || ४०७ ॥ १. ६. ब. क. . तिमिस । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती सूर्यके बाह्य पथमें स्थित रहते प्रथम बीथी में तम क्षेत्रका प्रमाण चणउदि सहस्सा परण-सयाणि छब्बीस जोयणा श्रंसा । सतय यस पहिला, बहि-पह तयणम्मि पढम पह तिमिरं ॥ ४०८ ॥ ६४५२६ । ७ । अर्थ- सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर प्रथम पथमें तिमिर-क्षेत्र चौरानबे हजार पाँच सौ छब्बीस योजन और दससे भाजित सात भाग ( ६४५२६० योजन ) प्रमाण रहता है ||४०८ ॥ द्वितीय वीथी में तम क्षेत्रका प्रमाण ३५४ ] चणउदि सहस्सा पण-सयाणि इगितोस जोवणा श्रंसा । सारो पंच - विहा, बहि-पह' भाणुम्मि बिदिय पह- तिमिरं ।।४०६ ।। ९४५३१ । ¥ । अर्थ- सूर्य के बाह्य मार्ग में स्थित होनेपर द्वितीय पथमें तिमिर क्षेत्र चौरानबे हजार पाँच -- सौ इकतीस योजन और पाँचसे भाजित चार भाग ( ९४५३१ । ६ योजन ) प्रमाण रहता है ॥४६॥ तृतीय बीथी में सम क्षेत्रका प्रमाण चणउदि सहस्सा, पण सयाणि सगतीस जोयणा सा । तदिय-पह - तिमिर- खेत्तं, बहि मग्ग ठिवे सहस्सकरे ॥ ४१० ॥ - [ गाथा : ४०८-४११ - ९४५३७ । ५ । अयं सूर्य के बाह्य मार्ग में स्थित होनेपर तृतीय पथ में तिमिर क्ष ेत्र चौरानबे हजार पाँच ९४५४२ । ÷ । एवं मज्झिम- मग्गाइल- मगं ति णेषव्यं । सौ सैंतीस योजन और एक भाग ( ९४५३७ योजन ) प्रमाण रहता है ।।४१० ।। चतुर्थ वीथी में तम क्षेत्र - चणडबि सहस्सा परण-सयाणि बाबाल- जोयणा ति-कला । दस - पवित्ता बहि-पह विद-तवणे तुरिम मग्ग - तमं ॥ ४११ ॥ १. द. ब. क. ज. तम । २. द, ब. क. ज. तावं । - Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४१२-४१४ । सत्तमो महाहियारो [ ३५५ अर्थ-सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर चतुर्थवीथीमें तम-क्षेत्र चौरानबै हजार पांच सौ बयालीस योजन और दससे विभक्त तीन कला ( ९४५४२२ योजन ) प्रमाण रहता है ॥४११।। इसप्रकार मध्यम मार्गके आदिम पथ पर्यन्त ले जाना चाहिए। मध्यम पथमें तम-क्षेत्रका प्रमाणपंचाणउवि-सहस्सा, बसुत्तरा जोयणाणि तिम्णि कला । पंच-हिदा मज्झ - पहे, तिमिरं 'बहि-पह-ठिये तवणे ॥४१२॥ एवं कुचरिम-मागं ति णेवव्वं । प्रयं-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर मध्यम पथमें तिमिर-क्षेत्र पंचानबे हजार दस योजन और पांचसे भाजित तीन कला ( ९५०१०।३ योजन ) प्रमाण रहता है ।।४१२।। इसप्रकार द्विचरम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए। सूर्यके बाह्य पथमें स्थित रहते बाह्य पथमें तम-क्षेत्रपंचाणउवि-सहस्सा, चउसय-चउगावि जोया अंसा । बाहिर-पह-तम-खेत्तं, विवायरे बाहि - रद्ध - ठिवे ॥४१३॥ ९५४९४ । । प्र-सूर्यके बाह्य अध्व ( पथ ) में स्थित होनेपर बाह्य वीथी में तम-क्षेत्र पंचानबै हजार चार सौ चौरानबै योजन और एक भाग { ९५४९४१ । योजन ) प्रमाण रहता है ।।४१३।। लवणोदधिके छठे भागमें तम-क्षेत्रका प्रमाण तिय-एक्क-एक्क-अट्ठा, पंचेक्कंक-क्कमेण चउ-मंसा। बहि-पह-ठिव-दिवसयरे, लवणोदहि-छह-भाग-तमं ॥४१४॥ १५८११३ ।। १ द.प. पिहिपहविदे । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] तिलोथपण्णत्ती [ गाथा: ४१५-४१९ पर्य - सूर्यके बाह्य मार्गेमें स्थित होनेपर लवणोदधिके छठे भागमें तम क्षेत्र तीन, एक, एक, आठ, पाँच और एक, इन अंकोंके क्रमसे एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन और चार भाग ( १५ = ११३ योजन ) प्रमाण रहता है || ४१४॥ दोनों सूर्यो तिमिर क्षेत्रका प्रमाण एदाणं तिमिराणं, खेत्तारिंग होंति एक्क भाणुम्मि । दुगुणिद- परिमाणाणि, दोसु पि सहस्स-किरणे ||४१५ ॥ अर्थ - एक सूर्यके ये ( इतने ) तिमिर-क्षेत्र होते हैं। दोनों सूर्यके होते हुए इन्हें द्विगुणित प्रमाण ( दूने ) जानना चाहिए ।। तिमिर क्षेत्रकी हानि - वृद्धिका क्रम पदम - पहादो बाहिर पम्मि दिवसा हिवल्स गमणेसु । खट्ठेति तिमिर खेत्ता, श्रागमणेसु च परियंति ।।४१६ || अर्थ - दिवसा धिप ( सूर्य ) के प्रथम पथसे बाह्य पथकी ओर गमन करनेपर तिमिरक्षेत्र वृद्धिको और आगमन कालमें हानिको प्राप्त होते हैं ।।४१६।। आतप और तिमिर क्षेत्रोंका क्षेत्रफल - एवं सव्व - पसु भरिणयं तिमिर-क्लिदीण परिमाणं । 2 एत्तो प्रादव- तिमिर वखेत्तं फलाइ परुवेमो ||४१७ ।। अर्थ – इस प्रकार सब पथों में तिमिर-क्षेत्रों का प्रमाण कह दिया है । अब यहाँसे आगे आतप और तिमिरका क्षेत्रफल कहते हैं || ४१७ ॥ लवणंबु - रासि वासच्छ्टुम-भागस्स परिहि खारसमे । परण- लक्खह गुणिदे, तिमिराव व क्षेत्तफल-मारखं ||४१८ || चउ-ठाणेसु सुण्णा, पंच-वुणभ- छक्क णवय एकक -दुगा । अंक - कमे जोयणया, तं खेत्तफलस्स परिमाणं ।।४१६ ॥ २१९६०२५०००० | अर्थ - लवण समुद्र के विस्तारके छ भागकी परिधिके बारहवें भागको पाँच लाखसे गुणा करनेपर तिमिर और आतप क्षेत्रका क्षेत्रफल निकल आता है। उस क्षेत्रफलका प्रमाण चार स्थानों में Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४२० - ४२१ ] सत्तमो महाहियारो [ ३५७ शून्य, पाँच, दो, शून्य, छह, नौ, एक और दो, इन अंकोंके क्रमसे इक्कीस सौ छ्यानबे करोड़ दो लाख पचास हजार योजन होता है ||४१६ ४१६ ॥ विशेषार्थ - लवणोदधिके छठे भागकी ( परिधि निकालने की प्रक्रिया गा० २६५ के विशेषार्थ में द्रष्टव्य है ) परिधि ५२७०४६ योजन है। इसको दोनों पार्श्व भागोंके छठे भागसे अर्थात् १२ से भाजित कर प्राप्त लब्धमें लवणोदधिके सूची - ध्यास ५ लाखका गुणा करनेपर आतप एवं तिमिर क्षेत्रों का क्षेत्रफल प्राप्त होता है । यथा - ( परिधि ५२७०४६ ) ÷ १२ = ४३९२०३=७०४१ ८७.४१५००००० २१९६०२५०००० वर्ग योजन आतप एवं तिमिर क्षेत्र का क्षेत्रफल है । एदे ति गुणिय भजिवं, बसेहि एक्कादव- विदीए फलं । सेत्तिय दु-ति-भाग- हवं, होदि फलं एक्क-तम-खेतं ॥ ४२० ॥ ६५८८०७५००० | ति ४३६२०५०००० । श्रर्थ- - इस ( क्षेत्रफल के प्रमाण ) को तिगुना कर दसका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना एक आतप क्षेत्रका क्षेत्रफल होता है । इस प्रातप - क्षेत्रफल प्रमारण के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण एक तमक्षेत्रका क्षेत्रफल होता है ||४२०॥ S एक आतपक्षेत्र और एक तिमिर क्षेत्रका क्षेत्रफल - - विशेषार्थ - एक आतप और एक तिमिर क्षेत्र का क्षेत्रफल प्राप्त करनेके लिए सूत्र एवं उनको प्रक्रिया इस प्रकार है ( १ ) एक श्राप क्षेत्रका क्षेत्रफल = २१९६०२५०००० १ ३ X -=६५८८०७५००० योजन । १० (२} एक तम क्षेत्रका क्षेत्रफल = एक प्रातप क्षेत्रका क्षेत्रफल २ १ ३ X = ४३९२०५०००० योजन । ६५८८०७५००० १ तिमिर और आतप क्षेत्रका क्षेत्रफल ३ १० x १ दोनों सूर्य सम्बन्धी आतप एवं तम का क्षेत्रफल - एवं श्रावन तिमिर वखेचफलं एक्क-तिव्यकिरणम्मि । दोसु विरोचणेसु णादध्वं दुगुण पुष्व परिमाणं ॥ ४२१॥ } - - Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२२-४२४ अर्थ--यह उपर्युक्त आतप तथा तिमिरक्षोत्रफल एक सूर्य के निमित्तसे है। दोनों सूर्योके रहने पर इसे पूर्व-प्रमाणसे दुगुना जानना चाहिए ॥४२१॥ ऊर्च और अधःस्थानोंमें सूर्योके आसप क्षेत्रका प्रमाण अद्वारस चेव सया, ताय - खेत्तं तु हेढदो तववि । सम्वसि सूराणं, सयमेक्कं उपरि तावं तु ॥४२२॥ १० । १००। अर्थ-सब सूर्योके नीचे एक हजार आठ सौ योजन प्रमाण और ऊपर एक सौ योजन प्रमाण ताप-क्षेत्र तपता है ।।४२२॥ विशेषार्य-सब सूर्य-बिम्योंसे चित्रा पृथिवी ८०० योजन नीचे है और चित्रा पृथिवीकी मोटाई १००० योजन है अतः सूर्योका प्राताप नीचेकी ओर ( १००० +८००) १८०० योजन पर्यन्त फैलता है। सूर्य बिम्बोंसे ऊपर १०० योजन पर्यन्त ज्योति-र्लोक है अतः सूर्योका आताप ऊपरकी ओर १०० योजन पर्यन्त फैलता है। सूर्योके उदय-अस्तके विवेचनका निर्देशएत्तो विवायराणं, उदयत्थमरणेसु जाणि स्वाणि । ताई परम • गुरूणं, उवएसेणं परवैमो ॥४२३॥ प्रपं-अब सूर्योके उदय एवं अस्त होनेमें जो स्वरूप होते हैं । परम गुरुपोंके उपदेशानुसार उनका प्ररूपण करता हूं ॥४२३।। जीवा और धनुषकी कृति प्राप्त करनेकी विधिबाग-विहीणे वासे, चउगुण-सर-ताडिवम्मि जीव-कदी। इसु - बग्गो छग्गुणिवो, तीय जुदो होवि चाव - कदी ।।४२४॥ अर्थ--बाण रहित विस्तारको चौगुणे बाण-प्रमाणसे गुणा करनेपर जीवकी कृति होती है। बाणके वर्गको छहसे गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसे उपर्युक्त जीवाकी कृतिमें मिला देनेसे धनुषकी कृति होती है ।।४२४।। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतमो महाहियारो हरिवर्ष क्षेत्र के बारका प्रमाण तिय-जोयण - लक्खाणि, दस य सहस्साणि ऊण- घोसेहि । अवहरिदाई भणिदं हरिवरिस सरस्स परिमाणं ॥ ४२५ ॥ गाथा : ४२५-४२८ ] 310000 98 } - अर्थ - हरिवर्ष क्षेत्र के बाराका प्रमाण उन्नीससे भाजित तीन लाख दस हजार (0) योजन कहा गया है ॥। ४२५ ।। विशेषार्थ - ति० प० चतुर्थाधिकार गाथा १७६१ के अनुसार भरत क्षेत्रके बाण ( 19 ) को ३१ से गुणित करने पर लवणोदधिके तटसे हरिवर्ष क्षेत्रके बाणका प्रमाण (३१ ) = ३००० योजन प्राप्त होता है । 0000 सूर्यके प्रथमपधसे हरिवर्ष क्षेत्र के बाराका प्रमाण– तम्मर सोहेज्जसु सोदी-समहिय सघं च जं सेसं । सो आदिम-गायो, बाणो हरिवरिस विजयस्स ॥४२६ ॥ - - १८० । अर्थ - इस ( बारा ) में से एक सौ अस्सी ( जम्बूद्वीप के चारक्षेत्रका प्रमाण १८० ) योजन कम कर देनेपर जो शेष रहे उतना प्रथम मार्गेसे हरिवर्ष क्षेत्रका बाण होता है ।। ४२६ ।। [ ३५६ विशेषार्थ - ( हरिक्षेत्रका बाप १०० ) [2] ३४२० 20 ( १८० यो० ज० द्वी० का चारक्षेत्र ) ०६८० योजन अभ्यन्तर पथसे हरिवर्ष क्षेत्र के बाराका प्रमारण । तिय-जोपण - लक्खाणि, छच्च सहस्वाणि पण-सयाणि पि । सीदि जुदाणि श्रादिम मग्गादो तस्स परिमाणं ||४२७|| ०६८ । अर्थ - आदिम मार्गसे उस हरिवर्ष क्षेत्रके बाणका प्रमाण उन्नीससे भाजित तीन लाख छह - हजार पांचसौ लस्सी ( ०६००० ) योजन होता है ।। ४२७ ।। प्रथम पथका सूची- व्यास - णवणउवि सहसाणि, छस्सय चत्ताल-जोयणाणि च । परिमाणं णादव्यं, श्रादिम ९९६४० । मग्गस्स सूईए ॥ ४२८ ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२९-४३० अर्थ-( सूर्यकी ) प्रथम वीथीका सूची (व्यास ) निन्यानबै हजार यह सौ चालीस ( ६९६४० ) योजन प्रमाण जानना चाहिए ।।४२८।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन और ज. द्वीपमें सूर्यादिके चारक्षेत्रका प्रमाण १५० योजन है । ज० द्वीपके व्यास में से दोनों पार्श्वभागोंके चार क्षोत्रोंका प्रमाण घटा देनेपर १००००० -( १८०४२) = ६९६४० योजन शेष बचते हैं। यही प्रथम वीथी का सूची व्यास है। प्रथम पथसे हरिवर्ष क्षेत्रके धनुषकी कृतिका प्रमाणतिय-ठाणेसुसुण्णा, चउ-छ-पंच-दु-स्व-छ-णव-सुण्णा । पंच-दुगंक-कमेणं, एक्कं छ-त्ति-भजिदा अधणु-वग्गो ॥४२६॥ २५०६१३५१४0001 अर्थ-तीन स्थानोंमें शून्य, चार, छह, पाँच, दो, शून्य, छह, नौ, शून्य, पाँच और दो, इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसमें तीन सौ इकसठका भाग देनेपर लब्ध-राशि-प्रमाण हरिबर्ष क्षेत्रके धनुषका वर्ग होता है ॥४२६॥ विशेषार्थ-अभ्यन्तर ( आदिम ) पथका वृत्त विष्कम्भ ९९६४० योजन है और प्रथम वीथीसे हरिवर्ष क्षेत्रके बाणका प्रमाण 300८० योजन है। 'बाणसे हीन वृत्त विष्कम्भको चौगुने बाणसे गुणित करने पर जीयाकी कृति होती है । ( त्रिलोकसार गा० ७६० ) के इस करणसूत्रानुसार प्रथम पथके वृत्तविष्कम्भमेंसे बाणका प्रमाण घटाकर शेष राशिको चौगुने बाणसे गुणित करनेपर जीवाकी कृति प्राप्त होती है । यथा (१८४० - १५८०) x (30498०x४) - १६.५६११६५९०० योजन जीवाकी कृति । 'छह गुणी बाण-कृतिको जीवा-कृतिमें मिलानेसे धनुष-कृति होती है' (त्रिलोकसार गा० ७६० ) के इस करणसूत्रानुसार धनुषकी कृति इसप्रकार है {( 3:१५०० )२x६- १६३ ८४०० }+{१४५३१४१०५६.. ) = २५०४१४००० योजन धनुषके वर्गका प्रमाण है । __ प्रथम पथसे हरिबर्ष क्षेत्रके धनुःपृष्ठका प्रमाणतेसीवि-सहस्सा तिय-सयाणि सत्तत्तरी य जोयणया । णव य कलामो आविम-पहादु हरिवरिस-घण-पुढ॥४३०॥ ८३३७७ । । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! ४३१-४३३ ] सत्तमो महायिारो [ ३६१ ___अर्थ-प्रथम पथसे हरिवर्ष क्षेत्रका धनुःपृष्ठ तेरासी हजार तीन सौ सतत्तर योजन और नो कला प्रमाण है ।।४३०॥ विशेषार्थ-२५.६६०२५४४००० = १५४४१७० योजन ।। यदी वर्मगल निकालने के बाद जो शेष बचे वे छोड़ दिये गये है । ) १९८४.१७२-८३३७७. योजन प्रथम पथसे हरिवर्ष क्षेत्रका धनु:पृष्ठ है। निषधपर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाणतद्धणपस्सद्ध, सोहेज्जसु चक्खुपास - खेत्तम्मि । जं अवसेस-पमाणं, रिगसपाचल-उपरिम-खिदी सा ।।४३१॥ ४१६८८ । । अर्थ-इस धनुःपृष्ठ-प्रमाण के अर्धभागको चक्षु-स्पर्श-क्षेत्रमेंसे कम कर देनेपर जो शेष रहे उतनी निषध-पर्वतकी उपरिम पृथिवी है ।।४३१॥ विशेषार्थ- हरिवर्षके धनुपृष्ठका प्रमाण ८३३७७ - १५.७२ योजन है। इसका अर्धभाग चक्षुस्पर्श क्षेत्रके ४७२६३३० योजन प्रमाणमेंसे घटानेपर निषधपर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाण होता है । यथा-- (४७२६३२० = ४१३६ ) --- ७६२४८६ - १३६३५३ = ५५७४४३५ योजन निषध पर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाण है । ___ चक्षुस्पर्श के उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाणप्राविम-परिहि ति-गुणिय, वोस-हिवे लद्धमत्त-तेसट्टी । छ - सया सत्तत्साल, सहस्सया बीस-हरिद-सत्तंसा ॥४३२॥ ४७२६३ । । एवं सखुप्पासोक्किा - पखेत्तस्स होदि परिमाणं । तं एत्थं ऐबव्वं, हरिवरिस - सरास - पट्टद्ध ॥४३३।। प्रथ-आदिम ( प्रथम ) परिधिको तिगुना कर बीसका भाग देनेपर जो सैंतालीस हजार दो सौ तिरेसठ योजन और एक योजनके बीस-भागोंमेंसे सात भाग लब्ध पाते हैं, यही उत्कृष्ट चक्षस्पर्शका प्रमाण होता है । इसमें से हरिबर्ष क्षेत्रके धनुःपृष्ठ प्रमाणके अर्धभागको घटाना चाहिए ।।४३२-४३३।। विशेषार्थ-सूर्यको अभ्यन्तर वीथी ३१५०८९ योजन प्रमाण है। चक्षुस्पर्शका उत्कृष्ट क्षेत्र निकालने हेतु इस परिधिको तीन से गुणित कर ६० का भाग देनेको कहा गया है । उसका Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४३४-४३५ कारण यह है कि जब अभ्यन्तर वीथी स्थित सूर्य अपने भ्रमण द्वारा उस परिधिको ६० मुहूर्तमें पूरा करता है, तब वीथीके ठीक मध्यक्षेत्र में स्थित अयोध्या पर्यन्तकी परिधिको पूर्ण करने में कितना समय लगेगा ? इस प्रकार राशिक करनेपर अर्थात् १५५६५x3 =४१ = ४७२६३६ योजन चक्षु-स्पर्शका उत्कृष्ट क्षेत्र प्राप्त होता है ।। भरतक्षेत्रके चक्रवर्ती द्वारा सूर्यबिम्बमें स्थित जिनबिम्बका दर्शनपंच-सहस्सा [तह] पण-सयाणि चहत्तरी य जोयणया। बे-सय-तेतीसंसा, हारो सीवी • जुवा ति-सया ।।४३४॥ ५५७४ । ३३ उरिम्मि णिसह-गिरिणो, एत्तिय-माणेण पढम-मग-ठिकं । पेठच्छति तवणि • बिनं, भरहक्खेसम्मि चक्कहरा ॥४३५॥ प्रयं-उपयुक्त प्रकारसे चक्षुके उत्कृष्ट विषय-क्षेत्रमेंसे हरि-वर्षके अर्ध धनुःपृष्ठको निकाल देनेपर निषधपर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाण पांच हजार पाँच सौ चौहत्तर योजन और एक योजन के तीन सौ अस्सी भागों से दो सौ तेतीस भाग अधिक आता है । इतने योजन प्रमाण निषधपर्वतके ऊपर प्रथम वीथीमें स्थित सूर्यबिम्ब ( के मध्य विराजमान जिन विम्ब) को भरतक्षेत्रके चक्रवर्ती देखते हैं ।।४३४-४३५!! विशेषापं–त्रिलोकसार गाथा ३८९-३६१ में कहा गया है कि निषधाचलके धनुष-प्रमाणके अर्धभागमेंसे चन-स्पर्श क्षेत्र घटा देनेपर ( ६१८८४ -४७२६३१)१४६२१३० योजन शेष रहते हैं । प्रथम बीथी स्थित सूर्य निषधाचलके अपर जब १४६२१४. यो. ऊपर पाता है तब चक्रवर्ती द्वारा देखा जाता है और यहां कहा गया है कि निषधाचल पर जब सूर्य ५५७४९ योजन ऊपर आता है तब चक्रवर्ती द्वारा देखा जाता है । इन दोनों कथनोंमें विरोध नहीं है । क्योंकि निषधाचलके धनुषका प्रमाण १२३७६ योजन और हरिवर्षके धनुषका प्रमाण ८३३१७:१ योजन है। निषधके धनुष-प्रमाण मेंसे हरिवर्षका धनुष प्रमाण घटाकर शेषको आधा करनेपर निषधाचल की पार्श्वभुजाका प्रमाण { ( १२३७६८/-८३३१७ )२}=२०१९५१॥ प्राप्त होता है। ( दक्षिण तटसे उत्तरतट पर्यन्त चापका जो प्रमाण है उसे पाश्वभुजा कहते हैं )। त्रिलोकसारके मतानुसार १४६२१४. यो० ऊपर मानेपर सूर्य दिखाई देता है । निषधाचलकी पार्श्वभुजा मेंसे यह प्रमाण घटा देनेपर ( २०१६५४ - १४६२१४%) ५५७४४६० योजन अवशेष रहते हैं। तिलोयपण्णत्तीमें सूर्य दर्शनका यही प्रमाण कहा गया है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहियारो [ ३६३ मेरी समझ से इन दोनों में कथन भेद है, भाव या विषय भेद नहीं है, फिर भी विद्वानों द्वारा गाथा : ४३६-४३८ ] विचारणीय है । ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्ती द्वारा सूर्य स्थित जिनबिम्ब दर्शन उवरिम्मि गील- गिरिणो, तेत्तियमाणेण पढम-मग्ग-गदो । एरायदम्म विजए, चक्की वेक्वंति इदर - रवि' ।।४३६ ।। अर्थ - ऐरावत क्षेत्र के चत्रवर्ती उतने ही योजन प्रमाण ( ५५७४ यो० ) नील पर्वत के ऊपर प्रथम मार्ग स्थित बोलते है प्रथम पथमें स्थित सूर्यके भरतक्षेत्र में उदित होनेपर क्षेमा आदि सोलह क्षेत्रों में रात्रि दिनका विभाग ति दुगेक्क मुहत्ताण, खेमादी-तिय पुरम्मि अहियाणि । किचूण एक्क े णाली, रत्ती य अरिट्ठ जयरम्मि ॥। ४३७ ॥ ॥ · भु ३ । २ । १ । णालि १ । अर्थ - ( प्रथम पथ स्थित सूर्यके भरतक्षेत्र में उदित होते समय ) क्षेमा, क्षेमपुरी और अरिष्टा इन तीन पुरोंमें क्रमश: कुछ अधिक तीन मुहूर्त, दो मुहूर्त और एक मुहूर्त तथा अरिष्टपुरी में कुछ कम एक नाली ( घड़ी ) प्रमाण रात्रि होती है ।।४३७ || विशेषार्थ - प्रथम वीथी में स्थित सूर्य निषधकुलाचलके ऊपर आता हुआ जब भरतक्षेत्र में उदित होता है उस समय पूर्व - विदेह में सोता महानदी के उत्तर तट स्थित क्षेमा नगरीमें कुछ अधिक ३ मुहूर्त ( कुछ अधिक २ घंटे, २४ मिनिट ) रात्रि हो जाती है । उसी समय क्षेमपुरी में कुछ अधिक २ मुहूर्त ( १ घंटा, ३६ मि० से कुछ अधिक ), अरिष्टा में कुछ अधिक १ मुहूर्त ( ४८ मि० से कुछ अधिक ) और अरिष्टपुरी में कुछ कम एक नाली ( २४ मिनिटसे कुछ कम ) रात्रि हो जाती है । साहे खम्मपुरीए प्रत्यमणं होदि मंजुस पुरपि । 1 श्रय रहम धिय-घलियं, प्रोसहिय-णयरम्मि साहिय मुहुर्त ॥४३८ ॥ - अर्थ – उसी समय खड्गपुरी में सूर्यास्त, मंजूषपुर में एक नालीसे कुछ अधिक अपराह्न और औषधिपुर में वह ( अपराह्न ) मुहूर्त से अधिक होता है ||४३८ || १. व. क. ज. दुक्खति तिथरवि, ब. देवखंति रयरवि । २. ब. किचूर्ण एक्का गाली | ३. द. ब. क. ज. मुलिया । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४३९-४४२ विशेषार्थ-जिस समय सूर्य भरतक्षेत्रमें उदित होता है उसी समय खड्गपुरोमें सूर्यास्त हो जाता है और मंजूषपुरमें एक घड़ीसे कुछ अधिक अपराह्न ( कुछ अधिक २४ मिनिट दिन) तथा औषधिपुरमें कुछ अधिक एक मुहूर्त अपराह्न { ४८ मिनिटसे कुछ अधिक दिन) रहता है। ताहे मुहुचमधियं, अवरहं पुंडरिंगिणी - णयरे । सप्पणिधो सुररपणे', दोषिण मुहुत्ताणि अदिरेगो ॥४३६॥ अर्थ-उसी समय पुण्डरीकिणी नगरमें वह अपराह्न एक मुहूर्तसे अधिक और इसके समीप देवारण्यवनमें दो मुहूर्तसे अधिक होता है ।।४३६।। विशेषार्थ-उसी समय पुण्डरीकिणी नगरीमें एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट ) से अधिक और देवारण्ययनमें दो मुहूर्त ( १ घंटा, ३६ मिनिट ) से अधिक दिन रहता है। तक्कालम्मि सुसोम-प्पणधीए सुरवणम्मि पढम-पहे । होवि अपरण्ह - कालो, तिष्णि मुत्ताणि अदिरेगो ॥४४०॥ तिय-तिय मुहुत्तमहिया, सुसीम-कुंडलपुरम्मि दो दो य । एक्केक्क-साहियाणं, अवराजिद - पहंकरंक - पउमपुरे ॥४४१।। सुभ-णयरे अवरोह, साहिय-णालीए होदि परिमाणं । णालि-ति-भामं रत्तो, किचूर्ण रयणसंचय - पुरम्मि ॥४४२॥ पर्थ-उसी समय प्रथम पथमें सुसीमा नगरीके समीप देवारण्यमें तीन मुहूर्तसे अधिक अपराहु काल रहता है । सुसीमा एवं कृण्डलपुरमें तीन-तीन मुहूर्तसे अधिक, अपराजित एवं प्रभंकरपुरमें दो-दो मुहूर्त से अधिक, अङ्कपुर तथा पद्मपुरमें एक-एक मुहूर्तसे अधिक और शुभनगरमें एक नालीसे अधिक अपराह्नकाल होता है । तथा रत्नसंचयपुरमें उस समय कुछ कम नालीके तीसरे-भागप्रमाण रात्रि होती है ।।४४०-४४२॥ विशेषाय-उसी समय सीतामहानदीके दक्षिण तट स्थित सुसीमा नगरीके समीप देवारण्य बन में तीन मुहूर्त ( २ घंटे २४ मिनिट ) से कुछ अधिक दिन रहता है । सुसीमा और कुण्डलपुरमें तीन-तीन मुहूर्त (२ घण्टा २४ मि०) से अधिक, अपराजित और प्रभङ्करपुरमें दो-दो मुहूर्त ( १ घंटा ३६ मिनिट ) से अधिक, अङ्कपुर और पद्मपुर में एक-एक महूत ( ४८-४८ मिनिट ) से अधिक तथा १. द सुरचरणे दोण्णि य। २. द. ब. मबिया । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! ४४३-४४४ ! अत्तमो पहाहियारो [ ३६५ शुभनगरमें एक नालो ( २४ मिनिट ) से अधिक दिन रहता है । इसके अतिरिक्त रत्नसंचयपुरमें उस समय कुछ कम एक नाली के तीसरे भाग ( करीब ७ मिनिट) प्रमाण रात्रि हो जाती है। इसका चित्रण इसप्रकार है 45 भानराला SEAST से निमम पर जल भरतनमा SHREEnt EYEAR HTTyn RE - प्रथम-पथमें स्थित सूर्यके ऐरावत क्षेत्रमें उदित होनेपर अवध्या प्रादि सोलह ___नगरियोंमें रात्रि-दिनका विभागएरावदम्मि उदो, जं काले होदि कमलबंधुस्स । ताहे विण - रत्तीभो, अवर - विवेहेसु साहेमि ॥४४३॥ अर्थ-जिस समय ऐरावत क्षेत्रमें सूर्यका उदय होता है उस समय अपर (पश्चिम) विदेहोंमें होनेवाले दिन-रात्रि-विभागोंका कथन करता हूँ ॥४४३॥ खेमादि-सुरवर्णते, हवंति जे पुठव-रशि-अवरण्हं । कमसो ते णादब्बा, अस्सपुरी-पहुदि णयय-ठाणेसु ॥४४४॥ प्रर्थ-क्षेमा प्रादि नगरीसे देवारण्य पर्यन्त जो पूर्व-रात्रि एवं अपराह्न काल होते हैं, वे ही क्रमशः अश्वपुरी आदिक नौ स्थानोंमें भी जानने चाहिए ॥४४४।। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा । ४४५-४४६ होति अवज्झादी णय-ठाणेसु पुन्व-रसि-अवरणहं । पुरवत्त - रयरणसंचय, पुरावि-णव-ठाण-सारिश्चछा ॥४४५॥ प्रर्थ - अवध्य आदिक नौ स्थानों में पूर्वोक्त रत्नसंचय पुरादिक नौ स्थानोंके सदृश ही पूर्व रात्रि एवं अपराल्लुकाल होते हैं ।।४४५।। भरत-ऐरावतमें मध्याह्न होनेपर विदेहमें रात्रिका प्रमाणकिचूण-छम्मुत्ता, रत्ती जा पुरिगिणी - रणयरे । तह होदि दोबसोके, भरहेरावद-खिदोसु मज्झण्णे ।।४४६॥ अर्थ-भरत और ऐरावत क्षेत्र में मध्याह्न होनेपर जिसप्रकार पुण्डरी किणी नगरमें कुछ कम छह मुहत सांय होती है, तो कार बीतशोक नगरी में भी कुछ कम छह मुहूर्त प्रमाण रात्रि होती है ।।४४६।। नीलपर्वत पर सूर्य का उदय अस्तताहे जिसह-गिरिदे, उपयत्थमणारिण होंति भाणुस्स । गोल - गिरिदेसु तहा, एक्क - खणे दोसु पासेसु॥४४७॥ अर्य-उससमय जिसप्रकार निषधपर्वत पर सूर्यका उदय एवं अस्तगमन होता है, उसीप्रकार एक ही क्षणमें नील-पर्वतके ऊपर भी दोनों पार्श्वभागों में (द्वितीय) सूर्यका उदय एवं अस्तगमन होता है ।।४४७॥ भरत-ऐरावत क्षेत्र स्थित चत्रवतियों द्वारा अदृश्यमान सूर्य का प्रमाण पच-सहस्सा [तह परण-सयाणि चउहतरीय अदिरेगो। तेत्तीस - बे - सयंसा, हारो सीबी - जुदा ति-सया ॥४४॥ ५५७४ । ३।। एत्तियमेत्तादु परं उरि णिसहस्स पढम - मग्गम्मि । भरहक्खेत्ते चक्की, विणयर • बिबं ण देवखंति ।।४४६॥ अर्थ-भरतक्षेत्रमें चक्रवर्ती पाँच हजार पाँच सौ चौहत्तर योजन और एक योजनके तीन सौ अस्सी भागोंमेंसे दो सौ त तीस भाग अधिक, इतने ( ५५७४३३॥ यो०) से प्रागे निषधपर्वतके ऊपर प्रथम मार्ग में सूर्य-बिम्बको नहीं देखते हैं ॥४४८-४४९।। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी महाहिवारो उवरिम्मि गोलगिरिरणो, ते परिमाणादु पढम-मम्मि । एराववम्मि चक्की, इवर दिणेसं ण देवखति ॥४५० ॥ गाथा : ५२३-४५४ अर्थ - ऐरावत क्षेत्र में स्थित चक्रवर्ती नीलपर्वतके ऊपर इस प्रमारण ( ४५७४९६३ यो० ) से अधिक दूर प्रथम मार्ग स्थित दूसरे सूर्य को नहीं देखते हैं ||४५०|| दोनों सूर्य के प्रथम मार्ग से द्वितीयमार्ग में प्रविष्ट होने की दिशाएं सिहि-पवण-विसाहितो, जंबूदीवस्स दोणि रवि-बिया । दो जोयणाणि पुरु-पुह, श्रादिम- मग्गादु बिदिय पहे ॥ ४५१|| अर्थ- जम्बूद्वीप के दोनों सूर्य-बिम्ब आग्नेय तथा वायव्य दिशासे पृथक्-पृथक् दो-दो योजन लांघकर प्रथम मार्गेसे द्वितीय मार्ग ( पथ ) में प्रवेश करते हैं ।। ४५१ ।। सूर्यके प्रथम और बाह्य मार्गमें स्थित रहते दिन रात्रिका प्रमाण संघंता' प्रवाणं ताघो पुताई, भरहेरावद खिवीसु पविसंति । रसी दिवसाणि जायंते ||४५२ ॥ - [ ३६७ अर्थ - जिस समय दोनों सूर्य प्रथममार्गमें प्रवेश करते हुए क्रमशः भरत और ऐरावत क्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं, उसी समय पूर्वोक्त ( १८ मुहूर्तका दिन और १२ मुहूर्तकी रात्रि ) दिन-रात्रिय होती हैं ||४५२ ॥ एवं सव्व - पहेसु, उदयत्थमयाणि ताणि णावणं । पडिवोहि दिवस - णिसा, बाहिर- मग्गंत माणेज्जं ॥ ४५३ ॥ अर्थ – इसप्रकार सर्व पथोंमें उदय एवं अस्तगमनोंको जानकर सूर्यके बाह्य मार्ग में स्थित प्रत्येक वीथी में दिन और रात्रिका प्रमाए। ज्ञात कर लेना चाहिए ।। ४५३ ।। सव-परिहासु बाहिर भग्ग-विदे विवहरणाहवियम्मि । दिण रतीओ बारस, अट्टरस मुहुत्तमेत्ताओ ।। ४५४ ।। - अर्थ – सूर्य-बिम्बके बाह्य पथमें स्थित होनेपर सर्वे परिधियों में बारह मुहूर्त प्रमाण दिन और अठारह मुहूर्त प्रमाण रात्रि होती है ।। ४५४ ॥ १. ब. लंघंतकाले । २ द. ब. ममात्थमाज्ज । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] तिलोय पण्णत्ती बाहिर पहादु श्रादिम-पहम्मि दुमणिस्स श्रागमण-काले । पुव्युत्त दिणणिसाम्रो, हवंति अहियाओ ऊणाश्री ||४५५ ॥ - [ गाथा : ४५५-४५८ -सूर्यके बाह्य पथसे आदि पथकी ओर आते समय पूर्वोक्त दिन एवं रात्रि क्रमश: उत्तरोत्तर अधिक और कम अर्थात् उत्तरोत्तर दिन अधिक तथा रात्रि कम होती है ||४५५ || सूर्य के उदय-स्थानोंका निरूपण मत्तंड दिर-गढीए, एक्कं चिय लब्भवे उदय ठाणं । एवं दोघे बेबी लवणसमुद्देसु प्राणेज्ज ।।४५६ ॥ ७ ।। १०६ । १७ । १ । ४ । १७० । १ । २६१७८ । अर्थ- सूर्यकी दिनगति में एक ही उदयस्थान लब्ध होता है । इसप्रकार द्वीप, बेदी और लवण समुद्र में उदय स्थानोंके प्रमारणको ले आना चाहिए ।।४५६ || - से दीये तेसड्डी, छव्वीसंसा ख reet fear aate, कलाओ ६३ । २६० | १ | श्रयं -वे उदय स्थान एक सौ सत्तरसे भाजित छब्बीस भाग अधिक तिरेसठ ( ६३२०४ ) जम्बूद्वीपमें और चौहत्तरकला अधिक केवल एक ( १२ ) उदयस्थान उसकी बेदी के ऊपर है ।। ४५७ ।। सस एकक - हिदा । चहत्तरी होंति ॥ ४५७ ॥ - श्रद्धारसूत्तर- सवं, लवणसमुद्दम्मि तेत्तिय कलाश्रो । एदे मिलिदा उदया, तेसीदि-सदाणि अद्भुताल-कला ॥४५८ ॥ 88513361 अर्थ - लवणसमुदमें उतनी ( ११८ ) ही कलाओं से अधिक एक सौ अठारह (११८ ) उदयस्थान हैं । ये सब उदयस्थान मिलकर अड़तालीस कलाओं से अधिक एक सौ तेरासी ( १०३ ) हैं ।। ४५८ ।। I विशेषार्थ - जम्बूद्वीप में सूर्यके चार क्षेत्रका प्रमाण १८० योजन है । जम्बूद्वीपकी वेदीका व्यास ४ योजन है और लवण समुद्रके चार क्षेत्रका प्रमाण ३३०६-०८ योजन है । सूर्यवीथीका प्रमाण योजन है और एक वीथीसे दूसरी बीधीके अन्तरालका प्रमाण २ योजन है । यह २ + योजन सूर्यके प्रतिदिनका गमनक्षेत्र है । अर्थात् १ १. ब. २१ । ।, ब, ६३ । १० । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४५९ ४६० ] सत्तमो महाहियारो [ ३६९ ___गाथा ४५६ को संदृष्टिके प्रारम्भमें जो 11 । १ । १७६ दिये गये हैं उनका अर्थ यह है जबकि १५० योजन दिनगतिमें १ उदयस्थान होता है तब वेदिकाके व्याससे रहित जम्बूद्वीपके ( १८० - ४) १७६ योजन में कितने उदय स्थान प्राप्त होंगे? इसप्रकार राशिक करने पर ४६१ = 1983 = ६३३७ उदय अंश प्राप्त हुए। जिनको संदृष्टि गाथा ४५७ के नीचे है। गा० ४५६ को संदृष्टिका दूसरा अश 12 : ४ । है । अर्थात् जति : सोलन खेल में एक उदय स्थान प्राप्त होता है, तब वेदी-व्यास के ४ योजनोंमें कितने उदय स्थान होंगे? इसप्रकार पैराशिक करनेपरxx= २३४ अर्थात् १० उदय अंश प्राप्त होते हैं; जिनकी संदृष्टि भी गाथा ४५७ के नीचे है। गाथा ४५६ की संदृष्टिका अन्तिम अंश ११ । १ । ११ । है । अर्थात् जबकि योजन क्षेत्रका १ उदय स्थान है तब लवरणसमुद्रके चारक्षेत्र १ ( ३३०) योजन क्षेत्रमें कितने उदयस्थान होंगे? इसप्रकार राशिक करनेपर -२३ अर्थात् ११८ उदय अंश प्राप्त हुए, जिनकी संदृष्टि गाथा ४५८ के नीचे दी गई है। उपयुक्त तीनों राशियोंको जोड़नेपर (६३१ + १४+११८38)-१८२ उदयस्थान और 138 उदय अंश प्राप्त होते हैं । जबकि १ उदय स्थानका योजन क्षेत्र होता है तब 28 उदय अंशोंका कितना क्षेत्र होगा? इसप्रकार ( 1 3 )- योजन क्षेत्र प्राप्त होता है । इस क्षेत्रके उदय स्थान निकालने पर ( 43xXF-) अर्थात् १ उदयस्थान प्राप्त होते हैं। इन्हें उपयुक्त उदय-स्थानों में जोड़ देनेपर ( १८२+१%)=१८३ॐ अर्थात् ४८ कला अधिक १८३ उदय स्थान प्राप्त होते हैं । उदय स्थानोंका विशद विवेचन त्रिलोकसार गाथा ३९६ की टीकासे ज्ञातव्य है । ग्रहोंका निरूपणअट्ठासीदि-गहाणं, एक्कं चिय होवि एत्थ चारखिदी। तज्जोगो बोहोत्रो, पडिवीहिं होंति परिहीनो ॥४५॥ अपं- यहाँ अठासी ग्रहों का एक ही चारक्षेत्र है, जहाँ प्रत्येक वीथी में उसके योग्य वीथियाँ और परिधियां हैं ॥४५९॥ परिहीस ते चरंते, ताणं फणयाचलस्स विच्चालं । अण्णं पि पुथ्व-भणिवं, काल-वसादो पणठ्ठमुवएसं ॥४६०॥ गहाणं परवणा समत्ता। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ४६१-४६४ अर्थ – ग्रह इन परिधियों में संचार करते हैं । इनका मेरु पर्वतसे अन्तराल तथा और मी जो पूर्व में कहा जा चुका है उसका उपदेश कालवश नष्ट हो चुका है ॥४६० ॥ ग्रहों की प्ररूपणा समाप्त हुई हैं ॥४६१। चन्द्र के पन्द्रह पथों में से किस-किस पथमें कौन-कौन नक्षत्र संचार करते हैं ? उनका विवेचन ससिणो पण्णरसाण, बीहोणं ताप होंति मज्भम्मि । घट्ट चिय वीहीग्रो अट्ठावीसाण रिक्खाणं ॥। ४६१।। अर्थ - चन्द्रकी पन्द्रह गलियोंके मध्य में अट्ठाईस नक्षत्रोंको आठ ही गलियाँ होती व प्रभिजिप्पहुदीणं, सावी पुव्वाश्रो उत्तराओ वि । इय वारस रिक्खाणि चंदस्स चरंति पढम पहे ॥ ४६२ || - यथा- J अर्थ - अभिजित् आदि नौ, स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी ये बारह नक्षत्र चन्द्रके प्रथम पथमें संचार करते हैं ॥ ४६२ ॥ तदिए पुणन्वसू मघ, सत्तमए रोहणी य चित्ताओ । छट्टम्मि कित्तियाओ, तह य विसाहाम्रो श्रमो ॥ ४६३ ॥ अर्थ - चन्द्र के तृतीय पथ में पुनर्वसु और मघा, सातवें में रोहिणी और चित्रा, छठे में कृतिका तथा आठवें पथ में विशाखा नक्षत्र संचार करता है ||४६३ || बसमे अणुराहाओ, जेट्ठा एक्कारसम्म पण्णरसे । हत्थो मूलादितियं, मिगसिर दुग-पुस्स-असिलेसा ||४६४ ॥ अर्थ- दसवें पथमें अनुराधा ग्यारहवें में ज्येष्ठा तथा पन्द्रहवें मार्ग में हस्त, मूलादि तीन ( मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा), मृगशीर्षा, आर्द्रा, पुष्य और आश्लेषा ये आठ नक्षत्र संचार करते हैं ।। ४६४ ।। विशेषार्थ चन्द्रकी १५ गलियाँ हैं । उनमें से ८ गलियों में २८ नक्षत्र संचार करते हैं । (१) चन्द्रकी प्रथम वोथी में अभिजित् श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी । (२) तृतीय वीथीमें Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४६४ ] सप्तमो महाहियारो [ ३७१ पुनर्वसु और मघा । (३) छठी बीपी में-कृतिका । (४) सातवीं बोपी-रोहिणी और चित्रा। (१) पाठवीमें-विशाखा । (६) वसनी में अनुराधा । (७) ग्यारहवीं में-ज्येष्ठा तथा (6) पन्द्रहवीं (अन्तिम ) वीथी में हस्त, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा, भूगशीर्षा, पार्दा, पुष्य और आश्लेषा ये आठ नक्षत्र संचार करते हैं । यथा TET दोद में एमाले उम्पसी सनर#30 येनबर . 4 . ALE SPEAश्री TUMAN Aan Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ } तिलोयपणती [ गाथा : ४६५-४६९ प्रत्येक नक्षत्रके ताराओंकी संख्याताराओ विनियाविस, नु-यंत्र-नि-गणक-हक्क-तिय-छक्का। चउ-दुग-दुग - पंचेक्का , एक्क-चउ-छ-ति-णय-चउक्का य ।।४६५।। चउ-तिय-तिय-पंचा तह, एक्करस-जुदं सयं दुग - बगाणि । बत्तीस पंच तिष्णि य, कमेण णिद्दिठ्ठ • संखाम्रो ॥४६६॥ ६। ५।३।१ । ६ । ३ । ६ । ४ । २ । २५।१।१ । ४ । ६।३। ।९।४। ४ । ३ । ३ । ५। १११।२।२ । ३२ । ५ । ३ । अर्थ-छह, पाँच, सीन, एक, छह, तीन, छह, चार, दो, दो, पांच, एक, एक, चार, छह, तीन, नो, चार, चार, तीन, तीन, पांच, एक सौ ग्यारह, दो, दो, बत्तीस, पांच और तीन, यह क्रमशः उन कृत्तिकादिक नक्षत्रोंके ताराओंकी संख्या कही गई है ।।४६५-४६६॥ प्रत्येक ताराका आकारयीयणय-सयलउड्ढो, कुरंगसिर-दोष-सोरणारणं च । प्रादयवारण - वम्मिय - गोमुत्तं सरयुगाणं च ॥४६७।। हत्थप्पल-दीवाणं, अधियरणं हार-वीण-सिंगा य । विच्छव-दुक्कयवावी, केसरि - गयसीस प्रायारा ॥४६८॥ मरयं पसंतपक्खी , सेणा गय-पश्व-अवर-गत्ता य । णावा हयसिर-सरिसा, णं चुल्ली कित्तियावीणं ॥४६९।। अर्थ-कृत्तिका आदि नक्षत्रों ( ताराओं) के आकार क्रमशः १वीजना, रगाड़ोकी उद्धिका, ३हिरणका सिर, ४दीप, ५तोरण, ६आतपवारण ( छत्र), ७वल्मीक, गोमूत्र, सरयुग, हस्त, ११उत्पल, १२दीप, १३अधिकरण, हार, १५वीणा, १५सींग, १७बिच्छू, १ पदुष्कृतवापी, १९सिंहका सिर, २०हायीका सिर, २१मुरज, २२पतत्पक्षी, २३सेना, २४हाथीका पूर्व शरीर, २५हाथीका अपर शरीर, २ नौका, २७घोड़ेका सिर और २८चूल्हाके सदृश हैं ॥४६७-४६९॥ ' [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४७० ] [ ३७३ सत्तमो महाहियारो नक्षत्रोंके नाम, ताराओंकी संख्या एवं प्राकार ताराओं क्रमांक नक्षत्र | ताराओं ___ की ताराओं के प्राकार संख्या क्रमांक नक्षत्र की ताराओं के आकार संख्या दि पुष्य कृतिका बीजना सदृश | १५.| अनुराधा वीणा सदृश रोहिणी ५ गाड़ीकी उद्धिका | १६. ज्येष्ठा सींग सदृश मृगशीर्षा हिरण के सिर | १७. मूल बिच्छू सदृश पार्दा दीप सदृश |१८. पूर्वाषाड़ा दुष्कृत वापी सहश पुनर्वसु 'लोरण सदृश | १९. उत्तराषाढ़ा सिंहके सिर सदृश छत्र सदृश |२०. अभिजित् हाथोके सिर सदृश आश्लेषा | ६ वल्मीक (बांबी), २१.| श्रवण मुरज (मृदङ्ग), मघा . . .. ४ गोमूत्र सदृश | २२. धनिष्ठा गिरते हुए पक्षी, पूर्वा फाल्गुनी | २ सरयुग , २३.| शतभिषा सेना सदृश उत्तरा , हाय । |२४. पूर्वाभादपद , २ हाधीके पूर्व शरीर , हस्त उत्पल उत्तराभाद्रपद हाथीके अपर शरीर (नीलकमल) चित्रा दीप सदृश | २६. | रेवती नौका सदृश स्वाति अधिकरण , २७. अश्विनी घोड़ेके सिर सदृश विशाखा हार २८. भरणी ३ | चूल्हेके सदृश कृत्तिका मादि नक्षत्रोंकी परिवार ताराएं और सकल ताराएँ-- णिय रिणय तारा-संखा, सव्वारणं ठाविदूग रिक्खाणं । पत्तेक्कं गुणिवध्वं, एक्करस - सवेहि एक्फरसे ॥४७०॥ ११११ । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४७१ होति परिवार-सारा, मूलं मिस्सायो सयल-ताराओ। तिबिहाई रिक्साई', मज्झिम - वर - अवर-मेहि ।।४७१॥ ६६६६ । ५५५५ । ३३३३ । ११११ । ६६६६ ! ३३३३ । ६६६६ । ४४४४ । २२२२ १२२२२ । ५५५५ । ११११ । ११११ । ४४४४ । ६६६६ । ३३३३ । ९९९९ । ४४४४१ ४४४४ । ३३३३ । ३३३३ । ५५५५ । १२३३२१ । २२२२ । २२२२ । ३५५५२ । ५५५५ । ३३३३ । ६६७२ । ५५६० । ३३३६ । १११२॥ ६६७२ । ३३३६ । ६६७२ । ४४४८ । २२२४ । २२२४ । ५५६० । १११२ । १११२ । ४४४८ । ६६७२ । ३३३६ । १०००८ । ४४४८ । ४४४० । ३३३६ । ३३३६ । ५५६० । १२३४३२ । २२२४ । २२२४ । ३५५८४ । ५५६० । ३३३६ । मर्च-अपने-अपने सब ताराओंकी संख्या को रखकर उसे ग्यारह सौ ग्यारह (११११) से गुणा करनेपर प्रत्येक नक्षत्रके परिवार-ताराओंका प्रमाण प्राप्त होता है। इसमें मूल ताराओंका प्रमाण मिला देनेपर समस्त तारामोंका प्रमाण होता है । मध्यम, उत्कृष्ट और जघन्यके भेदसे नक्षत्र तीन प्रकारके होते है ॥४७०-४७१।। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक ३. ४. ५. ७. 55. ε. १०. ११. १२. १३. १४. नक्षत्र कृत्तिका रोहियो मृग० आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य आश्लेषा मघा पू० [फा० उ० फा० हस्त चित्रा स्वाति विशाखा ताराओं का प्रमाण प्रत्येक नक्षत्र की सम्पूर्ण ताराए - ६६६६+ ६६७२ १५. अनुराधः |११११×५=५५५५+ ५ = ५५६० १६. ज्येष्ठा |११११×३ = ३३३३+ ३ = ३३३६ १७. मूल | ११११×१ = ११११ + १ १११२ १८ पूर्वाषाढ़ ६६७२ १९. ० पा ११११×६-६६६६ ६ ११११×३३३३३+ ३ ३२३६ २०. अभि० ११११x६ = ६६६६६६६७२ २१. श्रवण |११११×४=४४४४+ ४ = ४४४८ २२. घनिष्ठा २२२४ २३ शतभि० |११११×२ - २२२२+२ |११११×२ = २२२२ २ २२२४ २४. पू० भा० | ११११×५ = ५५५५+५= | ५५६० २५. उ० भा० |११११×१ = ११११ + १ = १११२ २६. रेवती |११११×१ = ११११ + ११११२ २७. अश्विनो |११११४४=४४४४ + ४ = ४४४८ २८. भरती परिवार तारायों की संख्या की संख्या " मूल ताराम्रा = क्रमांक नक्षत्र परिवार ताराओं की संख्या ११११×६= ६६६६+ ११११× ३ = ३३३३+ ११११×९=६६६६+ ११११×४–४४४४+ ११११×४–४४४४+ ११११× ३ – ३३३३+ ११११× ३ – ३३३३+ ११११×५=५५५५+ ११११ × १११ = १२३३२१+ ११११×२=२२२२+ ११११×२ - २२२२+ ११११× ३२ - ३५५५२ + ११११× ५ -- ५५५५ + ११११×३ - ३३३३+ मूल ताराओं की संख्या ६० ३ ९= ४= ४= · ३= ३ ५= १११ २= २ ३२= ५= E ३= प्रत्येक नक्षत्र की सम्पूर्ण ताराएं ६६७२ ३३३६ ܟܘܘܕ ४४४६ *= ३३३६ ३३३६ ५५६० १२३४३२ २२२४ २२२४ ३५५८४ ५५६० ३३३६ गाथा : ४७१ ] सत्तम महाहियारो [ ३७५ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] तिलोयपत्ती [ गाथा : ४७२-४७५ जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम नक्षत्रोंके नाम तथा इन तीनोंके गगन-खण्डोंका प्रमाण अवरामो जेट्ठद्दा, सदभिस-भरणीनो सादि-असिलेस्सा। होति वरात्री पुणव्यस्सु ति-उत्तरा रोहणि-विसाहाओ॥४७२॥ सेसाओ मज्झिमानो, जहण्ण-भे पंच-उत्तर-सहस्सं । तं चिय दुगुणं तिगुणं, मज्झिम-वर-भेसु णभ-खण्डा ॥४७३।। १००५ । २०१० । ३०१५ । अर्थ-ज्येष्ठा, पार्दा, शतभिषक, भरणी, स्वाति और पाश्लेषा, ये बह जघन्य; पुनर्वसु, तीन उत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तरा भाद्रपद ), रोहिणी गौर विशाखा ये उत्कृष्ट; एवं शेष ( अश्विनी, कृत्तिका, मृगशीर्षा, पुष्य, मघा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वा फा०, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वा भाद्रपद, मूल, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती ये ) नक्षत्र मध्यम हैं। इनमेंसे (प्रत्येक ) जघन्य नक्षत्रके एक हजार पाँच ( १००५), (प्रत्येक ) मध्यम नक्षत्रके इससे दुगुने ( १००५४२ २०१० ) और प्रत्येक उत्कृष्ट नक्षत्रके इससे तिगुने ( १००५४ ३ = ३०१५ ) गगनखण्ड होते हैं ॥४७२-४७३।। अभिजित् नक्षत्रके गगनखण्डअभिजिस्स छस्सयाणि, तीस-जुवाणि हवंति पाभ-खंडा । एवं णक्खचाणं, सीम · विभागं वियाणेहि ॥४७४॥ ६३० । अर्ष-अभिजित् नक्षत्रके छह सौ तीस ( ६३०) गगनखण्ड होते हैं। इसप्रकार नभखण्डोंसे इन नक्षत्रोंकी सीमाका विभाग जानना चाहिए ।।४७४।। एक मुहूर्तके गगनखण्डपत्तक्क रिक्वाणि, सब्याणि मुहुत्तमेत - कालेणं । लंघति गयणखंडे, पणतीसत्तारस - सयाणि ॥४७५।। १८३५। प्रर्ष-( सब नक्षत्रों से ) प्रत्येक नक्षत्र एक मुहूतं कालमें अठारह सौ पैंतीस (१८३५) गगनखण्ड लांघता है ।।४७५।। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ४७६-४७९ ] सत्तमो महाहियारो सर्व गगनखण्डों का प्रमाण और उनका श्राकार बो-ससि णवत्ताणं, परिमाणं भणमि गयणखंडेसु लक्ख णव य सहस्सा, अट्ठ- सया काहलायारा ||४७६॥ अर्थ- दो चन्द्रों सम्बन्धी नक्षत्रोंके गगनखण्डों का प्रमाण कहता हूँ । य गगनखण्ड काला ( वाद्यविशेष) के आकारवाले हैं । इनका कुल प्रमाण एक लाख नौ हजार आठ सौ है || ४७६ ।। विशेषार्थ - जयन्य नक्षत्र ६ और प्रत्येकके गगनखण्ड १००५ हैं श्रतः १००५४६= ६०३० । मध्यम नक्षत्र १५ और प्रत्येक के गगनखण्ड २०१० हैं अतः २०१०×१५ = ३०१५० । उत्तम नक्षत्र ६ और प्रत्येकके गगनखण्ड ३०१५ हैं अतः ३०१५४६ = १८०९० | अभिजित् नक्षत्रके ग० खं० ६३० हैं | इसप्रकार एक चन्द्र सम्बन्धी सर्व गगनखण्ड ( ६०३०+३०१५० + १८०९०+ ६३० ) ५४९०० है । तथा दो चन्द्रों सम्बन्धी सर्व गगतखण्डोंका प्रमाण ( ५४९०० × २ ) = १०९८०० है | 2115 सर्वं गगनखण्डों का अतिक्रमण काल - रिक्खाण महत्त-गदी, होदि पमाणं फलं महत्तं च । इच्छा रिस्सेसाई, मिलिदाइ गघण खंडाणि ॥४७७ || [ ३७७ १८३५ | १०६५००० तेरासियम लद्ध, णिय जिय परिहीसु सो भमरा - कालो । तम्माणं उणसट्ठी होंति मुहुत्ताणि अविरेगो || ४७८ ॥ ५९ । अविरेगस्स पमाणं, तिष्णि सर्याणि हवंति सत-कला | तिसएहि सत्तसट्ठी जुह विभाणि ॥ ४७६ ॥ ३२ । अर्थ – [ जबकि नक्षत्रोंको १८३५ गगनखण्डों के भ्रमणमें एक मुहूर्त लगता है, तब १०६८०० ० ० के भ्रमण में कितना काल लगेगा ? इसप्रकार करनेपर ] नक्षत्रोंकी मुहूर्त कालपरिमित गति (१८३५) प्रमाण- राशि, एक मुहूर्त फल राशि और सब मिलकर (१०९८०० ) गगन-खण्ड इच्छाराशि होती है। इसप्रकार राशिक करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना अपनीअपनी परिधियों का भ्रमण काल है । उसका प्रमाण यहाँ कुछ अधिक उनसठ ( ५६ ) मुहूर्त है। इस अधिक का प्रमाण तीन सौ सड़सठसे विभक्त तीन सो सात कला ( ) है ।२४७७-४७९ ।। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] तिलोयपण्णत्ती 1 गाथा : ४००-४६२ विशेषार्थ-प्रत्येक परिधि में १०९८०० गगनखण्डों पर भ्रमण करनेमें नक्षत्रों को ( BFx= ) ५९| मुहूर्त लगते हैं। चन्द्रकी प्रथम वोथी में स्थित १२ नक्षत्रोंका एक मुहर्तका गमन क्षेत्र - सवणादि-अढ-माणि, अभिजिस्सादोश्रो उत्तरा-पुरुया । वचंति मुहुत्तेणं, बावपण-सयाणि अहिय-पणसट्ठी ॥४०॥ अहिय-प्पमारणमंसा, अद्वरस-सहस्स-सु-सय-सेसट्ठो। इगिवीस-साहस्साणि, णव - सय - सट्ठी हरे हारो ॥४८१॥ अर्प-श्रवणादिक पाठ, अभिजित्, स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र एक मुहूर्त में पांच हजार दो सौ पैंसठ योजन से अधिक गमन करते हैं । यहाँ अधिकता का प्रमाण इक्कीस हजार नौ सौ साठ भागोंमेंसे अठारह हजार दो सौ तिरेसठ भाग प्रमाण है ।।४८०-४८१॥ विशेषार्थ - चन्द्रको प्रथम वीथीमें श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पू० भा०, उ• भा०, रेवती, अश्विनी, भरणी, अभिजित्, स्वाति, पू० फा० और उ० फा० ये १२ नक्षत्र संचार करते हैं। प्रथम वीथी की परिधि का प्रमाण ३१५०८९ योजन है । जबकि नक्षत्र ५६ = 1 मुहूर्तों में ३१५०८९ योजन संचार करते हैं, तब एक मुहूर्तमें कितने योजन गमन करेंगे? इसप्रकार राशिक करने पर ( 1 )=५२६५३%80 योजन प्राप्त होते हैं । यही चन्द्र की प्रथम वीथी में नक्षत्रों के एक मुहूर्त के गमन क्षेत्र का प्रमाण है । चन्द्र की तीसरी वीथी स्थित नक्षत्रों का गमन क्षेत्रवचंति मुहुत्तेणं, पुणवसु'-मघा ति-सत्त-दुग-पंचा। अंक-कमे जोयणया, तिय-णभ-घउ-एक्क-एक्क-कला ॥४२॥ ५२७३ II मर्थपुनर्वसु और मघा नक्षत्र अंक-क्रमसे तीन, सात, दो और पांच अर्थात् पाँच हजार दो सौ तिहत्तर योजन और ग्यारह हजार चार सौ तीन भाग अधिक एक मुहूर्तमें गमन करते हैं ॥४८२।। १.द.ब. क. ज. पुम्बाउ । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४८३ - ४८५ ] सत्तमो महाहियारो [ ३७६ विशेषार्थ - पुनर्वसु और मघा नक्षत्र चन्द्रकी तृतीय वीथीमें भ्रमण करते हैं ! इस वीथीको परिधिका प्रमाण ३१५५४६१ योजन है । किन्तु पुनर्वसु और मचाका एक मुहूर्त का गमन मंत्र निकालते समय अधिकका प्रमाण (ई ) छोड़कर त्रैराशिक किया गया है । जिसका प्रमाण ( ११५५४६४२११७ ) ० ५२७३ योजन प्राप्त होता है । नोट- आगे शेष छह गलियोंकी परिधिके प्रमाण में से भी अधिक का प्रमाण छोड़ कर गमन क्षेत्र प्राप्त किया गया है । कृत्तिका नक्षत्रका एक मुहूर्तका गमन-क्षेत्र - बावण्ण सया पणसीबि उत्तरा सत्ततीस अंसा य । चणउवि ' - पण-सय-हिवा, जादि मुहुलेण कित्तिया रिक्खा ||४८३|| - 39 ५२८५५४९ I प्रथं - कृतिका नक्षत्र एक मुहूर्त में पाँच हजार दो सौ पचासी योजन और पांच सौ चौरानबैसे भाजित सैंतीस भाग अधिक गमन करता है ||४८३ || विशेषार्थ - कृत्तिका नक्षत्र चन्द्रकी छठी वीथीमें भ्रमण करता है । इस वीथीको परिधि का प्रमाण ३१६२४०१ई योजन है । इसमें कृत्तिका का एक मुहूर्तका गमनक्षेत्र (७१२४३६७) = ५२८५६४ योजन प्राप्त होता है । चित्रा और रोहिणीका एक मुहूर्त का गमन क्षेत्र पंच सहस्सा दुसया, अट्ठासीदी य जोयणा अहिया । चिताओ रोहिणीश्रो, जसि मुहुत्ते पत्तेषकं ॥ ४६४ || अदिरेगस्स पमाणं, फलानो सग-सत्त-ति-ण-दुगमेत्ता । अंक कमे तह हारो, ल-छक्क-रव-एकक-दुग-माणो ।।४८५॥ ५२८८ । ३९३७७ । अर्थ - चित्रा और रोहिणीमेंसे प्रत्येक नक्षत्र एक मुहूर्त में पांच हजार दो सौ अठासी योजनसे अधिक जाता है। यहाँ अधिकताका प्रमाण अंक क्रमसे शून्य, छह, नौ, एक और दो अर्थात् इक्कीस हजार नौ सौ साठसे भाजित बीस हजार तीन सौ सतत्तर कला है ।।४८४-४६५।। १. व. ब. क. ज. चउरा उदोपणय । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ४८६-४८८ विशेषार्थ — चित्रा और रोहिणी नक्षत्र चन्द्रके सातवें पथमें भ्रमण करते हैं । इस पथ की परिधिका प्रमाण ३१६४७१४ योजन है । इसमें प्रत्येकका एक मुहूर्त का गमन क्षेत्र (१०) =५२८८३॥ योजन प्राप्त होता है । विशाखा नक्षत्रका एक मुहूर्त का गमन-क्षेत्र - ३८० ] यावरण-सया बाणउदि जोयरणा बच्चदे विसाहा य । सोलस - सहस्स-णय-सय सगदाल कला मुहुत्तेणं ॥। ४८६ ॥ ५२९२ । ३३६ अर्थ-विशाखा नक्षत्र एक मुहूर्तमें पाँच हजार दो सौ बानवे योजन और सोलह हजार नौ सौ सैंतालीस कला अधिक गमन करता है ||४५६ || विशेषार्थ - विशाखा नक्षत्र चन्द्रके आठवें पथ में भ्रमण करता है । इस पथकी परिधिका प्रमाण ३१६७०११३७ योजन है । इस परिधि में विशाखा एक मुहूर्तके गमन क्षेत्रका प्रमाण ( ११६५५६७ ) =५२६२३ोजन प्राप्त होता है । अनुराधा नक्षत्रका एक मुहूर्तका गमन क्षेत्र-तेवण्ण-सयाणि जोयणाणि वच्चदि मुहुतमेत्तानि । चडवण्ण चउ-सया बस- सहस्स श्रंसा य अणुराहा ||४६७।। ५३०० | २९४ ४ अर्थ - अनुराधा नक्षत्र एक मुहूर्त में पाँच हजार तीन सौ योजन और दस हजार चार सौ चौवन भाग अधिक गमन करता है ||४८७ ।। विशेषार्थ - प्रनुराधा नक्षत्र चन्द्र के दसवें पथ में भ्रमरण करता है । इस पथकी परिधिका प्रमाण ३१७१६२४७ योजन है । इस परिधि में अनुराधा के एक मुहूर्तके गमन-क्षेत्रका प्रमाण (३१७०६०) ५३०००० योजन प्राप्त होता है । ज्येष्ठा नक्षत्रका एक मुहूर्त का गमन-क्षेत्र - तेवण्ण-सयाणि जोयणाणि घसारि वच्चदि जेट्टा | अंसा सत्तसहस्सा, खडयोस जुबा मुहुत्तेणं ॥ ४८८ || ५३०४ । १५० । अर्थ - ज्येष्ठा नक्षत्र एक मुहूर्त में पाँच हजार तीन सौ चारयोजन और सात हजार चौबीस भाग अधिक गमन करता है ||४८८|| Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४९९-४९२ सत्तमो महाहियारो [ ३८१ विशेवार्य ज्येष्ठा नक्षत्र के ग्यारहवें पथ में भ्रमण करता है । इस पथकी परिधिका प्रमाण ३१७३९२१¥ योजन है । इस परिधि ज्यष्ठाके एक मुहूर्त के गमन क्षेत्रका प्रमाण (11247 3193 FAXERO ) = ५३०४६० योजन प्राप्त होता है । पुष्यादि नक्षत्रों में से प्रत्येक के गमन क्षेत्रका प्रमाण पुस्सो सिलेसाश्रो, पुव्वासादाश्रो उत्तरासादा | हत्थो मिगसिर मूला, अद्दाओ अट्ठ पत्तेवकं ॥४८६|| तेवण्ण-सया उणवीस' - जोयणा जंति इगि मुहुत्तेणं । प्राणउदी पव-सय, पण्णरस सहस्स अंसा य ॥। ४६० ।। ५३१९ । ३५६६६ अर्थ- पुष्य, आश्लेषा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, हस्त, मृगशीर्षा, मूल और आर्द्रा, इन आठ नक्षत्रों में प्रत्येक एक मुहूर्त में पांच हजार तीन सौ उन्नीस योजन और पन्द्रह हजार नौ सौ अट्ठानवे भाग अधिक गमन करते हैं ।।४६९-४१० ॥ - विशेषार्थ - उपर्युक्त आठों नक्षत्र चन्द्रके पन्द्रहवें ( अन्तिम ) पथमें भ्रमण करते हैं। इस बाह्य पथकी परिधिका प्रमारण ३१८३१३३६ योजन है । इस परिधि में पुष्य आदि प्रत्येक नक्षत्रके एक मुहूर्तके गमन क्षेत्रका प्रमाण ( = ५३१९३५६६ः योजन है, किन्तु गाथा में ५३१९६१ योजन दर्शाया गया है। नक्षत्रों के मण्डल क्षेत्रोंका प्रमाण मंडल -खेत- पमाणं, जहण्ण-भे तीस जोया होंति । तं चिगुणं तिगुणं, मज्झिम वर मेसु पत्तेश्कं ॥ ४६१ ।। ३० । ६० । ६० । अर्थ - जघन्य नक्षत्रों के मण्डलक्षेत्रका प्रमाण तीस (३०) योजन और इससे तिगुना वही प्रमाण क्रमश: मध्यम ( नक्षत्रोंका ६० ) और उत्कृष्ट ( का ९० यो० ) प्रत्येकका है || ४६१ ॥ अट्ठारस जोयणया, हवेबि अभिजिस्स मंडलं खेतं । सहिय-ह- मेत्ताओ, निघ-जिय-ताराण मंडल - खिवीश्रो ।।४६२ ॥ १८ १ १. द. उग्रवण्णुमय जोयणा, ब. उण जोया । दूना एवं नक्षत्रों में से Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-२ ] तिलोत्त [ गाया । ४९३ -४९५ श्रथं - अभिजित् नक्षत्रका मण्डल क्षेत्र अठारह योजन प्रमाण है और अपने-अपने ताराओं का मण्डल क्षेत्र स्व-स्थित आकाश प्रमाण ही है ।। ४९२ ।। स्वाति यदि पांच नक्षत्रोंकी अवस्थिति उद्धाओ दक्षिणाए, उत्तर-मकेसु सादि-भरणीश्रो । मूलं अभिजी - कित्तिय- रिक्खाओ चरंति जिय-मगे ॥४६३ ॥ अर्थ-स्वाति, भरणी, मूल, अभिजित् और कृत्तिका, ये पांच नक्षत्र अपने मार्गमें क्रमशः ऊर्ध्व, अधः, दक्षिण, उत्तर और मध्यमें सचार करते हैं ||४६३॥ विशेषार्थ-चन्द्र के प्रथम पथमें स्थित स्वाति एवं भरणी नक्षत्र क्रमश: अपनी वीथीके ऊर्ध्व और प्रधोभाग में, पन्द्रहवें पथमें स्थित मूल नक्षत्र दक्षिण दिशामें प्रथम पथमें स्थित अभिजित् नक्षत्र उत्तर दिशामें और छठे पथमें स्थित कृतिका नक्षत्र प्रपने पथके मध्यभाग में संचार करते हैं । एरिंग रिक्खाणि जिय-जिय-ममोसु पुण्य-भणिदेसु । णिच्चं चरंति मंदर सेलस्स पदाहिण - कमेणं ॥ ४६४ ॥ अर्थ – ये नक्षत्र मन्दर-पर्वतके प्रदक्षिण क्रमसे अपने-अपने पूर्वोक्त मार्गोमं नित्य ही संचार करते हैं ।। ४९४ ।। कृत्तिकायादि नक्षत्रोंके अस्त एवं उदय आदिकी स्थितिएवि मघा मज्भण्हे, कित्तिय रिक्खस्स प्रत्थमण समए । उबए प्रणुराहाओ एवं जाणेज्ज सेसाणि ॥४६५ ॥ एवं क्वत्ताणं परूवणा समत्ता । अर्थ - कृतिका नक्षत्र के अस्तमन कालमें मघा मध्याह्नको और अनुराधा उदयको प्राप्त होता है । इसीप्रकार शेष नक्षत्रोंके उदयादिकको भी जानना चाहिए ||४६५ ।। विशेषार्थ ---गाथा में कृत्तिकाके अस्त होते मघाका मध्याह्न और अनुराधाका उदय होना कहा है | कृतिका मघा ८ व नक्षत्र है और मधासे अनुराधा ८ वां है । इससे यह ध्वनित होता है कि जिस समय कोई विवक्षित नक्षत्र ग्रस्त होगा, उस समय उससे आठवीं नक्षत्र मध्य को श्रीर उससे भी नक्षत्र उदयको प्राप्त होगा । शेष नक्षत्रोंके उदय प्रस्तादि की व्यवस्था भी इसीप्रकार जानने को कही गयी है । जो इसप्रकार है 5 - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४९६ ] सत्तमो महायिारो जब कृत्तिकाका अस्त तब मघा का मध्याह्न और अनु० का उदय ।। ., रोहिणीका , , पू० फा० , ,, ज्येष्ठा , । ,, ग्रामि हा .. .. . .. . . । । , पार्टाका , हस्त , पू० षा.. । " पुनर्वसुका ॥ , चित्रा , उ.षा... । , पुष्यका , , स्वाति ॥ , अभिजित् .. । ., आश्लेषाका , , विशाखा , श्रवण . । , मघाका .. , अनुराधा , , धनिष्ठा । । । पू० फा०का , , ज्येष्ठा , शत० , । .. उ० फा०का , , मूल , । पू० मा०, । " हस्तका " . पू० षा० , . उ. भा०, । , चित्राका , उषा० , , रेवती , । ,, स्वातिका , , अभिजित् ॥ . अश्विनी , । .. विशाखाका , , श्रवण , , भरणी , । इत्यादिइसप्रकार नक्षत्रोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। जम्बूद्वीपस्थ चर एवं अचर (घ्र व ) तारामोंका निरूपणविहा चरयचराओ, पइग्ण-साराओ तारण चर-संखा। कोडाकोडी - लवलं, तेत्तीस-सहस्स-णव-सया पण्णं ॥४६॥ १३३९५००००००००००००००० । अर्थ-प्रकीर्णक तारे चर और अचर रूपसे दो प्रकारके होते हैं। इनमें चर ताराओंकी संख्या एक लाख तैंतीस हजार नौ सौ पचास ( १३३९५० ) कोडाकोड़ी है ॥४९६।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्र-कुलाचलादिकी कुल शलाकाएँ (१, २, ४, ८, १६, ३२, ६४, ३२, १६, ८, ४, २, १= ) १६० हैं । जम्बूद्वीपस्थ दो चन्द्रोंसे सम्बन्धित १३३९५० कोड़ाकोड़ी । १३३९५० कोड़ाकोड़ी ) =७०५ कोडाकोड़ी लब्ध प्राप्त होता ताराओंमें १६० का भाग देनेपर ( १२२१ है। इसको अपनी-अपनी शलाकाओंसे गुणा करनेपर तत् तत् क्षेत्र एवं पर्वत सम्बन्धी तारामोंका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा ! ४९७-४६६ क्षेत्र और पर्वत | दोनों चन्द्र सम्बन्धी|... |क्षेत्र और पर्वत के नाम | तारापोंकी संख्या | * के नाम दोनों चन्द्र सम्बन्धी ताराओंकी संख्या २२५६० कोड़ाकोड़ी ११२८० " ५६४० भरतक्षेत्र | ७०५ कोड़ाकोड़ी ८. | नील पर्वत हिमवन् पर्वत | १४१० ॥ ६. रम्यक क्षेत्र हैमवत क्षेत्र २८२० , रुक्मि पर्वत महाहिमवन् प० ५६४० , हैरण्यवत क्षेत्र हरिक्षेत्र ११२८० ॥ शिखरिन् प० निषध पर्वत २२५६० , १३.| ऐरावत क्षेत्र विदेह क्षेत्र ४५१२० ॥ २८२० १४१० छचीस अचर - तारा, जंयूवीवस्स चउ-दिसा-भाए। एवायो दो- ससिणो, परिवारा प्रद्धमेक्कस्मि ॥४९७॥ ३६ । ६६६७५००००००००००००००। भर्ष-जम्बूद्वीपके चारों दिशा-भागोंमें छत्तीस अचर (ध्र व ) तारा स्थित हैं। ये ( १३३९५० कोडाकोड़ी ) दो चन्द्रोंके परिवार-तारे हैं। इनसे आधे ( ६६९७५ कोडाकोड़ी ) एक चन्द्र के परिवार-तारे समझना चाहिए ॥४६७॥ चन्द्रसे तारा पर्यंत ज्योतिषी देवोंके गमन-विशेषरिक्स-गमरणादु अहियं, गमणं जाणेज सयल-ताराणं । ताणं गाम - प्पहुविसु, उवएसो संपद पणडो॥४६॥ अर्थ—सब तारामोंका गमन नक्षत्रोंके गमनसे अधिक जानना चाहिए । इनके नामादिकका उपदेश इस समय नष्ट हो चुका है ।।४८६।। चंदावो मत्तंगे, मत्तंडादो गहा गहाहितो। रिक्खा रिक्वाहितो, तारापो होति सिग्ध - गवी ॥४६॥ । एवं ताराणं परवणं समतं । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५००- ५०३ ] सत्तमो महाहियारो [ ३८५ प्र - चन्द्र से सूर्य, सूर्यसे ग्रह, ग्रहोंसे नक्षत्र और नक्षत्रोंसे भी तारा शीघ्र गमन करनेवाले होते हैं ।।४९९ ।। इस प्रकार ताराओं का कथन समाप्त हुआ । सूर्य एवं चन्द्र के प्रयन और उनमें दिन-रात्रियोंकी संख्याप्राणिव रवि स राम यहां एजे चारी । णत्थि श्रयणाणि भगणे, नियमा ताराण एमेव ॥ ५००। अर्थ--- सूर्य, चन्द्र और जो अपने प्रपने क्षेत्रमें संचार करने वाले ग्रह हैं उनके अयन होते हैं । नक्षत्र - समूह और ताराओं के इसप्रकार अयनों का नियम नहीं है ||५००॥ रवि श्रयणे एक्केक, तेसीदिन्सया हवंति दिण-रती । तेरस विदा वि चंदे, सत्तट्ठी भाग चउचालं ॥ ५०१ ॥ ■ → १८३ | १३ | ४४ अर्थ- सूर्य के प्रत्येक अयनमें एक सौ तेरासी ( १८३ ) दिन रात्रियाँ और चन्द्रके अयन में सड़सठ भागों में से चवालीस भाग अधिक तेरह ( १३३४ ) दिन ( और रात्रियाँ ) होते हैं ।। ५०१ || दक्खिण-अघणं श्रावी, पज्जवसाणं तु उत्तरं अयणं । सव्येस सुराणं विवरीवं होदि चंदाणं ।। ५०२ || अर्थ- सब सूर्योका दक्षिण अयन प्रादिमें और उत्तर प्रयन अन्तमें होता है । चन्द्रोंके अयनोंका कम इससे विपरीत है ।। ५०२|| अभिजित् नक्षत्र के गगनखण्ड--- छच्चेव सया तीस, भागाणं अभिजि-रिक्स - विक्खंभा । विट्ठा सव्वं दरिसिहि, सन्धेहि प्रणंत णाणेणं ||५०३ ॥ १. द. ब. क. ज. समयस्खेत्ते । २. ब. क. जं । ६३० । अर्थ - अभिजित् नक्षत्रके विस्तार स्वरूप उसके गगन खण्डों का प्रमाण छह सौ तीस ( ६३० ) है । उसे सभी सर्व-दर्शियोंने श्रनन्त ज्ञानले देखा है ||५०३१ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] तिलोय पण्णत्ती सदभिस भरणी श्रद्दा, सादी तह प्रस्सिलेस जेट्ठा य । पंचतरं सहस्सा, भगणाणं सोम विक्खंभा ||५०४ ॥ - १००५ । प्रथं - शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा और ज्येष्ठा इन नक्षत्र गणों के सीमाविष्कम्भ अर्थात् गगनखण्ड एक हजार पाँच ( १००५ ) हैं ।। ५०४ ।। एवं चैव यतिगुणं, पुनब्वसू रोहिणी विसाहा य । तिष्णेव उत्तराश्रो, श्रथसेसारणं हवे विगुणं ।। ५०५ ।। [ गाथा ५०४ - ५०८ अर्थ - पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखा और तीनों उत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद ), इनके गगनखण्ड इससे तिगुने ( १००५४३०३०१५ ) हैं तथा शेष ( १५ ) नक्षत्रोंके दूने ( १००५× २ = २०१० ) हैं ।। ५०५ ।। दशहरा जय य सया होंति सव्व-रिक्खाणं । बिगुणिय - गयणवखंडा, दो चंदाणं पि नादव्वं ॥ ५०६ ॥ - ५४९०० । अर्थ- -सब नक्षत्रोंके गगनखण्ड चौवन हजार नौ सौ ( ५४९०० ) हैं । दोनों चन्द्रोंके गगनखण्ड इससे दूने समझने चाहिए ||५०६ ॥ - एयं च सय सहस्सा, अट्टाणडवीसया य पडिपुण्णा । एसो मंडल छेवो, भगणाणं सोम - विवसंभो ॥५०७॥ १०९८०० । अर्थ - इसप्रकार एक लाख नौ हजार आठ सौ ( १०९८०० ) गगनखण्डोंसे परिपूर्ण यह मण्डल विभाग नक्षत्रोंकी सीमा के विस्तार स्वरूप है ।। ५०७ || नक्षत्र, चन्द्र एवं सूर्य द्वारा एक मुहूर्त में लांघने योग्य गगनखण्डों का प्रमाण 1 अट्ठारस - भाग सया, पणतीसं गच्छ मुहुत्ते । चंदो अडसट्ठी सय, सत्तरसं सीम १८३५ । १ । १७६८ । खेत्तस्स ||१०८ ॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! ५०६-५११ ] सत्तगो महाहियारो अर्थ-नक्षत्र एक मुहूर्त में अठारह सौ पैंतीस ( १८३५) गगनखण्ड रूप सीमा क्षेत्रमें जाता है और चन्द्र ( उसी एक मुहूर्त में ) सत्तरह सौ अड़सठ ( १७६८ ) नभखण्ड रूप सीमा क्षेत्रमें जाता है ।।५०८।। अट्ठारस-भाग-सया, तोसं गच्छवि रवी' मुहत्तेणं । णक्खत्त - सीम - छेदो, ते चरइ इमेण बोद्धव्वा ॥५०९।। पर्थ सूर्य एक मुहूर्त में अठारह सौ तीस ( १८३०) नभखण्डरूप सीमा क्षेत्रमें जाता है। नक्षत्रोंके सीमा क्षेत्रसे सूर्य और चन्द्रका गमन इसी प्रकार जानना चाहिए । ५०६।। सूर्यको अपेक्षा चन्द्र एवं नक्षत्रके अधिक गगनखण्डसत्तरसट्ठीणि तु, चंदे सुरे 'विसद्धि-अहियं च । सट्ठी विय भगणा, चरइ मुहत्तण भागारणं ॥५१०॥ १७६८ । १८३० । १८३५ ।। पर्थ-चन्द्र एक मुहूर्त में सत्तरह सौ अड़सठ गगनखण्ड लांघता है। इसकी अपेक्षा सूर्य बासठ गगनखण्ड अधिक और नक्षत्रगण सड़सठ गगनखण्ड अधिक लांघते हैं ॥५१०।। विशेषार्थ-एक मुहूर्त के गमनकी अपेक्षा चन्द्रके नभखण्ड १७६८, सूर्यके १८३० पौर नक्षत्रके १८३५ हैं । चन्द्र के गगनखण्डोंसे सूर्य के गगनखण्ड ( १८३० – १७६८ )=६२ और नक्षत्रके (१८३५ - १७६८ )=६७ गगनखण्ड अधिक है । एक ही साथ चन्द्र, सूर्य और नक्षत्र ने गमन करना प्रारम्भ किया और तीनोंने अपने-अपने गगनखण्डोंको समाप्त कर दिया । अर्थात् एक मुहूर्त में चन्द्रने १७६८ गगनखण्डोंका भ्रमण किया, जबकि सूर्यने १८३० और नक्षत्रने १८३५ का किया, अतः चन्द्र सूर्यसे ६२ और नक्षत्रसे ६७ गगनखण्ड पोछे रहा। सूर्यके तीस मुहूतौक गगनखण्डोंका प्रमाणचंद-रवि-गवणखडे, अण्णोण्ण-विसुद्ध-सेस-बासट्ठी । एय-मुहत्त - पमाणं, बासट्टि - फलिच्छया तीसा ॥५११॥ १। ६२ । ३० । १. द. ब. क. ज. रखे। २. ८. क. ज. चेटुइ । ३. ब. विभट्ठि । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] लिलोयपण्णत्ती | गाथा : ५१२-५१४ पर्य-चन्द्र और सूर्यके गानों को पाने पर मारा क्षेत्र रहते हैं। जब सूर्य एक मुहूर्तमें ( चन्द्रकी अपेक्षा ) बासठ गगनखण्ड अधिक जाता है तब वह तीस मुहूर्तमें कितने गगनखण्ड अधिक जावेगा? इसप्रकार राशिक करने पर यहां एक मुहूर्त प्रमाण राशि, बासठ फलराशि और तीस मुहूर्त इच्छा-राशि ( ६३३३° ) होती है ।।५११।। हौराशिक द्वारा प्राप्त १८६० नभखण्डोंके गमन-मुहूर्त का कालएय-तिण्णि-सुण्णं, गयणक्खंडेण लब्भवि महत्तं । अट्टरसट्ठी य तहा, गयणक्खंडेण कि लद्ध॥५१२॥ १८३० । १८६० । १।। चंदावो सिग्घ-गदी, दिवस-मुहलेण धरदि खल सूरो। एक्कं चेव मुहत्तं, एक्कं एयट्ठि - भागं च ।।५१३॥ अर्थ-जब एक, आठ, तीन और शून्य अर्थात् १८३० गगनखण्डोंके अतिक्रमण में एक मुहूर्त प्राप्त होता है, तब अठारह सौ साठ ( १८६० ) नभखण्डोंके अतिक्रमणमें क्या प्राप्त होगा? सूर्य, चन्द्रकी अपेक्षा दिनमुहूर्त अर्थात् तीस मुहूर्तों में एक मुहूर्त और एक मुहूर्त के इकसठवें भाग अधिक शीघ्र गमन करता है । अर्थात् १८६० नभखण्डोंके अतिक्रमणका काल ( Rass= = ) १ मुहूतं प्राप्त होगा ।।५१२-५१३।। नक्षत्रके तीस मुहूर्तोंके अधिक नभखण्डरवि-रिक्ख-गगणखंडे, अण्णोण्णं सोहिऊण ज सेसं । एय - मुहुत्त - पमाणं, फल पण इच्छा तहा तीसं ॥५१४॥ १ । ५ । ३० । अर्थ-सूर्य और नक्षत्रोंके गगनखण्डोंको परस्पर घटाकर जो शेष रहे उसे ग्रहण करनेपर यहाँ एक मुहूर्त प्रमाण राशि, पांच ( नक्षत्र ) फलराशि और तीस मुहूर्त इच्छाराशि है ॥५१४॥ विशेषार्थ-नक्षत्रके गवं० १८३५ --- १८३० सूर्यके ग० खं०= ५ अवशेष । जब नक्षत्र ( सूर्य की अपेक्षा ) एक मुहूर्त में ५ खण्ड अधिक जाता है, तब तीस मुहूर्त में कितने खण्ड जावेगा ? इस प्रकार राशिक करने पर (2 ) १५० गगनखण्ड प्राप्त होते हैं । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८९ गाथा : ५५५-५१९ ] सत्तमो महाहियारो औरा द्वारा प्राप्त १५० नभखण्डोंका अतिक्रमण कालतीसट्टारसया खलु, मुहुत्त-कालेण कमइ जइ सूरो। तो केसिय - कालेणं, सय - पंचासं कमे इत्ति ॥५१५।। १८३० । १ । १५०। सूरादो पक्खसं, दिवस • मुहत्तेण जइणतरमाहु । एक्कस्स महत्तस्स य, भागं एक्कट्रिमे पंच ॥५१६॥ अर्थ-जब सूर्य अठारह सौ तीस मगनखण्डोंको एक मूहूर्त में लांघता है, तब वह एक सौ पचास ( १५० ) गगनखण्डोंको किसने समयमें लांधेगा ? सूर्यको अपेक्षा नक्षत्र एक दिन महनों (३० मुहूर्तों ) में एक मुहूर्तके इकसठ भागों से पांच भाग अधिक जविनतर अर्थात् अतिशय वेग वाला है। अर्थात् १५० नभखण्डोंके अतिक्रमणका काल (१ )- मुहूर्त प्राप्त होता है ।।५१५-५१६।। सूर्य और चन्द्रको नक्षत्र भुक्तिका विधानणखत्त-सीम-भाग, भजिये दिवसस्स जइण-भागेहि । लातु होइ रवि - ससि - णक्खत्ताणं तु संजोगा ॥५१७।। अर्थ-सूर्य और चन्द्र एक दिनमें नक्षत्रों की अपेक्षा जितने गगनखण्ड पीछे रहते हैं, उनका नक्षत्रोंके गगनखण्डोंमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतने समय तक सूर्य एवं चन्द्रका नक्षत्रोंके साथ संयोग रहता है ।।५१७॥ सूर्यके साथ अभिजित् नक्षत्रका भुक्तिकालति-सय-दल-गणखंडे, कमेह जइ वियरो दिणिक्केणं । तउ रिक्खाणं णिय-णिय, गहखंड-गमण को कालो ? ॥५१॥ १५० । १ । ६३० । अभिजी-छसच मुहुसे, तारि य केवलो अहोरत्ते । सूरेण समं गच्छति, एत्तो सेसाणि बोच्छामि ॥५१६।। दि ४ मु६। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ५२०-५२१ पर्थ - यदि सूर्य एक दिन में तीन सौ के आधे (१५०) नभखण्ड पीछे रहता है तो नक्षत्रोंके अपने-अपने गगनखण्डोंके गमनमें कितना काल लगेगा ? इसप्रकार अभिजित् नक्षत्र चार अहोरात्र और छह मूहूर्त काल तक सूर्यके साथ गमन करता है। शेष नक्षत्रोंका कथन यहाँसे आगे करता हूँ ।। ५१८-५१९ ।। विशेषार्थ - अभिजित् नक्षत्र के ६३० नभखण्ड हैं। सूर्य अभिजित् नक्षत्रके ऊपर है । जब १५० नभखण्ड छोड़ने में सूर्यको एक दिन लगता है तब ६३० खण्ड छोड़ने में कितना समय लगेगा ? इस दौराशिकसे सूर्य द्वारा अभिजितकी भुक्तिका काल ('X' ) = ४ दिन ६ मुहूर्त प्राप्त होता है । सूर्यक साथ जघन्य नक्षत्रोंका भुक्तिकाल -- सदभिस भररणी अद्दा, सादी तह अस्सिलेस जेट्ठा य । छुच्चेव एक्कावीसा मुहत्तेणं ॥ ५२० ॥ होश्ते, दि ६ । मु २१ । अर्थ - शतभिषक् भरणी. यार्द्रा, स्वाति, प्राश्लेषा और ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र छह अहोरात्र और इक्कीस मुहूर्त तक सूर्य के साथ रहते हैं ||५२०॥ विशेषार्थ - जघन्य नक्षत्र ६ हैं और प्रत्येकके गगनखण्ड १००५ हैं । सूर्य इनके ऊपर है । जब १५० खण्ड छोड़ने में सूर्यको १ दिन लगता है तब १००५ गगनबण्ड छोड़ने में कितना समय लगेगा ? इसप्रकार राशिक करने पर ( 1 ) =६ दिन २१ मुहूतं प्राप्त होते हैं । एक ज० न० को भोगने में ६ दिन २१ मु० लगते हैं तब ६ नक्षत्रोंको भोगने में कितना समय लगेगा ? इस प्रकार शेरा करनेपर ( ६ दिन २१ मु० x ६ ) - ४० दिन ६ मु० होते हैं । अर्थात् सूर्यको ६ ज० नक्षत्रों को भोगने में कुल समय ४० दिन ६ मुहूर्त लगता है । सूर्यके साथ उत्कृष्ट नक्षत्रोंका भुक्तिकाल - तिष्णेव उत्तराश्रो, पुणथ्वसू रोहिणी बिसाहा य । वोसं च अहोरत्ते तिष्णेय य होंति सूरस्स ॥५२१॥ दि २० । मु ३ | अर्थ-तीनों उत्तरा, पुनर्वसु रोहिणी और विशाखा, ये छह उत्कृष्ट नक्षत्र बीस अहोरात्र और तीन मुहूर्त काल तक सूर्यके साथ गमन करते हैं ।। ५२१ ।। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९१ गाथा । ५२२-५२३ ] सत्तमो महाहियारो विशेषार्थ--उत्कृष्ट नक्षत्र ६ हैं । प्रत्येकके नभखण्ड ३०१५ हैं । सूर्य इनके ऊपर है । सूर्य को जब १५० ग० ख० छोड़नेमें १ दिन लगता है तब ३०१५ नक्षत्र छोड़ने में कितना समय लगेगा? इसप्रकार रा० करनेपर ( 394 )-२० दिन ३ मुहर्त प्राप्त होते हैं। एक उत्कृष्ट न० को भोगनेमें २१ दिन लगते हैं तब ६ उत्कृष्ट नक्षत्रों को भोगने में कितना समय लगेगा ? इसप्रकार रा० करने पर ( २०१५) = १२० दिन १८ मुहूर्तका समय लगेगा। सूर्यके साथ मध्यम नक्षत्रोंका भुक्तिकालअबसेता जाता, पारस यि सूर-सह-गया होति । बारस चेव मुहत्ता, तेरस य समे अहोरत्ते ॥५२२॥ दि १३ । मु १२ । अर्थ-शेष पन्द्रह ही मध्यम नक्षत्र तेरह अहोरात्र और बारह मुहूर्त काल तक सूर्यके साथ गमन करते रहते हैं ।। ५२२।। विशेषार्थ-मध्यम न० १५ हैं और प्रत्येकके नभखण्ड २०१० हैं । सूर्य इनके ऊपर है । पूर्वोक्त प्रकार राशिक करनेपर प्रत्येक नक्षत्रका मुक्ति काल ( २ ) =१३ दिन १२ मु० प्राप्त होता है । एक मध्यम न० का भोग ३ दिनमें होता है तब १५ नक्षत्रोंका कितने दिनमें होगा? इसप्रकार दौरा० करनेपर ( 111)- २०१ दिन सर्व मध्यम नक्षत्रोंका भुक्ति काल है। दक्षिण और उत्तरके भेदसे सूर्यके दो अयन होते हैं । प्रत्येक अयनमें सूर्य १८३-१८३ दिन भ्रमण करता है। इस भ्रमणमें सूर्य अभिजित् न० को ४ दिन ६ मुहूर्त, ६ जघन्य नक्षत्रों को ४० दिन ६ मुहूर्त, १५ मध्यम नक्षत्रोंको २०१ दिन और ६ उत्कृष्ट नक्षत्रों को १२० दिन १८ म० भोगता है । इन २८ नक्षत्रोंका सर्व-काल ( ४ दि० ६ मु०+४० दि० ६ मु. +२०१ दिन+ १२० दिन १८ मु०)=३६६ दिन होता है। इसीलिए दोनों अयनोंके {१८३४२)=३६६ दिन होते हैं। चन्द्रके साथ अभिजित्का भुक्तिकालसप्तद्धि - गगणखंडे, मुहत्तमेक्केण कमइ जइ घंयो । भगणाण गगणखंडे, को कालो होदि गमणम्मि ॥५२३।। ६७ । १ । ६३० । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५९४-५२६ अभिजिस्स चंद • जोगो', सट्ठी खंडिदे मुहुत्तेगे। भागो य सत्तवीसा, ते पुरण अहिया गय - मुहुत्ते ॥५२४॥ अर्थ-जब चन्द्र एक महूर्तमें नक्षत्रके गगनस्तएनसे ( १८३५ – १७६८ -- ) सड़सठ (६७) गगनखण्ड पीछे रह जाता है तब उन ( नक्षत्रों ) के गगनखण्डों तक साथ गमन करने में कितना समय लगेगा ? अभिजित् नक्षत्रके ( ६३०) गगनखण्डोंमें सड़सठका भाग देनेपर एक मुहूर्तके सड़सठ भागों में से सत्ताईस भाग अधिक नौ मुहूर्त (३१ =९१७ मु०) लब्ध पाता है। अर्थात् चन्द्रका अभिजित् नक्षत्रके साथ गमन करनेका काल ९१७ मुहूर्त प्रमाण है ।।५२३-५२४।। चन्द्रके साथ जघन्य नक्षत्रोंका भुक्ति काल-- सदभिस भरणी-अद्दा, सादी तह प्रस्सलेस-जेट्ठा य । एदे छण्णक्वंता, पण्णरस - मूहुत्त - संजुत्ता ॥५२॥ प्रर्थ-शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, माश्लेषा और ज्येष्ठा, ये छह नक्षत्र चन्द्रके साथ पन्द्रह मुहूर्त पर्यन्त रहते हैं ३१५२५।। विशेषार्थ-पूर्वोक्त प्रक्रियानुसार प्रत्येक ज० न० के साथ चन्द्रका योग (१००५-६७) =१५ मुहूर्त और सर्व ज. नक्षत्रोंके साथ ( १५ मु०४ ६)=३ दिन पर्यन्त रहता है। चन्द्र के साथ मध्यम नक्षत्रोंका योगअवसेसा णक्खता, पण्णरसाए तिसदि मुहत्ता य । चंदम्मि एस जोपो, णक्खत्ताणं समपखादं ॥५२६।। ३.। अर्थ-अवशेष पन्द्रह ( मध्यम ) नक्षन चन्द्रमाके साथ तीस मुहूर्त तक रहते हैं। यह उन नक्षन्नोंका योग कहा है ।।५२६।। विशेषार्ष-पूर्वोक्त प्रक्रियानुसार प्रत्येक मन के साथ चन्द्रका योग ( २०१०+६७) -३० मुहूर्त और सर्व म० नक्षनोंके साथ ( ३० मु०४१५ ) = १५ दिन पर्यन्त रहता है। १. द..क, ज. सारो। २.द.ब.६। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहियारो चन्द्र के साथ उत्कृष्ट नक्षत्रोंका योग--- तिण्णेव उत्तरानो, पुणव्यसू रोहिणी विसाहा य । पणदाल - महुत्त संजुता ॥५२७॥ एवे छण्णक्खत्ता, गाथा : ५२७-५२९ ] ४५ । पर्थ - तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा, ये छह ( उत्कृष्ट ) नक्षत्र पैंतालीस (४५) मुहूर्त तक चन्द्रके साथ संयुक्त रहते हैं ।।५२७ ।। विशेषार्थ - पूर्वोक्त प्रक्रियानुसार प्रत्येक उत्कृष्ट न० के साथ चन्द्रका योग ( ३०१५ ÷६७ ) = ४५ मुहूर्त और सर्व उ० नक्षत्रोंके साथ ( ४५ मु० x ६ ९ दिन पर्यन्त रहता है । [ ३९३ दक्षिण और उससे भी हैं। इनके भ्रमण में चन्द्र अभिजित् नक्षत्रको ९३७ मुहूर्त + ज० नक्षत्रोंको ३ दिन + मध्यम न० को १५ दिन + और उत्कृष्ट नक्षत्रोंको ९ दिन २७ दिन मुहूतौमें २८ नक्षत्रोंका भोग करता है । सूर्य सम्बन्धी अयन मरिणस्स एक श्रयणे, दिवसा तेसीधि अहिय-एक्क-सयं । दक्खिण श्रयणं श्रादी, उत्तर- श्रयणं च अवसाणं ।। ५२८ ॥ ❤ १८३ । अर्थ – सूर्यके एक प्रयनमें एक सौ तेरासी दिन होते हैं । इन अयनोंमेंसे दक्षिण भवन आदि ( प्रारम्भ ) में और उत्तर प्रयन अन्तमें होता है ।।५२८ ।। विशेषार्थ - सूर्य भ्रमणकी १०४ वीथियाँ हैं। इनमेंसे जब सूर्य प्रथम बीथीमें स्थित होता है तब दक्षिणायनका और जब अन्तिम वीथी में स्थित होता है तब उत्तरायणका प्रारम्भ होता है । दक्षिण एवं उत्तर अपनोंमें प्रावृत्ति-संख्या- एकावि-- उत्तरियं दक्षिण- आउट्टियाए पंच पदा । बो-आदि-दु-उत्तरयं, उत्तर- प्राउट्टियाए पंच पदा ।। ५२ ।। अर्थ - ( सूर्यकी ) दक्षिणावृत्ति एकको आदि लेकर दो-दो की वृद्धि प्रमाण ( १, ३, ५, ७) होती है। इसमें गच्छ पांच हैं। उत्तरावृत्ति भी दो को आदि लेकर दो-दो की वृद्धि प्रमाण ( २, ४, ६, ८, १०) होती है। इसमें भी गच्छ पाँच हैं ।। ५२९ ॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O ३५. ] तिलोधपण्णत्ती [ गाथा 1 ५३०-५३१ विशेषार्थ-पूर्व अयनकी समाप्ति और नवीन अयनके प्रारम्भको प्रावृत्ति कहते हैं । पंचवर्षात्मक एक युगमें थे प्रावृत्तियाँ दस बार होती हैं, इसीलिए इनका गच्छ पांच-पांच कहा गया है । इनमें १, ३, ५, ७ और हवीं प्रावृत्ति दक्षिणायन सम्बन्धी और २, ४, ६, ८ तथा १० वी आवृत्ति उत्तरायण-सम्बन्धी है। एक युगके विषुपोंकी संख्यातिब्भव दु-खेत्तरयं, दस-पद-परित्त-दो हि अवहरिवं । उसुपस्स य होवि पदं, वोच्छ आउट्टि-उसुपदिण-रिक्ख ॥५३०॥ प्रयं-एक वर्ष में दो अयन होते हैं। प्रत्येक अयनके तीन माह व्यतीत होनेपर एक विषुप होता है । इसप्रकार एक युगमें दस विषुप होते हैं । इन्हें दो से माजित करनेपर एक-एक युगमें विभिन्न प्रयन सम्बन्धी पांच-पांच विषुप होते हैं । अब यहाँ आवृत्ति और विष्प सम्बन्धी दिनके नक्षत्र निकालनेकी विधि कहूँगा ।।५३०।। तिथि, पक्ष और पर्व निकालनेकी विधिरूऊर्णकं छग्गुणमेग-जुई उसुपो ति तिथि - माणं । तयार - गुणं पच्वं, सम-विसम-किण्ह-सुषकं च ॥५३१।। अर्थ-एक कम आवृत्तिके पदको छहसे गुरिणत कर उसमें एक जोड़नेपर आवृत्तिकी तिथि और उसी लब्धमें तीन जोड़नेपर विषुपकी तिथिका प्रमाण प्राप्त होता है। तिथि संख्याके विषम होनेपर कृष्णपक्ष और सम होनेपर शुक्ल पक्ष होता है । तथा तिथि संख्याको द्विगुणित करनेपर पर्वका प्रमाण प्राप्त होता है 11५३१।। विशेषार्य-जो प्रावृत्ति विवक्षित हो उसमेंसे एक घटाकर लब्धको छहसे गुणा करके एकका अंक जोड़नेसे प्रावृत्तिकी तिथि और उसी लब्धमें तीनका अंक जोड़नेसे विषुपकी तिथि संख्या प्राप्त होती है । यथा तृतीय आवृत्ति विवक्षित है अतः ( ३ – १) ४६=१२:१२+१- १३ तिथि । तृतीय आत्ति कृष्णपक्षकी त्रयोदशीको होगी। इसीप्रकार ( ३ -१)x६-१२११२+३=१५ तिथि। यहाँ भी तृतीय विषुप कृष्णपक्षकी अमावस्याको होगा। दोनों तिथियोंके अंक विषम हैं अतः कृष्णपक्ष ग्रहण किया गया है । दूसरा विषुप ९ वी तिथिको होता है । इसे दुगुना ( ९४२) करनेपर दूसरे विषुपके १८ पर्व प्राप्त होते हैं। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माषा: ५३२-५३५ ] सत्तमो महाहियारो [ ३६५ श्रावृत्ति और विषुपके नक्षत्र प्राप्त करनेकी विधिसत्त-गुणे ऊणक, वस-हिद-सैसेसु भयणदिवस-गुणं । ससट्ठि - हिदे लद्ध, अभिजादीवे हवे रिवखं ।।५३२॥ प्रर्थ-एक कम विवक्षित आवृत्तिको सातसे गुरिणत करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे दससे भाजित कर शेषको अयन-दिवस (१८४) से गुणित कर सड़सठ (६७) का भाग देना चाहिए। जो लब्ध प्राप्त हो उसे अभिजित् नक्षत्रसे गिननेपर गत नक्षत्र प्राप्त होता है, अतः उससे आगेका नक्षत्र प्रावृत्तिका नक्षत्र होता है ॥५३२॥ विशेषार्थ--यहाँ ८ वी आवृत्ति विवक्षित है। इसका मूल नक्षत्र है। (८ - १)x ७-४६ । ४६ १०-४, शेष रहे ९ । ( ९x१८४ ):६७-२४, यहाँ शेष आधेसे अधिक हैं मतः ( २४ + १)-२५ प्राप्त हुए । अभिजित् नक्षत्रसे गिननेपर २५ वां ज्येष्ठा नक्षत्र गत और उससे प्रागेका मूल न० ८ वी प्रावृत्तिका नक्षत्र प्राप्त होता है। युगकी पूर्णता एवं उसके प्रारम्भको तिथि प्रौर दिन आदिआसाढ-पुण्णमीए, जुग-णिप्पत्ती साचणे किण्हे । अभिजिम्मि चंद-जोगे, पाडिव-दिवसम्मि पारंभो ॥५३३॥ अर्थ-आषाढ़ मासकी पूर्णिमाके दिन (अपराल में ) पञ्चवर्षात्मक युगको समाप्ति होती है और श्रावण कृष्णा प्रतिपद्के दिन अभिजित् नक्षत्रके साथ चन्द्रका योग होनेपर उस युगका प्रारम्भ होता है । ( दक्षिणायन सूर्य की प्रथम प्रावृत्तिका प्रारम्भ भी यही है ) ॥५३३।। दक्षिणायन सूर्य की द्वितीय और तृतीय-आवृत्तिसावरण-किण्हे तेरसि, मियसिर-रिक्खम्मि बिदिय-प्राउट्टी। तदिया विसाह - रिक्खे, वसमीए सुक्कलम्मि तम्मासे ॥५३४॥ अर्थ-श्रावण कृष्णा त्रयोदशीके दिन मृगशीर्षा नक्षत्रका योग होनेपर द्वितीय और इसी मासमें शुक्लपक्षकी दसमीके दिन विशाखा नक्षत्रका योग होनेपर तृतीय आवृत्ति होती है ॥५३४॥ चतुर्थ और पंचम प्रावृत्ति-- सावण-किण्हे ससमि, रेवदि रिक्खे चउट्टियाविती । चोत्तीए पंचमिया, सुक्के रिक्खाए पुधफग्गुणिए ॥५३॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ) तिलोयपण्णत्तो [ गाथा । ५३६-५४० अर्थ-श्रावण कृष्णा सप्तमीको रेवती नक्षत्रका योग होनेपर चतुर्थ और श्रावण शुक्ला चतुर्थीको पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रके योगमें पंचम आवृत्ति होती है ॥५३५॥ पंचसु वरिसे एदे, सावण - मासम्मि उत्तरे फट्ठ। प्रावित्ती वुमणीणं, पंचेघ य होंति णियमेणं ॥५३६।। मर्य- सूर्यके उत्तर दिशाको प्राप्त होनेपर पांच वर्षों के भीतर श्रावण मासमें नियमसे ये पाच ही प्रावृत्तियां होती हैं ।। ५३६।। विशेषाय--एक युग पाँच वर्षका होता है। प्रत्येक श्रावण मासमें सूर्य उत्तर दिशामें ही स्थित रहता है तथा उपयुक्त तिथि-नक्षत्रों के योगमें दक्षिणकी ओर प्रस्थान करता है, इसलिए पांच वर्षों तक प्रत्येक श्रावण मास में दक्षिणायन सम्बन्धी एक-एक आवृत्ति होती है । इसप्रकार पांच वर्षोंमें पांच प्रावृत्तियां होती हैं। सूर्य सम्बन्धी पाँच उत्तरावृत्तियांमाघस्स किण्ह - पक्खे, सत्तमिण सड़-णाम-सहने । हत्याम्म ट्ठिव-दुमणी, वविखणदो एवि उत्तराभिमुहो ॥५३७।। अर्थ-हस्त नक्षत्रपर स्थित सूर्य माघ मासके कृष्ण-पक्षमें सप्तमीके दिन रुद्र नामक मुहूर्तके होते दक्षिणसे उत्तराभिमुख होता है ।।५३७॥ चोत्तीए सदभिसए, सुक्के बिदिया तइज्जयं किण्हे । पक्खे पुस्से रिक्खे, पडिवाए होवि तम्मासे ।।५३८।। प्रर्थ-इसी मासमें गतभिषा नक्षत्रके रहने शुक्ल पक्षको चतुर्थी के दिन द्वितीय और इसी मासके कृष्ण पक्षको प्रतिपदाको पुष्य नक्षत्रके रहते तृतीय आवृत्ति होती है ।।५३८।। किण्हे तयोदसीए, मूले रिक्सम्मि तुरिम-प्रायित्ती । सुक्के पक्खे बसमी, कित्तिय-रिक्खमि पंचमिया ॥५३६।। ययं-कृष्ण पक्षको त्रयोदशीके दिन मूल नक्षत्रके योगमें चतुर्थ और इसो मासके शुक्ल पक्षकी दसमी तिथिको कृतिका नक्षत्रके रहते पंचम प्रावृत्ति होती है ।।५३९।। पंचसु वरिसे एवे, माघे मासम्मि दक्षिणे कठे। आवित्ती दुमणीणं, पंचेव य होंति णियमेणं ॥५४०॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५४१ ] सत्तमो महाहियारो [ ३९७ अर्थ-पांच वर्षों के भीतर माघ मासमें दक्षिण अयनके होनेपर सूर्यको ये पांच आवृत्तियाँ नियमसे होती हैं ।।५४०।। विदयार्थ-- प्रत्येक नाम: पूर्व दसरा दिशामें स्थित रहता है और उपर्युक्त तिथिनक्षत्रोंके योग में उत्तरकी ओर प्रस्थान करता है, इसलिए पांच वर्षों तक प्रत्येक माघ मास में उत्तरायण सम्बन्धी एक आवृत्ति होती है। इसप्रकार पांच वर्षों में पांच आवृत्तियां होती हैं । यथा वत्ति हस्त दक्षिणायन-सूर्य उत्तरायण-सूर्य मास पक्ष तिथि मास | पक्ष | तिथि नक्षत्र १ ली प्रथम श्रावण कृष्ण प्रतिपदा अभिजित् २ री| प्रथम कृ०, सप्तमी ३ री द्वितीय श्रावण कृष्ण त्रयोदशी मृग० ४ थी| द्वितीय चतुर्थी | शत. ५ वीं | तृतीय श्रावण शुक्ल | दसमी विशाखा ६ ठी| तृतीय कृ० प्रतिपदा| पुष्य ७ वी चतुर्थ श्रावण कृष्ण सप्तमी | रेवती | ८ को चतुर्थ कृत्रियोदशी ९ वीं| पंचम श्रावण शुक्ल चतुर्थी पूर्वा फा० १०वी पंचम | माघ | शु० | दसमी | कृतिका उपयुक्त पांच वर्षों में युग समाप्त हो जाता है । छठे वर्षसे पूर्वोक्त व्यवस्था पुनः प्रारम्भ हो जाती है । दक्षिणायनका प्रारम्भ सदा प्रथम वीथीसे और उत्तरायणका प्रारम्भ अन्तिम वीथीसे ही होता है। युगके दस अयनों में विषुपोंके पर्व, तिथि और नक्षत्र--- होदि हु पढमं विसुपं, 'कत्तिय-मासम्मि किण्ह-तदियाए। छस्सु पन्चमदीदेसु, वि रोहिणी - णामम्मि रिवखम्मि ॥५४१॥ अर्थ-यह प्रथम विषुप छह पोंके ( पूर्णमासी और अमावस्या ) बीतनेपर कार्तिक मासके कृष्ण पक्षको तृतीया तिथि में रोहिणी नक्षत्रके रहते होता है ॥५४१।। विशेषार्य-शुक्ल और कृष्ण पक्षके पूर्ण होनेपर जो पूर्णिमा और अमावस्या होती है। उसका नाम पर्व है । सूर्यका एक अयन छह मासका होता है। एक प्रयनके अर्धभागको प्राप्त होनेपर जिस काल में दिन और रात्रिका प्रमाण बराबर होता है उस कालको विषुप कहते हैं। अर्थात् दिन - . .-..-..- - - १. ब. फित्तिय । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५४२ - ५४७ रात्रि के प्रमाणका बराबर होना विषुप है। पांच विषुप दक्षिणायन के अर्धकालमें और पांच उत्तरायण के अर्धकाल में इसप्रकार एक युगमें दस विषुप होते हैं । युग के प्रारम्भमें दक्षिणायन सम्बन्धी प्रथम विषुप आरम्भके ६ प ( ३ माह ) व्यतीत होनेपर कार्तिक मास के कृष्ण पक्षको तृतीया तिथिको चन्द्र द्वारा, रोहिणी नक्षत्रके भुक्तिकालमें होता है । वइसाह' - किण्ह पक्ले, णव सीए धणिष्ट्र-गाम-वस्वते । श्रादीवो श्रद्धारस, पथश्रमदीने वुइज्जयं उसुपं ॥ ५४२ || अर्थ- दूसरा विषुप श्रादिसे अठारह पर्व बीतनेपर वैशाख मासके कृष्ण पक्षकी नवमीको धनिष्ठा नक्षत्र के रहते होता है ।। ५४२ ।। कत्ति मासे पुणिमि-दिवसे इगितीस पय्वमादीदो | तीदाए सादीए, रिक्खे होदि हु तइज्जयं विषं ॥। ५४३ || अर्थ- आदिसे इकतीस पर्व बीत जानेपर कार्तिक मासकी पूर्णिमा के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते तीसरा विधुप होता है ।। ५४३ ॥ इसाह- सुक्क पक्खे, छट्टीए पुणव्वसुम्मि णक्लत्ते । तेदाल - गदे पथ्यमदीवेसु चउत्थयं विसुपं ॥ ५४४ ॥ - आदिसे तैतालीस पर्वोके व्यतीत हो जानेपर वंशाख मासमें शुक्ल पक्षको षष्ठी तिथिको पुनर्वसु नक्षत्र के रहते चौथा विषुप होता है ||५४४ || कति मासे सुकिल-बार सिए पंच-वण्ण परिसंखे । पव्यमदीदे उसुयं उत्तरभद्दपदे पंचमं होदि ।। ५४५ ।। अर्थ- आदिसे पचपन पर्व व्यतीत होनेपर कार्तिक मास में शुक्ल पक्षको द्वादशीको उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र के रहते पांच विषुप होता है ।। ५४५|| इसाह - कण्हतइए, अणुराहे अट्ठसट्टि पश्यमदीये उसुपं, घट्टमयं होदि अर्थ- आदिसे अड़सठ पर्व व्यतीत हो जानेपर वैशाख मास में कृष्ण पक्षकी तृतीयाके दिन अनुराधा नक्षत्र के रहते छठा विषुप होता है ।। ५४६ ॥ परिसंखे । णियमेणं । । ५४६ || कत्तिय मासे किण्हे. नवमी-दिवसे महाए णक्यते । सीदी पथ्यमदीदे, होवि पुढं सत्तमं उसुयं ।। ५४७ ॥ - १. द. व. क. ज. बहसम्म । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६६ गाथा : ५४८ ५५२ } सत्तमो महाहियारो अर्थ आदिसे अस्सी पर्व व्यतीत हो जानेपर कातिक मास में कृष्ण पक्षको नवमीके दिन मघा नक्षत्रके रहते सातवा विषुप होता है ।।५४७।। वइसाय-पुषिणमीए, अस्सिणि-रिक्खें जुगस्स पढमावो। तेरणउदी पन्वेसु वि, होदि पुढं अट्ठमं उसुयं ।।५४८।। अर्थ-युगकी प्रादिसे तेरानब पर्व व्यतीत हो जानेपर वैशाखमासको पूणिमाके दिन अश्विनी नक्षत्रके रहते पाठवाँ विषुप होता है ।।५४८॥ कत्तिय - मासे सुस्किल, छट्ठीए तह य उत्तरासाढे । पंचुत्तर - एक्क - सयं, पख्यमदीदेसु णवमयं उसुयं ।।५४६।। अर्थ-( युगकी आदिसे ) एक सौ पाच पोंके व्यतीत हो जानेपर कार्तिक मासमें शुक्ल पक्षाकी षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्रके रहते नौवां विषुप होता है 11५४९।। वइसाय-सुक्क-बारसि, उत्तरपुष्यम्हि फग्गुणी-रिक्खे। सत्तारस-एक्क-सयं, पम्बमदीदेसु समयं उसुयं ।।५५०॥ प्रर्थ-( युगकी प्रादिसे ) एक सौ सत्तरह ( ११७ ) पर्व व्यतीत हो जानेपर वैशाखमासमें शुक्ल पक्षाकी द्वादशीके दिन 'उत्तरा' पद जिसके पूर्व में है ऐसे फाल्गुनी ( उत्तराफाल्गुनी ) नक्षत्रके रहते दसवां विषुप होता है ।।५५०।।। उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालोंके दोनों अयनों का एवं विषुपोंका प्रमाण पण - वरिसे दुमरगीणं, दक्षिणत्तरायणं उसयं । चय प्राणेज्जो उत्सप्पिणि-पढम-प्रावि - चरिमंतं ।।५५१।। अर्थ-इस प्रकार उत्सपिणोके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त पांच वर्ष परिमित युगों में सूर्योके दक्षिण और उत्तर अयन तथा विषुप जानकर लाने चाहिए ॥५५१।। पल्लस्स-संख-भाग, दक्षिण-अयणस्स होधि परिमाणं। तेत्तियमेत्तं उत्तर - अयणं उसुपं च तदुगुणं ॥५५२॥ दक्खि प ३ । उत्त १ । उसुप प ३२। अर्थ-संख्यात पल्यके ( एक-एक वर्ष रूप ) जितने भाग होते हैं उतना प्रमाण उत्सपिणीगत दक्षिणायनका है और उतना ही प्रमाण उत्तरायणका है, तथा विषुपोंका प्रमाण (दो में से ) किसी एक अयनके समस्त प्रमाणसे दुगुना होता है ॥५५२।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] तिलीयपण्णत्तो [ गाथा : ५५३ विशेषा-एक उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणीकाल १० कोड़ाकोड़ी सागरका होता है और एक सागर १० कोड़ाकोड़ी पल्यका होता है। जबकि एक सागरमें १० कोड़ाकोड़ो पल्य होते हैं तब १० कोड़ाकोड़ी सागरमें कितने पल्य होंगे? ऐसा राशिक करनेपर एक उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणी कालके (१०)२० अर्थात् एकके अकके आगे २८ शून्य रखनेपर जो २९ अंक प्रमाण संख्या प्राप्त होती है वही एक कोडाकोड़ी सागरके पल्योंका प्रमाण है। कालका प्रमाण अद्धापल्य द्वारा मापा जाता है । जबकि एक अद्धा पल्यमें असंख्यात वर्ष होते हैं तब (१०)२८ अद्धापल्योंमें कितने वर्ष होंगे? इसप्रकार राशिक करनेपर वर्षोंका जो प्रमाण प्राप्त होता है उससे दुगुना प्रमाण अयनोंका होता है, इसीलिए संदृष्टि में दक्षिणायन अथवा उत्तरायण अयनोंका प्रमाण संख्यात पल्य दिया है । दक्षिणायन अथवा उत्तरायणके अयन प्रमाणसे दुगुना प्रमाण विषुपोंका होता है । अर्थात् एक अयनमें एक विषुप होता है इसलिए अयनोंके प्रमाण बराबर ही विषुपोंका प्रमाण होता है। गाथामें जो दगुण शब्द पाया है वह दक्षिणायन अथवा उत्तरायण का जितना प्रमाण है उससे दुगुने विषुपोंके लिए आया है। संदृष्टि में संख्यात पल्यका द्विगुणित शब्द भी इसी अर्थका घोतक है। अवसप्पिणीए एवं, बत्तव्वा ताम्रो रहड-घडिएणं । होति प्रणंताणता पुव्वं वा दुमणि - परिवत्तं ॥५५३॥ अर्थ-इसीप्रकार ( उपिणीके सदृश ) अवसर्पिणीकालमें भी रहंट की घटिकाओं सदृश दक्षिण-उत्तर प्रयन और विषुप कहने चाहिए। सूर्यके परिवर्तन पूर्ववत् अनन्तानन्त होते हैं ॥५५३॥ [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५५४-५५५ ] वर्ष संख्या प्रथम वर्ष द्वितीय वर्ष तृतीय वर्ष चतुर्थ वर्ष पञ्चम वर्ष विषप संख्या सत्तमो महाहियारो विषुप सम्बन्धी विशेष विवरण इसप्रकार है गत पर्व - संख्या 17 १ ला ६ पर्यं व्यतीत होनेपर कार्तिक कृष्ण वैशाख कृष्ण | २ रा १८ कार्तिक शुक्ल ३ रा ३१ वैशाख ४ था ४३ शुक्ल ५ वी ५५ कार्तिक शुक्ल वैशाब्द! कृष्ण ६ ठा ६८ ७ व ८० कार्तिक कृष्ण ८ व ९३ ९ १०५ १०व ११७ " " " = 11 ri " " 71 נ་ 37 " " 17 " " मास " पक्ष वैशाख शुक्ल कार्तिक शुक्ल वैशाख शुक्ल तिथि तृतीया नवमी पूणिमा षष्ठी द्वादशी दूतील नवमी · पूर्णिमा षष्ठी द्वादशी नक्षत्र रोहिणी के योग में धनिष्ठा स्वाति पुनर्वसु उ० भाद्र ०" अनुराधा मघा अश्विनी उ० बाढ़ा लक्षणसमुद्र से पुष्करा पर्यन्तके चन्द्र- बिम्बों का विवेचन चत्तारो लवण-जले, धावइ-दीयम्मि बारस मियंका । बादाल काल - सलिले, बाहत्तरि पोक्खरम्मि ।। ५५४ || पिय-जिय-ससीण श्रद्ध, दीव-समुद्दाण एक्क भागस्मि । अवरे भागं श्रद्ध, चरंति पंति कमेरगं च ॥ ५५५ ॥ 21 "D " 27 ور [ ४० १ " " उ० [फा०] " 12 " 37 17 17 " " ४ । १२ । ४२ । ७२ । - लवणसमुद्र में चार, धातकीखण्ड में बारह, कालोदसमुद्र में बयालीस और पुष्कराद्ध द्वीप में बहत्तर चन्द्र हैं ।। ५५४।। 12 अर्थ- द्वीप एवं समुद्रों के अपने-अपने चन्द्रों में से आधे एक भाग में और ( शेष ) आधे दूसरे भाग में पंक्तिक्रम सञ्चार करते हैं ।। ५५५ ।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ] तिलोयपणत्ती [ गाथा : ५५६-५६० यो) एक्केवक-चारखेत, बो-दो चंदाण होवि तन्वासो। पंच-सया वस सहिदा, दिणयर-बिबादि - रित्ता य ॥५५६॥ अर्थ-दो-दो चन्द्रोंका एक-एक पारक्षेत्र है और उसका विस्तार सूर्यबिम्ब ( से अधिक पांच सौ दस ( ५१०१६ ) योजन प्रमाण है 11५५६॥ पुह-पुह चारक्खेत्ते, पण्णरस हवंति चंद-बोहोरो । तथ्यासो छप्पण्णा, जोयणया एक्क-सद्धि-हिवा ॥५५७।। अर्थ-पृथक्-पृथक् चारक्षेत्रमें जो पन्द्रह-पन्द्रह चन्द्र-वीथियां होती हैं। उनका विस्तार इकसठसे भाजित छप्पन (8) योजन प्रमाण है ॥५५७॥ चन्द्र के अभ्यन्तर पथमें स्थित होनेपर प्रथम पथ व द्वीप-समुद्रजगतीके बीच अन्तराल णिय-णिय-चंद-पमाणं, भजिदूर्ण एक्क-सटि-रूवेहिं । अडवीसेहिं गुणिदं, सोहिय णिय-उयहि-दोष-वासम्मि ॥५५८॥ ससि-संखाए विही, हल्बनभवन दीहि दिन। दोवाणं उबहीणं, आदिम-पह-जगदि-विच्चालं ॥५५६॥ अयं अपने-अपने चन्द्रों के प्रमाणमें इकसठ (६१) रूपोंका भाग देकर अढाईस (२८) से गुणा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे अपने द्वीप या समुद्र के विस्तारमेंसे घटाकर चन्द्र संख्यासे विभक्त करे । जो लब्ध प्राप्त हो उतना सर्व-अभ्यन्तर बोथीमें स्थित चन्द्रोंके आदिम पथ और द्वीप अथवा समुद्रको जगतोके बीच अन्तराल होता है 1१५५८-५५९॥ लवणसमुद्र में अभ्यन्तर वीथी और जगतीके अन्तरालका प्रमाण उणवण्ण-सहस्सा लव-सय-णवणउदि-जोयणा य तेचीसा । अंसा लवणसमुद्दे, अभंतर - वीहि - जगदि - विच्चालं ॥५६॥ अर्थ-लवणसमुद्र में अभ्यन्तर वीथी और जगतीके बीच उनचास हजार नौ सौ निन्यानबै योजन और एक योजनके इकसठ भागोंमसे तैंतीस भाग प्रमाण अन्तराल है ॥५६०।। विशेषार्थ-लवणसमुद्रका विस्तार दो लाख योजन है और इसमें चन्द्र ४ हैं। उपयुक्त विधिके अनुसार प्रथम वीथी स्थित चन्द्र और लवणसमुद्रको अगतीके मध्यका अन्तर प्रमाण इसप्रकार है Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहियारो [ ४०३ गाथा । ५६१-५६३ ] (४:६१ ) ४२८-१३ = IOER = ४EEEEEP योजन अन्तराल । धातकीखण्ड द्वीपमें जगतीसे प्रथम वीथीका अन्तरालदुग-तिग-तिय-तिय-तिग्णि य, विच्चालं धावइम्मि वीवम्मि। णभ - छक्क - एक्क - अंसा, तेसोदि - सदेहि अवहरिया ।।५६१॥ ३३३३२ 1981 अर्थ-धाताखण्ड द्वीन यह अन्तराल दी, तीन, तीन, तीन और तीन अर्थात् तैतीस हजार तीन सौ बत्तीस योजन भौर एक सौ तेरासीसे भाजित एक सौ साठ भाग प्रमाण है ॥५६१॥ विशेषार्थ-( १२:६१)-२८-" (४०००० - १२ "-३३३३२१६४ योजन अन्तराल । कालोदश्चिमें जगतीसे प्रथम वौथीगत चन्द्रका अन्तरालसग-चउ-णह-णव-एक्का, अंक-कमे पण-ख-बोणि अंसा य । इमि-अटु-दु-एकक-हिवा, कालोदय - जगदि - विच्चालं ॥५६२॥ १६.४७ ।।२१। अर्थ-कालोदधिसमुद्रको जगती और ( प्रथम ) वीथीके मध्यका अन्तराल सात, चार, शून्य, नौ और एक इन अंकोंके क्रमसे उन्नीस हजार सैंतालीस योजन और बारह सौ इक्यासीसे भाजित दो सौ पांच भाग अधिक है ।।५६२।। विशेषार्थ -( ४२२६१)x२८-' ( pep.- 4"):४२ -- MEER= १९०४७११ योजन अन्तराल । पुष्करार्धद्वीपमें जगतीसे प्रथम वीथीगत चन्द्रका अन्तरालसुण्णं चउ-ठाणेक्का, अंक-कमे अट्ट-पंच-तिष्णि कला । णव - चउ - पंच - विहत्ता, विच्चालं पुषखरद्धम्मि ॥५६३॥ ११११० । ३ । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ 1 तिलोयपण्णत्ती गाथा : ५६४-५६७ मर्थ --पुष्करार्धद्वीपमें यह अन्तराल शून्य और चार स्थानोंमें एक, इन अंकोंके क्रमसे ग्यारह हजार एक सौ दस योजन और पाँचसो उनचाससे भाजित तीन सौ अट्ठावन कला प्रमाण है ।।५६३॥ विशेषार्थ-(७२’ ६१ )x २८-३११ ( 40072° )-(824)७२= x x = " =११११० योजन अन्तराल। एवाणि अंतराणि, पढम - पह - संठिवाण चंवारणं । विदियादीण पहाणं, अह्यिा अभंतरे बहिं ऊणा ॥५६४।। प्रर्य--प्रथम पथमें स्थित चन्द्रोंके ये उपयुक्त अन्तर अभ्यन्तरमें द्वितीयादिक पथोंसे अधिक और बाह्य में उनसे रहित हैं ।।५६४।। दो चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर प्राप्त करनेकी विधिलवरणावि-घउपकाणं, वास-पमाणम्मि रिणय-ससि-दलारणं । बिबाणि फेलित्ता, तसो णिय - चंद - संख - अद्धणं ॥५६५।। भजिदूर्ण जं लख', तं पत्तक्क ससीण विच्चालं । एवं सम्व . पहाणं, अंतरमेवम्मि णिट्ठि ।।५६६॥ अर्थ-लवरणसमुद्रादिक चारोंके विस्तार प्रमाणमेंसे अपने-अपने चन्द्रोंके प्रधं बिम्बोंको घटाकर शेषमें निज चन्द्र-संख्याके अर्धभागका भाग देनपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना प्रत्येक चन्द्रका अन्तराल प्रमाण होता है। इसप्रकार यहापर सब पथोंका अन्तराल निर्दिष्ट किया गया है ॥५६५-५६६।। लवरण समुद्रगत चन्द्रोंका अन्तराल प्रमाणणयणदि-सहस्सा णय-सय-णवणउदि जोयणा य पंच कला। लवणसमुद्दे बोण्हंतुसारकिरणाण विच्चालं ॥५६७।। अर्थ- लवरणसमुद्र में दो चन्द्रोंके बीच निन्यानवै हजार नौ सौ निन्यानबै योजन और पांच कला अधिक अन्तराल है ॥५६७।। विशेषार्थ-ल. समुद्रका विस्तार दो लाख योजन, चन्द्र संख्या चार और इन चारोंका बिम्ब विस्तार (17x४)=२१ योजन है। समुद्र विस्तारमेंसे अर्ध चन्द्रबिम्बोंका विस्तार Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५६८-५६९ ] सत्तमो महाहियारो [ ४०५ (11:२= यो०) घटाकर शेषमें अर्ध चन्द्र संख्या ( ४:२-२) का भाग देनेपर दो चन्द्रों का पारस्परिक अन्तर प्रमाण प्राप्त होता है । यथा ( Peppa° -2): २-- HEY =FREEE योजन दोनों चन्द्रोंका अन्तराल । धातकीखण्डस्थ चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर प्रमाणपंच चउ-ठाण-छक्का, अंक-कमे सग-ति-एक्क अंसा य । तिय • अट्ठक्क - विहता, अंतरमिंद्रूण घादईसंडे ।।५६८।। ६६६६५ । २३ । अर्थ-धातकीखण्डद्वीपमें चन्द्रोंके बीच पांच और चार स्थानोंमें छह इन अंकोंके क्रमसे छयासठ हजार छह सौ पैंसठ योजन और एक सौ तेरासीसे विभक्त एक सौ सैंतीस कला प्रमाण अन्तर है ।।५६८॥ विशेषार्थ-धातकीखण्डका विस्तार ४ लाख यो०, चन्द्र संख्या १२ और इनका बिम्ब विस्तार (13)= योजन है। उपयुक्त नियमानुसार दो चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर प्रमाण इसप्रकार है (reap--१३): = १२५५१२ =६६६६५१४ योजन अन्तराल है। कालोदधि-स्थित चन्द्रोंका अन्तर-प्रमाणचउरणय-गयरगट-तिया, अंक कमे सुण्ण-एक्क-बारि कला। इगि - प्रऊ - दुग - इगि - भजिवा, अंतरमिदूण कालोदे ॥५६॥ ३८०१४ । १०। प्रर्थ-कालोदधि समुद्र में चन्द्रोंके बीच चार, नो, शून्य, पाठ और तीन इन अंकोंके क्रमसे अड़तीस हजार चौरानब योजन और बारह सौ इक्यासीसे भाजित चार सौ दस कला अधिक अन्तर है ॥५६६।। विशेषार्थ-कालोदधिका वि० ८ लाख यो०, चन्द्र संख्या ४२ और इनका बिम्ब विस्तार (2x.) ११२ योजन है। उपर्युक्त नियमानुसार यहाँके दो चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर प्रमाण इसप्रकार है Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] (408)+33-**** - ३८०९४२२६१ योजन अन्तराल है । विषण्णती = २४ पुष्करार्ध - स्थित चन्द्रोंका अन्तर- प्रमाण एक्क- चउट्ठाण - दुगा, अंक-कमे सत्त छक्क एकक कला । -- पंचविसा, अंतरमिद्रण पोखरलुम्मि ।।५७० ॥ २२२२१ । ६३ । अर्थ- पुष्कराद्ध द्वीपमें चन्द्रोंके मध्य एक और चार स्थानोंमें दो इन अंकोंके क्रमसे बाईस हजार दो सौ इक्कीस योजन और पांच सौ उनंचाससे विभक्त एक सौ सड़सठ कला अधिक अन्तर है ।। ५७० ।। विशेषार्थं – पुष्करार्धद्वीपका विस्तार ८ लाख यो० है । चन्द्र संख्या ७२ और इनका बिम्ब विस्तार ( ५x५३ )=योजन है। उपर्युक्त नियमानुसार यहाँके दो चन्द्रोंका पारस्परिक अन्तर प्रमारण इस प्रकार है ( ८००००० - २२२२१ fix)++ - १२१६६४० ब योजन अन्तराल है । [गा : ३७०-३७२ चन्द्रकिरणों की गलि— जिय-जिय-पढम-पहाणं, जगदीणं अंतर प्पमाण - समं । यि णिय-लेस्सगदीओ, सभ्य मियंकाण पत्लेककं ।। ५७१ ।। - · अर्थ - अपने - अपने प्रथम पथ और जगतियोंके अन्तर प्रमाणके बराबर सब चन्द्रोंमेंसे प्रत्येक को अपनी-अपनी किरणों की गतियाँ होती हैं ।। ५७१ || समुद्रादिमें चन्द्र-वीथियोंका प्रमाण तीसं णउदी तिसया, पण्णरस-जुदा य त्राल पंच-सया । लक्षण - प्यहुवि चउक्के, चंगाणं होंति वीहीओ ।। ५७२ ।। ३० | ९० | ३१५ । ५४० | अर्थ - लवण समुद्रादि चारमें चन्द्रोंकी क्रमशः तीस, नब्बे तीन सौ पन्द्रह और पांच सौ चालीस वीथियां हैं ॥ ५७२ ।। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५७३ - ५७५ ] सतमो महाहियारो [ ४०७ विशेषार्थ - ५१०१६ योजन प्रमाणवाली एक संचार भूमिमें १५ वीथियाँ होती हैं, जिसे दो चन्द्र पूरा करते हैं । लवणोदधि आदि में क्रमश: ४, १२, ४२ र ७२ चन्द्र हैं । जब दो चन्द्रोंके प्रति १५ वीथियाँ हैं, तब ४ १२, ४२ और ७२ चन्द्रोंके प्रति कितनी बोथियों होंगी ? इसप्रकार राशिक करनेपर वीथियोंका क्रमशः पृथक्-पृथक् प्रमाण लवणोदधि में ( 14 ) = ३०, धा० खण्ड में ( १५x१२ ) =९०, कालोदधिमें ( ४ ) = ३१५ और पुष्करार्घद्वीप में (१५३०२ ) = ५४० प्राप्त होता है । लवणोदधि प्रादिमें चन्द्रकी मुहूर्त-परिमित गतिका प्रमाण प्राप्त करने की विधि - णिय-पह परिहि पमाणे, पुह-पुह दु-सएकक वीस- संगुणिवे । तेरस सहस्त- सग-सय-पणुवीस हिदे मुहुत्त' गविमारणं ॥ ५७३ ॥ २२१ १३७२५ 1 अर्थ – अपने-अपने पथों की परिधिके प्रमाणको पृथक्-पृथक् दो सौ इक्कीस ( २२१ ) से मुरगाकर लब्धमें तेरह हजार सात सौ पच्चीसका भाग देनेपर मुहूर्तकाल परिमित गतिका प्रमाण आता है ।।५७३ ।। - लवणसमुद्रादिमें चन्द्रों की शेष प्ररूपणा सेसाश्रो वण्णणाओ, जंबूदीयम्मि जाओ चंदाणं । ताओ लवणे धावडे कालोद पुक्खरद्ध सु ॥५७४ ॥ १. व. मुहर्गादि, म. मुहुर्त । · एवं चंदाणं परूवणा समत्ता । धर्म- लवणोदधि, घातकीखण्ड, कालोदधि और पुष्करार्धं द्वीपमें स्थित चन्द्रों का शेष वर्णन जम्बूद्वीप के चन्द्रोंके वर्णन सदृश जानना चाहिए ।। ५७४ ।। इसप्रकार चन्द्रोंकी प्ररूपणा समाप्त हुईं। लवणसमुद्रादिमें सूर्योका प्रमाण चत्तारि होंति लवणे, बारस सूरा य धादई संडे । बादाला कालोवे, बावर्त्तारि पुषखरद्धम्मि ।।५७५ ॥ ४ । १२ । ४२ । ७२ । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५७६-५८० प्रर्य-लवणसमुद्र में चार, धातकीखण्डमें बारह, कालोदधिमें बयालीस और पुष्करार्धद्वीपमें बहत्तर सूर्य स्थित हैं ।।५७५।। उपर्युक्त सूर्योका अवस्थान, प्रत्येकका चारक्षेत्र और चारक्षेत्रका विस्तारणिय-णिय-रवीण प्रद्ध', दीव-समुद्दाण एक्क-भागम्मि। . अवरे मा अध, चरेदि पात - कमेणेव ।।५७६॥ अर्थ-अपने-अपने सूर्योका अर्ध भाग द्वीप-समुद्रोंके एक भागमें और अर्धभाग दूसरे भागमें पंक्ति क्रमसे संचार करता है ।।५७६॥ एक्केवक-चारखेसं, दो-दो तुमणीण होवि तव्यासो। पंच-सया दस - सहिदा, विणवह - विबादिरिता य ॥५७७॥ ५१०।।।। अर्थ-दो-दो सूर्योका एक-एक चारक्षेत्र होता है । इस चारक्षेत्रका विस्तार सूर्यबिम्बके विस्तारसे अधिक पांच सौ दस ( ५१० ) योजन-प्रमाण है ।।५७७।। वीथियोंका प्रमाण एवं विस्तारएक्केवक-चारखेसे, चउसोवि-जुद-सदेवक-बोहोरो । सध्यासो प्रउवालं, जोयणया एक्क - सट्टि - हिवा ॥५७८।। १८४ । । प्रयं-एक-एक चारक्षेत्रमें एक सौ चौरासी ( १८४ ) वीथियां होती हैं। इनका विस्तार इकसठसे भाजित अड़तालीस (H) योजन है ।।५७८।। लवणसमुद्रादिमें प्रत्येक सूर्यके बीच तथा प्रथम पथ एवं जगतीके मध्यका अन्तर प्राप्त करनेकी विधिलवणादि-च उपकारणं, वास-पमाणम्मि रिणय-रवि-दलाएं। बिवाणि फेलिसा, तसो णियभजिदूणं जल, तं पत्तेषक रवीण विच्चालं । तस्स य अद्ध - पमाणं, जगवी-मासण्ण-मग्गाणं ॥५८०॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५८१ - ५८४ ] सत्तमो महाहियारो [ ४०९ धर्म -- लवणोदधि आदि चारोंके विस्तार प्रमाणमेंसे अपने आधे सूर्य-बिम्बों को घटाकर शेषमें अर्ध-सूर्य-संख्याका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना प्रत्येक सूर्यका और इससे आधा जगती एवं आसन्न ( प्रथम ) मार्ग के बीचका अन्तराल प्रमाण होता है ।। ५७६-५८० ११ लवणसमुद्रमें प्रत्येक सूयंका और जगतीसे प्रथम पथका अन्तराल णयणउनि सहस्साणि, पय-सय-जवणउदि जोयणाणि पि । तेरसमेत कलाओं, भजिदण्या एक्सट्ठीए || ५८१ ॥ CCTET || एत्तियमेत्त पमाणं, पत्तंक्कं दिणयराण विच्चालं । लवणोवे तस्सद्ध, जगदीणं णियय पदम मग्गाणं ॥३५८२ ॥ - - अर्थ - निन्यानबे हजार दो सौ निन्यानबे योजन और इकसठसे भाजित तेरह कला, इतना लवण समुद्र में प्रत्येक सूर्य के प्रन्तरालका प्रमाण है और इससे अाधा जगती एवं निज प्रथम मार्गके बीच अन्तर है ।। ५८१-५८२॥ विशेषार्थ - लवणसमुद्रका विस्तार दो लाख योजन, सूर्य संख्या ४ और इनका बिम्ब विस्तार (ix)=यो० है । उपर्युक्त नियमानुसार दो सूर्योका पारस्परिक अन्तर इसप्रकार है – २००००० – { ¥fxx)+1= १२९९९९९१ योजन है। तथा प्रथम पथसे जगतीका अन्तर ६०६६५२०४६७६ TxT M= ४६१६६३ योजन प्रमाण है । धातकीपस्थ सूर्य प्रादिके अन्तर प्रमाण छाडि - सहस्साणि, छस्सय पण्णट्टि जोयणाणि कला । इगिसट्टी जुत्त सयं, तेसीदि जुद सयं हारो ॥५६३ ॥ ६६६६५ । १३ । एवं अंतरमाणं, एक्केवक रवीरण लेस्सागढी तवद्ध, तस्सरिसा उबहि १. व. ब. क. ज. मग्गा य । · - - · - धावईसंडे | आबाहा ।। ५६४ ।। अर्थ- छ्यासठ हजार छह सौ पैंसठ योजन और एक सौ तेरासीले भाजित एक सौ इकसठ कला, इतना धातकीखण्ड में प्रत्येक सूर्यका अन्तराल प्रमाण है। इससे आधी किरणोंको गति और उसके सदृश ही समुद्रका अन्तराल भी है ।।५८४ | Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५८५ - ५८८ विशेषार्थ- -धा० खण्ड का विस्तार ४ लाख योजन, सूर्य १२ और इनका बिम्ब विस्तार ) = योजन है। यहाँ दो सूर्योका पारस्परिक अन्तर ४०००० – { kix)= १६१३३८५१ - - ६६६६५२६] योजन है । ४१० ] ( fix + RECUE किरणोंकी गति ( ३४६५६ ) = ३३३३२१३ योजन और प्रथम पथसे द्वीपकी जगती का अन्तर भी ३३३३२ योजन ही है । कालोदधिमें स्थित सूर्य आदिके अन्तर प्रमाण अट्टलीस- सहस्सा, चउरणउदी ओयणाणि पंच सया अड्डाहसरि हारो, बारसय सयाणि इगिसीवी ॥ ५८५ ॥ - ३८०९४ । ३६ एवं अंतरमाणं, एक्केवक - रवीण काल-सलिलम्मि । लेस्सागो तवद्ध, तस्सरिसं उबहि आबाहा ।।५८६॥ अर्थ - अड़तीस हजार चौरानब योजन और बारह सौ इक्यासीसे भाजित पाँच सौ अठत्तर भाग, यह कालोदसमुद्र में एक-एक सूर्य का अन्तराल प्रमाण है । इससे श्राधी किरणोंकी गति और उसके ही बराबर समुद्रका प्रत्तर भी है ।।५८५-५८६ ॥ विशेषार्थ -- कालोदधिका विस्तार ८ लाख योजन, सूर्य ४२ और इनका बिम्ब विस्तार ( *** )=योजन है । ( ८००००० - १ ) = ४८५६६६२ = ३८०९४०३ योजन दो सूर्यका पारस्परिक अन्तर है । format गति = ४८७३८६ 9 अन्तर भी १९०४७योजन है । - १९०४७योजन और प्रथम पथसे समुद्रकी जगतीका पुष्करार्धगत सूर्यादिके अन्तर प्रमाण बावीस - सहस्सारण, बे-सय- इगिवीस जोयणा मंसा । घोष्टि-सया उणदाल, हारो उणवण्ण-पंच-सया ॥८७॥ २२२२१ । १ । एवं अंतरमाणं, एक्केषक रवीण पोक्खरम्मि । लेस्सागदी तaa', तस्सरिसा जयहि श्रावाहा ।।५८६ ।। - Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ५८६ - ५६१ ] सत्तमो महाहियारो [ ४११ अर्थ - बाईस हजार दो सौ इक्कीस मोजन और पाँच सौ उनंचाससे भाजित दो सो उनतालीस भाग, यह पुष्करार्धद्वीप में एक-एक सूर्यका अन्तराल - प्रमाण है । इससे माधी किरणोंकी गति और उसके बराबर ही समुद्रका अन्तर भी है ।।५८७-५८८।। विशेषार्थ - पुष्करार्धद्वीपका विस्तार ८ लाख यो०, सूर्य संख्या ७२ और इनका बिम्ब विस्तार (x) योजन है। पूर्व नियमानुसार यहाँ के दो सूर्यका पारस्परिक अन्तर प्रमारण इसप्रकार है (100100 · 1934)+3=121* १२१६५४८ - २२२२१ योजन अन्तराल है । किरणोंकी गति EN योजन प्रमाण है और प्रथम पथसे द्वीपकी जगतीका अन्तर भी इतना ही है । लामो महाओं, सुपा सठिद रवीणं । धारवलेलभहिया, अभंतरए बह ऊणा ।। ५८६ ॥ अर्थ- दो पार्श्वभागों में स्थित सूर्यके ये अन्तर अभ्यन्तर में चारक्षेत्र से अधिक और बाह्य में चारक्षेत्र से रहित हैं ।।५८९ ।। जम्बूद्वीपमें अन्तिम मार्ग से अभ्यन्तर में किरणों की गतिका प्रमाण - - Vx= ११११० जंबूयंके दोन्हं, लेस्सा वच्चति चरिम मग्गादो । अब्भंतरए णभ-तिय-तिय-सुण्णा पंच बोयराया ||५६०|| ५०३३० । - जम्बूद्वीपमें अन्तिम मागंसे अभ्यन्तर में दोनों चन्द्र-सूर्यो की किरणें शून्य तीन, तीन, शून्य और पाँच इस अंक क्रमसे पचास हजार तीन सौ तीस ( ५०३३० ) योजन प्रमाण जाती हैं ।। ५९० ।। विशेषार्थ - जम्बूद्वीपका मेरु पर्वत पर्यन्त व्यास ५० हजार योजन है। गाया ५८६ के नियमानुसार इसमें लवणसमुद्र सम्बन्धी ३३० योजन चारक्षेत्रका प्रमाण जोड़ देनेपर जम्बूद्वीपमें अन्तिम मार्ग से अभ्यन्तर में किरणोंका प्रसार ( ५००००+ ३३० ) = ५०३३० योजन पर्यन्त होता है । लवणसमुद्रमें जम्बूद्वीपस्थ चन्द्रादिकी किरणों की गतिका प्रमाण चरिम- पहावो बाहि, लवणे वो रणभ-ख-ति-तिय-जोयगया । वच्च लेस्सा अंसा, सयं च हारा तिसीदि-अहिय-सया || ५६१।। ३३००२ । १९५ । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५६२-५६३ अब लवणसमुद्र में अन्तिम पथसे बाह्य में दो, शून्य, शून्य, तीन और तीन, इस अंक क्रमसे तैतीस हजार दो योजन और एक सौ तेरासी भागोंमेंसे सौ भाग प्रमाण किरणे जाती हैं ।।५९१।। विशेषार्थ-लवणसमुद्रके छठे भागका प्रमाण ( २५००० ) ३३३३३३ यो० है । गाथा ५८९ के नियमानुसार इसमेंसे लवण समुद्र सम्बन्धी चारक्षेत्रका प्रमाण घटा देनेपर ( ३३३३३४३३०)=३३००२१२७ योजना शेष रहते हैं। अर्थात् लवलसमुद्र में अन्तिम पथसे बाह्यमें किरणोंकी गति ३३००२१23 यो० पर्यन्त होती है। जम्बूद्वीपस्थ अभ्यन्तर और बाह्य पथ स्थित सूर्यको किरणों की गतिका प्रमाणपढम-पह-संठियाणं, लेस्स-गदी णभ-दु-अट्ठ-णव-चउरो। अंक - कमे ओयणया, अभंतरए समुट्ठि ॥५६२।। ४९८२० । मर्थ-प्रथम पथ स्थित सूर्यको किरणोंकी गति अभ्यन्तर पथमें शून्य, दो, आठ, नौ और चाय, इन अंकोंके क्रमसे उनचास हजार पाठ सो बीस योजन पर्यन्त फैलती है। ऐसा जिनेन्द्र-देवने कहा है ।।५९२।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके प्रधं व्यासमेंसे द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्रका प्रमाण १८० योजन घटा देनेपर ( ५०००० -- १८०)=४९८२० योजन शेष रहा । यही मेरु पर्वतके मध्यभागसे लगाकर अभ्यन्तर वीयी पर्यन्त सूर्य की किरणोंको गतिका प्रमाण है । बाहिर-भागे लेस्सा, वच्चंति ति-एक्क-परण-ति-तिय-कमसो। जोयणया तिय - भागं, सेस - पहे हाणि - वड्ढीयो ॥५६३॥ ३३५१३ ।।। भर्म-बाह्यभागमें सूर्यकी किरणें तीन, एक, पांच, तीन और तीन इस अंक क्रमसे तैतीस हजार पांच सौ तेरह योजन और एक योजनके तीन भागोंमेंसे एक भाग पर्यन्त फैलती हैं। शेष पथों में किरणोंकी क्रमशः हानि और वृद्धि होती है ॥५९३।। विशेषार्थ-लवणसमुद्रके व्यासका छठा भाग ( २ )=३३३३३० योजन होता है। इसमें द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्रका प्रमाण १८० योजन मिलानेपर ( ३३३३३ + १८०)-३३५१३१ योजन होता है । अर्थात् अभ्यन्तर पथमें स्थित सूर्यको किरणे लवणसमुद्रके छठे भाग ( ३३५१३॥ योजन ) पर्यन्त फैलती हैं। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . गाथा । ५९४-५६७ ] सत्तमो महायिारो [ ४१३ लवासमुद्रादिमें किरणोंका फैलावलवण-प्पहुदि-चउपके, णिय-णिय-खेसेसु विणयर-मयंका । बच्चंति ताण लेस्सा, अण्णक्खेत्तं ण कइया वि ॥५६४।। अर्थ-लवणसमुद्र आदि चारमें जो सूर्य एवं चन्द्र हैं उनकी किरणे अपने-अपने क्षेत्रों में ही जाती हैं, अन्य क्षेत्रमें कदापि नहीं जाती ।।५९४।। लवणसमुद्रादिमें सूर्य-वीथियोंको संख्याअट्ठासट्ठी ति-सया, लवणम्मि हवंति भाण-वीहीओ। चउरत्तर - एक्कारस - सयमेत्ता धावईसंडे ॥५६॥ ३६८ | ११०४ । मपं-लवणसमुद्र में सूर्य-वीथियो तीन सौ अड़सठ हैं और धातकोखण्डमें ग्यारह सौ चार हैं ॥५९५॥ घउसट्टी अठ्ठ-सया, तिणि सहस्साणि कालसलिलम्मि । चउवीसुत्सर-छ-सया, छच्च सहस्साणि पोक्खरद्धम्मि ॥५६६॥ ३८६४ । ६६२४ । प्रयं-कालोदधिमें सूर्य-वोथिया तीन हजार आठ सौ चौंसठ और पुष्कराध द्वीपमें छह हजार छह सौ चौबीस हैं ।।५९६।। विशेषार्थ-दो सूर्य सम्बन्धी १८४ वीथियों होती हैं अतः लवण-समुद्रगस ४ सूर्योकी {".xxx ) = ३६८, धातकीखण्डगत १२ सूर्योकी ( १ १) = ११०४, कालोदधिगत (४४४४२ )=३८६४ और पुष्करार्धद्वीपगत ( २ ) =६६२४ वीथियां हैं। प्रत्येक सूर्यको मुहूर्त-परिमित गतिका प्रमाणणिय-णिय-परिहि-पमाणे, सट्ठि-मुह सेहि अवहिदे लक्ष। पत्तेषक भाणूरणं, मुहृत्त - गमरणस्स परिमाणं ॥५९७॥ अर्थ-अपने-अपने परिधि-प्रमाणमें साठ मुहूर्तोंका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना प्रत्येक सूर्यकी मुहूर्तगतिका प्रमाण होता है ।।५९७।। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] तिलोयपण्णसी [ गाथा । ५९८-६०१ लवणसमुद्रादिमें सूर्योकी शेष प्ररूपणासेसामो वण्णणामो, जंबूदीवम्मि जाओ दुमणीणं । तामो लवणे धादइसंडे कालोव - पुक्खर सु॥५६८।। भूस्यस्यणा । अर्थ-जम्बूद्वीप स्थित सूर्योंका जो शेष वर्णन है, वही लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोद और पुष्करार्धके सूर्योका भी समझना चाहिए ।।५९८।। इसप्रकार सूर्य-प्ररूपणा समाप्त हुई। लवणसमुद्रादिमें ग्रह संख्याबाबण्णा तिष्णि-सया, होति गहाणं च लवणजलाहिम्मि । छप्पण्णा अम्भाहियं, सहस्समेक्कं च घावईसंडे ॥५६॥ ३५२ । १०५६ । तिणि सहस्सा छस्सय, छण्णउदी होंति कालउबहिम्मि । छत्तोस्सभहियाणि, तेसट्ठि - सयाणि पुक्खरद्धम्मि ॥६००॥ ३६९६ । ६३३६ । एवं महारण पहवणा समत्ता। अर्थ-लवणसमुद्र में तीन सौ बाधन और धातकीखण्डमें एक हजार छप्पन ग्रह है। कालोदधिमें तीन हजार छह सौ छधान और पुष्करार्धद्वीपमें छह हजार तीन सौ छत्तीस ग्रह हैं ।।५९९-६०७॥ विशेषार्थ-एक चन्द्र सम्बन्धी ८८ ग्रह हैं, अतः लवणसमुद्र में (८४४ )-३५२, धा० खण्डमें ( ८८x१२) = १०५६, कालोदधिमें (८८४४२) = ३६६६ और पुष्करार्धद्वीपमें ( १८४७२ )=६३३६ ग्रह हैं । इसप्रकार ग्रहोंकी प्ररूपणा समाप्त हुई। लवरणसमुद्रादिमें नक्षत्र संख्यालवरणम्मि बारसुत्तर-सयमेत्ताणि हवंति रिक्वाणि । छत्तीयॊह अहिया, तिष्णि - सया पावईसंडे ॥६०१॥ ११२ । ३३६ । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो महाहिमा [ ४१५ अर्थ — लवण समुद्र में एक सौ बारह और घातकीखण्ड में तीन सौ छत्तीस नक्षत्र 1180211 गाथा । ६०२ - ६०५ ] छाहसरि-जुताई, एक्करस-सयाणि कालसलिलम्भि । सोलुत्तर दो सहस्सा, दीय बरे पोवखरद्धम्मि ||६०२ || · · नक्षत्र हैं ||६०२ ।' - ११७६ । २०१६ | श्रयं - कालोद समुद्र में ग्यारह सौ छिहत्तर और पुष्करार्धद्वीप में दो हजार सोलह विशेषा थं- - एक चन्द्र सम्बन्धी २८ नक्षत्र हैं, इसलिए ४, १२, ४२ और ७२ चन्द्र सम्बन्धी नक्षत्र क्रमशः ११२, ३३६, ११७६ और २०१६ हैं । नक्षत्रोंका शेष कथन सेसाश्रो वण्णणाश्रो, जंबूदीवम्मि जाओ रिक्खाणं । ताओ लवणे धाढइसंडे कालोब पोक्खर सु ॥ ६०३ ॥ - एवं क्वत्ताण परूवणा समता । प्रर्थ-नक्षत्रोंका शेष वर्णन जैसा जम्बूद्वीपमें किया गया है उसी प्रकार लवणसमुद्र, घातकीखण्ड द्वीप, कालोद समुद्र और पुष्करार्घद्वीपमें समझना चाहिए ।।६०३ ।। इस प्रकार नक्षत्रों की प्ररूपणा समाप्त हुई । लवण समुद्रादि चाकी ताराओंका प्रमाण दोहि चित्रय लक्खारिंग, सत्तट्ठी - सहस्स णव सर्याारिंग च । होंति हु लवणसमुद्दे, ताराणं कोडिकोडी ॥। ६०४ ॥ २६७६०००००००००००००००० | अर्थ - लवणसमुद्र में दो लाख सड़सठ हजार नौ सौ कोड़ाकोड़ी तारे हैं ।। ६०४|| अट्ठ चित्रय लक्खाणि, तिणि सहस्साणि सग-सा रंगपि । होंति ह धावइसंडे, तारार्ण कोडकोडोओ ।। ६०५ ॥ ८०३७०००००००००००००००० | Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ) तिलोयपणात्ती [ गाथा । ६०६-६०९ भर्म-धातकीखण्ड द्वीपमें आठ लाख तीन हजार सात सौ कोड़ाकोड़ी तारे हैं ॥६०५।। अट्ठावीसं लक्खा, कोडीफोडोरण बारस-सहस्सा । पण्णासुत्तर - णव - सय - जुत्ता ताराणि कालोदे ।।६०६।। प्रर्य-कालोद समुद्र में अट्ठाईस लाख बारह हजार नौ सौ पचास कोडाकोड़ी तारे हैं ।।६०६॥ अद्वत्ताल लक्खा, बायोस - सहस्स बे-सयाणि च । होति हु पोक्खरवीये, तारारणं कोडकोडीमो ॥६०७॥ ४६२२२००००००००००००००००। प्रर्य--पुष्कराधं द्वीपमें अड़तालीस लाख बाईस हजार दो सौ कोडाकोड़ी तारे हैं ॥६०७॥ विशेषार्थ एक चन्द्र सम्बन्धी ६६९७५ कोडाकोड़ी तारागण हैं इसलिए लवणसमुद्र प्रादि चारोंमें ४, १२, ४२ और ७२ चन्द्र सम्बन्धी ताराओंका प्रमाण क्रमश: ( ६६९७५ कोडाकोड़ीx४) २६७९०० कोडाकोड़ी, ८०३७०० कोडाकोड़ी, २८१२९५० कोड़ाकोड़ी और ४८२२२०० कोड़ाकोड़ी है। ताराओंका शेष निरूपणसेसाप्रो बणणायो, जंबवीवस्स बण्णण - समायो। णवरि विसेसो संखा, अण्णण्णा खोल • ताराणं ॥६०६॥ अर्थ-इनका शेष वर्णन जम्बूद्वीपके वर्णन सदृश है। विशेषता केवल यह है कि स्थिर ताराओंकी संख्या भिन्न-भिन्न है ।।६०८।।। लवणसमुद्रादि चारोंकी स्थिर ताराओंका प्रमाणएक्क-सयं उरणवाल, लवणसमुद्दम्मि खोल-ताराप्रो । बस - उत्तरं सहस्सा, बीवम्मि य पावईसंडे ॥६०६॥ १३६।१०१०। अर्थ- लवणसमुद्रमें एक सौ उनतालीस और धातकीखण्ड में एक हजार दस स्थिर तारे हैं ॥६०९।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ६१०-६१३ ] सत्तमो महाहियारो [ ४१७ एक्कत्ताल-सहस्सा, बीसत्तरमिगि-सयं च कालोदे । तेवण्ण-सहस्सा बे - सयाणि तीसंप पुक्खरखम्मि ॥६१०॥ ४११२० । ५३२३० । अर्थ कालोद समुद्र में इकतालीस हजार एक सौ बीस और पुष्करार्धद्वीप में तिरेपन हजार दो सौ तोस स्थिर तारे हैं ।।६१०॥ मनुष्यलोक स्थित सूर्य-चन्द्रोंका विभागमाणसखेते सतिणो, छासट्ठी होति एक्क-पासम्मि । दो - पासेसदुगुणा, तेत्तियमेत्ताणि मत्तंडा ॥६११॥ ६६ । १३२ । अर्थ-मनुष्य लोक के भीतर एक पाव भागमें छयासठ और दोनों पार्श्वभागोंमें इससे दूने चन्द्र तथा इतने प्रमाण ही सूर्य हैं ॥६११।। निरोपाई- बूड परेकाग्रीग पर्णन कमशः २+४+ १२+४२ +७२= ( १३२) चन्द्र एवं इतने ही सूर्य हैं। इनका अर्धभाग अर्थात् ( १३२+२= ) ६६ चन्द्र तथा ६६ सूर्य एक पार्वभागमें और इतने ही दूसरे पार्श्वभागमें संचार करते हैं । मनुष्यलोक स्थित सर्व ग्रह, नक्षत्र और अस्थिर-स्थिर तारामोंका प्रमाणएक्करस-सहस्साणि, होति गहा सोलसुत्तरा छ-सया। रिक्खा तिष्णि सहस्सा, छस्सय-छण्णउदि-अदिरित्ता ।।६१२।। ११६१६ १ ३६६६ । प्रर्ष-मनुष्य लोकमें ग्यारह हजार छह सौ सोलह ( ११६१६ ) ग्रह और तीन हजार छह सौ छयानबे ( ३६९६ ) नक्षत्र हैं ॥६१२।। अट्ठासीवी लक्खा, चालीस-सहस्स-सग-सयाणि पि । होति हु माणुसोत्ते, ताराणं कोडकोडीभो ॥६१३।। ८८४०७००००००००००००००००। अर्थ-मनुष्य क्षेत्रमें अठासी लाख चालीस हजार सात सौ कोडाकोड़ी अस्थिर तारे हैं ।।६१३॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६१४-६१६ पंचाणउदि-सहस्सा, पंच-सया पंचतीस-अहिया । खेतम्मि माणुसाणं, चेटुते खोल - ताराओ ॥६१४॥ ९५५३५ । अर्थ--मनुष्य क्षेत्रमें पंचानब हजार पांच सौ पैंतीस स्थिर तारा स्थित हैं ।।६१४॥ मनुष्यलोकके ज्योतिषीदेवोंका एकत्रित प्रमाण द्वीप-समुद्रों | चन्द्र । तारा नक्षत्र नाम अस्थिर तारा स्थिर तारा जम्बूद्वीप १७६ १३३९५०कोडाकोड़ो का ३५२ ११२ लवणसमुद्र धातकीखण्ड ३३६ ८०३७०० १०१० १०५६ ३६९६ ६३३६ कालोदसमुद्र पृष्कराधंद्वीप ११७६ ४११२० २८१२९५० , ४८२२२०० ॥ २ २०१६ ५३२३० योग १३२ | १३२ | ११६१६ ३६९६ / ८८४०७०० कोड़ा- ९५५३५ ग्रहों की संचरण विधि-- सव्वे ससिणो सूरा, णक्खत्ताणि गहा य ताराणि । णिय-णिय-पह-पणिधीसु पंतीए चरंति णभखंडे ॥६१५॥ अर्य-चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा, ये सब अपने-अपने पथोंकी प्रणिधियोंके नभखण्डोंपर पंक्तिरूपसे संचार करते हैं ।।६१५॥ ज्योतिष देवोंकी मेरु प्रदक्षिणाका निरूपणसम्वे कुर्णति मेरु, पदाहिणं जंबुदीव-जोदि-गरणा । अद्ध - पमाणा धावसंडे तह पोक्खरद्धम्मि ॥६१६।। एवं चर-गिहाणं चारो समत्तो। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६१७ ] सत्तमो महाहियारो [ ४१९ अर्थ-जम्बूद्वीप में सब ज्योतिषी देवोंके समूह मेहकी प्रदक्षिणा करते हैं, तथा धातकोखण्ड और पुष्करार्धद्वीपमें प्राधे ज्योतिषी देव मेरुको प्रदक्षिणा करते हैं ।।६१६॥ इसप्रकार चर ग्रहोंका चार समाप्त हुआ। अढ़ाई द्वोपके बाहर अचर ज्योतिषोंकी प्ररूपणामणुसुत्तरादु परदो, सयंभुरमणो त्ति दीव-उबहीणं । अचर - सरूव - ठिवाणं, जोइ - गणाणं परवेमो ॥६१७॥ अर्थ-मानुषोत्तर पर्वतसे पागे स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त द्वीप-समुद्रों में अवर स्वरूपसे स्थित ज्योतिषी देवोंके समूहोंका निरूपण करता हूँ ११७! मानुषोत्तरसे स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त स्थित चन्द्र-सूर्योकी विन्यास विधिएत्तो मणुसुत्तर-गिरिद-प्पहुदि जाव सयंभुरमण-समुद्दो त्ति संठिद-चंदाइच्चाणं विण्णास-विहिं वत्तइस्सामो। अर्थ-यहाँसे प्रागे मानुषोत्तर पर्वतसे लेकर स्वयंभूरमण-समुद्र पर्यन्त स्थित चन्द्र-सूर्योकी विन्यास-विधि कहता हूँ तं जहा-माणुसत्तर-गिरिंदादो पण्णास-सहस्स-जोयगाणि गंतूण पढम-वलयं होदि । तत्तो परं पत्तक्कमेक्क-लक्ख-जोयणाणि गंतूण बिदियावि-वलयाणि होति जाय सयंभरमण-समुद्दो ति । गरि सयंभुरमण-समुहस्स वेदीए पण्णास-सहस्स-जोयणाणिमपाथिय तम्मि पदेसे चरिम-वलयं होदि । एवं सम्य-वलयाणि केत्तिया होति ति उसे चोद्दस-लक्ख-जोयहि भजिव-जगसेडो पुरणो तेवीस-वलएहि परिहोणं होदि । तस्स ठेवणा १४००००० रि २३ । अर्थ-वह इसप्रकार है-मानुषोत्तर पर्वतसे पचास हजार योजन आगे जाकर प्रथम बलय है। इसके पागे स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त प्रत्येक एक लाख योजन आगे जाकर द्वितीयादिक वलय हैं । विशेष इतना है कि स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदीसे पचास हजार योजनोंको न पाकर अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदीसे पचास हजार योजन इधर ही उस प्रदेशमें अन्तिम बलय है । इसप्रकार सर्व १. द. य. क, वलेयं । २. द. म. क. ज. पदेस । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६१७ वलय कितने होते हैं ? ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि जगच्छू णोमें चौदह लाख योजनोंका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से तेईस कम करनेपर समस्त बलयोंका प्रमाण होता है । उसकी स्थापना - ( जगच्छ्रेणी ÷ १४००००० ) - २३ है । उपर्युक्त वलयों में स्थित चन्द्र-सूर्यो का प्रमाण एदारणं वलयाणं संविद चंदाइच्च पमाणं वत्तहस्सामो पोक्खरवर दीवद्धस्स पहम वलए संटिव - चंदाइच्या पत्तेक्कं उबालम्भहिय एक्क सयं होवि ११४४ | १४४ | पुखरवर णीररासिस्स पढम वलए संठिद- चंबाइच्चा पत्तेषकं अट्ठासीदि-ग्रम्भहिय-वोणिसयमेतं होदि । . - - हेडिम दीवस्स वा रयणायरस्स या पढम वलए संठिद बाइच्चादो तवर्णतरोवरिमन्दोबस्त वा गोरासिस्था पढन बलर संठिव चंदाइच्चा पत्तेषकं बुगुण-बुगुणं होऊण गच्छइ जाय सयंभुरमण समुद्दो त्ति । तत्थ अंतिम वियध्वं वत्तइस्सामो अन्तिम समुद्र प्रथम वलय स्थित चन्द्रसूर्योका प्रमाण १. द. व. २५००००० । ६ । - ― अर्थ- - इन वलयों में स्थित चन्द्र-सूर्योका प्रमाण कहते हैं - पुष्करार्धद्वीप के प्रथम वलय में स्थित चन्द्र तथा सूर्य प्रत्येक एक सौ चवालीस ( १४४. १४४ ) हैं । पुष्करवर समुद्र के प्रथम वलय में स्थित चन्द्र एवं सूर्य प्रत्येक दो सौ अठासी (२८८- २०५ ) प्रमाण हैं । इसप्रकार अधस्तन द्वीप श्रथवा समुद्र प्रथम वलय में स्थित चन्द्र-सूर्योकी अपेक्षा तदनन्तर उपरिम द्वीप अथवा समुद्रके प्रथम वलय स्थित चन्द्र और सूर्य प्रत्येक स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त दुगुने - दुगुने होते चले गये हैं । उनमें से अन्तिम विकल्प कहते हैं - - सयंभुरमणसमुहस्स पढम वलए संठिव चंदाइच्या अट्ठावीस लक्खेण भजिवगवसेढीओ पुणो च-रूब-हिद सत्तावीस-रूवेहि प्रभहियं होइ । तच्चैवं । 1 १८००००० | १७ । प्रथं - स्वयंभूरमण समुद्र के प्रथम वलय में स्थित चन्द्र और सूर्य प्रत्येक अट्ठाईस लाखसे भाजित तो जगच्छ्रणी और चार रूपोंसे भाजित सत्ताईस रूपोंसे अधिक हैं। वह यह है( जगच्छ्रेणी ९÷२५ लाख ) + wat Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ६१८ ] सत्तमो महाहियारो [ ४२१ प्रत्येक द्वीप-समुद्र के प्रथम-वलयके चन्द्र-सूर्य प्राप्त करनेकी विधिपोक्खरवरदोषव-पहवि जाय सयभरमणसमुद्दो त्ति पोक्क-दीवस्स वा उहिस्स वा पढम-वलयसंठिव-चंदाइचारणं प्राणयण-हेदु इमा सुस-गाहापोक्खरवरुवाह-पहुदि, उपरिम-दीग्रोवहीण विषखंभं । लक्ख-हिवं णव-गुरिणवं, सग-सग-दीउबहि-पढम-बलय-फलं ॥६१८।। प्रथं-पुष्करार्धद्वीपसे लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त प्रत्येक द्वीप अथवा समुदके प्रथम-वलयमें स्थित चन्द्र-सूर्योका प्रमाण लानेके लिए यह गाथा-सूत्र है पुष्करपर समुद्र आदि उपरिम द्वीप समुद्रोंके विस्तारमें एक लाखका भाग देकर जो लब्ध प्राप्त हो उसे नौसे गुणा करनेपर अपने-अपने द्वीप-समुद्रोंके प्रथम-बलयमें स्थित चन्द्र-सूर्योका प्रमाण प्राप्त होता है ।।६१८॥ विशेषार्थ-उपर्युक्त नियमानुसार तीसरे समुद्र, भतर्थ होत गतं मनयंभूरसारण समुद्र के प्रथम यलय स्थित चन्द्र-सूर्योका प्रमाण इसप्रकार है (१) तृतीय पुष्करवरसमुद्रका विस्तार ३२ लाख योजन है। इसके प्रथम वलयमें चन्द्रसूर्योका प्रमाण (23)२८८ - २८८ है। (२) वारुणीवर नामक चतुर्थ द्वीपका विस्तार ६४ लाख योजन है। इसके प्रथम बलयमें चन्द्र-सूर्योका प्रमाण. ( 1 )= ५७६ - ५७६ है । (३) स्वयंभूरमण समुद्रका विस्तार-जगच्छु णी +७५००० है। इसके प्रथम वलयमें चन्द्र-सूर्योका पृथक्-पृथक् प्रमाण [ जगमणी + ७५००० ]x ९ जगच्छ्रणी ७५०००४९-९ जगच्छणी + २७ है। २८००००० १००००० २८00000४ ९' प्रत्येक वलयमें चयका प्रमाणविचयं पुण पडिवलयं पडि पत्तेक्कं चउत्तर - कमेण गच्छह जाब सयंभुरमणसमुद्दति । णवरि दोवस्स बा उहिस्स वा दुगुण-जाव-पढम-वलय-ढाणं मोत्तूण सम्वत्प चउरत्तर-कम वत्तव्यं । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ } तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : ६१८ अर्थ यहाँ पर चय प्रत्येक वलयके प्रत्येक स्थानमें चार-चार उत्तर क्रमसे स्वयंभरमण समुद्र पर्यन्त चला गया है । विशेष इतना है कि द्वीप अथवा समुद्रके प्रथम वलय पर जहाँ राशि दुगुनी होती है, उसे छोड़कर सर्वत्र वृद्धिका क्रम चार-चार जानना चाहिए। विशेषार्थ- जैसे-मानुपोत्तर पर्वतसे बाहर जो पुष्कराध द्वीप है, उसके प्रथम बलयमें चन्द्र-सूर्यग बंजमा १४४..:४४ है। उसने बारे सो आदि वलयोंमें चार-चारको वृद्धि होते हुए क्रमशः १४८, १५२, १५६, १६०, १६४, १६८, १७२. १७६, १८० .............. हैं । इसप्रकार यह वृद्धि पुष्कराध द्वीपके अन्तिम बलय पर्यन्त होगी और इस द्वीपके आगे पुष्करवरसमुद्रके प्रथम वलयमें राशि दुगुनी अर्थात् ( १४४४ २= ) २८८ हो जायगी । यह राशि प्रत्येक द्वीप-समुद्रके प्रथम यलयमें दुगुनी होती है इसीलिए चय-वृद्धिके क्रममें इस प्रथम क्लयको छोड़ दिया गया है । मानुषोनर पर्वत के प्रागे प्रथम वलयमें चन्द्र-सूर्यों के अन्तरालका प्रमाण माणसुत्तरगिरिदादो पण्णास-सहस्स-जोयणागि गंतरण पठम-वलयम्मि ठिदचंदाइच्चाणं विच्चालं सत्तेताल-सहस्स-णव-सय-चोइस-जोयणाणि पुणो छहरि-जादसवंसा तेसोदि-जुब-एक्क-सय-रूवेहि भजिवमेतं होदि । तं घेवं ४७९१४ । । अर्थ- मानुषोतर पर्वतसे आगे पचास हजार योजन जाकर प्रथम-वलयमें चन्द्र-सूर्योका अन्तराल सैतालीस हजार नौ सौ चौदह योजन और एक सौ तेरासीसे भाजित एक सौ छयत्तर भाग प्रमाण अधिक है । वह यह है-४७९१४२६३ । विशेषार्य-मानुषोत्तरपर्वतसे ५० हजार योजन आगे जाकर प्रथम-वलय है । जिसमें १४४ चन्द्र और १४४ सूर्य स्थित हैं । मानुषोत्तर पर्वतका सूची-व्यास ४५ लाख योजन है । इसमें दोनों पावभागोंका ५०-५० हजार { १ लाल ) योजन वलय-व्यास मिला देनेपर ( ४५ लाख + १ लाख) = ४६ लाख योजन सूची-व्यास होता है। इसकी बादर परिधि (४६०००००४३)=१३८००००० लाख है । इसमें बलय-त्र्यास सम्बन्धी चन्द्र-सूर्योके प्रमाण ( १४४+१४४ )=२८८ का भाग देकर दोनोंके बिम्ब विस्तारका प्रमाण घटा देनेपर चन्द्रसे चन्द्रका और सूर्य से सूर्यका अन्तर प्रमाण प्राप्त होता है । यथा१७६११२०० - ४३१४-४७६१४३६ योजन अन्तर प्रमाण है। विद्वानों द्वारा विचारणीयग्रन्थकारने चन्द्र-सूर्यके बिम्ब व्यास को एक साथ जोड़कर (H+i)= योजन घटाकर अन्तर-प्रमाण निकाला है किन्तु चन्द्र एवं सूर्य बिम्बोंका व्यास एक सदृश नहीं है, अतः जितना अन्तर चन्द्रका चन्द्रसे है उतना ही सूर्यका सूर्यसे नहीं हो सकता है । यथा Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६१८ ] ( [१३८००००० "T४४" अन्तर है और ५७५००० प्रमाण है। = सत्तमी महाहियारो [ ४२३ ५७५००० } - ५६=९५८२४ योजन प्रथम वलय में चन्द्रले चन्द्रका = ९५५२५३ योजन बहाँके एक सूर्यसे दूसरे सूर्यका अन्तर मानुषोत्तर के आगे द्वितीय वलय स्थित चन्द्र-सूर्यक अन्तरका प्रमाण विदिय - बलए चंवाइच्चाणमंतरं श्रट्ट े ताल सहस्स छ सय छावाला जोयणाणि पुणो इगि-सय-तील जुदारणं दोण्णि सहस्सा फलाओ होदि बोणि-सय-सत्तायण्ण हवे गम्भ हिय दोणि- सहस्सेण हरिवमेत्तं होदि । तं चेदं । ४८६४६ | ३६ | एवं नेदव्वं जाव सयंभूरमणसमुद्दति । २२५७ अर्थ - द्वितीय वलय में चन्द्र-सूर्योका अन्तर अड़तालीस हजार छह सौ छयालीस योजन और दो हजार दो सौ सत्तावनसे भाजित दो हजार एक सौ तीस कला अधिक है । वह यह है४८६४६३३३३ । इसप्रकार स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त ले जाना चाहिए । विशेषार्थ - प्रत्येक वलय में चन्द्र-सूर्योका वृद्धिचय ४४ है, अतः द्वितीय वलय में इनका प्रमाण ( १४६ + १४८ ) = २९६ है । प्रथम वलयसे यह दूसरा वलय एक लाख योजन आगे जाकर है। वहीं प्रत्येक पार्श्वभागका वलय व्यास एक-एक लाख योजन है अतः दूसरे वलयका सूची- व्यास ( ४६ लाख + २ लाख ) - ४६ लाख योजन है । पूर्वोक्त नियमानुसार यहां चन्द्र-सूर्यके अन्तरका प्रमाण इसप्रकार है ४८०००००x३ -1500000) — 10x="52" १०६७६६१५९ - ४८६४६३५० योजन । स्वयंभूरमणसमुद्र के प्रथम वलय में चन्द्र-सूर्य के अन्तरका प्रमाण तत्थ अंतिम वियपं वत्तइस्सामो सयंभूरमण समुहस्स पढम बलए एक्केषकचंदा इकचाणमंतरं तेत्तीस - सहस्स-ति-सय- इगिलीस जोयरगारिण सा पुण पण्णा रस-जुदेवकसयं हारो तेसीदि-जुवेदक-सय-रूवमेतेण भहियं होदि, पुणो रूवस्स असंखेज्जभागेणम्भहियं होदि । तं चेदं ३३३३१ | भा ३३ | एवं सयंभू र मरणसमुदस्स बिदिय पह प्यहुदि - बुचरिम-पहतं विसेसाहिय परुवेण जाणिय वत्तव्यं । - - अर्थ -- उनमें से अन्तिम विकल्प कहते हैं- स्वयंभूरमण समुद्र के प्रथम वलय में प्रत्येक चन्द्र-सूर्यका अन्तर तैंतीस हजार तीन सौ इकतीस योजन और एक सो तेरासीसे भाजित एक सौ पन्द्रह भाग अधिक तथा असंख्यातसे भाजित एक रूप अधिक है । वह यह है - ३३३३११२५ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६१८ इसप्रकार स्वयंभूरमणसमुद्र के द्वितीय पथसे लेकर द्विचरम पथ पर्यन्त विशेष अधिक रूपसे होता गया है जिसे जानकर कहना चाहिए । विशेषार्थ-स्वयंभूरमणसमुद्रके प्रथम वलयका सूचीव्यास (ज - १५०००० ) है और इस वलयकी स्थूल-परिधिका प्रमाण ३ { – १५०००० + १००००० ) है। इस वलयके चन्द्रोंका प्रमाण ( लाख + --- ) है । सूर्योका प्रमाण भी इतमा हो है अतः इसे दुगुना करने पर २ ( लाख + २ ) प्राप्त होता है। चन्द्र-सूर्यके बिम्ब विस्तारका प्रमाण (4+f) - योजन है। यहाँ पूर्वोक्त नियमानुसार चन्द्र-सूर्यके अन्तरका प्रमाण इसप्रकार है ज ३ ( -१५००००+१०००००) २ (२८०... + १७) - या (Axixege:° )-1 - ३३३३१३४ योजन । यहाँ ज से ज का, ३ से १ का और २ से २८ लाखका अपवर्तन हुआ है । असंख्यात संख्या रूप जगच्छणीकी तुलनामें १५०००० १ लाख और नगण्य हैं अतः छोड़ दिए गये हैं। स्वयंभूरमणसमुद्रके अन्तिम बलयमें चन्द्र-सूर्यके अन्तरका प्रमाणएवं सयंभूरमणसमुदस्स चरिम - थलपम्मि चंवाइच्चाणं विच्चालं भण्णमाणे छावाल-सहस्स-एक्क-सय-बायण्ण-जोयण-पमारणं होदि पुणो बारसाहिय-एक्क-सय-कलाओहारो सेणउदि-रूपेणम्भहिय-सप्त-सयमेतं होकि । तं घेदं ४६१५२ धण अंसा । एवं अचर-जोइगण-परूवणा समत्ता। प्रर्थ-इसप्रकार स्वयंभूरमणसमुद्रके अन्तिम वलयमें चन्द्र-सूर्योका अन्तराल कहनेपर छयालीस हजार एक सौ बावन योजन प्रमाण और सातसौ तेरानबसे भाजित एक सौ बारह कला अधिक है। वह यह है--४६१५२१। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६१८] सत्तमो महाहियारो [ ४२५ विशेषार्थ-स्वयंभूरमणसमुद्रका बाह्य सूचीव्यास एक राजू अर्थात् ज है। इसमें १ लाख जोड़कर ३ से गुणित करनेपर वहाँकी स्थूल परिधिका प्रमाण होता है । यथा ३ (ज+ १००००० ) ! असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्योंके समस्त बलयोंका प्रमाण ( -२३) है और इन समस्त बलयोंका ई भाग अर्थात् ( - २३.) प्रमाण स्वयंभूरमण समुद्रके वलयोंका है । यहाँके चन्द्र-सूर्योमें प्रत्येकका प्रमाण २ ( R+ राख यहाँके अन्तिम बलयमें चन्द्र-सूर्योका प्रमाण प्राप्त करनेका सूत्र है-आदि + { वलयसंख्या -१) चय। अर्थात् २ (२८७.७..+ २४ ) + (२८०....-२३-१ ) ४४ या २ ( २६ लाख + २४ ) + (२ लाख २५ ) ४४ था २ ( २६ लाख + २७ ) + ( २५ लाख ५० ) या (१४...+ २७ ) + (N...-५०) या ,१३, यह अन्तिम वलयके समस्त चन्द्र-सूर्योका प्रत्येकका प्रमाण है । इस प्रमाण का स्वयंभूरमणसमुद्रकी स्थूल परिधिमें भाग देकर 1 यो० घटा देनेसे अन्तिम वलयमें चन्द्र-सूर्योके अन्तरका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । यथा ३ (जु + १००००० ) – १०४ या ३ ज - १४:०० -- यो. १३ जे १४००००० =MAY-४६१५२ योजन अन्तराल प्रमाण है । इसप्रकार अचर ज्योतिर्गणकी प्ररूपणा समाप्त हुई। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] तिलोय पणती 200000000 विशेष द्रष्टव्य donacooooooooo [ गाया । ६१८ सपरिवार चन्द्रोंके प्राप्त करनेकी प्रक्रियाका दिग्दर्शन असंख्यात द्वीप समुद्र में चन्द्रादि ज्योतिष बिम्ब राशियोंको प्राप्त करने हेतु सर्व प्रथम असंख्त द्वीप समुद्रोंकी संख्या निकाली जाती है। यह संख्या गच्छका प्रमाण प्राप्त करने में कारण भूत है और गच्छ चन्द्रादिक राशियोंका प्रमाण निकालने के लिए उपयोगी है । असंख्यात द्वीप समुद्रों की संख्याका प्रमाण द्वीप समुद्रोंकी संख्या निकालने लिए रज्जुको अर्थ है। इसका कारण यह है कि ६ अधिक जम्बूद्वीप के अर्धच्छेदोंसे होन रज्जुके अर्धच्छेदोंका जितना प्रमाण है उतना ही प्रमाण द्वीप समुद्रोंका है । ५ राजू के अच्छे निकालने की प्रक्रिया -- सुमेरु पर्वत के मध्य से प्रारम्भकर स्वयंभूरमण समुद्र के एक पार्श्वभाग पर्यन्तका क्षेत्र अर्धराजू प्रमाण है, इसलिए राजूका प्रथमबार आधा करनेपर प्रथम अर्धच्छेद जम्बुद्वीप के मध्य ( केन्द्र ) में मेरु पर पड़ता है । इस अर्ध राजूका भी अर्धभाग अर्थात् दूसरी बार आधा किया हुआ राजू स्वयंभूरमण द्वीपकी परिधिसे ७५००० योजन श्रागे जाकर स्वयंभूरमण समुद्र में पड़ता है। तीसरी बार आधा किये हुए राजूका प्रमाण स्वयंभूरमण द्वीप में अभ्यन्तर परिधिसे मेरुकी दिशा में कुछ विशेष भागे जाकर प्राप्त होता है । इसप्रकार उत्तरोत्तर अर्धच्छेद क्रमशः मेरुकी ओर द्वीप समुद्रों में अर्ध- अर्धरूपसे पतित होता हुआ लवरणसमुद्र पर्यन्त पहुँचता है। जहां राजूके दो अर्धच्छेद पड़ते हैं । ( देखिए त्रिलोकसार गा० ३५६ ) जम्बूद्वीपकी वेदीसे मे के मध्य पर्यन्त ५०००० योजन और उसी वेदोसे लवणसमुद्र में द्वितीय अर्धच्छेद तक ५० हजार योजन अर्थात् जम्बूद्वीपसे अभ्यन्तरकी ओर के ५० हजार योजन और बाह्यके ५० हजार योजन ये दोनों मिलकर १ लाख योजन होते हैं जिनको उत्तरोत्तर १७ बार अ- अर्ध करनेके पश्चात् एक योजन अवशेष रहता है। इस १ योजनके ७६८००० अंगुल होते हैं । जिन्हें उत्तरोत्तर १७ बार अर्ध-अर्ध करनेपर एक अंगुल प्राप्त होता है। एक अंगुलके अर्धच्छेद पल्य के श्रच्छेदों के वर्गके बराबर होते हैं। इसप्रकार जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद (१७+१६+१) ३७ अधिक पत्यके अर्धच्छेदोंके वर्ग अथवा संख्यात अधिक पथके श्रच्छेदों के वर्ग के सदृश होते हैं । H ( त्रिलोकसार गाथा ६८ ) Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६१८ ] सत्तगी महाहवारी ४२७ तिलोयपण्णत्ती गाथा १ १ १३१ तथा त्रिलोकसार गाथा १०८ की टीकानुसार जगच्छ ेणी ( ७ राजू ) के अर्थ च्छेदोंकी संख्या इसप्रकार है पल्य के अर्ध० x साधिक पल्के अर्धच्छेद x पल्के अर्धच्छेद x ३ । प्रसंख्यात जगच्छ्रेणी ७ राजू लम्बी है जिसमें समस्त द्वीप- समुद्रोंको अपने गर्भ में धारण करने वाले तिर्यगुलोकका आयाम एक राजू है । ७ राजूका उत्तरोत्तर तीन बार अर्ध-अर्ध करनेपर एक राजू प्राप्त होता है अतः जगच्छ्रे लोके उपर्युक्त अर्धच्छेदों में से ये ३ अर्धच्छेद घटा देनेपर एक रज्जुके अच्छेदों का प्रमाण इसप्रकार प्राप्त होता है X ( पयके अर्धच्छेद ) x ३ } – ३ | { पल्क अर्धच्छेद असंख्यात द्वीप- समुद्रोंकी संख्या का प्रमाण एक राजू के उपर्युक्त अर्धच्छेदों के प्रमाणमेंसे जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद ( अर्थात् संख्यात अधिक पल्य के अर्धच्छेदों का वर्ग ) कम कर देनेपर द्वीप समुद्रोंकी संख्या प्राप्त हो जाती है । यथा- २ प० ० असं ० - X १० छे० * x ३ - ३ ) - संख्यात ( अर्थात् ६ ) अधिक प० छे० ' = द्वीप और सागरोंका ( प्रमाण गच्छका प्रमारण उपर्युक्त संख्यावाले द्वीप- समुद्रों में ज्योतिष्कोंका विन्यास ज्ञातकर उन ज्योतिषी देवोंकी संख्या प्राप्त की जाती है, इसलिए जम्बुद्वीप के अर्धच्छेदों में ६ श्रच्छेद मिलानेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे रज्जु अर्धच्छेदों में से घटा देनेपर जो शेष रहता है वही प्रमाण ज्योतिषी बिम्बोंकी संख्या निकालने हेतु गच्छका प्रमाण कहलाता है । तृतीय समुद्रको आदि लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त गच्छ-प्रमाण एतो चंवाण सपरिवाराणमाणयण विहाणं वत्तइस्साम । तं जहा - जंबू - दीवावि-पंच-बीब-समुद्दे मोत्तूण तविय समुद्दादि काढूण जाव-सयंमूरमण - समुद्दो ति एवाण - माणयण किरियं ताव उच्चयदे - तदिय- समुद्दम्मि गच्छो बत्तीस, चस्थ दोवे गच्छो चउसट्टी, उवरिम-समुद्दे गच्छो अट्ठावीसुत्तर सयं । एवं बुगुण-बुगु - कमेरण गच्छा गच्छति जाव सयंभू रमणसमुहो ति । - Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. ] तिलोयपण्णती [ गाथा ! ६१८ अर्थ यहाँसे आगे चन्द्रोंको सपरिवार लानेका विधान कहता हूँ। वह इसप्रकार हैजम्बूद्वीपादिक पांच द्वीप-समुद्रोंको छोड़कर तीसरे समुद्रको प्रादि करके स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त इनके लानेकी प्रक्रिया कहते हैं--तृतीय समुद्र में बत्तीस गच्छ, चतुर्थ द्वीपमें चौंसठ गच्छ, और इससे आगेके समुद्रमें एकसी अट्ठाईस गच्छ, इसप्रकार स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त गच्छ दूने-दूने क्रमसे चले जाते हैं। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपादि तीन द्वीप और लवरणसमुद्रादि दो समुद्र इन पाँच द्वीप-समुद्रोंके चन्द्र प्रमाणका निरूपण किया जा चुका है अतः इनको छोड़कर शेष द्वीप-समुद्रोंका गच्छ इस प्रकार है क्रमांक समुद्र एवं द्वीप गच्छ प्रमाण पुस्करवर समुद्र धारुणिवर द्वीप वारुणिवर समुद्र क्षीरवर द्वीप क्षीरवर समुद्र २५६ ५१२ तदनुसार गच्छको संख्या दूने-दूने क्रमसे स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त वृद्धिंगत होतो जाती है। तृतीय समुद्रसे अन्तिम समुद्र पर्यन्तकी गुण्यमान राशियां___ संपहि एदेहि गच्छेहि पुध-पुध गुणिज्जमाण-रासि-परूवणा कीरदे-तदियसमुद्दे बे-सयमट्ठासीदि-उवरिम-दौवे तत्तो दुगुणं, एवं दुगुण-गुण-कमेण गुणिज्जमारणरासीओ गच्छंति जाव सयंभूरमणसमुद्द पत्ताओ ति । संपहि अट्ठासीवि-विसदेहि' गुणिज्जमाण-रासीओ प्रोवट्टिय लद्धण सग-सग-गच्छे गुणिय अट्ठासीदि-थे-सदमेव सव्वगच्छाणं गुणिज्जमाणं कावन्वं । एवं कदे सम्बनाच्छा अण्णोण्णं पेविखण चउगुण-कमेण आवट्टी जादा । संपइ घचारि-रूवमादि कादूण 'चदुरुसर-कमेण गव-संकलगाए आणयणे कीरमाणे पुग्विल्ल-गच्छेहितो संपहिय-गच्छा रूऊगा होति, दुगुण-जाक्-ठाणे चत्तारि-रूव १. द. ब. क. ज. बीसदे। २. द. ब. क. ज. दिवढिय। ३. द. ब. क. ज. पदुत्तर । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६१८ ] सत्तमो महाहियारो । ४२९ घड्ढोए प्रभावादो । एदेहि गच्छेहि गुणिज्जमाण-मज्झिम-धणाणि चउदि - रूवमादि कादण दुगुण-दुगुण-कमेण गच्छति जाब सयंभूरमणसमुद्दो ति।। भयं-अब इन गच्छोंसे पृथक्-पृथक् गुण्यमान राशियोंकी प्ररूपणा की जाती है । इनमेंसे तृतीय समुद्र में दो सौ अठासी और प्रागेके द्वीपमें इससे दुगुनी गुण्यमान राशि है, इसप्रकार स्वयंभूरमरा समुद्र पर्यन्त गुण्यमान राशियाँ दुगुने दुगुने क्रमसे चली जाती हैं। अब दो सौ अठासीसे गुण्यमान राशियोंका अपवर्तन करके लब्ध राशिसे अपने-अपने गच्छोंको गुरणा करके सब गच्छोंकी दो सौ अठासी ही गुण्यमान राशि करना चाहिए । इसप्रकार करनेपर सब गच्छ परस्परको अपेक्षा चौगुने क्रमसे अवस्थित हो जाते हैं । इस समय चारको आदि करके चार-चार उत्तर क्रमसे गत संकलनाके लाते समय पूर्वोक्त गच्छोंसे सांप्रतिक गच्छ एक कम होते हैं, क्योंकि दुगुने हुए स्थानमें चार रूपोंकी वृद्धिका अभाव है। इन गच्छोंसे गुण्यमान मध्यम धन चौंसठ रूपको प्रादि करके स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त दुगुने-दुगुने होते गये हैं। विशेषार्थ-पद या स्थानको गच्छ कहते हैं। जिस द्वीप या समुद्र में चन्द्र-सूर्य के जितने वलय होते हैं, वहीं उनकी गच्छ-राशि होती है । प्रादि, मुख या प्रभव ये एकार्थ याची हैं । यहाँ मुख (प्रत्येक द्वीप या समुद्र के प्रथम वलयके चन्द्र प्रमाण) को ही गुण्यमान राशि कहा गया है। जैसे तृतीय ( पुष्करवर ) समुद्र में ३२ बलय हैं अतः वहाँका गच्छ ३२ है । इस समुद्र के प्रथम वलयमें २८८ चन्द्र हैं अतः यहाँ गुण्यमान राशि २८८ है। इसीप्रकार चतुर्थ द्वीपमें वलय ६४ और प्रथमवलपमें चन्द्र प्रमाण ५७६ है अतः यहाँका गच्छ ६४ और गुण्यमान राशि ५७६ है। तृतीय समुद्रके गच्छ और गुण्यमान राशिसे चतुर्थ द्वीपकी गच्छ राशि एवं गुण्यमान राशिका प्रमाण दूना है। यही क्रम अन्तिम समुद्र पर्यन्त जानना चाहिए । अब आचार्य सभी गच्छोंको परस्परको अपेक्षासे चतुर्गुण क्रमसे स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए सभी गुण्यमान राशियोंको २८८ से ही अपवर्तित कर जो लब्ध प्राप्त हो उससे अपने-अपने गच्छोंको गुणित करने पर सब गच्छ परस्परकी अपेक्षा चौगुने क्रमसे अवस्थित हो जाते हैं। जैसे चतुर्थ द्वीपकी गुण्यमान राशि ५७६ है । इसे २८८ से अपवर्तित करनेपर (%)=२ लब्ध प्राप्त हुआ । इससे इसी द्वीपके गच्छको गुणित करनेपर ( ६४४२)=१२८ प्राप्त हुए जो तृतीय समुद्रके गच्छसे चौगुना (३२४४=१२८ ) है। इसीप्रकार अन्त-पर्यन्त जानना चाहिए । यथा [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] समुद्र एवं द्वीप ३ रा पुष्करवर स० ४था वारुणिवर द्वीप ५ ६ ठा ७ वीं क्षीरवर समुद्र वारुणि० समुद्र क्षीरवर द्वीप तिलोय पणती गुण्यमान राशि : भाजक - राशि= २०६÷२६६ ५७६÷२०६ ११५२÷२६६ २३०४÷२८८= ४६०६÷२०६= लब्ध १ २ ४ ८ १६ [ गाथा : ६१८ परस्पर में लब्धराशि Xगच्छ चौगुना गच्छ = १×३२= २४६४ [ सारणी अगले पृष्ठ पर देखिए ] ४×१२८= ८x२५६= १६४५१२= ३२ १२८ ५१२ २०४५ =१९२ पदों में होनेवाली समान वृद्धि या हानिको प्रचय कहते हैं । यथा- - तृतीय समुद्रमें ३२ वलय हैं और उसके प्रथम वलय में २८८ चंद्र हैं । चय वृद्धि द्वारा दूसरे वलयमें २९२, तीसरे में २६६ इत्यादि, वृद्धि होते-होते अन्तिम वलय में चन्द्र संख्या ५७२ प्राप्त होगी और चतुर्थ द्वीपके प्रथम वलय में यह संख्या (२८८ की दूनी ) ५७६ हो जायगी । किन्तु इससमय यहाँ गच्छ ३२ न होकर ३१ ही होगा। क्योंकि दुगुने हुए स्थानमें प्रचय वृद्धिका प्रभाव है । मध्यमवन – संकलन सम्बन्धी गच्छकी मध्य संख्यापर वृद्धिका जो प्रमाण आता है वह मध्यमधन कहलाता है । गच्छोंके उत्तरोत्तर दुमने रूपसे बढ़ते जानेपर यह मध्यमधन भी द्विगुणित होता जाता है । यथा तृतीय समुद्रका गच्छ ३२ होनेसे उसका मध्यमधन सोलहवें स्थान ( पद ) पर रहता है क्योंकि प्रथम में कोई वृद्धि नहीं है, अतएव ३१ पद बचते हैं। इनमें १६ व मध्य पद हो जाने से उसकी वृद्धि ( १६x४ ) = ६४ होती है । जिसकी सारणी इसप्रकार है Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावा । ६१८ ] गच्छ पद संख्या १ २ ३ ५ ६ ७ ५ ६ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ --- म महाहिया गच्छका मान ४ द १२ १६ २० २४ २८ ३२ २६ ४० ४८ ५२ ५६ ६० ६४ पद संख्या १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ मान ६ ६ ७२ ७६ ८० ८४ १. य. ब. क. ज. पक्छे । २. ८. व. क. धरणाणीमोवडीव । ५५ ९२ ९६ १०० १०४ १०६ ११२ ११६ १२० १२४ मध्यमघन - १६ वॅ पदपर वृद्धिका प्रमाण - [ ४३१ उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि तृतीय समुद्र में गच्छ ३२ होनेपर मध्यम धन ६४ होता है । चतुर्थ द्वीप में गच्छ ६४ है अतः वहाँ ३२ में पद पर मध्यमधन स्वरूप यह वृद्धिका प्रमाण १२८ होता है । यह १२८ मध्यमघन, पूर्ववर्ती ६४ मध्यम धनसे दुगुना है । इसीप्रकार परवर्ती प्रत्येक समुद्रद्वीपादिके मध्यमधन उत्तरोत्तर द्विगुणित प्रमाणसे वृद्धिगत होते जाते हैं । ऋणराशि पुणो गच्छ-समीकरणट्ट सब्द-गच्छेसु एगेग - रुव पक्खेवो' कायव्वो । एवं काढूण चजसहि-रूहि मज्झिम-धपाणिमोबट्टिय' ल े एल सग-सग- गच्छे गुणिय सम्ब गच्छ्राणि च सडि-वाणि गुणिज्जमाणतणेण ठवेदवारिण । एवं कदे सम्ब- गच्छा संपहि Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] तिलोयपणाती [ गाथा ! ६१८ रिण-रासिस्स पमाणे उच्च-एग-रूवमावि काबूण गच्छ पडि दुगुण-दुगुण-कमेण जाव सयंभूरमरणसमुद्दो त्ति गद-रिण-रासि होदि । अथं-पुनः गच्छोंके समीकरणके लिए सब गच्छों में एक-एक रूपका प्रक्षेप करना चाहिए । ऐसा करनेके पश्चात् मध्यमधनोंका चौंसठसे अपवर्तन करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उससे अपने-अपने गच्छोंको गुणा करके सब गच्छोंकी गुण्यमान राशिके रूपमें चौसठ रूपोंको रखना चाहिए। ऐसा करनेपर अब सर्व गन्छोंकी ऋण-राशिका प्रमाण कहता हूँ एक रूपको आदि करके गच्छके प्रति (प्रत्येक गच्छमें ) दूने-दूने क्रमसे स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त ऋण राशि गई है। विशेषार्थ- समीकरण-समीकरणका तात्पर्य है दो या दो से अधिक राशियों में सम्बन्ध दर्शानेवाला पद अथवा सूत्र यहाँ गच्छोंके समीकरणके लिए सब गच्छोंमें एक-एक रूपका प्रक्षेप करना है । उसका अर्थ इसप्रकार है-पुष्करार्ध द्वीपके प्रथम वलयमें १४४ पन्द्र हैं और इससे दूने ( १४४४२) चन्द्र तृसीय समुद्रके प्रथम वलयमें, इससे दूने ( १४४ X २ ४ २) चन्द्र चतुर्थद्वीपके प्रथम वलयमें हैं। विवक्षित द्वीप-समुद्र के प्रथम वलयको चन्द्र संख्या प्राप्त करनेके लिए विवक्षित द्वीपसमुद्रकी संख्याका मान 'क' मान लिया गया है अतः इसका सूत्र इसप्रकार होगा विवक्षित द्वीप-समुद्रके प्रथम पलयकी चन्द्र संख्या १४४४२ (क-२) यथा-१० वा द्वीप विवक्षित है-क-१. १०वें द्वीपके प्रथम वलयमें चन्द्र संख्या= १४४४२ (१०-२) १४४४२३ गच्छ, प्रचय एवं प्राविधन प्रादिके लक्षणगच्छ-श्रेणीके पदोंकी संख्याको अथवा जितने स्थानों में अधिक-अधिक होता जाय उन सब स्थानोंको पद या गच्छ कहते हैं । जैसे-तृतीय समुद्रकी गच्छ संख्या ३२ है। प्रचय-श्रेणीके अनुगामी पदोंमें होनेवाली वृद्धि या हानिको अथवा प्रत्येक स्थानमें जितना-जितना अधिक होता है उस अधिकके प्रमाणको प्रचय कहते हैं । जैसे-तृतीय समुद्र के प्रत्येक वलयमें ४-४ की वृद्धि हुई है। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६१८ ] सत्तमो महाहियारो [ ४३३ प्राधिन - वृद्धि के प्रमाणके बिना आदि स्थानके प्रमाणके सदृश जो धन सर्व स्थान में होता है, उसके जोड़को आदिधन कहते हैं। जैसे --तृतीय समुद्र के प्रत्येक वलय में वृद्धि के बिना चन्द्रोंकी संख्या २८८ है, अत: ( २८५३२ ) = ९२१६ श्रादिधन है । उसरघन आदि धनके बिना सर्व स्थानों में वृद्धिका जो प्रमाण है, उसके योगको उत्तरधन कहते हैं । जैसे- मुद्रा उत्तर ( ४ ) = १९४ है । सर्वधन - श्रादिधन और उत्तरके योगको सर्वधन या उभयधन कहते हैं। अंसे - ९२१६ + १९४५ = ११२०० है । - ऋण राशि - तृतीय समुद्रकी ऋणराशि ६४ मानी गई हैं । यहाँके उत्तर धन (१९४८) में यदि ६४ जोड़ दिए जाएँ और ६४ ही घटा दिये जाएँ तो उत्तर धन ज्योंका त्यों रहेगा । किन्तु ऋणराशि बना लेनेसे आगामी द्वीप समुद्रों के चन्द्रोंका प्रमाण प्राप्त करने में सुविधा हो जायगी । यह ऋणराशि भी उत्तरोत्तर दुगुनी दुगुनी होती जाती है । प्रत्येक द्वीप समुद्रके सर्व चन्द्र-बिम्बोंका प्रमाण निकालने के लिये सूत्र - सर्वधन आदिधन + उत्तरधन ( मुख × गच्छ ) + (गच्छ —- १ ) x वय × गच्छ । बाह्य पुष्करार्धद्वीप आदि वलय १४४ चन्द्र हैं और उससे दुगुने ( १४४×२) चन्द्र पुष्करवर नामक तृतीय समुद्रके यादि वलय में । इस समुद्रका व्यास ३२ लाख योजन है अतः इसमें ३२ वलय ( गच्छ ) हैं । प्रत्येक वलयमें चार-चार चन्द्र- बिम्बोंकी वृद्धि होती है। इसप्रकार मुख १४४x२ और गच्छ ३२ का परस्पर गुणा करनेसे तृतीय समुद्रके ३२ वलयोंका आादिधन ( १४४४२३२ ) या ( १४४x६४ ) = ६२१६ प्राप्त होता है । एक कम गच्छ ( ३२-१-३१) का श्राधा कर ( ३ ) जयके प्रमाण ( ४ ) से गुणित करे, जो {x४= ३१x२ ) प्राप्त हो उसका गच्छ (३२) से गुणा करनेपर ( ३१x२×३२= ३१x६४ ) उत्तरधन प्राप्त हो जाता है। यदि उत्तरधन ( ३१x६४ ) में ६४ जोड़ दिये जायें और ६४ ही घटा दिए जायें तो उत्तरधन ज्यों का त्यों रहेगा, किन्तु श्रागामी द्वीप समुद्रोंके चन्द्रोंका प्रमाण प्राप्त करने में सुविधा हो जायगी । ३१×६४ + १४६४ - ६४ या ३२४६४-६४ यह उत्तरधनका प्रमाण है । इसे प्रादिघन ( १४४x६४ ) में जोड़ देनेसे तृतीय समुद्रके उभय या सर्वधनका प्रमाण १४४४६४ + ३२x ६४ -- (६४) अथवा १७६४६४ - (६४) अथवा ११२०० होता है । अर्थात् तृतीय समुद्रमें कुल चन्द्र ११२०० हैं । इसीप्रकार वारुणीवर नामक चतुर्थद्वीप के Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपगत्तो [ गाथा : ६१८ आदिधन १४४४ ६४४४ + उत्तरधन ( ३२४६४४४ ऋण ६४४२) को जोड़नेसे १७६४६४४४ ऋण ६४४२ होता है; जो पुष्करवर समुद्रके धन १७६४ ६४ से चौगुना. और ऋण ६४ से दुगुना है। इसीप्रकार आगे-मागे प्रत्येक द्वीप-समुद्रमें धनराशि चौगुनी और ऋणराशि दुगुनी होती गई है। गच्छ प्राप्त करनेके लिए परम्परा-सूत्रका मौचित्यसंपहि एवं रासीणं ठिद-संकलणाणमाण यण उच्चदे-छ-रूवाहिय-जंबूदीयं छेदणएहि परिहीण-रज्जु छेदणाप्रो गच्छं काढूण जदि संकलणा प्राणिज्जदि तो जोदिसिय-जीव-रासी ण उपज्जदि, जगपदरस्स वे-छप्पणंगुल-सद-बग्गभाग-हाराणववत्तीवो। तेण रज्जु छेदणासु अस पि तप्पासोग्गाणं संखेज्ज - स्वाणं हारिंग काऊरण गच्छा ठवेयध्या । एवं कदे दिय - समुद्दो प्रादी ण होवि त्ति णासंकणिज्ज; सो चेव आदी होदि, सयंभूरमणसमुहस्स परभाग - समय - रज्जु - मछरणय - सलागागमणियरणकारणादो। अर्थ-अब इसप्रकार अवस्थित राशिके संकलन निकालनेका प्रकार कहते हैं-छह रूप अधिक जम्बूद्वीपक अर्धच्छेदोंसे परिहीन राजूके अर्धच्छेदोंको गच्छ राशि बनाकर यदि संकलन राशि निकाली जाती है तो ज्योतिष्क - जीवराशि उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि { ऐसा करनेपर ) जगत्प्रतरका दो सौ छप्पन अंगुलों ( सूच्यांगुलों ) के वर्ग-प्रमाण भागहार उत्पन्न नहीं होता है । अतएव राजके अर्धच्छेदोंमेंसे तत् प्रायोग्य अन्य भी संख्यात रूपोंकी हानि ( कमी) करके मच्छ स्थापित करना चाहिए । ऐसा करनेपर तृतीय समुद्र आदि नहीं होता है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह तृतीय-समुद्र ही आदि होता है । इसका कारण स्वयंभूरमण-समुद्रके परभागमें उत्पन्न होनेवाली राजूकी अर्धच्छेद-शलाकारोंका पाना है। सयंभूरमणसमुद्दस्स परवो रज्जुच्छेदणया अस्थि सि कुवो णववे ? बे-छप्पण्णंगुल-सद-बग्ग-सुत्तादो। अर्थ-(शंका }-स्वयंभूरमणसमुद्रके परभागमें राजूक अर्घच्छेद होते हैं, यह कैसे जाना ? ( समाधान ):-ज्योतिषीदेवोंका प्रमाण निकालने के लिए दो सौ छप्पन सूच्यंगुल के वर्गप्रमाण जगत्प्रतरका भागहार बतानेवाले सूत्रसे जाना जाता है। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ६१८ ] सत्तमो महाहियारो [ ४३५ 'जतियारिण बीव - सायर - रूवाणि अंबतीय - च्छेदणाणि छ - रूवाहियारिण तत्तियाणि रज्जु-चछेदणाणि' त्ति परियम्मेणं एवं वक्खाणं किं ग विरुझदे ? एदेण सह विज्झवे, किंतु सुत्तेण सह ण विरुज्झवि । तेणेदस्स वक्खाणस्स गहणं कायदवं, ण परियम्मसुचस्स; सुस-विरुद्धत्तादो । ण सुत्त-विरुद्ध वक्खाणं होदि, अविष्पसंगायो । तत्थ जोइसिया गस्थि ति कुदो गयवे ? एवम्हादो चेव सुत्तादो। अर्थ--मांका-'जितनी द्वीप और समुद्रोंको संख्या है, तथा जितने जम्बूद्वीपके अर्धन्छेद होते हैं, छह अधिक उतने ही राजूके अर्धच्छेद होते हैं' इसप्रकारके परिकर्म-सूत्रके साथ यह व्याख्यान क्यों न विरोधको प्राप्त होगा? समाधान-यह व्याख्यान परिकर्मसूत्रके साथ विरोधको प्राप्त होगा, किन्तु ( प्रस्तुत ) सूत्र के साथ तो विरोधको प्राप्त नहीं होता है । इसलिए इस व्याख्यानको ग्रहण करना चाहिए, परिकर्मके सूत्रको नहीं । क्योंकि वह सूत्रके विरुद्ध है, और जो सूत्र-विरुद्ध हो, वह व्याख्यान नहीं माना जा सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है । शंका-नदी स्वयंभूरमासाद परभाग ) योनिको देव नहीं है, यह कैसे जाना? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। एसा तप्पासोग्ग-संखेज्ज-रूवारि 'जंबूदीय-छेदणय-सहिद-दीव-सायर-रूवमेसरज्जुच्छेद-पमाण-परिक्खा-विही' ण अण्णाइरिय' - उपदेस - परंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपण्णत्ति-सुत्ताणुसारिणी, जोविसियदेव-भागहार-पतुप्पाइय-सुत्तावलंबि-जुत्ति-बलेख पयव-गच्छ-साहपट्टमेसा परूवणा परूविदा । तदो रण एत्थ "इवमिस्थमेवेत्ति एयंतपरिग्गहेण' असग्गहो कायन्बो, परमगुरु-परंपरागप्रोबएसस्स जुचि - बलेण "बिहडाषेवुमसक्कियत्तादो, अविदिएसु पदस्थेसु छचुमत्य-वियप्पाणमविसंवाद-णियमाभावादो। 'तम्हा पुग्याइरिय-वक्खाणापरिच्चाएण' एसा वि दिसा' हेदु-वावाणुसारि-उप्पण्ण-सिस्साणरोहेण अउप्पण्ण-जण-उप्पायणटुं च दरिसेदव्या । तबो ग एत्य "संपवाय - विरोहासंका कायस्वा त्ति । १.द. य. दीवत्तोदणय । २. द. ब, क. वीही। ३ द. ब. क. अण्णाहरियाचवदेसपरंपराणुसारिणे । ४. द.प. सुतारणसारि । ५. ६. ब. क. ज. इदमेत्यमेवेत्ति । ६. द. ब. क. ज. परिगहो ण । ७. ६. ब. क. ज. विहदाबेदु । ८. द. ब. क. तहा। ६. द. ब. क. ज. वक्खापरिचाएण। १०. द. क. ज. विधोसा। ११. द. र. क. ज. संपदाए विरोधो । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ६१८ अर्थ -- तत्प्रायोग्य संख्यात रूपाधिक जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदों सहित द्वीप सागरोंकी संख्या प्रमाण राजू सम्बन्धी अर्धच्छेदों के प्रमाणकी परीक्षा - विधि अन्य याचायोंके उपदेशकी परम्पराका अनुसरण करनेवाली नहीं है । यह तो केवल त्रिलोकप्रज्ञप्ति सूत्रका अनुसरण करनेवाली है । ज्योतिषी देवोंके भागहारका प्रत्युत्पादन ( उत्पन्न ) करनेवाले सूत्रका झालम्बन करनेवाली युक्तिके बलसे प्रकृत- गच्छको सिद्ध करने के लिए यह प्ररूपणा की गई है । अतएव यहाँ 'यह ऐसा ही है' इस प्रकारके एकान्तको ग्रहण करके कदाग्रह नहीं करना चाहिए। क्योंकि परमगुरुओंकी परम्परासे श्राये हुए उपदेशको इसप्रकार युक्ति के बलसे विघटित करना अशक्य है। इसके अतिरिक्त अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में अल्पज्ञोंके द्वारा किय गये विकल्पोंके अविसंवादी होनेका नियम भी नहीं है। इसलिए पूर्वाचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न कर हेतुवाद ( तर्कवाद ) का अनुसरण करनेवाले व्युत्पन्न शिष्योंके अनुरोधसे तथा अव्युत्पन्न शिष्य-जनों के व्युत्पादनके लिए इस दिशाका दिखाना योग्य ही हैं, श्रतएव यहाँ पर सम्प्रदाय के विरोध की आशंका नहीं करनी चाहिए । विशेषार्थ - ज्योतिषी देवोंकी संख्या निकालने के लिए द्वीप सागरोंकी संख्या निकालना आवश्यक है । परिकर्मके सूत्रानुसार द्वीप समुद्रोंकी संख्या उतनी है जितने छह अधिक जम्बूद्वीप के श्रच्छेद कम राजू के अर्थ च्छेद होत हैं । ( मेरु एवं जम्बूद्वीपादि पाँच द्वीप- समुद्रों में जो राजूके अर्ध च्छेद पढ़ते हैं वे यहाँ सम्मिलित नहीं किये गये हैं, क्योंकि इन द्वीप समुद्रोंकी चन्द्र संख्या पूर्व में कही जा चुकी है } 1 किन्तु तिलोय पण्णत्तीके सूत्रकारका कहना है कि ( २५६ ) के भागहारसे ज्योतिषी देवोंका जो प्रमाण प्राप्त होता है यदि वही प्रमाण इष्ट है तो राजू के अर्ध च्छेदोंमेंसे जम्बूद्वीप के अर्ध च्छेदों के अतिरिक्त छह ही नहीं किन्तु छहसे अधिक संख्यात अंक और कम करना चाहिए । इतना कम करने के बाद ही द्वीप सागरोंकी वह संख्या प्राप्त हो सकेगी जिसके द्वारा ज्योतिषी देवोंका प्रमारण ( २५६ ) * भागहारके बराबर होगा । छह अच्छेदके अतिरिक्त संख्यात अंक और कम करनेका कारण यह दर्शाया गया है। कि स्वयंभूरमणसमुद्रको बाह्य वेदीके श्रागे भी पृथिवीका प्रस्तित्व है; वहीं राजूके श्रच्छेद उपलब्ध होते हैं, किन्तु वहाँ ज्योतिषी देवोंके विमान नहीं हैं । इसप्रकार युक्तिबल से सिद्ध कर देनेके पश्चात् भी ग्रन्थकारको परम निरपेक्षता एवं पूर्ववर्ती श्राचार्योंके प्रति दृढ़ श्रद्धा दर्शनीय है । वे लिखते हैं कि - 'यह ऐसा ही है' इसप्रकार एकान्त इठ "यह दिशा भी दिखानी चाहिए । पकड़कर एण बिहाणेण परुविद - गच्छ विरलिय रूवं पडि चत्तारि रुवाणि दावूण अण्णोष्णभस्थे' कदे किन्तिया जादा इदि वृत्ते संखेज्ज-रूव-गुरिणय े जोयण - लक्खस्स C १. व. ब. क. ज. मंडे । २. द. ब. क. ज. गुणिदे । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३७ गाथा ! ६१८ ] सत्तमो महाहियारो वग्गं पुणो सत्त-रुवस्स कविए गुणिय चउसद्वि-रूव-बम्गेहि पुणो वि गुणिय जगपदरे भागे हिदे तत्थ लद्धमत्तं होवि । । ७ । ६४ । ६४ । १० । ७ । अर्थ- इस उपर्युक्त विधान के अनुसार पूर्वोक्त गच्छका बिरलन कर एक-एक रूपके प्रति चार-चार रूपोंको देकर परस्पर गुणा करनेपर कितने हुए ? इसप्रकार पूछने पर एक लाख योजनके वर्ग को संख्यात-रूपोंसे गुणित करके पुनः सात रूपोंकी कृति से गुणा करके पुनरपि चौंसठ रूपोंके वर्गसे गुणा करके जगत्प्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो, तत्प्रमाण होते हैं। विशेषार्थ-उपयुक्त विधानानुसार स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त के सभी द्वीप-समुद्रोंमें स्थित वलयोंके चन्द्र-बिम्बोंकी राशि प्राप्त करने हेतु धन-राशि तथा ऋण राशि अलग-अलग स्थापितकी जातो है और राजूगेदोंकी रामापासे मानसूनःप अझ पर्यन्तकी समस्त वलय-संख्या गच्छ रूपमें स्थापित की जाती है । यहा सर्व प्रथम धन रूप राशि प्राप्त करना है। इसके लिए तीन संकलन आवश्यक हैं। जो इसप्रकार हैं- (१) आदि १७६४ ६४ (२) गुणकार प्रचय ४ और (३) गच्छ । यहाँ गच्छका प्रमाण ( १ राजूके अर्घच्छेद )-( ६ अधिक जम्बूद्वीपके अच्छेद ) हैं । अथवा-( जगच्छ्रेणीके अर्धच्छेद ) - (३) - (६) - (जम्बूद्वीपके अर्ध नछेद) हैं । इस गच्छमेंसे ऋण राशि (-३-६जम्बद्वीपके अर्धच्छेद ) को अलग स्थापित कर देनपर गच्छ जगच्छणीके अर्धच्छेद प्रमाण रह जाता है। 'सव्व-गच्छा अण्णोण्णं पेक्खिदूण चउम्गुण-कमेण अदिदा' अर्थात् सब गच्छ परस्परकी अपेक्षा चौमुने क्रमसे अवस्थित हैं। पूर्व कथित इस नियमके अनुसार गुणकार ४ अर्थात् २४२ है। यहाँ धनरूप जपणीके अर्धच्छेद गच्छ है । इसका विरलनकर प्रत्येक एक-एकके प्रति २ को देय देकर परस्पर गुणा करनेपर जगच्छ्रेणी प्राप्त होती है और इन्हीं जगच्छु णीके अर्धच्छेदों का विरलनकर प्रत्येकके प्रति ४ अर्थात् २४ २ देय देकर परस्पर गुरिणत करनेपर जगत्पतर प्राप्त होता है । यह राशि धनात्मक होनेसे अंश रूप रहेगी। अब यहाँ पृथक् स्थापित ऋणरूप गच्छका विश्लेषण किया जाता है ---(३)-(६) और जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद रूपसे ऋण राशियां तीन हैं । इनमें से सर्वप्रथम जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद कहते हैं Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६१८ जम्बूद्वीप १ लाख योजन विस्तारवाला है। इस एकलाखको उत्तरोत्तर अर्ध-अर्ध करनेपर १७ अर्धच्छेद प्राप्त होते हैं और एक योजन शेष रहता है। इन १७ अर्धच्छेदोंका विरलन कर प्रत्येक पर २४२ देय देकर परस्पर गुणा करनेसे १ लाख ४१ लाख प्राप्त होते हैं। अवशेष रहे एक योजनके ७६८००० अंगुल होते हैं। इन्हें उत्तरोत्तर अर्ध-अर्ध करनेपर १९ अर्धच्छेद प्राप्त होते हैं और १ अंगुल शेष रहता है। इन १९ अर्धच्छेदोंका विरलनकर प्रत्येक अंक पर २ x २ देय देकर परस्पर गुणा करनेसे ७६५०००४७६८००० होते हैं। शेष एक अंगुलके अर्धच्छेद प्रमाण २४२ को परस्पर गुरिणत करनेपर अंगुल x अंगुल' अर्थात् प्रतरांगुल' प्राप्त होता है । इसप्रकार ऋणात्मक जम्बूदीपके अर्धच्छेदों की राशिका प्रमाण १ लाख ४१ लाख ४७६८००० ४७६८००० x प्रतरांगुल है। ६ के अर्धच्छेद-जम्बूद्वीपादि पांच द्वीप और समुद्रोंके पांच और एक मेरु पर्वत का। इसप्रकार ये ६ मच्छिंद अनुपयोगी होनेसे घटा दिये गये हैं । इन ६ का विरलन कर प्रत्येकके प्रति २x२ देय देकर परस्पर गुणा करनेसे ६४४ ६४ प्राप्त होते हैं । -३ के अर्धच्छेद-जगच्छणी ७ राजू प्रमाण है। इन ७ राजुओंका उत्तरोत्तर अर्धापर्धा करनेपर ३ अर्धच्छेद प्राप्त होते हैं । इन ३ अर्धच्छेदोंका विरलनकर प्रत्येकके प्रति २x२ देय देकर प्रापसमें गुणा करनेसे ७४७ प्राप्त होते हैं। इसप्रकार ऋण राशिका संकलित प्रमाण १ लाख ४१ लाख ४७६८००० ४७६८०००४ प्रतरांगुल ४६४ x ६४४७४७ है। यह राशि ऋणात्मक होनेसे भागहार रूप रहेगी पूर्वोक्त अंश रूप जगत्प्रतरमें भागहार रूप इस राशिका भाग देनेपर लब्ध इसप्रकार प्राप्त होता है जगत्प्रतर १ लाख १ लाख ४७६८०००४७६८००० x प्रत० x ६४४६४४७४७ उपर्युक्त गद्यमें आचार्यश्री ने यही कहा है कि-गच्छका विरलनकर प्रत्येक रूप पर ४-४ देय देकर परस्पर गुणा करनेसे १ लाख योजनके वर्ग ( १ ला० x १ ला० ) को संख्यात रूपों (७६८००० ४७६८००० x प्रतरांगुल ) से गुणित करनेपर पुनः सात रूपोंकी कृति (७४७) से गुणा करके पुनरपि चौंसठ रूपोंके वर्ग (६४४६४) से गुणाकर जगत्प्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण है। मूलमें जो संदृष्टि दी गई है, उसका अर्थ इसप्रकार है Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६१८ ] सत्तमो महाहियारो [ ४३६ =जगत्प्रतर, ७ । ७ का अर्थ है ७४७ | आगे ६४ x ६४ । १०° का अर्थ है १०००००×१००००० और ७ का अर्थ संख्यात है । • पुणो एवं बुट्टाणे ठविय एक्क- रासि बे-सय- अट्ठासी दि-रूमेह गुरिषदे सव्व श्रादिधण पमाणं होदि । २८८ ।। ७ । ६४ । ६४ । १० । ७ । अवर- रासि चउसट्ठिरूहि गुणिदे सध्व वचय-धणं होवि । ६४ । । ७ । ६४ । ६४ । १० । ७ । एदे दो रासो मेलिय' रिण रासिमवणिय गुणगार - भागहार- रुवाणि मोबट्टाविय-भागहारभूद-संखेज्ज- रूव-गुणिव जोयण- लक्ख-वग्गं पवरंगुले कवे संखेज्ज रूह गुणिव पण्णट्टसहस्स पंच सय छत्तीस रूवमेत पदरंगुलेहि जगपदरमवहरियमेतं सव्व - जोइसिय- बिब६५५३६ । ७ । पमाणं होदि । तं चेदं - पुणो एक्कम्मि बिबम्मि तप्पा उग्ग संखेज्ज-जीवा श्रत्थि त्ति तं संखेज्ज-रूवे ह गुणिदेसि सम्ब-जोइसिय-जीव रासि परिमाणं होदि । तं चेदं । ६५५३६ । अर्थ - पुनः इसे दो स्थानोंमें रखकर एक राशिको दो सौ अठासी से गुणा करनेपर सब श्रादि धन होता है; और इतर राशिको चौंसठ रूपोंसे गुणा करनेपर सर्व प्रचय-धनका प्रमाण होता है | इन दो राशियोंको मिलाकर ऋण राशिको कम करते हुए गुणकार एवं भागहार रूपों को अपवर्तित करके भागहार-भूत संख्यात- रूपोंसे गुणित एक लाख योजनके वर्ग के प्रतरांगुल करनेपर संख्यातरूपोंसे गुणित पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस रूपमात्र प्रतरांगुलोंसे भाजित जगत्प्रतर- प्रमाण सब ज्योतिषी बिम्बोंका प्रमारण होता है । वह यह है- ६५५३६ | ७ | पुनः एक बिम्बमें तत्प्रायोग्य संख्यात जीव विद्यमान रहते हैं, इसलिए उसे संख्यात- रूपों से गुणा करनेपर सर्व ज्योतिषी जीव - राशिका प्रमारण होता है । वह यह है- । ६५५३६ । विशेषार्थ - उपर्युक्त गद्य में प्राप्त राशिको दो स्थानों पर स्थापित कर पृथक्-पृथक् २८८ और ६४ से गुणित कर प्राप्त हुए त्रादिधन और प्रचयघन को सम्मिलित करने के लिए कहा गया है । जो इसप्रकार है : :― प्राप्त राशि= आदिधन जगत्प्रतर प्रतरांगुल १ लाख x १ लाख x संख्यात ६४ x ६४ x ७ × ७ २५८ जगत्प्रतर प्रतरांगुल x १ लाख × १ लाख x संख्यात ६४ ६४ x ७७ १. द. ब. मेलि । २.द. ब. क. अ. गुणहार । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६१८ ६४ जगत्प्रतर प्रचयधन -प्रतरांगल x १ ला० x १ ला. संख्यात x ६४४ ६४ x ७ x ७ २८८ जगत्प्रतर [ प्रतरांगुल ४ १ ला० x १ ला० x सं० x ६४ x ६४ x ७xit ६४ जगत्प्रतर [प्रतरांगुल x १ ला० x १ ला० x संख्यात ४ ६४४६४ ४७४७ ] ३५२ जगत्प्रतर प्रादिधन+प्रचयधन [प्रतरांगल x १ ला. ४१ ला० x संख्यात x ६४४ ६४ ४७४७] इस आदिधन और प्रचयधनकी सम्मिलित राशिमेंसे ऋणराशि घटाने को कहा गया है। जो इसप्रकार है यहाँ ऋणराशिका संकलन करने हेतु आदि ६४ है, प्रचय २ है और गच्छ- जगच्छ्रेणीके अर्धच्छेदोंमेंसे साधिक जम्बूद्वीपके अच्छेद घटा देनेपर जो प्रवशेष रहे वह है । ____६४ जगच्छ्रेणी तदनुसार इसका संकलन सूच्यंगुल संख्यात x ६४x७४ १ ला० ।। आदि एवं प्रचयधनको सम्मिलित राशिमेंसे घटाना है । यथा : ३५२ जगत्प्रतर प्रतसंगल X १ ला० x १ ला• x सं० x ६४ x ६४७ - ६४ जगच्छ्रेणी सूच्यं० x सख्यात ४ ६४ x ७ x १ ला. ३५२ जगत्प्रतर-६४ जगच्छुणी (सूच्य०४ संख्यात ४६४१७४१ ला० ) [प्रतरांगुल ४१ ला० ४ १ ला० संख्यात ४१६४७४७४६४४ ६४] जगत्प्रतर...- या , ६५५३६ । ७ यह सर्व ज्योतिषी बिम्बोंका प्रमाण “प्रतरांगुल x ६५५३६४७ " प्राप्त हुआ। एक ज्योतिषी बिम्बमें संख्यात जीव रहते हैं अतः उपर्युक्त प्राप्त हुए ज्योतिष-बिम्बोंके प्रमाणमें संख्यात (७) का गुणा करनेसे सर्व ज्योतिषी देवोंका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६१९-६२२ ] सत्तमो महाहियारो [ ४४१ _ जगत्प्रतर संख्यात (७) - जगत्प्रतर या । ६५५३६ सर्व ज्योतिषीदेवोंका "प्रतरांगुल ४६५५३६४७ ०४६५५३६ - प्रमाण है। नोट-ज्योतिषी देवोंके बिम्बोंका प्रमाण निकालते समय प्राचार्य देवने संक्षिप्त करने हेतु यहाँ कुछ संख्याओंका भन्तर्भाव संख्यातमें कर दिया है। इसका विशेष विवरण सन् १९७६ में प्रकाशित त्रिलोकसार गाथा ३६१ की टीकामें द्रष्टव्य है । ज्योतिषी देवोंकी प्रायुका निरूपणचंबस्स सद - सहस्सं, रविणो सवं च सुक्कस्स । वासाधिएहि पल्लं, तं' पुण्णं घिसण - णामस्स ॥६१६॥ सेसाणं तु गहाणं, पल्लख पाउगं मुणेदव्यं । ताराणं तु जहण्णं, पावद्ध पारमुक्कस्सं ॥६२०॥ प १ । व १००००० । ११ । १७७० ११ १२ १६० । ५११६६५३ पाऊ समत्ता ॥ मथं-चन्द्रको उत्कृष्टायु एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य ( १ पल्य+१००००० वर्ष ), सूर्यकी एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य ( १ पल्य+१०००), शुक्र ग्रहकी १०० वर्ष अधिक एक पल्य (१ पल्य+१०० वर्ष) और गुरुकी उत्कृष्टायु एक पल्य-प्रमाण है। शेष ग्रहोंकी-उत्कृष्टायु अर्थपख्य प्रमाण है और ताराओंकी उत्कृष्टायु पल्यके चतुर्थभाग ( : पल्य ) प्रमाण है तथा सर्व ज्योतिषी देवोंको जघन्यायुका प्रमाण पल्यके आठवें भाग (पल्य) है ॥६१९-६२०॥ इसप्रकार प्रायुका कथन समाप्त हुआ ।।८।। आहार आदि प्ररूपणाओंका दिग्दर्शनआहारो उस्सासो, उच्छेहो प्रोहिगाण - सत्तीओ । जीवाणं उप्पत्ती - मरणाई एक्क - समयम्मि ॥६२१॥ आऊ-बंधण-भावं, वंसण - गहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणावि - पक्षणण, भावणलोमो ग्य बसवं ॥२२॥ १. द. क. ज. ते घुट्ट वरिसणामस्स, ब. ते पुटुरिसणामस्स । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाया: ६२३-६२४ अर्थ - आहार, उच्छ्वास, उत्सेध, अवधिज्ञान, शक्ति, एक समय में जीवोंकी उत्पत्ति एवं मरण, आयुके बन्धक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण और गुणस्थानादिका वर्णन भावनलोकके सदृश कहना चाहिए ।।६२१-६२२ । शरीर के उत्सेध आदिका निर्देश वरि य जोइसियाणं, उच्छेहो सत्त-खंड- परिमाणं । ओही असंख-गुणिर्व, सेसाओ होंति जह जोगं ॥ ६२३ ।। अर्थ - विशेष यह है कि ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊँचाई सास धनुष प्रमाण और अवधिज्ञानका विषय असंख्यातगुरगा है ।। ६२३।। अधिकारान्त मंगलाचरण ईद-सवगणिताणं प्रणत-सुह णाण विरिय वंसरणयं । भव्य कुमुद्देषक चंदं, विमल जिणिदं णमस्सामि ||६२४|| · - - एवमाइरिय-परंपरा-गय-तिलोय पण्णत्तीए जोइ सिय- लोय-सरूव णिरुवण-पण्णत्ती णाम सतमो महाहियारो समत्तो ॥ अर्थ--- जिनके चरणों में सहस्रों इन्द्रोंने नमस्कार किया है और जो अनन्त सुख, ज्ञान, वीर्य एवं दर्शनसे संयुक्त तथा भव्यजनरूपी कुमुद्दोंको विकसित करने के लिए अद्वितीय चन्द्रस्वरूप हैं ऐसे विमलनाथ जिनेन्द्रको में नमस्कार करता हूँ ||६२४॥ इसप्रकार आचार्य परम्परासे प्राप्त हुई त्रिलोक प्रज्ञप्ति में ज्योतिर्लोक-स्वरूप-निरूपण प्रज्ञप्ति नामक सातवाँ महाधिकार समाप्त हुआ। ! 7 J ! I Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती अट्ठमो महाहियारो 690 मङ्गलाचरण कम्म- कलंक - विमुक्कं केवलणाणे हि बिट्ट-सयलट्ठ | रामिकण श्रणंत-जिणं, भणामि सुरलोय-पर्णाति ॥ १॥ अर्थ- कर्मरूपी कलङ्कसे रहित, केवलज्ञान में सम्पूर्ण पदार्थोंको देखने वाले अनन्तनाथ जिनको नमस्कार कर में सुरलोक-प्रज्ञप्तिका कथन करता हूँ ॥१॥ इक्कीस अन्तराषिकारोंका निर्देश सुरलोय - निवास - खिदि, विष्णासो भेव णाम सीमाश्रो । संखा दविभूवी, आऊ उत्पत्ति मरण अंतरयं ॥२॥ आहारो उस्तासो, उच्छेहो तह य देव लोयम्मि । आउग बंधण भावो देवा लोयंतियाण तहा ॥३॥ गुणठाणादि-सरूवं, दंसण गहणस्स कारणं विविहं । आगमण मोहिणाणं, सुराण' संखं च सतीश्रो ॥४॥ जोणी इदि इगिवीस, अहियारा बिमल बोह-जणणीए । जिरण - मुहकमल - विणिग्गय- सुर- जग पण्णत्ति-णामाए ||५|| - १ द. सुमो, ब. क. ज. उ. सुराउ । - Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६-७ प्रर्थ-सुरलोक निवास क्षेत्र १, विन्यास २, भेद ३, नाम ४, सीमा ५ संख्या ६, इन्द्रविभूति ७, आयु, उत्पत्ति एवं मरणका अन्तर ९, आहार १०, उच्छ्वास ११, उत्सेध १२, देवलोक सम्बन्धी ग्रायुके बन्धक भाव १३, लौकान्तिक देवोंका स्वरूप १४ गुणस्थानादिकका स्वरूप १५, दर्शन-ग्रह के विविध कारण १६, आगमन १७ अवधिज्ञान १८, देवोंकी संख्या १६, शक्ति २० और योनि २१ इसप्रकार निर्मल बोधको उत्पन्न करनेवाले जिनेन्द्रके मुखसे निकले हुए सुरलोक-प्रज्ञप्ति नामक महाधिकारमें ये इक्कीस अधिकार हैं ।। २-५।। देवोंका निवासक्षेत्र ४४४ ] उत्तरकुरु- मणुवाणं, 'एक्केणेण तह य बालेण । पणवीसुत्तर चउ सय कोदंडे हि विहीणेरा || ६ || इगिट्टी अहिएणं, लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ । મ रज्जो सत्त गणे, उडदुडु णाक पडलाणि ॥७॥ - - ७ रिणं १०००६१ रिणस्स रिणं धरणं ४२५ रिण । बा १ । | निवासखेत्तं गवं ॥१॥ अर्थ - उत्तरकुरुमें स्थित मनुष्योंके एक बाल, चार सौ पच्चीस धनुष और एक लाख इस योजनोंसे रहित सात राजू प्रमाण आकाश में ऊर्ध्व ऊर्ध्व ( ऊपर-ऊपर ) स्वर्ग-पटल स्थित हैं ||६-७|| विशेषायं - ऊध्र्वलोक मेहतलसे सिद्धलोक पर्यन्त है, जिसका प्रमाण ७ राजू है । इसमें से प्रमाण अर्थात् १०००४० योजनका मध्यलोक है । मेरुकी चूलिकासे उत्तम भोगभूमिज मनुष्यके एक बाल ऊपर स्वर्गका प्रारम्भ है। लोकके अन्त में १५७५ धनुष प्रमाण तनुवातबलय, १ कोस प्रमाण घनवातवलय और २ कोस प्रमाण घनोदधिवातवलय है । अर्थात् ४२५ धनुष कम १ योजन क्षेत्र में उपरिम वातवलय है। इसके नीचे सिद्धशिला है जो मध्यभागमें ८ योजन मोटी है और सिद्धशिलासे १२ योजन नीचे सर्वार्थसिद्धि विमानका ध्वजदण्ड है । इसप्रकार लोकान्तसे [ ( १२+5) + ( १ यो० – ४२५ धनुष = ) ] ४२५ धनुष कम २१ योजन नीचे और मेरुतलसे १०००४० यो०+ १ बाल ऊपर अर्थात् — ७] राजू - [ ( १०००४० + १ बाल ) + ( २१ योजन - ४२५ धनुष ) ] बराबर क्षेत्र में स्वर्गलोककी प्रवस्थिति कही गई है । निवास क्षेत्रका कथन समाप्त हुआ ॥ १ ॥ १. ब. एक्के पूर्ण क. ठ. ज. एक्कं णूपेण । २. द. ब. क. अ. ज. रयो द्रदुद्द । * • Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा । ८-१३ ] अट्ठमो महाहियारो [ ४४५ स्वर्ग पटलोंकी स्थिति एवं इन्द्रक विमानोंका पारस्परिक मन्तराल कणयदि-चूलि-उरि, उत्तरकुरु-मणुव-एक्क-बालस्स। परिमाणे - पंतरिदो, चे?दि ह इंदो पढमो ॥८॥ अर्थ-कनकाद्रि अर्थात् मेरुकी चूलिकाके ऊपर उत्तरकुरुवर्ती मनुष्यके एक बाल प्रमाणके अन्तरसे ( ऋजु नामक ) प्रथम इन्द्रक स्थिस है ।।८।। लोय-सिहरादु हेडा, चउ सय-परणवीस चाव होणाणि । इगिवीस - जोयणाणि, गंतुणं इंदो चरिमो ॥६॥ यो २१ । रूण वंडा ४२५ । अर्थ-लोकशिखरके नीचे चारसौ पच्चीस ( ४२५ ) धनुष कम इक्कीस योजन प्रमाण बाकर अन्तिम इन्द्रक स्थित है ॥९॥ सेसा य एक्कसट्टो, एदाणं इंदयाण विच्चाले । सव्वे अणाइ-णिहणा, रयण - मया इंक्या होति ॥१०॥ अर्थ-शेष इकसठ इन्द्रक इन दोनों इन्द्रकों के बीचमें हैं । ये सब रत्नमय इन्द्रक विमान अनादि-निधन हैं ॥१०॥ एक्केक्क-इंदयस्स य, 'विच्चालमसंख-जोयणाण-पमा। एदाणं णामाणि, वोच्छामो प्राणुपुवीए ॥११॥ अर्ष एक-एक इन्द्रकका अन्तराल असंख्यात योजन प्रमाण है । अब इनके नाम अनुकमसे कहते हैं ॥११॥ ६३ इन्द्रक विमानोंके नाम--- उज्छु-विमल-चर-णामा, घग्गू वीरारुणा य गंदणया । पलिणं कंचण - रहिरं, 'चंचं मरदं च रिद्धिसयं ॥१२॥ धेलिय-श्चक-रुचिरक-फलिह-तवणीय-मेध-अम्भाई । हारिद्द - पउम - णामा, लोहिन - बज्जाभिहाणेणं ॥१३॥ १.द.व.क.ज. ठ. विच्चाले संखजोयणाण समा। २ द.ब.क.ज, ठ. चंदं मरद पदिसयं । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाया । १४-१८ रावत्त-पहंकर-पिटक-गज-मिस-पह य अंजणए'। वर्णमाल-णाग-गरुडा, लंगल-बलभद्द-चपकरिहामि ॥१४॥ सुरसमिवी-बम्हाई, बम्हुत्तर-अम्हहिवय-संतवया । महसुक्क-सहस्सारा, आणव-पाणद य-पुष्फक्रया ॥१५॥ सायंकरारणच्चद • सुवंसणामोघ - सुप्पबुद्धा य । जसहर-सुभद्द-सुविसाल सुमणसा तह य सोमगसो ॥१६॥ पीरिकर-प्राइच्चं, चरिमो सव्वट्ठ-सिद्धि-रणामो ति। तेसट्ठी समवट्टा, णाणावर - रयण • णियर - मया ॥१७॥ अर्थ-ऋतु १, विमल २. चन्द्र ३, वल्गु ४, वीर ५, अरुण ६, नन्दन ७, नलिन =, कंचन ६, रुधिर १० (रोहित), चंचत् ११, मरुत् १२, ऋद्धीश १३, वैडूर्य १४, रुचक १५, रुचिर १६, अंक १७, स्फटिक १८,तपनीय १६,मेघ २०,अभ्र २१,हारिद्र २२,पद्म २३,लोहित २४,यच २५,नंद्यावतं २६, प्रभंकर २७, पृष्ठक २८, गज २६, मित्र ३०, प्रभ ३१, अंजन ३२, वनमाल ३३, नाग ३४, गरुड़ ३५, लांगल ३६, बलभद्र ३७, चक्र ३८, अरिष्ट ३९, सुरसमिति ४०, ब्रह्म ४१, ब्रह्मोत्तर ४२, ब्रह्महृदय ४३, लांतब ४४, महाशुक्र ४५, सहस्रार ४६, आनत ४७, प्राणत ४८, पुष्पक ४६, शांतकर ५०, आरण ५१, अच्युत ५२, सदर्शन ५३, अमोघ ५४, सुप्रबुद्ध ५५. यशोधर ५६. सुभद्र ५७, सुविशाल ५८, सुमनस ५९, सौमनस ६., प्रीतिकर ६१, आदित्य ६२ और अन्तिम सर्वार्षसिद्धि ६३, इसप्रकार ये समान गोल और नाना उत्तम रत्नसमूहोंसे रचे गये तिरेसठ (६३) इन्द्रक विमान हैं ।।१२-१७॥ प्रथम और अन्तिम इन्द्रक विमानोंके विस्तारका प्रमाणपंचत्ताल लक्खं, जोयणया इंवो उरूपढमो। एक्कं जोयण - लक्षं, चरिमो सम्वसिद्धी य॥१८॥ ४५००००० । १०००००। ......अंजणमो.क.मंजणमणामो। २.द.व.क.ज, ठ, भह । ३.६.ब.क, ज.ठ.६ ४. प. पढमे। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १९-२१ ] अमो महाहियारो [ ४४७ अथ प्रथम ऋतु नामक इन्द्रक विमान पंतालीस लाख (४५००००० ) योजन और अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमान एक लाख ( १००००० ) योजन प्रमाण विस्तार युक्त हैं ।। १८ ।। इन्द्र विमानोंकी हानि - वृद्धिका प्रमाण एवं उसके प्राप्त करने की विधि -- हमे चरिमं सोहिय, रूवो णिय- इ वय -प्पमाणेणं । भजिणं जं लद्धं, ताओ इह हारिण बड्ढीओ ॥१६॥ - ते रासि ६२ । ४४००००० | १ | अर्थ- प्रथम इन्द्रक के विस्तारमेंसे अन्तिम इन्द्रकके विस्तारको घटाकर शेष में एक कम इन्द्रक - प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना यहाँ हानि-वृद्धिका प्रमाण समझना चाहिए ।। १६ ।। सर-सहरस-व-सय- सगसट्ठी - जोयणाणि तेवीसं । साइगितीस हवा, हाणो पढमादु चरिमबो' वड्डी ॥२०॥ ७०९६७ । १ । अर्थ-सत्तर हजार नौ सौ सड़सठ योजन और एक योजनके इकतीस भागों में से तेईस भाग अधिक ( ७०९६७ यो० ) प्रथम इन्द्रककी अपेक्षा उत्तरोत्तर हानि और इतनी ही अन्तिम इन्द्रककी अपेक्षा उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई है ||२०|| विशेषार्थ--: -- प्रथम पटलके प्रथम ऋजु विमानका विस्तार मनुष्यक्षेत्र सहा ४५ लाख योजन प्रमाण है और अन्तिम पटल के सर्वार्थसिद्धि नामक अन्तिम विमानका विस्तार जम्बूद्वीप सदृश एक लाख योजन प्रमाण है । इन दोनोंका शोधन करनेपर ( ४५००००० १००००० } = ४४००००० योजन अवशेष रहे । इनमें एक कम इन्द्रकों ( ६३ - १६२ ) का भाग देनेपर ( ४४०००००÷ ६२ ): ७०९६७ योजन हानि और वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है । इन्द्रक विमानोंका पृथक्-पृथक् विस्तार चउवाल- लक्ख-जोयण, उणतीस सहस्तयारिण बत्तीसं । इगितीस हिदा श्रद्धय, कलानो विमलिक्यस्स वित्वारो ॥ २१ ॥ - ४४२९०३२ । ॐ । अर्थ - चवालीस लाख उनतीस हजार बत्तीस योजन और इकतीससे भाजित आठ कला अधिक (४४२९०३२०१ योजन ) विमल इन्द्रक के विस्तारका प्रमाण कहा गया है ||२१|| १. ब. परिमजुवो। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] तिलोयपणती [ गाथा : २२-२६ तेवाल-लक्ख-जोपण-अट्ठावण्णा-सहस्स • चउसट्ठी । सोलस - कलाओ सहिवा, चंदिवय-5द-परिमाणं ॥२२॥ __ ४३५८०६४ । । अर्थ-तैतालीस लाख अठ्ठावन हजार चौंसठ योजन और सोलह कलानों सहित ( ४३५८०६४१ योजन ) चन्द्र इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण है ।।२२॥ बादाल-लक्ख-जोयण, सगसोदि-सहस्सयाणि अण्णउदी । बोरर मरणः हो, बग्गु - विमाणस्स णादब्वं ॥२३॥ ४२८७०६६ । । । प्रर्थ-बियालीस लाख सतासी हजार छयानबै थोजन और चौबीस कला अधिक ( ४२८७०९६१ योजन ) वल्गु विमानका विस्तार जानना चाहिए ।।२३॥ बाबाल-लाख-सोलस-सहस्स-एक्कसय-जोयणारिण च। उपतीसहियाणि, एक्क-कला वीर-बए दो ॥२४॥ मर्थ-वीर इन्द्रकका विस्तार बयालीस लाख सोलह हजार एक सौ उनतीस योजन और एक कला अधिक ( ४२६६१२६ यो० ) है ।।२४।। एक्कत्ताल लक्खं, पणदाल-सहस्स-जोयणेक्फ-सया । इगिसट्ठी अमहिया, णव अंसा अरुण' - इंदम्मि ॥२५॥ ___४१४५१६१ ।।। मर्ष - अरुण इन्द्रकका विस्तार इकतालीस लाख पैतालीस हजार एक सौ इकसठ योजन और नौ भाग अधिक ( ४१४५१६१यो० ) है ।।२५।। चउहतरि सहस्सा, तेग उदि-समधियं च एक्क-सयं । चालं जोयण-सवला, सत्तरस कलामो पंदणे वासो ॥२६॥ ४०७४१९३ । । अर्थ-नन्दन इन्द्रकका विस्तार चालीस लाख चौहत्तर हजार एक सौ तेरान योजन और सत्तरह कला अधिक ( ४०७४१९३५ योजन ) है ।।२६।। १. द.ब. क. ज. ठ. वरुण । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । २७-३१] अट्ठमो महाहियारो [ ४४९ चालं जोयण-लक्खं, ति-सहस्सा ले सयाणि पणुवोसं । पणवीस-कला'-एसा, 'विरथारो 'गलिण - इबस्स ॥२७॥ ४००३२२५ । । मर्म नलिन इन्त्रकका विस्तार चालीस लाख तीन हजार दो सौ पच्चीस योजन और पच्चीस कला अधिक ( ४००३२२५१ योजन ) जानना चाहिए ॥२७॥ उणताल लक्ख-ओयण-बत्तीस-सहस्स-दो-सयारिंग पि । अट्ठावण्णा दु - कला, कंचग - णामस्स वित्यारो॥२८॥ ३६३२२५८ । । प्रयं-कञ्चन नामक इन्द्रकका विस्तार उनतालीस लाख बत्तीस हजार दो सौ अट्ठावन योजन और दो कला ( ३९३२२५८, यो० ) प्रमाण है ॥२८॥ अडतोस-पल मोयण, इनिसह-सपी समामि वि। णउदि - जुवाणि वसंसा, रोहिद - णामस्स विस्थारो ॥२६॥ ३८६१२६० । । अर्थ-रोहित नामक इन्द्रकका विस्तार अड़तीस लाख इकसठ हजार दो सौ नब्बै योजन और दस भाग अधिक ( ३८६१२९०३१ योजन ) है ।।२९।। सगतोस-लक्ख-जोयण, णउचि-सहस्साणि ति-सय-बाबोसा । अट्ठारसा कलाप्रो, 'धंचा - णामस्स विक्खंभो ॥३०॥ ३७९०३२२ । । अर्थ-चंचत् नामक इन्द्रकका विस्तार सेंतीस लाख नब्बे हजार तीन सौ बाईस योजन और अठारह कला अधिक ( ३७९.३२२३६ योजन ) है ।।३०।। सत्तत्तीसं लक्खा, उगवीस-सहस्स-ति-सय-जोयमया । पउवण्णा छब्बीसा, कलाप्रो मरवस्स विक्खंभो ॥३॥ ३७१९३५४ । । १.८, ब. क. कलाए साधिय, ज. ४. फलाए सा। २. ब. ज. क. विपारे। ३. द. ब. क. प. ४. पलिए इंदस्स विष्णेयो। ४. द. ब. क. ज. ठ, चंदा । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] तिलोयपण्णत्ती [ माथा ! ३२-३६ अर्थ-मरुत् इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण सैंतीस लाख उन्नीस हजार तीन सौ चौवन योजन और छब्बीस कला अधिक ( ३७१९३५४॥ योजन ) है ।।३१।। छत्तीसं लक्खाणि, पडदाल-सहस्स-ति-सय-जोयणया। सगसीदी तिष्णि-कला, रिद्धिस'-रुदस्स परिसंखा ॥३२।। ३६४१३८७ । । प्रयं-ऋद्धीश इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण छत्तीस लाख अड़तालीस हजार तीन सौ सत्तासी योजन और तीन कला अधिक ( ३६.४८३८७ योजन ) है ॥३२॥ सत्तरि सहस्सा, चउस्सया पंचतीस - लक्खारिंग । उणवीस-जोयणाणि, एक्करस-कलामो बेरुलिय-रई ॥३३॥ ३५७७४१६ । । । अपं-वैडूर्य इन्द्रकका विस्तार पैतीस लाख सतत्तर हजार चार सौ उन्नीस योजन और ग्यारह कला अधिक ( ३५७७४१६१ योजन ) है ।।३३।। पंचत्तीसं लक्खा, छ-सहस्सा चउ-सयाणि इगिवण्णा । जोयणया उणवीसा, कलाप्रो रुजगस्स वित्थारो ॥३४॥ ३५०६४५१ । । अर्थ-रचक इन्द्रकका विस्तार पेंतीस लाख छह हजार चार सौ इक्यावन योजन और उन्नीस कला अधिक ( ३५०६४५११६ यो०) है ।।३४।। चउतीसं लक्खाणि, पगतोस-सहस्स-चउसयाणि पि । तेसोवि जोयणाणि, सगवीस-कलाओ रुचिर-विस्थारो॥३५॥ ३४३५४८३ । ३। अर्थ-रुचिर इन्द्रकका विस्तार चौंतीस लाख पैतीस हजार चार सौ तेरासी योजन और सत्ताईस कला अधिक { ३४३५४८३३५ योजन ) है ॥३५।। तेसीसं लक्खाणि, चउसटि-सहस्स-पण-सयाणि पि । सोलस य जोयणाणि, चत्तारि कलामो अंक-विस्थारो॥३६॥ ___३३६४५१६ । । १, ६.ब. क. ज. 3. दिदस । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया : ३७-४१ ] अमो महाहियारो [ ४५१ अर्थ - अंक इन्द्रकका विस्तार तैंतीस लाख चौंसठ हजार पाँच सौ सोलह योजन और चार कला अधिक (३३६४५१६६२ योजन ) है ।। ३६ ।। बत्तीसं चिय लषखा, तेरा उबि- सहस्स पण सर्यााणि पि । अडदाल-जोयस्पाणि, बारस-भागा फलिह रुदो ॥३७॥ ३२९३६४०६ अर्थ- स्फटिक इन्द्रकका विस्तार बत्तीस लाख तेरानबे हजार पाँच सौ अड़तालीस योजन , और बारह भाग अधिक ( ३२९३५४८३ योजन ) है ||३७|| बसोस - लक्ख-जोयण, बाधीस - सहस्स-परा-सया सीवी । अंसा य वीसमेत्ता, रुंदी तवणिज्ज णामस्स ॥ ३८ ॥ ३२२२५८० । ३१ । अर्थ- तपनीय नामक इन्द्रकका विस्तार बत्तीस लाख बाईस हजार पाँच सौ अस्सी योजन और बीस भाग प्रमाण अधिक (३२२२५८०३योजन ) है ||३८|| इगितीस लवल-जोयण, इगिवण्ण-सहस्स-छ-सय-बारं च । अंसा मेघ णामस्स || ३६॥ 'अट्ठावीसं वित्थारो ३१५१६१२ । ३१ । अर्थ – मेघ नामक इन्द्रकका विस्तार इकतीस लाख इक्यावन हजार छह सौ बारह योजन और अट्ठाईस भाग अधिक ( ३१५१६१२ योजन ) है ||३६|| - तीस चिय लक्खाण, सोदि-सहस्साणि इस्सयाणि च । परवाल- जोयणाणि, पंच कला अम्भ - इंबए वासो ||४०|| ३०८०६४५ । । । - इन्द्रकका विस्तार तीस लाख अस्सी हजार छह सौ पैंतालीस योजन भीर पाँच कला अधिक (३०८०६४५ यो० ) है ||४०|| १. द. क. अट्ठावीसा 1 सससरि-व-छ-सया, एव य सहस्वाणि तीस- लक्खाणि । जोपणया तह तेरस, कलाओ हारिद्द विषवंभो ॥४१॥ ३००९६७७ । ३ । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] तिलोयपणती [ गापा । ४२-४६ प्रयं-हारिन नामक इन्द्रकका विस्तार तीस लाख नौ हजार छह सौ सतत्तर योजन और तेरह कला अधिक ( ३००९६७७ योजन ) है ॥४१।। एक्कोणतीस-लक्खा, अडतीस-सहस्स-सग-सयारिंग छ । णव जोयणाणि अंसा, इगिवीस पचम - वित्यारो ॥४२।। २६३८७०९। । प्रयं--पम इन्द्रकका विस्तार उनतीस लाख अड़तीस हजार सात सौ नो योजन और इक्कीस भाग अधिक ( २६३८७०९३१ योजन ) है ।।४२॥ अट्ठावीसं लक्खा, सगसट्ठी-सहस्स-सग-सयाणि पि । इगिवाल-जोयणाणि, कलामो उणतीस लोहिवे वासो॥४३॥ २८६७७४१ । . ई-लोहित इन्द्राको विस्तार अट्ठाईस साल सड़सठ हजार सात सौ इकतालीस योजन और उनतीस कला अधिक ( २८६७७४१३५ योजन ) है ॥४३॥ सत्तावीसं लक्ला, छण्णउदि-सहस्स-सग-सयाणि पि । पउहत्तरि-जोयगया, छ-कलाओ वज - विक्खंभो ॥४४॥ २७९६७७४। । अर्थ-वज्र इन्द्रकका विस्तार सत्ताईस लाख छयानबे हजार सात सौ चौहत्तर योजन और छह कला अधिक ( २७९६७७४४ योजन ) है ।।४४॥ सगवीस-लक्ख-जोयण, पणवीस-सहस्स अडसयं छक्का। . घोड्स कलामो कहिवा, गंदावट्टस्स विखंभो ॥४५॥ २७२५८०६ ।।। अर्थ--नन्द्यावतं इन्द्रकका विस्तार सत्ताईस लाख पच्चीस हजार आठ सौ छह योजन और चौदह कला अधिक ( २७२५८०६ योजन ) कहा गया है ।।४।। छव्वीसं चिय लक्खा, चउवण्ण-सहस्स-अउ-सयाणि पि। अस्तीस - जोयणाणि, बावीस - कला पहंकरे ॥४६॥ २६५४८३८ । । अर्थ-प्रभंकर इन्द्रकका विस्तार छब्बीस लाख चौवन हजार आठ सौ पड़तीस योजन और बाईस कला प्रमाण (२६५४८३०१ योजन ) है ।।४६।। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४७-५१ ] महाहियारो पणुवीसं लक्खाणि, तेसीबि सहस्स अड-सयाणि पि । सत्तरिय 'जोयणाणि, तीस फला पिट्ठके वासो ॥ ४७ ॥ - २५८३८७० | अर्थ - पृष्ठक इन्द्रकका विस्तार पच्चीस लाख तेरासी हजार आठ सौ सत्तर योजन और तीस कला प्रमाण ( २५८३८७०३ योजन ) है ||४७ || बारस-सहस्त-णव-सय-ति-उत्तरा पंचवीस- लक्खाणि । जोयणए सत्तंसा, गजाभिषारणस्स विक्खंभो ||४८ || [ ४५३ २५१२६०३ । । अर्थ- गज नामक इन्द्रकका विस्तार पच्चीस लाख बारह हजार नौ सौ तीन योजन और सात भाग अधिक ( २५१२९०३५ योजन ) है || ४८ || चवीसं लक्खाणि इगिवाल- सहस्स - णव - सारंगपि । पणतीस जोयणाणि, पण्णरस-कलाओ *मित्त - वित्थारो ।।४६ ॥ २४२३५१३५ । ६ अर्थ-मित्र इन्द्रकका विस्तार चौबीस लाख इकतालीस हजार नौ सौ पैंतीस योजन और पन्द्रह कला अधिक ( २४४१९३५१ योजन ) है ।। ४९ ।। तेवीसं लक्खाणि णय-सय-जुत्ताणि सत्तरि सहस्सा । सत्तट्टि - जोयणाणि तेवीस -कलाओ पय- विस्थारो ॥५०॥ २३७०९६७ । १ । अर्थ-प्रभ इन्द्रकका विस्तार तेईस लाख सत्तर हजार नौ सौ सड़सठ योजन और तेईस कला अधिक ( २३७०९६७ ) है ||५० || तेवीस - लक्ख दो, अंजणए जोयणाणि वणमाले । दुग-तिय-ह-य-दुग-दुग-दुगंक-कमसो कला श्रट् ॥ ५१ ॥ २३००००० । २२२९०३२ । १६ । अर्थ - अञ्जन इन्द्रकका विस्तार तेईस लाख ( २३००००० ) योजन और वनमाल इन्द्रकका विस्तार दो, तीन, शून्य, नौ, दो, दो और दो इस अंक क्रमसे बाईस लाख उनतीस हजार बत्तीस योजन तथा आठ कला अधिक ( २२२९०३२३५ योजन ) है ।।५१ ॥ १. ५. ब. क. जोमाणि बत्तीस । २. ब. पमित्त । ३. द. दुगदुगगं कम रककमसो । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५२-५७ इगिवीसं लक्खाणि, अट्ठावण्णा सहस्स जोयणया । चउसट्टी-संजुत्ता, सोलस अंसा य णाग-वित्थारो ॥५२॥ २१५८०६४ । । । अर्थ-नाग इन्द्रकका विस्तार इक्कीस लाख अट्ठावन हजार चौंसठ योजन और सोलह भाग अधिक ( २१५८०६४३६ योजन ) है ॥५२।। जोयणया छण्णउदी, सगसीदि-सहस्स-वीस-लक्खाणि । चयोस - कला एवं, गडिदय - रुव - परिमाणे ॥५३॥ २०८७०९६ । । अर्थ-गरुड़ इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण बीस लाख सत्तासी हजार छयानवै योजन और चौबीस कला अधिक ( २०५७०९६३ यो० ) है ॥५३॥ सोलस-सहस्स-इमिसय-उणवीसं वीस-लक्ख-जोयणया। एक्क - कला विक्खंभो, लंगल - णामस्स गावव्यो ॥५४॥ २०१६१२६ ।।. अर्थलांगल नामक इन्द्रकका विस्तार बीस लाख सोलह हजार एक सौ उनतीस योजन और एक कला प्रधिक ( २०१६१२९ योजन ) जानना चाहिए ॥५४॥ एक्कोणवीस-लक्खा, पणदाल-सहस्स इगिसयाणि च । इगिसट्रि-जोयणा णव, कलाप्रो बलभद्द - वित्थारो ॥५५॥ १९४५१६१ । । प्रम-बलभद्र इन्द्रकका विस्तार उन्नीस लाख पैतालीस हजार एक सौ इकसठ योजन और नौ कला अधिक ( १९४५१६१४ योजन ) है ॥५५।।। घउहतरि सहस्सा, इगिसय-तेणउदि अदरस लक्खा । जोयणया सत्तरसं, फलानो चक्कस्स वित्थारो ॥५६॥ १८७४१६३ । । प्रथ-चक्र इन्द्रकका विस्तार अठारह लाख चौहत्तर हजार एक सौ तेरान योजन और सत्तरह कला अधिक ( १८७४१९३४ योजन ) है ॥५६॥ अद्वारस-लक्खाणि, ति-सहस्सा पंचवीस-जुब-बु-सया । जोयणया पणुवीसा, कलाप्रो रिटुस्स विक्खंभो ॥५७।। १८०३२२५ । । । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५८-६२ ] अट्ठमो महाहियारो [ ४५५ प्रर्ष-अरिष्ट इन्द्रकका विस्तार अठारह लाख तीन हजार दो सौ पच्चीस योजन और पच्चीस कला अधिक ( १८०३२२५३५ योजन ) है ।।५७।। अट्ठावण्णा दु-सया, बत्तीस-सहस्स सत्तरस-लक्खा। जोयणया योणि कला, वासो सुरसमिदि-णामस्स ॥५॥ १७३२२५८ ।।। अर्थ–सुरसमिति नामक इन्द्रकका विस्तार सत्तरह लाख बतीस हजार दो सौ अट्ठावन योजन और दो कला अधिक ( १७३२२५८0 योजन ) है ।।५८॥ सोलस-जोयण-लक्खा, इगिसद्वि-सहस्स दु-सय-ण उदीयो। वस - मेसानो कलाओ, बम्हिदय - रुद - परिमारणं ॥५६।। १६६१२९० । । । अर्थ-ब्रह्म इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण सोलह लाख इकसठ हजार दो सौ नब्ब योजन और दस कला अधिक ( १६६१२६०१६ योजन ) है ।। ५६।। बायोस-ति-सय-जोयण, उदि-सहस्साणि पण रस-लक्खा । अद्वारसा कलाओ, बम्हुत्तर - इंवए वासो ॥६०।। १५९०३२२ । । अर्भ-ब्रह्मोत्तर इन्द्रकका विस्तार पन्द्रह लाख नब्बे हजार तीन सौबाईस योजन और अठारह कला अधिक ( १५९०३२२ योजन ) है ।।६०।। च उवण्ण-ति-सय-जोयण, उणवीस-सहस्स पण्ण रस-लक्खा । छन्वीसं च कलाओ, वित्थारो ब्रह्महिन्यस्स ॥६१॥ १५१९३५४ । । मर्थ-ब्रह्महृदय इन्द्रकका विस्तार पन्द्रह लाख उन्नीस हजार तीन सौ चौवन योजन और छब्बीस कला अधिक ( १५१६३५४३१ योजन ) है ॥६१।। चोहम-जोयरण-लक्खं, पडदाल-सहस्स-ति-सय-सगसीको । तिषिण कलाओ लंतव - इंदस्स बस्स परिमारणं ॥६२।। १४४८३८७ । अर्थ-लान्तव इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण चौदह लाख अड़तालीस हजार तीन सौ सत्तासी योजन और तीन कला अधिक ( १४४८३८७४, योजन ) है ।।१२।। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६३-६७ तेरस-जोयण-लक्खा, चउ-सय सत्तत्तरी-सहस्साणि । उणवीसं एक्कारस, कलाओ महसषक - विक्खंभो ॥६३॥ १३७७४१९ । । मर्थ - महाशुक्र इन्द्रकका विस्तार तेरह लाख सतत्तर हजार चार सौ उन्नीस योजन और ग्यारह कला अधिक { १३७७४१९३५ यो० ) है ।।६३।। तेरस-जोयण-लक्खा, चउसटिठ-सयाणि एक्कवण्णाय । एक्कोणवीस - अंसा, होदि सहस्सार - विस्थारो ॥६॥ १३०६४५१ । । अर्थ-सहस्रार इन्द्रकका विस्तार तेरह लाख छह हजार चार सौ इक्यावन योजन और उन्नीस भाग अधिक ( १३०६४५१॥ यो० ) है ।।६४।। लक्खाणि बारसं चिय, परगतीस-सहस्स-चउ-सयाणि पि । तेसीवि जोयणाई, सगवोस - कलामो प्राणवे रु ॥६५॥ १२३५४८३ । । । पर्थ-पानत इन्द्रकका विस्तार बारह लाख पैंतीस हजार चार सौ तेरासी योजन और सत्ताईस कला अधिक ( १२३५४८३३ योजन ) है ॥६५।। एक्कारस-सपाणि, चउसद्वि-सहस्स पणुसयाणि पि । सोलस य जोयसारिण, पत्तारि कलाप्रो पाणवे ॥६६॥ ११६४५१६ । । अर्थ-प्रारणत इन्द्रकका विस्तार ग्यारह लाख चौंसठ हजार पांच सौ सोलह योजन और चार कला अधिक ( ११६४५१६४ योजन ) है ।।६६।। लक्खं बस-प्पमाणं, तेणउदि-सहस्स पण-सयाणि च । अडवाल - जोयणाई, वारस • अंसा य पुष्फगे रदं ।।६।। १०६३५४८ । । अर्म-पुष्पक इन्द्रकका विस्तार दस लाख तेरान हजार पाँच सौ अड़तालीस योजन और बारह भाग अधिक ( १०९३५४८१ योजन ) है ॥६७।। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया 1 ६८-७२ ] अट्ठमो महाहियारो [४५७ वस-जोयण-लक्खाणि, बावीस-सहस्स पणुसया सोती । वीस-कलापो , सायंकर'- इदयस्स हादध्वं ॥६॥ १०२२५८० ।।। अर्थ-शांतकर इन्द्रकका विस्तार दस लाख बाईस हजार पांच सौ अस्सी योजन और बीस कला अधिक (१०२२५८० योजन ) जानना चाहिए ॥६॥ णव-जोयण-लक्खाणि, इगिवण्ण-सहस्स छ-सय बारसया। अट्ठावीस कलाओ, धारण - WHEस विस्था ॥६६॥ ९५१६१२ । । । अर्थ-आरण इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण अंक-क्रमसे नौ लाख इक्यावन हजार छह सौ बारह योजन पोर अट्ठाईस कला ( ९५१६१२॥ योजन ) जानना चाहिए ॥६९॥ अट्ट चिय लक्खाणि, सीवि-सहस्साणि 'छस्सयाणि च । पणवाल - जोयणाणि, पंच - कला अच्चुबे ९ ॥७॥ ___ ८८०६४५ । । अर्थ-अच्युत इन्द्रकका विस्तार पाठ लाख अस्सी हजार छह सौ पैंतालीस योजन और पाँच कला अधिक ( ८८०६४५३ यो० ) है ।।७।। अg चिय लक्खाणि, णव य सहस्साणि छस्सयाणि च । सत्तत्तरि जोयणया, तेरस - अंसा सुदंसणे रुवं ॥७१।। ८०९६७७ । ३३। मर्थ—सुदर्शन इन्द्रकका विस्तार पाठ लाख नौ हजार छह सौ सतत्तर योजन और तेरह भाग अधिक ( ८०९६७७१ यो० ) है ।।७१॥ गव-जोयण सत्त-सया, 'अडतीस-सहस्स सर-लक्खाणि । इगिवीस कला , अमोघ - णामम्मि इदए होदि ॥७२॥ ७३८७०६ । । अर्थ-अमोघ नामक इन्द्रकका विस्तार सात लाख अड़तीस हजार सात सौ नौ योजन और इक्कीस कला अधिक (७३८७०९३१ योजन ) है ॥७२॥ १.प. ज. 8. सर्यकरा, क. सयंकर । २. द. ब. क. छस्सयाणं। ३. द. ब. बरसीसि । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ७३-७७ इगियालुत्तर-सग-सय, सत्तद्वि-सहस्स-जोयण छ-सखा । उणतोस - कला कहियो, विस्थारो सुप्पबुद्धस्स ॥७३॥ ६६७७४१ । । अर्ष-सुप्रबुद्ध इन्दकका विस्तार छह लाख सड़सठ हजार सात सौ इकतालीस योजन और उनतीस कला अधिक ( ६६७७४१३६ यो०) कहा गया है ।।७३।। चउहत्तरि-जुव-सग-सय, छण्णउदि-सहस्स पंच-लक्खाणि । जोयणया छच्च कला, जसहर - णामस्स विषखंभो ।।७४।। ५६६७७४ । । पर्थ- यशोधर नामक इन्द्रकका विस्तार पांच लाख छयानबै हजार सात सौ चौहत्तर योजन और छह कला अधिक ( ५९६७७४ , योजन ) है ।।७४।। छज्जोयण अटू-सया, पणुवीस-सहस्स पंच-लक्याणि । चोड्स-फलाओ वासो, सुभद्द - णामस्स 'परिमाणं ॥७॥ ५२५८०६ ।। मयं-सुभद्र नामक इन्द्रकका विस्तार पांच लाख पच्चीस हजार पाठ सौ छह योजन और चौदह कला अधिक ( ५२५८०६ यो० ) है ॥७५।। अट्ठ-सया अडतीसा, लक्खा चउरो सहस्स चउवण्णा । मओयणया बावीस, अंसा सुविसाल विखंभो ॥७६॥ ४५४८३८ । अर्थ-सुविशाल इन्द्रकका विस्तार चार लाख चौवन हजार आठ सौ अड़तीस योजन और बाईस भाग ( ४५४८३८३ यो० ) प्रमाण है ।।७६।। सत्तरि-जुव-अद्व-सया, लेसीवि-सहस्स जोयण-ति-लक्या । तीस - कलाश्रो सुमणस - णामस्स हवेवि विस्थारो ॥७७॥ ___३८३८७० । । प्रर्य-सुमनस नामक इन्द्रकका विस्तार तीन लाख तेरासी हजार आठ सौ सत्तर योजन और तीस कला ( ३८३८७०४ यो०) प्रमाण है ।।७७।। १.६.ब.क. ज.ठ, पादयो। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाणा: ७.--.1 अमो महाहियारो [ ४५९ बारस-सहस्स णव-सय, ति-उत्तरा जोयरपाणि तिय-लक्खा । सत्त • कलाओ वासो, सोमरणसे इंवए भणिवो ॥७॥ ३१२९०३ । । प्रर्ष-सौमनस इन्द्रकका विस्तार तीन लाख बारह हजार नौ सौ सीन योजन और सात कला ( ३१२९०३३ योजन) प्रमाण कहा गया है ।।७८।। पणतीसुत्तर-णय-सय, इगिवाल-सहस्स जोयण-दु-लक्खा । पण्णरस - कला संवं, पौविकर - ईदए कहिदो ॥७॥ २४१९३५ । । अर्थ-प्रीतिकर इन्द्रकका विस्तार दो लाख इकतालीस हजार नौ सौ पैंतीस योजन और पन्द्रह कला ( २४१९३५ यो०) प्रमाण कहा गया है ।।७९।। सप्तरि-सहस्स णव-सय, सत्तट्ठी-जोयणाणि इगि-लक्खा। तेवीसंसा वासो, प्राइमचे इंदए होदी ॥०॥ १७०९६७ । । अर्थ-आदित्य इन्द्रकका विस्तार एक लाख सत्तर हजार नौ सौ सड़सठ योजन और तेईस कला ( १७०९६७१ योजन ) प्रमाण है ।।८।। एक्कं जोयण - लक्ख, वासो सम्वसिद्धि-णामस्स । एवं सेसट्ठीणं, वासो सिट्ठो सिसूण बोह ॥१॥ १०००००। ६३ । प्रयं-सर्वार्थ सिद्धि नामक इन्द्रकका विस्तार एक लाख ( १००००० ) योजन प्रमाण है। इसप्रकार तिरेसठ (६३) इन्द्रकोंका विस्तार शिष्योंके बोधनार्थ कहा गया है ।।१।। समस्त इन्द्रक विमानोंका एकत्रित विस्तार इस प्रकार है [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो नन्दन शाकिर कञ्चन ४६० तिलोयपणपती [ गाथा : ८१ इन्द्रक विमानोंका विस्तार | इन्द्रको के इन्द्रक विमानोंका. । इन्द्रकों के | इन्द्रक विमानोंका इन्द्र कोंके इन्द्रक विमानों नाम । विस्तार | | नाम | विस्तार | नाम | का विस्तार ऋतु |४५००००० यो०/२२. हारिद्र ३००९६७७३१यो ४३.| ब्रह्महृदय १५१९३५४३॥ विमल ४२६- ३२२६ पम ८८५०६३ | ४४. लान्तव १४४८३८७ चन्द्र | ४३५८०६४११.२४.| लोहित २८६७७४१३ १४५. महाशुक्र |१३७७४१९४१ वल्गु | ४२८७०९६३.२५ | वज्र २७९६७७४६ .. |४६. | सहस्रार |१३०६४५१३३ वीर ४२१६१२९३/२६. नन्द्या. २७२५८०६३५, प्रानत १२३५४८३३४ अरुण | ४१४५१६१४२७. प्रभङ्कर २६५४३३८, प्राणत ११६४५१६ ४०७४ १९३१३|२८|| पृष्ठक २५८३८७०११ पुष्पक १०९३५४८१ नलिन | ४००३२२५१७.० २९.गज २५१२९०३४, १०२२५८०१ | ३९३२२५८8 | ३०. मित्र २४४१९३५३५. आरण |६५१६१२३ रोहित | ३८६१२९०३६. | ३१./ प्रम २३७०६६७३३ चञ्चत् | ३७९०३२२३. ३२. | अञ्जन २३००००० यो० ५३. | सुदर्शन १८०६६७७१३ मरुत् | ३७१९३५४ | ३३. वनमाल २२२९०३२ | ५४. अमोघ १७३८७०६१ ऋद्धीश | ३६४८३८७१, ३४.| नाग २१५८०६४ ५५.| सुप्रबुद्ध ६६७७४१३५ | ३५७७४१९३३,३५. गरुड २०८७०६६.५६. | यशोधर |५९६७७४१] लांगल २०१६१२९४४ ५७. | सुभद्र ५२५८०६१ रुचिर | ३४३५४८३३६, ३७. बलभद्र १९४५१६१२ | सुविशाल |४५४८३५॥ | ३३६४५१६३८..| ३८. चक्र १८७४१६३ ५९. सुमनस् ३८३८७०॥ स्फटिक | ३२९३५४८११.३६ | अरिष्ट १८०३२२५३५, अरिष्ट १८०३२२५३१,६०. सौमनस् ३१२९०३ तपनीय | ३२२२५८०३/४० | सुरसमिति१७३२२५८३६१.| प्रीतिङ्कर २४१९३५१५ मेघ |३१५१६१२३/४१] ब्रह्म १६६१२६०३६.६२. | आदित्य |१७०९६७१३ | २१. अभ्र |३०८०६४५६, ४२.| ब्रह्मोत्तर १५९०३२२,६३ सर्वार्थसिद्धिा१००००० यो० प्रच्युत . वैडूर्य , रुचक Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा | ८२-८६ ] अम महाहियारो ऋतु इन्द्रादिके श्रीबद्ध विमानोंके नाम एवं उनका विन्यास क्रम वाण इंबयाणं, चउसु दिसासु पि सेहि-बद्धारिंग । चारि व विदिसासु, होवि पहण्णय-विमरणाश्रो || ८२ ॥ अर्थ - सब इन्द्रक विमानोंकी चारों दिशाओं में श्र ेणीबद्ध और चारों हो विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान होते हैं ||२|| उडु-णामे पत्तेक्कं, सेढि गवा चउ - दिसासु बासट्ठी । एक्षा सेसे, पडिदिसमाइच्च' परियंतं ॥८३॥ अर्थ - ऋतु नामक विमानकी चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में बासठ श्र ेणीबद्ध हैं । इसके श्रागे आदित्य इन्द्रक पर्यन्त शेष इन्द्रकों की प्रत्येक दिशा में एक-एक कम होता गया है || ८३ || जड़-गामे सेदिगण, एक्षक-विसाए होदि तेसट्ठी । एक्के कूणा सेसे, जाय य सव्वसिद्धि त्ति ॥ ८४ ॥ ( पाठान्तरम् ) अर्थ - ऋतु नामक इन्द्रक बिमानके प्राश्रित एक-एक दिशा में तिरेसठ श्रेणीबद्ध विमान हैं । इसके श्रागे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त शेष विमानों में एक-एक कम होता गया है ||६४ || ( पाठान्तर ) बासट्ठी सेढिगया, पभासिवा सय्य वि चउद्दिसमेव केवलं जेहि तान जबसे । सेठि बद्धाय ॥६५॥ अर्थ - जिन आचार्याने ( ऋतु विमानके श्राश्रित प्रत्येक दिशा में ) बासठ श्र ेणीबद्ध विमानोंका निरूपण किया है उनके उपदेशानुसार सर्वार्थसिद्धि विमानके प्राश्रित भी चारों दिशाओं में एक-एक श्र ेणीबद्ध विमान है ||५|| पढमंबय-पहूदीदो, पीदिकर णाम इंदयं जाव । तेसु चसु बिसालु सेठि गाणं इमे णामा ॥ ८६ ॥ , १. द. ब. ज. ठ माइच्चस्स । [ ४६१ - L - अर्थ - प्रथम इन्द्रकसे लेकर प्रीतिङ्कर नामक ( ६१ वें ) इन्द्रक पर्यन्त चारों दिशाओं में उनके आश्रित रहनेवाले श्र ेणीबद्ध विमानोंके नाम ये है ।। ८६ ।। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] तिलोय पण्णत्ती उप-उडुमज्झिम- उडु - आवत्तय उड्डु - विसिष्टु- रामहि । इं वयस्स एवे, पुण्वादि - पवाहिणा' होवि ॥ ८७॥ 4 उड्ड अर्थ — ऋतुप्रभ, ऋतुमध्यम, ऋतु आवर्त और ऋतु - विशिष्ट, ये चार श्रेणीबद्ध विमान ऋतु इन्द्रक के समीप पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिण- क्रमसे हैं ||२७|| विमलप - विमल मज्झिम, विमलावत्तं खु विमल - णामम्मि । विमल - विसिट्ठो तुरिमो, पुण्वादि पदाहिणा होदि ॥८६॥ [ गाथा : ८७-१३ अर्थ – विमलप्रभ, विमलमध्यम, विमलावर्त और चतुर्थ विमलविशिष्ट, ये चार श्रेणीबद्ध विमान विमल नामक ( दूसरे ) इन्द्रकके आश्रित पूर्वादिक प्रदक्षिण- क्रम से हैं ||८|| · एवं चंदादोणं, णिय- णिय-रणामाणि सेढिबद्ध सु । पढमेसु पह- मज्झिम - श्रावत्त-बिसि-जुत्तानि ॥ ८६ ॥ अर्थ- इसीप्रकार चन्द्रादिक इन्द्रकोंके आश्रित रहनेवाले प्रथम श्रेणीबद्ध विमानोंके नाम प्रभ, मध्यम, आवर्त और विशिष्ट इन पदोंसे युक्त अपने-अपने नामोंके अनुसार ही हैं |१८९|| उडु इदय पुव्वादी, सेडिगया जे हवंति बासको 1 ताण बिदियावी, एक्क-बिसाए भणामो गामाई ॥ ६० ॥ अर्थ - ऋतु इन्द्रककी पूर्वादिक दिशाओंमें जो बासठ श्र ेणीबद्ध हैं उनके द्वितीयादिकों के एक दिशा के नाम कहते हैं ||२०|| संठियामा सिरिवच्छ वट्ट-नामा य कुसुम- जावाणि । छतंजण - कलसा * बसह- सीह- सुर-असुर-मणहरया ।।१।। १३ । भद्द सव्वदोभद्द, दिवसोत्तिय दिगु वड्डमरण-मुरजं, "अब्भय ९ । १-२. द. ब. क. ज. उ. पचाहिये । कलास। ५. व. व. क. . ठ प्रभ । - दिसाभिघारणं च । इषो महिवो य ॥ ६२ ॥ तह य उवढं कमलं, कोकणदं चक्क मुप्पलं कुमुदं । पुंडरिय-सोमयारिंग, तिमिसंक सरंत पासं च ॥ ६३ ॥ १२ । ३. व ब. क. ज ठ चउदादीरणं । ४. व. व. क. ज. ठ. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ९४ - ९७ ] म महाहिया गगणं सुज्जं सोमं कंचन-णवत्त-वंदना अमलं । विमलं गंदण - सोमणस - सायरा उविय समुदिया नामा ॥ ६४ ॥ १३ । धम्मवरं वेसणं, कण्णं कणयं णामेण लोयकंसं गंदीसरयं ५। श्रमवभासं तहेब सिद्ध तं । इगिसट्ठी सेढि बद्धाणि ॥६६॥ ६ । अलकंतं रोहिदयं कुंडल सोमा एवं तहा य मूदहिदं । अमोघपासं च ॥६५॥ कलश 5, अर्थ- संस्थित नामक १, श्रीवत्स २ वृत्त ३, कुसुम ४, चाप ५, छत्र ६, अञ्जन ७, वृषभ, सिंह १०, सुर ११, असुर १२, मनोहर १३, भद्र १४, सर्वतोभद्र १५, दिक्स्वस्तिक १६, अंदिश १७, दिगु १८ वर्धमान १६, मुरज २०, अभयेन्द्र २१, माहेन्द्र २२० उपार्ध २३, कमल २४, कोकनद २५, चक्र २६, उत्पल २७, कुमुद २८, पुण्डरीक २९, सोमक ३०, तिमिस्रा ३१, अंक ३२, स्वरान्त ३३, पास ३४, गगन ३५, सूर्य ३६, सोम ३७, कंचन ३८, नक्षत्र ३९, चन्दन ४०, अमल ४१ विमल ४२, नन्दन ४३, सौमनस ४४, सागर ४५, उदित ४६, समुदित ४७, धर्मबर ४८, वैश्रवण ४९. कर्ण ५०. कनक ५१ तथा भूतहित ५२, लोककान्त ५३, सरय ५४, प्रमोघस्पर्श ५५, जलकान्त ५६, रोहितक ५७, अमितभास ५८ तथा सिद्धान्त ५६, कुण्डल ६० और सौम्य ६१ इसप्रकार ( ऋतु इन्द्रककी पूर्व दिशा सम्बन्धी ) ये इकसठ श्र ेणीबद्ध विमान हैं ।।९१-९६॥ ऋतु इन्द्रक सम्बन्धी श्र ेणीबद्ध विमानोंके नाम पुरिमावली-पवण्णिव संठिय-पहुवीस तेसु पत्तेक्कं । रिणय णामेसु मज्झिम- श्रावत्त-विसि श्राइ जोएन ||१७|| - ( ४६३ अर्थ - पूर्वं पंक्ति में वरिंगत उन संस्थित आदि श्रणीबद्ध विमानों में से प्रत्येक के अपने-अपने नाममें मध्यम, श्रावर्त और विशिष्ट आदि जोड़ना चाहिए ।। ९७ ।। विशेषायें - ऋतु इन्द्रक विमान मध्यमें है। इसकी पूर्वादि दिशाओं में ६२ - ६२ श्रणीबद्ध विमान हैं। जिनके क्रमशः नाम इसप्रकार हैं [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] श्र ेणीबद्ध विमानोंकी क्रम संख्या १ २ ३ ५ ६ ८ ९ पूर्व दिशा में ऋतुप्रभ संस्थितप्रभ श्रीवत्सप्रभ वृत्तप्रभ कुसुमप्रभ चापप्रभ छत्रप्रभ अंजन प्रभ कलशप्रभ वृषभप्रभ तिलोयपण्णत्ती ऋतु इन्द्रक विमान की पश्चिम में दक्षिण में ऋतुमध्यम संस्थितमध्यम श्रीवत्स मध्यम वृतमध्यम कुसुम मध्यम चापमध्यम छत्रमध्यम अंजनमध्यम कलशमध्यम वृषभमध्यम 1 ऋतु श्रावर्त संस्थितावर्त श्रीवत्सावर्त वृत्तावर्त कुसुमावतं चापावर्त छत्रावर्त अंजनावर्त कलशावर्त वृषभावर्त - [ गाथा : ६८-६६ उत्तर में ऋतुविशिष्ट संस्थितविशिष्ट श्रीवत्स विशिष्ट वृत्तविशिष्ट कुसुमविशिष्ट चापविशिष्ट प्रत्येक इन्द्रक सम्बन्धी श्रीबद्ध विमानोंके नाम एवं चउसु बिसासु णामेसु दक्खिणाविय दिसासु । सेद्विगदाणं लामा, पौर्दिकर इदयं जाय ॥६८॥ अर्थ - इसप्रकार दक्षिणादिक चारों दिशाओंों में प्रीतिकर नामक ( ६१ वें ) इन्द्रक पर्यन्त श्रीबद्ध विमानोंके नाम हैं । ९८६ ॥ नोट:- इसी अधिकार की गाथा = द्रष्टव्य है । छत्र विशिष्ट अंजनविशिष्ट कलशविशिष्ट वृषभ विशिष्ट इत्यादि इचच इंदयस्त, पुब्दादिसु लछि लच्छिमालिखिया । बहरा - वहरावणिया, चत्तारो वर विमाणाणि ॥६६॥ M अर्थ- आदित्य इन्द्रककी पूर्वादिक दिशाओं में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वस्त्र और वष्त्रावनि, ये चार उत्तम विमान हैं ।। ९६ ।। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा । १००-१०५ ] अट्टम महाहियारो विजयंत वइजयंतं, जयंतमपराजिदं च चतारो । पुष्वादि विमाणाणि, 'ठिवाणि सम्बदुसिद्धिस्स ॥१००॥ - अर्थ - विजयन्त, वैजयन्त, जयन्त और ग्रपराजित, ये चार विमान सर्वार्थसिद्धिको पूर्वादिक दिशाओं में स्थित हैं ।। १०० ।। श्रेणीबद्ध विमानों की प्रवस्थिति उडु-सेढीबद्धद्ध ं, सयंभुरमणंबु - रासि परिधि गवं । सेसा इल्लेसु, तिसु दीवेसु तिसुं समुद्देसु १०१ ॥ २४ । १५ । ६ । ४ । २ । १ । १ । अर्थ - ऋतु इन्द्रकके अर्ध श्र ेणीबद्ध स्वयम्भूरमण समुद्रके प्रणिधि भाग में स्थित हैं। शेष sented विमान आदिके प्रर्थात् स्वयम्भूरमण समुद्र से पूर्व के तीन द्वीप और तीन समुद्रोंपर स्थित हैं ।। १०१ ।। सेठिबद्धाणं । एवं मिचिदंतं, विष्णासो होबि कमसो इल्लेसु तिसु दीवेसु ति जलहीसु ॥ १०२ ॥ 1 · अर्थ- - इसप्रकार मित्र इन्द्रक पर्यन्त श्र ेणीबद्धों का विन्यास क्रमशः आदिके तीन द्वीपों और तीन समुद्रोंके ऊपर है ।। १०२ ।। पभ- पत्थलावि-परदो, जाय सहस्सार- पत्थलंतोति । ब्राइल - तिणि दीवे, दोण्णि-समुम्मि सेसाश्री ॥ १०३ ॥ अर्थ-प्रभ प्रस्तारसे जागे सहस्रार प्रस्तार पर्यन्त शेष, आदिके तीन द्वीपों और दो समुद्रों पर स्थित हैं ।। १०३ ॥ तसो प्राणद-पहूदी, जाव श्रमोघो त्ति सेविद्धाणं । दिल्ल- दोणि दीये, दोणि समुद्दम्मि सेसाओ ॥ १०४ ॥ । [ ४६५ - - इसके आगे बनत पटलसे लेकर अमोघ पटल पर्यन्त शेष श्रेणीबद्धोंका विन्यास प्रादिके दो द्वीपों और दो समुद्रोंके ऊपर है ।। १०४ ।। तह सुप्पबुद्ध - पहूदी, जाव य सुविसालओ सि सेढिगा । आविल्ल एक्क दीवे, दोण्णि समुद्दम्मि सेसाश्री ॥ १०५ ॥ - १. द. व. क. ज. उ. दिवाण । २. द. सेसु ब. क. ज ठ सेसं । " Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] तिलोसपण्णत्ती [ गाथा : १०६ अर्थ-तथा सुप्रबुद्ध पटलसे लेकर सुविशाल पटल पर्यन्त शेष श्रेणीबद्ध, आदिके एक द्वीप और दो समुद्रोंके ऊपर स्थित हैं ।।१०।। सुमारास सोमणसाए, पाइल्लय-एक्क-दीव-उहिम्मि । पीविकराए दिवं आइच्चे चरिम - दोवम्मि ॥१०६।। अर्य-सुमनस और सौमनस पटलके श्रेणीबद्ध विमान आदिके एक द्वीप तथा एक समुद्र के ऊपर स्थित हैं । इसीप्रकार दिध्य प्रीतिङ्कर पटलके भी श्रेणीबद्धोंका विन्यास समझना चाहिए। अन्तिम प्रादित्य पटलके श्रेणीबद्ध द्वीपके ऊपर स्थित हैं ।।१०६।। विशेषार्थ :-ऋतु इन्द्रक सम्बन्धी ६२ श्रेणीबद्ध विमानोंका विन्यासस्वयम्भूरमण समुद्रके ऊपर-ऋतुप्रभसे सौमक पर्यन्त ३१ श्रेणीबद्ध विमान स्थित हैं। स्वयम्भूरमरणदीपके ऊपर--तिमिस्रासे सागर पर्यन्त १५ विमान । अहन्निवर समुद्रक ऊपर- उदिसते लोकशाला तक ८ विमान । अहीन्द्रवर द्वीपके ऊपर--सरयसे रोहितक पर्यन्त ४ विमान । देववर समुद्रके ऊपर-अमितभास मौर सिद्धान्त २ विमान । देववर द्वोपके ऊपर--कुण्डल नामक १ विमान और यक्षवर समुद्रके ऊपर-सौम्य नामक ( ६२ ) १ विमान है । विमल इन्द्रकसे मित्र इन्द्रक पर्यन्तके २९ इन्द्रक विमानोंसे सम्बन्धित सर्व श्रेणीबद्ध विमानोंका विन्यास क्रमशः यक्षवर द्वीप, भूतवर समुद्र, भूतवर द्वीप, नागवर समुद्र, नागवर द्वीप और वैडूर्यबर समुद्र, इन तीन द्वीपों और तीन समुद्रोंके ऊपर है। प्रभ इन्द्रकसे सहस्रार इन्द्रक पर्यशके १६ इन्द्रक विमानोंसे सम्बन्धित सर्व श्रेणीबद्ध विमानोंका विन्यास क्रमशः वैडूर्यवर द्वीप, वज्रवर समुद्र, वज्रवर द्वीप, काञ्चनवर समुद्र और काञ्चनवर द्वीप, इन तीन द्वीपों और दो समुद्रोंके ऊपर है। आनत इन्द्रकसे अमोघ इन्द्रक पर्यन्तके ८ इन्द्रक विमानोंसे सम्बन्धित सर्व श्रेणीबद्ध विमानोंका विन्यास क्रमशः रूप्यवर समुद्र, रूप्यवर द्वीप, हिंगुलबर-समुद्र और हिंगुलकर दीप, इन दो समुद्रों और दो द्वीपोंके ऊपर है । सुप्रबुद्ध इन्द्रकसे सुविशाल इन्द्रक पर्यन्त ४ इन्द्रक सम्बन्धित श्रेणीबद्ध विमानों का विन्यास क्रमशः अञ्जनवर समुद्र, अञ्जनवर द्वीप और श्यामवर समुद्र, इन दो समुद्रों और एक द्वीप पर हैं। सुमनस और सौमनस इन २ इन्द्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्ध विमानोंका विन्यास क्रमशः श्यामवर द्वीप और सिन्दूरवर समुद्रके ऊपर है। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १०७-११० ] अट्ठमो महाहियारो [ ४६७ प्रीतिङ्कर इक सम्बन्धी अखबिर विमानों का विन्यास सिन्दूरवर द्वीप और हरिसिन्दूर समृबके ऊपर है। ६२ वें आदित्य इन्त्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्ध विमानोंका विन्यास हरिसिन्दूर द्वीप पर है । श्रेणीबद्ध विमानोंके तिर्यग् अन्तराल और विस्तारका प्रमाणहोदि 'प्रसंखेज्जाणि, एकाणं जोयणाणि विच्चालं । तिरिएणं सव्वाणं, तेत्तियमेत च वित्थारं ॥१०७॥ अर्थ-इन सब विमानोंका तिर्य गरूपसे असंख्यात योजनप्रमाण अन्तराल है और इनका विस्तार भो इतना ( असंख्यात योजन प्रमाण ) ही है ॥१०७।। शेष द्वीप-समुद्रोंपर श्रेणीबद्धोंके विन्यासका नियमएवं 'चडम्बिहेसु, सेढोबमाण होदि उत्त - कमे। प्रवसेस - बोष - उवहीसु एस्थि सेढीण विण्णासो ॥१०॥ अर्थ-इसप्रकार उक्त क्रमसे श्रेणीबद्धोंका विन्यास 'चतुर्विध ( चतुर्दिग् ) रूपमें (१) है । अवशेष द्वीप-समुद्रोंमें श्रेणीबतोंका विन्यास नहीं है ।।१०८ विशेषार्थ-प्रथम ऋतु इन्द्रकसे प्रादित्य पर्यन्त ६२ इन्द्रक सम्बन्धी सर्व श्रेणीबद्ध विमानों का विन्यास अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्रसे प्रारम्भ होकर पूर्वके हरिसिन्दूर द्वीप पर्यन्त अर्थात् १५ समुद्र और १४ द्वीपों ( २९ द्वीप-समुद्रों ) के ऊपर चारों दिशाओं में है। श्रेणीबद्ध विमानोंकी आकृति प्रादिसेढीबद्ध सम्वे, समवट्टा विविह-दिव्य-रयणमया । उल्लसिव-धय-बवाया, णिरुवमरूवा विराजंति ॥१०६।। अर्थ-सर्व श्रेणीबद्ध विमान समान गोल, विविध दिव्य रत्नोंसे निर्मित, वजा-पताकारों से उल्लसित और अनुपम रूपसे युक्त होते हुए शोभित हैं ।।१०९।। प्रकीर्णक विमानोंका अवस्थान आदिएवाणं विच्चाले, पइण्ण-कुसमोवयार-संठाणा'। होदि पडण्णय-णामा, रयणमया विविसे वर-विमाणा ॥११०।। १. व. ब. क. ज. ठ, असंखेजाणं । २. य, पविदेसु। ३. अर्थ स्पष्ट नहीं हुमा । ४. ५. व. क. ज... विमाणाणि । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १११-११४ - इनके ( श्र ेणीबद्धोंके ) अन्तराल में विदिशाओं में प्रकीर्णक अर्थात् बिखरे हुए पुष्पोंके सदृश स्थित, रत्नमय, प्रकीर्णक नामक उत्तम विमान हैं ।। ११० ।। ४६८ ] संखेज्जासंखेज्जं सहव- जोयरण-पमारण- विक्खंभो । सव्ये पण्णयाणं, विच्चालं तेत्तियं तेसु ॥ १११ ॥ अर्थ- सब प्रकीर्णकों का विस्तार संख्यात एवं असंख्यात योजन प्रमाण है और इतना ही उनमें अन्तराल भी है ।। १११ । । tica?.... इंवय-सेढीबद्ध इखयाणं पि वर विमाणा । उबरिम-तलेषु रम्मा, एक्केक्का होदि तड-वेदी ॥ ११२ ॥ अर्थ – इन्द्रक, श्र ेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन उत्तम विमानोंके उपरिम एवं तल भागों में एक-एक रमणीय तट-वेदी है ।। ११२ ।। चरियट्टालिय- चारू, बर- गोउरवार - तोरणाभरणा । धन्वंत - धय-धवाया, छरिय विसेसकर हवा ॥ ११३ ॥ विण्णासो समतो ॥२॥ - - अर्थ - यह वेदी मार्गों एवं अट्टालिका भोंसे सुन्दर, उत्तम गोपुरद्वारों तथा तोरणोंसे सुशोभित, फहराती हुई ध्वजा - पताकाओंसे युक्त और श्राश्वर्य विशेषको करनेवाले रूपसे संयुक्त है ।।१९३।। विन्यास समाप्त हुआ ||२|| कल्प और कल्पातीतका विभाग कप्पा कप्पादीया, इवि दुविहा होवि जाक- पटला ते बावण्ण कव्य - पडला, कप्पातीदा य एक्करसं ॥ ११४ ॥ ५२ । ११ । अयं स्वर्ग में कल्प और कल्पातीतके भेदसे पटल दो प्रकारके हैं। इनमें से बायन कल्प पटल और ग्यारह कल्पातीत ( कुल ५२ + ११ = ६३ ) पटल हैं ।। ११४ ।। १. द. ब. क. ज. ठ. विमाणाणि । २. द. ब. क. ज. उ. होंति । ३. ५. ब. दय । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ११५-११९ ] अट्ठमो महाहियारो [ ४६९ बारस कप्पा केई, केई सोलस ददति पाइरिया। तिविहाणि भासिदाणि, कल्पातीवाणि पडलाणि ॥११५॥ प्र--कोई आचार्य कल्पोंको संख्या बारह और कोई सोलह बतलाते हैं । कल्पातीत पटल तीन प्रकारसे कहे गये हैं ॥११॥ हेट्रिम मज्झे उर्वार, पत्तक्क ताण होति चत्तारि । एवं बारस - कप्पा, सोलस उडडङमट्ट जगलाणि ॥११६॥ अर्थ-जो ( आचार्य ) बारह कल्प स्वीकार करते हैं उनके मतानुसार अधोभाग, मध्यभाग और उपरिम भागमेंसे प्रत्येकमें चार-चार कल्प हैं । इसप्रकार सब बारह कल्प होते हैं । सोलह कल्पोंकी मान्यतानुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलोंमें सोलह कल्प हैं ।।११६॥ गेवेन्जमणहिसयं, अणत्तरं इय हवंति तिवियप्पा । कप्पातीवा पडला, गेवेन्जं गव - विहं तेसु॥११७॥ प्रर्य-अवेयक, अनुदिश और अनुसर, इसप्रकार कल्पातीत पटल तीन प्रकारके हैं। इनमेंसे अंवेयक पटल नौ प्रकारके हैं ।।११।। कल्प और कल्पातोत विमानोंका अवस्थानमेरु-सलादो उरि, दिवढ-रज्जए प्राविम जुगलं । तसो हवेदि बिवियं, तेत्तियमेताए रजए ॥११॥ तचो छज्जुगलाणि, पत्तेक्क भद्ध - अद्ध - रज्जूए । एवं कप्पा कमसो, कप्पातीदा य ऊण • रज्जूए ॥११६।। २३1२ 12/22 2|5|| एवं भेद-परूवणा समत्ता ।।३।। मर्य-मेरुतलसे ऊपर डेढ़ राजूमें प्रथम युगल और इसके आगे इतने ही राजू में अर्थात् डेढ़ राजूमें द्वितीय युगल है । इसके आगे छह युगलोंमेंसे प्रत्येक प्रर्ध-अर्ध राजूमें है। इसप्रकार कल्पोंकी स्थिति बतलाई गई है । कल्पातीत विमान ऊन अर्थात् कुछ कम एक राजूमें हैं ॥११८-११९।। इसप्रकार भेद-प्ररूपणा समाप्त हुई ।।३।। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] तिलोयपण्णत्ती बारह कल्प एवं कल्पातीत विमानोंके नाम सोहम्मीसाण सणक्कुमार- माहिव बन्ह संतवया । महसुक्क सहस्सारा, प्राणद-वदय-कारणका ११० एवं बारस कप्पा, कम्पातीदेसु रगव य गेवेज्जा । हेट्टिम - हेडिम णामी, हेडिम-मज्भिल्ल हेद्विमोवरिमो ॥ १२१ ॥ महिम-णाम, मज्झिम-मज्झिम य मज्झिमोरिमो । उवरिम- हेडिम णामी, उवरिम-मज्झिम य उवरिमोषरिमो ॥१२२॥ अर्थ – सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र, सहस्रार मानत, प्राणत, आरण और प्रच्युत, इसप्रकार ये बारह कल्प हैं । कल्पातीतों में अवस्तन - अधस्तन, अधस्तनमध्यम, अघस्तन- उपरिम, मध्यम प्रस्तन, मध्यम- मध्यम, मध्यम-उपरिम, उपरिम-अधस्तन, उपरिममध्यम और उपरिम- उपरिम, ये नौ ग्रैवेयक विमान हैं ।। १२०-१२२ ।। आदित्य इन्द्रक श्र ेणीबद्ध और प्रकीर्णकों के नाम प्राइच्च - इंदयस्स य, पुष्णाविसु लच्छि लछिमालिणिया । बहरो बहरोवणिया, घसारो वर अण्ण दिसा विविसासु, सोमक्खं पsिहं पइण्णयाणि य, चत्तारो - स्फटिक · सोमलव अंकाई । तस्स णादव्वा ।। १२४ ।। अर्थ - श्रादित्य ( ६२ वें ) इन्द्रक विमानकी पूर्वादिक दिशाभों में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वज्र और वैरोचिनी, ये चार उत्तम श्रेणीबद्ध विमान तथा अन्य दिशा - विदिशाओं में सोमार्य, सोमरूप, अंक और स्फटिक, ये चार उसके प्रकीर्णक विमान जानने चाहिए ।। १२३-१२४॥ सौमार्य (आदित्य (विमान लक्ष्मी सोम [ गाथा : १२०-१२४ लक्ष्मी W विमारिण ।।१२३ ॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १२५अट्ठमो महाहियारो [ ४७१ सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रकके श्रेणीबद्ध विमानोंके नामविजयंत - वइजयंत, जयंत-अपराजिवं बिमाणाणि । सचट्ठ-सिद्धि-णामा, पुवावर-दक्खिणुत्तर-दिसासं ॥१२५॥ अर्थ-सर्वार्थसिद्धि नामक इन्त्रककी पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में विजयन्त, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक विमान हैं ।। १२५॥ सबह-सिद्धि-णामे, पुश्वारि-पदाहिणेरण विजयादी। ते होति वर - विमाणा, एवं केई परूवेति ॥१२६॥ पाठान्तरम् । प्रपंसर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रकको पूर्वादि दिशाओंमें प्रदक्षिण रूप वे विजयादिक उत्तम विमान हैं । कोई प्राचार्य इसप्रकार भी प्ररूपण करते हैं ॥१२६॥ पाठान्तर । सोहम्मो ईसाणो, सणयकुमारो सहेव माहियो । बम्हो बम्हुत्तरयं, लंतव-कापिट्ट - सुक्क - महसुक्का ॥१२७॥ सदर-सहस्साराणव-पाणव-पारणय'-अच्चुदा णामा। इय सोलस कप्पाणि, मण्णते केइ आइरिया ॥१२८।। पाठान्तरम् । एवं गाम-परूवणा समत्ता ॥४॥ अर्थ-सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र, महा. शुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणल, आरण और अच्युत नामक ये सोलह कल्प हैं। कोई आचार्य ऐसा भी मानते हैं ।।१२७-१२८।। इसप्रकार नाम प्ररूपणा समाप्त हुई ॥४॥ कल्प एवं कल्पातीत विमानोंकी स्थिति और उनकी सीमाका निर्देश कणयद्दि-चूल-उरि, किंचूणा-विवड्ढ-रज्जु-बहलम्मि । सोहम्मीसारणक्खं, कप्प - दुगं होदि रमणिज्जं ॥१२६।। १. द, ब, क. ज. ठ. आरणया । २.६. ब. क. ज. ठ. १४३। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] तिलोयपणती [ गाथा : १३०-१३५ पर्ष-कनकाद्रि ( मेरु ) पर्वतकी चूलिकाके ऊपर कुछ कम डेढ़ राजूके बाल्यमें रमणीय सौधर्म-ईशान नामक कल्प-युगल है ॥१२६॥ ऊणस्स य परिमाणं, चाल-जुदं जोयणाणि इगि-लक्खं । उत्तरकुरु - मणुवाणं, बालग्गेणादिरित्तमं ।।१३०॥ अर्य-- इस कुछ कमका प्रमाण उत्तरकुरुके मनुष्यों के बालाग्नसे अधिक एक लाख चालीस (१०००४०) योजन है ॥१३०।। सोहम्मीसाणाणं, चमिदय - केदुदंड - सिहरादो। उड्डू असंख-कोडी-जोयण-विरहिब-दिवड-रज्जूए ॥१३१॥ चिट्ठदि कप्प-जुगलं, णामेहि सणपकुमार-माहिया । तच्चरिमिवय - केदण - बंडाइ असंख - जोयणूणेरणं ।।१३२॥ रए अणं, कप्पो चेट्टीवि तत्थ बम्हक्लो । तम्मेत्ते पत्तेक्क, लंतध - महसुक्कया' सहस्सारो ॥१३३॥ आणव-पाणद-प्रारण-प्रच्छुअ-कप्पा हवंति उवरुवार । तत्तो प्रसंख - जोयण - कोडीमो उवरि अंतरिदा ॥१३४।। कप्पातीदा पड़ला, एक्करसा होंति ऊण - रज्जूए । पढमाए अंतरादो, उवरुरि होति अधियानो ॥१३॥ पर्थ-सौधर्म-ईशान सम्बन्धी मन्तिम इन्द्रकके ध्वज-दण्डके शिखरसे ऊपर असंख्यात करोड़ योजनोंसे रहित डढ़ ( १६) राजूमें सनत्कुमार-माहेन्द्र नामक कल्प-युगल स्थित है। इसके अन्तिम इन्द्रक सम्बन्धी ध्वज-दण्डके ऊपर असंख्यात योजनोंसे कम अर्धराजूमें ब्रह्म नामक कल्प स्थित है। इसके आगे इतने मात्र अर्थात् अर्ध-अर्ध राजूमें ऊपर-ऊपर लान्तय, महाशुक्र, सहस्रार, आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पोंमेंसे प्रत्येक है । इसके आगे असंख्यात-करोड़ योजनोंके अन्तरसे ऊपर कुछ कम एक राजमें शेष ग्यारह कल्पातीत पटल हैं । इनमें प्रथमके अन्तरसे ऊपर-ऊपरका अन्तर अधिक है ।।१३१-१३५।। [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए ] १. द.म.क.ज.ठ.सुक्कय । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । १३५] मट्ठमो महाहियारो [ ४७३ चिठ.अनुजर st |TITA नायक फिल्म मारण प्राणत आनन -शन - - सनाली में ऊपर की ओर से देखने पर HTRA मि.कम + ----- -- - -२शत Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] तिलोयपणती [ गाथा : १३६-१३९ कप्पाणं सोमानो, णिय-णिय चरिमिंदयाण धय-वंडा । किचूणय • लोयंतो, कप्पातीदाण अवसारणं ॥१३६॥ एवं सीमा-परूवणा समत्ता ॥५॥ प्रपं-कल्पोंकी सोमाएं अपने-अपने अन्तिम इन्द्रकोंके ध्वज-दण्ड हैं और कुछ कम लोकका अन्त कल्पातीतोंका अन्त है ।।१३६।। उका होजाती पर: सप्त हुई ॥५॥ सौधर्म आदि कल्पोंके प्राश्रित श्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक विमानोंका निर्देश उड-पहुवि-एक्कतीसं, एवेसु पुष्य-अवर-दक्षिणदो । सेढीबद्धा गइरदि-प्रगल-दिसा-ठिव - पहण्णा य ॥१३७॥ सोहम्मकप्प-णामा, तेसु उत्तर - विसाए सेढिगया। मरु - ईसारण - विस-दिव - पण्णया होंति ईसाणे ॥१३॥ अर्थ-ऋतु आदि इकतीस इन्द्रक एवं उनमें पूर्व, पश्चिम और दक्षिणके श्रेणीबद्ध; तया नैऋत्य एवं प्राग्नेय दिशामें स्थित प्रकीर्णक, इन्हींका नाम सोधर्मकल्प है। उपर्युक्त ( उन ) विमानों की उत्तर दिशामें स्थित श्रेणीबद्ध और वायव्य एवं ईशान दिशामें स्थित प्रकीर्णक, ये ईशान कल्पमें हैं ।।१३७-१३०॥ कल्प ... . Noo६० 1000530000 2009 कम मंजण-पहुवी सत्त य, एदेसि पुथ्व-प्रवर-वरिखणदो । सेढीबद्धा पइरदि - अणल'-विस - द्विव-पइण्णा य ॥१३॥ १, इ.स. . ज. उ. अणिल । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १४०-१४६ ] अमो महाहियारो णामे सणकुमारो, तेसु उत्तर बिसाए सेढिगया । पवणीसाणे' संठिय पइण्णया होंति माहिं ॥ १४० ॥ अर्थ - अञ्जन आदि सात इन्द्रक एवं उनके पूर्व, दक्षिण और पश्चिमके श्र ेणीबद्ध तथा नैऋत्य एवं प्राग्नेय दिशामें स्थित प्रकीर्णक, इनका नाम सनत्कुमार कल्प है। इन्हींकी उत्तर दिशा में स्थित श्र ेणीबद्ध और पवन एवं ईशान दिशा में स्थित प्रकीर्णक, ये माहेन्द्र कल्पमें हैं ।। १३९-१४० ।। रिट्ठादी चत्तारो, एवाणं च विसासु सेढिगया । विदिसा पइण्णयाणि, ते कप्पा ब्रम्ह णामे ॥ १४१ ॥ - अ-अरिष्टादिक चार इन्द्रकों तथा इनकी चारों दिशाओंके श्ररेणीबद्ध और विदिशाओं के प्रकीर्णकका नाम ब्रह्म रूप है ।। १४१ ।। पाई | बम्हहिवयादिवर्थ एवाणं च विसासु सेटिगया । विदिसा पहण्णयाई, णामेणं लंतवो कप्पो ॥ १४२ ॥ - · म - ब्रह्महृदयादिक दो इन्द्रकों और इनकी चारों दिशाओं में स्थित श्रेणीबद्ध तथा विदिशाओंके प्रकीर्णकोंका नाम लान्तव कल्प है ।। १४२ ।। shrihar नाम महाशुक्र करूप है || १४३ || महसुक्क -इंदओ तह, एदस्स य चड-बिसालु सेडिगया । विविसा पइण्णयाई, कप्पो महसुक्क - जामेगं ॥ १४३॥ - - अर्थ – महाशुक इन्द्रक तथा इसको चारों दिशाओं में स्थित श्रेणीबद्ध और विदिशाओं के म इंवय सहस्तयारी, एक्स्स चच विविसा पद्दण्णयाई, होदि दिसासु सेडिगया । सहस्सार णामेणं ॥ १४४ ॥ [ ४७५ अर्थ – सहस्रार इन्द्रक और उसकी धारों दिशाओं में स्थित श्रेणीबद्ध एवं विदिशाओं के प्रकीर्णकों का नाम सहस्रार कल्प है ।। १४४ । - श्राण- पहूदी छक्कं एवस्स य पुण्य अवर- वक्खिणदो । सेढीबद्धा णइरदि - अणल-बिस द्विव पहण्णामि ॥ १४५ ॥ - · श्राणद- आरण णामा, दो कप्पा होंति पाणवच्चुवया । उत्तर- दिस-सेढिगया, समीरणीसाग दिस-पइष्णा य ॥१४६॥ 1 १. . . पवणी माणं सहिद, क. ज. उ. पणयसादि २. द. व. पइन्णमा, ज. ठ ३ द.व. क. ड. 3. अरिगल । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणाती था: १४७-१५० अर्थ-पानत आदि छह इन्द्रकों और इनकी पूर्व, पश्चिम एवं दक्षिण दिशामें स्थित श्रेणीबद्ध तथा नैऋत्य एवं आग्नेय दिशामें स्थित प्रकीर्णकोंका नाम प्रानत और प्रारण दो कल्परूप है। इन्हीं इन्द्रकोंकी उत्तर दिशामें स्थित श्रेणीबद्ध तथा वायव्य एवं ईशान दिशाके प्रकीर्णकोंका नाम प्राणत और अच्युत कल्प है ।।१४५-१४६।। हेडिम-हेट्ठिम-पमुहे, एक्केवक सुदंसणामो पडलारिण । होंति है एवं कमसो, कप्पातीदा ठिवा सम्वे ।।१४७॥ मर्थ-अधस्तन-अधस्तन प्रादि एक-एकमें सुदर्शनादिक पटल हैं। इसप्रकार क्रमशः सब कल्पातीत स्थित हैं ।।१४७।। जे सोलस कप्याणि, केई इच्छति ताण उवएसे । अम्हादि • चउ - दुगेसु, सोहम्म-दुर्ग व 'विम्मेदो ॥१४॥ पाठान्तरम् । मर्थ-जो कोई प्राचार्य सोलह कल्प मानते हैं, उनके उपदेशानुसार ब्रह्मादिक चार युगलों में सौधर्म-युगलके सदृश दिशा-भेद है ॥१४८।। पाठान्तर। सौधर्मादि कल्पोंमें एवं फरुपातीतोंमें स्थित समस्त विमानोंको संख्याका निर्देश-- बत्तीसट्टाबोस, बारस अटुं कमेग लक्खाणि । सोहम्मावि चउक्के, होंति विमाणाणि विविहारिण ॥१४६॥ ३२००००० । २८००००० । १२०००००। ८०००००। मर्म-सौधर्मादि पार कल्पोंमें तीनों प्रकारके विमान क्रमशः बत्तीस लाख (३२०००००), पट्ठाईसलाख (२८०००००), बारह लाख ( १२०००००) और आठ लाख (८०००००) हैं ॥१४६।। घउ-लक्खाणि बम्हे, पण्णास-सहस्सयाणि लतथए । चालीस - सहस्साणि, कम्पे महसुक्क - णामम्मि ॥१५॥ ४००००० । ५००००।४००००। 1.द.ब. वदि मेवो,क... बहि भेदो। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १५१ - १५४ j महादिया [ ४७७ - इन्द्रकादिक तीनों प्रकार के विमान ब्रह्म कल्पमें चार लाख ( ४००००० ), लान्तवकल्पमें पचास हजार ( ५०००० ) और महाशुक नामक कल्पमें चालीस हजार ( ४०००० ) हैं ।। १५० ।। छस्सेव सहस्वाणि, होंति सहस्सार- कप्प-णामम्मि । सस-सयाणि विमाणा, कप्प- चउक्कम्मिश्रणव- प्प मुहे ।। १५१ ।। ६००० ७०० अर्थ उक्त विमान सहस्रार नामक कल्पमें छह हजार ( ६००० ) और यानंत प्रमुख चार कल्पों में सात सौ ( ७०० ) हैं ।। १५१ ।। - गण - सत्त छण्णव चउ-श्रटु क कमेण इंदयावि-तिए । परिसंखा णादव्या, बावण्णा कप्प - . पडले ॥१५२॥ ६४९६७०० । अर्थ--शून्य शून्य, सात, छह, नौ, चार और आठ इस प्र क्रमसे अर्थात् चौरासी लाख अन हजार सात सौ ( ८४९६७०० ), यह बावन ( ५२ ) कल्प- पटलोंमें इन्द्रादिक तीन प्रकारके विमानों की ( कुल ) संख्या है ।। १५२ ॥ ॥ - एक्कारसुत्तर-सवं, हेडिम- गेवेज्ज-तिज विमाणाणि । मक्किम - गेवेज्ज लिए, सत्तम्भहियं सयं होबि ॥ १५३ ॥ १११ । १०७ । अर्थ - -- प्रधस्तन तीन ग्रैवेयकोंके विमान एक सौ ग्यारह (१११ ) और मध्यम तीन ग्रैवेयकों में एक सौ साल ( १०७ ) विमान हैं ।। १५३ ।। एक्कन्भहिया गडबी, उबरिम- गेवेज्ज-तिय-विभाणाणि । - पंच विमारारिंग, अणुद्दिसागुत्तरेसु कमा ।। १५४ ।। ९१।९।५ । अर्थ-उवरिम तीन ग्रैवेयकों के विमान इक्यानबे ( ११ ) और अनुदिश एवं अनुत्तरोंमें क्रमशः नौ और पांच ही विमान हैं ।। १५४ ।। - विशेषार्थ -- कल्प पटलों में स्थित इन्द्रक, अणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंकी कुल संख्या ८४९६७०० है । इसमें नव- ग्रंवेयकों के ( १११ + १०७ +९१ ) ३०९ विमान तथा अनुदिनोंके ९ और अनुत्तरोंके ५ विमान और मिला देने पर विमानोंका कुल प्रमाण ८४९७०२३ होता है । जिसकी तालिका इसप्रकार है Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] तिलोयपणती [ गापा । १५५-१५७ क्रमांक स्वर्गों के नाम विमानों की संख्या क्रमांक स्वर्गों के नाम विमानों का संस्था सौधर्म कल्प ३२००००० मानत, प्राणत । ० २८००००० " आरण, अच्युत अधस्तन ग्रेवे. १२००००० " ऐशान , सानत्कुमार, माहेन्द्र । ब्रह्म , A ० मध्यम १०७ ४००००० लान्तव, ५०००० हजार उपरिम , अनुदिश अनुत्तर महाशुक्र । ४०००० सहस्रार , ६००० ॥ योग = ८४६७०२३ सौधर्माधि कल्प स्थित श्रेणीबद्ध विमानों की संख्या प्राप्त करने हेतु मुख एवं गच्छका प्रमाणछासीवी-अधिय-सय, बासट्टी सस-विरहिदेवक-सयं । इगितीसं छपउवी, सौदी बाहत्तरी य अडसट्ठी ॥१५॥ घउसट्ठी चालीस, अडवोसं सोलसं च चउ चउरो। सोहम्मादी - अद्वसु, प्राणद - पहुदोसु च उसु कमा ॥१५॥ हेडिम-मझिम-उवरिमगेवेग्जेसु प्रणहिसावि-दुगे । सेढीवर - पमाण - प्पयास - णटुं इमे पभवा ॥१५७।। १८६ । ६२ । ९३ । ३१ । १६ । १० । ७२ । ६८ । ६४ । ४० । २८ । १६ । ४ । ४ । पर्थ-सौधर्मादिक पाठ, पानत आदि चार तथा अधस्तन, मध्यम एवं उपरिम वेयक और अनुदिशादिक दो में श्रेणीबद्धोंका प्रमाण लानेके लिए क्रमश: एक सौ छियासी, बासठ, सात कम एक सौ (९३), इकतीस, छपानबै, अस्सी, बहत्तर, अड़सठ, चौंसठ, चालीस, अट्ठाईस, सोलह, चार और चार, यह प्रभव ( मुख) का प्रमाण है ॥१५५-१५७।। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । १५८- १५९ ] अमो महाहियारो सोहम्माविच उनके तिय-एकक-तिथेक्कयाणि रिणप-चो । शु चढ ग वाणि : - स्थानों में गच्छ रखना चाहिए ।। १५९ ।। - ३ । १ । ३ । १ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । श्रथं सौधर्मादिक चार कल्पोंमें तीन, एक, तीन और एक हानि चय है। शेष कल्पों में चार-चार रूप जानना चाहिए ।। १५८६ ।। इगितीस सत्त-च- दुग एवकेवक्र-छ-ति-ति-तिय-एक्के का । ताणं कमेण गच्छा, बारस — णावदा ।। १५६ ।। - [ ४७९ ३१ । ७ । ४ । २ । १ । १ । ६।३।३।३।१ । १ । अर्थ - इकतीस, सात, चार, दो, एक, एक, छह तीन, तीन, तीन, एक और एक, इन बारह + ठाणेसु ठविवठवा ॥ १५६ ॥ विशेषार्थ - उपर्युक्त गाथा १५६ में जो गच्छ संख्या दर्शाई गई है वही प्रत्येक युगलके पटलोंकी अर्थात् इन्द्रक विमानोंकी संख्या है । यथा - सौधर्म युगल में ३१ इन्द्रक, सानत्कुमार युगलमें ७, ब्रह्म रूप में ४, लान्तव कल्पमें २, महाशुक कल्प में १, सहसार कल्पमें १, आनतादि चार कल्पोंमें ६. अघस्तन तीन ग्रैवेयकोंमें ३, मध्यम तीन ग्रैवेयकोंमें ३, उपरिम तीन ग्रैवेयकों में ३, नो अनुदिशों में १ तथा पाँच अनुत्तरोंमें १ इन्द्रक विमान हैं । अपने-अपने युगलके गच्छका भी यही प्रमाण है । सोमं कल्में एक दिशा सम्बन्धी थेणीबद्धोंका प्रमाण ६२ है, इनमें से स्व-गच्छ (३१) घटा देनेपर (६२ ३१ ) = ३१ शेष रहे । यही सानत्कुमार युगलके प्रथम पटल में एक दिशा सम्बन्धी श्रेणीबद्धोंका प्रमाण है । इसीप्रकार पूर्व-पूर्व युगल के प्रथम पटलके एक दिशा सम्बन्धी श्रीबद्धों के प्रमाणमेंसे अपने-अपने पटल प्रमाण गच्छ घटानेगर उतरोत्तर कल्पोंके प्रथम पटलके एक दिशा सम्बन्धी श्र ेणीबद्धों का प्रमाण प्राप्त होता है । यथा - सीधर्मेशान में ६२, सानत्कुमार माहेन्द्र में ( ६२ - ३१ ) : ३१, ब्रह्मकरूप में ( ३१ - ७ ) = २४, लान्तव कल्पमें ( २४ - ४ ) ०२०. महाशुक्रमें (२० - २ ) = १८, सहस्रारमें (१८ - -१) - १७, आनसादि चार कल्पोंमें ( १७ - १ ) १६, अघोग्रैवेयक में ( १६ - ६ ) - १०, मध्यम मैवेयक में ( १० ३) ७, उपरिम ग्रैवेयकमें ( ७ - ३ ) - ४ और अनुदिशों में (४ - ३ ) - १ श्रेणीबद्ध विमान एक दिशा सम्बन्धी है । " पूर्व पश्चिम और दक्षिण, इन तीन दिशाओंमें स्थित श्रेणीबद्ध दक्षिणेन्द्रके और उत्तर दिशा स्थित श्रेणीबद्ध उत्तरेन्द्रके प्राधीन होते हैं अतः उपर्युक्त श्रेणीबद्ध विमानोंके प्रमाणको Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : १६० दक्षिणेन्द्र अपेक्षा ३ से और उत्तरेन्द्र अपेक्षा एकसे गुणा करनेपर तथा अहाँ दक्षिणेन्द्र-उत्सरेन्द्रको कल्पना नहीं है वहाँ चारसे गुणा करनेपर गाथा १५५-१५७ में कहे हुए आदिधन ( मुख) का प्रमाण प्राप्त होता है। यही ३, १ और ४ उत्तरधन है। इन्हींको हानिचय भी कहते हैं ( गाथा १५८ ), क्योंकि प्रत्येक पटलमें उपयुक्त क्रमसे ही श्रेणीबद्ध घटते हैं। गा० १५५ - १५७ में कहे हुए मादिधन ( मुख ) का प्रमाण सौधर्मकल्पमें ( ६२४३- ) १८६, ईशानकल्पमें (६२४१-) ६२, सानत्कुमारमें ( ३१४३- ) ९३, माहेन्द्र में ( ३१४१-- ) ३१, ब्रह्मकल्पमें ( २४४४.) ९६, लान्तव कल्पमें (२०४४-) ८०, महाशुक्रमें ( १८४४- ) ७२. सह. में ( १७४४% ) ६८, पानतादि चारमें (१६x४- ) ६४. अधोवे० में ! १०५४= } ४० मध्यम पैदे में ( ७४४= ) २८, उपरिम अवेयक में ( ४४४= ) १६ और नव अनुदिशोंमें (१४४-) ४ आदिधनों (मुखों ) का प्रमाण है। गाथा १५९ में कहे हुए गच्छका प्रमाण अपने-अपने पटल (३१,७,४, २, १, १,६॥ ३, ३ पोर १.) प्रमाण होता है । इसप्रकार मादिधन (हानिषय ), उत्तरधन और गच्छका ज्ञान हो जानेपर दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के श्रेणीबद्धोंका सर्व-संकलित धन प्राप्त करनेकी विधि मताते हैं। संकलित धन प्राप्त करनेकी विधिगच्छं चएण गुणिवं, दुगुणिव-मुह-भलिख चय-विहीणं । गच्छद्ध गप्प - हवे, संकलिवं एत्य गादब्वं ॥१६०॥ . . मर्य-दुगुणित मुखमें चय जोड़कर उसमेंसे चय गुणित गच्छ घटा देनेपर जो शेष रहे उसे गच्छके अर्धभागसे गुणित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो यह यहाँ संकलित धन जानना चाहिए ।।१६०॥ विशेषार्थ-दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्रके श्रेणीबद्धोंका सर्व संकलिस धन प्राप्त करनेके लिए गाथा सूत्र इसप्रकार है प्रत्येक कल्पके श्रेणीबद्ध= [ ( मुख x २ + चय) - ( गच्छ x चय)] ४गच्छ सभी कल्पाकल्पोंके अपने-अपने श्रेणीबद्ध विमान इसी सूत्रानुसार प्राप्त होंगे। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -:-- गाया : १६१-१६४ ] अट्ठमो महाहियारो [ ४८१ सभी कल्पाकल्पोंके पृथक्-पृथक् श्रेणीबद्ध और इन्द्रक विमानोंका प्रमाण तेवालीस-सयाणि, इगिहतरि • उत्तराणि सेडिगया। सोहम्म - णाम - कप्पे, इगितीसं इंदया होति ॥१६॥ ४३७१ । ३१ । अर्थ-सीधर्मनामक कल्पमें तैंतालीस सौ इकहत्तर श्रेणीबद्ध विमान और इकतीस ( ३१) इन्द्रक विमान हैं ।।१६१। विशेषार्थ-उपर्युक्त गाथा-सूत्रानुसार सौधर्मकल्पके श्रेणीबद्ध = [ ( १८६४२+३)(३१४३ )]x३१-४३७१ हैं । सतावण्णा चोद्दस - सयाणि सेटिंगवाणि ईसाणे । पंच • सया अडसीवी, सेढिगया सत्त इंश्या तदिए ॥१२॥ १४५७ । ५८८ । ७ । मर्थ-ईशानकरूपमें चौदह सौ सत्तावन श्रेणीबद्ध हैं। तृतीय ( सानत्कुमार ) कल्पमें पाँचसो अठासी श्रेणीबद्ध और सात (७) इन्द्रक विमान हैं ।।१६२।। विशेषार्य-उपर्युक्त ३१ इन्द्रक विमानोंके केवल उतर दिशागत श्रेणीबद्ध विमान ही इस कल्पके आधीन हैं, अतएव यहाँके मुखका प्रमाण ६२, चय १ और गच्छ ३१ है । गा० १५० के सूत्रानुसार ईशानकल्पके श्रेणीबद्ध [( ६२४२+१)-(३१ x १)]x.1= १४५७ हैं । सानत्कुमारके श्रेणीबद्ध= [( ९३४२+३)- (७४३) ] x =५८८ हैं । माहिदे सेढिगया, छण्णउदो - जुद-सथं च बम्हम्मि । सट्ठी - जुद - ति - सयाई, सेढिगया इश्य - चउक्कं ॥१६॥ १९६ । ३६० । ४ । अर्थ-माहेन्द्रकल्पमें एक सौ छयानब श्रेणीबद्ध हैं । ब्रह्मकल्पमें तीन सौ साठ श्रेणीबद्ध प्रौर चार इन्द्रक विमान हैं ।।१६३।। माहेन्द्रके श्रेणीबद्ध = [ ( ३१४२+१)-(७४१) ] x = १९६ ब्रह्मकल्पके श्रेणी०= [ ( ९६ ४२+४)-- ( ४४४ ) Jxt=३६० छप्पण्णब्भहिय - सयं, सेढिगया इंश्या बुवे छ8 । महसुक्के बाहत्तरि, सेढिगया इंदनो एक्को ।।१६४।। १५६ । २ । ७२ । १ । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : १६५-१६७ श्रयं - छठे ( लान्तव ) कल्प में एक सी छप्पन सीबद्ध और दो इन्द्रक हैं तथा महाशुक्रकल्प में बहत्तर श्र ेणीबद्ध और एक इन्द्रक है ।। १६४।। लान्तवकल्पमें श्र ेणीबद्ध [ ( ८०x२+४) – ( २x४ ) ] x १ - १५६ हैं । महाशुक्रकल्प में श्रणीबद्ध = [ ( ७२×२ + ४ ) - ( १४४ ) ] × ३ = ७२ हैं । सट्ठी सेढिगया, एक्को चिचम इंदयं सहस्सारे । चवीसुतर तिसया छ-डंदया श्राणवादिय- उषके ।। १६५ ।। ६८ । १ । ३२४ । ६ । अर्थ - सहस्रार में अड़सठ श्र ेणीबद्ध और एक इन्द्रक है तथा आनतादिक चार में तीन सो चौबीस श्रेणीबद्ध और छह इन्द्रक हैं ।। १६५।। सह० कल्प में श्रीबद्ध - [ ( ६८x२+४ ) – ( १ × ४ ) ] × ३ = ६८ हैं । श्रानतादि चार श्र ेणीबद्ध - [ { ६४×२+४ ) – ( ६x४ ) ] × ई-३२४ हैं । हेट्टिम - मज्झिम-उबरिम - गेवेज्जाणं च सेढिगय-संखा । अट्टम्भहि एक सयं, कमसो बाहत्तरीय छत्तीसं ॥१६६॥ १०६ । ७२ । ३६ । अर्थ-अधस्तन, मध्यम और उपरिम ग्रैवेयकोंके श्र णीबद्ध विमानोंकी संख्या क्रमश: एक सौ आठ, बहत्तर और छत्तीस है ।। १६६ ॥ अधस्तन ग्रं० के श्र ेणीबद्ध [ ( ४०x२+४) – {३x४) ]×३= १०८ हैं । मध्यम ग्रं० के श्रणीबद्ध - [ ( २६x२ + ४ ) - ( ३x४ ) ] x ३ = ७२ हैं । उपरिम ० के श्रीबद्ध = [ ( १६४२+४ ) – ( ३×४ ) ] ×३=३६ हैं । ताणं गेवेज्जाणं, पत्तेक्कं तिष्णि इंवया चउरो । सेटिगवाण अणुद्दिस अणुत्तरे इदया हु एक्केषका ॥ १६७॥ · -- उन ग्रैवेयकों में से प्रत्येक में तीन इन्द्रक विमान हैं। अनुदिश और अनुत्तरमें चार ( चार ) श्र ेणीबद्ध और एक-एक इन्द्रक विमान हैं ।। १६७ ।। अनुदिशों में श्र ेणीबद्ध - [ ( ४x२+४) – (१×४ ) ] × ३=४ हैं । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म महाहियारो प्रकीर्णक विमानोंका अवस्थान और उनकी पृथक्-पृथक् संख्या सेठीणं विच्चाले पण कुसुमावमा" - संठाणा । होंति पइण्णय खामा, सेढिवय- हीण- रासि समा ॥ १६८ ॥ गाथा : १६६ - १७२ ] - अर्थ - श्रीबद्ध विमानों के बीचमें बिखरे हुए कुसुमोंके सदृश आकारवाले प्रकीर्णक नामक बिमान होते हैं । इनकी संख्या श्रेणीबद्ध और इन्द्रकोंसे होन अपनी-अपनी राशिके समान है ।। १६८ ।। इगिती लक्खाणि, पणणउदि सहस्स पण सम्राणि पि । अट्ठारणउदि जुवाणि पइण्णया होंति सोहम्मे ॥ १६६ ॥ ३१९५५६८ । अर्थ —– सौधर्मकल्प में इकतीस लाख पंचानबे हजार पाँच सौ अट्ठानबे ( ३१९५५६८ ) प्रकीर्णक विमान हैं ॥१६६॥ सत्तावीस लक्खा, श्रणउवि - सहस्स परण-सयाणि पि । तेदाल उत्तराई पइण्णया होंति ईसा ॥ १७० ॥ विमान हैं ।। १७२ ।। [ ४८३ २७६६५४३ । अर्थ – ईशानकल्पमें सत्ताईस लाख श्रद्वानबे हजार पाँच सौ तेतालीस ( २७९६५४३ ) प्रकीर्णक विमान हैं ॥ १७० ॥ एक्कारस- लक्खाणि, णषणउदि सहस्त थउ-सा रिंगपि । पंचतराइ कप्पे, सणक्कुमारे पइण्णया होंति ।। १७१ ॥ ११९९४०५ । अर्थ —– सानत्कुमार कृरूपमें ग्यारह लाख निन्यानबे हजार चार सौ पाँच ( ११९९४०५ ) प्रकीर्णक विमान हैं ॥ १७१ ॥ सच्चिय लक्खाणि, णवणउदि सहस्त अडसयाणं पि । चउरुत्तराइ कप्पे, पण्णया होंति माहिये ।।१७२ ।। ७९९६०४ । पर्थ - माहेन्द्रकल्प में सात लाख निन्यानबे हजार आठ सौ चार ( ७९९६०४ ) प्रकीर्णक १. व. ब. क. ज. 3. कंसुडवमाण । २. द. ज. ठ. पंचुतर । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ] तिलोय पण्णत्ती छत्तीसुत्तर-छ-सया, णवणउदि सहस्सयापि तिय-लक्खा । एवाणि ब्रम्ह कप्पे, होंति पइण्णय विमारणारं ॥ १७३ ॥ · 1 गाया : १७३ - १७६ ३९९६३६ । अर्थ - ब्रह्मकरूपमें तीन लाख निन्यानबे हजार छह सौ छत्तीस ( ३६९६३६ ) प्रकीर्णक विमान हैं ।। १७३ || उणवण्ण-सहस्सा अड-सयाणि बादाल तारिण लंतबए । वणवाल - सहरसा पत्र-सयाणि सगवीस महसुषके ।। १७४।। ४९८४२ । ३६६२७ । अर्थ-लान्तव करूपमें उनंचास हजार आठ सौ बयालीस (४१८४२ ) और महाशुक्र में उनतालीस हजार नौ सौ सत्ताईस ( ३९९२७ ) प्रकीर्णक विमान हैं ।। १७४ ।। उपससिया इगितीस उत्तरा होंति से सहस्सारे । सत्तर- जुद-ति-सयाणि, कप्प-चउनके पहण्या सेसे ।। १७५ ।। ५१३१ । ३७०। अर्थ-वे प्रकीर्णक विमान सहस्रार कल्पमें पांच हजार नौ सो इकतीस ( ५९३१ ) और शेष चार कल्पों में तीन सौ सत्तर ( ३७० ) हैं ॥ १७५ ॥ ग्रह हेट्टिम - गेवेज्जे, ण होंति तेसि पहष्णय विमाणा । बसीसं मज्झिल्ले, उबरिमए होंति भावण्णा ॥ १७६ ॥ ० । ३२ । ५२ । अर्थ — अवस्तन ग्रंवेयक में उनके प्रकीर्णक विमान नहीं हैं। मध्यम वेयकमें बत्तीस (३२) और उपरिम बेयकमें बावन (५२ ) प्रकीर्णेक विमान हैं ।। १७६ ॥ ( गाथा १६६ और १७६ से सम्बन्धित चित्र इसप्रकार है ) [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा । १७६ ] अट्ठमो महाहियारो [ ४८५ प्रीतिका स्वक POO MEौमास्टन सौमनसक उपरिन गायक प्रमणेक निमान सुमनसायक POOM K / बायक प्रमिर्गक नमान यधर इन्द्रक Hilit -50 PoCootण्डर रक Jook ooooodhpoisong अमोघ हदम्ब Foo(60) -Poom Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] अर्थ - इसके आगे अनुदिशों में चार उत्तम प्रकीर्णक विमान हैं। तिरेसठवें पटल में प्रकीर्णक नहीं हैं। श्रीबद्ध विमान हैं ।। १७७ ।। कल्प-नाम विशेषार्थ - श्रशोबद्ध विमानोंके अन्तराल में पंक्ति होन, बिखरे हुए पुष्पोंके सदृश यत्र तत्र स्थितविमानों को प्रकीर्णक विमान कहते हैं । प्रत्येक स्वर्ग में विमानों की जो सम्पूर्ण संख्या है, उसमें से अपने-अपने पटलोंके इन्द्रक और श्रीबद्ध विमानों की संख्या कम करने पर जो अवशेष रहे वही प्रकीर्शकों का प्रमाण है । यथा सोमं कल्प ऐशान 37 सानत्कुमार महेन्द्रकल्प ब्रह्म- कल्प लान्तव कल्प महाशुक सहस्रार आनतादि ४ अधोग्रं येयक तिलोयपणाती ततो अणुद्दिसाए, चत्तारि पइण्ण्या वर विमाणा । · तेसट्ठि प्रहिप्पाए, पइष्णया णत्थि श्रत्थि सेढिगया ।।१७७ ।। मध्यम " उपरिम अनुदिश अनुत्तर " सर्व विमान संख्या 1 ३२००००० २८००००० १२००००० ८००००० ४००००० ५०००० 100002 ६००० 9001 १११ १०७ ६१ ε ५ इन्द्रक + श्र ेणीबद्ध = ( ३१+४३७१ ) = ( ० + १४५७ ) == ( ७+ ५०० ) = [ गाथा : १७७ ( ०+१९६ ( ४+३६० ) ( २+१५६ ) ( १+७२ ) = ( १+६८ ) = ( ६ + ३२४ ) = (३+१०६ ) = ( ३+७२ ) = ( ३+३६ ) = ( १ + ४ } = ( ? +8 ) = === प्रकीर्णक ३१९५५९८ २७९८५४३ ११६६४०५ ७९९८०४ ३६६६३६ ४९६४२ ३९९२७ ५६३१ ३७० 0 ३२ ५२ ४ ० Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १७६ - १८२ ] agat महाहियree प्रकारान्तरसे विमान संख्या जे सोलस कप्पाई, केई इच्छति ताण उवएसे । तस्सि तस्ति श्रोच्छं परिमाणाणि विमाणानं ॥ १७८ ॥ - श्रथं जो कोई सोलह कल्प मानते हैं उनके उपदेशानुसार उन उन कल्पों में विमानोंका प्रमाण कहते हैं ।। १७८ ॥ बत्तीसट्टावीसं', बारस टु कमेण लक्खाणि । सोहम्मादि - चउक्के, होंति विमाणाणि विविहाणि ॥ १७६ ॥ ३२००००० | २८००००० | १२००००० ८००००० | अर्थ- सौधर्मादि चार कल्पोंमें क्रमशः बत्तीस लाख ( ३२००००० ), अट्ठाईस लाख ( २८००००० ), बारह लाख ( १२००००० ) और आठ लाख ( ८००००० ) प्रमारण विविध प्रकारके विमान हैं ।। १७९ ॥ छण्णउवि उत्तराणि, दो-लक्खाणि हवंति महम्मि । बहुत रम्मि लक्खा, वो वि य छष्ण उवि परिहीणा ॥ १८० ॥ [ ४८७ २०००९६ । १९९९०४ । अर्थ - ब्रह्मकरूपमें दो लाख छात्र ( २०००१६ ) और ब्रह्मोत्तर कल्पमें छान कम दो लाख ( १६६६०४ ) विमान हैं ।। १८० ॥ पणवीस - सहस्साईं, बादाल-जुदा य होंति लंघए । चवीस- सहस्सारिंग, पत्र सय अडवण्ण कापि ।। १८१ ॥ · २५०४२ । २४९५८ । अर्थ -- लान्तव कल्प में पच्चीस हजार बयालीस ( २५०४२ ) और कापिष्ठ कल्प में चौबीस हजार नौ सौ अट्ठावन ( २४९५८ ) विमान हैं ।। १५१ ।। - वीसुत्तराणि होंति हु, बीस-सहस्साणि सुक्क - कप्पम्मि । ताई चिय महसुत्रके, बीसूणाणि विमाणाणि ॥। १८२ ॥ २००२० । १९९८० १ १. ब. बत्तीस बी । २. ६. ब. क. ज. ठ. महसूक्क । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] तिलोयपत्तो [ गाथा : १८३-१८७ अर्थ-शुक्र कल्पमें बीस अधिक बीस हजार ( २००२०) और महाशुक्र कल्पमें बीस कम बीस हजार ( १९९८० ) विमान हैं ॥१८२।। उणबीस-उत्तराणि, तिग्णि-सहस्साणि सदर-कप्पम्मि । कप्पम्मि सहस्सारे, उणतीस - सयारिण इगिसीबी ॥१३॥ ३०१९ । २९८१। अर्थ-शतार कल्पमें तीन हजार उन्नीस ( ३०१६ ) और सहस्रार कल्पमें दो हजार नौ सौ इक्यासी ( २९८१ ) विमान हैं ॥१८३।। आण-पाणद-कप्पे, पंच-सया सटि-विरहिवा होति । आरण-अमचुद-कप्पे, कु - सयाणि सहि - जुत्ताणि ॥१४॥ ४४० । २६० अर्थ-आनत-प्राणत कल्पमें साठ कम पांच सौ { ४४० ) और आरण-अच्युत करूपमें दो सौ साठ ( २६० ) विमान हैं ।।१८४॥ अहवा प्राणव-जुगले, चत्तारि सयाणि वर-विमाणाणि । प्रारण - अमचुद - कप्पे, सयाणि तिणि य हवंति ॥१५॥ पाठान्तरम् । ४०० । ३००। प्रर्ष-अथवा, आनत युगलमें चार सौ ( ४०० ) और पारण-अच्युत कल्पमें तीन सौ ( ३०० ) उत्तम विमान हैं ।।१८।। ___ संख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंकी संख्या--- कप्पेसु संखेज्जो, विक्खंभो रासि-पंचम-विभागो। णिय-णिय-संखेज्जुणा, णिय-गिय-रासो असंखेज्जो ॥१८६॥ अर्थ-कल्पोंमें राशिके पाचर्षे भाग प्रमारए विमान संख्यात योजन विस्तारवाले हैं और अपने-अपने संख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंकी राशिसे कम अपनी-अपनी राशि प्रमाण असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ।।१८६।। संखेज्जो विक्खंभो, चालीस-सहस्सयाणि छल्लक्खा । सोहम्मे ईसाणे, चाल - सहस्सूण - छल्लक्खा ॥१७॥ ६४०००० | ५६००००। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : १८८-१९१ ] अट्ठमो महाहियारो [ ४८९ पर्य-सौधर्म कल्पमें संख्यात योजन विस्तार वाले विमान छह लाख चालीस हजार (६४०००० ) और ईशान कल्पमें चालीस हजार कम छह लाख ( ५६०००० ) हैं ॥१७॥ चालीस-सहस्साणि, दो-लक्खागि सगवकुमारम्मि । सट्टि - सहस्सम्भहियं, माहिवे एकक - लक्खाणि ॥१८॥ मर्ष सानत्कुमार कल्पमें संख्यात योजन विस्तारवाले विमान दो लाख चालीस हजार ( २४०००० ) हैं और माहेन्द्रकल्पमें एक लाख साठ हजार ( १६०००० विमान ) हैं ॥१८॥ बम्हे' सीदि-सहस्सा, लंतव-कप्पम्मि बस-सहस्साणि । अटु सहस्सा बारस - सयाणि महसुक्कए सहस्सारे ॥१६॥ ८०००० । १०००० । ८००० । १२००। प्रपं-ब्रह्म कल्पमें संख्यात योजन विस्तारवाले विमान अस्सी हजार (८००००), लान्तव कल्पमें दस हजार ( १००००), महाशुक्रमें आठ हजार ( ८०००) और सहस्रार कल्पमें बारह सौ (१२०० ) है ।।१८।। प्राणव-पाणव-पारण-प्रच्चव-गामेसु चउसु कप्पेसु। संखेज्ज - द - संखा, चालग्भहियं सयं होवि ॥१६॥ १४० । मर्ष-पानत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक चार कल्पोंमें संख्यात योजन विस्तार वाले विमानोंकी संख्या एक सौ चालीस { १४० ) है ॥१९॥ तिय-अट्ठारस-सत्तरस-एक्क-एक्काणि तस्स परिमाणं । हेटिम-मज्झिम-उपरिम-गेवेज्जेसु प्रणविसावि-जगे ॥१९१॥ ३1१८ । १७ । १ । १ ! प्रयं-अधस्तन, मध्यम और उपरिम संवेयक तथा अनुदिशादि युगलमें संख्यात पोजन विस्तार वाले विमानोंका प्रमाण क्रमशः तीन, पठारह, सत्तरह एक पोर एक है ॥१९॥ १. ६. ज, 6. बम्हो । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णती [ गाथा : १९२-१९६ असंख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंका प्रमाणपणुवीसं लक्खाणि, सादु-सहस्साणि सो प्रसंखेज्जो । सोहम्मे ईसाणे, लक्खा बावीस चालय - सहस्सा ॥१९२।। २५६०००० । २२४०००० । अर्थ-असंख्यात योजन विस्तारवाले के विमान सौधर्म कल्पमें पच्चीस लाख साठ हजार ( २५६०००० ) और ईशान कल्पमें बाईस लाख चालीस हजार ( २२४०००० ) हैं ।। १९२॥ सट्ठि-सहस्स-जुवाणि, पब-लक्खाणि मणक्कुमारम्मि । चालीस - सहस्साणि, माहिदे छुच्च लक्खाणि ॥१९३॥ ७.०० । ६४०००० ! पर्ष-असंख्यात योजन विस्तार वाले वे विमान सनत्कुमार कल्पमें नौ लाख साठ हजार ( ९६०००० ) और माहेन्द्रकल्पमें छह लाख चालीस हजार ( ६४०००० ) हैं ।।१९३॥ वीस-सहस्सति-लक्खा, चाल-सहस्साणि बम्ह-संतवए। बत्तीस - सहस्साणि, महसुक्के' सो प्रसंखेज्जो ॥१४॥ ३२०००० । ४०००० । ३२००० । प्रर्ष-वे असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान ब्रह्म कल्पमें तीन लाख बीस हजार ( ३२०००.), लान्तव कल्पमें चालीस हजार (४००००) और महाशुक्रमें बत्तीस हजार (३२०००) हैं ।।१९४॥ चत्तारि सहस्साणि, अट्ठ-सयाणि तहा सहस्सारे । प्राणव-पहुवि-चउक्के, पंच - सया सहि - संजुमा ।।१६५॥ ४८०० । ५६० । प्रयं-वे विमान सहस्रार कल्पमें चार हजार अाठ सौ (४८०० ) तथा आनतादि चार कल्पोंमें पांच सौ साठ ( ५६० ) हैं ॥१९॥ अठ्ठत्तरमेक्क-सयं, उणणउदी सत्तरी य चउ-अहिया। हेट्ठिम • मझिम - उवरिम - गेवेज्जेसु असंखेज्जो ॥१६॥ १०८ । ८९ । ७४। १.ब. क. महसुक्कै सु सो असंखेजा। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा । १९७-२०१] अट्ठमो महाहियारो [ ४६१ अर्थ असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान अधस्तन, मध्यम और उपरिम थेयकमें क्रमशः एक सौ पाठ, नवासी और चौहत्तर हैं !!११६। प्रद अदिस-गामे, बहु-रयणमयाणि वर-विमाणाणि । चत्वारि अणुत्तरए, होंति, असंखेज्ज • विस्थारा ॥१९॥ ८।४। प्रयं-असंख्यात विस्तारवाले बहुत रत्नमय उत्तम विमान अनुदिश नामक पटलमें आठ और अनुत्तरोंमें चार हैं ।।१६७।। ___ विमान तलोंके बाहल्यका प्रमाणएक्करस-सया इगिवीस-उत्तरा जोयणाणि पत्तेक्कं । सोहम्मीसाणेसु', बिमाण - तल - बहल - परिमाणं ॥१९॥ प्रयं-सौधर्म और ईशानकल्पमेंसे प्रत्येकमें विमानतलके बाहल्यका प्रमाण ग्यारह सौ इक्कीस ( ११२१ } योजन है ।।१९८।। बावोस - जुद • सहस्स', माहिब-सगक्कुमार-कप्पेसु। तेवीस - उत्तराणि, सयाणि णव बम्ह - कप्पम्मि ॥१६॥ १०२२ । ६२३ । अर्थ-विमानतल-बाहल्यका प्रमाण सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पमें एक हजार बाईस (१०२२) मौर ब्रह्मा कल्पमें नौ सौ तेईस ( ९२३ ) योजन है ।।१९९।। चवीस-जुवट्ठ-सया, लतवए पंचवीस सत्त - सया। महसुक्के छब्बीसं, छच्च - समाणि सहस्सारे ॥२०॥ ८२४ । ७२५ । ६२६ । अर्थ-विमानतल बाहल्य लान्तव कल्पमें आठ सौ चौबीस ( ५२४ ), महाशुक्रमें सात सौ पच्चीस ( ७२५ ) और सहस्रारमें छह सौ छब्बीस ( ६२६ ) योजन है ।।२००!! आणद-पहुदि- चउक्के, पंच-सया सत्तबोस-अम्भहिया। अडवीस चउ - सयाणि, हेडिम - गेवेज्जए होंति ॥२.१॥ ५२७ । ४२८ । १६. क. ज. सहस्सा। २. द. 4. क.अ. . पक्कं । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ ] तिलोयपणत्ती [ गाथा : २०२ प्रर्थ-विमानतल-बाहल्य प्रानतादि चार कल्पोंमें पांच सौ सत्ताईस (५२७ ) और अधस्तन अवेयकमें चार सौ अट्ठाईस ( ४२८ ) योजन है 1॥२०१॥ उणतीसं लिग्णि-सया, मझिमए तीस-पहिय-कु-सयाणि । उपरिमए एक्क - सयं, इगितीस अणुद्दिसादि - युगे ॥२०२।। __३२९ । २३० । १३१ । अर्थ-विमानतल बाहल्य मध्यम वेयकमें तीन सौ उनतीस ( ३२९), उपरिम वेयकमें दो सौ तीस ( २३० ) और अनुदिशादि दो ( अनुदिश और अनुत्तर ) में एक सौ इकतीस ( १३१) योजन है ।।२०२॥ उपयुक्त विमानोंका प्रमाण और तल-मागके बाहल्य प्रमाण की सालिका इसप्रकार है [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २०३ - २०४ ] क्रमाक १ २ ३ * ५ ६ ૭ ८ नाम सौधर्म कल्प ऐशान कल्प सनत्कुमार कल्प माहेन्द्र कल्प ब्रह्म कल्प लाग्तव कल्प महाशुक्र कल्प सहस्रार कल्प श्रानसादि ४ ९ १० अधो प्रेवे० ११ मध्यम १२ उपरिम १३ अनुदिश १४ अनुसय " संख्यात यो० विस्तार वालों का प्रमाण + गा० १८७-१९१ ६४००००+ ५६००००+ २४००००+ १६००००+ 50000+ अम महाहियारो [ ४३ प्रसंख्यात यो० वि० विमानोंका कुल विमान तल का वालों का प्रमाण = गां० १९२-१९७ प्रमाण बाहल्य गा. १४९ - १५४] गा० १९८-२०२ १००००+ 5000+ १२०० + १४०+ ३+ १५+ १७+ १+ १+ - २५६००००= २२४००००= ९६०००० ६४००००= ३२००००= ४०००० कृष्ण वर्णसे रहित शेष चार वर्णवाले हैं ॥। २०३ || ३२००० ४८०० ५६०= १०८ 5&= ७४ ६८ ४= ३२००००० २८००००० १२००००० ८००००० ४००००० ५०००० ४०००० ६००० ७०० १११ १०७ ९१ £ X ११२१ यो० ११२१ यो० १०२२ यो० १०२२ यो ९२३ यो० ८२४ मो० स्वर्ग विमानों का वर्ण सोहम्मीसाणाणं, सव्व विमाणेषु पंच वण्णाणि । कसणेण वज्जिवाणि सणक्कुमारावि - जुगलम्मि ॥२०३॥ अर्थ – सौधर्म और ईशान कल्पके सब विमान पाँचों वर्णं वाले तथा सनत्कुमारादि युगल में ७२५ यो० ६२६ यो० ५२७ यो० ४२८ यो० ३२६ यो० २३० यो० १३१ यो० १३१ यो० गीलेग वज्जिदाणि, बम्हे लंतवए णाम कप्पेसु । रसेण विरहिदारिंग, महसुक्के तह सहस्सारे ॥ २०४ ॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] तिलोयपपपत्ती [ गाथा : २०५-२०१ अर्थ-ब्रह्म और लान्तव नामक कल्पोंमें कृष्ण एवं नोलसे रहित तीन वर्णवाले तथा महाशुक्र और सहस्रारकल्पमें रक्त वर्णसे भी रहित शेष दो वर्ण वाले विमान हैं ।।२०४॥ प्राणद-पाणद-प्रारण अच्चुद-गेवेज्जयादिय-विमाणा । ते सव्वे मुत्ताहल - मयंक - कुदुजला होति ।।२०५।। अर्थ-आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और अवेयकादिके वे सब विमान मुक्ताफल, मृगांक अथवा कुन्द पुष्प सदृश उज्ज्वल हैं ।।२०५।। विशेषार्थ-सौधर्मशान कल्पोंके विमान पांच वर्णवाले हैं । सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंके विमान कृष्ण बिना शेष चार वर्ण वाले हैं । ब्रह्म और लान्तक कल्पोंके विमान कृष्ण एवं नील बिना तीन वर्ण वाले हैं । महाशुक्र और सहस्रार कल्पोंके विमान कृष्ण, नील एवं रक्त वर्णसे रहित दो वर्णवाले हैं और प्रानतादिसे लेकर अनुत्तर पर्यन्त के सभी विमान कृष्ण, नील, लाल एवं पीत वर्णसे रहित मात्र शुक्ल वर्णके होते हैं। विमानोंके आधारका कथनसोहम्म-दुग-विमाणा, घणस्स-रूवस्स उवरि सलिलस्स। चेट्टते पक्षणोवरि, माहिब - सरणक्कुमाराणि ॥२०६।। अयं-सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जलके ऊपर तथा माहेन्द्र एवं सनत्कुमार कल्पके विमान पवनके ऊपर स्थित हैं ।।२०६॥ बम्हावी चत्तारो, कप्पा चेट्ठति सलिल - वाढूढं। माणद - पाणद - पहुवी, सेसा सुद्धम्मि गयरणयले ॥२०७।। पर्ष-ब्रह्मादिक चार कल्पोंके विमान जल एवं वायु दोनोंके ऊपर तथा मानत-प्राणतादि शेष विमान शुद्ध आकाशतलमें स्थित हैं ।।२०७|| इन्द्रकादि विमानोंके ऊपर स्थित प्रासादउरिम्मि इंवयारणं, सेढिगयाणं पइण्णयाणं च । समचउरस्सा दोहा, ते विविह - पासावा ॥२०॥ वर्ष-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंके ऊपर समचतुष्कोण एवं दीपं विविध प्रासाद स्थित हैं ॥२०॥ कणयमया फलिहमया, मरगय-माणिक्क-इंदणीलमया । विन्दुममया विचित्ता, बर - तोरण - सुवर-दुवारा ॥२०६।। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २१०-२१५ ] अट्ठमो महाहियारो [ ४९५ सत्तट्ट-णव-वसाविय-विचित्स-भूमीहि भूसिदा सव्वे । वर - रयण - मूसवेहिं, बहुविह - जंतेहि रमरिणज्जा ॥२१०॥ विष्पंत - रयण - बोवा, कालागरु-पहुदि-धूष-गंधड्ढा । आसण-णाजय-फोडण - साला - पहुबीहि कयसोहा ॥२११॥ सोह-करि-मयर-सिहि-सुक-यवाल-गरुडासमावि-परिपुण्णा। बहुविह-विचिच-मरिखमय-सेज्जा - विण्णास - कणिज्जा ॥२१२॥ णिच्चं विमल सरूवा, पइण्ण-वर-दोव-कुसुम-कतिल्ला । सब्बे अणाइणिहणा, प्रकट्टिमा ते विरायंति ॥२१३।। एवं संखा-परूवणा-समता ॥६॥ अर्थ-( ये सब प्रासाद } सुवर्णमय, स्फटिकमणिमय, मरकत-माणिक्य एवं इन्द्रनील मणियोंसे निर्मित, मूगासे निर्मित, विचित्र, उत्तम तोरणोंसे सुन्दर द्वारवाले, सात-आठ-नौ-दस इत्यादि विचित्र भूमियोंसे भूषित, उत्तर रत्नोंसे भूषित, बहुत प्रकारके यन्त्रोंसे रमणीय, चमकते हुए रत्न-दीपकों सहित, कालागर आदि धूपोंके गन्धसे व्याप्त; प्रासनशाला, नाट्यशाला एवं क्रीड़नशाला आदिकोंसे शोभायमान; सिंहासन, गजासन, मकरासन, मयूरासन, शुकासन, व्यालासन एवं गरुडासनादिसे परिपूर्ण ; बहुत प्रकारकी विचित्र मणिमय शय्यानोंके विन्याससे कमनीय, निस्य, विमलस्वरूपवाले, विपुल उत्तम दीपों एवं कुसुमोसे कान्तिमान्, अनादि-निधन और प्रकृत्रिम विराजमान हैं ॥२०६-२१३।। इसप्रकार संख्या प्ररूपणा समाप्त हुई ॥६॥ इन्द्रोंके दस-विध परिवार देवोंके नाम और पदबारस-बिह-कप्पाणं, बारस इंदा हवंति घर - रूवा। वस-विह-परिवार-जुदा, पुष्वज्जिव-पुण्ण - पाकादो ॥२१४॥ अर्थ-बारह प्रकारके कल्पोंके बारह इन्द्र पूर्वोपार्जित पुण्यके परिपाकसे उत्तम रूपके धारक होते हैं और दस प्रकारके परिवारसे युक्त होते हैं ॥२१४|| पडिइंदा सामाणिय-सेत्तीस-सुरा दिगिद - तणुरक्खा । परिसाणीय-पइण्णय-अभियोगा होति किबिसिया ॥२१॥ प्रथं-प्रतीन्द्र, सामानिक, प्रायस्त्रिशदेव, दिगिन्द्र, तनुरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक, ये दस प्रकारके परिवार देव हैं ॥२१५।। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ ] तिलोयपणती [ गाथा ! २१६-२२१ जुवराय - कलसाणं, पुत्तारणं तह य तंतरायाणं । वपु-रक्खा • कोषाणं, बर-मज्झिम-अधर-तइल्लाणं ॥२१॥ सेणाण पुरजणाणं, परिचाराणं तहेब पाणाणं । कमसो ते सारिच्छा, 'परिइंद - प्पडविणो होति ॥२१७॥ अर्थ-वे प्रतीन्द्र प्रादि क्रमशः युवराज, कलत्र, पुत्र सथा तन्त्रराय, कृपाणधारी धरीय रक्षक, उत्तम, मध्यम एवं जधन्य परिषदें बैठने योग्य ( सभासद ), सेना, पुरजन, परिचारक और चाण्डालके सदृश होते हैं ।२१६-२१७।। प्रतीन्द्रएक्केक्का पडिइंचा, एस्केक्काणं हवंति इंशाणं । से जुवराय - रिधोए, वड्डते आउ - परियंतं ।।२१।। प्रयं-एक-एक इन्द्रकै जो एक-एक प्रतीन्द्र होते हैं के आयु पर्यन्त युवराजकी ऋद्धिसे युक्त रहते हैं ॥२१॥ सामानिक देवोंका प्रमाणचउसीवि-सहस्सारिण, सोहम्मिवस्स होति सुर-पवरा । सामाणिया सहस्सा, सीवी ईसाण - इंदस्स ॥२१॥ ___८४००० । ८०००० । प्रर्ष-सामानिक जातिके उत्कृष्ट देव सौधर्म इन्द्रके चौरासी हजार ( ८४००० ) और ईशान इन्द्र के अस्सी हजार ( ८०००० ) होते हैं ।।२१९॥ बाहत्तरी - सहस्सा, ते चेते सणकुमारिने । सचरि - सहस्स - मेता, तहेव माहिंद - इंवस्स ॥२२०।। ___७२००० १७००००। अर्थ- सामानिक देव सनत्कुमार इन्द्रके बहत्तर हजार ( ७२००० ) और माहेन्द्र इन्द्रके सत्तर हजार ( ७०००० ) प्रमाण होते हैं ॥२२०॥ बम्हिवम्मि सहस्सा, सट्ठी पण्णास लंतर्विदम्मि । चालं महसुक्किदे, तीस सहस्सार • ईवम्मि ॥२२१॥ ६००००। ५००००। ४००००1३००००। 1.ब. परिइंव । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २२२ - २२५ ] म महाहियारो [ ४६७ अर्थ – सामानिकदेव ब्रह्मन्द्रके साठ हजार ( ६००००), लान्तवेन्द्र के पचास हजार ( ५०००० ), महाशुक्र इन्द्रके चालीस हजार ( ४०००० ) और सहस्रार इन्द्रके तीस हजार ( ३०००० ) होते हैं ||२२१॥ प्राणद- पाणद-इ दे, वीसं श्रीस सहस्साणि पुढं, २०००० | २०००० २०००० | २०००० । अर्थ – सामानिकदेव झानत प्रारणत इन्द्रके बीस हजार ( २०००० ) और आरण - अच्युत इन्द्र पृथक्-पृथक् बीस हजार (२००००) होते हैं ।। २२२ ।। वायस्त्रिश और लोकपाल देव- सामाणिया सहस्सा रिंग । पत्तेषकं प्रारणच्युविसु ॥ २२२ ॥ तेसीस सुरपवरा, एक्केक्काणं हवंति तारि लोयपाला, सोम-जमा वरुण लोकपाल होते हैं ||२२३॥ 4 अर्थ - एक-एक इन्द्रके संतीस वायस्त्रिश देव और सोम, यम, वरुण तथा धनद, ये चार १. द. व. क. ज ठ साग । - तनुरक्षक देव तिणियि लक्खाणि छत्तीस सहस्तयारि तरक्ला । सोहम विदिए, 'ताणि सोलस सहस्त हीणाणि ।। २२४ । । ३३६००० । ३२०००० । अर्थ--तनुरक्षक देव सौधर्म इन्द्रके तीन लाख छत्तीस हजार ( ३३६००० ) और द्वितीय इन्द्र के इनसे सोलह हजार कम ( ३२०००० ) होते हैं ||२२४|| · इवाणं । धणदा य ॥२२३॥ - अट्ठासोदि - सहस्सा, दो लक्खाणि सरणक्कुमारिदे । माहिंदिदे लक्खा, दोण्णि य सीदी सहस्साणि ॥ २२५ ॥ २६६००० | २८०००० | अर्थ-तनुरक्षक देव सनत्कुमार इन्द्रके दो लाख अठासी हजार ( २८८००० ) और माहेन्द्र इन्द्रके दो लाख अस्सी हजार ( २८०००० ) होते हैं ।। २२५ || - Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ ] तिलोयपणतो [ गाथा : २२६-२३० बम्हिदे चालीसं, सहस्स-अब्भहिय हुवे दुवे लक्खा । लंतषए दो-लक्खं, बि-गुणिय-सोदो-सहस्स-महसुक्के ॥२२६।। २४०००० । २००००० । १६०००० । प्रर्य-सनरक्षक देव ब्रह्मन्द्र के दो लाख चालीस हजार ( २४७०००), लान्तब इन्द्र के दो लाख ( २००००० ) और महाशुक्र इन्द्रके द्विगुणित अस्सी हार अर्थात् एक लाख साठ हजार ( १६०००० ) होते हैं ।।२२६।। वि-गुणिय-सद्वि-सहस्स, सहस्सयारिवयम्मि पत्तेक्कं । सोदि - सहस्स - पमाणे, उबरिम-चत्तारि-इंदम्मि ॥२२॥ १२००००। ८००००। ८००००। ८०००० । ६०००० । प्र-तनुरक्षक देव सहस्रार इन्द्र के द्विगुणित साठ हजार ( १२००००) और उपरितन चार इन्द्रों से प्रत्येकके अस्सी हजार ( ८००००) प्रमाण होते हैं ।।२२७॥ अभ्यन्तर-मध्यम और बाह्य परिषदके देवप्रभंतर-परिसाए, सोहम्मिवाण बारस - सहस्सा । चेते सुर - पवरा, ईसाणिवस्स बस - सहस्साणि ॥२२॥ १२००० । १००००। अर्थ-सौधर्म इन्द्रकी अभ्यन्तर परिषदें बारह हजार ( १२०००) और ईशान इन्द्रकी अभ्यन्तर परिषदमें दस हजार ( १००००) देव स्थित होते हैं ।।२२८॥ तविए अट्ट - सहस्सा, माहिबिदस्स छस्सहस्साणि । घम्हिदम्मि सहस्सा, चत्तारो दोणि संतविदम्मि ॥२२॥ ८००० १६००० । ४००० । २००० । प्रयं-तृतीय ( सनत्कुमार इन्द्रकी अश्यन्तर परिषद) में पाठ हजार ( ८०००), माहेन्द्र की ( अभ्यन्तर परिषद ) में छह हजार ( ६०००), ब्रह्मन्द्र की ( अभ्यन्सर परिषद् ) में चार हजार (४०००) और लान्तव (इन्द्रकी अभ्यन्तर परिषद् ) में दो हजार ( २०००) देव होते हैं ।।२२६।। सत्समयस्स सहस्सं, पंच • सयाणि सहस्सयारिदे । आणव-ईवादि-दुगे, पत्तक्क दो • सयाणि पण्णासा ॥२३०॥ १००० । ५०० । २५० । २५० । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २३१-२३४ ] श्रमो महाहियारो [ ४९९ अर्थ- सप्तम ( महाशुक्र इन्द्रको अभ्यन्तर परिषद् ) में एक हजार ( १०००), सहस्रार ( इन्द्रकी अ० परिषद् ) में पाँच सौ ( ५०० ) और प्रान्तादि ( आनत - प्राणत ) दो इन्द्रोंकी ( अभ्यन्तर परिषद् ) में दो सौ पचास-दो सौ पचास ( २५० • २५० ) देव होते हैं ॥ २३० ॥ — इंदस्स प्रचुबिंदस्स | अभंतर परिसाए, प्रारण पक्कं सुर पवरा, एक्क सथं पंचवीस जुवं ॥२३१॥ १२५ । १२५ । अर्थ - आरण इन्द्र और अच्युत इन्द्रमेंसे प्रत्येक ( की अभ्यन्तर परिषद् ) में एक सौ · पच्चीस - एक सौ पच्चीस ( १२५ - १२५ ) उत्तम देव होते हैं ||२३१॥ - - - मझिम -परिसाय सुरा, घोट्स-वारस बसट्ट-व-च- बुंगा । होति सहस्सा फमसो, सोहम्मिवादिएस सत्तेसु ॥ २३२ ॥ - १४.०० १२००० | १०००० | ८००० | ६००० | ४००० | २००० | अर्थ – सौधर्मादिक सात इन्द्रोंमें से प्रत्येककी मध्यम परिषद् में क्रमश: चौदह हजार, बारह हजार, दस हजार आठ हजार, छह हजार, चार हजार और दो हजार देव होते हैं ||२३२ || एक्क सहल्स - पमाणं, सहस्सया रिवयम्भि पंच - सया । उरिम च इदेसु, पत्तेक्कं मक्रिमा परिसा ।। २३३॥ · १००० ५०० | ५०० ५०० | ५०० अर्थ- सहस्रार इन्द्रकी मध्यम परिषद् में एक हजार (१००० ) प्रमाण और उपरितन चार इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकको मध्यम परिषद् में पाँच सौ ( ५०० ) देव होते हैं ।। २३३|| १. व. ब. क. . . जुयणाबो । सोलस वोट्स- बारस- दसटु छष्टच वु-दुगेषक य सहस्सा । बाहिर र-परिसा कमसो, समिवा चंदा य 'जउ-गामा ॥ २३४ ॥ परिसा समत्ता || - उपर्युक्त इन्द्रों के बाह्य पारिषद देव क्रमशः सौलह, चौदह, बारह, दस, माठ, छह, चार, दो और एक हजार प्रमारण होते हैं । इन तीनों परिषदोंका नाम क्रमशः समित्, चन्द्रा और जतु है ।।२३४|| परिषद्का कथन समाप्त हुआ । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] तिलावती अनीक देवोंका प्रमाण -- बसह तुरंगम-रह- गज-पदाति- गंधव्व णट्टयाणीश्रा । एवं सत्ताणीया, एक्केवक हवंति इंदाणं ॥ २३५॥ | गाथा । २२५-२३९ अर्थ- वृषभ, तुरङ्ग, रथ, गज, पदाति, गन्धर्व और नर्तक अनीक, इसप्रकार एक-एक इन्द्रकी सात सेनायें होती हैं ।। २३५ ।। एदे सत्तारणीया पत्तेक्कं सत-सत्त-कक्ख-जुदा । तेसु पढमाणीया, यि णिय सामाणियाण' समा ॥ २३६ ॥ · अर्थ-इन सात सेनाओंमेंसे प्रत्येक सात-सात कक्षाओंसे युक्त होती हैं। इनमेंसे प्रथम अनीकका प्रमाण अपने-अपने सामानिकों के बराबर होता है ।। २३६ ॥ - तत्तो वगुणं गुणं, कादव्वं जाव सत्तमाणीयं । परिमाण जाणण ताणं संखं परुवेमो ॥ २३७॥ > अर्थ - इसके भागे सप्तम अनीक पर्यन्त उससे दूना दूना करना चाहिए। इस प्रमाणको जानने के लिए उनकी संख्या कहते हैं ||२३७ ॥ इगि- कोडी छलक्खा, श्रद्वासट्ठी - सहस्सया बसहा । सोहम्मदे होंति हु, तुरयावी तेलिया वि पत्तेषकं ॥ २३८ ॥ १०६६८००० | पिंड ७४६७६००० | अर्थ – सौधर्म इन्द्रके एक करोड़ छह लाख भड़सठ हजार ( १०६६५००० ) वृषभ होते हैं और तुरगादिकसे प्रत्येक भी इतने प्रमाण हो होते हैं ||२३८|| विशेषार्थ - सौधर्म इन्द्रकी प्रथम कक्षमें वृषम संख्या सामानिक देवोंके सदृश ८४००० प्रमाण है । इस प्रथम कक्षकी संख्या सातों कक्षाओंकी संख्या १२७ गुणी होती है अतः प्रथम श्रनीक की सातों कक्षाओं में कुल संख्या ( ८४०००×१२७ ) = १०६६५००० है । प्रथम अनीककी संरूपा १०६६८००० है अतः सातों अनीकोंकी पिण्ड रूप संख्या ( १०६६८०००४७ ) - ७४६७६००० है । इसीप्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । एक्का कोडी एवर्क, लक्खं सट्टो सहस्स बसहाणि । ईसाणिवे होंति हु, तुरयादी तेत्तिया वि पत्तेक्कं ॥ २३६ ॥ १०१६०००० | पिंड ७ ११२०००० । १. द. क. ज. ठ. सामाजियाणि समता व सामारियाणि सम्मत्ता । २. ब. तुरयादिय । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २४०-२४३ ] अट्टम महाहियारो [ ५०१ अर्थ - ईशान इन्द्रके एक करोड़ एक लाख साठ हजार वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भो इतने प्रमाण ही होते हैं ।। २३६ ।। विशेषार्थ - प्रथम अतीककी प्रथम कक्षमें ८०००० वृषभ है अतः ८००००×१२७= १०१६०००० | १०१६००००७-७११२०००० | लक्खाणि एक्करण उदो, चउवाल- सहस्सयारिण बसहाणि । होति हु तदिए इंदे, तुरयावी तेतिया वि पत्तेक्कं ॥ २४० ॥ ६१४४००० | पिंड ६४००८००० । अयं तृतीय ( सनत्कुमार ) इन्द्र के इक्यानवे लाख चवालीस हजार ( ७२०००×१२७= ६१४४००० ) वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने प्रमाण ही होते हैं ।। २४० ॥ ६१४४००० × ७ = ६४००८००० । अट्ठासीढी लक्खा, उवि -सहस्साथि होंति वसहाणि । माहिदि तेशियमेत्ता तुरयाविणो वि पत्तेयकं ॥। २४१ ॥ ८८९०००० | पिंड ६२२३०००० । अर्थ- माहेन्द्र इन्द्र के अठासी लाख नब्बे हजार ( ७००००४१२७-८८९०००० ) वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने प्रमाण ही होते हैं । २४१ ॥ ८८६०००० x ७-६२२३०००० | छाहतरि लक्खाणि वीस-सहस्त्राणि होंति व सहाणि । बहवे पत्रोक्कं तुरयप्पहूदी वि तम्मे ॥ २४२ ॥ + ७६२०००० । पिंड ५३३४०००० । अर्थ- ब्रह्मन्द्रके छिहत्तर लाख बीस हजार ( ६००००X१२७७६२०००० ) वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने प्रमाण ही होते हैं ।। २४२ ॥ ७६२०००० x ७=५३३४०००० | तेसट्ठी-लक्खाणि, पण्णास लहस्सयाणि वसहाणि । लंतव द्वंबे होंति हु. तुरयादी तेतिया वि पत्तेक्कं ॥ २४३ ॥ ६३५०००० । पिड ४४४५०००० । - - Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] तिलोयपण्णसी [ गाथा : २४४-२४६ अर्थ-सान्तय इन्द्र के तिरेसठ लाख पचास हजार ( ५००००x१२७६३५००००) वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने प्रमाण ही होते हैं ।।२४३॥ ६३५००००४७-४४४५००००। पण्णासं लक्खाणि, सोवि-सहस्साणि होति वसहारिंग । महसुषिकदे होंति हु, तुरयादी तेत्तिया वि पत्तक्कं ॥२४४।। ५०८०००० । पिंड ३५५६०००० । मर्ष-महाशुक्र इन्द्र के पचास लाख अस्सी हजार ( ४००००४ १२७ =५०८००००) वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने प्रमाण ही होते हैं ॥२४४॥ ५०८००००४७ = ३५५६०००० ।। प्रदसीसं लक्खं, बस य सहस्साणि होति बसहाणि । तुरयादी तम्मेत्ता, होति सहस्सार - इंवम्मि ॥२४५॥ ३८१०००० । पिंड २६६७०००० । अर्थ सहस्रार इन्द्र के अड़तीस लाख दस हजार ( ३००००x१२७=३५१००००) वृषभ और तुरगादिक भी इतने प्रमाण ही होते हैं ॥२४।। ३८१००००४७-२६६७०००० ।। पणवीसं लक्खाणि, चालीस-सहस्सयाणि 'वसहाणि । पारण-इंदावि-दुगे, तुरयावी तेत्तिया वि पत्तेपक ॥२४६।। २५४०००० । पिंर १७७८००००। मर्ष-पारण इन्द्रादिक दोके पच्चीस लाख चालीस हजार ( २००००४१२७ - २५४०००० ) वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने प्रमाण ही होते हैं ।।२४६।। २५४००००४७=१७७८०००० । नोट-गाथामें पानतादि चारोंके अनीकों का प्रमाण कहा जाना चाहिए था किन्तु मारण आदि दो का ही कहा गया है, दो का नहीं । क्यों ? [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] १. ब. होंति वसहाणि । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक १ no ~ ३ * ५ e ५ ९ इन्द्र नाम सौधर्मेन्द्र माहेन्द्र ब्रह्म ेन्द्र लान्तवेन्द्र B महाशुकेन्द्र सहस्रारेन्द्र आनतादि ४ ऐशानेन्द्र सनत्कुमारेन्द्र १ |७२००० ३३ ૪ १ DV १ १ १ [८४००० ३३ १ 20 ४ ८००० ३३ ४ ७०००० ३३ ४ ६०००० ३३ ४ |५०००० ३३ ४ ४०००० ३३ * ३०००० ३३ ४ २०००० ३३ ४ तनुरक्षक ३३६००० पारिषदोंका प्रमाण अभ्यन्तर भ्यन्तर मध्यम परिषद् परि० प्रथम कक्ष की सं से १२७ गुणी है । ] ०००१४००० १६००० ८४००० १०६६८००० | ७४६७६००० ३२०००० १०००० १२००० १४००० ८००००१०१६०००० ७११२०००० २८०००० ६००० २८८००० ८००० १०००० १२००० ७२००० ६१४४००० ६४००८००० २४०००० १४००० २००००० २००० 50000 १६००००१००० १२०००० ५०० बाह्य परि० अनीक सेनामका प्रमाण प्रथम एक अनीककी सातों अनीकोंकी कक्ष | सम्पूर्ण संख्या सम्पूर्ण संख्या २५० ८००० १०००० ७०००० ८८९०००० ४००० ६२२३०००० ६००० ८००० ६०००० ७६२०००० ५३३४०००० ६००० ५०००० ६३५०००० ४४४५०००० २००० ४००० ४०००० ५०5०००० ३५५६०००० १००० | २००० ३०००० ३८१०००० | २६६७०००० ૧૦૦ १००० २०००० २५४०००० १७७८०००० गाथा : २४६ ] माहिया [ ५०३ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] तिलोयपण्णत्ती . [ गाथा : २४७-२५२ सातों अनीकोंकी अपनी-अपनी प्रथमादि कक्षाओं में स्थित वृषभादिकोंके वर्णका वर्णन जलहर-पडल-समुस्यिद-सरय-मयंक-सुजाल-संकासा । वसह-तुरंगावीया, णिय-णिय-कक्खासु पढम-कवख-ठिकी॥२४७॥ अर्थ-अपनी-अपनी कक्षाओंमेंसे प्रथम कक्षामें स्थित वृषभ-तुरंगादिक मेध-पटलसे उत्पन्न सरत्कालीन चन्द्रमाके किरण-समूहके सदृश ( वर्णं वाले) होते हैं ।।२४७॥ उपयंत-दुमणि-मंडल-समाण-यण्णा हयति यसहादी । ते णिय-णिय-कक्षासु, चेट्टते विदिय • कक्सासु ॥२४८॥ प्रथं-अपनी-अपनी कक्षाओं मेंसे द्वितीय कक्षामें स्थित बे वृषभादिक उदित होते हुए सूर्यमण्डलके सदृश वर्णवाले होते हैं ।।२४८।। फुल्लत-रणीलकुवलय-सरिच्छ'-वण्णा तहज्ज-कक्ख-ठिवा। ते णिय - णिय - कक्षासु, वसहस्स रहाविणो होति ॥२४६।। अर्थ-अपनी-अपनी कक्षानोंमेंसे तृतीय कक्षामें स्थित वे वृषभ, अश्व' और रथादिक फूलते हुए नीलकमलके सदृश निर्मल वर्णवाने होते हैं ।।२४९।। मरगय-मणि-सरिस-तणू, 'बर-विविह-विभूसणेहि सोहिल्ला। ते रिणय-णिय-फक्सासु, वसहावी तुरिम - कक्ख - ठिवा ॥२५०।। अर्थ-अपनी-अपनो कक्षामोंमेंसे चतुर्थ कक्षामें स्थित वे वृषभादिक मरकत मरिण के सदृश शरीरवाले और अनेक प्रकारके उत्तम प्राभूषणोंसे शोभायमान होते हैं ।।२५०॥ पारावय - मोराणं, कंठ - सरिच्छेहि वेह - वणेहि । ते णिय-णिय-कपखासु, पंचम-कक्खासु वसह-पहुदोश्रो ।।२५१।। मर्य-अपनी-अपनी कक्षाओं में से पंचम कक्षामें स्थित वे वृषभादिक कबूतर एवं मयूरके कण्ठके सदृश देह-वर्णसे युक्त होते हैं ।।२५१।। बर-पउमराय-बंधूय-कुसुम-संकास - देह - सोहिल्ला । से णिय-णिय-कक्खासु, वसहाई छट्ठ-कारख-जुवा ॥२५२।। अर्थ-अपनी-अपनी कक्षाओं में से छठी कक्षामें स्थित वृषभादिक उत्तम पद्मराग मणि अथवा बन्धूक पुष्पके वर्ण सदृश शरीरसे शोभायमान होते हैं ।।२५२।। १. च. सरिसच्छ । २. ब. तण विविह । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा : २५३-२५८ ] अट्टमो महाहियारो [ ५०५ भिण्णिदणील-यण्णा, सत्तम-कक्ख-द्विता वसह-पहुदी । ते णिय-रिणय-कक्खासु, वर - मंडण - मंखिदायारा ॥२५३॥ अर्थ-अपनी-अपनी कक्षाओं मेंसे सप्तम कक्षामें स्थित वृषभादिक भिन्न इन्द्रनीलमणिके सदृश वर्ण वाले और उत्तम प्राभूषणोंसे मण्डित प्राकारसे युक्त होते हैं ।।२५३।। प्रत्येक कक्षाके अन्तराल में बजने वाले धादित्रसत्ताण' अणीयाणं, णिय-णिय-कक्खाण होंति विच्चाले। घर-पाह - संख - मद्दल - काहल - पहुवीण पत्तेक्कं ॥२५४॥ मर्थ–सातों अनीकोंकी अपनी-अपनी कक्षामोंके अन्तरालमें उत्तम पटह, शङ्ख, मर्दल और काल प्रादिमेंसे प्रत्येक होते हैं ।।२५४।। वृषमादि सनाषीको शोभाका वर्णनसंबंत-रयण-किकिणि-सुहदा-मणि-कुसुम-दाम-रमणिज्जा । घुवंत - षय - बडाया, बर - चामर - छत्त-कतिल्ला ॥२५॥ रयणमया पल्लाणा, वसह - तुरंगा रहा य इंदाणं । बहुविह - विगुब्बणाणं, वाहिग्जंताण सुर - कुमारेहिं ।।२५६।। प्रर्ष-बहुविध विक्रिया करने वाले तथा सुर-कुमारों द्वारा उह्यमान इन्द्रोंके वृषभ, तुरंग और रथादिक लटकती हुई रत्नमय क्षुद्र-घण्टिकानों, मणियों एवं पुष्पोंकी मालाओंसे रमणीय ; फहरातो हुई ध्वमा-पताकाओंसे युक्त, उत्तम चंवर एवं छत्रसे कान्तिमान् और रत्नमय तथा सुखप्रद साजसे संयुक्त होते हैं ।।२५५-२५६ ।। असि-मुसल-कणय-तोमर-कोदंड-पहुवि-विविह-सत्थकरा । ते सत्तसु कक्खासु, पदातिणो दिव्य • रूवधरा ॥२५७।। मर्थ-जो असि, मूसल, कनक, तोमर और धनुष प्रादि विविध शस्त्रोंको हाथमें धारण करने वाले हैं, वे सात कक्षाओंमें दिव्य रूपके धारक पदाति होते हैं ॥२५७।। सज्ज रिसहं गंधार - मन्झिमा पंच-पंच-महर-सरं । घइवर - जुवं णिसावं, पुह पुह गायति गंधवा ॥२५८।। १. द. क. ज. ठ. सत्ताण य आणीया। २. ब. क. चं सद्विसहं, ६.ब. 3. सं अद्विसहं । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : २५६-२६४ अर्थ – गन्धर्वदेव षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, घवत और निषाद, इन मधुर स्वरोंको पृथक्-पृथक् गाते हैं ।। २५८ ॥ वीणा-वेणु - [पमुहं खारगाविह ताल- करण-लय- जुतं । बाइज्जदि वादित्ते, गंधवोह महुर सङ्घ ॥ २५६ ॥ · अर्थ -- गन्धर्व देव नाना प्रकारकी ताल-क्रिया एवं लयसे संयुक्त ( होकर ) मधुर स्वरसे वीणा एवं बांसुरी आदि वादियोंको बजाते हैं ॥२५८॥ प्रत्येक कक्षा के नर्तक देत्रों के कार्य कंदप्प - राज - राजाहिराज - विज्जाहाण चरियाणं । चणकचंति लट्टय सुरा, णिच्चं पढमाए कक्खाए ॥ २६० ॥ अर्थ - प्रथम कक्ष के नर्तक देव नित्य ही कन्दर्प, ( कामदेव ) राजा, राजाधिराज और विद्याधरोंके चरित्रोंका अभिनय करते हैं ।। २६०॥ पुढवीसारणं चरियं सयलय-महादि-मंडलीयाणं । बिदियाए कक्लाए, णञ्चते गच्चणा देवा ॥ २६१ ॥ अर्थ - द्वितीय कक्षके नर्तक देव अमण्डलीक और महामण्डलीकादि पृथिवीपालकों के चरित्रका अभिनय करते हैं ।। २६१।। पडिसत्तूर्ण विचित्त चरिवाणि । बलवेवाण हरीणं, तदियाए कषखाए, वर रस भावेहिं णच्वंति ॥ २६२ ॥ · - अर्थ-तृतीय कक्षा के नर्तक देव उत्तम रस एवं भावोंके साथ बलदेव, नारायण और प्रतिनारायणोंके अद्भुत चरित्रोंका अभिनय करते हैं ॥ २६२ ॥ - - चोट्स-रण-वईणं, णव- णिहि सामीण चक्कवट्टीर्ण । वरिय चरिताणि, णच्वंति चउत्थ - कक्लाए ||२६३॥ १. ब. क. परिवारणं । अर्थ-चतुर्थं कक्षा के नर्तक देव चौदह रत्नोंके अधिपति और नव निधियोंके स्वामी ऐसे तियों के आश्चर्य जनक चरित्रोंका अभिनय करते हैं ।२६३॥ सव्वाण सुरिदाणं, सलोयपालाण चारु चरियाई' । ते पंचम - कक्खाए, णच्वंति विचित्त भंगीहि ॥ २६४ ॥ - i Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २६५-२७० ] अमो महाहियारो ! ५०७ अर्थ - पंचम कक्षा के नर्तक देव लोकपालों सहित समस्त इन्द्रोंके सुन्दर चरित्रोंका विचित्र भंगिमाओंसे अभिनय करते हैं ।। २६४ || गणहर-वेबावीणं, विमल मुणिवाण विविह रिद्धीणं । चरियाई' विचित्ताई, णच्चते छट्ट - कक्खाए || २६५ ॥ अर्थ - छठी कक्षा नर्तकदेव विविध ऋद्धियोंके धारक गणधर आदि निर्मल मुनीन्द्रोंके श्रद्भुत चरित्रोंका अभिनय करते हैं ।। २६५।। - चोत्तीसाइ सयाणं, बहुविह कहलाण पाडिराणं । जिण पाहाण चरित्तं, सत्तम फक्खाए णच्चति ॥ २६६ ॥ अर्थ- -सप्तम कक्षा के नतंक देव चोंतीस अतिशयोंसे युक्त और बहुत प्रकारके मंगलमय प्रातिहायोंसे संयुक्त जिननाथोंके चरित्रका अभिनय करते हैं || २६६ || दिव्व वर- बेह- जुत्ता, वर-रयण-विभूसणेहि कयसोहा । ते गच्चं णिच्छं, णिय जिय इंवाण श्रम ।। २६७ ॥ ॥ -दिव्य एवं उत्तम देह सहित और उत्तम रत्न - विभूषणों से शोभायमान वे नर्तक देव free ही अपने-अपने इन्द्रोंके आगे नाचते हैं ॥ २६७ ॥ सत्तपवाणाणीया, एवे इंदाण होंति पत्तेक्कं । अण्णा वि छत्त चामर, पोढाणिय बहुबिहा होति ॥ २६८ ॥ अर्थ - इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रके सात-सात कक्षाओं वाली सेनाएँ होती हैं । इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत प्रकार छत्र, चंवर और पीठ ( सिंहासन ) होते हैं ||२६८ ॥ वाणि अणीयाणि, बसहाणीयस्स होंति सरिसाणि । बर विविह भूसणेह, विभूसिबंगाणि पत्तेमकं ॥ २६६ ॥ - - सब प्रतीकों मेंसे प्रत्येक उत्तम विविध भूषणोंसे विभूषित शरीरवाले होते हुए वृषभानीकके सदृश हैं ।। २६९॥ सव्वाणि श्ररणीयाणि, कक्खं पडि छस्स सहावेणं । पुण्यं व विकुवरणए, लोयविणिच्छय मुणी भइ ॥ २७० ॥ ६०० । ४२०० | पाठान्तरम् । १. द. ब. उच्चरिय । २. द. द. फ. ज ठ मुणि भणई । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गापा : २७१-२७६ प्रर्प---प्रत्येक कक्षाकी सब अनीकें स्वभावसे छह सौ ( ६०० ) और विक्रियाकी अपेक्षा पूर्वोक्त ( ६०० ४७-४२०० ) संख्याके समान हैं, ऐसा लोक विनिश्चय मुनि कहते हैं ॥२७०।। पाठान्तर । थसहाणीयावीणं, पुह पुह चुलसोदि-लक्ख-परिमाणं । पढमाए कक्खाए, सेसासु दुगुण - दुगुण - कमा ॥२७१॥ एवं सत्त - विहाणं, सचाणीयाण' होति पत्तेक्कं । संगायणि . प्राइरिया, एवं रिणयमा परुति ॥२७२।। पाठान्तरम् । प्रपं-प्रथम कक्षामें वृषभादिक अनीकोंका प्रमाण पृथक्-पृथक् चौरासी लाख है । शेष कक्षाओंमें क्रमशः इससे दूना-दूना है । इसप्रकार सातों अनीकोंमें प्रत्येकके सात-सात प्रकार हैं । ऐसा संगायरिण-आचार्य नियमसे निरूपण करते हैं ।।२७१-२७२।। सप्त अनीकोंके अधिपति देवसत्ताणीयाहिबई, जे देवा होति बक्सिणिवाणं । उत्तर' - इंवाण तहा, ताणं णामाणि बोच्छामि ॥२७॥ प्रर्थ-दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रोंकी सात अनीकोंके जो अधिपति देव हैं उनके नाम कहते हैं ॥२७३॥ वसहेसु वामयट्ठी, तुरंगमेसु हवेदि हरिवामी। तह मावली' रहेसु, गजेसु एरावदो णाम ॥२४॥ वाऊ पवाति - संघे, गंधवेसु परिदृसंका य । गीलंजण" ति देवी, दिक्खादा गट्टयाणीया ॥२७५।। अर्थ-वृषभोंमें दामयष्टि, तुरगोंमें हरिदाम, रथों में मातलि, गजोंमें ऐरावत, पदाति संघमें वायु, गन्धों में अरिष्टशंका ( अरिष्टयशस्क ) और नर्तक अनीकमें नीलजसा (नीलांजना ) देवी, इसप्रकार सात अनीकोंमें ये महत्तर ( प्रधान ) देव विख्यात हैं ।।२७४-२७५।। पीढाणोए दोण्हं, अहिवाद - देशो हवेदि हरिणामो । सेसारणीयवईणं, पामेसु गस्थि उवएसो ॥२७६॥' १.प.ब. क. ज. ठ, सच्चविदाण सत्ताणीमागि । २. व. संघाइणि । ३. ६. ब.क. ज... उरिम। ४. ब... क. ज. ४. मरदली। ५. द. ब. क. नौसंजसो, ज. ठ, पलंजसो। ६. यह गाथा पाठान्तर ज्ञाप्त होती है। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाधा ! २७७-२८२ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५०९ अर्थ-दोनों ( दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र ) की पीठानीक ( प्रश्वसेना) का अधिपति हरि नामक देव होता है । शेष अनीकोंके अधिपतियोंके नामोंका उपदेश नहीं है ।।२७६।। अभियोगारणं अहिवइ - देवो चेदि दक्षिणिदेसु। बालक - रणामो उत्तर - इंदसु पुष्फदंतो य ॥२७७।। अर्य-दक्षिणेन्द्रों में अभियोग वेवोंका अधिपति बालक नामक देव और उत्तरेन्द्रों में इनका अधिपति पुष्पदन्त नामक देव होता है ॥२७७।।। बाहन देवगत ऐरावत हाथीका विवेचनसबक-दुगम्मि य वाहण-देवा एरावद-णाम हत्थीणं । कुब्बति विकिरियाओ, लक्खं उच्छेह जोयणा बोहं ॥२७॥ अर्थ-सौधर्म और ईशान इन्द्रके वाहन देव विक्रियासे एक लाख ( १०००००) उत्सेध योजन प्रमाण दीर्घ ऐरावत नामक हाथीकी रचना करते हैं ।।२७।। एमाण पत्तोस, होशि मुहमा पिण्य-स्यम-दान-जुदा । पुह पुह रुणंत किकिणि-कोलाहल सह-कपसोहा ॥२७६।। प्रर्थ–इनके दिष्य रत्न-मालाओंसे युक्त बत्तीस मुख होते हैं, जो पण्टिकामोंके कोलाहल शब्दसे शोभायमान होते हुए पृथक्-पृथक् शब्द करते हैं ।।२७९।। एषकेक्क - मुहे चंचल-चंदुज्जल-चमर-चार-स्वम्मि । चत्तारि होति बंता, धवला घर-रयम-भर-खषिवा ।।२८०॥ प्रथ-चञ्चल एवं चन्द्रके सदृश उज्ज्वल चामरोंसे सुन्दर रूपवाले एक-एक मुखमें ररनोंके समूहसे खचित धवल चार-चार दात होते हैं ।।२८०।। एक्क म्मि विसाणे, एक्केवक-सरोवरे विमल-बारी । एक्केवक - सरवरम्मि य, एक्केक्कं कमल-घर-संडा ॥२८॥ अर्ष-एक-एक विषाण ( हाथी दांत ) पर निर्मल जलसे युक्त एक-एक सरोबर होता है। एक-एक सरोवर में एक-एक उत्तम कमल-खण्ड ( कमल उत्पन्न होनेका क्षेत्र ) होता है ।।२८।। एक्केषक-कमल-संडे, बत्तीस-विकस्सरा महापउमा। एकेक - महापउने, एक्केक्क - जोयग • पमाण ॥२२॥ प्रर्य-एक-एक कमल-खण्डमें विकसित बत्तीस महापन होते हैं और एक-एक महापम एक-एक योजन प्रमाण होता है ।।२८।। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] तिलोय पण्णत्ती वर-कंचण- कयसोहा, वर-पत्रमा सुर विकुब्वण-बलेणं । एक्केषक - महापउमे, पाउप महापद्मपर एक-एक नाटयशाला होती है ।।२८३॥ - अर्थ – देवोंके विक्रिया - बलसे वे उत्तम पद्म उत्तम स्वर्णसे शोभायमान होते हैं। एक-एक - [ गाथा : २८३ - २८७ साला य एक्क्का ॥ २८३॥ एक्heere तीए, बत्तीस वरच्छरा पणच्चति । एवं सत्ताणीया, णिद्दिट्ठा बारसिवाणं ॥ २६४ ॥ अर्थ--- उस एक-एक नाट्यशाला में उत्तम बत्तीस अप्सरायें नृत्य करती हैं। इसप्रकार बारह इन्द्रोंकी सात अनीकें ( सेनाएं ) कही गयी हैं ।। २६४ || इन्द्रके परिवार देवोंके परिवार देवोंका प्रमाण पुह-पुह इण्णयाणं, अभियोग सुराण किव्विसाणं च । संखातीय पमाणं भणिदं सध्येतु इंदाणं ॥ २८५ ॥ अर्थ- सभी (स्वर्गी) में इन्द्रोंके प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक देवोंका पृथक्-पृथक् असंख्यात प्रमाण कहा गया है ।। २६५ ।। पडिइंदाणं' सामाणियाण तेत्तीस बस भेदा परिवारा, जिय इंद - सुर-वराणं च समाण पत्तेक्कं ॥ २६६ ॥ अर्थ - प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रास्त्रिश देवोंमेंसे प्रत्येकके दस प्रकारके परिवार अपने इन्द्रके सदृश होते हैं ।। २८६ ॥ लोकपालोंके सामन्त देवोंका प्रमाण चत्तारि सहस्सा णि, सक्कादि दुगे दिगिव सामंता । एक्कं चेत्र सहस्सं, सणक्कुमारादि वोहं पि ॥ २८७॥ ४००० १००० ! अर्थ- सौधर्म और ईशान इन्द्रके लोकपालोंके चार हजार सामन्त ( ४०००) श्रीर सनत्कुमारादि दो के सामन्त देव एक-एक हजार ही होते हैं ॥ २८७ ॥ १. प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रास्त्रिश देवोंके दस-दस भेद कैसे सम्भव हो सकते हैं ? Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २८८-२९१ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५११ पंच-च-तिय-दुगारण, सयाणि 'बॉम्हदयादिय-चउक्के । प्राणद' - पहुदि - चउक्के, पत्तेक्कं एक्क-एक्क-सयं ॥२८॥ ५०० । ४०० 1 ३०० । २०० । १०० । अर्थ-ब्रह्मन्द्रादिक चारके सामन्त देव क्रमशः पाच सो, चार सौ, तीन सौ, दो सौ तथा आनतादिक चार इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके एक-एक सौ होते हैं ।।२८८।। दक्षिणेन्द्रोंके लोकपालोंके पारिषद देवोंका प्रमाणपण्णास चउ-सयाणि, पंच-सयभंतरादि-परिसायो। सोम जमाणं भरिणदा, पत्तेक्कं सयल-दपिणि देसु॥२६॥ ५० । ४०० । ५००। प्रयं-समस्त दक्षिणेन्द्रों में प्रत्येकके सोम एवं यम लोकपालके अभ्यन्तर पारिषद देव पचास (५०), मध्यम पारिषद देव चारसौ ( ४०० ) और बाह्य पारिषद देव पांच सौ ( ५०० ) कहे गये हैं ।।२८९॥ सट्ठी पंच-सयाणि, छच्च सया ताओ तिग्णि-परिसायो । वरुणस्स कुवेरस्स य, सत्तरिया छस्सयाणि सत्त-सया ॥२६॥ ६० । ५०० । ६०० । ७० । ६०० । ७०७ मर्थ-वे तीनों पारिषद देव वरुणके साठ (६०), पांच सौ ( ५०० ) और छह सौ (६०० ) तथा कुबेरके सत्तर (७०), छह सौ ( ६०० ) और सात सौ (७०० ) होते हैं ।।२९०।। उत्तरेन्द्रोंके लोकपालोंके पारिषद देवोंका प्रमाण-- जा दक्षिण-इंदाणं, कुबेर-घरुणस्स उत्थ तिप्परिसा । फादव विवज्जासं, उत्तर - इंदाण सेस पुरुष वा ॥२६॥ ५० । ४०० | ५०० ।। वरु ७० । ६०० । ७०० ।। कुबे ६० । ५०० । ६०० अर्थ-उन दक्षिणेन्द्रोंके कुबेर और वरुणके तीनों पारिषदोंका जो प्रमाण कहा है उससे उत्तरेन्द्रों ( के कुबेर और वरुणके पारिषद देवोंके प्रमाण ) का क्रम विपरीत है । शेष पूर्व के समान समझना चाहिए ।।२६१॥ - - - - - १.द, ब.क.ज..म्हित्यादिम । २. द. ., ज,ठ, आरण। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गापा ! २९२ लोकपालों के सामन्त देवोंके तीनों पारिषदोंका प्रमाणसम्बेसु विगिदाणं, सामंत-सुराण तिण्णि परिसायो । णिय-णिय-दिगिद-परिसा-सरिसामो हवंति पत्तेक्कं ।।२९२॥ प्रथं सब लोकपालोंके सामन्त देवोंके तीनों पारिषदोंमेंसे प्रत्येक अपने-अपने लोकपालके पारिषदोंके ( प्रमाण) बराबर हैं ॥२९२।। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं लोकपालोंके सामन्तोंका और दोनोंके पारिषद् देवीका प्रमाण-गा० २८७ से २९२ सोम लोकपाल यम लोकपाल । वरुण लोकपाल | कुबर लोकपाल लोकपालों एवं एवं सोमके सामन्तों यम के सामन्तों | वरुणके सामन्त कल्पों के नाम सामन्तों का के प्रमाण अभ्यन्तर मध्यम बाह्य अभ्यन्तर मध्यम | बाह्य |य मध्यम बाह्य अभ्य. मध्यम गा० . पारिषद पा० | पा० | पा । पा० । पा. पापा पा. २. पा. पा. पा. गाथा : २९२ ] क्रमांक क ६०० / ७० ४००० सौधर्म कल्प ईशान कल्प सनत्कुमार कल्प माहेन्द्र कल्प अट्ठमो महायिारो ब्रह्म कल्प ५०० लान्तय कल्प ४०० दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र के सोम लोकपालके और सोमके सामन्त देवों के ये पारिषद देव ५०-५० होते हैं। दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र के सोम लोकपालके और सोमके सामन्त देवों के में पारिषद देव ४००-४०० होते हैं। दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र के सोम लोकपालके और सोमके सामन्त देवों के ये पारिषद देव ५००-५०० होते हैं। दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्रके यम लोकपालके और यमके सामन्त दयोंके । ये पारिषद दव ५०-५० होते हैं। दक्षिणेन्द्र उत्तरेन्द्र के यम लोकपालके और यमके सामन्त देवोंके ये पारिषद ४००-४०० होते हैं। दक्षिणेन्द्र उत्तरन्द्रके यम लोकपालके और यमके सामन्त दवोंके ये पारिषद ५००-५०० होते हैं । महाशुक्र कल्प ३०० सहस्रार कल्प आनत कल्प प्रागत कल्प ६० ५०० ६०० आरण कल्प ७० ६००७०० अच्युत कल्प ०० [ ५१३ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] तिलोपपत्ती लोकपालोंक श्रनीकादि परिवार देव सोमाथि -दिगिदाणं, सत्ताणीयारिग होंति पक्कं । श्रावस सहस्सा, पढमे सेसेसु दुगुण कमा ॥ २६३ ॥ अर्थ- सोमादि लोकपालोकी जो सात सेनाएं होती है उनमें से प्रत्येक ( सेनाको ) प्रथम कक्षा में अट्ठाईस हजार ( वृषभादि ) हैं और शेष कक्षाओं में द्विगुणित क्रम है ।। २९३ ।। पंचत्तीसं लक्खा, झप्पण्ण - सहस्सयाणि पत्तेक्कं । सोमादि दिगिदाणं, हवेवि बसहादि परिमाणं ॥ २९४ ॥ [ गाथा : २९३ २९७ - - - ३५५६००० । अर्थ- सोमादि लोकपालोंमेंसे प्रत्येकके वृषभादिका प्रमाण पैंतीस लाख छप्पन हजार ( २८००० x १२७ = ३५५६००० ) है ।। २९४ ॥ दो-कोडीओ लक्खा, अडवाल सहस्सयाणि बाणउबी । सतारणीय पत्तेक्कं लोयपालाणं ।। २६५ ॥ पमारणं, - २४८९२००० | अर्थ - लोकपालोंमें से प्रत्येक के सात अनो कोंका प्रमाण दो करोड़ अड़तालीस लाख बानबे हजार ( ३५५६००० X ७ - २४५९२००० ) है ।। २९५ ।। जे अभियोग पइण्णय - किव्विसिया होंति लोयपालाणं ग ताण पमाण णिरुवण उवएसा संपइ पणट्टो ॥ २६६॥ - अर्थ-- लोकपालोंके जो अभियोग्य प्रकीर्णक और किस्विषिक देव होते हैं उनके प्रमाण के निरूपणका उपदेश इससमय नष्ट हो गया है ।। २९६ ।। लोकपालोंके विमानोंका प्रमाण छल्लक्खा छासड्डी - सहस्सया छस्सयाणि छात्रट्टो | सक्क्स्स दिगिदाणं, विमाण संखा थ पक्कं ॥ २६७॥ ६६६६६६ । - सौधर्म इन्द्र के लोकपालोंमेंसे प्रत्येकके विमानोंकी संख्या छह लाख छासठ हजार छह सौ छासठ ( ६६६६६६ ) है ।। २९७ ॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : २९५-३०३ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५१५ तेस पहाण-विमाणा, सयपहारिट्ट - जलपहा णामा । वरणपहो य कमसो, सोमाविय - लोयपालाणं ॥२६॥ अर्थ-उन विमानोंमें सोमादि लोकपालोंके क्रमश: स्वयंप्रभ, अरिष्ट, जलप्रभ और बल्गुप्रभ नामक प्रधान विमान हैं ।।२९८।। इय-सखा-णामाणि, सणकुमारिद • बम्ह - इंदेखें। सोमादि । दिगिदाणं, भणिदाणि वर - विमाणेसु ॥२६॥ अर्थ-सनत्कुमार और ब्रह्मन्द्र के सोमादि लोकपालोंके उत्तम विमानोंको भी यही (६६६६६६) संख्या और ये ही नाम कहे गये हैं ।।२६६।। होदि हु सयंपहरखं, परजेनुस - अंजणागि वग्ग य । ताण पहाण - विमाणा, सेसेसु दक्खिणिदेसु ॥३०॥ अर्थ-शेष दक्षिण इन्द्रों में स्वयम्प्रभ, घरज्येष्ठ, अजन और बल्गु, ये जन लोकपालोंके प्रधान बिमान होते हैं ।।३००।। सोमं सत्यवभद्दा, सुभट्ट-प्रमिवाणि' सोम-पहुदीणं । होति पहाण - विमाणा, सम्वेस् उत्तरिदाणं ॥३०१॥ अर्थ-सब उत्तरेन्द्रोंके सोमादिक लोकपालोंके सोम ( सम ), सर्वतोभद्र, सुभद्र और अमित नामक प्रधान विमान होते हैं ॥३०॥ ताणं विमाण-संखा-उवएसो णस्थि काल - दोसेण । ते सव्वे वि विगिदा, तेसु विमाणेसु कोडते ॥३०२॥ अर्थउन विमानोंकी संख्याका उपदेश कालवश इससमय नहीं है । ये सब लोकपाल उन विमानोंमें क्रीड़ा किया करते हैं ।।३०२॥ सोम-जमा सम-रिबी, दोषिण वि ते होंति दक्विणि देस। तेसु अहियो वरुणो, वरुणादो होदि धणणाहो ॥३०३॥ प्रर्थ-दक्षिणेन्द्रोंके सोम और यम ये दोनों लोकपाल समान ऋद्धिवाले होते हैं । उनसे अधिक ( ऋद्धि-सम्पन्न ) वरुण और वरुणसे अधिक ( ऋद्धि सम्पन्न ) कुबेर होता है ॥३०३।। १. द. ब, क, ज. 3. समिदारिण। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ) तिलोयपण्णत्ती 1 गाथा । ३०४-३०९ सोम-जमा सम-रिद्धी, बोणि वि ते होंति उत्तरदाणं । तेस कुवेरो अहियो, हवेदि वरुणो कुबेरादो ॥३०४॥ पर्थ-उत्तरेन्द्रों के वे दोनों सोम और यम समान ऋद्विधाले होते हैं। उनसे अधिक ऋद्धि सम्पन्न कुबेर और कुबेरसे अधिक ऋद्धि सम्पन्न वरुण होता है ।।३०४।। इन्द्रादिकी ज्येष्ठ एवं परिवार देवियाइंच - पडियावीणं, देवाणं जेसियानो देवोनो। चेटुति तेत्तियानो', घोच्छामो आणुपुटवीए ॥३०॥ अर्थ--इन्द्र और प्रतीन्द्रादिक देवोंके जितनी-जितनी देवियों होती हैं उनको अनुक्रमसे कहते हैं ।।३०५॥ एक्केक्क - दक्खिणिदे, अदुटु • हवंति जेट्ठ-देवोनो। पउमा-सिवा-सचीओ, अंजुकया - रोहिणी - नवमी ॥३०६।। बल-णामा अच्चिणिया, ताओ सचिव-सरिस-सामानो। एक्केषक - उत्तरिय, तम्मेत्ता जेट - देवीग्रो ॥३०७।। किण्हा य मेघराई, रामावइ-रामरविखवा वसका। वसुमित्ता वसुधम्मा, धसुघरा सम्ब-इंद-सम-णामा ॥३०॥ प्रथं-पधा, शिवा, शची, अञ्जुका, रोहिणी, नवमी, बलनामा और अचिनिका ये आठ ज्येष्ठ देवियां प्रत्येक दक्षिण इन्द्रके होती हैं । वे सब इन्द्रोंके सदृश नामवाली होती हैं। एक-एक उत्तर इन्द्र के भी इतनी ( आठ ) ही ज्येष्ठ देवियां होती हैं । ( उनके नाम ) कृष्णा, मेघराजी, रामापति, रामरक्षिता, वसुका, वसुमित्रा, वसुधर्मा और वसुन्धरा हैं । ये सब इन्द्रोंके, समान नामवाली होती हैं ( अर्थात् सब इन्द्रों की देवियों के नाम यही है।) ॥३०६-३०८।। सक्क-दुगम्मि सहस्सा, सोलस एक्केषक-जेट्ट-देवीग्रो । चेट्ठति चारु - णिरुवम - रूवा परिवार - देवीभो ॥३०॥ १६०००। प्रयं-सौधर्म और ईशान इन्द्रको एक-एक ज्येष्ठ देवीके सुन्दर एवं निरुपम रूपवाली सोलह हजार ( १६००० ) परिवार-देवियां होती हैं ।।३०।। १. द. ब. क. ज.ठ. तेत्तियाणं। २. द. म. वा. ज.ठ, स्वारणं । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया । ३१०-३१४ ] agat महाहियारो श्रृटु-चउ-दुग सहस्सा, एक सहस्स सणवकुमार दुगे । बम्हम्मि लंतथिदे, कमेण महसुक्क • इंदम्मि ॥ ३१० ॥ Cons ४००० | २००० | १००० । अर्थ- सनत्कुमार और माहेन्द्र, ब्रह्मन्द्र, लान्तवेन्द्र तथा महाशुकेन्द्रको एक-एक ज्येष्ठ देवीके क्रमशः आठ हजार, चार हजार, दो हजार और एक हजार परिवार देवियां होती हैं ।। ३१०।। पंच सया देवीप्रो, होति सहस्सार इंब देखीणं । अड्डाइज्ज साणि, आरणद इंदादिय - चउक्के ॥ ३११ ॥ - - ५०० । २५० । - सहस्रार इन्द्रकी प्रत्येक ज्येष्ठ देवीके पांच सौ ( ५०० ) परिवार देवियाँ और मानवेन्द्र आदिक चारकी प्रत्येक ज्येष्ठ देवीके अढ़ाई सौ ( २५० ) परिवार देवियां होती है ||३११॥ इन्द्रोंकी वल्लभा और परिवार बल्लभा देवियां - बत्तीस सहस्ताणि, सोहम्मदुगम्मि होंति वल्लहिया । पत्तेक्कमड' - सहस्सा, सणवकुमारिव जुगलम्मि ॥ ३१२ ॥ - ३२००० । ३२००० ८००० | ८००० | - सौधर्मद्विक ( सौधर्म और ईशान ) में प्रत्येक इन्द्रके बत्तीस हजार ( ३२००० ) और सनत्कुमार आदि दो ( सनत्कुमार और महेन्द्र इन दो ) इन्द्रोंमें प्रत्येकके श्राठ ( आठ ) हजाय वल्लभा देवियाँ होती हैं ।। ३१२ ।। बहवे दु सहस्सा, पंचसयाणि च लतविम्मि । अड्डाइज्ज सर्वाणि हवंति महसुक्क इंदम्मि ॥ ३१३ ॥ - - १. द. क. अ. ठ. मठ्ठे - २००० | ५०० | २५० । ब्रह्मन्द्रके दो हजार (२०००), लान्सबेन्द्र के पाँच सौ ( ५०० ) और महाशुकेन्द्रके अढ़ाई सौ ( २५० ) वल्लभा-देवियाँ होती हैं ।। ३१३॥ पणुवीस- जुदेवक-सयं, होंति सहस्सार-इंद-वल्लहिया । प्राणद पाणद - [ ५१७ प्रारण - अच्चद इंदारण तेसङ्घी ॥ ३१४ ॥ १२५ | ६३ । - Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] [ गाथा : ३१५ - ३१९ ( १९५) और आनत प्राप्त - श्रारण- अच्युत अर्थ-इन्द्रके इन्द्रों के तिरेसठ ( ६३-६३ ) वल्लभा देवियां होती हैं ।। ३१४ || तिलोय पण्णत्ती परिवार - वल्लभाओ, सक्कानो दुगस्स जेटु-वेवोश्रो । यि सम' - विकुष्वणाम्रो पसेवकं सोलल सहस्सा ।। ३१५ ।। १६०००। अर्थ-सोधर्म और ईशान इन्द्रकी परिवार वल्लभात्रों और ज्येष्ठ देवियोंमें प्रत्येक अपने समान सोलह हजार ( १६००० ) प्रमारण विक्रिया करने में समर्थ है ।। ३१५|| - - तत्तो दुगुणं दुगुणं, ताओ पिय-तणु - विकुव्यजकराओ । आणद इंब - चउक्कं जाव कमेणं पचत्तध्वो ॥३१६॥ ३२००० | ६४००० । १२८००० | २५६००० | ५१२००० | १०२४००० । प्रथं - इसके आगे आनत भादि चार इन्द्रों पर्यन्त वे ज्येष्ठ देवियां क्रमश : इससे दूने प्रमाण अपने-अपने शरीरको विक्रिया करनेवाली हैं, ऐसा क्रमशः कहना चाहिए ||३१६ ॥ सब इन्द्रों की प्राणवरुलभाओं के नाम विनयसिरि- कणयमाला पउमा-णंदा सुसीम-जिरणदत्ता | gaar affiपये, एक्केक्का पाण- बहलहिया ॥३१७॥ - - एक-एक दक्षिणेन्द्र के विनयश्री कनकमाला, पद्मा, नन्दा, सुसीमा और जिनदत्ता, इसप्रकार एक-एक प्राणवल्लभा होती है ||३१७॥ एक्केrक उत्तरदे, एक्केक्का होवि हेममाला य । नीलुप्पल-विस्सुदा, गंदा वइलवखरणाश्रो जिणदासी ।।३१८ || अर्थ- हेममाला, नीलोत्पला विश्रुता, नन्दा, वैलक्षणा और जिनदासी, इसप्रकार एक-एक उत्तरेन्द्र के एक-एक प्राणवल्लभा होती है ।। ३१८ सर्यालय - बल्लभाणं, चत्तारि महसरीओ पत्तेक्कं । कामा कामिणिआओ, पंकयगंधा अलंबुसा लामा ||३१६ ॥ अर्थ--सब इन्द्रोंकी वल्लभाओं में से प्रत्येकके कामा, कामिनिका पंकजगन्धा और प्रलंबूषा नामक चार महत्तरी ( गणिका महत्तरी ) होती हैं ।। ३१६ ।। १. ब. समय । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रों की देवियों का प्रमाण गाया। ३१६ वियों क्रमांक गा० प्रमाण | ज्येष्ठ | ज्येष्ठ देवियों । ज्येष्ठ देवियों | बल्लभा देवियों प्रारण महत्तरी देवियाँ की वल्लभा को | बल्लभाएं की विक्रिया का| गा० विक्रिया परिवार देवियाँ ३०६- का प्रमाण | गा० ३०९-३११/ गा. गा० ३१५-३१६ ३०८ |गा०३१५-३१६ ३१२-३१४] योगफल A गा. सौधर्म १२८००० ५१२२८८०१३ I १२८००० १२८००० ईशान १२८००० ३२००० | ५१२०००००० ३२००० | ५१२०००००० २५६०००००० ५१२२८८०१३ सनत्क. माहेन्द्र ६४००० ८००० २५६०००००० * K ब्रह्म २५६००० २५६००० ५१२००० १०२४००० २०४८००० २००० अट्ठमो महाहियारो लान्तव १६००० ६ महाशुक्र २५० ४ ४ २५६३२८०१३ २५६३२८०१३ १२८५४६०१३ ६५०४०५१३ ६६०५६२६३ ६८१००१३८ ७२७०६०७६ ७२७०६०७६ ७२७०६०७६ ७२७०६०७६ ॥ सहस्रार ४०९६००० १२८०००००० ६४०००००० ६४०००००० ६४०००००० ६४५१२००० ६४५१२००० ६४५१२००० ६४५१२०.. ४००० आनत २००० २१६२००० ८१६२००० ० प्रागत ३ पारण ८१९२००० २००० ४ ४ अच्युत ८१६२००० २००० ३ [ ५१९ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] तिलोयपात्ती [ गाथा : ३२०-३२४ प्रतीन्द्रादिक तीन को देवियोपडियादितियस्स य, णिय-णिय देहि सरिस-देवीमो। संखाए पामेहि, विक्किरिया • रिद्धि सारि ॥३२०॥ अर्थ-प्रतीन्द्रादिक तीन ( प्रतीन्द्र, सामानिक और बायस्त्रिंश ) को देवियां संख्या, नाम, विक्रिया और ऋद्धि, इन चार ( बातों) में अपने-अपने इन्द्र ( को देवियों ) के सदृश हैं ।।३२०।। लोकपालोंकी देवियाआविम-वो-जगलेसु, बम्हादिसु चउसु प्राणव-च उक्के । दिग्गिव - जेट्ठ - देवीओ होंति चत्तारि चत्तारि ।।३२१॥ अर्थ-आदिके दो युगल, ब्रह्मादिक चार युगल और आनत आदि चारमें लोकपालोंकी ज्येष्ठ देवियां चार-चार होती हैं ।।३२: तप्परिवारा कमसो, चउ-एक-सहस्सयाणि पंच-सया। अड्ढाइज्ज - सयाणि, तद्दल - तेसट्टि - बत्तीसं ॥३२२॥ ४००० । १००० ३५०० । २५० । १२५ । ६३ । ३२ । अर्थ-उनके परिवारका प्रमाण क्रमश: चार हजार, एक हजार, पांच सौ, अढ़ाई सौ, इसका प्राधा अर्थात् एक सौ पच्चीस, तिरेसठ और बत्तीस है ॥३२२॥ णिरुषम-लावण्णामो, बर-विविह-विभूसणाप्रो पत्तक्क । प्राउट्ट - कोरिमेता, बल्लहिया लोयपालाणं ॥३२३॥ ३५००००००1 अर्थ-प्रत्येक लोकपालके अनुपम लावण्यसे युक्त और विविध भूषणोंवाली ऐसी साढ़े तीन करोड़ { ३५०००००० ) वल्लभाएं होती हैं ।।३२३।। लोकपालोंमेंसे प्रत्येकके सामानिक देवोंकी देवियांसामारिणय-देवीप्रो, सध्ध - विगिवाण होति पत्तेक्कं । णिय-णिय-विगिद-देवी, समाण - संखामो सव्वाश्रो ॥३२४॥ अर्थ—सब लोकपालोंमेंसे प्रत्येकके सामानिक देवोंकी सब देवियां अपने-अपने लोकपालोंकी देवियोंके सदृश संख्यावाली हैं ।।३२४।। १.द.ब. क. ज.क.पडिइंयातिषियस्स य । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२१ गाथा : ३२५-३३० ] अट्ठमो महाहियारो इन्द्रों में तनुरक्षक ओर पारिषद देवोंको देवियाँसम्वेसु इंवेसु, तणरक्ख - सुराण होंति देवीप्रो । पुह छस्सयमेत्ताणि, णिरुदम - लावण्ण - रूवाप्रो ॥३२५।। अर्थ-सब इन्द्रों में तनुरक्षकदेवोंको अनुपम लावण्यरूपवाली देवियां पृथक्-पृथक् छह सौ (६०० ) प्रमाण होती हैं ।। ३२५॥ आदिम-दो-जुगलेसु, बम्हारिसु चउसु.प्राणद-चउपके। पुह - पुह सविदाणं, अन्भंतर - परिस - देवीओ ॥३२६॥ पंच-सय-चउ-सयाणि,ति-सया दोन्सयाणि एक्क-सयं । पण्णासं पणुवोसं, कमेण एवाण णादया ॥३२७॥ ५०० । ४०० । ३०० । २०० । १०० । ५० । २५ । ___ अर्थ आदिके दो युगल, ब्रह्मादिक चार युगल और आनतादिक चारमें सब इन्द्रोंके अभ्यन्तर पारिषद-देवियाँ क्रमश: पृथक-पृथक् पाँच सौ, घार सौ, तीन सौ, दो सौ, एक सौ, पचास और पच्चीस जाननी चाहिए ॥३२६-३२७।। छप्पंच-चउ-सयाणि, तिग-दुग-एक्क-सयाणि पण्णासा। पुज्योविद - ठाणेसु, मज्झिम - परिसाए देवीमो ॥३२॥ ६०० । ५०० । ४०० । ३०० । २०० । १०० । ५० । अर्थ-पूर्वोक्त स्थानों में मध्यम पारिषद देवियां क्रमशः छह सौ, पाच सौ, चार सौ, तीन सौ, दो सौ, एक सौ और पचास हैं ।।३२८॥ . सत्त-छ-पंच-घउ-तिय-दुग-एक्क-सयाणि पुन्व-ठाणेसु। सब्धिदारणं होंति हु, बाहिर • परिसाए देवीप्रो ॥३२६॥ ७०० । ६०० । ५०० । ४०० । ३०० । २०० । १०० । अर्प-पूर्वोक्त स्थानों में सब इन्द्रोंके बाह्य-पारिषद देवियां क्रमशः सात सौ, छह सौ, पांच सो, चार सौ, तीन सौ, दो सौ और एक सौ हैं ।।३२६।। अनीक देवोंकी देवियोसत्ताणीय - पहणं, पुह पुह देवीओ छमिया होति । दोणि सया पत्तेषक, देवोनो अणीय - देवाणं ॥३३०॥ ६०० । २००। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाया : ३३१-३३२ अर्थ -सात प्रतीकों के प्रभुओंके पृथक्-पृथक् छह सौ ( ६०० ) और प्रत्येक प्रतीकदेव के दो सौ ( २०० ) देवियाँ होती हैं ||३३० || जाम्रो पइणयाणं, श्रभियोग-सुराण किविभसारखं च । देवीओ ताण संखा, उवएसो संपद पणट्टी ॥ ३३१ ॥ अर्थ - प्रकीर्णक, आभियोग्य देव और किल्विषक देवोंकी जो देवियाँ हैं उनकी संख्याका उपदेवा इससमय नष्ट हो गया है ||३३१|| तरक्ख-प्पहूदीणं, पुह पुह एक्केषक जेदु देवीश्रो एatest बल्लहिया, विविहालंकार - कंतिल्ला ||३३२ ॥ धर्म-तनुरक्षक आदि देवोंके पृथक्-पृथक् विविध प्रलङ्कारोंसे शोभायमान एक-एक ज्येष्ठ देवी और एक-एक वक्लभा होती है ||३३२॥ - [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___मानिक इन्द्रोंके परिवार देवोंकी दवियोंका प्रमाण - कल्प इन्द्रों के नाम - परिवार देव गाथा । ३३२ ] | ब्रह्म | लान्तव | महाशुक्र सहस्रार आनत प्राणतारण अच्युत प्रतीन्द्र की | देवियों सदृश देवियां हैं। सामानिक प्रायस्त्रिश 1 GK KA" | क्रमांक दावया अट्ठमो महाहियारो २०० x [प्रत्येक लोकपाल के | ४ परिवार ४०००/४०००१०००१०००५०० २५.० | १ बल्लभा पाल की ३५०००००० सब लोकपालोंके सामा० देवोंकी अपने पाल की| देविया प्रमाण इन्द्रोंके प्रत्येक परिवार ६००६०० | ६०० तनुरक्षकके ज्येष्ठ बल्ल अभ्यन्तर पारिषद मध्यम पारिषद ९ / बाह्य पारिषद | प्रधान अनीक की | x साधारण अनीक की x २०० । प्रकीर्णकों की १३ प्राभियोग्यों की १४ किल्विषिकों को x । । [ ५२३ । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ] पितो देवियों की उत्पत्तिका विधान सोहम्मीसाणेसु, उष्पज्जते हु सव्व देवीयो । उवरिम कप्पे ताणं, उप्पत्ती पस्थि कइया वि ||३३३|| - · अर्थ- सब देवियां सौधर्म और ईशान कल्पोंमें ही उत्पन्न होती हैं, इससे उपरिम कल्पों में उनकी उत्पत्ति कदापि नहीं होती ||३३३|| - छल्लक्खाणि विमाणा, सोहम्मे दविखणिय-सव्वाणं । लक्खा, उत्तर इंदाण य विमाणा ||३३४॥ ईसाणे चउ [ गाथा : ३३३ - ३३७ तेसु उप्पण्णाओ, देवीओ चिन्ह जाहूणं जिय-कप्पे, जेंति हु देवा ६००००० | ४००००० । अर्थ- सब दक्षिणेन्द्रोंके सौधर्मकल्प में छह लाख ( ६००००० ) विमान और उत्तरेन्द्रोंके ईशान कल्प में चार लाख ( ४००००० ) विमान हैं ।। ३३४ ॥ श्रोहिणाणेहि । सराग मरणा ।। ३३५।। - अर्थ- उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियोंके चिह्न अवधिज्ञानसे जानकर सराग मनवाले देव अपने-अपने कल्प में ले आते हैं ।। ३३५|| सोहम्मम्म विमारणा, सेसा छच्चीस- लक्ख संखा जे । तेसु उप्पज्जंते, देवा देवीहि सम्मिस्सा ||३३६॥ अर्थ – सौधर्मकल्प में जो शेष छब्बीस लाख विमान हैं, उनमें देवियों सहित देव उत्पन्न होते हैं ||३३६|| ईसारगम्मि विमाणा, सेसा चउवीस- लक्ख संखा जे । उप्पनजंते, देवीओ देव मिस्सा ॥ ३३७ ॥ तेसु अर्थ – ईशानकल्प में जो शेष चौबीस लाख विमान हैं, उनमें देवोंसे युक्त देवियाँ उत्पन्न होती हैं ||३३७|| विशेषार्थ - प्रारण ( १५ वें ) स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण कल्पोंकी समस्त देवांगनाएँ सोधर्म कल्प में उत्पन्न होती हैं और अच्युत ( १६ वें ) कल्प पर्यन्त उत्तर कल्पोंकी समस्त देवांगनाएँ ईशान कल्पमें ही उत्पन्न होती हैं । उत्पत्तिके बाद उपरिम कल्पोंके देव अवधिज्ञान द्वारा उनके चिह्नोंको जानकर अपनी-अपनी नियोगिनी देवांगनाओंोंको अपने-अपने स्थान पर ले जाते हैं। सौधर्मकल्पमें कुल ३२ लाख विमान हैं, जिसमें से ६००००० ( छह लाख ) में मात्र देवांगनाओं की उत्पत्ति होती है और शेष Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३३८-३४१ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५२५ २६ लाख विमानोंमें संमिश्र अर्थात् देव और देवियाँ दोनों उत्पन्न होते हैं । इसीप्रकार ईशान कल्पके २८ लाख विमानों में से ४००००० विमानोंमें मात्र देवांगनाओंकी और शेष २४ लाख विमानोंमें दोनों की उत्पत्ति होती है। सौधर्मादि कल्पोंमें प्रवीचारका विधानसोहम्मीसाणेस, देवा सम्वे वि काय - पडिवारा । होति हु सणकुमार-प्पहुांव-दुगे फास • पांडेचारा ॥३३८।। अर्थ-सौधर्म और ईशान कल्पों में सब ही देव काय-प्रवीचार सहित और सनत्कुमार प्रादि दो ( सनत्कुमार-माहेन्द्र ) कल्पोंमें स्पर्श प्रयोचार युक्त होते हैं ।।३३८।। बम्हा हिवाण-कप्पे, लंतब-कप्पम्मि रुव - पडिचारा। कप्पम्मि महासुक्के, सहस्सयारम्मि सद्द-पडिचारा ॥३३६॥ प्रर्य -- ब्रह्म नामक कल्पमें तथा लान्तव कल्पमें रूप प्रवीचार युक्त प्रौर महाशुक्र एवं सहस्रार कल्पमें शब्द-प्रवीचार युक्त होते हैं ।।३३६।। प्राणव-पाणव-पारण-अच्चुद-कप्पेसु चित्त-पडिचारा । एत्तो सविदाणं, आवास - विहि पल्वेमो ॥३४०॥ प्रर्थ-आनत, प्रागत, आरण और अच्युत, इन कल्पों में देव चित्त-प्रवीचार युक्त होते हैं। यहाँसे आगे सब इन्द्रोंको आवास-विधि कहते हैं ।।३४०1।। विशेषार्थ-काम सेवन को प्रवीचार कहते हैं । सौधर्मशान कल्पोंके देव अपनी देवांगनाओं के साथ मनुष्योंके सदृश कामसेवन करके अपनी इच्छा शान्त करते हैं । सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंके देव देवांगनाओंके स्पर्श मात्रसे अपनी काम पीड़ा शान्त करते हैं । ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर और लान्तव-कापिष्ठ कल्पोंके देव देवांगनाओंके रूपावलोकन मात्रसे अपनी काम पीड़ा शान्त करते हैं । इसीप्रकार महाशुक्र और सहस्रार कल्पोंके देव देवांगना नोंके गीतादि शब्दों को सुनकर तथा आनतादि चार कल्पोंके देव चित्तमें देवांगनाका विचार करते हो काम वेदनासे रहित हो जाते हैं । इससे ऊपरके सब देव प्रबोचार रहित हैं। इन्द्रों के निवास स्थानोंका निर्देश - पढमादु एक्कतीसे, पभ-णाम-जवस्स दक्षिणोलीए । बत्तीस - सेटिबद्ध, प्रहारसमम्मि चेटुदे सक्को ।।३४१॥ अर्थ-प्रथमसे इकतीस प्रभ-नामक इन्द्रकको दक्षिण श्रेणीमें बत्तीस श्रेणीबद्धोंमेंसे अठारहवें श्रेणीबद्ध विमानमें सौधर्म इन्द्र स्थित है ।।३४१॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] तिलोय पण्णत्ती तस्सिदयस्स उत्तर बिसाए बत्तीस अट्ठारसमे चेट्ठदि, इंदो ईसाण Fara नामक इन्द्र स्थित है ( चित्र इसप्रकार है ) - · अर्थ – इसी इन्द्रककी उत्तर दिशा के बत्तीस श्र ेणीबद्धोंमेंसे अठारहवें श्रीबद्ध विमानमें - ||३४२ ॥ शान ऐडयन इन्द्र का - - अबा ਸਮੇਂ इन्द्रक - दिये में मिलाए पढमा प्रतीसे, वषिण-पंतीए चक्क णामस्स । पणुवीस सेढिबद्ध, सोलसमे तह सणक्कुमारियो ।। ३४३ || वास सोलहवें श्रीबद्ध विमानमें सानत्कुमार इन्द्र स्थित है ||३४३ || A अर्थ- पहले से अड़तीसवें चक्र नामक इन्द्रकको दक्षिण पंक्ति में पच्चीस श्र ेणीबद्धों में से सेडिबद्ध सु णामो य ।। ३४२ ॥ तस्सिवयस्स उत्तर विसाए पणुवीस-सेहिबद्धम्मि । सोलसम सेढिबद्ध, चेटू दि माहिव णामिवो ॥ ३४४॥ [ गाथा : ३४२-३४५ · अर्थ - इस इन्द्ररूको उत्तरदिशा में पच्चीस श्रं गीबद्धोंमेंसे सोलहवें श्रेणीबद्ध में माहेन्द्र नामक इन्द्र स्थित है ।। ३४४ || · बहुत्तरस्स दक्षिण-विसाए इगियोस सेढिबद्ध सु । चोसम सेढिबद्ध, चेटुवि हु बम्ह कप्पिदो || ३४५ ।। - - ( पहले से बियालीसवें ) ब्रह्मोत्तर नामक इन्द्रक की दक्षिण दिशा में इक्कीस श्रेणी बों से चौदहवें श्रेणीबद्ध विमान में ब्रह्म कल्पका इन्द्र स्थित है ||३४५ ।। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३४६-३५१ ] अट्ठमो महाहियारो { ५२७ लंतब-इंवय-वक्षिण-विसाए वोसाए' सेठीबद्ध सु। बारसम - सेढिबद्ध', चे?वि हु तविको वि ।।३४६।। प्रर्ष-(पहलेसे चवालीसवें ) लान्तव नामक इन्द्रकको दक्षिण दिशामें बोस श्रेणीबद्धोंमेंसे बारहवें श्रेणीबद्ध विमानमें लान्तव इन्द्र स्थित है ।।३४६।। महसुषिकदय-उत्तर-विसाए अट्ठरस - सेढिबद्ध । दसमम्मि सेढिबद्ध, वसइ महासुक्क - णामिदो ॥३४७।। प्रयं-(पहलेसे पैंतालीसवें ) महाशुक्र नामक इन्द्रकको उत्तर दिशा में अठारह श्रेणीबद्धों मेंसे दसवें श्रेणीबद्ध विमानमें महाशुक्र नामक इन्द्र निवास करता है ।। ३४७।। होवि साहस्सारत्तर - विसाए सत्तरस - सेढिबद्ध सु। भट्ठमए सेहिम, वसइ सहस्सार - णामिदो ॥३४८।। अर्थ-(पहले से संतालीसवें ) सहस्रार नामक इन्द्रककी उत्तर दिशामें सत्तरह श्रेणीबद्धों मेंसे पाठवें श्रेणीबद्ध विमानमें सन्सार नामक इन्द्र निवास करता है ।।३४८।। जिणविट्र-णाम-वय-दक्षिण-पोलीए सेढिबसु । छट्ठम - सेढीबद्ध, आरपद - णामित्र - आवासो ॥३४॥ मर्थ-जिनेन्द्र द्वारा देखे गये नामवाले इन्द्रककी दक्षिण-पक्तिके श्रेणीबद्धों से छठे श्रेणीमद्धमें पानत नामक इन्द्रका निवास है ॥३४६।। तस्सिवयस्स उत्तर - दिसाए तस्संख - सेटिबद्ध हैं। छट्ठम - सेढीबई, पाणन - णामिद - प्रावासो ॥३५०॥ मर्य-इस इन्द्रककी उत्तर दिशामें उतनी ही संख्या प्रमाण श्रेणीबद्धोंमेंसे छठे श्रेणीबद्ध में प्राणत नामक इन्द्रका निवास है ।।३५०।।। प्रारण-इंदय-दक्षिण-बिसाए एक्फरस-सेटिबद्ध सु । छठम - सेढीबद्ध, प्रारण - इंदस्स आवासो ॥३५॥ अर्थ-पारण इन्द्रककी दक्षिण दिशाके ग्यारह श्रेणीबद्धोंमेंसे छठे श्रेणीबद्ध विमानमें आरण इन्द्रका आवास है ॥३५१।। १. मीस के स्थान पर १६. श्रेणीबद्धोंमेंसे होना चाहिए। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ३५२ अचुद-इंश्य-उत्तर-विसाए एक्करस - सेदिबद्ध सु। अठ्ठ - सदीतह, पनुन - वस्स पावासो ॥३५२।। अर्थ-अच्युत इन्द्रककी उत्तर दिशाके ग्यारह श्रेणीबद्धोंमेंसे छठे श्रेणीबद्ध विमान में अच्युत इन्द्रका निवास है ।।३५२॥ विशेषार्ष-प्रथम ऋतुविमानकी प्रत्येक दिशामें ६२ श्रेणीबद्ध विमान हैं. प्रत्येक इन्द्रक प्रति प्रत्येक दिशामें एक-एक श्रेणीबद्ध विमान हीन होता है । प्रथम इन्द्रकमें हानि नहीं है अतः प्रथम कल्पके अन्तिम प्रभ इन्द्रककी एक दिशामें ३२ श्रेणीबद्ध विमान प्राप्त होंगे उनमें से १८ वें श्रेणीबद्ध विमानमें अर्थात् सौधर्म-ईशान कल्पके अतिम इन्द्रक सम्बन्धी दक्षिण दिशागत श्रेणीबद्ध विमानोंमेंसे १८ व श्रेणीबद्ध में सौधर्मेन्द्र और उत्तर दिशा सम्बन्धी ३२ श्रेणीबद्धोंमेंसे १८ वें श्रेणीबद्ध में ईशानेन्द्र निवास करते हैं। इसीप्रकार आगे भी जानना चाहिए । यथा-- क्रमांक करूप नाम एक | | प्रत्येक इन्द्रक प्रति हीन होते इन्द्रक संख्या दिशागत हुए श्रेणीबद्ध विमानों श्रेणीबद्ध की संख्या | अन्तिम | इन्द्र के निवास इन्द्रक | सम्बन्धी सम्बन्धी नगीबद्धों की श्रेणीबद्ध संख्या सौधर्म कल्प ईशान कल्प सनत्कुमार माहेन्द्र ३१ । ६२ ६१,६०,५९,५८,५७,५६,५५ .३४,३३| ३२ मैसे - , -,, - - ३०, २९, २८, २७, २६ २३ २२ लान्तव [मा० ३४६ में २० मेंसे लिखा है] 4. AAA 44 并计# # 并并并针 # 并行 महाशुक्र " | १०वें में सहस्रार आनत | गा० ३४९-५० में इन दोनों कल्पों संख्या आदि नहीं कही गई है।। प्रारणत १६ । १५ - १४ ... १३ ... १२ | ११ , স্বাহা अच्युत ११, | ६वें में Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३५३-३५७ ] अट्टम महाहियारो J छज्जुगल - सेस एसु अट्ठारसमम्मि सेटिवद्ध सु । दो-ही-कर्म बविखण-उत्तर भागेसु होंति देविदा ||३५३|| पाठान्तरम् । अर्थ- छह युगलों और शेष कल्पोंमें यथाक्रमसे प्रथम युगल में अपने अन्तिम इन्द्रक से सम्बद्ध अठारहवें श्र ेणीबद्ध में तथा इससे आगे दो होन क्रमसे अर्थात् सोलहवें, चौदहवें, बारहवें, दसवें, आठवें और छठे श्रीबद्ध में दक्षिण भाग में दक्षिण इन्द्र और उत्तर भागमें उत्तर इन्द्र स्थित हैं ।। ३५३ ।। पाठान्तर । श्रर्याि एवं उनके मध्य स्थित नगरोंके प्रमाण आदिका निर्देश - रयरण गियरमया ।। ३५४ ।। एवाणं सेढीनो, 'पत्तेक्कम संख जोयण पमाणा । रवि मंडल - सम-बट्टा, माणावर अर्थ- सूर्यमण्डल के सदृश गोल और नाना उत्तम रत्नसमूहोंसे निर्मित इनकी श्र ेणियोंमेंसे प्रत्येक (श्रेणी) असंख्यात योजन प्रमाण है ।। ३५४।। - - तेसु तड-बेबीओ कणयमया होंति विविह-य-माला । चरियट्टालय चारू, वर तोरण सुंदर दुवारा ।।३५५१८ - इन्द्र आदिके नगर हैं ।। ३५७ ।। - - १. व. ब. क. ठ. पत्त क्रमसंखेज्ज । - अर्थ – उनमें मार्गों एवं अट्टालिकाओंसे सुन्दर, उत्तम तोरणोंसे युक्त सुन्दर द्वारोंवाली और विविध ध्वजा-समूहोंसे युक्त स्वर्णमय तट- वे दियाँ हैं ।। ३५५।। दावरिम- तलेस, जिरणभवणेहि विचित्त हवेहि । उत्तुंग तोरणेह, सविसेसं सोह्माणाओ ।। ३५६ ।। - - [ ५२९ अर्थ-द्वारोंके उपरिम तलोंपर उन्नत तोरणों सहित और अद्भुत रूपवाले जिन भवनों से वे वेदिय विशेष शोभायमान हैं ।। ३५६ ।। एवं पण्णिदाणं, सेढोणं होंति ताण बहुमभे । णिय- णिय-नाम- जुदाई, सक्क प्पहृवीण गयराई ॥ ३५७ ।। पर्थ - इसप्रकार वर्णित उन श्र ेणियोंके बहुमध्य भाग में अपने-अपने नामसे युक्त सौधर्म Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० ] तिलोय पण्णत्ती चुलसीबी-सोदीग्रो बाहत्तरि सत्तरीश्रो सट्ठी य । पण्णास चाललीसा, वीस सहस्साणि जोयणा ||३५८ || ६४०००।८०००० | ७२००० | ७०००० । ६०००० | ५०००० । ४०००० ३०००० | २०००० । सोहम्मदादीणं, प्रट्ठ सुरिवाण सेस इंदाणं । रायंगणस्स वासो, पत्तेक्कं एस णावव्यो ||३५६। अर्थ-सोधर्मादि आठ सुरेन्द्रों और शेष इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके राजाङ्गणका यह विस्तार क्रमश: चौरासी हजार ( ८४०००) अस्सी हजार ( ८०००० ) बहत्तर हजार ( ७२००० ), सत्तर हजार ( ७००००), साठ हजार ( ६००००), पचास हजार ( ५००००), चालीस हजार ( ४०००० ), तीस हजार (३०००० ) और बीस हजार ( २०००० ) जानना चाहिए ।।३५८-३५६ ।। रायंगण भूमीए, समंतदो दिव्य-कणय-तड-वेदी । चरियट्टालय चारू, णवंत विचित्त रयणमाला || ३६० ।। [ गाथा : ३५८-३६२ · अर्थ – राजाङ्गण भूमिके चारों ओर दिव्य सुवर्णमय तट-वेदी है। यह वेदी मार्ग एवं अट्टालिकाभोंसे सुन्दर तथा नाचती हुई विचित्र रत्नमालाओं से युक्त है || ३६० ॥ प्राकारका उत्सेध प्रादि सक्कदुगे तिणि-सया, श्रड्ढाइज्जा सयाणि उयरि - दुगे । बम्हवे दोणि सया, आदिम पायार उच्छेो ॥ ३६१ ॥ 4 - | ३०० | २५० । २०० । अर्थ - शत्र- द्विक अर्थात् सौधर्म और ईशान इन्द्र के श्रादिम प्राकारका उत्सेच तीन सौ (३००), उपरि-द्विक अर्थात् सानत्कुमार और माहेन्द्र के आदिम प्राकारका उत्सेध अढ़ाई सौ ( २५० ) तथा द्रादिम प्राकारका उत्सेध दो सौ { २०० ) योजन है ।। ३६१ ॥ पण्णास जुदेवक-सया, बीसम्भहियं सयं सयं सुद्ध । सो बिद-तिए, सीदि पत्तेक्क- आणदाविम्मि || ३६२ || १५० | १२० । १०० । ८० । श्रर्थ -- लान्तवेन्द्रादिक तीन ( लान्तवेन्द्र, महाशुद्र और सहसारेन्द्र ) के आदिम प्राकारोंका उत्सेध प्रमाण क्रमश: एक सौ पचास ( १५० ), एक सौ बीस ( १२० ) और केवल सो ( १०० ) योजन है । प्रत्येक आनतेन्द्रादिके राजांगणका उत्सेध ग्रस्सी ( ८० ) योजन प्रमाण है ।। ३६२ ।। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३६३-३६७ ] अट्टमो महाहियारो [ ५३१ पण्णासं पणुवीस, तस्सद्धं तद्दलं च चत्तारि । तिणि य प्रवाइज्जं, जोयणया तह कमे गावं ॥३६३ ॥ ५० । २५ ३१ । २०१४।३।। अर्थ-उपयुक्त आदिम प्राकारका अवगाढ़ ( नींव ) क्रमशः पचास, पच्चीस, उसका प्राधा ( १२३ यो०), उसका भी आधा ( ६३ यो०), चार, तीन और पढ़ाई (२२) योजन प्रमाण है ॥३६३॥ जं गाढस्स पमारणं, तमिर बहतरूगं मिला । आदिम - पायारस्स य, कमसोयं पुश्व • ठाणेस ॥३६४।। अर्थ-पूर्वोक्त स्थानोंमें जो प्रादिम प्राकारके अवगाढ़का प्रमाण है, वही क्रमशः उसका बाहस्य भी जानना चाहिए ॥३६४॥ गोपूर द्वारोंका प्रमाण आदिसक्क-बुगे धचारो, तह तिण्णि सणपकुमार-च-दुगे । बम्हिवे वोण्णि सया, प्राविम-पायार-गोउर-दुवारं ॥३६५।। ४०० । ३०० । २०० इगिसठ्ठी अहिय-सयं, चालोसुत्तर-सयं सयं बोस । ते लंतवादि - तिवए, सयमेषकं प्राणादि - इंवेसु ।।३६६॥ __ '१६१ । १४० । १२० । १०० । अर्थ-आदिम प्राकारोंके गोपुर-द्वार सौधर्मशानमें चार-चार सौ (४०० ), सानत्कुमारमाहेन्द्र में तीन-तीन सौ ( ३००), ब्रह्मकल्पमें दो सो (२००), लान्तवकल्पमें एक सो इकसठ (१६१), महाशुक्रमें एक सौ चालीस ( १४० ), सहस्रारमें एक सौ बीस ( १२० ) और पानत आदि इन्द्रों में एक-एक सो ( १००-१०० ) हैं ।।३६५-३६६।। चचारि तिणि बोणि य, सयाणि सयमेक्क सट्ठि-संजुत्तं । चालीस - जुबेरक - सयं, वोसम्भहियं सयं एक्कं ॥३६७॥ ४०० । ३०० । २०० । १६० । १४० । १२० । १०० । - . नोट-गा. ३६७ के अनुसार गा० ३६६ में १६१ के स्थान पर प्रमाण १६० ही होना चाहिए । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : ३६८-३६९ एवाइ जोयणाई, गोउर-दाराण होइ उच्छेहो । सोहम्म :: पहुचीसु, पुन्बोदिद - सप्त - ठाणे ॥३६८।। मर्थ-सौधर्मादि पूर्वोक्त सात स्थानोंमें गोपुर-द्वारोंका उत्सेध क्रमश: चार सौ, तीन सी, दो सौ, एक सौ साठ, एक सौ चालीस, एक सौ बीस और एक सौ योजन प्रमाण है ।।३६७-३६८।। एक्क-सय-णउदि-सीवी-सत्तरि-पण्णास-चाल-तीस-कमा । जोयणया वित्थारो, गोउर - बाराण पक्कं ॥३६॥ १०० । ९० । ६० । ७० १५० १ ४० । ३०। । अर्थ-उपर्युक्त स्थानों में गोपुर-दारों से प्रत्येकका विस्तार क्रमशः एकसौ, नब्बे, अस्सी, सत्तर, पचास, चालीस और तीस योजन प्रमाण है ॥३६६।। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमक १ २ ३ ४ ५ ७ 5 ९ स्थानोंके नाम सोधर्म ईशान सानत्कमार माहेन्द्र ब्रह्म लान्तव महाशुक्र सहस्रार श्रान्तादि ४ राजांगरणोंका ( नगरों का ) "विस्तार गा० ३५८-३५६ ८४००० योजन ८००० ७२००० ७०००० ६०००० ४०००० ३०००० " २०००० = ५०००० " 17 " +1 31 "2 उत्सेध गा. ३६१-३६२ ३०० यो० प्राकारों (कोट) का विवरण श्रवगाढ़ ( नींव ) गा० ३६३ ५० योजन ३०० " २५० २५० " २०० ।। १५० " १२०, १०० १० 50 15 ५० २५ २५ *De १२३, २३ 7 11 21 " = " ..... बाहल्य गा० ३६४ ५० योजन ५० २५. २५ १२३” ६ " ४ 32 ३ " २३ " गौपुर द्वारोंका प्रमाणादि प्रमाण उत्सेध गा० ३६५- गा० ३६७ ३६६ ३६८ ४५० योजन १०० यो० ४०० ४०० ३०० ३०० २०० १६१ १४० १२० १०० ܘܬ २०० ३०० Ruo १६० १४० १२० १०० E " च ६० ナリ די 115 " F " विस्तार गा० ३६९ ܕ १०० ८० ६० 71 " ༥༠ *. " ७० ," ३० R 12 31 गाथा | ३६९ ] प्रमो महाहियाचे [ ५३३ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] लियो पत्ती [ गापा : ३०-३७५ राजांगणके मध्य स्थित प्रासादोंका विवेचनरायंगण - बहुमजझे, एक्केरक-पहाण-विस्व-पासावा । एक्केक्कस्सि इवे, णिय-णिय-ईवाग णाम - समा ॥३७०।। प्रथं-राजांगणके बहुमध्य भागमें एक-एक इन्द्रका अपने-अपने नामके सदृश एक-एक प्रधान दिव्य प्रासाद है ।।३७०।। घुम्वंत-धय-बढ़ाया, मुत्ताहल-हेम-दाम-कमणिम् । घर-रयण-मत्तवारण-गाणाबिह-सालभंजियाभरणा ॥३७१।। विप्पंत-रयण-दीवा, बम्ज-कबाहिं सुवर-दुवारा । दिव्य-वर-धूव-सुरही, सेज्जासण-पहुवि-परिपुण्णा ॥३७२॥ सत्तट्ठ-णव-सादिय-विचित्त-भूमीहि मूसिवा सव्वे । बहुधण्ण - रयण - खचिदा, सोहंते सासय • सरूवा ॥३७३॥ मर्थ-सब प्रासाद फहराती हुई ध्वजा पताकाओं सहित. मुक्ताफलों एवं सुवर्णकी मालाओंसे रमणीक, उत्तम रत्नमय मत्तवारणोंसे संयुक्त, आभरण युक्त नाना प्रकारकी पुतलियों सहित, चमकसे हुए रत्न-दीपकोंसे सुशोभित, वनमय कपाटोंसे, सुन्दर द्वारोंवाले, दिव्य उत्तम घूपसे सुगन्धित, शय्या एवं मासन मादिसे परिपूर्ण और सात, आठ, नौ तथा दस आदि अदभुत भूमियोंसे भूषित हैं। पाश्वत स्वरूपसे युक्त ये प्रासाद नाना रत्नोंसे खचित होते हुए शोभायमान है॥३७१-३७३।। प्रासादोंके उत्सेधादिका कथनछस्सय-पंच-सयाणि, पण्णुत्तर-घउ-सयाणि उच्छहो । एदाणं सक्क - दुगे, दु'-इंद-जुगलम्मि बम्हिवे ॥३७४॥ ६०० । ५०० । ४०० चारि-सय पणुतर-तिपिण-सया केवला य तिणि सया। सो संतविव-तिथए, प्राणद - पहुयीसु दु-सय-पण्णासा ॥३७५॥ ४०० । ३५० । ३०० । २५० 1 अर्थ-शऋद्विक ( सौधर्मेशान ), सानत्कुमार-माहेन्द्र युगल और ब्रह्मन्द्रके इन प्रासादोंका उत्सेध क्रमशः छह सौ ( ६०० ), पांच सौ ( ५०० ) और चार सौ पचास ( ४५० ) योजन प्रमाण १. ५. अ. ज. ठ, दुइंजजुमलम्भि, क. दुइजुजुमलम्मि। २. य. म्हिदे या । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३७६-३८० ] म महाहियारो [ ५३५ है । वह प्रासादों का उत्सेध लान्तवेन्द्र आदि तीनके क्रमश: चार सौ (४००) तीन सौ पचास ( ३५० ) और केवल तीन सौ ( ३०० ) तथा चानतेन्द्र आदिकोंके दो सौ पचास ( २५० ) योजन प्रमाण है || ३७४ ३७५।। एदाणं विस्थारा, लिय- णिय उच्छे पंचम विभागा। वित्थारद्ध गाढं, पत्तेक्कं सन्न पासावे ।। ३७६ ।। श्रथं- - इन प्रासादों का विस्तार अपने-अपने उत्सेधके पांचवें भाग ( १२०, १०० ९०, ८०, ७०, ६० और ५० योजन ) प्रमाण है तथा प्रत्येक प्रासादका अवगाह विस्तारसे श्राचा ( ६०, ५०, ४५, ४०, ३५, ३० और २५ योजन प्रमारण ) है || ३७६ || सिंहासन एवं इन्द्रोंका कथन - पासादाणं मज्भे, सपाद पीढा 'अकट्टिमायारा । सिहासणा दिसाला, वर अर्थ- प्रासादों के मध्य में पादपीठ सहित मय सिहासन विराजमान है ।।३७७ ।। हूँ। यहाँ पुष्यका फल प्रत्यक्ष है ||३७८ ॥ - सिहासणाण सोहा, जा एदाणं विचित्त रूवाणं । णय सक्का वो मे, पुण्ण फलं एत्थ पचवलं ||३७८ || - - - अर्थ - अद्भुत रूपवाले इन सिहासनोंकी जो शोभा है, उसका कथन करने में मैं समर्थ नहीं सिहासमारूढा, सोलस वर भूसणेहि सम्मत रयण सुद्धा, सच्चे इंदा रयणमया विरायंति ।।३७७ || अकृत्रिम, विशाल आकारवाले और उत्तम रत्न , - - · अर्थ - सिंहासनपर आरूढ़, सोलह उत्तम आभूषणोंसे शोभायमान और सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे शुद्ध सब इन्द्र विराजमान हैं ||३७६ || सोहिल्ला । विरार्धति ॥ ३७६ ॥ पुव्यज्जिदाहि सुचरिद कोडीहि संचिदाए लच्छोए । सक्कादोणं जवमा का दिउजड़ पिरुषमाणाए ॥ ३८०tl अर्थ - पूर्वोपार्जित करोड़ों सुचरित्रोंसे प्राप्त हुई शक्रादिकों की अनुपम लक्ष्मीको कौन सी उपमा दी जाय ? ||३८०|| १ द. ब. क. जे. ट. यकट्टिमायाय । २. द. ब. क. ज. अ. ये । ३. द. व. फ. ज ठ पदं । Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणणती [ गाथा : ३८१-३४ देवीहि पडिदेहि, सामाणिय - पहुवि-वेव • संघहिं । सेविजंते णिचं, इंदा बर - घर - चमर-धारोहिं ॥३१॥ अर्थ उत्तम छत्रों एवं चमरोंको धारण करनेवाली देवियों, प्रतीन्द्रों और सामानिक आदि देव-समूहोंके द्वारा इन्द्रोंको नित्य ही सेवा की जाती है ।।३६१।। प्रत्येक इन्द्रकी समस्त देवियोंका प्रमाण--- सद्वि-सहस्सब्भहियं, एक्कं लपखं एवंति परोक्कं । सोहम्मीसाणिवे, अट्टहा अग्ग • देवीओ ॥३८२॥ १६००००।८। प्रर्प-सौधर्म और ईशान इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके एक लाख साठ हजार ( १६००००) देवियाँ तथा आठ अग्र-देवियां होती हैं ।।३८२।। विशेषार्य-सौधर्म और ईशान इन्द्रों में से प्रत्येक इन्द्रको अग्र देवियां ८ हैं और वल्लभा ३२००० हैं तथा प्रत्येक प्रश्न देवीकी १६००० परिवार देवियां होती हैं । इसप्रकार सौधर्म अथवा ईशान इन्द्रको समस्त देवियों-१६००००-( ८४ १६०००)+३२००० हैं। इसीप्रकार सर्वत्र जानना चाहिए। अग्ग-महिसोमो अठं माहिव-सणक्कुमार इवाणं । बाहतरि सहस्सा, देवोनो होति पत्तेक्कं ॥३३॥ ८।७२०००। अर्थ–सानत्कुमार और माहेन्द्र इन्द्रों से प्रत्येकके आठ अन-महिषियां तथा बहत्तर हजार (७२०००) देवियां होती हैं ।।३८३।। ७२०००-( अग्र०८४८००० परिवार देवियाँ)+८००० वल्लभा । अग्ग-महिसीनो अट्ठ य, चोत्तीस-सहस्सयाणि देवोत्रो । णिस्यम - लावण्णाओ, सोहते बम्ह - कपिदे ।।३८४॥ पर्य-ब्रह्मकल्पेन्द्रके अनुपम लावण्यवाली पाठ अन-महिषियों और चौतीस हजार ( ३४००० ) देवियां शोभायमान हैं ।।३८४।। ३४००० =( अग्र० ८ x ४००० परिवार देवियां )+२००० वल्लभा । Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! ३८५-३८९ ] अट्ठौ महायिारो [ ५३७ सोलस-सहस्स-पण-सय-देवोओ अट्ठ अग्ग-महिसीओ। संतक - ईदम्मि पुढं, णिरुवम - रूबानो रेहति ।।३८५।। ८ | १६५००1 अर्थ-लान्तवेन्द्र के अनुपम रूपवाली सोलह हजार पाँच सो ( १६५०० ) देवियां और __ आठ अग्न-महिषिया शोभायमान हैं ।।३८५।। १६५००%=( अग्र० ८४ २००० परिवार देवियाँ }+ ५०० वल्लभा । प्रह-सहस्सा दु-सया, पण्णब्भहिया हुति देवीग्रो । अग्ग-महिसोयो अट्ट य, रम्मा महसुक्क - इंदम्मि ॥३८६॥ ८ । ८२५० । अर्थ-महाशुक्र इन्द्र के पाठ हजार दो सौ पचास ( २५०) देवियों और आठ अग्र महिषियों होती हैं ।।३८६॥ ८२५० = ( अग्र० ८x१००० परिवार देवियां )+२५० बल्लभा । चत्तारि-सहस्साई, एक्क-सयं पंचवीस - अभिहियं । देवीपो भट्ट जेट्टा, होति सहस्सार - इंदम्मि ॥३८७॥ ____८ । ४१२५। अर्थ- सहस्रार इन्द्र के चार हजार एक सौ पच्चीस ( ४१२५ ) देवियों और पाठ ज्येष्ठ देवियां होती हैं ॥३७॥ ४१२५= ( अग्न० ८४५०० परिवार देवियों )+१२५ वल्लभा । प्राणव-पारपद-प्रारण-अनचुद-इंवेसु भट्ट जेट्ठाओ । पसेवक दु • सहस्सा, तेसट्ठी होंति देवीओ ॥३८॥ ८।२०६३ । अपं-आनत, प्राणत, प्रारण और अच्युत इन्द्रोंमेंसे प्रत्येकके आठ अग्र-महिषिया और दो हजार तिरेसठ ( २०६३ ) देवियां होती हैं ।।३।। २०६३=( अग्र० ८४२५० परिवार देवियाँ)+६३ वल्लभा । मतान्तरसे सौधर्मेन्द्रको देवियोंका प्रमाणखं-णह-णहट्ट-दुग-इगि-अट्ठय-छस्सस-सस्क - वेवीभो। लोयविषिच्छि - गंथे, हुवंति सेसेसु पुष्वं व ॥३६॥ ७६८१२८०००। पाठान्तरम् । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.३८ ] तिलोयपण्णत्तो [ गाथा । ३९०-३९३ अर्थ - शून्य शून्य शून्य, आठ, दो, एक, आठ, छह और सात, इन अंकोंके प्रमाण सौधर्म इन्द्रके ( ७६८१२८००० ) देवियाँ होती हैं। शेष इन्द्रों में देवियोंका प्रमाण पहले के ही सदृश है, ऐसा लोकविनिश्चय ग्रन्थ में निर्दिष्ट है ।। ३८९ ॥ मतान्तरसे सौधर्मेन्द्रकी देवियोंका प्रमाण सगवीसं कोडीप्रो, सोहम्मियेसु होंति पुखं पिव सेसेसु संगाहणिपम्मि 7 प्रमाण देवियाँ होती हैं, ऐसा संगाहरिण में निर्दिष्ट है || ३६० || इन्द्रोंकी सेवा-विधि— पाठान्तर । २७००००००० । अर्थ- सौधर्म इन्द्रके सत्ताईस करोड़ ( २७००००००० ) और शेष इन्द्रोंके पूर्वोक्त संख्या - देवीओ । निट्ठि ॥ ३६० ॥ - पाठान्तरम् । माया विवज्जिवप्रो, बहु-रवि-करणेसु गिउरख बुद्धीश्रो । ओलग्गते णिच्चं णिय जिय इंदाण चलणाई ।। ३६१ ॥ - मायासे रहित और बहुत अनुराग करने में निपुण बुद्धिवाली वे देवियाँ नित्य अपनेअपने इन्द्रोंके चरणोंकी सेवा करती हैं 11३६१॥ बम्बर-चिलाब खुज्जय-कम्मतिय-वास दासि पहुवीश्रो । अतंजर - जोग्गाओ, चेट्ठेति विचित वेसा - ॥३६२॥ प्रमं - श्रन्तःपुर के योग्य बर्बर, किरात, कुब्जक, कर्मान्तिक और दास-दासी आदि अनेक प्रकारके ( विचित्र ) वेषों से युक्त स्थित रहते हैं ।। ३९२ ।। इवाणं 'अस्थाणे, पोढाणीयस्स अहिवई वेथा । रयणासणाणि वैति हु, सपाद पौढाणि बहुवारिंग ॥३६३॥ अर्थ — स्थानके विभागोंको जानकर जो जिसके योग्य होता है, देव उसे वैसा ही ऊंचा या नोघा तथा निकटवर्ती अथवा दूरवर्ती असन देते हैं ॥ ३९३ ॥ १. द. व. क. ज. ठ. भरयाणं । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टम महाहियारो जं जस्स जोधामुच्चं, रिणच्वं खियडं विदूरमासरणयं । सं' तस्स देति देवा, णावणं सू विभागाइ ॥ ३६४।। 2 गाथा : ३६४-३६६ ] अर्थ – जो जिसके योग्य उच्च एवं नोच तथा निकट अथवा दूरवर्ती आसन होता है ( उसीप्रकार ) स्थानके विभागोंको जानकर देव उसके लिए देते हैं ।। ३९४ ॥ वर - रयण बंड हत्या, पडिहारा होंति इंद-अट्ठाणे | परथावमपत्थावं, ओल तारण घोसंति ।।३६५॥ अर्थ – इन्द्रके प्रास्थान ( सभा ) में उत्तम रत्नदण्डको हाथ में लिए हुए जो द्वारपाल होते हैं वे सेवकों के लिए प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत कार्यको घोषणा करते हैं ।। ३९५॥ अरे विसुरा तेसि, णाणाविह पेसणाणि कुणमाणा । इंदाण भत्ति भरिदा, श्राणं सिरसा परिच्छति ॥ ३६६॥ अर्थ – उनके नानाप्रकारके कार्योंको करनेवाले भक्ति से भरे हुए इतर देव भी उन इन्द्रोंकी प्रज्ञाको शिरसे ग्रहण करते हैं ।। ३६६ ।। पsिs दादी देवा, निभर भत्तीए णिञ्चमोलगं । अभिमुठिया सभाए, णिय-जिय-इ दाण कुब्वंति ॥ ३६७॥ - [ ५३९ अर्थ- प्रतीन्द्रादिक देव अत्यन्त भक्तिसे समामें अभिमुख स्थित होकर अपने-अपने इन्द्रोंकी नित्य सेवा करते हैं ॥३६७॥ पुरुष श्रोलग्ग सभा, सक्कीसाण जारिसा भणिदा । तारिसया सव्वाणं णिय णिय णयरेसु इं वाणं ॥ ३६८ ॥ - - अर्थ - पूर्व में सौधर्म और ईशान इन्द्रकी जैसी प्रोलग्गसभा ( सेवकशाला ) कही है, वैसो अपने-अपने नगरोंमें सब इन्द्रोंके होती है || ३६८ प्रधान प्रासादके अतिरिक्त इन्द्रोंके अन्य चार प्रासाद- ईद-हाण-पासाद-पुरुष विभाग पहुदि संठारणा । चतारो पासावा, पुव्वोदिद वण्णणेह जुदा ॥३६६ ॥ अर्थ – इन्द्रोंके प्रधान प्रासादके पूर्व दिशाभाग आदिमें स्थित और पूर्वोक्त वर्णनोंसे युक्त चार प्रासाद (और) होते हैं ।। ३६३|| १ क सं तस्सं देवारणा काढूणं । २. ६. ब. क. ज. अ. घोलगतायं त - Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४००-४०५ घेलिय-रजद-सोका, मिसक्कसारं च दक्खिगिदेस । रुचकं मंदर - सोका, सत्तच्छदयं च उरिवेस ॥४००॥ अपं-दक्षिण इन्द्रोंमें वैउर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इन्द्रोंमें रुचक, मन्दर प्रशाक पोप सप्तच्छेद, ये चार प्रासाद होते हैं ।।४००।। इन्द्र-प्रासादोंके प्रागे स्थित स्तम्भोंका वर्णनसक्कीसाण-गिहाणं, पुरदो छचोस - जोयणुच्छेहा । जोयण-बहला-खंभा,'बारस-धारा हुवंति वज्जमया ॥४०१॥ प्रर्थ-सौधर्म और ईशान इन्द्रक प्रासादोंके आगे छत्तीस योजन ऊंचे और एक योजन बाहल्य सहित वनमय बारह धाराओंवाले खम्भा ( स्तम्भ ) होते हैं ।।४०११।। पत्तेक्कं धाराणं, वासो एक्केषक - कोस'-परिमाणं । माणस्थंभ' • सरिच्छं, सेसत्थंभारण वण्णणयं ॥४०२॥ अथं-उन धाराओं में प्रत्येक धाराका व्यास एक-एक कोस प्रमाण है। स्तम्भोंका शेष वर्णन मानस्तम्भोंके सदृश है ।।४०२॥ भरहेरावद-भूगद - तित्थयर - बालयाणाभरणाणं"। वर · रयण - करंडेहिं, लंबतेहिं विरायते ॥४०३॥ अर्थ-( ये स्तम्भ ) भरत और ऐरावत भूमिके तीर्थकर बालकोंके आभरणोंके लटकते हुए उत्तम रत्नमय पिटारोंसे विराजमान हैं ।।४०३।। मूलाको उवरि-तले, पुह पुह पणवीस-कोस-परिमाणा। गंतूणं सिहरादो, तेत्तियमोरिय होति ह करंडा ।।४०४।। २५ ॥ २५॥ अर्थ-( स्तम्भोंके ) मूलसे उपरिम तल में पृथक्-पृथक् पच्चीस कोस ( ६३ यो०) प्रमाण जाकर और शिखरसे इतने ( २५ कोस ) ही उतर कर ये करण्ड ( पिटारे ) होते हैं ।।४०४।। पंच-सय-घाव-बा, पत्तवक एक कोस-वीहसा । ते होंति बर - करंडा, णाणा-वर-रयण-रासिमया ।।४०५।। १.प. बंभा । २. द. ब. क. ज. ४. दारा। ३. द. य. क. ज. ठ. बारा। ४. ब. कोसा। ५. द.प. क. ज. 3. माणद्धं च । ६.६.ब. क. ज उ.बालदाणं । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४०६ -४०९ ] अट्टम महाहियारो ५०० । को १ । अर्थ - अनेक उत्तम रत्नोंकी राशि स्वरूप उन श्रेष्ठ करण्डों में से प्रत्येक पांच सौ ( ५०० ) धनुष विस्तृत और एक कोस लम्बा होता है ।। ४०५ || ते संखेज्जा सवे, लंबंता रयण सिक्क जालेसु । सक्कादि पूजरिज्जा, प्रणादिणिहरणा महा - रम्मा ॥ ४०६ ॥ - - अर्थ- - रत्नभय सीकों के समूहों में लटकते हुए वे सब संख्यात करण्ड शक्रादिसे पूजनीय, अनादि-निधन और महा रमरणीय होते हैं ॥ ४०६ ।। श्राभरणा पुव्वावर - विदेह - तित्यय र बालयाणं घ । भोवरि चेट्टते, भवणेसु सणवकुमार जुगलस्स ॥ ४०७ ।। [ ५४१ अर्थ - सनत्कुमार और माहेन्द्र के भवनों में स्तम्भों पर पूर्व एवं पश्चिम विदेह सम्बंधो तीर्थंकर बालकोंके आभरण स्थित होते हैं ।। ४०७ ॥ - विशेषार्थ-स्तम्भोंकी ऊंचाई ३६ योजन है । इनमें मूलसे ६ योजन पर्यन्त उपरिम भाग और शिखरसे ६३ यो० नीचेके भाग करण्ड नहीं है । प्रत्येक करण्ड २००० धनुष ( १ कोस ) विस्तृत और ५०० धनुष (कोस ) लम्बा है। ये रत्नमयी सींकोंपर लटकते हैं । सौधर्मकल्प में स्थित स्तम्भ पर स्थापित करण्डों के आभरण भरतक्षेत्र सम्बन्धी बाल तीर्थंकरोंके लिए हैं। ईशान कल्प स्थित स्तम्भपर स्थापित करण्डोंके आभरण ऐरावतक्षेत्र सम्बंधी बाल तीर्थंकरोंके लिए हैं । इसीप्रकार सानत्कुमार कल्पगत पूर्वविदेह क्षेत्र सम्बन्धी बाल - तीर्थंकरों के लिये और माहेन्द्र कल्पगत करण्डोंके आभरण पश्चिम विदेह क्षेत्र सम्बंधी बाल- तीर्थंकरोंके लिए होते हैं । इन्द्र भवनों के सामने न्यग्रोध वृक्ष- सर्यालय - मंदिराणं, पुरवो नगोह पायवा होंति । एक्क्कं पुढविमया, पुव्वोविंद जंबुदुम सरिसा ॥ ४०८ ॥ प्रथं - समस्त इन्द्र- प्रासादों ( या भवनों ) के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। इनमें एक-एक वृक्ष पृथिवी स्वरूप और पूर्वोक्त जम्बू वृक्षके सदृश होता है ||४०८ || तम्ले एक्केषका, जिदि पडिमा य पडिदिसं होसि । सक्कादिणमिद चलणा, सुमरणमेते वि दुरिव-हरा ||४०१ || अर्थ -- इसके मूल में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनेन्द्र प्रतिमा होतो है । जिसके चरणों में इन्द्रादिक प्रणाम करते हैं तथा जो स्मरण मात्रसे ही पापको हनेवाली है ||४०९ || Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ] तिलोय पण्णत्ती सुधर्मा सभा सक्कस मंदिरावो, ईसाण दिसे सुधम्म-णाम-सभा । ति सहस्स-कोस- उदया, उ-सय-दोहा तदद्ध-विस्थारा ॥ ४१० ॥ ३००० | ४०० | २०० । अर्थ- सौधर्म इन्द्र के भवनसे ईशान दिशामें तीन हजार ( ३००० ) कोस ऊंची, चार सौ ) कोस लम्बी और इससे आये अर्थात् २०० कोस विस्तारवाली सुधर्मा नामक सभा (४०० है ।।४१०।। नोट - सुधर्मासभाकी ऊँचाई ३०० कोस होनी चाहिए, क्योंकि अकृत्रिम मापोंमें ऊँचाई का प्रमाण प्राय: लम्बाई + चौड़ाई होता है । २ [ गाथा : ४१० - ४१४ रिये garveer कोसा चउसट्ठि तद्दलं रुवो । सक्क प्यासाद - सरिसाश्री ॥ ४११ ।। सेसा यण्णणाओ - ६४ । ३२ । अर्थ-सुधर्मा सभा द्वारोंकी ऊँचाई चौंसठ ( ६४ ) कोस और विस्तार इससे आधा अर्थात् ३२ कोस है । शेष वर्णन सौधर्म इन्द्र के प्रासाद सदृश है ।।४११।। रम्मा सुधम्माए, विfवह विणोदेहि कोडदे सको । बहुवि-परिवार जुदो भुजंतो विविह-सोक्खाणि ॥ ४१२ ॥ प्रथं - इस रमणीय सुधर्मा सभामें बहुत प्रकारके परिवार से युक्त सौधर्म इन्द्र विविध सुखोंको भोगता हुआ अनेक विनोदोंसे कीड़ा करता है ।।४१२ ।। उपपाद सभा - w तत्थेसाण दिलाए, उववाद सभा हुवेदि पुव्व-समा दिप्पंत' रयण सेज्जा, विष्णास विसेस - सोहिल्ला ।।४१३ ।। - वहीं ईशान दिशा में पूर्वके सदृश उपपाद सभा है । यह सभा देदीप्यमान रत्नशय्याओं सहित विन्यास - विशेषसे शोभायमान है ।। ४१३ || जिनेन्द्र प्रासाद १. द. ख.क. ज. उ. तिप्यंत । तीए दिसाए चेट्ठदि, वर-रयणमझो जिणिद-पासावो । पुत्र सरिच्छो श्रहवा, पंडुग जिणभवण सारिच्छो || ४१४ ॥ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४१५ - ४१९ ] अर्थ-उसी दिशामें रत्नमय जिनेन्द्र प्रासाद हैं ।।४१४ ॥ अड-जोयण- उब्विद्धो, तेत्तिय वासो हवंति पत्तेक्कं । सेसिवे पासावा, सेसो पुखं व rिण्णासो ॥१४१५।। अट्टम महाद्दियारो [ ५४३ अथवा पाकः वन सम्बंधी जिनभवनके सदृश उत्तम ८।६। अर्थ - शेष इन्द्रोंके प्रासादों मेंसे प्रत्येक आठ (८) योजन ऊँचा और इतने ( ८ यो० ) ही विस्तार सहित है । शेष विन्यास पहले के ही सदृश है ||४१५३ । देवियों और वल्लभायोंके भवनों का विवेचन- इंव प्पासादाणं, समंतो होंति दिव्य पासादा । देवी- वल्लहियाणं, णाणावर रयरंग कणयमया ॥४१६॥ - - अर्थ – इन्द्र प्रासादोंके चारों ओर देवियों और वल्लभाओंके नाना उत्तम रत्नमय एवं स्वर्णमय दिव्य प्रासाद हैं ||४१६ ॥ - देवी भवगुच्छेहा, सक्क- बुगे जोयरपाणि पंच- सया | माहिंद दुगे पण्णष्महियाणि च सपाणि पि ॥ ४१७ ।। - - - ५०० । ४५० । अर्थ- सौधर्म और ईशान इन्द्रकी देवियोंके भवनोंकी ऊंचाई पाँच सौ ( ५०० ) योजन तथा सानत्कुमार एवं माहेन्द्र इन्द्रकी देवियों के भवनोंकी ऊँचाई चार सौ पचास (४५० ) योजन है ॥ ४१७ ॥ - बम्वि संतविंदे, महसुविकदे सहस्सयारिखे । आरपब- पंहृदि- चउक्के, कमसो पण्णास हीगाणि ॥। ४१८ ।। यो० ३०० यो०, २५० यो० और २०० योजन है || ४१८ || 1 - - ४०० | ३५० । ३०० | २५० । २०० । अर्थ- ब्रह्म ेन्द्र, लान्तवेन्द्र, महाशुकेन्द्र, सहस्रारेन्द्र और मानत आदि चार इन्द्रोंकी देवियोंके भवनोंकी ऊँचाई क्रमश: पचास-पचास योजन कम है । अर्थात् क्रमश: ४०० यो०, ३५० बेयी पुर उदयादो, वल्लभिया मंदिराण - उच्छे हो । · सध्येसु इंवेसु जोयण } वीसाहिओ होदि ॥ ४१६॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२०-४२२ प्रथं-सब इन्द्रोंमें वल्लभाओंके मन्दिरोंका उत्सेधदे। उत्सेघसे बोस योजन अधिक है ।।४१९|| उच्छेह - दसम • भागे, एकाणं मंदिरेसु विक्खंभा । विक्खंभ - दुगुण - बोहं, वास्सद्ध पि गावतं ॥४२०॥ प्रथं-इनके मन्दिरोंका विष्कम्भ उत्सेधके दस भाग प्रमाण, दीर्घता विष्कम्भसे दूनी और अवगाढ़ व्याससे आधा है ।।४२०॥ सवेसु मंदिरेसु, उपवण - संडारिण होति विव्याणि । सम्ब-उडु-जोग-पल्लव-फल-कुसुम-विभूवि-भरिवाणि ॥४२१॥ अर्थ-सब मन्दिरों में समस्त ऋतुओंके योग्य पत्र, फूल और कुसुमरूप विभूतिसे परिपूर्ण दिव्य उपवन खण्ड होते हैं ।।४२१॥ पोक्खरणी-वायोमो, सच्छ-जलाओ विचित्स-रुवानो । अमित - कमल - समाओ, एक्कक्के मंदिरे होति ॥४२२।। अर्थ-एक-एक मन्दिरमें स्वच्छ जलसे परिपूर्ण, विचित्ररूपवाली और पुष्पित कमलपनोंसे संयुक्त पुष्करिणी वापियाँ हैं ॥४२२।। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४२२ ] क्रमांक १ २ ४ ५. ६ ७ ८ ९ इन्द्र-नाम सौधर्मेन्द्र माहेन्द्र ब्रह्म ेन्द्र लान्तवेन्द्र ईशानेन्द्र सनत्कुमारेन्द्र | ४५० देवियोंके भवनों की ऊँचाई गा० ४१७- विस्तार लम्बाई ४१८ सहस्रारेन्द्र भानतादि ४ ५०० " ४५० ४०० महाशुन्द्र ३०० ५०० यो० ५० यो० १०० पो० २५ यो० ५२० यो. ५२ यो० १०४ यो० २६ यो०] " " ३५० " २०० #1 "3 २५० " ५० ४५ ४५, १० ४० き ३५ " मो महाहियारो ३० " २५ २० " १०० ९० ८० ६० " " ७० " *a " ५० " नींव 32 ऊंचाई ना. ४१६ २५, ५२०,५२ " २२३,, ४७० ।। २२३,, ४७०, " २० " ४२० वल्लभाम्रोंके भवनोंको चौड़ाई लम्बाई १७३, ३७०, ४७ ।। १०, २२० ४७ " ४२ ३७," १५ .. ३२० " ३२ " १२३, २७०, २७, २२ " १०४ ९४ " ९४ ५४ ૪ 21 ५.४ "I >> ६४ " [ ५४५ 12 ४४, नींव २६ " २३३ । २३३ २१ " 13 १८३" १६” १३३ ११ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ] तिलोय पण्णत्ती णाणाविह तुरेहिं णाणाविह महर - गीय- सद्देहि । ललियमय'- चचणेहि, सुर ायराइं विराजति ||४२३ || 1 - अर्थ- देवोंके नगर नाना प्रकारके तुर्यो ( बादित्रों ), अनेक प्रकारके मधुर गीत-शब्दों और विलासमय नृत्योंसे विराजमान हैं ||४२३ ।। द्वितीयादि वेदियोंका कथन आदिम-पायारादो, तेरस लक्खाणि जोयणे गंतु । चेटु बि बिदिय वेवी, पढमा मिव सव्व णयरेसु ॥४२४ ॥ 1 १३००००० | अर्थ- सब नगरों में आदिम प्राकार ( कोट ) से तेरह लाख ( १३००००० ) योजन जाकर प्रथम ( कोट ) के सदृश द्वितीय बेदी स्थित है ।। ४२४ ॥ [ गाथा : ४२३- ४२७ वेवीणं विचचाले, णिय-जिय-सामी- सरीर रक्खा य । चेट्ठति सपरिवारा, पासावेसु विचित्तेसु ।।४२५।। बिदिय वेदी गदा । श्रयं वेदियों के अन्तराल में प्रद्भुत प्रासादों में सपरिवार अपने-अपने स्वामियोंके शरीररक्षक देव रहते हैं ।। ४३५॥ द्वितीय बेदी का कथन समाप्त हुआ । तेलट्ठी- लक्खा रंग, पण्णास सहस्स जोयणाणि तो । गंतॄण तक्ष्यि वेवी, पहमा मिव सव्य सायरेसु ॥४२६ ॥ · ६३५००००। अर्थ-- सब नगरोंमें इस (दूसरी वेदी) से आगे तिरेसठ लाख पचास हजार (६३५०००० ) योजन जाकर प्रथम ( कोट ) के सदृश तृतीय वेदी है ||४२६ || एदाणं विच्चाले तिप्परिमाणं सुरा विचित्तेसु । चेटूति मंदिरेसु णिय णिय परिवार संजुत्ता ||४२७ ॥ " दिय-वेदी गदा । १. द. ब. क. ज. द. अलिय । २. ६. का. ज. ठ. जोमणे गं दुध, ब. जोय दु व । - - - Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४२८-४३१ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५४७ अर्थ-इन वेदियोंके मध्य स्थित अद्भुत कनोंमें अपने अपने परिवारले संयुक्त सी परिषदोंके देव रहते हैं ।।४२७।। तृतीय वेदीका कथन समाप्त हुआ। तवेदोदो गछिय, चउसद्वि-सहस्स-गोयणाणि च । चेदि तुरिम-वेदी, पढमा - मिव सन्द - जयरेसु ॥४२८।। ६४०००। अर्थ-इस वेदोसे चौंसठ हजार ( ६४००० ) योजन प्रागे जाकर सब नगरोंमें प्रथम वेदीके सदृश चतुर्थ वेदी स्थित है ।।४२८॥ एदाणं विच्चाले, वर-रयणमएसु विव्व - भवणेसु । सामाणिय-णाम सुरा, णिवसंते विविह-परिवारा ॥४२६।। तुरिम-वेदो गदा । अर्थ-इन वेदियोंके मध्य में स्थित उत्तम रत्नमय दिव्य-भवनों में विविध परिवार सहित सामानिक नामक देव निवास करते हैं ॥४२९।। चतुर्थ वेदीका कथन समाप्त हुआ। चउसीदी - लक्खाणि, गंतूणं जोयणाणि तुरिमादो । चेदि पंच - वेदो, पढमा मिव सम्व - णयरेसु ॥४३०॥ ८४०००००। अर्थ-चतुथं वेदीसे चौरासी लाख ( ८४००००० ) योजन आगे जाकर सब नगरों में प्रथम वेदीके सदृश पंचम वेदी स्थित है ।।४३०॥ एवारणं विच्चाले, णिय-णिय-पारोहका अणीया य । अभियोगा किबिसिया, पहण्या तह सुरा च तेत्तीसा॥४३॥ पंचम-वेदी गदा। अर्थ-इन वेदियों के मध्य में अपने-अपने पारोहक अनीक, पाभियोग्य, किल्बिषिक, प्रकीर्णक तथा त्रास्त्रिश देव निवास करते हैं ।।४३१।। पंचम वेदीका कथन समाप्त हुआ। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ] तिलोयपणात्ती [ गाथा : ४३२-४३६ उपवन-प्ररूपणातप्परदो गंतणं, पण्णास - सहस्स - जोयणाणं च । होंति हु दिन्व-वाणि, इंद-पुराणं चउ - हिसासु॥४३२।। अर्थ-इसके आगे पचास हजार ६ ) गोगन गा इं. ना पारों दिशाओं में दिव्य वन हैं ।।४३२।। पुव्वादिसु ते कमसो, असोय-सत्तच्छदाण वण-संडा । चंपय-चूवाण तहा, पउम - दह - सरिस - परिमाणा ॥४३३।। अर्ष-पूर्वादिक दिशाओं में वे क्रमशः अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र वृक्षोंके वनखण्ड हैं 11४३३।। एक्केक्का चेत्त - तरू, तेसु असोयावि-णाम-संजता । णग्गोह-तरु-सरिच्छा, वर-चामर-छत्त-पहुदि-जुवा ॥४३४।। अर्थ-उन वनोंमें अशोकादि नामोंसे संयुक्त और उत्तम चमर-छत्रादिसे युक्त न्यग्रोधतरुके सदृश एक-एक चंत्य-वृक्ष है ।।४३४।। पोक्खरणी-वाबीहि, मणिमय-भवणेहि' संजुदा विउला । सय्य-उड़-जोग्ग-पल्लव-कुसुम-फला भांति धरण - संडा ॥४३५॥ अर्थ-पुष्करिणी, वापियों एवं मणिमय भवनोंसे संयुक्त तथा सब ऋतुओंके योग्य पत्र, कुसुम एवं फलोंसे परिपूर्ण ( वे ) विपुल वन-खण्ड शोभायमान हैं ।।४३५।। लोकपालोंके क्रीड़ा-नगरसंखेज्ज-जोयणाणि, पुह पुह गंतूण रांदण - वणादो। सोहम्मावि - दिगिवारणं कोडण - णयराणि चेट्टति ॥४३६॥ अर्थ- नन्दन वनसे पृथक्-पृथक् संख्यात योजन जाकर सौधर्मादि इन्द्रोंके लोकपालोंके क्रीड़ा-नगर स्थित हैं ।।४३६॥ १.प. ब. क. ज. ठ. भरणेहिं । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा: ४३७-४४१ ] अम महाहियारो बारस-सहस्स-जोपण दीहत्ता पण सहस्स-विवखंभा । लेकर दो पहुदि कयसोहा ॥४३७॥ | - १२००० | ५००० । अर्थ - उत्तम वेदी श्रादिसे शोभायमान उन नगरोंमेसे प्रत्येक बारह हजार ( १२००० ) योजन लम्बे और पाँच हजार ( ५००० ) योजन प्रमाण विस्तार सहित है ।। ४३७।। " गणिका - महत्तरियों के नगर गणिया महत्तरीणं, समचउरस्सा पुरीश्रो विदिसासु । एक्कं जोयण - लक्खं, पत्तेक्कं दीह वास जुबा ||४३६ || - १००००० | १००००० । पर्थ - विदिशाओं में गणिका - महत्तरियोंकी समचतुष्कोण नगरियां हैं। इनमें से प्रत्येक एक-एक लाख ( १०००००, १००००० ) योजन प्रमाण दीर्घता तथा विस्तारसे युक्त है || ४३८ ॥ सम्मेसु णयरेसु पासादा विव्व-विविह-रयणमया । ; णश्चंत विचित्त धया, पिराचम सोहा विरायंति ||४३६|| - - - a - अयं - सब नगरों में नाचती हुई विचित्र ध्वजाओंसे युक्त और अनुपम शोभाके धारक दिव्य विविध रत्नमय प्रासाद विराजमान हैं ॥४३९ ॥ जोयण-सय-वोहत्ता, ताणं पण्णास मेत्त वित्थारा 1 मुह मंडव पहुवीहि, विचित्त रूबेहिं संजुता ||४४० || - सहित और विचित्र रूप मुख मण्डप आदिसे संयुक्त हैं ॥४४० ॥ [ ५४९ अर्थ - ये प्रासाद एक सौ ( १०० ) योजन दीर्घ, पचास (५०) योजन प्रमाण विस्तार सौधर्मेन्द्र आदिके यान- विमानोंका विवरण - वालुग- पुष्कग णामा, याण विमारणारिंग सक्क- जुगलम्मि । सोमणसं सिरिवलं, सणवकुमारिद दुमि ||४४१|| Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४४२-४४६ अर्थ-शक्र-युगल ( सौधर्म एवं ईशान इन्द्र ) के वालग और पुष्पक नामक यान-विमान तथा सानत्कुमार आदि दो इन्द्रोंके सौमनस एवं धीवृक्ष नामक यान-विमान हैं ॥४४१।। बम्हिदादि-चउक्के, याण - विमाणाणि सव्वदोभद्दा । पोदिक'- रम्मक - गामा, मणोहरा होति चत्तारि ॥४४२॥ अर्थ-ब्रह्मन्द्र प्रादि चार इन्द्रोंके क्रमश: सर्वतोभद्र, प्रीतिक ( प्रीतिकर ), रम्यक और मनोहर नामक चार यान-विमान होते हैं ।।४४२।। प्राणव-पाणद-इंदे, लच्छी-मालित्ति - जामवो होदि । पारण-कप्पिद-दुगे, याण - बिमाणं विमल - णामं ।।४४३॥ - अर्थ-मानत और प्राणत इन्द्रके लक्ष्मी-मालती नामक यान-विमान तथा आरण कल्पेन्द्र युगलमें विमल नामक यान-विमान होते हैं ।।४४३।। सोहम्मादि-चउपके, कमसो अवसेस-कप्प-जुगलेसु। होंति हु पुश्वुसाई, याण - विमाणाणि पत्तोक्कं ॥४४४॥ पाठान्तरम् । अर्थ- सौधर्मादि चारमें और शेष कल्प-युगलों में क्रमश: प्रत्येकके पूर्वोक्त यान-विमान होते हैं ।।४४४।। पाठान्तर। एक्कं जोयण - लक्खं, पत्तेक्क दोह-यास-संजुत्ता । याण - विमाणा दुविहा, विक्किरियाए सहावेणं ॥४४५॥ अर्प–इनमेंसे प्रत्येक विमान एक लाख ( १००००० ) योजन प्रमाण दीर्घता एवं ध्याससे संयुक्त हैं । ये विमान दो प्रकारके हैं, एक विक्रियासे उत्पन्न हुए और दूसरे स्वभावसे ॥४४५।। ते विक्किरिया-जावा, पाणविमाणा धिणासिणो होति । अविणासिणो य णिचं, सहाय - जादा परम-रम्मा ॥४४६॥ १. द.व.क.ब.उ. पीदिकर। २. द.ब.क, ज.ठ. घुब । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४४७-४५२ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५५१ अर्म-विक्रियासे उत्पन्न हुए वे यान-विमान विनश्वर पोर स्वभावसे उत्पन्न हुए वे परमरम्य यान-विमान नित्य एवं अविनश्वर होते हैं ॥४४६।। धुया-बय-या विविहास नरूपण-पहुदि-परिपुण्णा। धूव - घहि जुषा, चामर - घंटादि - क्रयसोहा ।४४७।। वंदण - माला - रम्मा, मुत्ताहल-हेम-दाम-रमणिज्जा। सुबर - दुवार - सहिदा, वज्ज-कवाजला विरायंति ॥४४८।। अर्थ-उपयुक्त यान-विमान फहराती हुई ध्वजा-पताकानों सहित, विविध आसन एवं शय्या आदिसे परिपूर्ण, धूप-घटोंसे युक्त, चामर एवं घण्टादिकसे शोभायमान, बन्दन-मालाओंसे रमणोक, मुक्ताफल एवं सुवर्ण की मालाओंसे मनोहर, सुन्दर द्वारों सहित और वञमय कपाटोंसे उज्ज्वल होते हुए सुशोभित होते हैं ॥४४७-४४८।। सच्छाई भायणाई, वत्याभरणाइ - प्राइ दुबिहाई। होंति हु याण-विमाणे, विक्किरियाए सहावेणं ॥४४६॥ अर्थ-यान-विमानमें स्वच्छ भाजन ( बर्तन ), वस्त्र और प्राभरण प्रादिक ( भो ) विक्रिया तथा स्वभावसे दो प्रकार के होते हैं ॥४४९॥ विकिरिया जणिदाई, विणास-सवाई होति सम्वाई। वस्थाभरणादीया, सहाय - जादारिप णिचाणि ॥४५०।। अर्थ-विक्रियासे उत्पन्न सब वस्त्राभरणादिक विनश्वर और स्वभावसे उत्पन्न हुए ये सभी नित्य होते हैं ।।४५०॥ इन्द्रोंके मुकुट-चिह्नसोहम्मादिसु अट्ठसु, प्राणव - पहुदीसु चउसु इंदाणं । सूवर-हरिणी-महिसा, 'मच्छा भेकाहि-छगल-सहा य ।।४५१॥ कप्प-तरू मउडेसु, चिल्हाणि णव कमेण भणियारिण । एवेहि ते इंदा, लक्खिज्जते सुराण मझम्मि ॥४५२॥ १. द. ब. मच्छो । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ ] तिलोय पणती [ गाथा: ४५३ - ४५४ अर्थ- सौधर्मादिक आठ और श्रानत आदि चार ( ८+१= 8 ) कल्पों में इन्द्रोंके मुकुटों में क्रमशः शुकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, भेक, सर्प, छगल, वृषभ और कल्पतरु, ये नौ चिह्न कहे गये हैं । इन चिह्नोंसे देवोंके मध्य में वे इन्द्र पहिचाने जाते हैं ।। ४५१-४५२ ।। इंदाणं चिण्हाणि, पत्तेषकं ताव जा' सहस्सारं । प्राणद- चारण- जुगले, चोट्स - ठाणेसु वोच्खामि ॥। ४५३ || सुवर- हरिणी- महिसा मच्छो कुम्मो य मेक-ह-हत्थी । , दाहि गवय-छगला, वसह-कल्पतरू' मउड- मज्झे ।।४५४ ।। पाठान्तरम् । अर्थ- सहस्रारकल्प पर्यन्त प्रत्येक इन्द्रके तथा प्रानत और आरण युगल में इसप्रकार चौदह स्थानोंके चिह्न कहते हैं । शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, कूर्म, भेक, अश्व, हाथी, चन्द्र, सर्प, गवय, छगल वृषभ और कल्पतरु ये चौदह चिह्नमुदरे मध्य हो [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिए ] १. ब. जाथ । २. ८. व. क. ज. ठ. हयचं दिवय छगला पंचतत्र । पाठान्तर । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यान-विमानोंके नाम इन्द्रोंके मुकुट-चिह्न क्रमांक पाठान्तरसे इन्द्रोंके नाम स्थान मूलसे पाठान्तर गा०४४४ चिह्न क्रमांक इन्द्र-नाम गा०४५३ स्थान [ Rip : lal गा.४५४ बालग पुष्पक वालुग शूकर हरिणी महिष पुष्पक पुष्पक मत्स्य सौमनस सर्प सौधर्मेन्द्र । वालुग ईशानेन्द्र सानत्कुमारेन्द्र | सौमनस माहेन्द्र | श्रीवृक्ष | ब्रह्मेन्द्र । सर्वतोभद्र लान्तवेन्द्र प्रीतिक महाशुक्रन्द्र रम्यक सहस्रारेन्द्र मनोहर ९ | पानतेन्द्र प्राणतेन्द्र लक्ष्मीमा० ११ | प्रारणेन्द्र विमल १२ / अच्युतेन्द्र श्रीवृक्ष ७ । सर्वतोभद्र सौधर्मेन्द्र शूकर | २ | २ । ईशानेन्द्र हरिणी सानत्कुमार महिष | माहेन्द्र मत्स्य ब्रह्मेन्द्र ब्रह्मोत्तरेन्द्र लान्तवेन्द्र कापिष्टेन्द्र ९ शुक्रन्द्र .|१०| महाशुक्रन्द्र ११ शतारेन्द्र १२| सहस्रारेन्द्र छगल १३ आनतेंद्र-प्राणतेन्द्र वृषभ । १३ १४ आरणेंद्र-अच्युतेन्द्र कल्पतरु १४ अट्ठमो महायिारो छगल प्रीतिक बैल लक्ष्मीमा० | रम्यक कल्पतरु मनोहर लक्ष्मीमा० गवय विमल विमल [ ५५३ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ । तिलोषपपणती [ गाथा : ४५५-४६० अहमिन्द्रोंकी विशेषता - इंदाणं परिवारा, पडिव - पहुदो ण होंति कइया यि । अहमिवाणं सप्पडियाराहितो अणंत - सोक्खाणं ॥४५॥ मयं-इन्द्रोंके प्रतीन्द्र आदि परिवार होते हैं। किन्तु सपरिवार इन्द्रों की अपेक्षा अनन्त सुखसे युक्त अहमिन्द्रोंके परिवार कदापि नहीं होते ।।४५५।। उयवाद-सभा विविहा, कप्पातीदाण होंति सव्वाणं । जिण-भवरणा पासादा, णाणाविह-दिब्व-रयणमया ।।४५६।। अभिसेय-सभा संगोय-पहवि-सालानो चित्त-रुक्खा य । वेवोओ ण बीसंति, कपातीदेसु कइया वि' ॥४५७।। अर्थ-सब कल्पातीतोंके विविध प्रकारको उपपाद-सभायें, जिन-भवन, नाना प्रकारके दिव्य रत्नोंसे निमित प्रासाद, अभिषेक सभा, संगीत प्रादि शालायें और चैत्य वृक्ष भी होते हैं, परन्तु कल्पातीतोंके देवियो कदापि नहीं दीखती ।।४५६-४५७।। गेहुच्छेहा दु - सया, पण्णभहियं सयं सयं सुद्ध। हेटिम-मज्झिम - उवरिम - गेवेज्जेसुकमा होति ।।४५८।। २०० । १५० । १००। प्रर्थ-अधस्तन, मध्यम और उपरिम देयकों में प्रासादोंकी ऊँचाई क्रमशः दो सौ (२००), एक सौ पचास ( १५० ) और केवल सौ ( १०० ) योजन है ।।४५८।। भवणुच्छेह - पमाणं, अणुहिसाणत्तराभिधाणेसु । पण्णासा जोयणया, कमसो पणुवीसमेत्ताणि ॥४५६।। ५० । २५ । अर्थ-अनुदिश ओर अनुत्तर नामक विमानोंमें भवनोंकी ऊँचाईका प्रमाण क्रमपाः पचास (५०) और पच्चीस योजन है ॥४५६।। उदयस्स पंचमंसा, धीहत्तं तद्दलं च विस्थारो। पत्तेक्कं रणादव्या, कप्पातीदाण भवणेसु ।।४६०॥ एवं इव-विभूवि-परूवणा समत्ता ॥७॥ १. प. द. आदि। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४६१-४६६ ] घट्टम महाहियारो [ ५५५ प्रथं-कल्पातीतों के भवनों में प्रत्येककी दीर्घता ऊँचाईके पांचवें भाग और विस्तार उससे आधा समझना चाहिए || इसप्रकार इन्द्र-विभूतिकी प्ररूपणा समाप्त हुई ॥७॥ प्रत्येक पटल में देवोंकी आयुका कथन पढमे बिदिए जुगले, बम्हादिसु चउसु श्राणद-दुर्गामि । श्रारण दुगे सुदंसण पहुदिसु एक्कारसेसु कमे ॥४६१ || - - युग- सत्त-दसं चउद्दल - सोलस- अट्ठरस-बीस बायोता । तत्तो एक्केषक जुदा, उक्कस्साऊ समुद्द उदमारणा ॥ १४६२ ॥ २ । ७ । १० । १४ । १६ । १८ । २० । २२ । २३ । २४ । २५ | २६ । २७ । २८ । २९ । ३० । ३१ । ३२ । ३३ । पर्थ - प्रथम एवं द्वितीय युगल, ब्रह्मादिक चार युगल, आनत युगल, धारणयुगल और सुदर्शन आदि ग्यारहवें उत्कृष्ट श्रायु क्रमशः दो, सात, दस, चौदह, सोलह अठारह, बीस, बाईस, इसके ऊपर एक-एक अधिक अर्थात् तेबीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, भट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकतीस, बत्तीस और तेतीस सागरोपम प्रमाण है । २४६१-४६२ ॥ एसो उक्कस्साऊ, इदप्पहूदीण होदि हू उम्मं । सेस सुराणं आऊ, मज्भिल्ल - जहण्ण परिमाणा ||४६३ ॥ अर्थ – यह उत्कृष्ट आयु इन्द्र आदि चारकी है । शेष प्रमाण सहित है ।।४६३ ।। - एदाणि पल्लाई, श्राऊ उडु तं सेढीबद्धाणं, पण्णयाण 2 refg कोड लक्खा, कोडि - सहस्साणि तैत्तियाणि वि । कोडि-सया छच्चैव य, छासट्ठी कोडि श्रहियाणि ॥ ४६४ ॥ · ६६६६६६६६६६६६६६ १. द. व. तिहविहाताओ । २. द. ब. एदा । - देवोंको आयु मध्यम एवं जघन्य छासी लक्खाणि तेतियमेत्ताणि तह सहस्वाणि । छस्सय छाप्रो, बोणि कला तिय' - विवाम्रो ।। ४६५ ।। विदयम्मि उक्कस्ते । च णावव्वं ॥४६६॥ - Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती । गाथा : ४६७-४७० अर्थ छयासठ लाख करोड़, छयासठ हजार करोड़, छह सौ छयासठ करोड़ अधिक छयासठ लाख छयासठ हजार छह सो छयासठ और तीनसे विभक्त दो कला {६६६६६६६६६६६६६६), इतने पल्य प्रमाण ऋतु इन्द्रकमें उत्कृष्ट प्रायु है। यही आयु उसके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकोंकी भी जाननी चाहिए ।।४६५-४६६।। । उड-पालुक्कस्साऊ, इच्छिय-पडल-प्पमारण - स्वेहि । गुणिणं प्राणेज्जं, तस्सि जेट्टाउ - परिमाणं ॥४६७॥ अर्थ-ऋतु पटलको उत्कृष्ट आयुको इच्छित पटल प्रमाण रूपोंसे गुणित कर उसमें उत्कृष्ट आयुके प्रमाणको ले आना चाहिए ।।४६७।। चोसद्द - ठाणेस तिया, एक्कं अंकक्कमेण पल्लाणि । एक्क - कला उक्कस्से, पाऊ विमलिंबयम्मि पुढं ॥४६॥ १३३३३३३३३३३३३३३।।। अर्थ-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें तीन और एफ, इतने पल्प और एक कला प्रमाण विमल इन्द्रको उत्कृष्ट प्रायु है ।।४६८।। विशेषा-ऋतु पटलकी उत्कृष्ट आयुके प्रमाण को इच्छित पटल संख्यासे गुणित करने पर उस पटल में उत्कृष्ट आयुका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । यथा ऋतु विमान की उत्कृष्ट मायु ६६६६६६६६६६६६६६४२= १.३३३३३३३३३३३३३३३ पल्य विमल नामक दुसरे इन्द्रको आयु का उत्कृष्ट प्रमारा है। चोदस-ठाणे सुग्ण, दुगं च अंक - क्कमेण पल्लागि । उपकस्साऊ चंदिदयम्मि सेढी - पइण्णएस च ॥४६॥ २०००००००००००००० । अर्थ अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें शून्य और दो [ ६६६६६६६६६६६६६६३४३२०००००००००००००० 1 इतने पल्य प्रमाण चन्द्र इन्द्रक तथा उसके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंमें उत्कृष्ट आयु है ।।४६९।। चोद्दस-ठाणे छक्का, दुगं च अंक-क्कमेण पल्लारिण। दोणि कला उक्कस्से, प्रा. वग्गुम्मि णावग्यो ॥४७०॥ २६६६६६६६६६६६६६६ । । । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ! ४७१-४७४ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५५७ ___ अर्म-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें छह और दो इतने पल्य एवं दो कला [६६६६६६६६६६६६६६४४=२६६६६६६६६६६६६६६७ पल्य ] प्रमाण वागु इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयु है ॥४७०॥ पण्णरस-ट्रारणेस, तियाणि अंक - एकमेण पल्लाणि । एक्फ - कला उक्कस्से, प्राऊ वीरिचय - समूहे' ।।४७१॥ ३३३३३३३३३३३३३३: ।। अर्ष-अंक क्रमसे पन्द्रह स्थानों में तीन, इतने पल्य भौर एक कला [६६६६६६६६६६६६६३ x५=३३३३३३३३३३३३३३३३ पल्य ] प्रमाण वीर इन्द्रक तथा उसके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकों में उत्कृष्ट आयु है ।।४७१। चोदस - ठाणे सुण्णं, चउपकमकक्कमेण पल्लाणि । उपकस्सा प्रणिक्यम्मि सेढी - पहण्णएस च ।।४७२॥ ४०००००००००००००० । अपं-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें शून्य और चार इतने ( ४००००००००००००००) पल्य प्रमाण अरुण इन्द्रक तथा उसके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंमें उत्कृष्ट माय है ॥४७२।। चोदस-ठाणे छक्का, चउपकमक - कमेण पल्लाणि । दोणि कलानो णवण - णामे आउस्स उक्कस्सो ॥४७३॥ ४६६६६६६६६६६६६६६ । । । अर्थ - अक ऋमसे चौदह स्थानोंमें छह और चार, इतने पत्य एवं दो कला (४६६६६६६६६६६६६६६३ पल्य ) प्रमाण नन्दन नामक पटलमें उत्कृष्ट प्रायु है ।।४७३।। घोहस-ठाणेसु तिया, पंचक्क-कमेण होंति पल्लाणि । एक्क-कला लिरिंगवय - रगामे प्राउस्स उपकस्सो ॥४७४।। ५३३३३३३३३३३३३३३ ।।। अयं - अंक क्रमसे चौदह स्थानों में तीन और पांच, इतने पत्य एवं दो कला ( ५.३३३३३३३३३३३३३३३ पल्य) प्रमाण नलिन नामक इन्द्रको उत्कृष्ट प्राय है ।।४७४।। .. Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ] तिलोयषण्णसी [ गाथा : ४७५-४७९ घोहस-ठाणे सुखणं, छक्क अंक - कमेण पल्लाणि । उपकस्साऊ कंचण - पामे सेढो - पइण्णएसपि ॥४७५।। अर्ष-अंक क्रमसे चौदह स्थानों में शून्य और छह, इतने ( ६००००००००००००००) पल्य प्रमाण कञ्चन नामक इन्द्रक और उसके श्रेणीबद्ध तथा प्रकीर्णक विमानों में उत्कृष्ट आयु है ॥४७॥ पण्णरस - टाणेस, छक्का अंकक्कमेण पल्लाणि । दोणि कलाओ कोहिन - पारे प्र.उस्स उहालो ।।७।। अर्थ-अंक क्रमसे पन्द्रह स्थानों में छह, इतने पल्य और दो कला (६६६६६६६६६६६६६६६३ पल्य ) प्रमाण रोहित नामक पटलमें उत्कृष्ट आयु है ॥४७६।। चोइस-ठाणेसु तिया, सत्तंक - कमेण होति पल्लाणि । एक्क - कल च्चिय चचियम्मि पाउस्स उक्कस्सो ॥४७७॥ __ ७३३३३३३३३३३३३३३ । । । अर्थ-अंक क्रमसे चौदह स्थानों में तीन और सात, इतने पल्य तथा एक कला - (७३३३३३३३३३३३३३३७ पल्य ) प्रमाण चंचत् ( चन्द्र ) इन्द्रको उत्कृष्ट प्रायु है ।।४७७।। चोदस-ठाणे सुष्णं, अट्ठक-कमेण होंति पल्लाणि । उक्कस्साऊ मरुविचयम्मि सेढी - पहण्णएसु च ॥४७॥ ८०००००००००००००० । अर्थ-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें शून्य और आठ, इतने पल्य प्रमाण मरुत् इन्द्रक तथा उसके श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंमें उत्कृष्ट आयु है ।।४७८|| चोदस-ठाणे छक्का, अट्ठक-कमेण होति पल्लाणि । दु-कलाओ 'रिद्धिसए, उपकस्साऊ समग्गम्मि ॥४७६॥ २६६६६६६६६६६६६६६ ।।। - - - - - - १. ६. ब. क. ब. 8. विदिसए । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५९ अर्थ - अंक क्रमसे चौदह स्थानों में छह और आठ इतने पल्य तथा दो कला ( ८६६६६६६६६६६६६६६ पल्य ) प्रमाण समस्त ऋद्धोश पटल में उत्कृष्ट आयु है || ४७९ ।। - ठाणे तिया पर्वक कमसो हुवंति पल्लाणि । एक्क - कला - बेहलिए, उक्कस्साऊ सपदरम्मि ||४८० || माथा : ४८०-४६४ ] ९३३३३३३३३३३३३३३ । 1 प्रथं - अंक क्रम से चौदह स्थानों में तीन और नौ, इतने पल्य एवं एक कला ( ९३३३३३३३३३३३३३३३ पल्य ) प्रमाण वैडूर्य पटल में उत्कृष्ट आयु है | १४८०॥ म महाहिया ( ११३ परणरस' द्वाणेसु णहमेकंक - वकमेण पल्लागि । - 1 उपकस्साऊ रुचकदयम्मि सेढी पइण्णएस पि ॥ ४६१ ॥ - 2000000000000000| अर्थ--अंक क्रमसे पन्द्रह स्थानों में शून्य और एक इतने ( १००००००००००००००० +) पल्य प्रमाण रुचक इन्द्रक एवं उसके श्रीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंमें उत्कृष्ट प्रायु है ।।४८१ ॥ चोल - ठाणे छक्का, हमेकंक वकमेण पल्लाणि । दोणि कलाओ रुचिरिवयम्मि आउस्स उक्कस्सो ||४८२ ।। १०६६६६६६६६६६६६६६ । १ । अर्थ - अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें छह, शून्य और एक इतने पल्य और दो कला { १०६६६६६६६६६६६६६६३ पल्य ) प्रमाण रुचिर इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयु है ।।४८२ ।। चोद्दस ठाणेसु तिथा, एक्केक्क - कमेण होंति पल्लाणि । एक्क-कल चिचय किंवयम्मि आउस्स उपकस्सो ||४८३|| ११३३३३३३३३३३३३३३ । उ॑ । -- अर्थ - अंक क्रमसे चौदह स्थानों में तीन, एक और एक इतने पल्य और एक कला ३३३३३३३३३ पल्य ) प्रमाण त इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयु है ||४८३ || चोट्स - ठाणे सुष्णं, दुगमेषक - वकमेण पल्लाणि । उक्कस्साक पडिवियम्मि सेढी पइण्णएस पि ॥ ४६४ || १. द. चोस । २. द. ब. ति । १२००००००००००००००। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० ] तिलोयपण्णत्ती (गाथा : ४८५-४८८ अर्थ-अंक क्रमसे चौदह स्थानों में शून्य दो और एक, इतने (१२००००००००००००००) पल्य प्रमाण स्फटिक इन्द्रक एवं उसके अंगोबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंमें उत्कृष्ट आयु होती है ॥४८४॥ चोहस-ठाणे छक्का, दुगमेषकक - कमेण पल्लारिण । दोणि कलाओ तबरिणय - इंबए प्राउ उक्कस्सा ॥४५॥ १२६६६६६६६६६६६६६६ । । । प्रर्थ-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें छह, दो और एक, इतने पत्य एवं दो कला ( १२६६६६६६६६६६६६६६३ पल्य } प्रमाण तपनीय इन्द्रक एवं उसके श्रेणीबद्धादिकमें उत्कृष्ट पायु है ॥४८५।। पण्णरस - ठाणेसुतियाणि एक्कं कमेण पल्लाणि । एक्का कला य मेधेदमम्मि पाउस्स उपकस्सा ॥४६॥ १३३३३३३३३३३३३३३३ ।।। मर्थ-क्रमश: पन्द्रह स्थानों में तीन और एक इतने पल्य एवं कला ( १३३३३३३३३३३३३३३३७ पल्य ) प्रमाण मेघ इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयु है ।।४८६॥ चोदस-ठाणे सुण्णं, चउ-एक्कंक-क्कमेण पल्लाणि । उक्कस्साऊ अभिषयम्मि सेढो - पहण्णएसु च ॥४७॥ १४००००००००००००००। प्रर्ष-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें शून्य, ..चार और एक, इतने ( १४०००००००००००००० ) पल्य प्रमाण अभ्रइन्द्रक तथा श्रेणीबद्ध तथा प्रकीर्णक विमानोंमें उत्कृष्ट आयु है 11४८७।। चोड्स-ठाणे छक्का, चउ-एक्कंक-कर्मण पल्लाणि । दोणि कला हारिद्दयम्मि आउस्स उपकस्सो ॥४८८|| १४६६६६६६६६६६६६६६ । । । पर्य-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें छह, चार और एक, इतने पल्य और दो कला ( १४६६६६६६६६६६६६६६३ पत्य } प्रमाण हारिद्र इन्द्रकमें उत्कृष्ट आयु है ।।४८८॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४८९-४९३ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५६१ चोद्दस-ठाणेसु तिया, पंचेक्कंक - कमेण पल्लारिण । एक्का कला य आऊ, उक्कस्से पउम - पडलम्मि ॥४८६॥ १५३३३३३३३३३३३३३३ । । । अर्थ-अंक क्रमसे चौदह स्थानों में तीन, पांच और एक, इतने पल्य तथा एक कला (१५३३३३३३३३३३३३३३ पल्य ) प्रमाण पर पटलमें उत्कृष्ट प्रायु है ।।४८९॥ चोहस-ठाणे सुण्णं, छक्केक्कक - कमेण पल्लाणि । उक्कस्साऊ लोहिब - सेढी - बद्ध - प्पइंण्णएसुपि ॥४६०।। १६०००००००००००००० ! अर्थ-अंक क्रमसे चौदह स्थानों पर शून्य, छह और एक, इतने {१६०००००००००००००० पस्य ) प्रमाण लोहित इन्द्रक, श्रेणीबच और प्रकीर्ण कोंमें उत्कृष्ट आयु है ॥४९॥ पण्णरस - ट्ठाणेसु, छक्कं एक्कं कमेण पल्लाई। वोणि कलाओ पाऊ, उक्कस्से वज्ज - पडलम्मि ३४६१॥ १६६६६६६६६६६६६६६६ । । । अर्थ-अंक क्रममे पन्द्रह स्थानों में छह और एक, इतने पत्य एवं दो कला (१६६६६६६६६६६६६६६६३ पल्य ) प्रमाण व पटलमें उत्कृष्ट आयु है ।।४६१॥ चोहस-ठाणेसु तिया, सत्तेक्कक - कमेण पल्लाणि । एक्क • कला उपकस्सो, णाधट्टम्मि आउस्सं ॥४६२॥ १७३३३३३३३३३३३३३३ । । । प्रयं-अंक क्रमसे चौदह स्थानोंमें तीन, सात और एक, इतने पल्य एवं एक कला ( १७३३३३३३३३३३३३३३३ पत्य ) प्रमाण नन्द्यावर्त पटल में उत्कृष्ट आयु है ।। ४९२।। चोद्दस - ठाणे सुण्णं, अद्वै क्कंक • कमेण पल्लाणि । उक्कस्साउ • पमाणं, पडलम्मि पहंकरे होवि' ॥४६३॥ १८०००००००००००००० । १. ब. होहि। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ] तिलोयपण्णत्ती एक. श्रयं - अंक क्रमसे चौदह स्थानों में शून्य, आठ और ( १८०००००००००००००० ) पत्य प्रमाण प्रभङ्कर पटल में उत्कृष्ट प्रायु है ।। ४९३ ।। चोट्स-ठाणे-छक्का, अक्क कमेण होंति पल्लाणि 1 दोणि कलाओ 'पिट्ठक पडले आउस्स उक्कस्सो ||४६४ || १८६६६६६६६६६६६६६६ | । अर्थ – पसे चौदह स्थानों में छह आठ और एक इतने पल्य एवं दो कला ( १८६६६६६६६६६६६६६६ पल्य ) प्रमाण पृष्ठक पटल में उत्कृष्ट आयु है || ४९४ ॥ चोस ठाणेसु तिया, गवेषक अंक वकमेण पल्लारिं । एक्क कला गज-गामे, पडले आउस्स उबकस्सो ||४६५ || १९३३३३३३३३३३३३३३ । ३ । अर्थ-अक क्रम से चौदह स्थानों में तीन, नो और एक इतने पल्य एवं एक कला ( १६३३३३३३३३३३३३३३) प्रमाण है ।।४६५॥ [ गाया । ४६४-४८ इतने दोणि पयोणिहि जनमा, उक्कस्साऊ हुवेदि पडलम्मि । घरिम द्वारा णिविट्ठ, सोहम्मीसाण जुगलम्मि ||४६६ ॥ P · सा २ । अर्थ- सौधर्मेशान युगल के भीतर अन्तिम स्थान में निविष्ट पटल में दो सागर प्रमाण उत्कृष्ट श्रायु है ||४९६॥ उक्करसाउ पमाणं, सणवकुमारस्स पढम-पडलम्मि । दोणि पयोणिहि उवमा, पंच कला सत्त पहिता ॥ ४६७॥ १. ब. पिट्ठव । सा २ । ५ । अर्थ- सानत्कुमारके प्रथम पटल में उत्कृष्ट श्रायुका प्रमाण दो सागरोपम और सातसे भाजित पाँच कला ( २४ सागर ) है ||४६७ | सिणि महण्णव उवमा, तिष्णि कला इंदयम्मि वणमाले । चत्तारि उवहि उथमा, एक्क-कला नाग पडलम्भि ||४६८ || ३। क । सा ४ । ३ । ! 7 C Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ४९९-५०३ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५६३ अर्थ-तीन सागरोपम एवं तीन कला ( ३६ सा. ) प्रमाण वनमाल इन्द्रको तया चार सागरोपम और एक कला ( ४३ सा० ) प्रमाण नाग-पटलमें उत्कृष्ट प्रायु है ।।४९८॥ चत्तारि सिंधु-उवमा, छच्च कला गरुड-णाम-पडलम्मि। पंचण्णव - उवमाणा, चत्तारि कलाओ लंगलए' ॥४६॥ सा ४। : । सा ५।। मयं-गरुड़ नामक पटल में चार सागरोपम और छह कला ( ४ सा.) तथा लाङ्गल पटलमें पांच सागरोपम एवं चार कला ( ५४ सा० ) प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ॥४६६।। छट्टोवहि-उबमारणा, वोणि कला इंदयम्मि बलभद्दे । सत्त-सरिरमण-उवमा, माहिद-दुपस्स चरिम-पडलम्मि ।।५००।। सा ६ । है । सा७ । प्रयं-बलभद्र इन्द्रकमें छह सागरोपम और दो कला ( ६३ सा०) तथा माहेन्द्र युगलके अन्तिम { 'चक्र नामक ) पटलमें सात (७) सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ।।५००।। सत्तंबुरासि-उवमा, तिणि कलामो चउक्क-पविहत्ता। उक्कस्साउ - पमाणं, पढ़मं पडलम्मि बम्ह-कप्पस्स ॥५०॥ सा७ । । अर्थ-ब्रह्म कल्पके प्रथम पटलमें उत्कृष्ट आयुका प्रमाण सात सागरोपम और चार विभक्त सीन कला ( ७१ सा० ) है ।।५०१॥ प्रदण्णव-उवमाणा, दु-कला सुरसमिदि-णाम-पडलस्मि । णव-रयणायर-उवमा, एक्क - कला बम्ह - पडलम्हि ।।५०२॥ सा ८।३। सा ९ । । अर्थ-सुरसमिति नामक पटलमें आठ सागरोपम और दो कला ( ८१ सा० ) तथा ब्रह्म पटल में नौ सागरोपम और एक कला ( ९२ सा० ) प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ।।५०२।। बम्हुत्तराभिधाणे, चरिमे पडलम्मि बम्ह - कप्पस्स । उक्कस्साउ-पमाणं, बस सरि - रमणाण उवमाणा ॥५०३॥ १. द.ब.क. ज. ठ. लिंगलए। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा । ५०४-५०८ अर्थ – ब्रह्म कल्पके ब्रह्मोत्तर नामक अन्तिम पटल में उत्कृष्ट प्रायुका प्रमाण ( १० ) सागरोपम है ||५०३ ॥ बम्हहिदयम्मि' पडले, बारस कल्लोलिणीस उमाणं | चोट्स- पीरहि उवमा, "उनकस्साऊ हवंति संतवए ॥ ५०४ ॥ १२ । १४ । अर्थ- ब्रह्महृदय पटल में बारह सागरोपम और लान्तव पटलमें चौदह सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट श्रायु है ।। ५०४ ॥ महसुष णाम पडले, सोलस-सरिया हिणाह उब माणा । सहस्सा रे, तरंगिणीरमण अष्टुरस - उवमाणा ।। ५०५ ॥ १६ । १८ । अर्थ - महाशुक्र नामक पटल में सोलह सागरोपम और सहस्रार पटल में अठारह सागरोपम प्रमारण उत्कृष्ट आयु है ।। ५०५ ॥ आणदणामे पडले, अट्ठारस सलिलरासि उवमाणा । उपकरसाउ - पमा, चत्तारि कलाओ छक्क हिदा ।।५०६ ।। १८ । है । अर्थ-आनत नामक पटल में अठारह सागरोपम और छहसे भाजित चाय कला (१८६ सा० ) प्रमाण उत्कृष्ट श्रायु है ॥१५०६ ॥ एक्कोणवीस वारिहि उदमा दु-कलाओ पाणवे पडले । पुप्फगए बीसं चिथ तरंगिणीकंत उवमाणा ।।५०७ ।। · सा १९ । २ । सा २० । अर्थ - प्राणत पटल में उन्नीस सागरोपम और दो कला ( १६३ सा० ) तथा पुष्पक पटल में बीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट श्रायु है | १५०७ ॥ 1 aliबुरासि उवमा, चत्तारि कलानो सादगे पडले । इगियोस जलहि- उमा, श्रारण-नामम्मि दोणि कला ॥ ५०८ ॥ सा २० | क ४ । सा २१ । १ । १. द. ४. बह्रिदयमिह । २. द. ब. क. ज. ठ. कप्परसाळ ॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ५०६-५१२] भगो महायिादो [ ५६५ अर्थ-शातक पटल में बीस सागरोपम और चार कला (२०४ सा० ) तथा प्रारण नामक पटल में इक्कीस सागरोपम और दो कला ( २१३ सा० ) प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है ।।५.०८।। अच्चुद-रणामे पडले, बावीस तरंगिणीरमण-उवमाणा'। तेवीस सुदंसणए, अमोघ - पडलम्मि चउवोसं ।।५०६॥ २२ । २३ । २४। अर्थ-अच्युत नामक पटलमें बाईस सागरोपम, सुदर्शन पटलमें तेईस सागरोपम और अमोघ पटलमें चौबीस ( २४ ) सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है ॥५०६।। पणुवीस 'सुप्पबुद्ध, जसहर-पडलम्मि होंति छठवीसं । सत्तावीस सुभद्द, सुविसाले अट्ठबीसं च ॥५१०॥ २५ । २६ । २७ । २८॥ प्रर्प-सुप्रबुद्ध पटल में पच्चीस ( २५ ), यशोधर पटल में छब्बीस { २६ ), सुभद्र पटलमें सत्ताईस ( २७ ) और सुविशाल पटलमें अट्ठाईस ( २ ) सागरोपम प्रमारण उत्कृष्ट आयु है ॥५१०॥ सुमणस-णाम उणतीस तीस सोमणस-णाम-पडलम्मि । एक्कचीसं पोविकरम्मि बत्तीस आइच्चे ॥११॥ २९ । ३० । ३१ । ३२ । मर्य-सुमनस नामक पटलमें उनतीस ( २९), सौमनस नामक पटलमें तीस (३०), प्रीतिङ्कर पटलमें इकतीस ( ३१ ) और आदित्य पटलमै बत्तीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥५११॥ सम्बट्ट-सिद्धि-णामे, तेवीसं वाहिणीस - उवमारणा । उक्कस्स जहण्णम्मि य, णिद्दिई बीयरागेहि ॥५१२॥ ३३ 1 अर्थ-वीतराग भगवान्ने सर्वार्थसिद्धि नामक पटलमें उत्कृष्ट एवं जघन्य आयुका प्रमाण तैतीस ( ३३ ) सागरोपम कहा है ।।५१२॥ १. द.ब. क. ज. ठ. उवमा। २. द. ब. क. ज.. सुष्पबुढी। ३. द. 4. सोम । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] तिलोय पण्णत्तो देवोंकी जघन्य - आयु उडु पहुवि इंदयाणं, हेट्टिम उक्कस्स प्राउ परिमाणं । एक्क - समएण श्रहियं, उवरिम पडले जाऊ ।।५१३।। - अर्थ - ऋतु आदि इन्द्रकोंमें अधस्तन इन्द्रक सम्बन्धी उत्कृष्ट प्रयुके प्रमाणमें एक समय मिलाने पर उपरिम पटल में जघन्य आयुका प्रमाण होता है ।। ५१३|| तेत्तीस उवहि- उबमा, पल्ला संखेज्ज - भाग-परिहीणा । सट्ट सिद्धि णामे, मण्णंते केइ [ गाथा : ५१३ - ५१७ - पाठान्तरम् । अर्थ – कोई आचार्य सर्वार्थसिद्धि नामक पटल में पल्यके असंख्यातवें भागसे रहित तेतीस सागरोपम प्रमाण जघन्य आयु मानते हैं ।। ५१४॥ पाठान्तर । सोहम्म- कप्प - पढमिवयम्मि पलियोयमं हुवे एककं । सम्वणिगिट्ट सुराणं, जहण्ण-आउस परिमाणं ।। ५१५ ।। श्रवशऊ ।।५१४ ।। प१ । अर्थ- सौधर्म कल्पके प्रथम इन्द्रकमें सब निकुष्ट देवोंकी जघन्य प्रयुका प्रमाण एक पत्योपम है ।१५१५ ॥ इन्द्रोंके परिवार देवों की प्रायु प्रड्ढा इज्जं पल्ला, श्राऊ सोमे जमे य पसेवकं । तिम्णि कुबेरे वरुणे, किंचूणा सत्रक दिव्याले ॥ ५१६ ॥ · · ५ । ५ । ३ । ३ । - सौधर्म इन्द्रके दिक्पालोंमें सोम और यमकी अढ़ाई ( २३ ) पस्योपम, कुबेरकी तीन (३) पस्योपम और वरुण की तीन ( ३ ) पल्योपमसे किञ्चित् न्यून आयु होती है ।। ५१६ ।। सक्कदो सेसेसु वविखण इंदेसु लोयपालागं । 2 एक्क्क - पल्ल- श्रहिग्रो, श्राऊ सोमावियाण पक्कं ।। ५१७ ।। अर्थ- सौधर्म इन्द्रके अतिरिक्त शेष दक्षिण इन्द्रोंके सोमादिक लोकपालोंमेंसे प्रत्येककी आयु एक-एक पल्य अधिक है ।। ५१७।। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ! ५१८-५२२ ] अट्ठमो महायिारो [ ५६७ ईसाणिव - विगिदे, प्राऊ सोमे जमे ति - पल्लाई। किंचूणाणि कुबेरे, वरुणम्मि य सादिरेगाणि ॥५१८।। ३ । ३ । ३।३। प्रर्थ-ईशान इन्द्र के लोकपालों में सोम और यमको आयु तीन तीन पत्य, कुबेरको तीन पल्यसे कुछ कम तथा वरुणकी कुछ अधिक तोन पल्य है ॥५१॥ ईसाणावो सेसय - उत्तर - इंदेसु लोयपालाणं । एक्केषक-पल्ल-अहिओ, पाऊ सोमावियाण पत्तेक्कं ॥५१॥ अर्थ-ईशानेन्द्र के अतिरिक्त शेष उत्तर इन्द्रोंके सोम-आदिक लोकपालोंमें प्रत्येककी आयु एक-एक पल्य अधिक है ।।५१६।। सवाण दिगिदाणं, सामारिणय-सुर-वराण पत्तक्कं । गिय-णिय-विगिदयाणं, पाउ - पमाणारिण प्राणि ॥५२०॥ अर्थ-सब लोकपालोंके सामानिक देवोंमें प्रत्येकको प्रायु अपने-अपने लोकपालोंकी प्रायुके प्रमाण होती है ॥२०॥ पढमे बिदिए जुगले, बम्हादिसु चउसु आणव-दुगम्मि । पारण - जुगले फमसो, सचिवेसु सरीररक्खाणं ॥५२१॥ पलिदोवमाणि पाऊ, अड्ढाइज्ज हवेवि पढममि । एक्केषक-पल्ल-बड्ढी, पत्तेक्कं उपरि - उरिस्मि ।।५२२॥ अर्थ-प्रथम युगल, द्वितीय युगल, ब्रह्मादिक चार युगल, पानत युगल और आरण युगल इनमेंसे प्रथममें शरीर रक्षकोंकी आयु अढ़ाई पल्योपम और ऊपर-ऊपर सब इन्द्रोंके शरीर रक्षकों की आयु क्रमशः एक-एक पल्य अधिक है । अर्थात् सौधर्म युगलमें २३ पल्य, सानत्कुमार युगलमें ३३ पल्य, ब्रह्म युगल में ४३ पल्य, लान्तव युगलमें ५३ पल्य, शुक्र युगल में ६३ पल्य, शतार युगलमें ७३ पल्य, आनत युगलमें ८६ पल्य और प्रारण युगलमें ९३ पल्य प्रमाण उत्कृष्ट प्राय है ।।५२१-५२२।। १. द.ब.क. सोमज्जमे। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] 日 १ अर्थ - प्रथम युगलमें बाह्य, मध्यम और अभ्यन्तर पारिषद देवोंकी भायु क्रमश: तीन चार श्रौर पाँच पल्य है। इसके ऊपर एक-एक पल्य अधिक है ।।५२३ ।। विशेषार्य ३ २ सा० ४ कल्प नाम की आयु OP तिलोय पण्णत्ती बाहिर - मज्भभंतर परिलाए होंति तिष्णि चत्तारिं । पंच पलिदोवमाणि, उर्वार एक्केवक- पल्ल बड्ढीए ।। ५२३॥ ३, ४, ५ । ४, ५, ६, सौ० युगल ३ पल्य ब्रह्म लान्तव बाह्य पारि० मध्यम पा० अभ्य० पा० की आयु की आयु ४ २. ६. ब।६। ५ " ६ " ४ पल्य ५ पल्य ५ ५, ६, ७, ६, ७, ८ ७, ८, १८, ९, १० । ९, १०, ११ । १०, ११, १२ । ६ ७ " " 11 ६ ७ ८ " $ " 32 क्र० ५ ६ ७ 15 ८ कल्प नाम महाशुक्र ७ ल्य सहस्रार बा० पारि० की आयु प्रा० पु० ६ आ० " [ गाथा : ५२३-५२४ - १० " 13 मध्यम पा० की श्रायु ८पल्य ९ " १० „ पढमम्मि अहिय-पल्लं श्रारोहक वाहणारण तट्टाणे 1. श्राऊ हवेदि तत्तो, बड्ढी एक्केषक पल्लल्स ।। ५२४ || ११, अभ्य० पा० की आयु ६ पल्य १०. ११ १२ १ । २ । ३ । ४ । ५ | ६ | ७ | ८ | अर्थ- - उन आठ स्थानों में से प्रथम स्थानमें आरोहक वाहनोंकी आयु एक पल्यसे अधिक और इसके आगे एक-एक पल्यको वृद्धि हुई है । अर्थात् आरोहक वाहनों की आयु सौ० यु० में १ पल्य, भें २ पल्य, ब्र० यु० में ३ पश्य, लॉ० यु० में ४ पल्य, शु० यु० में ५ पल्य, शतार यु० में ६ पल्य, आनत यु० में ७ पल्य और आरण यु० में ८ पश्य है ।। ५२४ | सन० यु० १. द. व. ३ । ४ । ५ । ६ । ७ । ८ । ६ । १० । ४ । ५ | ६ | ७ । ८ । ९ । १० । ११ । १२ । Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५२५-५२६ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५६९ एक्का न वाहण - सानोति लेस ठाणेन । पढ़मादु उत्तरतर • वड्ढीए एक्क • पल्लस्स ॥५२५॥ १।२।३ । ४ । ५। ६ । ७ । । । अर्थ-उन स्थानोंमेंसे प्रथम स्थानमें वाहन-स्वामियों की आयु एक-एक पल्य और इससे आगे उत्तरोतर एक-एक पल्यकी वृद्धि है । अर्थात् सौ० १. सन० २, ३० ३, ला० ४, शु० ५, २० ६. प्रा० ७ और मारण यु. में ८ पल्य की प्रायु है ॥५२५।। ताणं पइण्णएसु, अभियोग - सुरेसु किम्बिसेसु च । आउ - पमाण - रिणवण - उबएसो संपाहि पण8ो ।।५२६।। अर्थ उनके प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषदेवों में प्रायु प्रमाणके निरूपणका उपदेश इस समय नष्ट हो गया है ।।५२६।। जे सोलस कप्पाई, कई इच्छति ताण उपएसे' । जुगलं पडि णावन्यं, पुरवोविद - प्राउ - परिमारणं ॥५२७।। अर्थ-जो कोई प्राचार्य सोलह कल्पोंकी मान्यता रखते हैं उनके उपदेशानुसार पूर्वोक्त आयका प्रमाण एक-एक युगल के प्रति जानना चाहिए ॥५२७।। इन्द्र-देवियोंकी आयुका विवेचनपलिदोयमाणि पण णव, तेरस सत्तरस तह य चोत्तीसं। ' अटुत्ताले पाऊ, देवीणं दक्खिणिदेसु ॥२८॥ ५।९।१३ । १७ । ३४ । ४८ । अर्थ-दक्षिण इन्द्रोंमें देवियोंकी आयु क्रमशः ( सौ० ) पांच, { सानत्कुमार ) नौ, (ब्रह्म) तेरह ( लान्तर ) १७, ( आनत ) ३४, और ( आरण ) अड़तालीस पस्य प्रमाण है ।।५२८।। सत्तेयारस-तेवीस - ससवीसेक्क - ताल पणवण्णा । पल्ला कमेण आऊ, देवीणं उत्तरियेसु ।।५२६।। ७।११ । २३ । २७ । ४१ । ५५ । प्रध- उत्तर इन्द्रोंमें देवियोंको आयु क्रमशः ( ईशान ) सात, ( माहेन्द्र ) ग्यारह, ( महाशुक्र ) तेवीस, ( सहस्रार ) सत्ताईस, ( प्राणत ) इकतालीस और ( अच्युत ) पचपन पल्प प्रमाण है ।।५२९॥ १. ६. ब. उवएसो। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० ] तिलोय पण्णत्ती जे सोलस कम्पाणि, केई इच्छति ताण उवएसे । असु श्राज पमाणं, देवोणं वक्खिणिवेसु ।।५३० ॥ पलिदोषमाणि पण राव, तेरस सत्तरस एक्कवीसं च । पणवीसं चउतीसं असाणं कमेणेव ।।५३१।। - [ गाथा ५३० -५३३ ५ । ६ । १३ । १७ । २१ । २५ । ३४ । ४५ । प्रर्ष - जो कोई प्राचार्य सोलह कल्पों की मान्यता रखते हैं उनके उपदेशानुसार प्राठ दक्षिण इन्द्रों में देवियोंकी आयुका प्रमाण क्रमश: ( सौ० ) पाँच, ( सा० 1) नौ ( ब्रह्म ) तेरह ( लान्तव ) सत्तरह. ( शुक्र ) इक्कीस, ( शतार ) पच्चीस ( ग्रानत ) चौंतीस और ( आरण ) में अड़तालीस पल्य है ।। ५३० - ५३१ ।। पल्ला सत्तेक्कारस, पण्णरसेक्कोणवीस-तेवीसं । सगसमेतालं, परणवणं उरिव - देवीगं ।। ५३२ ।। ७ । ११ । १५ । १९ । २३ । २७ । ४१ । ५५ | पाठान्तरम् । अर्थ--- उक्त श्राचायों के उपदेशानुसार उत्तर इन्द्रोंकी देवियोंकी आयु क्रमशः सात, ग्यारह, पन्द्रह, उन्नीस, तेईस, सत्ताईस, इकतालीस और पचपन पत्य प्रमाण ।। ५३२ ।। पाठान्तर । कप्पं पडि पंचाविसु पल्ला बेबीण वडवे आऊ । बो- दो-बड्डी तत्तो, लोयायणिये समुद्दिट्ठ ॥ ५३३ ॥ ५ १७ । ६ | ११ | १३ | १५ | १७ | ११ | २१ | २३ | २५ | २७ । २९ । ३१ । ३३ | ३५ | पाठान्तरम् । अर्थ- देवियोंकी आयु प्रथम कल्प में पाँच पल्य प्रमाण है। इसके आगे प्रत्येक कल्प में दो-दो पत्यकी वृद्धि होती गयी है। ऐसा 'लोगाइणी' में कहा है ।। ५३३ १| विशेषार्थ - सौ० कल्प में ५ पल्य, ई० ७ पल्य, सान० ९. मा० ११, ब्रह्म० १३, ब्रह्मोत्तर में १५, लॉ० १७, का० १९, शुक्रमे २१ महाशुक्र में २३, श० २५, सह० २७, ० २६, प्रा० ३१, आ० ३३ और अच्युतकल्पमें ३५ पस्य आयु है । पाठान्तर । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५३४ - ५३५ ] अट्टम महाहियारो पलिदोवमाणि पंचय - सत्तारस-पंचवीस परगतीसं । चउस जुगलेसु प्राऊ गादव्या आरण- दुग-परियंतं व ते पंच मूलाधाराइरिया' एवं णिउणं ५ । १७ । २५ । ३५ । ४० । ४५ । ५० । ५५ । 2 इंद- वेवीणं ।।५३४ ॥ पंच- पल्लाई । णिरूर्येति ॥ ५३५|| [ ५७१ पाठान्तरम् अयं - चार युगलोंमें इन्द्र-देवियोंकी आयु क्रमशः पाँच, सत्तरह, पच्चीस और पैंतीस पल्य प्रमाण जाननी चाहिए । इसके आगे आरण-युगल पर्यन्त पाँच-पाँच पत्यकी वृद्धि होती गयी है, ऐसा मूलाचार ( पर्याप्त्यधिकार ८० ) में आचार्य स्पष्टता से निरूपण करते हैं ॥ ५३४-५३५ ।। पाठान्तर [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये 1 १. ८. ब. क. ज. ४. सूलानारोइरिया । २. व. ब. गिउवरण, क. अ. रु. शिजणा । ३. व. ब. ७ । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ] क्रमांक १ २ ३ ५. ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ ૪ १५ १६ करूप-नाम खोधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ठ शुक्र महाशुक शतार सहस्रार बनत प्राणत आरए अच्युत इन्द्रों की देवियों की श्रायु (पल्यों में ) १६ कल्पकी मान्यता १२ कल्पकी मान्यता गा० ५२८ ५२६ ५ पल्य 60 ९ X ११, १३," X 12 २३ " १७ पस्य X X तिलोयपत्ती २७, ३४, ४१ " ४८, ५५ " गा० ५३०-५३१५३२ ५ पल्य 19 & " " ११,, १३, १५,” १७, १६ २१ " २३. २५ " २७, ३४ ४८ ४१," ५.५. " लोगाइरणी की मान्यता गाथा - ५३३ ५ पल्य ૬ ६ 32 " ११ ." १३ " १५ .,, १७," १६," २१, २३ २५ २७ " २९ । ३१ " ३३ " ३५ " [ गाथा ४३५ मूलाचार की मान्यता गा० ५३४-५३५ ५ पस्य ५ १७ १७, २५ २५, ३५. " ३५ ४० " ४०, ४३ । ४५ ५० ५० ५.५. „ ५५, 4 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ५३६ - ५४० ] अम महाहियारो इन्द्र के परिवार देवोंकी देत्रियोंको अग्यु - पडिइंदाणं सामाणियाण तेत्तीस सुर-वराणं पि देवोण होदि श्राऊ, रिपबिंद- देवीरण श्राउ - समो ।।५३६ ।। अर्थ - प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रास्त्रिश देवोंकी देवियोंकी प्रायु अपने-अपने इन्द्रोंकी देवियोंकी आयु के सहश होती है ।। ५३६ ।। सबक- दिगिवे सोमे, जमे च देवीण आउ - परिमाणं । चउ - भजिद - पंच - पल्ला, किचूण-दिवड वरुणम्मि ।।५३७ ॥ ५।३। अर्थ- सौधर्म इन्द्र के दिक्पालों में सोम एवं यमकी देवियोंकी श्रायुका प्रमाण चारसे भाजित पाँच (३) पल्य तथा वरुणकी देवियोंकी आयुका प्रभारण कुछ कम डेढ़ (३) पल्य है ।। ५३७ ।। पलिदोषमं विवङ्ग होदि कुबेरम्मि सक्क - विप्पाले' | तेत्तियमेवा दिगिद - सामंत - देवीरणं ॥ ५३८ ॥ ● श्राऊ, [ ५७३ अर्थ- सौधर्म इन्द्रके कुबेर दिक्पालकी देवियोंकी आयु डेढ़ पत्य तथा लोकपालोंके सामन्तोंकी देवियोंकी आयु भी इतनी ही होती है ।। ५३८ ।। पदित्ति वयस्स य, दिगिद-वेवीण भाउ परिमाणं । एक्केक्क-पहल-बड्डी सेसेसु दवणवे ।।५३६।। अर्थ---शेष दक्षिण इन्द्रोंमें प्रतीन्द्र आदिक तीन और लोकपालोंकी देवियोंकी प्रायुका प्रमाण एक-एक पल्य अधिक है ।। ५३९ ॥ ईसाण - दिगिदाणं, जम- सोम-धणेस- देवीसु" । पुह पुह दिवड - पल्लं श्राऊ वरुणस्स प्रविरितं ॥ ५४० ॥ 1 ३।३।३।३। अर्थ - ईशान इन्द्र के लोकपालों में यम, सोम और कुबेरकी देवियोंकी आयु पृथक्-पृथक् डेढ़-डेढ़ पल्य तथा वरुण की देवियोंकी आयु इससे अधिक है। अर्थात् यमको देवियोंकी १३ पल्य, सोमकी देवियोंकी १३ पस्य, कुबेरकी देवियों की १३ पश्य और वरुणकी देवियोंकी आयु कुछ अधिक १३ पल्य है ।। १. द. न. क ज ठ ठाणी । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] तिलोयपण्णतो [ गाथा : ५४१-५४४ एदेसु दिगिदेसु, पाऊ सामंत - अमर - देवीणं । णिय-णिय-दिगिद-देवी-बाउ-पमाणस्स सारिच्छे ।।५४१॥ प्रर्थ—इन दिक्पालोंमें सामन्तदेवोंको देवियोंकी घायु अपने-अपने दिक्पालोंकी देवियों के आयु-प्रमाणके सहण है ।। ५४१ ।। पडिइंदत्तिव्यस्स य, दिगिव-देवीण पाऊ-परिमाणे । एक्कक्क - पल्ल - बड्डी, सेसेसु 'उत्तरदेसु॥५४२।। अर्थ –शेष उत्तर इन्द्रों में प्रतीन्द्रादिक तीन और लोकपाल इनकी देवियों की आयुका प्रमाण एक-एक पल्य अधिक है ।। ५४२ ।। तणुरक्खाण सुराणं, ति-प्परिस-प्पहुवि-आण देवीणं । पाउ-पमाण-णिरूवण-उवएसो संपहि पणट्ठो ॥५४३।। अर्थ-तनुरक्षक देव और तीनों पारिषद आदि देवोंकी देवियोंके प्रायु प्रमाणके निरूपणका उपदेश इससमय नष्ट हो गया है ।। ५४३ ।। बद्धाउं पडि भणिदं, उक्कस्सं मज्झिम जहण्णाणि । घादाबमासेज्जं, अण्ण - सरूवं परवेमो ॥५४४।। अर्थ-यह उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य आयुका प्रमाण बद्धायुष्कके प्रति कहा गया है । घातायुष्कका आश्रय करके अन्य स्वरूप कहते हैं ।। ५४४ ।। प्रथम युगलके पटलोंमें आयुका प्रमाणएत्थ उडुम्मि पढम पत्थले जहण्णमाऊ दिबद्ध-पलिदोवम उक्कस्समद्ध-सागरो वर्म। प्रयं-यहां ऋतु नामक प्रथम पटल में जघन्य आयु डेढ़ पल्योपम और उत्कृष्ट आयु अर्धसागरोपम है ॥ एत्तो तीसमिबयाणं बड्ढी-उड्ढी उच्चदे । तत्य प्रख-सागरोवमं मुहं होदि। भूमो प्रडवाइज्ज-सागरोयमाणि । भूमीदो मुहमणिय' उच्छहेण भागे हिवे तत्थ एक्क. सागरोवमस्स-पग्णारस-भागोवरिम -बड्ढी होदि । पर। १. ८. ब. क. ज. ४. उत्तरदिगिबेसु। २. द. ब. सगरोवमं । ३. द. य. मुहबणिय । ४. ६.ब.क. अ. ठ. बद्ध । ५. ब. सागरोबमष्ट्रि। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५४४ ] अट्ठमो महाहियारो [ ५७५ अर्थ-अब यहाँ तीस इन्द्रकोंमें स्थित देवोंकी आयुमें वृद्धिहानिका ( चय ) कहते हैं यहाँ अर्ध (३) सागरोपम मुख और अढ़ाई (२३) सागरोपम ( ऋतु पटल की जघन्य और उत्कृष्टायु ) भूमि है। भूमि मेंसे मुखका प्रमाण घटाकर शेषमें उत्सेध ( एक कम गच्छ) का भाग देने पर एक सागरोपमका पन्द्रहवां भाग (१५ सागर) उपरिम वृद्धिका प्रमाण आता है। विशेषार्थ-प्रथम युगल में समस्त पटल ( गच्छ ) ३१ हैं और उपर्युक्त जघन्य एवं उत्कृष्ट आयुका प्रमाण घातायुष्कको अपेक्षा है, अत: यहां वृद्धि हानि का प्रमाण र सागर = ( सा0-2 सा० ): (३१-१ ) है। एदमिच्छिर-पस्थड'-संखाए गुणिय मुहे पक्खित्ते विमलादोण तीसण्हं पत्थलाणमाउ-प्राणि होंदि । सेसिमेसा संविट्ठी1833333:। IFE :। ।३ । । ।।। । । सा । अर्थ-इसे ( सा० को एक कम ) इच्छित पटलको संख्यासे गुणा कर मुखमें मिला देनेपर विमलादिक तीस पटलोंमें आयुका प्रमाण इसप्रकार निकलता है विमल सा०= [ साox(२-१) ]+ सागर चन्द्र सा० - [* साox ( ३-१) J+ सागर वल्गुन सा० - साox (४ - १)]+३ सा. इसीप्रकार वीर पटलमें 3 सा०, अरुण ३५, नन्दन , नलिन ३१, कंचन ,, रुधिर ३, चन्द्र पु, मरुत् ४. ऋद्धीश, वैडूर्य , रुचक १, रुचिर , अंक :, स्फटिक, तपनीय, मेघ, अन पु, हारिद्र, पद्यमाल , लोहित, वन, नन्द्यावर्त , प्रभङ्कर 18, पिष्टक , गज, मित्र, और प्रभ१५ या सागरोपम । सणकुमार - माहिदे सत्त पस्थडा । एदेसिमाउ - पमाण - माणिज्जमाणे मुहमड्ढाइज्ज-सागरोवमाणि, भूमी 'साद्ध-सत्त-सागरोवमाणि सत्त उस्सेहो होदि । सि संविट्ठी ३। ।३। ।४। ।५। ।६। ।६।५।७।। सा। १.प. ब. क. ज. ल. पंचद । २. द.न. क, ज. स. साद-सागरोवमाण । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] तिलोय पण्णत्ती. [ गाथा : ५४४ अर्थ- सनत्कुमार माहेन्द्र युगल में सात पटल हैं । इनमें श्रायु-प्रमाणको प्राप्त करने के लिए मुख अढ़ाई सागरोपम भूमि साढ़े सात सागरोपम और उत्सेध सात है । ( भूमि १५ – मुख ) ÷७ सा० ( भूमि – मुख ) ÷ ७ उत्सेध | - वृद्धि हानिका प्रमाण उनकी संदृष्टि इसप्रकार है अञ्जन ३६४ सागर = 1⁄2 सा० + गरुड़ ५.५४ सा०, लांगल ६६४ सा० बलभद्र ६१ और चक्र पटल ७३ सागर है । सा० इसीप्रकार वनमाल ३३३ सागर, नाग ४५४ सा०, बम्ह-बम्हत्तर- कप्पे चत्तारि पत्थला । एबेसिमाउ पमाणिज्जमाणे ' मुहं अबसागरो माहिय-सस- सागरोषमाणि भूमी अद्ध-सागरोवमाहिय- दस सागरोषमाणि । एंदेंसिमाज आरण संदिट्ठी । ८ । १९।९।१।१०३ । अर्थ-ब्रह्म-न्नह्मोत्तर करूपमें चार पटल है। इनका आयु प्रमाण प्राप्त करने हेतु मुख साढ़ेसात (७३) सागरोपम भूमि साढ़दस (१०३ ) सागरोपम ( और उत्सेध चार ) है । [ इनमें वृद्धि - हानिका प्रमाण है सा० (१०३-७३) ४ उत्सेध ] इनमें श्रायु प्रमाणकी संदृष्टि इसप्रकार है अरिष्ट ८ सा०=७३ + सागर । इसीप्रकार सुरसमिति सा०, ब्रह्म ९४ सा० और ब्रह्मोस की १० सागर है ।। लव- कापि दोणि पत्यला । तेसिमाउयाण संविट्ठी एसा । १२ । १ । १४ । ३ । अर्थ - लान्सव- कापिष्ठमें दो पटल हैं। उनमें आयु प्रमाणकी संदृष्टि - ब्रह्महृदय में १२३ सा० और लान्तवमें १४३ सा० है ।। "हको सि एक्को चैव पत्थलो सुक्क महसुक्क - कप्पे । तम्मि श्राउस्स श्र संविट्ठी एसा । १६ ।। अर्थ- शुक्र महाशुक कल्प में महाशुक नामक एक ही पटल है। उस महाशुक्र में छायुका प्रमाण १६३ सागर है ॥ १. व. ब. मावमाणामिाणे २. ब. मह्सुक्के Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५४४ ] अट्टमो महाहियारो [ ५७७ सहस्सारनो ति एक्को पत्थलो सदर-सहस्सार-कप्पेसु । तत्य आउयस्स संविट्ठी' -१८। । अर्थ-शसार-सहनार कल्पमें सहस्रार नामक एक ही पटल है। उस में आयुका प्रमाण १८३ सा० है ।। प्राणव-पाणद-कप्पेसु तिण्णि पत्यला । तेसुमाउस्स पुवुत्त-कमेण प्राणिव-संदिट्ठी १६ । १६ ।। २० । अर्थ-आनत-प्रागत कल्पमें तीन पटल हैं । उनमें पूर्वोक्त विधिसे निकाला हुआ नायका प्रमाण इसप्रकार है--आनतमे १६ सा०, प्राणतमें १९३ सा० और पुष्पकमें २० सा० । आरण-अच्चुव-कप्पे तिणि पस्थला । एवेसुमाउआणं एस संदिट्ठी । २० ।। २१ । । २२ । अर्थ-आरण-अच्युत कल्पमें तीन पटल हैं। इनमें आयु प्रमाणको संदृष्टि यह है - शासकमें २०३३ सा०, आरएमें २१ सा० और अच्युतमें २२ सागर ।। एतो उवरि सुदंसरणी अमोघो सुप्पबुद्धो जसोहरो सुभद्दो सुविसालो समणसो सोमणसो पोदिकरो त्ति एदे व पत्थला गेवेज्जेसु । एवेसुमाउआणं वढि-हाणी पत्थि । पावेक्कमेक-पत्थलस्स पाणियादो । तेसिमाउ -संविट्ठी एसा-२३ । २४ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । अर्थ-उससे ऊपर सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस और प्रीतिङ्कर इसप्रकार ये नौ पटल अवेयकों में हैं। इनमें आयुकी वृद्धि-हानि नहीं है, क्योंकि प्रत्येकमें एक-एक पटलको प्रधानता है। उनमें आयको संदृष्टि यह है सुदर्शन २३ सा०, अ० २४ सा०, सु० २५ सा०, यशो० २६ सा०, सुभद्र २७ सा०, सुवि: २८ सा०, सुमनस २९ सा०, सौ. ३० सा. और प्रीतिङ्कर में ३१ सागर है। णवाणुद्दिसेसु प्राइच्यो शाम एक्को चेव पस्थलो। तम्हि आउयं एत्तियं होदि ३२ । १. ब. पत्थला, द. क, म. 3. पत्थना आउ संदिट्टो । २. द, ब, क, ज. ठ. तेसिमाउमाउ । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५४५ - ५४८ तो अनुदिशों में आदित्य नामक एक ही पटल है। इसमें प्रायू इतनी अर्थात् ३२ सागर प्रमारण होती है । ५७८ ] पंचाणुत्तरेसु सव्वत्थ-सिद्धि-सजिदो एक्को चैव पत्थलो । तत्थ विजय' - बइजयंत जयंत श्रपराजिवाणं जहष्णाउयस्स समयाधिय-बत्तीस-सागशेवमुक्कस्सं ते तीससागरोवमाणि । सम्वत्थ सिद्धि विमाणम्मि जहष्णुक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि ॥३३॥ एतिश्रो विसेसो सेसं पुच्वं व थत्तव्वं । एश्रनादगं समतं ॥ ६ ॥ अर्थ - पाँच श्रनुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि नामक एक पटल है। उसमें विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजित विमानोंमें जघन्य आयु एक समय अधिक बत्तीस ( ३२ ) सागरोपम और उत्कृष्ट आयु तैंतीस ( ३३ ) सागरोपम प्रमाण है। सर्वार्थसिद्धि विमानमें जघन्य एवं उत्कृष्ट श्रायु तैंतीस ( ३३ ) सागरोपम प्रमाण है । इतनी विशेषता है, शेष पूर्ववत् कहना चाहिए । इसप्रकार आयुका कथन समाप्त हुआ ॥ ८ ॥ इन्द्रों एवं उनके परिवार देव-देवियों के विरह ( जन्म-मरणके अन्तर ) कालका कथनसर्व्वस इंदाणं, ताण े महादेवि लोयपालाणं । पडिइंदाणं विरहो, उक्कस्सं होदि छम्मासं ॥ ५४५ ।। - अर्थ- सब इन्द्रों, उनकी महादेवियों, लोकपालों और प्रतीन्द्रोंका उत्कृष्ट विरह काल छह मास है ।। ५४५ ।। तेत्तीसामर- सामाणियाण तणुरक्ख-परिस-तिदयाणं । चउ-मासं वर-विरहो, योच्छे' आणीय पहुवीणं ॥ ५४६ ॥ सोहम्मे छ- मुहुत्ता, ईसाणे चउ-मुहुत्त वर- विरहं । णव-दिवस दु-ति-भागो, सणक्कुमारम्भि कप्पम्मि ।। ५४७ ॥ बारस - दिणं ति-भागा, माहिदे पंच-ताल बम्हन्मि । सौदिदिणं महसुषके, सद-दिवस तह सहस्सारे ॥५४८ || १. द. ब. क. ज. ठ. विजयावद्दजयंत जयंत । २. ४ ख ताव । ३. द. व. वाच्छं । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टम महाहियारो संखेज्ज-सवं वरिसा, वर - विरहं आणदादिय- चउक्के । कल्प-गदाणं, एक्कारस-भेद - देवाणं ॥ ५४६ ॥ भणिदं गाथा : ५४९-५५२ ] अर्थ- वायस्त्रिश देवों, सामानिकों, तनुरक्षकों और तीनों पारिषदों का उत्कृष्ट विरह काल चार मास है । अनीक आदि देवों का उत्कृष्ट विरकाल कहते हैं वह उत्कृष्ट विरह (काल) सौधर्म में छह मुहूर्त, ईशान में चार मुहूर्त, सनत्कुमार में तीन भागों में से दो भाग सहित नौ (९३) दिन, माहेन्द्रकल्प में विभाग सहित बारह ( १२ ) दिन, ब्रह्मकल्प में पैंतालीस (४५) दिन, महाशुक में अस्सी (८०) दिन, सहस्रार में सौ दिन और आनतादिक चारकरूपों में संख्यात सौ वर्ष प्रमाण है। यह उत्कृष्ट विरह काल इन्द्र आदि रूप ग्यारह भेदों से युक्त कल्पवासी देवों का कहा गया है ।। ५४६ - ५४६।। नोट- :- लान्तय कल्प के विरह काल को दर्शाने वाली गाथा नहीं है । ecorate- सुराणं, उक्कस्तं अंतराणि पत्तेक्कं । संखेज्ज - सहस्साणि वासा गेवेज्जगे णवण्णं ।। ५५० ।। अर्थ- नौ ग्रंथों में से प्रत्येक में कल्पातीत देवों का उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है ।। ५५० ।। पल्लासंखेज्जं सो' प्रणुद्दिसाणुत्तरेसु जक्कस्सं । सवे अवरं समयं जम्मण' - मरणाण अंतरयं ।। ५५१ ॥ 2 [ ५७९ अर्थ- वह उस्कृष्ट अन्तर अनुदिश और अनुत्तरों में पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । जन्म-मरण का जघन्य अन्तर सब जगह एक समय मात्र है ।। ५५१ ।। मतान्तरसे विरहकाल सु सु ति चउक्सु य, सेसे जणणंतराणि चणम्मि | सत्त-विण पक्ख मासा, बु-चउ छम्मासया 3 कमसो ||५५२|| १. द. ब. क. ज. ऊ. सर । २. व. ब. क. ज ठ जण । ३. ६. ब. क. ज. क. जांतराणि भवणाणि । दि ७ । १५ । मा १ । २ । ४ । ६ । - ( सौधर्मादि) दो, दो, तीन चतुष्कों (चार, चार, चार कल्पों ) में तथा शेष प्रवेयकों श्रादि में जन्म एवं मरण का अन्तर क्रमशः सात दिन एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास प्रमाण है ।। ५५२ ।। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ] तिलोयपणती [ गाथा : ५५३ इय जम्मण-मरणाणं, उक्करसे होदि अंतर-पमाणं । सव्वेसु कप्पेसु, जहण्णए एक्क-समग्रो य ॥५५३॥ पाठान्तरम् । जम्मण-मरणाणंतर-कालो समत्तो ॥६॥ अर्थ-इस प्रकार सब कल्पों में जन्म-मरण का यह अन्तर प्रमारण उत्कृष्ट है । जघन्य अन्तर सब कल्पों में एक समय ही है ।।५५३॥ पाठान्तर । जन्म-मरणके अन्तरकाल का कथन समाप्त हुआ। [ तालिका अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ५५३ ] नाम सब इन्द्र महा देवियाँ लोकपाल प्रतीन्द्र त्रास्त्रश सामानिक तनरक्षक तीनों पारिषद सौधर्म कल्प ईशान कल्प सनत्कुमार कल्प महेन्द्र कल्प ब्रह्म कल्प लान्तव कल्प महाशुक्र कल्प सहस्रार कल्प आनत प्राणत आरण अच्युत नव ग्रैवेयक अनुदिश अनुत्तर } म महाहियारो देव देवियों के जन्म-मरणका अन्तर ( विरह ) काल उत्कृष्ट अन्तर :: ६ मास ४ मास ६ मुहूर्त ४ मुहूर्त {}}, १२ ४५ दिन गाथा नहीं है । ५० दिन १०० दिन संख्यात सौ वर्ष संख्यात हजार वर्ष पल्म के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण मतान्तर से उत्कृष्ट अन्तर अन्तर नाम X सौधर्म ईशान सानत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव कापिष्ट शुक्र - महाशुक्र शतार-सहस्रार आनत प्रारंगत आरण अच्युत नव ग्रैवेयक नव अनुदिश अनुत्तर X X सात दिन सात दिन एक पक्ष एक पक्ष एक मास एक मास दो मास दो मास चार मास छह मास छह मास [ ५८१ जघन्य अन्तर है | अन्तर समय एक सर्वत्र Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ 1 तिलोयपण्णत्ती [ गाथा । ५५४-५५९ सपरिवार इन्द्रों के प्राहार का कालउवहि-उवमाण-जीवी, वरिस-सहस्सेण दिव्य-अमयमयं । भुजदि मणसाहारं, णिरुवमयं तुष्टि-पुट्ठि-करं ॥५५४॥ भयं-एक सागरोपम काल पर्यन्त जीवित रहने वाला देव एक हजार वर्ष में दिव्य, अमृतमय, अनुपम और तुष्टि एवं पुष्टि कारक मानसिक आहार करता है ।।५५४।। जेत्तिय-जलरिणहि-उवमा, जो जीवदि तस्स तेसिएहि च । बरिस-सहस्सेहि हो, पाहारो पणु-दिणाणि पल्लमिदे ॥५५५।। अर्थ-जो देव जितने सागरोपम काल पर्यन्त जीवित रहता है, उसके उतने ही हजार वर्षों में प्राहार होता है। पल्य प्रमाण काल पर्यन्त जीवित रहने वाले देवों के पांच दिन में प्राहार होता है ।।५५५।। परिणइंदाणं सामाणियाण' तेत्तीस-सुर-वराणं च । भोयण-काल-पमाणं, णिय-णिय-इंदाण-सारिच्छे ॥५५६॥ अर्थ-प्रतीन्द्र, सामानिक और प्रायस्त्रिश देवों के प्राहारकाल का प्रमाण अपने-अपने इन्द्रों के सदृश है ।।५५६।। इंद-प्पादि-घउण्हं, देखोग भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाण-परूवण-उधएसो संपहि पणटो ॥५५७।। मर्ष–इन्द्र आदि धार (इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रायस्त्रिश इन ) की देवियों के भोजन का जो काल है उसके प्रमाण के निरूपण का उपदेश इस समय नष्ट हो गया है ।।५५७।। सोहम्मद-दिगिदे, सोमम्मि जमम्मि भोयणाबसरो । सामाणियाण ताणं, पत्तेक्कं पंचवीस-दल-दिवसा ॥५५८।। अर्थ-सौधर्म इंद्र के दिक्पालों में से सोम एवं यम के तथा उनके सामानिकों में से प्रत्येक के भोजन का काल साढ़े बारह ( १२३) दिन है ।।५५८|| तद्देवीणं तेरस-दल-दिवसा होदि भोयणावसरो । वरुणस्स कुबेरस्स य, तस्सामंतारण ऊणपण-पक्खे ॥५५६।। ॥ १५ ॥ १.६.ब.क.ब.ठ. सामाणियाण लोभो। २. द. के.ज. ठ.सारिन्छा । Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५६०-५६४ ] अट्टम महाहियारो [ ५८३ प- --- उन ( सोम एवं यम लोकपाल थोर इनके सामानिक देवों ) को देवियों के आहार का काल साढ़े छह (६३) दिन है और वरुण एवं कुबेर लोकपाल तथा इनके सामानिक देवों के आहार का काल कुछ कम एक पक्ष ( १५ दिन ) है ।। ५५९ ।। पण्णरस-बल-दिपाणि, ताणं देवोण होदि तक्कालो । ईसादि- दिगिदे, सोमम्मि जमम्मि सक्क वरुण समो ॥५६०।। अर्थ-उन ( सौधर्मेन्द्र के वरुण एवं कुबेर लोकपाल और उनके सामानिक देवों ) को देवियों का आहार काल साढ़े सात (७३) दिन है । ईशानेन्द्र के सोम एवं यम लोकपालों का श्राहार काल सौधर्मेन्द्र के वरुण लोकपाल सदृश ( कुछ कम १५ दिन ) है ।। ५६० ।। fierमेrक पक्खं, भोयण-कालो कुबेर-णामस्स । तद्देवीण होदि हु, सामण्यां सोम- देवीणं ॥ ५६१।। । १५ । १५ । अर्थ - ( ईशानेन्द्र के ) कुबेर नामक लोकपाल और उनकी देवियों का तथा सामानिक देवों की देवियों तथा ( यमव ) सोम की देवियों का आहार काल कुछ कम १५ दिन है ।।५६१।। असण-काली, होविं कुबेरादु किचि दिरितो । पमारणं, उवएसो संपहि पट्टो ।।५६२॥ १५. । उमाहार-काल- समलो ॥ १०॥ अर्थ- वरुण लोकपालका आहार काल कुबेरके आहार कालसे कुछ अधिक अर्थात् पन्द्रह (१५) दिन है । शेष ( सानत्कुमार आदि इन्द्र उनके परिवार के ' देव देवियों ) के बाहार कालके प्रमाणका उपदेश इससमय नष्ट हो गया है ।। ५६२ ॥ पण साहार P आहार-काल समाप्त हुआ ।।१०।। देवोंके श्वासोच्छ्वासका कथन - पढमे दिए जुगले, बम्हाविसु चउसु प्राणस - चउक्के | हेट्टिम मज्झिम, उवरिम, गेवेज्जेसु च सेसेस ॥ ५६३ ॥ यि जिय भोयण - काले, जं परिमारणं सुराण पण्णत्ता । तम्मेत मुहुषण, आणापाणान संचारो ॥५६४॥ उसासो समत्तो ।।११॥ - Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ ] तिलोयपण्यत्ती [गाया ! ५६५-५६७ अर्थ-पहले दूसरे युगल, ब्रह्मादि चार और प्रानतादि चार, इन बारह कल्पोंमें, अधस्तन, मध्यम, उपरिम घेवेषकों में तथा शेष ( अनुदिश और अनुत्तर ) विमानों में देवों के अपने-अपने भोजन के काल का जो प्रमाण कहा गया है उसमें उतने प्रमाण मुहूर्त में श्वासोच्छवास का संचार होता है ।।५६३-५६४॥ देवोंके शरीरका उत्सेधदेवाणं उच्छेहो, हत्था - सत्त - छ - पंच - चत्तारि । कमसो हवेदि तत्तो, पसेक्कं हत्थ - दल - हीणा ॥५६॥ ७।६।५।४।३।३। ।२।३।१ अर्ष-देवोंके शरीरका उत्सेध क्रमशः सात, छह, पांच और चार हाथ प्रमाण है, इसके आगे प्रत्येक स्थान पर अधं-अर्ध हाप होन होता गया है ।।५६५।। विशेषार्थ-देवों के शरीर की ऊंचाई सौधर्म कल्प में ७ हाथ, ईशान कल्पमें ६ हाथ, सनत्कुमार में ५ हाथ, माहेन्द्र कल्पमें ४ हाथ, ब्रह्म कल्प से सहस्रार करूप पर्यन्त ३३ हाथ, पानतादि चार करूपोंमें ३ हाथ, अधोवेयकमें २३ हाथ, मध्यम में २ हाथ, उपरिममें १६ हाथ और अनुदिश एवं अनुत्तर विमानों के दयों के शरीर की ऊंचाई एक हाथ प्रमाण है ।। बुस दुस चउसु दुस सेसे सत्तच्छ - पंच - चत्तारि । ततो हत्य - दलेणं, हीणा सेसेस पुष्वं व ॥५६६॥ ७।६।५।४। ।३। ।२।३।१। पाठान्तरम् । अर्थ-देवोंके शरीरकी ऊंचाई दो अर्थात् सौधर्मशानमें ७ हाथ, दो ( सानत्कुमार-माहेन्द्र) में ६ हाथ, चार ( ब्रह्मादि चार ) में ५ हाथ और दो ( शुभ-महाशुक्र ) में ४ हाथ है। शेष कल्पोंमें अर्ध-अर्ध हस्त प्रमाण हीन होता गया है । अर्थात् शतार-सहस्रारमें ३३ हाथ और पानतादि चारम ३ हाथ प्रमाण है । शेष ( कल्पातीत विमानों ) में पूर्व के सदृश अर्थात् अधोग्रेवेयकमें २२ हाथ, मध्यम ० में २ हाथ और उपरिम ३० में १३ है । शेष विमानोंमें पूर्ववत् अर्थात् अनुदिश और अनुत्तर विमानोंमें शरीरका उत्सेध एक हाथ प्रमाण है ।।५६६॥ . पाठान्तर । एवे सहाव • जादा, देहुच्छेहो हुवंति देवाणं । विकिरियाहि ताणं, विचित - मेवा विराजंति ।।५६७॥ उच्छहो गदो ॥१२॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५६६-५७२ ] म महाहियारो [ ५८५ अर्थ - इसप्रकार देवोंके शरीरका यह उत्सेध स्वभावसे उत्पन्न होता है । उनका विक्रियासे उत्पन्न शरीरका उत्सेध नाना प्रकार मोलायमान होता है । हैं ।। ५६६ ।। इसप्रकार उत्सेधका कथन समाप्त हुआ ।। १२ ।। देवायु- बन्धक परिणाम - प्राउन - बंधण - काले, जलराई तह य सरिसा हलिंदराए, कोपह प्यहुवीण उदयस्मि ॥ ५६८ ॥ नोट - ताडपत्र खण्डित होने से गाथा का अभिप्राय बोधगम्य नहीं है । - - एवं वह परिणामा, मणुवा- तिरिया य तेसु कप्पेसु । णिय जिय जोगत्थारणे, ताहे बंधंति देवाऊ ||५६६ ।। अर्थ - इस प्रकार के परिणामवाले मनुष्य और तिथंच उन-उन करूपों की देवायु बाँधते सम-दम अमरियम- जुवा, पिडा णिम्ममा गिरारंभा । ते बंधते भाऊ, इंदादि महद्धियादि - पंचाणं ॥ ५७० ॥ अर्थ - जो शम ( कषायों का शमन ), दम ( इन्द्रियों का दमन ), यम ( जीवन पर्यन्त का त्याग ) और नियम यादि से युक्त, दिण्ड अर्थात् मन, वचन और काय को वश में रखने वाले, निर्ममत्व परिणाम वाले तथा आरम्भ आदि से रहित होते हैं वे साधु इन्द्र आदि की आयु अथवा पाँच अनुत्तरों में ले जाने वाली महद्धिक देवों की श्रायु बाँधते हैं ।। ५७० || सष्णाण तवेहि-जुदा, मद्दव - विणयादि संजुदा केई । गारव - लि-सल्ल - रहिदा, गंधंति महद्धिग-सुराउं ॥ ५७१ ॥ अर्थ सम्पन्न, तीन - सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् तप से युक्त, मादंव और विनय आदि गुणों ( ऋद्धि-गारव, रस- गारव और सात ) गारव तथा तीन ( मिथ्या, माया और निदान ) शल्यों से रहित कोई-कोई ( साधु ) महा ऋद्धिधारक देवों की आयु बाँधते हैं ।।५७१ ।। ईसो मच्छर-भावं, भय लोभ-वसं च जेण वच्चति । विवि-गुणा वर-सीला, बंधंति महद्धिग-सुराणं ।। ५७२ ।। अर्थ- जो ईर्षा, मात्सर्यभाव, भय और लोभ के वशीभूत होकर वर्तन नहीं करते हैं तथा विविध गुण और श्रेष्ठ शील से संयुक्त होते हैं, वे ( श्रमण ) महा ऋद्धि धारक देवों की आयु बांधते हैं ।।५७२ || Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] तिलोय पण्णत्ती कंत्रण-पासाणेसु सुह-बुक्सु पि मित-ग्रहिसु' । 3 समणा समाण-भावा, बंधति महद्धिग- सुराउं ||५७३ ॥ w अर्थ -- स्वर्ण- पाषाण, सुख-दुःख और मित्र शत्रु में समता भाव रखने वाले श्रमण महाऋद्धिधारक देवों की आयु बांधते हैं ।। ५७३|| देहेसु णिरवेवला, णिग्भर- बेरग्ग-भाष संजुत्ता | बंधंति महद्धिग-सुराउं ॥ ५७४ ।। रागादि-बोस- रहिवा, अर्थ -- शरीर से निरपेक्ष, अत्यन्त वैराग्य भावों से युक्त और रागादि दोषों से रहित ( श्रमण ) महा ऋद्धिधारक देवों की आयु बांधते हैं ।।५७४ ।। उत्तर - मूल- गुरसु, समिवि सुदे सम्झाण- जांगे । निवचं पमाव रहिदा, बंधंति महद्धिग- सुराउ' ।। ५७५।। [ गाथा : ५७३-५७८ अ - जो श्रमण भूल और उत्तर गुणों में ( पाच ) समितियों में, महाव्रतों में धर्म एवं शुक्लध्यान में तथा योग आदि की साधना में सदैव प्रमाद रहित वर्तन करते हैं वे महा ऋद्धिधारक देवों की प्रा बांधते हैं ।। ५७५ ।। वर-म- घर - पत्ते, श्रीसह प्राहारमभय- विष्णाणं । बाणा' - 'बंधंति देवा ॥५७६ ।। अर्थ- जो उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रों को श्रौषधि, आहार, अभय और ज्ञान दान [ देते हैं वे मध्यम ऋद्धिधारक ] देवों की आयु बांधते हैं ।। ५७६ ।। लज्जा मज्जादाहिं, मक्किम भावेहि संजुदा केई । उवसम-पहुवि समग्गा, बन्धंसे मज्झिमद्धिक-सुराउं ॥ ५७७॥ - कई मध्यम ऋद्धि-धारक देवों की आयु बांधते हैं ।। ५७७ ॥ अर्थ – लज्जा और मर्यादा रूप मध्यम भावों से युक्त तथा उपशम प्रभृति भावों से संयुक्त पचलिद सारणाणे, चारिते बहु-किलिङ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५७६-५८४ ] अट्टम महाहियारी सबल-चरिता कूरा, उम्मग्गत्था - निदाण - कद - भावा । मंद - कसायाणुरदा, बंधते' 'ग्रप्वइद्धि - असुराउं ॥ ५७६ ॥ पर्थ - दूषित चारित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भाव सहित और मन्द कषायों में अनुरक्त जीव प्ररुपद्धिक देवोंकी आयु बांधते हैं ।। ५७६ ।। देवोंमें उत्पद्यमान जीवोंका स्वरूप --- वसपुव्व-धरा सोहम्म-पहृदि सम्बद्धसिद्धि परियंतं । चोद्दसपुव्य धरा तह, लंत कप्पावि वच्चते ।। ५८० ।। · जाती हैं ।।५-२।। अर्थ- दसपूर्व धारी जीव सौधर्मकल्पसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त तथा चौदह पूर्वधारी लान्तव कल्पसे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जाते हैं ।।५८० ॥ सोहम्मादी - श्रच्चद परियंत जंति देसबब-जुत्ता । च - विह-बाण-पट्टा, अकसाया पंचगुरु भत्ता ॥५८१॥ - अर्थ - चार प्रकारके दानमें प्रवृत्त, कषायोंसे रहित एवं पंच परमेष्ठियोंको भक्तिसे युक्त, ऐसे देवाव्रत संयुक्त जीव सौधर्म स्वर्गसे अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं ।। ५८१ ॥ सम्मत्त - णाण-अज्जव' - लज्जा-सीला बिएहि परिपुष्णा । जायंते इत्थीओ, जा श्रजुद कप्प परियंतं ॥ ५६२ ॥ - - [ ५८७ अर्थ – सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शोलादिसे परिपूर्ण स्त्रियाँ अच्युत कल्प पर्यन्त जिण- लिंग धारिणो जे, उधिकट्ठ- "तवस्समेण संपुष्णा । ते जायंति श्रभव्या, उथरिम गेवेज्ज परियंतं ॥१५८३॥ अर्थ- जो प्रभव्य जीव जिन-लिङ्गको धारण करते हैं और उत्कृष्ट तपके श्रमसे परिपूर्ण हैं वे उपरि-वेक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।। ५८३ ।। परदो चरण " - वद-तव- दंसण णाण-चरण- संपण्णा । णिग्गंथा जायंते, भव्वा सम्यट्टसिद्धि परियंतं ॥ १८४ ॥ १५. ब. वखते । २. ब. क. ज. ठ. अपदि अ । ३. ८. क. छ. अज्जसीला, ब. अ. धज्जावसीला । ४. व. ब. क. ज. तवासमेण । ५. व. ब. ज. ठ. अंबतपद 1 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५६५-५८९ अर्थ - पूजा, व्रत, तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे सम्पन्न निर्ग्रन्थ भव्य जीव इससे ( उपरिम ग्रैवेयक से ) ग्रागे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।। ५८४ ।। चरका परिवज्ज-धरा, मंद - कसाया पियंवदा केई । कमसो भावण पहुवी, जम्मते बम्ह कप्पंतं ।। ५८५ ।। । अर्थ - मन्द- कषायो एवं प्रिय बोलने वाले कितने ही चरक ( चार्वाक ) ( और परिव्राजक क्रमशः भवनवासियोंको आदि लेकर ब्रह्मकल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं जे पंचेंद्रिय - सिरिया, सण्णी हु श्रकाम - णिज्जरेण जुदा । मंद कसाया केई, अंति' सहस्सार परियंतं ।।५८६ ।। - तणुदंडावि सहियाजीबा जे अमंद-कोह- जुदा | कमसो भावण-पहुदी, केई जम्मंति अच्चुदं जाब ।।५८७ ।। साघु विशेष ) अर्थ- जो कोई पचेन्द्रिय संज्ञी तिर्यञ्च श्रकाम-निर्जरासे युक्त और मन्द कषायी हैं, वे सहस्रार कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।।५८६ ।। ५८५ ।। अर्थ- जो तनुदण्डन अर्थात् कायक्लेश आदि सहित और तीन क्रोध से युक्त हैं ऐसे कितने ही श्राजीवक साधू क्रमशः भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्गं पर्यन्त जन्म लेते हैं ।।५८७ || था ईसाणं कप्पं, उत्पत्ती होवि देव-देवीणं । तप्परषो उम्भूदी, देवाणं केवलाणं पि ॥ १६६ ॥ | अर्थ – ईशान कल्प पर्यंन्त देवों और देवियों ( दोनों ) की उत्पत्ति होती है । इससे भागे केवल देवों की ही उत्पत्ति है ।।५८८ ॥ १. द. व. क. अ. उ. जाव । २. द. ब. क ज ठ बंध सम्मत्ता । ईसाण संतवच्चुद कप्पंतं जाय होंति कंदप्पा | feforfent अभियोगा, गिय-कप-जहष्ण ठिदि-सहिया ॥ १६६ ॥ एयमायुग-बंध" समत्तं ॥ अर्थ- कन्दर्प, किरिषिक और अभियोग्य देव अपने-अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमशः ईशान, लान्तय और अच्युत कल्प पर्यन्त होते हैं ।। ५५९ ।। इसप्रकार आयु बन्ध का कथन समाप्त हुआ ।। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ५९०-५६४ ] अट्ठमो महायिारो [ ५८१ उत्पत्ति समय में देवों की विशेषताजायते सरलोए. उववारपरे महारिदमयणे । जादा' य मुहुत्तेणं, छप्पज्जत्तीसो पार्वति ।।५६०।। अर्थ-ये देव सुरलोक के भीतर उपपादपुर में महाध शय्या पर उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होने के पश्चात् एक मुहूर्त में ही छह पर्याप्तियाँ भी प्राप्त कर लेते हैं ।।५९०।। णस्थि गह-केस-लोमा, ण चम्म-मंसा ण लोहिद-वसाओ । गट्ठी ण मुत्त-पुरीसं, ण सिराओ देव-संघडणे ॥५६१॥ अर्प-देवों के शरीर में न मख, केश और रोम होते हैं; न चमड़ा और मांस होता है; न रुधिर और चर्बी होती है; न हड्डियां होती हैं; न मल-मूत्र होता है और न नसें ही होती हैं ।।५९१।। वष्ण-रस-गंध-फासं, अइसय-वेगुब्ध दिय-बन्धादो । गेहदि देवो बोद्दि, ? उचिद-कम्माणु-भावेणं ॥५६२॥ प्रम-संचित ( पुण्य ) कर्म के प्रभाव से और अतिशय वैक्रियिक रूप दिव्य बन्ध होने के कारण देव उत्तम-वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श ग्रहण करते हैं ।।५१२॥ उप्पण्ण-सुर-विमाणे, पुथ्वमणग्याडिदं कवाड-जुर्ग । उग्घडदि तम्मि काले, पसरदि आणंद-भेरि-रषं ॥५६३॥ एवमुप्पत्ती गदा ॥ अर्थ-देव विमान में उत्पन्न होने पर पूर्व में अनुद्घाटित ( बिना खोले ) कपाट-युगल खुलते हैं और फिर उसी समय आनन्द भेरी का शब्द फैलता है ।।५६३।। इसप्रकार उत्पत्ति का कथन समाप्त हुआ ।। भेरी के शब्द श्रवण के बाद होने वाले विविध क्रिया-कलाप सोदूरण भेरि-सई, जय जय णंद त्ति विविह-घोसेणं । एंति परिवार-देवा, देवीप्रो रच-हिदयाभो ॥५९४॥ प्रर्ष-भेरी का शब्द सुनकर अनुराग युक्त हृदय वाल परिवारों के देव और देवियां 'जय जय, नन्द' इसप्रकार के विविध शब्दोच्चार के साथ आते हैं ।।५९४।। १. ६.ब. क. ज. . जाजा य । २. द. ब. होदिर बाधांघि, क. अ. स. गेहेदि । Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५९५-६०० वायति किन्धिस-सुरा, जयघंटा पह-मद्दल-प्पहदि । संगीय - णच्चपाई, पप्पव - देवा पकुवंति ॥५६॥ अर्थ-किल्विष देव जयघण्टा, पटह एवं मर्दल प्रादि बजाते हैं और पप्पथ (?) देव संगीत एवं नृत्य करते हैं ॥५६॥ देवी - देव - समाज, बणं तस्स कोदुगं होवि । तावे कस्त विभंगं, कस्स वि प्रोही फुरदि गाणं ॥५४६।। अर्थ-देवों और देवियों के ममह देखकर उस देव को कौतुक होता है। उस समय किसी ( देव ) को विभङ्ग और किसी को अबधिज्ञान प्रगट होता है ।५९६।। जादूरण देवलोयं, अप्प-फलं जावमेवभिदि केई । मिच्छाइट्ठी देवा, गेण्हंति विसुद्ध-सम्मत्तं ॥५६७॥ अर्ष-अपने ( पूर्व पुण्यके ) फल से यह देवलोक प्राप्त हुआ है, इस प्रकार जानकर कोई मिथ्यादृष्टि देव विशुद्ध सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं ।।५६७।। तादे देवी-णिवहो, प्राणंदेणं महाविभूवीए । एवाणं देवाणं भरणं' सेसं पहिलू-मणे ॥५६८।। प्रर्थ-फिर देवी-समूह आनन्द पूर्वक हर्षित मन होकर महाविभूति के साथ इन देवों का भरण-पोषण करते हैं ।।५९८।। जिन-पूजा का प्रक्रम-- जिण-पूजा-उज्जोगं, कुणंति केई महाविभूदीए । केई पुखिल्लारणं, देवारणं बोहण • वसेणं ॥५६॥ अर्ष-कोई देव महाविभूति के साथ स्वयं ही जिनपूजा का उद्योग करते हैं और कितने ही देव पूर्वोक्त देवों के उपदेश वश जिन-पूजा करते हैं ।।५९९॥ कादण दहे पहाणं, पविसिय अभिसेय-मंडवं दिव्यं । सिंहासणाभिरूढं, देवा कुवंति अभिसेयं ॥६००।। अर्थ-द्रह में स्नान करके दिव्य अभिषेक-मण्डप में प्रविष्ट हो सिंहासन पर आरूढ हुए उस नवजात देवका अन्य ( पुराने ) देव अभिषेक करते हैं ॥६००।। १. ६. क. ज. ठ. भरति । २. ब. क. कुन्दति । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६०१-६०७ ] अट्टम महाहियारो सरसालं पविसिय वर- रयण- विभुसणाणि दिव्याणि । गहिण परम-हरिसं, भरिदा कुठवंति णेपत्थं ॥ ६०१ || अर्थ - भूषणशाला में प्रवेश कर और दिव्य उत्तम रत्न-भूषणों को लेकर ( वे ) उत्कृष्ट हर्ष से परिपूर्ण हो ( उसकी ) वेषभूषा करते हैं ।। ६०१ ।। ततो ववसायपुरं पविसिय श्रभिसेय- विश्व - पूजाणं । जोगाई वाई, गेव्हिय परिवार संजुता ॥१६०२ ॥ पच्चत-चित्त-धया, घर-चाभर चाय छत्त-साहिल्ला । म्भिर - भति-पयडा, वच्चंति जिणिद भवाणि ।।६०३ ॥ अर्थ - तत्पश्चात् वे ( नवजात ) देव व्यवसायपुर में प्रवेशकर अभिषेक और पूजा के योग्य दिव्य द्रव्यों को ग्रहणकर परिवार से संयुक्त होकर अतिशय भक्ति में प्रवृत्ति कर नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं सहित, उत्तम चैवर एवं सुन्दर छत्र से शोभायमान जिनेन्द्र भवन में जाते हैं ।।६०२-६०३ ॥ दट्ठूण जिणिदपुरं वर-मंगल- तूर-सह- हलबोलं । देवा देवी सहिदा, कुच्वंप्ति' पवाहिणं पणदा २६०४ ॥ अर्थ- देवियों सहित वे देव उत्तम मंगल-वादित्रों के शब्द से मुखरित जिनेन्द्रपुर को देखकर नम्र हो प्रदक्षिणा करते हैं ।। ६०४ ।। [ ५६१ छत्तत्तय सिंहासन- भामण्डल - घामरादि चारुणं । जिनपरिमाणं पुरदो, जय-जय सद्द पकुण्वन्ति ।।६०५ || अर्थ- पुनः वे देव तीन छत्र सिंहासन, भामण्डल और चामरादि से ( संयुक्त ) सुन्दर जिन - प्रतिमाओं के आगे जय-जय शब्द उच्चरित करत हैं || ६०५ ।। थोण युदि सहि, जिंगिद-पडिमा भत्ति-भरि-मणा । एवाणं श्रभिसे, ततो कुवंति पारंभं ||६०६ ॥ 1 अर्थ-वे देव भक्तियुक्त मन से संकड़ों स्तुतियों द्वारा जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुति करने के पश्चात् उनका श्रभिषेक प्रारम्भ करते हैं ।। ६०६ ।। खीरद्धि-सलिल- पूरिद-कंचरण-कलसेहिं ग्रड सहस्सेहि । देवा जिणाभिसेयं महाविभूषीए कुध्यति ॥६७॥ १. क. ज. द. कुरति । Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोय पण्णत्ती [ गाया । ६०-६१३ अर्थ-वे देव क्षीरसमुद्र के जल से पूर्ण एक हजार आठ सुवर्ण कलशों के द्वारा महाविभूति के साथ जिनाभिषेक करते हैं ||६०७ || ५९२ ] यज्जते दिव्बेस मद्दल- जयघंटा - पडह- काहलादीसु" । तूरेसु ते जिण-पूजं पकुवंति ॥ ६०८ || " अर्थ – मल, जयघण्टा, पटह और काहल आदिक दिव्य वादित्रों के बजते रहते ये देव जिन पूजा करते हैं ।। ६०८ || भिंगार कलस - वपण छत्तत्तय खमर पहुवि बहिं पूजं काढूण तदो, जल-गंधावीहि अच्चति ॥ ६०६ || धर्म ---वे देव भृङ्गार, कलश, दर्पण, तीन छत्र और नामरादि द्रव्यों से पूजा कर लेने के पश्चात् जल-गन्धादिक से अन करते हैं ।। ६० ।। तो हरिसेण सुरा, णाराविह-गाडयाई दिव्वाइं । बहु-रस-भाव- जुवाई, णच्चति विचित्त-भंगी ।।६१० ॥ अर्थ - तत्पश्चात् वे देव हर्षपूर्वक विचित्र शैलियों से नाना रसों एवं भावों से युक्त नाना प्रकार के दिव्य नाटक करते हैं ।।६१० ।। सम्माइट्ठी देवा, पूजा कुठवंति जिणवराण सया । कम्मण णिमितं, म्भिर भत्तीए भरिव - मरणा ।। ६११॥ अर्थ- सम्यग्दृष्टिदेव कर्म-क्षयके निमित्त सदा मनमें अतिशय भक्ति पूर्वक जिनेन्द्रों की पूजा करते हैं ।। ६११।। मिच्छाइट्ठी देवर, णिचं प्रचंति जिनवर-पडिमा । कुल- देवदा इअ फिर, मण्णंता अण्ण-बोहण-वसेणं ॥ ६१२ ॥ अर्थ - मिथ्यादृष्टि देव जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं अन्य देवों के सम्बोधन से 'ये कुल देवता हैं' ऐसा मानकर निश्य ।।६१२ ।। देवों का सुखोपभोग--- इय पूजं काढूणं, पासादेसु लिएसु गंतूर्णं । सिंहासनाहिस्ता, सेविते सुरेहि देविता ।।६१३ ।। १. द. ब. के. ज. ठ. कालसहिदेसु । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमी यदाहियारो [ ५९३ अर्थ - इसप्रकार पूजा करके और अपने प्रासादों में जाकर वे देवेन्द्र सिंहासन पर आरूढ़ होकर देवों द्वारा सेवे जाते हैं ।। ६१३ ।। गाथा ६९४ - ६१९ / बहुविह विगुणाहि लावण्ण-विलास सोहमाणाहि । २ रवि - करण कोविवाह, वरच्छ राहि रमंति समं ॥ ६१४ || - अर्थ-वे इन्द्र बहुत प्रकारकी विक्रिया सहित, करने में चतुर ऐसी उत्तम अप्सराओंके साथ रमण करते हैं ।। लावण्य - विलाससे शोभायमान और रति ६१४ । । वीणा - वेणु कुणीश्रो, सतरसेहि विभूसिवं गोवं । ललियाई णचचणाई, सुरपंति पेच्छति सयल सुरा ।। ६१५।। - समस्त देव वीणा एवं बांसुरीकी ध्वनि तथा सात स्वरोंसे विभूषित गीत सुनते हैं और विलासपूर्ण नृत्य देखते हैं ।। ६१५ ।। चामीयर - रयणमए, देवा देवीहि समं रमंति विश्वम्मि सुगंध-धूवादि-वासिदे विमले । - - पर्थ उक्त देव सुवणं एवं रत्नोंसे निर्मित और सुगन्धित धूपादिसे सुवासित विमल दिव्य प्रसाद में देवियोंके साथ रमरण करते हैं ।।६१६ ।। संते प्रोहीणाणे, अण्णोष्णुप्पण्ण-पेम-मूढ- *- मणा । कामंधा गद कालं देवा देवीश्री ण विदंति ।। ६१७॥ 1 पासावे ।।६१६।। अर्थ - अवधिज्ञान होनेपर परस्पर उत्पन्न हुए प्रेम में मुद्र-मन होनेसे में देव और देवियाँ कामान्ध होकर बीतते हुए कालको नहीं जानते हैं ।। ६१७ || - 9 गन्भावयार - पहुविसु, उत्तर - देहा सुराण गच्छति । जम्मण ठाणेसु सुहं, मूल सरीराणि चेति ॥ ६१८ || अर्थ - गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवोंके उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर सुख पूर्वक जन्म स्थानों में स्थित रहते हैं ।। ६१८ || - वरि विसेसो एसो, सोहम्मीसाण जाद देवीणं । ति मूल देहा, यि जिय कप्पामराण पासम्मि ।। ६१६॥ - १. द. वरदा २. ८. ब. वराह । ३. द. व. झीओ । ४. ६. ब. क. ज. द. मूल ५ द ब रंभाधयार । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ ] तिलोयपण्णसी [ गाथा : ६२०-६२२ सह-पख्वणी समता ॥ प्रर्म-विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्पमें उत्पन्न हुई देवियोंके भूल शरीर अपनेअपने कल्पके देवोंके पास जाते हैं ॥६१९॥ सुख प्ररूपणा समाप्त हुई। तमस्कायका निरूपणअरणवर-दीव बाहिर-जगवीवो जिणवरुत्त-संखाणि । गंतूण जोयणाणि, अरुण - समुदस्स पणिधीए ॥६२०।। एक्क-दुग-सत्त-एक्के, अंक-कमे जोयणाणि उरि णहं । गंतणं वलएणं, चेदि तमो 'तमक्काओ ।।६२१॥ प्रथं-( नन्दीश्वर समुद्र के आगे ९३) मरुणवरद्वीपको बाह्य जगतीसे जिनेन्द्रोक्त संख्या प्रमाण योजन जाकर अरुण समुद्रके प्राधि भागमें अंक-क्रमसे एक, दो, सात और एक अर्थात् एक हजार सात सौ इक्रीस ( १७२१) योजन प्रमाण ऊपर आकाशमें जाकर बलयरूपसे समस्काय ( अन्धकार ) स्थित है ॥१२०.६२१।। आदिम-घउ-कप्पेसु, देस- वियप्पाणि तेसु कादूर्ण । उवरि-गद-बम्ह-कप्प -प्पदमिदय-पणिधि-तल पत्तो ।।६२२॥ अर्थ- यह तमस्काय ) आदिके चार कल्पों में देश-विकल्पोंको अर्थात् कहीं-कहीं अन्धकार उत्पन्न करके उपरिगत ब्रह्म-कल्प सम्बन्धी प्रथम इन्द्रकके प्रणधितल भागको प्राप्त हुमा है ॥२२॥ विशेषार्थ-नन्दीश्वर समुद्रको वेष्टित कर नौवां अरुणवर द्वीप है और अरुणवर द्वीपको वेष्टितकर नौवाँ अरुणवर समुद्र है । मण्डलाकार स्थित इस समुद्रका व्यास १३१०७२००००० योजन प्रमाण है। अरुणवर द्वीपको बाह्य जगती अर्थात् अरुणवर समुद्रकी अभ्यन्तर जगसी से १७२१ योजन प्रमाण दूर जाकर प्राकाशमें अरिष्ट नामक अन्धकार वलयरूपसे स्थित है और प्रथम चार कल्पोंको ( एकदेश ) आच्छादित करता हुआ पोचवें ब्रह्म कल्पमें स्थित अरिष्ट नामक इन्द्रकके तल भागमें एकत्रित होता है । उस जगह इसका आकार मुर्गेको कुटो ( कुडला ) के सदृश होता है । अथवा जैसे १. ६. ब. क. ज. ह. तमंकादि। २. द.प. क, ज. ठ, कप्पं पदमिदा य परगचितल पंधे। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६२३ - ६२८ अमो महाहियारो [ ५९५ भूसा भरनेकी बुरजी नीचे गोल होकर क्रमशः ऊपरको फेलकर बढ़ती हुई पुनः शिखाऊरूप ऊपर जाकर घट जाती है, उसीप्रकार इस अन्धकार स्कन्धकी रचना है । इस अरिष्ट विमानके तल भागसे अक्ष-पाटकके आकार वाली अथवा यमका वेदिका सदृश होता हुआ यह तम आठ श्रेणियों में विभक्तल हो जाता है : मृदंग सदृश आकारवाली ये तम पक्तियाँ चारों दिशाओं में दो-दो होकर विभक्त एवं तिरछी होती हुई लोक-पर्यन्त चली गईं हैं। उन ग्रन्धकार पंक्तियों के प्रन्तरालमें ईशानादि विदिशाओं और दिशाओं में सारस्वत प्रादिक लोकान्तिक देवगर अवस्थित रहते हैं । भोट- यह विशेषार्थ लोक विभाग और तत्त्वार्थ श्लोकवातिकालंकार पंचम खण्ड के आधार पर लिखा है । मूलम्मि रुंद परिही, हवेबि संखेज्ज-जोयणा तस्स | मम्मि असंखेज्जा, उर्वार तत्तो प्रसंखेज्जो ||६२३ ॥ अर्थ-उस ( तम ) की विस्तार परिधि मूल में संख्यात योजन, मध्य में असंख्यात योजन और इससे ऊपर ख्यात योग है । संखेज्ज - जोयणाणि, तमकायाबो दिसाए पुरुवाए । गच्छ संडस मुलायारन्धरो दविखणुत्तरायामी ।। ६२४ ।। णामेण किण्हराई, पच्छिमभागे वि तारियो' य तमो । दक्षिण - उत्तर भागे, तम्मेत्तं गंधुव वीह-चउरस्सा ||६२५॥ एक्केषक - किण्हराई, हवेवि पुव्वावर द्विदायामा 1 एवाओ राजीओ, लियमा ण विवंति अण्णोष्णं ॥ ६२६॥ अर्थ - तमस्कायसे पूर्व दिशा में संख्यात योजन जाकर षट्कोण आकारको धारण करने वाला और दक्षिण-उत्तर लम्बा कृष्णराजी नामक तम है। पश्चिम भागमें भी वैसा ही अंधकार है । दक्षिण एवं उत्तर भाग में उतनी प्रमारण आयत, चतुष्कोण और पूर्व-पश्चिम आयामवाली एक-एक कृष्ण-राजी स्थित है। ये राजियाँ नियमसे परस्पर एक दूसरेको स्पर्श नहीं करती हैं | 3 संखेज्ज-जोयणाणि, राजोहितो दिसाए पुथ्याए । तूणकभंतरए राजी किण्हा य वीह चउरस्सा ||६२७|| उत्तर- वषिखण- दोहा, विखण-राजि * ठिवाय छिबिणं । पच्छिम बिसाए उत्तर-राजि छिविदूण होदि अण्ण-समो ।। ६२८ ।। १. द. व. क. ज ठ सबंस । ३. द. ब. मिखाए । २. द. ब. क. ज. 3. तारिसा । ४. व. ब. क. ज ठ. राजो रिदो गमिसिर । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ ] तिलोय पण ती [ गाथा । ६२६-६३५ प्रम-राजियों से संख्यात योजन पूर्व दिशा में अभ्यन्सर भाग में जाकर पायत-चतुरका और उस र-दक्षिण दीर्घ कृष्ए-राजी है जो दक्षिण राजी को छूती है । पश्चिम दिशा में उत्तर राजी को छूकर अन्यतम है ॥६२७.६२८॥ सखेज्ज-जोयाणा राजी शिवबाद मालाए । ११५ . मंतुणभंतरए, एक्कं चिय किण्ह' • राजियं होई ॥६२६ ।। अर्ष-राजी से दक्षिण दिशा में आभ्यन्तर भाग में संख्यात योजन जाकर एक ही कृष्ण राजी है ॥६२९।। बोहेण छिविवस्स य, जव-खेत्तस्सेक्क-भाग-सारिन्छा। पच्छिम बाहिर-राजि, छिविणं सा दिवा' णियमा ॥३०॥ प्रर्ष-दीर्घता की ओर से छेदे हुए यवक्षत्र के एक भागके सदृश वह राजी नियम से । पश्चिम बाह्य राजी को छूकर स्थित है ।।६३०॥ पुच्चावर-आयामो, सम-काय दिसाए होदि तप्पट्टी। उत्तर-भागम्मि तमो, एक्को छिविण पुष्व-बहि-राजो ॥६३१॥ अर्थ-( दरिण ) दिशा में पूर्वापर आयत तमस्काय है। उत्तर भाग में पूर्व बाह्य राजी को छूकर एक तम है ।।६३१।। कृष्ण-राजियों का अल्पबहत्त्वअरुणवर-धोव-बाहिर-जगवीए तह यह सम-सरीरस्स । विच्चाल पहयलादो, अभंतर-राजि-तिमिर-कायाणं ॥६३२॥ विच्चालं' यासे, तह संखेज्जगुणं हवेवि शिपमेणं । सं माणाको रणेयं, अभंसर-राजि-संख-गुण-जुत्ता ।।६३३॥ अम्भंतर-रानीयो, अहिरेग-जुदो हवेवि तमकानो। अभंतर - राजोदो, बाहिर • राजो 4 किंचूणा ॥६३४॥ बाहिर-राजोहितो, बोण्णं राजीण जो दुविच्चालो। प्रविरित्तो इय अप्पाबहुवं होवि हु चत-दिसासुपि ॥६३५।। -- --- - १. द. म. म. ज. है. रिण । २.६.५.क. अ. द. रिक्षा। ३. प.बक. ज. ४. विषेसायास । --. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ६३६-६३७ ] मो महाहियारो [ પૂ૨૭ अर्थ - अवरणवर द्वीप की बाह्य जगती तथा तमस्काय के अन्तराल से अभ्यन्तर राजी के तमस्कायों का अन्तराल - प्रमाणु नियम से संख्यात मुरण है । इस प्रभारण से अभ्यन्तर राजी संख्यातगुणी है । श्रभ्यन्तर राजी से अधिक तमस्काय है । अभ्यन्तर राजो से बाह्य राजी कुछ कम है । बाह्य-राजियों से दोनों राजियों का जो अन्तराल है यह अधिक है । इस प्रकार चारों दिशाओं में भी अल्पबहुत्व है ||६३२-६३५।। एवम्मि तमिस्सेदे, विहरते अप्प-रिद्धिया देवा । दिम्मूढा वच्वंते, माहत्येणं' महद्धिय सुराणं ॥ ६३६ ॥ - अथ - इस अन्धकार में बिहार करते हुए जो श्रपद्धिक देव दिग्भ्रान्त हो जाते हैं वे महद्धिक देवों के माहात्म्य से निकल पाते हैं || ६३६ || विशेषार्थ - काजल सदृश यह अन्धकार पुद्गल की कृष्ण वर्ण की पर्याय है । जैसे सुमेरु, कुलाचल एवं सूर्य-चन्द्र के बिम्ब आदि पुद्गल को पर्यायें अनादि निधन हैं, उसी प्रकार यह अन्धकार का पिण्ड भी अनादि निधन है । जैसे उष्णता शीत-स्पर्शकी नाशक है परन्तु शीत पदार्थ भी उष्णता को समूल नष्ट कर सकता है । वैसे ही कतिपय अन्धकार तो प्रकाशक पदार्थ से नष्ट हो जाते हैं किन्तु कुछ अन्धकार ऐसे हैं जिन्हें प्रकाशक पदार्थं ठीक उसी रंग रूप में प्रकाशित तो कर देते हैं किन्तु नष्ट नहीं कर पाते । जैसे मशाल के ऊपर निकल रहे काले धुएं को मशाल की ज्योति नष्ट नहीं कर पाती अपितु उसे दिखाती ही है । उसी प्रकार श्ररुणसमुद्र स्थित सूर्य-चन्द्र काली स्याही को धूल सदृश फेंक रहे इस गाढ़ अन्धकार का बालाग्र भी खण्डित नहीं कर सकते अपितु काले रंग की दीवाल या काले वस्त्र सदृश मात्र उसे दिखा रहे हैं || ( तत्स्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार पंचम खण्ड से ) इस घोर अन्धकार में विहार करते हुए अल्पदिक देव जब दिग्भ्रान्त हो जाते हैं तब वे महक देवों की सहायता से ही निकल पाते हैं । लोकान्तिक देवोंका निरूपण -- राजीणं विरुवाले, संखेज्जा होंति बहुविह· विमाणा । एदेसु सुरा जादा, खाया लोयंतिया रणाम ।।६३७।। अर्थ-राजियों के अन्तराल में संख्यात बहुत प्रकारके विमान हैं। इनमें जो देव उत्पन्न होते हैं वे लौकान्तिक नाम से विख्यात हैं ||६३७॥ १. य. ब. के. ज. य. वाहणं । २. ६. ब. क. ज. ट. बावा 1 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६३८-६४३ संसार-बारिरासी, 'जो लोभो तस्स होति अंतम्मि । जम्हा लम्हा एबे, देवा लोयंतिय सि गुणणामा ॥६३८॥ प्रयं-संसार समुदरूपी जो लोक है क्योंकि वे उसके अन्त में हैं इसलिए ये देव 'लोकान्तिक' इस सार्थक नामसे युक्त हैं ॥६३८।। ते लोयंतिय - देवा, अट्ठसु राजीसु होंति' विच्चाले । सारस्सव-पदि तहा, ईसाणादिअ-विसासु चउवासं ॥६३६॥ - २४। अर्थ-वे सारस्वत आदि लौकान्तिक देष पाठ राजियों के अन्तराल में हैं। ईशान आदिक दिशाओं में चौबीस देव हैं ।।६३९॥ पुथ्वप्तर-विभाए, घसंति सारस्सदा सुरा णिच् । आइच्चा पुयाए, अणल - दिसाए वि वहि - सुरा ॥६४०॥ बक्खिरण-विसाए अरुणा, णइरिदि-भागम्मि गद्दतोया य । पच्छिम-दिसाए तुसिदा, अव्वाबाधा समोर-विभाए ॥६४१॥ उसर - दिसाए रिट्ठा, एमेते अट्ट ताण विच्चाले । बो - हो हवंति 'अण्णे, देवा तेसु इमे रणामा ॥६४२॥ प्रर्ष-पूर्व-उत्तर ( ईशान ) दिग्भागमें सर्वदा सारस्वत देव, पूर्व दिशामें आदित्य. अग्नि दिशामें वह्नि देव, दक्षिण दिशामें अरुण, नैऋत्य भागमें गर्दतोय, पश्चिम दिशामें तुषित, वायु दिग्भागमें अव्याबाध और उत्तर दिशा में अरिष्ट, इस कार ये आठ देव निवास करते हैं। इनके अन्तराल में दो-दो अन्य देव हैं। उनके नाम ये हैं ॥६४०-६४२।। सारस्सद - रणामाणं, प्राइच्चाणं सुराण विच्चाले। प्रणलाभा सूराभा, देवा चेट्ठति णियमेणं ॥६४३॥ अयं-सारस्वत और आदित्य नामक देवों के अन्तराल में नियमसे अग्न्याभ और सूर्याम देव स्थित हैं ।। ६४३॥ - - १. द. ब. जे । २. ६.ब. व होति । ३. द. ब. क. ज. स. ईसाणदिसाविबसुर । ४. प. ब. क. प. ८. सारस्स दो। ५. द. व. के. ज. स. अरिट्ठा। ६. इ. ब. क. ज. 8. भण्णं । ७. प. ब. क. प. उ. सुराभा। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो महाहियारो चंदाभा सूराभा, देवा आइछ्च वण्हि विच्छाले । अक्खा खेमंकर णाम 'सुरा 'वहि अदम्म ||६४४ || गाथा । ६४४-६४८ ] - अर्थ - आदित्य और वह्निके अन्तराल में चन्द्राभ और सूर्याभ ( सत्याभ ) तथा वह्नि धौर अरुण के अन्तरालमें श्रयस्कर और क्षेमङ्कर नामक देव शोभायमान हैं ॥। ६४४ ।। विसकोट्ठा कामधरा, विच्चाले अरुण गद्दतोयाणं । निम्माणराज विसत-रविप्रा गद्दतोय तुसिताणं ।। ६४५ ।। - - अरुण और गर्दतोयके अन्तराल में वृषकोष्ठ ( वृषभष्ट ) और कामधर ( कामचर) तथा गर्दतीय और तुषितके अन्तराल में निर्माणराज ( निर्माणरज ) और दिगन्तरक्षित देव हैं ।। ६४५ ।। तुसितव्याबाहाणं, अंतरवो श्रप्य सम्व रक्ख सुरा । मरुवा बसुदेवा, तह अवाबाह-रिट्ठ- मज्झम्मि ।। ६४६ ॥ अर्थ - तुषित और प्रन्याबाध के अन्तराल में आत्मरक्ष और सर्वरक्ष देव तथा प्रध्याबाध और अरिष्टके अन्तराल में मरुत् देव धौर बसुदेव हैं || ६४६ || सारस्सव-रिद्वाणं, विच्चाले प्रस्त-विस्स- णाम-सुरा । सारस्य आइच्या, पत्तेषकं होंति सत्त-सया ।।६४७ ।। [ ५६६ ७०० अर्थ- - सारस्वत और अरिष्ट के अन्तराल में अश्व एवं विश्व नामक देव स्थित हैं । सारस्वत और श्रादित्य प्रत्येक सात-सात ( ७००-७०० ) सौ है ।। ६४७ ।। वही श्ररुणा देवा, सत्त-सहस्वाणि सत्त पत्तेषकं । नव- जुत्त-णय सहस्सा, लुसिव सुरा गद्दतोया वि ।। ६४८ ॥ १. व. क. के. ज. य, सुरो । ३. ६. ब. रक्खि । ४ व. ब. क. ज. . तूरिथ । ७००७ । २००९ - वह्नि और अरुण में से प्रत्येक सात हजार सात ( ७००७ ) तथा तुषित और गर्दतोय में से प्रत्येक नौ हजार नी ( ९००९ ) हैं । ६४८ || २. प. क. ज. ठ. वव्हिएतम्मि, व बहिए भंति । Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] तिलोयपण्णत्ती अय्याबाहा रिट्ठा, एक्करस- सहस्स एक्क रस- जुसा । अणलाभा वहि-समा, सुराभा गद्दतोय-सारिच्छा ।।६४६ ॥ ११०११ | ७००७ । ६००६ । अर्थ- - श्रध्याबाध और अरिष्ट प्रत्येक ग्यारह हजार ग्यारह (११०११) हैं । अनलाभ वह्नि देवों के सद्दश ( ७००७ ) और सूर्याभ गर्दतोयों के सदृश ( ९००९ ) हैं ||६४६॥ अव्वाबाह- सरिच्छा, चंदाभ' सुरा हवंति सच्चाभार । सहस्सं, तेरस जुत्ताए संखाए ॥ ६५० ॥ अजुदं तिण्णि ११०११ । १३०१३ । अर्थ- चन्द्राभ देव प्रव्याबाधोंके सदृश ( ११०११ ) तथा सत्याम तेरह हजार तेरह ( १३०१३ ) हैं ।। ६५० ॥ [ गाथा : ६४९-६५३ पण्णरस- सहस्साणि, पण्णरस-जुबारिग होंति से प्रक्खा । खेमंकराभिधाणा, ससरस सहस्सयाणि सतरसा ।।६५१ ।। १५०१५ | १७०१७ । अर्थ---श्रं यस्क पन्द्रह हजार पन्द्रह ( १५०१५ ) और क्षेमङ्कर नामक देव सत्तरह हजार सतरह ( १७०१७ ) होते हैं ।। ६५१ ।। - ४. द. व. तर खस्स उणवीस - सहस्साणि, उणवीस जुत्तानि होंति जिसकोट्ठा । इगिवस सहस्वाणि, इगिवीस जुवाणि कामधरा ।। ६५२ || १६०१६ | २१०२१ । अर्थ- वृषकोष्ठ उन्नीस हजार उन्नीस ( १६०१६ ) और कामधर इक्कीस हजार इक्कीस ( २१०२१) होते हैं । ६५२ ।। निम्माणराज - णामा, तेवीस सहस्सयाणि तेबीसा । पणुवीस-सहस्सा रंग, पणुवीस-जुदाणि वितरषखा य ।।६५३ ॥ २३०२३ । २५०२५ । - १. द. ब. क. ज. उ. चंदाभासुर । २. द. व. क. ज. 5. संखाभा । ३. व. ब. क. ज. ठ, सेअध्या । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ६५४-६५७ ] ग्रम महाहियारो [ ६०१ अर्थ- निर्माणराज देव तेईस हजार तेईस ( २३०२३ ) और दिगन्तरक्ष पच्चीस हजार पच्चीस ( २५०२५ ) होते हैं ।। ६५३ ।। सत्तावीस-सहस्सा, सत्तावीसं च अध्यक्ख सुरा । उनतीस सहरसाण, उणतीस-जुदाणि सरवरक्खा य ।।६५४।। २७०२७ । २९०२९ । अर्थ- आत्मरक्ष देव सत्ताईस हजार सत्ताईस (२७०२७ ) और सर्वरक्ष उनतीस हजार उनतीस ( २९०२९ ) होते हैं ।। ६५४ ।। एक्कसीस-सहस्सा, एक्कत्तीस हुवंति मरु देवा । - तेत्तीस सहस्वाणि तेत्तीस जुदाणि वसु-णामा ।।६५५ ।। - - - ३१०३१ । ३३०३३ अर्थ- मरुदेव इकतीस हजार इकतीस (३१०३१ ) और वसु नामक देव तैंतीस हजार तैंतीस (३३०३३ ) होते हैं ।। ६५५ ।। पंचतीस - सहस्सा, पंचत्तीसा हुवंति अस्स सुरा । सचत्तीस - सहस्सा, सत्तत्तीसं च विस्त-सुरा ॥ ६५६ ॥ ३५०३५ । ३७०३७ । अर्थ - श्वदेव पैंतीस हजार पैंतीस (३५०३५ ) और विश्वदेव संतीस हजार सैंतीस ( ३७०३७ ) होते हैं ।। ६५६ ।। चत्तारिय लक्खाणि सत्त सहस्ताणि प्रड-सयाणि पि । छम्भहियाणि होदि हु, सव्वाणं पिंड परिमाणं ।। ६५७।। ४०७८०६ । - इन सबका पिण्ड प्रमाण चार लाख सात हजार आठ सो यह ( ४०७८०६ ) - है ।। ६५७ ।। विशेषार्थ - आठ कुलोंके सारस्वत श्रादि सम्पूर्ण लौकान्तिक देवोंका प्रमाण ( ७००+७००+७००७+७००७+००६+६००६+११०११+११०११ = ) ५५४५४ है और आठ अन्तरालोंमें रहने वाले अनलाभ और सूर्याम आदि सोलह कुलोंके लौकान्तिक दवोंका कुल प्रमाण ( ७००७ + १००९ + ११०११ + १३०१३+१५०१५ + १७०१७ + १६०१६ + २१०२१ + २३०२३+२५०२५+२७०२७+२६०२९+३१०३१+३३०३३ + ३५०३५ + ३७०३७ = ) Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] दिती [ गाथा : ६५६ - ६६० ३५२३५२ है । इसमें उपर्युक्त श्राठ कुलोंका प्रमाण मिला देनेपर आठ दिशाओंके आठ कुलों एवं आठ अन्तरालोंके सोलह कुलोंके लौकान्तिक देवोंका कुल प्रमाण ( ५५४५४ + ३५२३५२- ) ४०७८०६ होता है । लौकान्तिक देवोंके अवस्थान आदिका चित्रण इसप्रकार हैं--- LEVAS लौकानिक लोक जिस नाली में ऊपर की ओर से देखने पर - AFGETREN 3207 207 2007 fest? Meka 1002 म 9 १६ कामवर विन नवमेयर २६०१६ ५ १४ निविशन , सारस्वत विमान Go 20000. ना विमान १० सूर्यभविश GOO आदित्य विमान ००० ११ img भावमान मतान्तरसे लोकान्तिक देवोंकी स्थिति एवं संख्या लोय विभागाइरिया,' सुराण लोयंति-आण वक्खाणं । अण्ण सरूवं बेंति, त्ति तं पि एहि परूमो ॥१६५८ ॥ Tratt अर्थ --- लोकविभागाचार्य लौकान्तिक देवोंका व्याख्यान अन्य रूपसे करते हैं। इसलिए अब उसका भी प्ररूपण करते हैं ।। ६५८ ।। पुव्युत्तर दिग्भाए, वसंति सारस्सवाभिधाण सुरा । आइच्चा पुव्वाए, वहि दिसाए सुरा - बण्ही ॥। ६५६ ॥ दक्खिन- दिसाए अरुणा, इरिदि-भागम्मि गद्दतोया य । पच्छिम दिसाए सुसिया, अब्बाबाधा मरु बिसाए ||६६०॥ पुष तदिभाए, ब. पुषं व लदिग्भाए । ४. व. व. क. ज. ठ. सारस्सतिसा - १. द. व. क, ज, ऊ लोयविभाहरिया | २. व. ब. क. ज. उ. तिति पिछे । ३. द. क. ज. ठ. -- I Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६६१-६६५ ] अवमो महाहियारो [ ६०३ उत्तर-दिसाए रिहा, अम्गि-दिसाए वि होति मज्झम्मि । एवाणे पत्तेयं, परिमाणाई' पहवेमो ॥६६॥ पत्तेक्कं सारस्सद - प्राइच्चा तुसिद - गद्दतोया य । सत्तचर - सत्त - सया, सेसा पुयोचित - पमाणा ॥६६२।। पाठान्तरम् । प्रयं-पूर्व-उत्तर कोण में सारस्वत नामक देव, पूर्व में आदित्य, अग्नि दिशामें वह्नि देव, दक्षिण दिशामें अरुण, नैऋत्य भागमें मद'तोय, पश्चिम दिशामें तुषित, वायु दिशामें अव्याबाध और उत्तर दिशामें तथा अग्नि दिशाके मध्यमें भी अरिष्ट देव रहते हैं। इनमें से प्रत्येकका प्रमाण कहते हैं । सारस्वत और आदित्य तथा तुषित और गर्द तोयमेंसे प्रत्येक सात सौ सात (७०७) और शेष देव पूर्वोक्त प्रमाण से युक्त हैं ।।६६१-६६२।। पाठान्तर । लौकान्तिक देवोंके उत्सेधादिका कथनपत्तेक्कं पण हत्था, उवभो लोयंतयाण देहेसु। अट्ठमाहण्णव - उवमा, सोहंते सुक्क - लेस्साओ ॥६६३।। अर्थ-लौकान्तिक देवों में से प्रत्येकके शरीरका उत्सेध पाच हाथ और प्रायु पाठ सागरोपम प्रमाण है । ये देव शुक्ल लेश्यासे शोभायमान होते हैं ।।६६३।। सन्वे 'लोयंतपुरा, एक्कारस-अंग-धारिणो णियमा । सम्मईसण - सुद्धा, होंति सतत्ता सहावेणं ॥६६४।। अर्थ---सब लौकान्तिक देव नियमसे ग्यारह अंगके धारी, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध और स्वभावसे ही तृप्त होते हैं ।। ६६४॥ महिलादी परिवारा, ण होंति एदाण संततं 'जम्हा। संसार-खषण - कारण - वेरग्गं भावयंति ते तम्हा ॥६६५।। अर्थ-क्योंकि इनके महिलादिक रूप परिवार नहीं होते हैं, इसलिए ये निरन्तर संसारक्षयके कारणभूत वैराग्यकी भावना भाते हैं ।।६६५॥ १. द. ब. क. ज. है पुर्हत । २. द. 4, क. ज. 1. जे । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] तिलोयपगत्ती [ गाथा : ६६६-६७१ प्रद्ध बमसरण-पहुविं, भावं ते भावयंति अणवरवं । बहु-दुक्ख-सलिल-पूरिद-संसार-समुद्द-बुड्डण - भएणं ॥६६६।। अर्थ-बहुत दुःखरूप जलसे परिपूर्ण संसार रूपी समुद्र में डूबनेके भयसे वे लोकान्तिक देव निरन्तर अनित्य एवं अशरण आदि भावनाएं भाते हैं ।।६६६।। तित्थयराणं समए, परिणिक्कमणम्मि जंति ते सम्वे । दु-चरिम-देहा देवा, बहु-विसम-किलेस-उम्मुक्का' ।।६६७।। अर्थ-द्विचरम शरीरके धारक अर्थात् एक ही मनुष्य जन्म लेकर मोक्ष जानेवाले और अनेक विषम क्लेशोंसे रहित वे सब देव तीर्थंकरोंके दीक्षा कल्याणकमें जाते हैं ॥६६७ । देवरिसि-णामधेया, सम्वेहि सुरेहि अच्चणिज्जा ते। भत्ति - पसत्ता समय - साधोणा सव्य - कालेसु ॥६६८।। अर्थ-देवर्षि नाम वाले वे देव सब देवोंसे अर्चनीय, भक्तिमें प्रसस्त और सर्वकास स्वाध्याय में स्वाधीन होत है ।।६६८।। लोकान्तिक देवोंम उत्पत्ति का कारणइह खेरी वेरगं, बहु - भेयं भाविदूण बहुकालं । संजम - भावेहि मो, देवा लोयंतिया होति ॥६६६।। अर्थ – इस क्षेत्र में बहुत काल पर्यन्त बहुत प्रकारके वैराग्यको भाकर संयम सहित मरण कर लौकान्तिक देव होते हैं ।।६६९।। । थुइ-णिदासु समाणो, सुह-दुक्खसु सबंध-रिव-बग्गे । जो समणो सम्मत्तो, सो च्चिय लोयंतिपो होदि' ॥६७०॥ अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि श्रमण स्तुति और निन्दामें, सुख और दुःखमें तथा बन्धु और शत्रु वर्गमें समान है, वही लोकान्तिक होता है ।।६७०।। जे रिवेक्खा वेहे, णिहंडा जिम्ममा णिरारंभा । णिरयज्जा समण-वरा, ते च्चिय लोयंतिया होंति ॥६७१॥ अर्थ-जो देहके विषय में निरपेक्ष हैं, तीनों योगोंको वश करनेवाले हैं तथा निर्ममत्व, निरारम्भ और निरवद्य हैं वे ही श्रमण श्रेष्ठ लौकान्तिक देव होते हैं ।।६७१॥ १. द. प. म. म. उभुमका। २. द. ब. क. ज. ४. मणा । ३. द, ब. ज. ठ. होति । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मो महाहिया संजोग' - विपओगे, लाहालाहम्मि जीविदे मरणे । जो समय मिलोतिश्रो होति ।।६७२ ॥ गाथा : ६७२-६७७ ] अर्थ – जो श्रम संयोग और वियोग में, लाभ और अलाभमें तथा जीवित और मरणमें समष्टि होते हैं, वे ही लौकान्तिक होते हैं ।। ६७२ ।। अणवरदमप्पमत्तो, संजम समिवीसु कारण जोगेसु । तिथ्व तव चरण जुत्ता, समणा लोयंतिया होंति ।। ६७३ ॥ · अवस्थित है ।। ६७५ ॥ - अर्थ – संयम, समिति, ध्यान एवं समाधिके विषय में जो निरन्तर अप्रमत्त ( सावधान ) रहते हैं तथा तीव्र तपश्चरण से संयुक्त हैं, वे भ्रमण लौकान्तिक होते हैं ।। ६७३ ॥ 3 - पंचमहव्वय सहिदा, पंचसु समिदीसु थिर - रिणचिटुमाणा । पंचक्ख विसय विरवा, रिसिखो लोयंतिया होंति ।। ६७४ || अर्थ- पाँच महाव्रतों सहित पाँच समितियांका स्थिरता पूर्वक पालन करने वाले और पाँचों इन्द्रिय-विषयोंसे विरक्त ऋषि लोकान्तिक होते हैं ।।६७४ ।। ईषत्प्राभार (८ वी ) पृथ्वी का अवस्थान एवं स्वरूप - उवरि गंतूणं । चेदे पुढवो ||६७५ ।। अर्थ- सर्वार्थसिद्धि इन्द्रकके ध्वजदण्डसे बारह योजन प्रमारण ऊपर जाकर पाठवीं पृथिवी - सम्वसिद्धि इंदय केवणदंडादु बारस जोयणमेत्त, अदुमिया [ ६०५ पुध्वावरेण तोए, उबरिम हेट्ठिम तलेसु पत्तेक्कं । arat हवेदि एक्का, रज्जू" रुवेण परिहोणा ||६७६ ॥ १. ६. ब. सजोगयोगे । ४. द. व. क. ज. ठ. धिर । - - अर्थ-उसके उपरिम और प्रधस्तन तलमेंसे प्रत्येकका विस्तार पूर्व-पश्चिम में रूपसे रहित एक राजू प्रमाण है ।।६७६ ॥ उत्तर-दक्खिण-भाए, 'दोहा किचूण- सत्त-रज्जुम्रो । वेत्तासन - संठाणा, सा पुढवी श्रटु - जोयणा बहुला ॥१६७७॥ २. ब. क. सम्मदिट्टि । ३. द. व. ज ठ श्ररणबरदसमं पत्तो । ५. द. व. क्र. ज. ट. रज्जो । ६. द. ब. फ. ज. रु. दीह । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : ६७८-६८१ अर्थ --- वैश्रासनके सह कह पृथिवी तक्षकुछ कम सात राजू लम्बी और आठ योजन बाहुल्यवाली है ||६७७ ॥ जुत्ता घणोवहि-घणाणिल तणुवादेहि' तिहि समीहि । जोयरण बीस सहस्सं, पमाण बहलेहि पत्तेषकं ॥ ६७८ ॥ - - अर्थ – - यह पृथिवी घनोदधि, घनवात और तनुवात इन तीन वायुनोंसे युक्त है । इनमें से प्रत्येक वायुका बाहय ( मोटाई ) बीस हजार योजन प्रमाण है || ६७८ ॥ एदाए बहुमके, खेत्तं णामेण ईसिप भारं । अज्जुण-सुवण्ण-सरिसं णाणा रयणेह परिपुण्ण ॥६७६ ॥ अर्थ — इसके बहु-मध्य-भागमें नाना रत्नोंसे परिपूर्ण चांदी एवं स्वर्णके सदृश ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है ||६७२। - · · उत्तारण धवल - छत्तोवमाण संठाण- सुंबरं एवं । पंचत्ताल जोयण लक्खाणि वास संजुतं ॥ ६८० ॥ अर्थ - यह क्षेत्र उत्तान धबल छत्रके सदृश प्राकारसे ( ४५००००० ) योजन प्रमाणसे संयुक्त है ||६६०।। तम्मज्भ - बहलमट्ठ, जोयणया अंगुलं पि तम्मि श्रट्टम-मू- मञ्झ-गवो, तप्परिही मणुव खेत्त-परिहि समो ॥ ६८१|| ८ । अं १ । १. . . क. ज. ठ. धरणालिबाबादेहि । सुन्दर और पैंतालीस लाख अर्थ – उसका मध्य बाहुल्य आठ योजन और अन्त में एक अंगुल प्रमाण है । श्रष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षत्रको परिधिके सदृश है || ६८१ ॥ [ चित्र अगले पृष्ठ पर देखिये ] Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा 1 ६८१ ] अट्ठमो महाहियारो [ ७ परालबम--- पाएकालजमसिद्धनाम : |--- :-: -:-...-:.'-:..:....स्नुष पोदारातलम m00000ोजन विस्तार / सिद्ध शिला ईषत्मारभार आठवीं पृथ्वी 120CTarat AIMER T REET ARTYPREनमापन गतिलपत्र १२योजन शर्मा सिडी विमान १०...योजन विस्तार ---- राज अस नाली विशेषार्थ--सर्वार्थ सिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से १२ योजन ऊपर जाकर क्रमशः बीस-बीस हजार मोटे धनोदधि, धन और तनु-वातवलय हैं; इसके बाद पूर्व-पश्चिम एक राजू विस्तार वाली ईषत्प्राम्भार नामक ८वीं पृथिवी है । यह पृथिवी उत्तर-दक्षिण ७ राजू लम्बो और ८ योजन मोटी है। इसका घन फल प्रथमाधिकार पृष्ठ १३६ के अनुसार (१ राज विस्तृत x ७ राजू आयत ४६ योजन बाल्य को जगत्प्रतर रूप से करने पर ) ४६ वर्गराजू योजन प्रमाण है । ___ इस पृथिवी के बहमध्य भाग में उत्तान ( ऊर्ध्वमुख ) छत्र के प्राकार सहस आकार वाला और ४५ लाख योजन विस्तृत ईषत्प्राम्भार नामक क्षेत्र (सिद्ध-शिला ) है । इस शिलाका मध्य बाहल्य ८ योजन और अन्त ( के दोनों छोरों का ) बाहल्य एक-एक अंगुल प्रमाण है । इसकी सूक्ष्म Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ ] तिलोयपपत्ती [ गाथा : ६८२-६८५ परिधि का प्रमाण मनुष्य लोक की परिधि के प्रमाण सदृश ( चतुर्थाधिकार मा०७) १४२३०२४६ यो० है । इस पृथिवी के ऊपर अर्थात् लोक के अन्त में क्रमश: ४००० धनुष, २००० धनुष और १५७५ धनुष मोटे घनोदधि, धन और तनु वातवलय हैं। इसप्रकार सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से {१२ यो० + ६ यो०+७५७५ धनुष अर्थात् ) ४२५ धनुष कम २१ योजन ऊपर अर्थात् तनुबातवलय में सिद्ध प्रभु विराजमान हैं। इनके निवास क्षेत्र के घनफल आदि के लिए नवमाधिकार की गाथा ३-४ दृष्टव्य है। नोट-इसी ग्रन्थ के प्रथमाधिकार गा० १६३ के विशेषार्थमें सर्वार्थसिद्धि विमानके ध्वजदण्डसे २९ यो० ४२५ धनुष ऊपर जाकर लोकका अन्त लिखा है। जो अष्टमाधिकार गा० ६७५६८१ का विषय देखते हुए गलत प्रतीत होता है । १११६३ का विशेषार्थ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग ३ पृष्ठ ४६० पर ऊर्ध्व लोक के सामान्य परिचय के अन्तरगत दिये हुए नोट के माधार पर दिया था। यदि सिद्धशिला के मध्यभाग की ८ योजन मोटाई, ८ योजन मोटी ८ वीं पृथिवी में ही निहित है तो सर्वार्थसिद्धि विमानके ध्वजदण्ड से सिद्धोंका निवास क्षेत्र ४२५ धनुष कम २१ यो० होता है ( यही प्रमाण यथार्थ ज्ञात होता है क्योंकि दूसरे अधिकार की गाथा २४ में ८ वी पृथिवी द्वारा दसों दिशाओं में धनोत्र वानर गाय पर कहा गया है ) और यदि ८ योजन मोटी पाठवीं पृथिवो के ऊपर ८ योजन बाहयवाली सिद्धशिला है तो उस क्षेत्र की ऊंचाई अर्थात् लोक के अन्त का प्रमाण ( १२ यो++ यो० + यो०+७५७५ धनुष ) ४२५ धनुष कम २६ यो० होगा । यह विषय विद्वज्जनों द्वारा विचारणीय है । एदस्स चउ-विसास, चत्तारि तमोमयाओ राजीनो' । णिस्सरिदूणं बाहिर-राजीरणं होदि बाहिर - प्पासा ॥६८२॥ तन्छिविणं तत्तो, तानो पदिदानो चरिम-उहिम्मि । अभंतर' - तीरावो, संखातीदे अजोयणे य धुवं ।।६८३॥ बाहिर-चउ-राजोणं, बहि-अवलंबो पवेवि रोवम्मि । जंबूबीवाहितो, गंतूणं असंख - दीव - वारिणिहि ॥६८४॥ बाहिर-भागाहितो, अवलंबो तिमिरकाय-णामस्स । जंबूदीहितो, तम्मेत्तं गदुअ' पददि दीवम्मि ॥६८५॥ एवं 'लोयंतिय-पख्वणा समत्ता। १.६.म. क. ज. 3. रज्जू मो। ३. इ.ब.क.ज.ठ. यदु। २. व. प्रम्भितर। ४.ब.प.क. ज.. लोय । Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६८६-६९१ ] प्रमो महाहियारो [ ६०६ अर्थ - इसकी चारों दिशाओं में चार तमोमय राजियाँ निकलकर बाह्य राजियों के बाह्य पार्श्वपर होती हुई उन्हें छूकर निश्चय से अभ्यन्तर तीर से असंख्यात योजन प्रमाण अन्तिम समुद्र में गिरी हैं। बाह्य चार राजियों के बाह्य भाग का अवलम्बन करने वाला जम्बूद्वीप से असंख्यात द्वीपसमुद्र जाकर द्वीप में गिरता है। बाह्य भागों से तिमिर काय नामका अवलम्ब जम्बूद्वीप से इतने ही प्रमाण जाकर द्वीप में गिरता है ।। ६६२-६८५ ॥२ नोट- गाथा ६२२ से बुद्धिगत नहीं हुआ । ६३६ और ६५२ से ६६५ श्रर्थात् १९ गाथाओं का यथार्थ भाव इसप्रकार लोकान्तिक देवों की प्ररूपणा समाप्त हुई || बीस प्ररूपणाओं का दिग्दर्शन गुण-जीवा पज्जती, पाणा सण्णा य मग्गणाश्रो वि जयजोगा भणिबच्चा, देवाणं देव लोयमि' ।। ६८६ ।। - अर्थ --- अब देवलोक में देवों के गुणस्थान, जीवसमाज, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा मागंगा और उपयोग, इनका कथन करना चाहिए ||६८६॥ चत्तारि गुणट्टाणा, जीवसमासेसु सर्पिण-पञ्जत्ती । वित्तिय पज्जत्ती, ध-पञ्जत्तीओ छहं अपज्जसी ||६६७ ।। पज्जते दस पाणा, इवरे पाणा हवंति ससेब । इंदिय-मण-वरण-तणू आउसासा * य दस-पाणा ॥ ६८८ ॥ तेसु मण वय उच्छ्रास- वज्जिदा सत्त तह प्रपज्जते । चउ-सण्णा होंति हु, चउसु गोसु च देवगदी २१६८६ ॥ पंचक्खा तस काया, जोगा एक्कारस-प्यमाणा य । ते श्रड्डू मण वयाणि वेगुत्व-दुर्ग च कम्मइयं ॥ ६६० ॥ पुरिसिथी- वेद-जुदा, सयल - कसाएहि संजुदा देवा । छष्णाहि सहिदा, सय्ये वि प्रसंजना ति-बंसणया ।।६६१ ॥ 3 अर्थ- चार गुणस्थान, जोध- समासों में संज्ञी पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त, छह पर्याप्तियाँ और छहों अपर्याप्तियां; पर्याप्त अवस्था में पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण तथा अपर्याप्त अवस्था में मन, वचन और उच्छ्वास से रहित शेष सात प्राण; चार १. द. क. अ. ठ. दायम्मि । ३. द.म. क. ज. 5. सदा । २. द. ब. क. ज ठ माउस्ससयासदसवाणा । Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१०] तिलोयपण्णसी [ गाथा : ६९२-६६७ संज्ञाएँ, चार गतियों में से देवगति, पंचेन्द्रिय, अस काय ; आठ मन-वचन, दो वैक्रियिक ( क्रियिक और वैक्रियिक मिश्र) तथा कार्मरण, इसप्रकार ग्यारह योग; पुरुष एवं स्त्री वेद से युक्त, समस्त कषायों से संयुक्त, छह ज्ञानों सहित, सब ही असंयत और तीन दर्शन से युक्त होते हैं ॥६८७-६६१।। कोण्हं दोण्हं छक्कं, दोण्हं तह तेरसाण बेवाणं । लेस्साओ चोद्दसाओ, योच्छामो आणुपुटवीए ॥६६२॥ तेऊए मज्झिमंसा, ते उक्कस्स - परम - प्रयरंसा । पउमाए मज्झिमंसा, पउमुक्कस्सं ससुक्क-प्रवरंसा ॥६६३॥ सुक्काय मज्झिमंसा, उक्कस्संता य सुक्क-लेस्साए । एवाओ लेस्सायो, णिहिट्ठा सम्व - दरिसीहि ।।६६४।। सोहम्म-प्पहुदोणं, 'एदारो दब्द-भाव-लेस्साओ । उरिम - गेवेज्जतं, भव्वाभष्वा सुरा होति ॥६९५॥ तसो उरि भव्या, उरिम - गेवेज्जयस्स परियंतं । छब्मेदं सम्मत्त, उरि 'उवसमिय-खाइय-वेदकया ॥६६६॥ ते सव्वे सण्णीओ, देवा पाहारिणो प्रणाहारा । सागार-प्रणागारा, दो च्चैव य होंति उवजोगा ॥६६७।। अर्थ-दो ( सौधर्मशान ), दो ( साo-माहेन्द्र ), ब्रह्मादिक छह, शतारद्विक, आनतादि नौ प्रेवेयक पर्यन्त तेरह, तथा चौदह ( नौ अनुदिश और पाच अनुत्तर ), अनुक्रमसे इन देवोंको लेश्याओं का कथन करता हूँ सौधर्म और ईशानमें पीत लेश्याका मध्यम अंश, सनत्कुमार और माहेन्द्र में पद्मके जघन्य अंश सहित पोतका उत्कृष्ट अंश, ब्रह्मादिक छह में पद्मका मध्यम अंश, शतार युगल में शुक्ल लेश्या के जघन्य सहित पाका उत्कृष्ट अंश, आनत आदि तेरह में शुक्ल का मध्यम अंश और अनुदिशादि चौदह में शुक्लले श्या का उत्कृष्ट अंश होता है; इसप्रकार सर्वज्ञ देवने देवों में ये लेश्यायें कही हैं । सौधर्मादिक देवों के ये द्रव्य एवं भाव लेश्यायें समान होती हैं। उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त देव भव्य और अभय दोनों तथा इससे ऊपर भव्य ही होते हैं। उपरिम वेयक पर्यन्त छहों प्रकार के सम्यक्त्व तथा इससे ऊपर प्रीपशमिक, क्षायिक और वेदक ये तीन सम्यक्त्व होते हैं। वे सब देव संज्ञी तथा आहारक एष अनाहारक होते हैं । इन देवों के साकार और अनाकार दोनों ही उपयोग होते हैं ॥६९२-६९७।। १. घ. एवाण । २. द. व. क. उपससरियल इस्खय। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ६६८-७०२ ] अट्टमो महाहियारो कप्पा कप्पाचीदा, दुचरम-देहा हवंति केइ सुरा।। सक्को सहग्ग-महिसो,' सलोयवालो य दक्षिणा इंवा ।।६९८॥ सव्यसिद्धिवासी, लोयलिय - णामधेय - सव्व-सुरा । णियमा दुचरिम-वेहा, सेसेसु गस्थि नियमो य ॥६६६॥ एवं गुणठाणावि-परूवरणा समत्ता । अर्थ-कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरम-शरीरी अर्थात् आगामी भवमें मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं। अग्रमहिषी और लोकपालों सहित सौधर्म इन्द्र, दक्षिण इन्द्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लोकान्तिक नामक सब देव नियम से द्विचरम-शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है ।।६९८-६९९।। इसप्रकार गुणस्थानादि-प्ररूपणा समाप्त हुई ।। सम्यक्त्व ग्रहणके कारणजिण-महिम-दसणेरणं, केई जादो - सुमरणादो दि । देवद्धि - देसणेण य, ते देवा धम्म - सवणेण ॥७००।। गेण्हते सम्मतं, णिव्वाणभदय - साहरण - रिणमित्तं । दुब्वार - गहिद' - संसार • जलहिणोत्तारणोवायं ॥७०१॥ अर्थ-उनमें से कोई देव जिनमहिमा के दर्शनसे, कोई जातिस्मरणसे, कोई देवद्धिके देखने से और कोई धर्मोपदेश सुनने से निर्वाण एवं स्वर्गादि अभ्युदय के साधक तथा दुर्वार एवं गम्भीर संसाररूपी समुद्र से पार उतारने वाला सम्यक्त्व ग्रहण करते हैं ।।७००-७०१॥ णवरि हुणव-गेवेज्जा, एदे देवडिड-धज्जिया होंति । उपरिम - चोद्दस - ठाणे, सम्माइट्टी सुरा सब्वे ।।७०२॥ वंसण-गहण कारणं समत्तं ॥ अर्थ-विशेष यह है कि नौ नैवेयकों में उपयुक्त कारण देवद्धि दर्शन से रहित होते हैं। इसके ऊपर चौदह स्थानों में सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं ।।७०२।। सम्यग्दर्शन-ग्रहण के कारणों का कथन समाप्त हुआ । १. ५..क.अ. 3. मक्यासि। २. द. देवत्ति, ब देवक्छि , क. ज. 8. देवहित । ३. द. ब. क. ज. ठ. रहिद । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ७०३-७०७ वैमानिक देव भरकर कहाँ-कहाँ जन्म लेते हैं - आईसाणं देवा, जणणा एइंदिएसु भजिवन्वा । उरि सहस्सारंतं, ते भज्जा' सण्णि-तिरिय-मणुवत्ते ॥७०३॥ अर्थ - ईशान कल्प पर्यन्त के देवों का जन्म एकेन्द्रियों में विकल्पनीय है। इससे ऊपर सहस्रार कल्प पर्यन्त के सब देव विकल्प से संज्ञी तिर्यञ्च या मनुष्य होते हैं ।।७०३॥ तत्तो उरिम-देवा, सम्वे सुक्काभिधाण लेस्साए । उप्पज्जति मणुस्से, रणस्थि तिरिक्खेस उदवादो ॥७०४॥ अर्थ-इससे ऊपर के सब देव शुक्ल लेश्या के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, इनकी उत्पत्ति तिर्यञ्चों में नहीं है ।।७०४॥ देवनादोदो चत्ता, कम्मक्खेत्तम्मि सण्णि-पज्जते । गब्भ-भवे जायंते, ण भोगभूमीण पर-तिरिए ॥७०५।। अर्थ-देवगति से च्युत होकर वे देव कर्मभूमि में संज्ञी, पर्याप्त एवं गर्भज होते हैं, भोगभूमियों के मनुष्य और तियंञ्चों में नहीं होते हैं ।।७०५।। सोहम्मादी देवा, भज्जा हु सलाग-पुरिस रिणवहेसु। हिस्सेयस गमणेसु, सध्ये बि अणंतरे जम्मे ॥७०६॥ प्रथ-सब सौधर्मादिक देव अगले जन्म में शलाका-पुरुषों के समूह में और मुक्ति-गमन के विषय में विकल्पनीय हैं ।१७०६।। गरि विसेसो सम्वदसिद्धि-ठाणदो विच्चुदा देवा । भज्जा सलाग-पुरिसा, णिव्वाणं यांति णियमेणं ॥७०७।। एवं प्रागमस्य-परुवरणा समसा ।। अर्थ-विशेष यह है कि सर्वार्थ सिद्धि से च्युत हुए देव शलाकापुरुषरूप से विकल्पनीय हैं, किन्तु वे नियम से निर्वाण प्राप्त करते हैं ।।७०७॥ इसप्रकार प्रागमन-प्ररूपणा समाप्त हुई ।। - .- ..-- - - १. ६.ब. भम्बा, क. ज, 8. सवा। २. द. ब. क. विच्चुयो। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ७०-७१२ ] अट्ठमो महाहियारो [ ६१३ देवों के अवधिज्ञानका कथनसक्कीसाणा पढम, माहिद-सरपक्कुमारया बिदियं । तवियं च बह-लंतव-वासी तुरिमं सहस्सयार'-गदा ॥७०८।। आणद-पाणद-पारण-प्रच्चद-वासी य पंचमं पढवि ।। छट्ठी पुढवी हेट्ठा, णव - विह - गेवेज्जगा देवा ॥७०६।। सव्वं च लोयगालि, अणुद्दिसाणुत्तरेसु पस्संति । सक्खेसम्मि' सकम्मे,' रूवम-गदमरगत-भागो य ॥७१०।। कप्पामराण' णिय-णिय-ओही-दव्यस्स विस्ससोवचयं । ठविदूर्ण विव्वं, तसो धुव - भागहारेणं ॥७११॥ णिय-णिय-खोणि-पदेस, सलान-संखा समप्पदै बाम । अंतिल्ल - खंषमेतं, एवाणं ओहि - दध्वं खु ॥७१२॥ अर्थ- सौधर्मेशान कल्पके देव अपने अवधिज्ञान से नरक की प्रथम पृथिवी पर्यन्त, सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके देव दूसरी पृथिवी पर्यन्त, ब्रह्म और लान्तव कल्पके देव तृतीय पृथिवी पर्यन्त, सहस्रार कल्पवासी देव चतुर्थ पृथिवी पर्यन्त; आनत, प्राणत, पारण एवं अच्युत कल्पके देव पाँचवी पृथिवी पर्यन्त, नो प्रकार के ग्रंवेयक वासी देव छठी पृथिवी के नीचे पर्यन्त तथा अनुदिश एवं अनुत्तर वासी देव सम्पूर्ण लोकनाली को देखते हैं । अपने कर्म द्रव्य में अनन्त का भाग देकर अपने क्षेत्र में से एक-एक कम करना चाहिए । कल्पवासी देवों के विनसोपचय रहित अपने अवधिज्ञानावरण द्रव्यको रखकर जब तक अपने-अपने क्षेत्र-प्रदेश की शलाकाएं समाप्त न हो जावें तब तक ध्र बहार का भाग देना चाहिए । उक्त प्रकार से भाग देने पर अन्त में जो स्कन्ध रहे उत्तने प्रमाण इनके अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य समझना चाहिए ।१७०८-७१२।। विशेषार्थ-वैमानिक देवों का अपना-अपना जितना-जितना अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र कहा है, उसके जितने-जितने प्रदेश हैं उन्हें एकत्र कर स्थापित करना और विस्रसोपचय रहित सत्तामें स्थित अपने-अपने अवधिज्ञानावरण कर्म के परमाणुओं को एक और स्थापित कर इस अवधिज्ञानावरण के द्रव्यको ध्र वहार का एक बार भाग देना और क्षेत्र के प्रदेश-पुज में से एक प्रदेश घटा देना । भाग देने पर प्राप्त हुई लब्धराशि में दूसरी बार उसी ध्र वहार का भाग देना और प्रदेश पुज में से १. महाशुक्र कल्पका विषय छूट गया है। २. ब. क. ज. ठ. संखेतं । ३. द.क. ज. ठ. संकम्मे। ४.६.ब.क. ज. ठ, कप्पामराय। ५. ब. क. जीवा । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ } तिलोयपत्तों [ गाथा : ७१३ एक प्रदेश पुनः घटा देना । पुनः लब्धराशि में ध्र बहार का भाग देना और प्रदेश पुज में से एक प्रदेश और घटा देना। इसप्रकार अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र के जितने प्रदेश हैं उतनी बार अवधिज्ञानावरण कर्म के परमाणु पुञ्ज भजनफल स्वरूप लब्धराशि में भाग देने के बाद अन्त में जो लब्ध राशि प्राप्त हो उतने परमाणु पञ्ज स्वरूप पुद्गल स्कन्ध को वैमानिक देव अपने अवधिनेत्र से जानते हैं । यथा-- मानलो- अवधिक्षेत्र के प्रदेश १० हैं और विनसोपचय रहित अवधिज्ञानावरण कर्म स्कन्ध के परमाणु १००००००००००० हैं तथा ध्रव भागहार का प्रमाण है अत:क्षेत्र-१० प्रदेश अवधिज्ञानावरणका द्रव्य ३-१-२ १०००००००००००४-२००००००००००। ९-१-5 २००००००००००४-४०००००००००। ५-१७ ४०००००००००४-८००००००००। ८००००००००४६=१६०००००००। ६-१५ १६०००००००x१=३२००००००। ५-१४ ३२००००००४६४०००००। ४--१३ ६४०००००४१२८०००० । १२८००००४-२५६०००। २-१-१ २५६००० x ३=५१२०० । १-१० ५१२००४१-१०२४० । पुद्गल स्कन्ध को वैमानिक देव अपने अवधिनेत्र से जानते हैं । होति असंखेज्जाओ, सोहम्म-दुगस्स वास-कोडीयो। पल्लस्सासंखेज्जो, भागो सेसाण बह - जोग्गं ॥७१३॥ एवं प्रोहि-गाणं गवं ॥ अर्थ-कालकी अपेक्षा सौधर्मयुगलके देवों का अबधि-विषय प्रसंख्यात वर्ष करोड़ और शेष देवों का यथायोग्य पल्यके असंख्यातमाग प्रमाण है ।।७१३॥ इसप्रकार अवधिशान का कथन समाप्त हुप्रा॥ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ७१४-७१७ ] अट्ठमो महाहियारो घमानिक देवोंका पृथक्-पृथक् प्रमाण-- सोहम्मोसाण - दुगे, विदंगुल-तदिय-मूल-हद-सेठी । बिदिय-'जुगलम्मि सेढी, 'एक्करसम-वग्गमूल-हिया ॥७१४॥ अर्थ -सौधर्म-ईशान युगलमें देवोंको संख्या घनाङ्ग लके तृतीय वर्ग मूलसे गुणित श्रेणी (श्रेणी - घ० अं० का ३ बर्गमूल ) प्रमाण और द्वितीय पुगलमें अपने ग्यारहवें वर्गमूलसे भाजित श्रेणी ( श्रेणी श्रेणीका ११ वा वर्गमूल ) प्रमाण है ॥७१४।। बम्हम्मि होदि सेढी, सेढी-रणव-घग्गमूल-अवहरिदा । लंतयकप्पे सेढी, सेढी - सग - वगमूल - हिवा ॥७१५॥ अर्थ-ब्रह्मकरूप में देवों की संख्या श्रेणीके नौवें वर्गमूलसे भाजित श्रेणी (श्रेणी श्रेणो का ९ वा वर्गमूल ) प्रमाण और लान्तवकल्पमें श्रेणीके सातवें वर्गमूलसे भाजित श्रेणो (श्रेणी श्रेणीका ७ वा वर्गमूल ) प्रमाण है ।।७१५।। महसुक्कस्मिय सेढी, सेढी-पण-वामूल-भजिदम्वा । सेढी सहस्सयारे, सेदो - चउ - वग्गमूल हिदा ।।७१६॥ अर्थ-महाशुक्ल कल्पमें देवों की संख्या श्रेणी के पांचवें वर्गमूलसे भाजित श्रेपो ( श्रे श्रेणीका ५ वा वर्गमूल ) प्रमाण और सहस्रार कल्पमें श्रेणीके चतुर्थ वर्गमूलसे भाजित श्रेणी प्रमाण है ।।७१६॥ अवसेस - कप्प - जुगले, पल्लासंखेज्जभागमेक्केयके । देवाणं संखादो, संखेम्जगुणा हवंति देवोत्रो ॥७१७॥ अर्थ-अवशेष दो कल्प युगलों में से एक-एक में देवों का प्रमाण पल्पके असंख्यातवें भाग मात्र है । देवों की संख्या से देवियों संखपातगुरगी हैं ।।७१७।। - --.. . - -... - .. ..- - १. द. म. जुलम्मि । २. ब. एक्क रसग, द. क. ज. ठ. एनकरसबाग । ३.द.व.क. ज.. . Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ ] तिलोपाती हेट्टिम - मज्झिम- उयरिम-गेयेज्जेस अणुद्दिसादि-दुगे । पल्लासंखेज्जंसो, सुराण संखाए जह जग्गं ॥७१८ ।। - | श्रर्थ - अधस्तन ग्रैवेयक, मध्य ग्रैवेयक, उपरिम प्रवेयक और अनुदिश-विक ( अनुदिवाअनुत्तर) में देवों की संख्या यथायोग्य पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ||७१८ ॥ वरि विसेसो सन्टु सिद्धि- खामम्मि होवि-संखेज्जो । णिद्दिट्ठा श्रीरागेहि ॥७१६ ॥ देवाण परिसंखा, संखा गया || प अर्थ-विशेष यह है कि सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रक में संख्यात देव हैं। इसप्रकार वीतरागदेव ने देवों की संख्या निर्दिष्ट की है । ।' संख्या का कथन समाप्त हुआ ।।७१९।। वैमानिक देवों की शक्तिका दिग्दर्शन- एक्क पलिबोबभाऊ, उप्पाडेदु धराए छपखंडे | तग्गद-नर- तिरिय-जणे, मारेदु पोसिदु सक्को ।।७२०|| तरगद - अर्थ- - एक पल्योपम प्रमाण आयुवाला देव पृथिवी के छह खण्डों को उखाड़ने में प्रय उनम स्थित मनुष्य और तिर्यञ्चों को मारने अथवा पोषण करने में समर्थ है ||७२० ॥ - [ गाथा : ७१८-७२२ उहि उवमाण- जीबी, पल्लट्टे बुं च 'जंबुबीथं हि । खर तिरियाणं, मारेवु ́ पोसिदु सबको ॥७२१॥ १. ८. ब. क.अ. रु. २. ८. ब. क. ज. द. सोहम्मदा अर्थ – सागरोपम प्रमाण काल पर्यन्त जीवित रहनेवाला देव जम्बूद्वीपको भी पलटते में और उसमें स्थित मनुष्य श्रोर तिर्यञ्चों को मारने अथवा पोषनेमें समर्थ है ||७२१|| सोहम्मद जियमा, अंबूधीवं समुक्खियदि एवं । केई आइरिया इय, सत्ति सहावं परूवंति ॥ ७२२ ।। पाठान्तरम् । सती गया । २. . . क. अ. ठ. बीबम्मि । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ७२३ - ७२६ ] श्रमो महाहियारो [ ६१७ अर्थ- सौधर्म इन्द्र नियमसे जम्बूद्वीपको ( उठाकर ) फेंक सकता है। इसप्रकार कोई आचार्य उसके शक्ति स्वभावका निरूपण करते हैं ||७२२|| शक्तिका कथन समाप्त हुआ । चारों प्रकारके देवोंकी योनि प्ररूपणा - भावण - बेंतर जोइसिय- कप्पवासोण'- जणणमुकवादे । सोहं प्रच्चित्तं, संउदया होति सामन्णे ||७२३॥ एवाण चज - विहाणं सुरराण सन्दण होंति जोणीश्रो । च-लक्खा हु विसेसे, इंदिय-कल्लाव श्रीवाला ( ? ) ||७२४ ।। जोणी समसा ॥ अर्थ - भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासियों के उपपाद जन्म में शीतोष्ण, अचित्त और संवृत योनि होती है । इन चारों प्रकारके सब देवोंके सामान्यरूपसे ये योनियाँ हैं। विशेष रूप से चार लाख योनियाँ होती हैं ।।७२३-७२४ ।। योनियोंका कथन समाप्त हुआ । स्वर्ग सुख के भोक्ता - सम्मदंसण सुद्विमुज्जलयरं संसार निण्णासणं । सम्मण्णाण मणंत दुक्ख हरणं धारति जे सततं ॥ ७२५॥ - · - - जिग्वार्हति विसिद्ध-सोल-सहिदा, जे सम्मचारितयं । ते सग्गे सुविचिचपुण्ण-जणिदे, भूजंसि सोक्लामयं ॥ ७२६ ॥ १. व. व. कप्पवासीणणसुववादे । पाठान्तर । अर्थ- जो अतिशय उज्ज्वल एवं संसारको नष्ट करनेवाली सम्यग्दर्शनकी शुद्धि तथा अनन्त दुःखको हरने वाले सम्यग्ज्ञानको निरन्तर धारण करते हैं और जो विशिष्ट शील-परायण होकर सम्यक्चारित्रका निर्वाह करते हैं, अद्भुत पुण्यसे उत्पन्न हुए वे स्वर्ग में सौस्यामृत भोगते हैं ।।७२५ - ७२६ ।। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ ] तिलोसपण्णत्ती [ गाथा : ७२७ अधिकारान्त मङ्गलाचरणचल-गाइ-पंक-मिग णिमय-सर-मोक्ख-लच्छि-मुह-मुकुरं। पालदि य धम्म - तित्थं, धम्म - जिणिदं णमंसामि ॥७२७।। एवंमाइरिय-परंपरा-गव-तिलोयपण्णत्तीए देवलोय-सरूव'. णिरूवण-पण्णत्तो णाम प्रीमो महाहियारो समत्तो ॥६॥ अर्थ-जो चतुर्गतिरूप पतसे रहित, निर्मल एवं उत्तम मोक्ष-लक्ष्मी के मुख के मुकुर (दर्पण) स्वरूप तथा धर्म-तीर्थ के प्रतिपादक हैं, उन धर्म जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥७२७।। इसप्रकार आचार्य - परम्परागत त्रिलोकप्रज्ञप्ति में देवलोक - स्वरूप - निरूपण प्रज्ञप्ति नामक। आठवां महाधिकार समाप्त हुमा ।।८।। १.व.ब. सहवण। Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती णवमो महाहियारो मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा उम्मग्ग-संठियाणं भव्वाणं मोक्ख मग्ग - देसयरं । पणमिय संति- जिणेसं', वोच्छामो सिद्धलोष-पण्णत्ती ॥१॥ अर्थ - उन्मार्ग में स्थित भव्य जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश करनेवाले शान्ति जिनेन्द्र को नमस्कार करके सिद्धलोक- प्रज्ञप्ति कहता हूँ ॥ १ ॥ पाँच श्रन्तयाधिकारोंका निर्देश - सिद्धाण निवास-खिदो, संखा ओगाहणाणि सोक्खाई । सिद्धत्त हेतु भावो, सिद्ध जगे पंच प्रहियारा ||२|| - - अर्थ - सिद्धोंकी निवास-भूमि, संख्या, श्रवगाहना, सौख्य और सिद्धत्वके हेतु भूत भाव, सिद्धलोक प्रज्ञप्ति में ये पाँच अधिकार हैं ॥२॥ सिद्धोंका निवास क्षेत्र अट्टम - खिवीए उवर, पण्णासम्भहिय सतय सहस्सा | दंडाणि गंतुणं, सिद्धाणं होवि आवासो ||३॥ १. द. ब. क. ज. ठ. जिणं । २. द. ब. क. ज. उ. जुगे । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० ] तिलोयपणती [ गाया : ४ प्रथं-आठवीं ( ईषत्प्राग्भार ) पृथ्वीके ऊपर सात हजार पचास धनुष जाकर सिद्धोंका आवास है ||३|| विशेषार्थ-अष्टम पृथ्वीसे ऊपर लोकके अन्तमें ४००० धनुष मोटा धनोदधिवातवलय, २००० धनुष मोटा घनवातवलय और १५७५ धनुष मोटा तनुवातवलय है । सिद्ध परमेष्ठी तनुवातवलयमें रहते हैं और इनकी उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ है । वातवलयों के प्रमाणमेंसे उत्कृष्ट अवगाहना घटा देने पर अष्टम पृथ्वीसे कितने योजन ऊपर जाकर सिद्ध स्थित हैं, यह प्रमाण प्राप्त हो जाता है । यथा ७०५० धनुष-( ४००० ५०+२००० ध०-१५७५ ध०)-५२५ धनुष । पणवो छप्पण-इगि-प्रद्ध-णह-चउ-सग-चउ-ख-चदुर-अड-कमसो। अट्ट - हिदा जोयणया, सिद्धाण णिवास - खिविमाणं ॥४॥ ८४०४७४०८१५६२५ णिवास-खेत्तं पदं ॥१॥ अर्थ-सिद्धोंके निवास क्षेत्रका प्रमाण अंक क्रमसे आठसे भाजित पांच, दो, छह, पांच, एक, आठ, शून्य, चार, सात, चार, शून्य, चार और पाठ इतने ( ८५४५४१८198२५ ) योजन है ।।४। विशेषार्थ-सिद्धोंके निवास क्षेत्रका व्यास मनुष्य लोक सदृश ४५ लाख योजन है और सिद्धप्रभुको उत्कृष्ट अवगाहना अर्थात् ऊंचाई ५२५ धनुष प्रमाण है । इसका घनफल इसप्रकार है सिद्धोंके निवास क्षेत्रकी परिधि= V४५ लाख२४१० = १४२३०२४९ योजन। सिद्धक्षेत्रका धनफल-- ( परिधि १४३५३४ }x(४५ लाख ध्यासका चतुर्थांश ) x (%8x- यो० ऊंचाई )। = ८४०४५४५३१४२५ घन योजन । या = १०५०५६२६११९५३६ घन योजन है। नोट-उपयुक्त प्रमाण घन योजनों में प्राप्त हुआ है किन्तु गाथामें केवल योजन कहे गये है । यह विचारणीय है। निवास क्षेत्रका कथन समाप्त हुआ। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२१ गाथा : ५-६ ] णवमो महाहियारो सिद्धों की संख्यातीव-समयाण संखं, अउ-समयभहिय-मास-छक्क-हिदा । अड-हीण-छस्सया'-हव-परिमाण-जुदा हवंति ते सिद्धा ॥५॥ अ । ५६२२ । मा६1 स. संखा गदा ॥ २॥ अर्थ-प्रतीत समयों की संख्या में छह मास और ८ समय का भाग देकर आठ कम छह सौ अर्थात् ५६२ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उतने [ (अतीत समय: ६ मास ८ समय) x ५९२] सिद्ध हैं ||५|| स्या का जशन समाप्त हुआ ।।२।। सिद्धों को अवगाहनापण-कदि-जुद-पंच-सया, प्रोगाहणया धणि उक्कस्से । प्राउडः - हत्यमेत्ता, सिद्धारण जहष्ण - ठाणमिम ॥६॥ ५२५ । हहै। मर्थ-इन सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना पाँच के वर्ग से युक्त पांच सौ [ (५४५)+ ५०० =५२५ ] धनुष है और जघन्य महगाहना साढे तीन (३३) हाथ प्रमाण है ॥६।। सणुवाद-बहल-संख, पण-सय-सवेहि ताणिण तदो। पग्णरत - सएहि भजिदे, उक्कस्सोगाहणं होदि ॥७॥ १५७५ । ५०० | ५२५ ।। अर्थ-तनुवात के बाहल्य की संख्या ( १५७५ १०) को पांच सौ ( ५०० ) रूपों से गुणा कर पन्द्रह सौ का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना । (१५७५४५००): १५०० ] अर्थात् ५२५ १० उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण होता है ।।७।। तणुवाद बहल-संखं, पण-सय- रुधेहि साणिवूण तो । रणव - लक्खेहि भजिदे, जहण्णमोगाहणं होवि ८॥ १. द.ब.क. ज. ठ. छसयावाद। ३... .ज.४. देगाणि। २.व. ब. अमा ५१२ । ४, द.ब.१५००।१५७५। ५००।१।५२५ । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ ] तिलोय पण सी १५७५ x ५०० ९००००० - सनुवात के बाहत्य की देने पर जघन्य अवगाहनाका [ ( १५७५×५०० ) : १००००० होता है ॥ ८ ॥ संख्या को पाँच सौ रूपों से गुणा करके नौ लाख का भाग धनुष - ३३ हाथ ] प्रमाण वीहत्तं बाल्लं, चरिम-भवे जस्स जारिसं ठाणं । ततो ति-भाग-हीणं ओगाहण सव्य - सिद्धाणं ॥ ६ ॥ [ गाथा । ६-११ पर्व-अन्तिम भने जिसका वैसा आकार, दीर्घता श्रीर बाहल्य हो उससे तृतीय भागसे कम सब सिद्धों की अवगाहना होती है ||६|| लोयविणिच्छ्रय-गंथे, लोयविभागम्मि सव्व-सिद्धाणं । श्रोगाहण - परिमाणं भणिवं किंचूण चरिम- बेह-समो ॥१०॥ पाठान्तरम् । अर्थ -- लोकविनिश्चय ग्रन्थ में तथा लोगविभाग में सब सिद्धोंकी अवगाहनाका प्रमाण कुछ कम चरम शरीरके सदृश कहा है ||१०|| पाठान्तर । पण्णा सुत्तर- तिसया, उक्करसोगाहणं हवे दंडं । तिय- भजिव-सत्त हत्था, जहण्ण श्रोगाहणं ताणं ॥ ११ ॥ ३५० । ह्र । ु । पाठान्तरम् । अर्थ- सिद्धोंकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ पचास ( ३५० ) धनुष और जघन्य अवगाह्ना तीनसे भाजित सात ( ) हाथ प्रमाण है ।। ११।। पाठान्तर । विशेषार्थ - मोक्षगामी मनुष्यके अन्तिम शरीरको उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष और जघन्य अवगाहना या ३३ हाथ प्रमाण होती है । कोई आचार्य अन्तिम भव से भाग कम अर्थात् ( ५२५ ) ३५० धनुष उत्कृष्ट और ( ३ ) या २ हाथ प्रमाण जघन्य श्रवगाहना मानते हैं । X १. व. व. २००००० । १५७५ । ५०० । । है । २. व. ब. क. भमिदं । | Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२३ गाथा 1 १२-१३ ] णवमो महाहियारो तणुवाद-पवण-बहले, दोहि गुणि णवेण भजिवम्मि | जं लद्ध' सिद्धाणं, उपकस्सोगाहणं ठाणं ॥१२॥ २२५० । १५७५ । ५०० । १ । एदेण ते-रासि'-लद्ध।। १५७५ । ३५० । पाठान्तरम् । प्रथ-तनुवात पवनके बाल्यको दोसे गुणित कर नौ का भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सिद्धोंकी उत्कृष्ट अवगाहनाका स्थान होता है ।।१२।। विशेषार्थ-तनुवातवलयका बाइल्प १५७५ धनुष प्रमाणांगुलकी अपेक्षा है और सिद्धों को उत्कृष्ट-जघन्य अवगाहना व्यवहारांगुल अपेक्षा है । तनुवातवलय की मोटाईको ५०० से गुरिणत करने पर ( १५७५४५०० = ) ७८७५०० व्यवहार धनुष प्राप्त होते हैं। सिद्ध परमेष्ठी उत्कृष्टता से तनुवात के एक खण्ड में विराजमान हैं । गाबकि 27 } ३Eष शाखण्ड होता है, तब ७८७५०० धनुषों के कितने खण्ड होंगे? इसप्रकार राशिक करने पर ( ११५०°- )२२५० खण्ड हुए । ये २२५० खण्ड व्यवहार धनुष से हैं, इनके प्रमाण धनुष बनाने के लिये इन्हें ५०० से भाजित करने पर (३)-४३ या प्रमाण धनुष (खण्ड) प्राप्त होते हैं । जबकि २२५० अर्थात् खण्डों का १५७५ धनुष स्थान है तब १ खण्ड का कितना होगा ? इसप्रकार पुनः पैराशिक करने पर (pxq =) ३५० धनुषका सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना का स्थान प्राप्त हुआ । मूल संदृष्टि में यही सब प्रमाण दिया गया है। पाठान्तर। तणवावस्स य बहले, छस्सय-पण्णत्तरीहि भजिवम्मि। जं ला सिखाणं, जहण्ण - प्रोगाहणं होवि ॥१३॥ १३५०००० । १५७५ ॥ २००० । १ । ते-रासिएण सिद्ध । पाठान्तरम् । मर्थ-तमुधात के बाहल्य में छह सौ पचहत्तर (६७५) का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सिद्धों की जघन्य अवगाहना का स्थान होता है ।।१३।। विशेषार्थ-पा० १२ के विशेषार्थानुसार यहाँ भी ( १५७५ x ५००= ) ७८७५०० व्यवहार धनुष प्राप्त हुए । सिद्धोंकी जघन्य अवगाहना का माप हाथ से है और उनकी अवस्थितिके स्थानका माप धनुष है अतः जबकि ४ हाथका एक धनुष होता है तब (६x= ) हाथके कितने १. सेरासियं। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : १४- १७ 4 धनुष होंगे? इसप्रकार राशिक करने पर ( है x ) धनुष प्राप्त हुए। जबकि धनुष का १ खण्ड होता है, तब ७८७५०० धनुषोंके कितने खण्ड होंगे ? इस त्रैराशिक से (८७५००×3) १३५०००० खण्ड प्राप्त हुए । य खण्ड व्यवहार धनुष से हैं. इनके प्रमाण धनुष और प्रमाण धनुषों के प्रमाण हाथ बनानेके लिए इन्हें (५०० x ४ = ) २००० से भाजित करनेपर (* =) ६७५ खण्ड प्राप्त हुए । जबकि ६७५ खण्डोंका १५७५ धनुष स्थान है, तब १ खण्डका कितना स्थान होगा ? इस राशिक से ( ' = ) हाथका सिद्धोंकी जघन्य अवगाहना का स्थान प्राप्त हुआ । 44 मूल संदृष्टिमें यही सब प्रमाण दर्शाया गया है । raneer सम्पादि-वि-जीवाश्रो । होंति प्रणंताणंता, 'एक्केणोगा हि खेत्त मज्झम्मि ।।१४।। श्रमं - एक सिद्ध जीवसे श्रवगाहित क्षेत्र के भीतर जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम श्रवगाहनावाले अनन्तानन्त सिद्ध जीव होते हैं || १४ || पाठान्तर । माणुसलोय पमाणे, संधि-तणुवाद-उवरिमे भागे । सरिस सिरा सव्वाणं, हेडिम भागम्मि विसरिसा केई ।। १५ ।। अर्थ- मनुष्यलोक प्रमाण स्थित तनुवालके उपरिम भाग में सब सिद्धोंके सिर सदृश होते । अधस्तन भाग में कोई विसदृश होते हैं ।। १५ ।। जावद्धम्प द्दव्यं तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । 1 ति सब सिद्धा, पुह ह गय सिस्थ- मूस - गम्भ-पिहा ।।१६।। श्रोगाणा गवा ॥३॥ अर्थ - जहाँ तक धर्मद्रव्य है वहाँ तक जाकर लोक शिखरपर सब सिद्ध पृथक्-पृथक् मोमसे रहित मूलक (सांचे ) के अभ्यन्तर आकाश के सह स्थित हो जाते हैं ।। १६ ।। - अवगाहनाका कथन समाप्त हुआ || ३ || सिद्धोंका सुख रुम वा गिट्टियकज्जा णिच्चा गिरंजरला पिरुजा । निम्मल बोधा सिद्धा, निरवज्जा रिएक्कला सगाधारा ॥ १७॥ १. ५. ब. बा. ज ठ एवकेोगदि । २. द. ब. क. ज. द. गसिद्ध 1 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । १८-२३ ] णवमो महाहियारो [६२५ लोयालोय विभाग, तम्मिट्ठिय सम्व-वन्व-पज्जायं । तिय-काल-गवं सम्वं, जाति हु एक्क - समएण ॥१८॥ अर्थ-अनुपम स्वरूपसे संयुक्त, कृतकृत्य, नित्य, निरंजन, नीरोग, निर्वद्य, निष्पाप, स्वआधार और निर्मलज्ञानसे युक्त सिद्ध परमेष्ठी लोक और अलोकके विभागको, लोक स्थित सर्व द्रव्यों और उनकी त्रिकालवी सब पर्यायोंको एक ही समयमें जानते हैं ।।१७-१८।। जाइ-जरा-मरणेहि, जिम्मुक्का णिम्मला अणक्खयरा । अवगद - वेवा सम्वे, अणंत - बोहा प्रणेत • सुहा ।।१६॥ किचकिचचा सचण्ह, सत्ताघादा सदा-सिवा सुद्धा । परमेट्ठी परम - सुही, सव्वगया सव्य - दरिसोय ॥२०॥ अव्वाबाहमणतं, अक्खयमणुवमणिदियं सोक्खं । अप्पुढे भुजति हु, सिद्धा सदा - सदा सम्वे ॥२१॥ सौख समस ॥४॥ अर्थ-जन्म, जरा और मरणसे विनिमुक्त, निर्मल, अनक्षर ( पान्दातीत ), वेद से रहित, अनन्तज्ञानी, अनन्तसुखी, कृतकृत्य, सर्वज्ञ, स्व-सत्तासे सब कर्मोका घात करनेवाले, सदाशिव, शुद्ध, परम पदमें स्थित, परम सुखी, सवंगत, सर्वदर्शी, ऐसे सर्व सिद्ध अव्यावाध, अनन्त, अक्षय, अनुपम और अतीन्द्रिय सुखका निरन्तर भोग करते हैं ।।१९-२१|| इसप्रकार सुख प्ररूपण समाप्त हुभा ॥४॥ सिद्धत्वके कारणजह चिर-संचिमिधणमणलो पवणाहदो लाहुं वाहइ । तह कम्मिश्रणमाहियं, खणेण झाणाणलो बहइ ।।२२।। अर्थ-जिसप्रकार चिर-सञ्चित ईंधनको पवनसे आहत अग्नि शीघ्र ही जला देतो है, उसीप्रकार ध्यानरूपी अग्नि बहुतभारी कर्मरूपी ईधनको क्षण-मात्रमें जला देती है ।।२२।। जो खविद' मोह-कलुसो, विसय-विरतो मरणो णिभित्ता। समबट्टिबो सहावे, सो पावइ णिदि सोक्खं ॥२३॥ १. द. क. क. पिविदमोहके खलुसो। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४-२६ अर्थ-जो दर्शनमोह और चारित्रमोहको नष्ट कर विषयोंसे विरक्त होता हुआ मनको रोककर ( आत्म-) स्वभावमें स्थित होता है वह मोक्ष-सुखको प्राप्त करता है ।।२३।। जस्स ण विजवि रागो, वोसो मोहो व जोग-परिकम्मो। तस्स सुहासुह - दहण - उमाणमनो जायदे अगणी ॥२४॥ अर्थ-जिसके राम, द्वेष, मोह और योग-परिकर्म (योग-परिणति) नहीं है उसके शुभाशुभ (पुण्य-पाप ) को जलानेवाली ध्यानमय अग्नि उत्पन्न होती है ।।२४।। देसण-णाण-समग्गं, झार्ण णो अण्ण - दन - संसत्तं । जायदि णिज्जर - हेदू, सभाव - सहिदस्स साहुस्स ॥२५॥ अयं-( शुद्ध ) स्वभाव युक्त साधुका दर्शन-शानसे परिपूर्ण ध्यान निर्जराका कारण होता है, अन्य द्रव्योंसे संसक्त वह ( ध्यान ) निर्जराका कारण नहीं होता ॥२५।। जो सव्व-संग-मुक्को, अणण्ण-मणो अपणो' सहावेण । जाणदि पस्सदि प्राद, सो सग-चरियं चरवि जोवो ॥२६॥ प्र-जो ( अन्तरङ्ग बहिरङ्ग ) सर्व सङ्गसे रहित और अनन्यमन ( एकाग्रचित्त ) होता हमा अपने चैतन्य स्वभावसे आत्माको जानता एवं देखता है. वह जीव आत्मीय चारित्रका आचरण करता है ॥२६॥ णाणम्मि भावणा खलु, कादव्या दंसणे चरित्ते य । ते पुण पादा तिणि वि, तम्हा कुण भावणं आदे ॥२७॥ अर्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें भावना करनी चाहिए । यद्यपि वे तीनों ( दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) आत्मस्वरूप हैं अतः आत्मामें हो भावना करो ।।२७।। प्रहमेक्को स्खलु सुठो, दसण-णाणप्पगो सवालवी। ण यि अस्थि मज्झि किषि वि, 'अण्णं परमाणुमेत्तं पि ॥२८॥ प्रयं-मैं निश्चयसे सदा एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानात्मक और प्ररूपी हूँ। परमाणु मात्र ( प्रमाण भी ) अन्य कुछ मेरा नहीं है ।।२८।। पतिथ मम कोइ मोहो, 'बुज्झो उवजोगमेवमहमेगो। इह भाषणाहि जुचो, खवेइ दुट्ट • कम्माणि ॥२६॥ १ व. ब. क. ज. ठ. पणो अपणा । २. ६. ब. क. ज..णाणप्पा सगारूथी।३.द.ब. अमिना । ४. द. दुग्झो उक्जोगमेदभेवमहमेमो, ब. खुन्भो उवज्जोग....... । Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ३०-३५ ] नमो महाहियारो [ ६२७ अर्थ-मोह मेरा कुछ भी नहीं है, एक ज्ञान दर्शनोपयोगरूप ही में जानने योग्य हूँ; ऐसी भावनासे युक्त जीव दुष्ट कर्मोंको नष्ट करता है ॥२९॥ नाहं होमि परेसि ण मे परे संति' जाण महमेवको । इदि जो कायदि भाणे, सो सुच्चइ अट्ठ कम्मेहि ||३०|| प्रर्थन में पर पदार्थोंका हूं और न पर पदार्थ मेरे हैं. मैं तो ज्ञान-स्वरूप अकेला ही हूँ; इस प्रकार जो ध्यान में चिन्तन करता है वह आठ कर्मो से मुक्त होता है ||३०|| चित्त-विरामे धिरमंति, इंदिया इंदियासु विश्वसुं । आद-सहावी, होवि पुढं तस्स णिव्वाणं ॥ ३१ ॥ - अर्थ-चित्तके शान्त होनेपर इन्द्रिय शान्त होती हैं और इन्द्रियोंके शान्त होनेपर आत्मस्वभाव में रति होती है, फिर उसका स्पष्टतया निर्वाण होता है ||३१|| जाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि । एवं खलु जो भाओ, सो पावइ सासयं ठाणं ॥ ३२ ॥ अर्थ-न में देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ । इसप्रकार का जो भाव है ( उसे भाने वाला ) वह शाश्वत स्थानको प्राप्त करता है ||३२|| वेहो व मणो वाणी, पोग्गल दब्बं परोसि' णिद्दिट्ठ । पोग्गल - दव्वं पि पुणो, पिंडो परमाणु-वन्वाणं ||३३|| अर्थ -- देह के सदृश मन और वारणी पुद्गल द्रव्यात्मक पर हैं ऐसा कहा गया है। पुनः पुद्गल द्रव्य भी परमाणु द्रव्यों का पिण्ड है ॥३३॥ णाहं पुग्गलमइश्रो, ण वे मया पुग्गला कदा पिंडं । तम्हा हि ण बेहो हैं, कत्ता वा तस्स देहस्स ||३४|| अर्थ- -न में पुद्गलमय हूं और न मैंने उन पुद्गलोंको पिण्ड ( स्कन्ध ) रूप किया है, इसलिए न में देह हूँ और न इस देहका कर्ता ही हूँ ||३४|| एवं णाणप्पाणं, दंसण धुवममलमणालंबं १. द. ब. सिंहि १ भावेनं सूदं अदिदियमहत्यं । प्रप्ययं सुद्ध ॥३५॥ २. ६. ब. क. ज. ४. गरो । ३ द. ब. क. ज. ठ. धम्मं । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ ] तिलोत्त [ गाथा : ३६-४१ अर्थ - इसप्रकार ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, श्रतीन्द्रिय, महार्थ, नित्य, निर्मल और निरालम्ब शुद्ध आत्माका चिन्तन करना चाहिए ||३५|| नाहं होमि परेसि, ण मे परे संति णाणमहमेवको । इवि जो भार्यादि झाणे, सो अप्पा हवदि भावो ||३६|| अर्थ-न मैं पर पदार्थोंका हूं और न पर पदार्थ मेरे हैं मैं तो ज्ञानमय अकेला हूँ, इसप्रकार जो ध्यान में आत्माका चिन्तन करता है वही ध्याता है ।। ३६ । जो एवं जाणित्ता, हादि परं अव्ययं विसुद्धप्पा | श्रममपारमदिसय', सोक्खं पावेदि सो जीओ ॥३७॥ - जो विशुद्ध आत्मा इसप्रकार जानकर उत्कृष्ट श्रात्माका ध्यान करता है वह जीव अनुपम, अपार और श्रतिशय सुख प्राप्त करता है ।। ३७।। होत्थि मज्झमि किचि । एवं खलु जो भावद्द, सो पावs सन्ध कल्लाणं ॥ ३८ ॥ - मैं पर पदार्थका हूं और न पर पदार्थ मेरे हैं, यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है; जो इसप्रकार भावना भाता है वह सब कल्याण पाता है ||३८|| उड्डोध - मज्झ लोए, ण मे परे णस्थि मज्झमिह किचि । वह भावणाहि जुतो, सो पावइ श्रक्खयं सोक्खं ||३६|| - यहाँ ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोकमें पर पदार्थ मेरे कुछ भी नहीं है, यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है । इसप्रकार की भावनाओं से युक्त वह जीव श्रक्षय-सुख पाता है ॥३९॥ मद-माण- माय रहिदो लोहेण विवज्जिदो य जो जीवो । णिम्मल सहाव जुत्तो, सो पावह प्रक्खयं ठाणं ॥ ४० ॥ अर्थ - जो जीव मद, मान एवं मायासे रहित; लोभसे वर्जित और निर्मल स्वभावसे युक्त होता है वह अक्षय स्थान को पाता है ||४०|| परमाणु-माणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । सोण विजानदि समयं सगस्य सव्यागम-धरो वि ॥४१॥ १. द. ब. क. ज ठ सयं । २. व. व. क. जादि । T Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ४२-४६ ] रणबमो महाहियारो [६२९ अर्थ-जिसके परमाणु प्रमाण भी देहादिकमें राम है, वह समस्त प्रागमका धारी होकर भी अपने समय ( आत्मा) को नहीं जानता है ॥४१।। तम्हा' णिबुदि-कामी, रागं देहेसु कुणदु मा किचि । देह - विभिण्णो अप्पा, झायन्बो इंदियादीदो ।।४।। प्रर्थ-इसलिए हे मोक्षाभिलाषी ! देहमें कुछ भी राग मत करो। ( तुम्हारे द्वारा ) देहसे भिन्न अतीन्द्रिय आत्माका ध्यान किया जाना चाहिए ।।४२।। देहत्थो देहावो, फिचणो देह - बलियो सुखो। देहायारो अप्पा, झायव्यो इंखियातीदो ॥४३॥ अर्थ-देहमें स्थित, देहसे कुछ कम, देहसे रहित, शुद्ध, देहाकार और इन्द्रियातीत प्रात्मा का ध्यान करना चाहिए ।१४३।। झाणे जवि णिय-प्रादा, णाणादो णावभासदे जस्स । झाणं होधि ण तं पुण, जाण पमादो हु मोह-मुच्छा वा ॥४४॥ अर्थ-जिस जीवके ध्यान में यदि ज्ञानसे निजात्माका प्रतिभास नहीं होता है तो फिर वह ध्यान नहीं है । उसे ( तुम ) प्रमाद, मोह अथवा मूर्छा हो जानो ।।४४।। गयसित्थ-मूस-गब्भायारो रयणतयादि-गुण-जत्तो । णिय-यादा मायव्यो, खय - रहिदो जीव-घण-देसो ॥४५॥ अर्थ-मोमसे रहित मूसकके ( अभ्यन्तर ) आकाशके प्राकार, रलवयादि गुणों से युक्त, अविनश्वर और प्रखण्ड-प्रदेशी निज प्रात्माका ध्यान करना चाहिए ।।४।। जो आव-भाव-गमिणं, रिणव-जुत्तो मुरणो समाचरदि। सो सन्द • दुक्ख - मोक्खं , पावइ अधिरेण कालेण ॥४६।। अर्थ-जो साधु नित्य उद्योगशील होकर इस आत्म-भावनाका आचरण करता है वह थोड़े समयमें ही सब दुःखों से छुटकारा पा लेता है ।।४६ ।। १. य. सेमा, म. तम्मा। ३.द.व. वमणी। २. ३. क. ज, उ. झायो । ४. द. ज. स. मोक्वे,ब.क. मोक्खो । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तो [ गाथा । ४७-५२ कम्मे णोकम्मम्मि प, अहमिवि अहयं च कम्म-णोकम्म । जायदि सा खलु बुद्धी, सो हिंडइ गरुव - संसारं ॥४७॥ प्रयं-कर्म और नोकर्म में "मैं हूँ" तथा मैं कर्म-नोकर्मरूप है; इसप्रकार जो बुद्धि होती है उससे यह प्राणी गहन संसारमें घूमता है ।।४७॥ जो खविध-मोह-कम्मो, विसय-विरत्तो मरणो णिहाभत्ता। समवद्विदो सहावे, सो मुच्चइ कम्म - णिमलेहिं ॥४८॥ प्रार्थ-जो मोहकमं ( दर्शनमोह और चारित्रमोह ) को नष्टकर विषयोंसे विरक्त होता हुआ मनको रोककर स्वभाव में स्थित होता है, वह कर्मरूपी साँकलोंसे छूट जाता है ।।४।। पडिदिदि-प्रणभाग-प्पदेस बंधेहि यज्जियो अप्पा । सो हं इदि चितेजो, तत्थेव य कुणह थिर-भावं ॥४६॥ प्रर्ष-जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धसे रहित आत्मा है वही मैं हूँ, इसप्रकार चिन्तन करना चाहिये और उसमें ही स्थिरता करनी चाहिये ॥४९।। केवलणाण-सहायो, केवलदसण-सहाओ सुहमइयो। केवल-विरिय-सहायो, सो हं इवि चितए खाणी ॥५०॥ अर्थ-जो केवलज्ञान एवं केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुख-स्वरूप और केवल-वीर्य-स्वभाव है वही मैं हूँ, इसप्रकार ज्ञानी जीवको विचार करना चाहिए ।।५०।। जो सब-संग-मुक्को, झायवि अप्पागमप्पणो' अप्पा । सो सब दुक्ख-मोक्खं, पावइ अचिरेण कालेण ॥५१॥ प्रर्म-सर्व सङ्ग (परिग्रह) से रहित जो जीव अपने प्रात्माका प्रात्माके द्वारा ध्यान करता है वह थोड़े ही समय में समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है ॥५१॥ जो इच्छधि हिस्सरि, संसार-महण्णवस्स दस्स । सो एवं जाणित्ता, परिझायवि अप्पयं सुद्ध' ॥५२॥ मर्थ-जो गहरे संसाररूपी समुद्र से निकलने की इच्छा करता है वह इसप्रकार जानकर शुद्ध प्रास्मा का ध्यान करता है ॥५२॥ १ क ब. क.ज. उ. अप्पाण पप्पणो। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ५३-५८] णवमो महाहियारो [ ६३१ पडिकमणं पडिसरणं, पडिहरणं धारणा णियत्ती य । णिवण-गरहण सोही, लभंति णियाव-भावणए ॥५३॥ अर्थ-निजात्म-भावना से ( जीव ) प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन, गर्हण और शुद्धिको प्राप्त करते हैं ।।५३11 जो णिहद-मोहनांठी, राय-पदोसे' हि खविय सामण्णे । होजं सम-सुह-बुक्स्यो , सो सोक्खं अक्षयं लहवि ॥५४॥ अर्थ-जो मोह रूप ग्रन्थिको नष्टकर श्रमण अवस्था में राग-द्वेष का क्षपण करता हुमा मुख-दुःख में समान हो जाता है, वह अश्मय सुखको प्राप्त करता है ।।५।। ण जहवि जो दु' ममत्तं, ग्रहं ममेदं ति देह-दविणेसु। सो मूढो अण्णाणी, बज्झवि युट्टव - कम्मेहि ॥५५॥ अर्थ-जो देह में 'अहम्' ( मैं पना ) और धन में 'ममेद' ( यह मेरा ) इस दो प्रकार के ममत्वको नहीं छोड़ता है, वह मूर्ख अज्ञानी दुष्ट कर्मों से बंधता है ।।५५।। पुण्णण होइ विहओ, विहवेण मओ' मएण मह-मोहो । मद - मोहेण य पाषं, तम्हा" पुण्णो विवज्जेज्जो ॥५६।। प्रथं-पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मति-मोह और मति-मोह से पाप होता है, अतः पुण्यको छोड़ना चाहिए ।५६।। __ परमद्र-बाहिरा जे, ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । संसार - गमण - हेदु, विमोक्ख - हेदु अयाणंता ॥५७।। अर्थ-जो परमार्थ से बाहर हैं वे संसार-गमन और मोक्षके हेतु को न जानते हुए अज्ञान रो पुण्यकी इच्छा करते हैं ।।५७।। ण हु मण्णवि जो एवं", गस्थि विसेसो ति पुण्ण-पावाणं। हिंदि घोरमपारं, संसारं मोह - संछण्णों ॥५८।। अय--पुण्य और पाप में कोई भेद नहीं है, इसप्रकार जो नहीं मानता है, वह मोह से युक्त होता हुआ घोर एवं अपार संसार में भ्रमण करता है ।।५८।। --- -.--- . -- -- - - १. द. ब. क. पदोसो। २. द ब, क, ज. ठ. दुक्खं । ३. ब है। ४. ६. माया। ५. ६. ब. क. तम्मा। ६.६.ब. क.उ. णयाणंता । ७. द. ब, क, ठ, एणं। . द.न. समोरपणो । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ तिलोत्त मिच्छत्तं अण्णाणं, पावं पुष्णं चएषि तिविहेणं । सोचियेण जोई, झायध्वो अध्ययं सुद्ध ॥५६ ।। - मिध्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य इनका ( मन, वचन, काय ) तीन प्रकार से श्याग करके योगी को निश्चय से शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिये || ५६ ॥ [ गाथा । ५६-६४ जीवो परिणमदि जया, सुहेण असुहेरण वा सुहो प्रसुहो । सुद्धरेण तहा सुद्धो, यदि हु परिणाम सम्भावो ॥६०॥ अर्थ- परिणाम-स्वभावरूप जीव जब शुभ प्रथवा अशुभ परिणाम से परिणमता है तब शुभ अथवा अशुभ (रूप ) होता है और जब शुद्ध परिणाम से परिणमता है तब शुद्ध होता है ॥६ना धम्मेण परिणवा, श्रप्पा जइ सुद्ध संपजोग - जुदो । पावs जिग्बाण- सुहं, सुहोबजुतो य सम्म सुहं ॥ ६१ ॥ · अर्थ-धर्म से परिणत आत्मा यदि शुद्ध उपयोग से युक्त होता है तो निर्वाण-सुखको भौर शुभोपयोग से युक्त होता है तो स्वर्ग सुखको प्राप्त करता है ।। ६१ ।। असुहोबएण श्रादा', कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो । दुक्ख सहस्सेहिं सदा, श्रभिधुदो भमदि प्रच्तं ॥ ६२ ॥ अर्थ शुभोदय से यह आत्मा कुमानुष, तिर्यञ्च और नारकी होकर सदा प्रचिन्त्य हजारों दुःखों से पीड़ित होकर संसार में अत्यन्त ( दीर्घकाल तक ) परिभ्रमण करता है ||६२|| दिसयमाद समेतं, विसयातीदं श्रणोवममणंतं । अछिण्णं च सुहं, सुद्ध वओोगप्प- सिद्धाणं ।। ६३॥ अर्थ- शुद्धोपयोग से उत्पन्न सिद्धों को अतिशय, आत्मोत्थ, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और विच्छेद रहित सुख प्राप्त होता है || ६३।। रागादि-संग-सुक्को, बहह मुखी सेय भाण झाणेणं । 1 कमिण संघायं प्रणेय भव संचियं खिप्पं ॥ ६४ ॥ - · अर्थ - रागादि परिग्रह से रहित मुनि शुक्लध्यान नामक ध्यान से अनेक भवों में संचित किये हुए कर्मरूपी ईंधन के समूहको शीघ्र जला देता है ||६४|| १. द. ब. क. ज. ठ. यादी । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा । ६५-६९ ] णमो महाहियारो जो संकप्प-वियप्पो, तं कम्मं कुर्यादि असुह-सुह-जगणं । अप्पा सभाव लद्धी, जाव ण हियये परिफुरइ ||६|| - - अर्थ- जब तक हृदय में आत्म-स्वभाव की उपलब्धि प्रकाशमान नहीं होती तब तक जीव संकल्प - विकल्परूप शुभ-अशुभको उत्पन्न करने वाला कर्म करता है ||६५॥ बंधाणं' च सहावं, विजाणिदु अप्परगो सहावं च । अंधे जो ण रज्जदि, सो कम्म' विमोषखणं कुणइ ।। ६६ ।। अर्थ --- जो बन्धों के स्वभावको और आत्माके स्वभावको जानकर बन्धों में अनुरञ्जायमान नहीं होता है, वह कर्मोका मोक्ष (क्षय) करता है ।। ६६ ।। जाव ण वैदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोन्हं पि । अण्णाणी ताव दु सो, विसयादिसु वट्टते जीवो ॥ ६७ ॥ [ ६३३ अर्थ- जब तक जीव आत्मा और आस्रव इन दोनों के विशेष अन्तरको नहीं जानता सब तक वह अज्ञान विषयादिकों में प्रवृत्त रहता है ॥६७॥ विपरिणमदि* ण गेहबि, उप्पज्जबि ण परदव्य-पज्जाए । णामी जाणतो वि हु, पोग्गल - दव्वं" अलेय विहं ॥ ६६ ॥ - अर्थ- ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्यको जानता हुआ भी परद्रव्य-पर्याय से न परिणमता है, न ( उसे ) ग्रहण करता है और न ( उस रूप ) उत्पन्न होता है ॥ ६८ ॥ जो परदम्बं तु सुहं, असुहं या मण्णदे विमूढ-मई । सो मूढो अण्णाणी, बज्भदि बुद्ध कम्मेहिं ॥६६॥ - एवं भावणा समता ||५|| अर्थ- जो मूढ़-मति पर द्रव्यको शुभ अथवा अशुभ मानता है, वह मूढ़ अज्ञानी दुष्ट आठ कर्मो से अंधता है ।। ६९॥ इसप्रकार भावना समाप्त हुई ||५|| १. व. ब. क. ठ. बद्धाणं । २. द. व. क. उ. रंग । ३. द. ब. क. विसेसंभतरं । ४. द. ब. परणमदि । ५. ब. दव्वमणेय विहं 1 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ ] तिलोयपणाती [माया ! ७०-७५ कुन्थुनाथ जिनेन्द्र से वर्धमान जिनेन्द्र पर्यन्त आठ तीर्थंकरों को क्रमशः नमस्कार--- केवलणाण-विसं, चोत्तोसादिसय - भूदि - संपण्णं । अप्प - सरूवम्मि ठिदं, कुथु - जिणेसं रगमंसामि ॥७०॥ अर्थ--जो वेधलज्ञानरूप प्रकाश युक्त सूर्य हैं, चौंतीस अतिशयरूप विभूति से सम्पन्न हैं और प्रात्म-स्वरूप में स्थित हैं, उन कुन्थुजिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ 11७०।। संसारण्णव-महणं, तिहुवण-भवियाण सोक्ख-संजणणं । संदरिसिय - सयलत्यं', अर - जिणणाहं णमंसामि ॥७१॥ अर्थ-जो संसार-समुद्र का मथन करने वाले हैं और तीनों लोकों के भव्य जीवों को मोक्ष के उत्पादक हैं तथा जिन्होंने सकलपदार्थ दिखला दिये हैं, ऐसे पर जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥७१॥ भव्य-जण-भोक्ख-जणणं, मुणिव-देविंद-पणद-पय-कमलं । अप्प-सुहं संपत्तं, मल्लि - जिणेसं णमंसामि ॥७२॥ अर्थ-जो भव्य-जीवों को मोक्ष-प्रदान करने वाले हैं, जिनके चरण-कमलों में मुनीन्द्रों और देवेन्द्रों ने नमस्कार किया है, आत्म-सुख से सम्पन्न ऐसे मल्लिनाथ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥७२॥ रिगट-वियघाइ-कम्म, केवल-णाणेण विट्ठ-सयलत्थं । णमह मुणिसुव्यएसं, भवियाणं सोक्ख - देसयरं ॥७३॥ अर्थ-जो धातिकर्मको नष्ट करके केवलज्ञानसे समस्त पदार्थों को देख चुके हैं और जो भव्य जीवों को सुखका उपदेश करने वाले हैं. ऐसे मुनिसुव्रतस्वामी को नमस्कार करो ॥७३॥ घण-घाइ-कम्म-महणं, मुणिद-देविव-पणद-पय-कमलं। पणमह णमि-जिणणाहं, तिवण-भवियाग सोपवयरं ।।७४॥ प्रपं-घन-घाति-कर्मोंका मथन करने वाले. मुनीन्द्र और देवेन्द्रों से नमस्कृत चरण-कमलों से संयुक्त, तथा तीनों लोकों के भव्य जीवोंको मुख-दायक, ऐसे नमि जिनेन्द्रको नमस्कार करो १७४।। इंद-सय-णमिद-चरणं, आद-सरूवम्मि सम्व-काल-गदं । इंघिय - सोषख - विमुषर्क, णेमि - जिणेसं णमंसामि ॥७५।। १.१. ब. क. ४. सयलदं। Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा : ७६-७९ ] परमो महाहियारो [ ६३५ अर्थ-सी इन्द्रों से नमस्कृत चरणवाले, सर्वकाल आत्मस्वरूप में स्थित और इन्द्रिय-सुखसे रहित ऐसे नेमि जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ॥७५॥ कमठोपसग्ग-दलणं, तिहुयण भवियाण मोक्ख- देसयरं । पण मह पास जिणेसं, घाइ चटवर्क विणासरं ॥ ७६ ॥ - M प्रथं - कमठकृत उपसर्गको नष्ट करनेवाले, उपदेशक और घाति चतुष्टय के विनाशक पार्श्व- जिनेन्द्रको नमस्कार करो ||७६ || एस सुरासुर-मसिंह - बंदिदं घोट-घाइ-कम्म-मलं । पणमामि वयमाणं, तित्यं धम्मस्स कत्तारं ॥७७॥ तीनों लोकों सम्बन्धी भव्योंके लिये मोक्ष के अर्थ-- जो इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तियों से वंदित, घातिकर्मरूपी मलसे रहित और धर्मतीर्थ के कर्ता हैं उन वर्धमान तीर्थंकर को में नमस्कार करता हूँ ||७७॥ पंच परमेष्ठी को नमस्कार * मालिनी छन्द जयउ जिणवरदो, कम्म- बंधा अबद्धो', जयज-जयज सिद्धो सिद्धि-मग्गो समग्यो । जयज जय-अणंदो, सूरि-सत्थो पसत्यो, जयउ जदि वदो उग्ग-संघों प्रविग्धो ॥ ७८ ॥ अर्थ- कर्मबन्ध से मुक्त जिनेन्द्र जयवन्त होवें भगवान् जयवन्त होवें, जगत् को प्रानन्द देने वाला प्रशस्त रहित साधुओं का प्रबल संघ लोकमें जयवन्त होवे ||७८ || हुए चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करो ।। ७९ ।। भरतक्षेत्रगत चौबीस जिनोंको नमन समग्र सिद्धि मार्ग को प्राप्त हुए सिद्ध सूरि-समूह जयवन्त होवे और विघ्नों से परमह् चजवीस- जिणे, तिथयरे तत्थ भरहखेत्तम्मि । सवाणं भवदुषखं, छिवंते नाग परसेहि ॥७६॥ प्रर्थ - जो ज्ञान रूपी परशुसे सब जीवों के भव-दुःखको छेदते हैं, उन भरतक्षेत्र में उत्पन्न १. द. व. अबंधो २. द. व. क. ठ. समग्या । १. ६. ब. रु. ठ. बड्डीणं । ४, ६, ब. क. ठ. परेहि - Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ८०-८२ ग्रन्थान्त मङ्गलाचरणपण मह जिणवर-वसहं, गणहर-वसहं तहेव गुणहर-वसहं । दुसह-परीसह वसहं, जदिवसहं धम्म-सुच-पाढए'-वसहं ॥५०॥ अर्थ-जिनवर वृषभको, गुणों में श्रेष्ठ गणधर वृषभ को तथा दुस्सह परीषहों को सहन करने वाले एवं धर्म-सूत्रके पाठकों में श्रेष्ठ यतिवृषभको नमस्कार करो ॥८०|| ग्रन्धका प्रमाण एवं नाम आदिचण्णिसहवं अट्ट, करपवम • पमाण - किंजतं । अढ - सहस्स - पमाणं, तिलोयपण्णत्ति - णामाये ॥१॥ मगप्पभावण?', पवयण-भत्ति-प्पचोदिदेण मया । भणिवं गंथ - पवर, सोहंतु बहुस्सुदाइरिया ॥२॥ एकमाइरिय-परंपरा-गय-तिलोयपणतीए सिद्धलोय-सरुव णिरूवण-पण्णत्ती गाम रणवमो महाहियारो समतो ॥६॥ प्रर्थ-पाठ ( हजार ) पद प्रमाण चूरिणस्वरूप के तुल्य आठ हजार श्लोक प्रमाण यह त्रिलोक-प्रज्ञप्ति नामक महान ग्रंथ मार्ग-प्रभावना एवं अष्ट-प्रवचन भक्ति से प्रेरित होकर मेरे द्वारा कहा गया है । बहुश्रुत आचार्य ( इसका ) शोधन करें ।।५१-५२॥ इसप्रकार प्राचार्य परम्परा से प्राप्त हुई त्रिलोक प्रज्ञप्ति में सिद्धलोक-स्वरूप-निरूपणप्रज्ञप्ति नामक नवौं महाधिकार समाप्त हुआ। -.. ... --- १, ६, ब. क. . पाढर । Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः [ हिन्दी टोकाकी पू० प्रायिका विशुद्धमतीजी रचित ] * उपेन्द्रवजा * अगाधसंसार महार्णवं यस्तपस्तरण्या सुतरां ततार । स पाश्र्धनाथः प्रणतः सुरौनिपातु मां मोह महाधिगं दाक् ॥१॥ * उपजाति: * श्री मूलसंघे जगतोप्रसिद्ध स नन्दिसंघोऽअनि जनमान्यः । यस्मिन् बलात्कारगणश्च जातो गच्छश्च सारस्वत संज्ञितोऽभूत् ॥२॥ बभूव तस्मिन् सितकोतिराशिविभासिताशेष दिगन्तरालः । श्री कुन्दकुन्यो यतिवृन्दवन्धो दिगम्बरः सरिवरो वरीयान् ।।३।। तत्रैव जाता यतयो महान्तः समन्तभद्रादिशुभाहमास्ते । भुतायो यै मथितः सुबुद्धघा सुमेणा मोषसुधा च लम्बा ॥४॥ तत्रैव वंशे गगनोपमाने सूर्याभसूरिः स बभूव भू यः । 'श्रीशान्सिसिन्धर्गरिमाभि युक्तः प्रचारितो येन शिवस्य पन्थाः ॥५॥ तस्याथ पट्टमुनि वीरसिन्धुः प्रगल्भबुद्धिः समयाप सूरिः । यस्यानुकम्पामृतपानतृप्ता बभूवुराखिल साधुसनः ॥६॥ तस्यापि शिष्यः शिवसागरोऽभूत कृशोऽपि कायाकृशः सबुद्धया । शिष्या यदीयाः प्रथिताः पृथिव्या यदीय कीति वितता प्रचाः ॥७॥ तबीय पादाग्जरजा प्रसादाद भवाद् विरक्ता मतिरत्र मंऽभूत् । प्रदाय दीक्षां भुवि पालिसाहं पत्रीव येनातिकृपा विधाय ॥ अस्यवसङ्घ श्रुतसागराख्यो मुनीश्वरो मां कृपया समीक्ष्य । कृत प्रवेश करणानुयोगे चकार, चारित्रविभूषितात्मा ॥६॥ प्रय सङ्घऽजितसागराख्यो गोर्वाणवाणी निपुणां विधाय । स्वाध्याययोग्यां श्रुतसन्ततीनां व्यधा वयाप्रेरितमानसो माम् ॥१०॥ ---- - - - १. श्री शान्तिसागरः। २. बोरसागरः । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्ती दिवंगतेऽस्मिन् शिवसागरेश्त्र बभूव तत्पट्टपतिर्मनोज्ञः । 'श्रीधर्मसिन्धुर्यमिनां सुबन्धुः करोति यः संयमिनां सुरक्षाम् ।।११।। * अनुष्टुप् * तस्मिन् संधे मुनिर्जातः सन्मतिसागराभिधः । लोकज्ञतागुणोपेतो धर्मवात्सल्यसंयुतः ॥१२॥ धायिका सद्वतादाने तेनैवाह समीरिता। जाताऽशुद्धपतित्वा विशुद्धमतिसंजिता ॥१३॥ वीरमत्यादिमत्याद्या मातरस्तत्र सन्ततम् । सत्तपश्चरणोद्युक्ताः साधयन्त्यात्मनो हितम् ॥१४॥ रत्नचन्द्रो महाविद्वानागमज्ञानभूषितः । गृहाद विरज्य संघेऽस्मिन् स्वाध्यायं विवधात्य सां ॥१५॥ एतस्य प्रेरणां प्राप्य ममापि रुचिरुद्यता । पागमाभ्यास सत्कार्ये स्वात्मकल्याणकारिणी ॥१६॥ गहाद विरज्य सन्नार्यः काश्चिदात्महितोधताः । साधयन्त्यात्मनः श्रेय एतत्संघस्य सन्निधौ ॥१७॥ इत्थं चतुर्विधः संघः पृथिव्यां प्रथितः परम् । विवध धर्ममाहात्म्यं कुर्वाणो जनताहितम् ।।१८॥ निर्ग्रन्था अपि सग्रन्था विश्रुता अपि सश्रुताः । कुर्वन्तु मङ्गलं मेऽत्र मुनीशास्तानमाम्यहम् ॥१६॥ राजस्थान महाप्रान्ते शौर्यविक्रमशालिनि । वोरप्रसविनी भूमिमेंद पाटेति संजिता ॥२०॥ वर्तते, तत्र कासार सन्तत्या परिभूषितम् । उदयपुर मित्याह पत्तनं प्रथितं पृथ ॥२१।। नाना जिनालये रम्यं गृहिभिर्धर्म वत्सलः । संयुतं वर्तते यत्र जैनधर्मप्रभावना ॥२२॥ तत्रास्ति पार्श्वनाथस्य मन्दिरं महिमान्वितम् । भूगर्भप्राप्तसद्विम्ब सहितं महितं बुधः ॥२३॥ १ श्रीधर्मसागरः । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः [ ६३६ अष्टत्रिशरियुक्त सहस्त्रद्वयसंमिते' । अब्दे विक्रमराज्यस्य वर्षायोग स्थितो मुनिः ॥२४॥ सन्मतिसागराभिख्यः समाधि शिश्रिये मुदा । दर्शनार्थ गतां मां स ते स्नेह पुरस्सरम् ॥२५॥ वत्से ! त्रिलोकसारस्ये टोका दृष्टा त्वया कृता । तथा सिद्धान्त सारस्य टीकापि पठिता मया ॥२६॥ अथ तिलोयपण्णतेरपि टीका करोत्वरम् । गणितग्रन्थि संदर्भ • मोचने कुशलास्ति ते ॥२७॥ प्रज्ञा परीक्षितं त्वेतत्प्राजप्राग्रहरे रपि । पाशीर्मे विद्यते तुभ्यं वीर्घायुस्त्वंभवेरिह ॥२८॥ अन्तिमा वर्तते वेला मबीयस्यायुषस्ततः । टीका युऽमत्कृतां नाहं दृष्टु शक्ष्यामि जीवने ॥२६॥ आशिषा कार्यसाफल्यं कामये तय साम्प्रतम् । सम्बलं भवदाशीमें भवताद् बलवायकम् ॥३०॥ इत्युक्त्वा हि तदादेशः शिरसा स्वीकृतो मया । वत्त्वा शिषं शुभां मह्य करुणापूर्णमानसः ॥३१॥ आरुरोह दिवं सोऽयं सन्मतिसागरो गुरुः । इष्ट वियोग संजात - शोके मे प्रशमं गते ॥३३।। टीका तिलोयपण्यस्याः प्रारब्धा शुभवासरे । प्राग्रहायणमासस्य बहुलेकादशी तिथी ॥३४॥ उदिते हस्तनक्षत्रे दिवसे रवि संजिते । कर्मानलनभोनेत्र मिते विक्रमवत्सरे ॥३५॥ नत्वा पार्वजिनं मुर्ना ध्यायं ध्यायं च सन्मतिम् । टोकां तिलोयपण्णते निर्मातु तत्परा भवम् ॥३६।। टोकायाः प्रचुरो भागो लिखितोह्य दये परे । रम्ये सलुम्बरे जाता शोभिते जिन मन्दिरः ॥३७॥ १ २०३८१ २. २०३८ । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० । निलोयाण्णती माघ मासस्य शुक्लायां पञ्चम्यां गुरु वासरे । नेत्राधिगगनचन्नप्रमिते विक्रमाब्दके' ॥३॥ पूतिरस्याः समापन्ना टोकाया विदुषां मदे । संषा टीका चिरंजोयामोहध्वान्त विनाशिनी ॥३६॥ * आर्या * यतिवृषभाचार्यकृतस्तिलोयपण्णत्तिसंज्ञितो ग्रन्यः । अति गूढ़ गणितयुक्तरित्रलोक संवर्णनो ह्यस्ति ।।४।। एतस्य वर्णने यास्टयो जाता मदीय संमोहात् । क्षन्तच्यास्ता विबुधरागमसरिवीशपारमै नियतम् ॥४१॥ * उपजातिः * असौ प्रयासो मम तुच्छ बुद्ध हास्यास्पदं स्यान्नियतं बुधानाम् । सथापि तावत्तनुबुद्धिभाजां कृते प्रयासः सफलो मम स्यात् ॥४२॥ ___ * पुष्पिताया * यतिवृषभमुनीन्द्र निमितेयं कृतिरिह भव्यमनः प्रभोदभ: । रविशशि युगलं विभाति यावद् विलसतु तावविह मिती समन्तात् ॥४४॥ * उपजातिः * धनोति शास्त्रं तिमिरं जनानां मनोगतं सूर्यशतैरभेद्यम् । संरक्षणीयं विबुधस्तदेतन् न्यासीकृतं पूर्वजनेश्च हस्ते ॥४५॥ तनोति बोधं विधनोति मोहं पिनोति चेतः सुधियां सुशास्त्रम् । पीयूषतुल्यं जिनभाषितं तत् सदेव यानात्परिरक्षणीयम् ॥४६॥ ___* अनुष्टुप् * पस्या शिषा समारषा टीकेयं प्रतिमागता । स्वर्गस्थं सन्मदिव्य मात्मानं तं नमाम्यहम् ॥४७।। - ---- १.२०४२। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका गापा महाधिकार गाया सं० ३८४ ५०८ ५०६ ४५६ १९८ ३५५ ४०१ अक्खलियणाणदसण प्रगहिसीमो अट्टय अग्गा इसीओ भट्ट पच्चर इत्य उत्तर दिसाए प्रदरणामे पटले भट्ठ अणुद्दिसणामे मट्टसि अट्रपंचा अट्टचनछक्का एक्का अपरदुग सहस्सा अटुब दुतितिसत्ता अट्ठ विषय लक्याणि मट्ट ध तिपट्ट पंचा प्रणब उवमाणा प्रवृत्ताल सहस्सा अत्ताल सहस्त्रा प्रसाचं लक्खा प्रहत्तीस लक्खं मठुत्तीस सहस्सा अट्ठदुगवेका पट्टा अट्ठपणतिदयसत्ता भट्ठमसिदीए उरि भट्टरसमुहत्ताणि भट्ठसगसत्सएक्का घट्टसयजीयरणाणि षट्ठसया भरतीसा अट्ठसहस्सा दुसया अट्ट चिय लक्वाणि अटुं चिय सक्खाणि महाधिकार गाथा सं० माथा अट्ठाण वि पत्तक्कं पट्टारस जोयरण्या अट्ठारस भागसया ३८३ पट्टारसभागसपा अठारसलक्खाणि ५०६ अट्टारस वेव साया १६७ प्रहारसुसरसदं अट्ठारसुत्तरस २५१ अठ्ठावण्णसहस्सा अठ्ठावण्णसहस्सा अठायण्णसहस्सा महावष्णसहस्सा ३१५ भट्ठावण्या दुसथा ५०२ मठ्ठावीसं लक्शा ६५२ प्रायोसं लक्खा ३७० प्रासदित्तिसया ६०७ प्रवासहि सहस्सा २४५ अठ्ठादि सहस्सा ५०५ अट्ठासोदिगहाणं ३२० अट्ठासोदिसहस्सा पठ्ठासीदी मधिया भट्ठासोपी लक्सा प्रटासीदी लक्खा अछुत्तरमेककास १०४ अक्क वचउक्का प्रडतोयण विडो ३६६ प्रदतीसनक्खजोयण प्रडलक्खहीणइच्छिय ७१ | अडसट्ठी से ढिपया ४३ ५९५ ३०१ ४०३ २२५ ३३५ २९० २०० २५३ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ ] तिलोयाण्णत्ती गाथा गाथा महाधिकार गापा सं. महाधिकार गाथा सं. ५१६ २०१ ७१७ ५२२ १२४ २६ ४८५ ૬૫ १५४ अनहाइज्जं पल्ला अगलदिसाए संघिय प्रणवरदमप्पमत्तो मणुपमा अपमाणय अपण दिसाविदिसासु प्रदिरेकस्स पमाणं प्रदिरेकरम पमाणं प्रदिरेकस्स पमाणं निस्स पगाएं । . प्रदिसयमादसमुत्थं अद्ध दमसरणपदि अपहेमिगेबज्जे प्रहियप्पमारगमंसा प्रमंतर परिसाए मम्भंतर परिसाए अन्मंतर परिसाए अभंतरभागादो पानंतर मागे प्रभंतर राजीदो ममंतर बीहीदो ६६६ भवरे विसुरा तेसि प्रवसप्पिरिणए एवं प्रवक्षेसकप्पजुगसे प्रवमेसा एक्वंता प्रषसेसा णर्खता प्रवसेसाण गहाणं प्रश्चावाह सरिन्छा मम्वाबाहारिट्ठा मवावाहमवंत प्रसिमुसलकरण्यतोमर प्रसुहरेदएण प्रादा पह चुलसीदो पल्ल अह मारिणपुण्णसेल अहमेकको खलु सुद्धो अशा आणदजुमले अबा पादिममज्झिम अहवा तिगुरिणयमज्झिम यहवा दपमारणं मह्वा रासहरबिंब प्रकं अंकपहं मणि अंजलपहदी सतप मंतिम दपमाणं अंतिमविखंभ ४८१ २२१ २२ २४॥ V9u9oVwww w w w x yg xxx vvv Www ws W २१५ ६३४ १८३ २६९ ५२४ ४७४ २५६ ५.१६ प्रमा १२३ ५५५ अभिजिस्स चंद जोगो अभिजिस्स छस्स बारिण अभिजी सुन मुहते अभिजीसवणपरिणा अभियोगाणं अहिद मभिसेयसभा संगोय भयकारिणय रविससिपी भकरणवरणामदीमो मरुणवरदीचबाहिर प्रणावरदीवबाहिर मरुणवरवारिरासि अबरा मोहिधरिती अवरामो जेठहा भवमर्थकस्म मझिम प्राइचईदयस्सय २७७ भाइचाहंदयस्सय आ ईसाणं कप ५०० मा ईसारणं देवा भाउग बंधाभावं ६२. मावबंधएकाले ६३२ आवयवंधण काले प्राउसबंधणमा पाऊरिण माहारो ४७२ आऊ वंधण भावं १४ । प्राऊबंधणभावो २२३ ५६८ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा धागच्छ गंदीसर प्राणद श्रारणामा प्राणदणा मे पहले पहु श्रादपहुदीक् प्राणदपारपद धारण आपदपाद आरण 71 i 12 JP " प्राणदपारगददे पादिमसूइस प्रादी जंबूदीपो " श्राणदवाणदकप्पे आदर भरणा दररखा リ श्रमिक प्रादिदो जुगलेसु मादिमदोजुगले सु मादिपरिहि तिगुरिय मिपा बाहिर श्रारूढो वस्तुरय श्रारूढो वरमोर 22 आदिमायारादो प्रादिमपासादस्स य परसादादो " It 12 भादलवास मुद्द आभरणा पुण्यावर मायामे मुह सोहिय मारणइदयदविखरण श्रारणदुगपरियंत " 21 प्रसाद पुण्यामीए श्राहारो उत्सासो 22 महाषिकार गाथा सं० ५ EE G ૬ ५०६ . म 5 ८ ८ = ५ ५ 5 ८ द ५ ५ ८ 乾 ८ ७ ८ ५ ५. ५. ५ ५ ७ ७ 5 ८ ५ ८ ८ ५ ५. 19 गाथानुक्रमणिका ܕܕ १४५ १३४ १९० २०५ «Va ३८८ ७०६ २२२ ४४३ १८४ ३८ ६२२ ३२१ ३२६ ४३२ ३६१ २१४ २०१ *** ११ १२ ૪૭ ३२२ ३५१ ५.३५ ८७ ९७ ५३३ ३ ६२१ ३ गाथा इगिकोडी छल्लक्वा पंचकमसो ਗੰਧਰਵ ਸ इगितीत्तचउगं इमिती लक्खारिंग इरिदालुतरस गय इगी लक्खा रिंग सिट्ठी महिब सयं सिट्ठी श्रहिए इच्छतो रविवि इदि परिमाणं जल हियवं इच्छयदी उचट्टीए दीवहीर " 71 इच्छय दो 17 " 12 यदी रुद इन्द्रिय परिश्रासि बहीदो " हि " परिमाण इच्छिवास दुगुणं परि राि परिसि इय एक्क्कलाए इय किपुरुसार्णिया इय जम्मणमरणार्ण इस पूर्ण कापूर्ण इय वासररतीयो इस संखाणामाथि इलामा सुरदेवी वह खेत वेरगं T [ ६४३ महाषिकार गाथा सं० ८ ७ ८ ६६ ८ E ५ ८५ G ७ ७ ጻ 북 보 ५ ㄨ ५ ५ ७ ८ ७ ७ a ८ ५ प 19 ५ ७ ७ ७ ५ ७ ६ २३८ ३१४ ३९ १५९ १६९ ७३ ५२ ३६६ ७ २४१ ३६४ २५२ २७० २४७ २४८ २५० २५१ २५५ १८० ३६८ २७० २७१ २९६ ३१२ ३२६ २६१ २१२ G ५५३ ६१३ २९२ २९९ १५५. ६६८ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपाती महाधिकार गाथा संग महाधिकार गापा सं. ३०५ ३९९ माथा इंदडिंद समाणय इंदरिंदा दणं इंदप्पहाणपासाद इंदप्पहदिवउपह इंदप्पासादाण वसइग्गर त इंदय सेढीबद्ध इंदसवणमिदचलणं २८ २०२ 9 १७४ पाथा उडुसेहीबद्ध उड्ढोधमझलोए प्रणताललाख जोमरण उणतीसे तिम्सिया उपवण्ण जुदेक्कसयं उपवण्णसहस्सा एव उपवण्णसहस्सा यह उणवण्णा पंचसया उणवीस उत्सराणि उणवीससहस्साणि उणसद्विजुदेवकसयं उपससिया इगितीस उत्तरकुरुमणुवाणं उत्तरदक्विपदीहा उत्तरदक्षिणभाए उत्तरदिसाए रिट्ठा ६२४ ७५ इंदसयणमिदचलगं इंदाणं प्रत्या इदाणं चिण्हाणि दाणं परिवारा ३१३ ४५३ १५३ २१२ १७५ ५५५ १२० ५४० ६७७ ५८ ईसाण दिगिदाणं ईसाणम्मि विमाया ईसाणलंतवध्द ईसाणादो सेसय ईसारिणददिगिदे ईसोमच्छरभावं ५१६ ४४ ५७५ ६.. 666666xxcn G८.nxnnnG 16166 nnnn ५७२ wir Isu STV W x 15 x 15 W W US ४९७ ८३ ६५ उत्तरमप्पाइक्खा उत्सरमूल गुणेसु उस्तारणधवलषतो उत्ताणावट्टिदगोलग उत्ताणावटिवगोलम उदयस्स पंचमंसा उदयंतदुरिणमंडल उवाओ दक्खिणाए उप्पणसुरविमाणे उच्पत्ती तिरियार उम्मग्गसंठियारणं उल्लसिदविभमानो उपरिमत लविखंभा २४. १८२ उक्कस्सापमाणं उक्कस्साक पल्लं एक्फस्से रूवसवं सच्छेहजोयणेणं उच्छेहदसमभागे सहप्पहृदीहि इदियपुस्वादी सडुणामे पत्तक्के उगामे से डिगमा उछुपा सक्कस्साऊ उपइउडुमझिम उह उछुपट्टदिइदयाएं उडुपहदिएककती उपविमलचंदणामा ५६३ २६५ KAMA २२७ ४६७ उबरिमतलविक्खंभों ४१३ १३७ उरिमतल वित्यारो उरिमतलाण हद Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायानुक्रमणिका [ ६४५ माथा उरिमिम इदंयाग उरिम्मिणिसहमिरिणो उमरिम्म पीगिरिपो л महाधिकार गाथा सं. २०६ ४३५ ४३१ महाधिकार गाथा सं. ७२० л д ४५. е ८२ а गाथा एक्कपलिदोषमा एक्कम्भहिया णउदी एक्करससया इगिवीस एक्करससहस्साणि एनकसठ्ठीए गुशिदा एक्कसय उदिसीदी एक्कसय उणधालं एककसमा तेसट्ठी एक्कमहस्सपमारणं एक्कं छच्च अट्टा एक जोयालक्वं १६८ ६१२ १२२ ३६६ ६०१ उरि उरि वसंते उरि कुडलगिरिणो उबवणपोक्सरणीहि उधबादमंदिराई उववापसमा विविहा उवाहिउच माणजीयो л M а л х а ३५६ ७२१ . सवही सयंमुरमरणो उस्लाससट्ठारस २८८ . . ऊणस्स य परिमाणं बेवय लक्वं जोमण सक्खं घेवयलक्खं . २४. २६७ . xxxn GGGGG.GGGG GGC Gxx.nG G66 GS . एक्कचउकट्ठ जण एमकघउकतिछक्का एक्कचउठाणदुमा एक्कट्ठिय भागकदे एक्कट्ठी माग कदे एक्कणवपंचतिषसत्त एक्कत्तालसहस्सा . १५६ एक्कं लाख चउँसय एक्कं लक्खं गजुर . . ¢ २३१ л а एक्कं ललं पण्णा एक्का कोडी एक्के एक्कादिदुउत्तरिय एवकारसमो कुण्डलणामो एक्कारस लक्खागि ५२६ ३५. १६८ ११० २५ २६१ २१३ १२३ २२२ २४६ एक्कत्ता सवखं एक्कत्तालेक्कसयं एक्कत्तीस मुहत्ता एक्कत्तीससहस्सा к л १७१ л एक्कारसुत्तरसर्य एककानण्णसहस्सा а ६५५ с ६२१ п एक्कदुगससएक्के एक्कपलिदोवमाऊ л एक्केक्कइंदयस्स य एक्केरक उत्तारदे एकेक्ककमलपंडे एक्केवाकिण्हराई १२६ л २८२ ६२६ л Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ ] गाया एक्के कचर IP 21 رو 20 एक्क्क दरिंदे एक्क्क पहल वाहण एक्केकमयं कारणं एक मुद्दे चंचल एमकेकम्मि विसरणे एक्केक्स संका एक्स एक्वाए तीए एक्काए दिलाए एक्के बकाए पुरीए एक्hant सतरू एक्का जिएलडा एम्केक्का दिदा एक्के क्फे पासादा resent fact एकोणतीस लपला एकोणवीसनमखा एक्कोवारिहि एमेसपमा एतियमेशा परं एसो विवायरा एसो वासादा एसो वासरपणो एम्मि तमिस्से दे एस दिसा " एवं अंतरमाणं " खरो ا" 24 एवं प्रानतिमिर एवं चासो एवं होदि एमा महाधिकार गाथा सं० ५५६ ५७.७ ५७८ ३०६ ५२५. ३१ २८० २०१ २५ 2 ७ ७ 5 ५ 19 ८ ५ ७ ६ म I ও ८ ५ ८ ५ ६ 5 ५ ६ ७ 13 ५७ ५ १७ द ५ C ७ ७ तिलोय पणती ७ O ७ ७ ७० २८४ १८५ ८६ ४३४ १४० २१८ ७९ ६ε ४२ ५.५ ५०७ ५०२ ४४९ ४२६ १९३ २६३ ६३६ १९२ ६८२ ५८४ ५-६ ५८८ ४२१ ४३३ ३११ गाथा दाइजोयणाई एदाए बहुम एदाय सदावी एदाण चविहारां एदा मंदिरा एवा कुडा " " " ear परिभ " 21 , एदार बत्तीसं एदा विश्वाले 21 " " " ." 37 tari fare एवाणं वेवीण दाणं दीपो एदाणि अंतराणि पाणि तिमिराण एदार परुलाई दारिfr एदर सरा भरणीया एदि मघा मरणे एवे उक्कस्साऊ एदे कुलदेवा इव एदे छप्पासादा एदे गुरिदसंखेज्ज एदे तिगुणिय भजिदं एदेवि घट्ट कूडा ए सत्ताणीया एबे सहाय जादा एकू एदे दिगि एदेस दिग्गजदा एदे दिसाण्णा महाधिकार गाया सं० ८ ३६० ८ ૬૭૨ ८४ ७२४ ७२ १५ ५० ७४ ४० ७ 5 19 ६ ७ E ७ ७ ५ द 5 ८ 5 ८ X 닥 ७ 19 Ε ७ Ε 19 ५ ६ ५ ७ ७ ५ ८ ८ ५ ८ ५ ५ ૬૨ २७९ ११० ४२७ YRE ४३१ ३७६ १५९ ३५.४ १६४ ४१५ ४६६ Xx २६५ ૪ २८६ १७ १०७ २४ ४२० १५७ २३६ ५६७ १२५ ५४१ १७० १४८ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका [ ६४७ महाधिकार गाथा मं. महाधिकार गाथा सं. गाथा एदेसु बैंतरिक्षा एदेसुचेत्तदुमा एपेसु भट्टसभा एवे सोलस कूडा एदेहि मुरिणदसंखेज्ज २३७ २०९ " १२४ ov m' . 0 ३ ५४९ र - ४५२ ५३३ ४४३ १०८ ६९८ १३६ EA १३५ एयक्खवियलसपना एयठतिष्णिसुण्ण एवं च सपसहस्सा एरावणमासूढो एरावदम्मि उदमो एवं चविहे एवं चउसु विसासु एवं चैव यतिगुणं एवं पंदादीएं एवं जेत्तिसमेत्ता एवं णाणप्पारणं एवं दक्षिणपश्चिम एवं पण्णिदाणं एवं पुश्वुप्पणे एवं बारसकप्पा एवं मितिदत एवं घिह परिणामा एवं विह परिवारा एवं विह स्वाणि एवं सत्तविहाणं एवं सम्बपहेसु १८६ माथा कणय दिलिजार मार महभिरनिद कणयमया कलिमया कणयं कंचरण कत्तियमासे किण्हे कसिममासे पुणिमि कत्तिपमासे सुक्क कत्तियमासे सुक्किल कल्पतरू मरडेसू कप्पं पति पंचादी कप्पा कप्पासीद , कल्पातीदा कप्पाणं सीमामो कप्पातीद सुराणं कप्पातीदा परला कप्पामराण पियरिणाय कप्पेसु संखेज्जो कमठोवसग्गवलण कमसो असोय चंपय कमसो पदाहिगणं कम्मककविमुस्क कम्ममखवणरिमित कम्भे णोक्कम्मम्मिय करिहयपाइक्क हा कमणपायारा कंचण पासाणेसु कंदप्पराजराजाधिराज कादूण दहे पहाणं कालसामसवण्णा कालोदगोवहीदो किण्हा य मेघराई किण्हे तयोदसीए कित्तियरोहिणिमिगसिर किदकिच्चा सम्वाह किंचूणचम्मुहूरा ३५७ २६३ १२१ १०२ G १८४ ५७३ २७२ ४१७ २६. ४५३ एवं सेसपहे एस सुरासुर मसिद एसो उकस्साऊ ७७ ३०८ ५३६ भोगाहणं तु प्रबरं ३१७ । कणयदिपूलवार २३ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ] तिलोयपण्णत्ती महाधिकार गाथा सं. गाथा महाधिकार गाथा सं. गच्छदि मुहत्तमेक्क १६० 11 २६५ ४३८ ६१० 9 गाथा किंचूणमेक्क पक्ख किणरकिंपुरुसमहोरगा किणरकिंपुरुसादिय किरणरदेवा सम्वे किंणरपदिघाउ किरपहुदी वेंतर कीरविहंगारूढो कुम्वंते अभिसेयं कुसवरणामो दीयो कुमकप्पूरेहि कुबरतुरयादीगं कुंडलवरो ति दीमो कुवेंदुसुन्दरेहि कुमंडअवधारणसस कडा जिरिंगदभवणा ३३३ = गच्छ नयेण गुणि गणहरवादीर्ण गणिया महत्तरीण गम्भावयारपहृदिसु गम्मुभवजीर्ण गयणेवक महसत्ता गयसिस्थमूसगम्मा गरुषविमाणारूढो गंतूर्ण सीदिनुर्द गीदरदी गीदरसा गुरगजीवा पज्जती गुणठाणादिसरूवं गुण संकलणसरूवं पहले सम्मत गेवम्जमणुहिसम गेडच्छेहो दुसया = xnn 06 : 00 - = १०६ ६ " * २२ * ७०१ ११७ . / पूसाए परिभादे कूडाणं ताई चिय कूडा गंदावतो केई परियोहणेरणय केवलणाणदिणे केवलणाणसहायो कोंबविहगारुढो घणपाइकम्ममहर्ण ७० २४९ २०४ २७६ १५२ ३८९ ६.७ २७७ पउगइपंकविमुक्क चजगयणसत्तएवण्णह चउगोउरजुत्तेसु य चउगो उर जुस चउपोजर संजुत्ता उचढसहस्समेत्ता चउठाणेसुसुण्णा पतगडषि सहस्सा इगि खंगयण सत्तखण्णव संणहाददुगइगि खोरद्धिसलिलपूरिद खीरवरदीवपहदि खीरसहछस्सवणग्जल खेमक्यापणिधोए खमपुरीपणिधीए खेमादिसुरवणतं खोदवरक्खो दीयो ६४ २२ 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6 6G८ ३३९ ३४० २६८ २६६ चजगदिसहस्सा इगि , , इस्सयाणि चउपदिसहस्सा तिय ६२४ गमणं सुज्ज सोमं घउण उदिसहस्सा पण Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथालमगिणका [ ६४६ गाथा महाधिकार माथा सं० महाधिकार गाथा सं० चउरण उदिसहस्सा पण . ३०७ or गाथा पाउसट्ठी परिस्जिद चउमण्णा सिरिषगदी चउसीदि सहस्सारिण चसीदी भाधियसयं चाउमीदी लपवाणि चाहत्तरिजुदसगसय चउहतरि सहस्सर २१९ पण उदिसहस्सा पणु . . २१६ ४३. 10 ३४. ६७ पाउणचगयाट्टतिया पाउणवदिसहस्सा छ चउतियगवसगरका पत्तियतियपंचा तह चउतीसं लक्खाणि चउदक्षिण इंदाणं चउदसजुदपंचसया चदाललक्सजोयण घउदालसहस्सा अड ६५७ १६५ १९५ २८७ १२७ Yee चउदाल सहस्सा रणव ५५४ घउदाणसहस्सारण ५८५ चत्तारि गुणट्ठाणा पारि तिणि दोणिय चत्वारि य लनवाणि २६१ चत्तारिसय पणुत्तर १५७ चत्तारि सहस्साई १२८ चत्तारि सहस्सारण १२६ २२६ चत्तारि सिक्कूदा १३० पत्तारि सिंधु उवमा १३. चत्तारि हाँति लबणे चत्तारो लवण जले १२१ चरचिंबा मणुवारण २२८ चरया परिवज्जघरा चरिमपहादो शादि २५७ परियट्टालियचारू ८९५ पंदपङ्सुइवढी १५० चंदपुरा सिम्यगदी चंदर विगयणसंडे बंदस्स सबसहस्सं ३५४ चंदा दिवयारा गह ३७२ पंदादो मतडी ५०६ चंदादो सिग्धगदी चंबामसुसीमामो २६० चंदाभा मुराभा जामीबररयणमए घालं जोयणलवस्त्रं १५६ । चालीस दुराय मोलस उपचतिचचणवया चउदिइट्ररुदै उरंगुसंतराले पठलवसाणि सम्हे घउलक्खाधियतेवीस पउवग्ण तिसय जोयण चउवष्णसहस्सा सग ३२२ ४६ ५१३ २०० ५८ चठवण्याचपस्सा चवीसजुट्ठसया चवीसजुदेक्कसम पउबीसं लक्खागि चउसट्ठी पट्टसया चनसट्टी बालीसं ६४४ १६ २२६६ २७ १५८ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० ] तिलोयपण्णती महाधिकार गाथा सं० । महाधिकार गाथा सं. गाथा घोड्सठाणे सुग्णं १८८ ४७ गाथा चालीससहस्साणि चिट्ठदि कम्पजुगल चित्तविरामे विरमंति चित्तानो सादोनो चिसाबरण बहुमझे चित्तोपरिमतलादो ४९० ४६३ ४६८ चोद्दसठाणेसु तिया ४७७ ४८. ४१ ४८९ ४६२ ४९५ चोद्दसरयणवईए छोइससहस्समेत्ता 45 ३५८ २१७ २३४ ३२१ चुस्सिव चुलसी दिसहस्सारिंग चुलसीदो सीदीमो चेट्ठति रिणवमा चेत्तदृदुम ईसाणे घोसीसभेदसंजुद योत्तीसाइसयाणं चोत्तीसादिसहि बोत्तीए सदभिसए घोड्सजुदतिसया रिंग चोदसजोयणलक्त चोहसठाणेछक्का २६६ सच्चतसया टीम छच्चेव सहस्सारिण छच्छक्कगयणसत्ता छज्जुगल से सएम छज्जोयण अनुसया छट्टोवहिउवमाणा छपराउदिउत्तरराणि छष्णबएकतिछक्का छण्णवचनमकपणच छणयसमदुगछक्का छण्णागा दो संजम छत्तत्तयसिंहासण २६४ ६२ १८० ३१२ १८५ ४७३ ४७९ ४८२ १७ ६०५ ३६४ ४९७ ४८x ४०० ४९४ ४६९ ४७२ ३२ चोइसठाणे सुम्या छत्तिय प्रजियमका छत्तीस अचरतारा छत्तीस लक्खारिण छत्तीसुत्तरछसया छप्पण्ण छक्क छक्क खप्पण्णग्भहियसयं छप्पंचसयागि छम्मासे सुपुह पूह २३ ४७५ ४७८ ३२८ २७७ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा छल्लक्खा छाडी छल्लकारि विमारणा छम्बी च य लक्खा छ सय पंचसया रिंग छन्ससहसा तिसया 21 छायटिसहस्सा रिंग या को लिखा खासीला खासी अधिस चाहतरिजुताई छाहतरि लक्खाणि अवखुत्तममणहरणा जिरिंदो जलतं लोह्रिदयं जलगंधकुसुम तंदुल 21 जलहरपण्डल समुत्थिद जस्स रण विजयदि रागो अस्स मग्गे समर जह विरसंचिदभिषण जं गावस्स पारं जं जस्स जोगमुच्च जंगा रणदी जंबू जोयण लक्ख जंबू दीवम्मि दुवै जंबूदीय सरिच्छ्रा दीवाहितो ܙ Ir जंबूदीबे लवणो जंबू परिग जंबूके दोहं जंतुलवणादी जं मालवण जण ज महाषिकार गाया सं० 5 २६७ ३३४ ४६ ३७४ ३४७ ३६५ ५८ ३ ૪૬ *** १५५ ६०२ २४२ फ G “ १७ 67 ५७ य ८ ५ ७ ८ ९ ८ ५. ७ द ६ १७ ९ ८ प 1 ५ ७ ६ ५ ५. ५ ५५ गाथानुक्रमणिका 19 ን ५ ४३ 19 £1 ७२ ४९ २४७ २४ २०६ २२ ३६४ ३६४ ३२३ ३२ २१७ ६२ ५२ १८० २५ ३५ ५९० ३७ ७१ गाथा जाओ पष्णया जाई जरामरणेहि जाजीवपगलाएं जादिभरण केई जायंते मुरलोए जाय ग वेदि बिसे जावसम्म दव जिपरियायं ते जिदिट्टणाम दय जिणपूजा उज्जोगं जिम हिमदंसणे जिलिंगधारिणो जे जीबो परिणमदि जदा जुता घोषणा किरा जुवरायकलता जेभियोगप जे जुत्ता र तिरिया जे रक्खा देहे जेत्तियजल थिग हिउनमा जे पंचिदियतिरिया जे सोलस कप्पाई " "P " " जे सोलस कप्पा गि जो प्रमाण मां जो गणणयां जो इच्छदि सिरिदु जोइसियणिवासविदी जो इस यचा तर जो एवं जाणिशा जो विदमोहकम्मो जो खविदमोह कलुसो जो हिदमोठी जोगी इदि इगिबीसं [ ६५१ महाधिकार गाया सं० ३३१ 5 ९ ५ ५ ८ " የ G ८ ८ 5 ९ - 16 ८ ८ ५ ५ 3 5 ८ 5 ८ ५ १. ७ ७ ५. १६ ५ ३११ ५. है ० ૬ १६ ११५ ३४९ ५९९ ७०० 복수콘 ६० ६७८ ७६ २१६ २९६ २९४ ६७१ ५५.५ ४८६ १४८ १७८ ५२७ ५३० ૪૬ ११५ ५२ २ ७३ ૧ YE २३ * *: r 您 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ ] माथा तु सुहं जो पंचसहस्सा " " जोयणयावदी जोयलक्खायामा जोमा सदत्तियकदी जोयसत्ता जोयणसहसगढ जोयणसहस गाढो जीसस ग जोसमषि जोयणसहस्स मेक्कं जोपसहवासा जो सध्वसंग मुक्क " जो सम्पवियप्पो जो सोलसकरपाई भाग जदि मियादा उदिवसत्तजण मक्खत्तसीमभामं चचतचमककिि नवंतविचित्तया • जहृदि जो दु ममत्तं रात्थि हललोमा नत्थि मम कोइ मोहो चभगयणपंचसत्ता कभडककसत्तसत्ता सभरवणभावयतिया भतियदुगदुगता रायरेसुते दिवा प्रपंचणवदुग बघ मकतिरका नवअभिजिष्यहुदी महाविकार गाथा सं० ६९ १८८ १९७ ५३ ६४ ६५ १०२ so ७ ७ ५ ㄨ ६ ५ ५ ५ 보 ५ ५ € £ 2 Ε ७ ७ ን ८ £ ७ 19 ७ ७ 9 तिलोयपण्णत्ती 19 ६१ ५. ८ १३७ ३१९ २४१ ६८ २६ ५१ ६५ ५२४ ४४ १०८ ५१७ ११२ ६०३ ५५. ५६१ २६ ३१६ २४७ ३५३ २३४ ६६ ३५ ३१० ४६२ गाथा वच उपंचतिया णवचनसणहाई वजण उच्छेहा योपणलक्खामि रजोपण सत्तसया एव उदिसहस्य एव व उदिहस्सा ख " رو " ॐ ratoदिहस्सा - " 17 i, व म सहस्सा चउसय " ri उदिससारिंग JP " " णव カラ " r वय सहस्सा ( तह) घट वरि म जोइसियारणं वरि विसेस एसो गवर विसेलो देवर " वरि विसेसो पुरुषा वरि विसेसो सवट्ठ Pi वरिषवज्जा वि परिणमदि ण गेष्वृदि हुमणषि जो एवं दादवबमो 13 दावत्तपकर गंदी बहुम दीवारिणिहि गंदी तर विविसासु स्पाणम्मि मावणा खलु वह खेत्तफलं महाधिकार गाथा सं० ३८२ २५४ २०२ ६९ ७२ ५६० २३५ २३८ १४९ ७ ७ ५ ८ ५ 60 ७ ૩ ७ ५ ७ 19 ७ ७ وا ७ ७ ७ ७ ७ ८ ७ ७ ६ प G e ९ ५ ५ ८ ५ ५ ५ १४७ ५५१ १४८ ४२८ २९७ ३१३ १९९ ३२९ ६२३ ६१६ १०७ ८ وا و یا BE ७०२ ६८ སྡོང ६२ * ૪ ५७ ४६ -२ २७ ३ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुनमणिका [ ६५३ महाधिकार नामा साकार माषा सं. ४२३ गधा णीलुप्पलकुसुमकरो गीसेण वज्जिदाणि २०४ ५९७ गाथा गाणाविहतरेहि एगाणाविद्दवा हराया णादण देवलोयं णाभिगिरिण णाभिगिरी णामेण फिम्हराई णामे सक्कुमारो गाहं देहो ण मरणो पाई पोग्गलमइओ पाहं होमि परेसि सक्कासम्मि सुसीम तपकूड तरए ६२५ १४. १७९ १४४ ૨૪૨ १२८ ६०३ ५८७ २१३ १६. तगिरिवरिमभागे तगिरिणो उच्छेहे सगिरिवरस्स होति तस्चिविदू तत्तो समुदंडणादिसहिया तणुरक्खप्पहूदीणं तणुरक्खा अट्टारस तणुरक्खा सुराणं तणुबादपवणबहले तणुवादबहल संख २२३ ६५३ २२८ ७१२ ५५८ गिचं विमलसरुवा रिणचुज्जोवं विम णिदुषिय प्राइकम्म णिम्मंतजोमंता सिम्मागराजणामा गियणिय ठाए णिविट्ठा णियणामक मज्झे णियणियांदपुरीणं गिणियखोणिमदेव णियशियचंवपमारणं रिणयरिणयदीउवहीरणं णिणियपतमपहाणं णियणियपरिवारसम णियणियपरिहिपमाणे णियणियभोयणकाले गियरिणयरवीण पद्ध रिणयणिमरासिपमारणं पिणियविभूदिजोग नियणियसमीणअद्ध णियरिणयतारा संखा णियपहपरिहिरमाणे णिस्वमख्वाणि द्विय रिणवमलावण्णायो णोचोपपावदेवा १०४ ५९७ ७०४ ५६४ तणुषावस्स य बहले तण्णमरीए बाहि तविणलयाणं मज्झे तसो अणुद्दिसाए ततो भागदपहुवी तती उपरिमदेवा तत्तो जरि भन्बा ततो खीरवरक्षो तत्तो छज्जुगलाणि ततो दुगुण दुगुणं लामो तत्तो दुगुणं दुगुणं ससो पदेसघड्ढी तत्तो अवसायपुरं तत्तो हरिसेगा सुरा तस्थ चिय दिमाए तरच हि विजयप्पदिनु ११४ १०१ ५५५ ३१६ २३७ ५७३ ३२१ ६१. २०५ १८१ ८० Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणत्ती गाथा महाधिकार गाथा सं० २०७ महाधिकार गाथा सं. ५८६ २१० १ २२९ गापा सायो मावाहापो साक जयराणि अंजण ताणं वजाएं सारणं णयरतलाणं साणं णयरतलाणि ताणं पदण्णए सु ताण पुराणि गाणा ताणं विमाणसंसा तामिण णयरतलाणि Purord २८५ ५५६ ४३१ १०४ ३०२ ४३२ ३२२ तस्थेव सवकालं तस्येसाणदिसाए तदरपंत रमम्गाई तदिए अट्टसहस्सा तदिए पुगबसू मघ तवियपहट्टिदतवणे तद्दक्खिणुत्तरेसु तई वीणं तेरसदल दिवसा सदशुपट्टस्सा तपरदो गेतूणं तपरिवारा कमसो तम्मम्झबाइलमट्ट नम्मज्झे वरकूडा सम्मले सोहेज तम्मदिरमझेसु तम्मूले एक्केका तम्मेलबास जुत्ता तम्मेत्तं पहविच्छ सम्हा रिणम्वुदिकामो तदवी हीदो कंघिय तम्वेदीदो गम्छ्यि तस्स पमारणं दोण्णिा य तस्स य पलस्स उरि तस्तय सामाणीया तस्सिं प्रतोयक्षेत्रो तस्सिं विय दिग्भाए तस्सिंदयस्स उत्तर १०२ १०५ १४७ १२८ ५९८ 66n.xxnnxxxc AGnG-16 G८८८८८८० - २२५ ४२ २०७ साणोवरि भवणाणि ताणोवरिम घरेस तादे देवीणिवहो सो सहरमा ताराओ कित्तियाविसु तावखिदीपरिहीमो ताहे वगपुरीए ताहे णिसहरिदे ताहे मुहत्तमधियं तिगुणियबासा परिही तिपिण विय लावाणि तिपिण महण्णव उवमा तिष्णुि सहस्सा छसयं तिण्णेव उत्तरामो G८८GAGG८Gax ८८८ ८Gxx 6661G1८८.०० ४२८ ४४७ ४३९ २४३ २८२ २२४ १८६ २१६ ४९८ ६०० ५२१ ५२७ २०६ ३४२ ३४४ ३५० १३७ १५८ तिदय पर सत्तदु हि दुगेकक मुहुत्ताणि तित्थयराणं समए तिम्भव दु खेत्तरयं तियप्रणवदतिया १७६ तह पुनरीकिणी वाणि सह य उबटुं कमल तह य जयंती रुचकुत्तमः तह य सुभद्दाभदामो सह सुप्पबुद्धपहुदी संचोइसपविहत्तं तंपिय अगम्मवेत्तं ५० ३४३ ३६७ १९१ ४१४ १०५ तियअट्ठारससतास तियएक्कएक्कट्ठा Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा तिय जोगलखाई " 21 तिजोयण लक्खार तियजोयलक्खाणि ر 21 " 21 " 37 " 12 " "" 37 " वियठाणेसु सुणा तियण व एक्कछिनका तियतिय एक्कतिपंचा तितियमुतमप्रिया लिक्खु अंतिम तिये दुरुच्छेहा तिलपुच्छखवण्णो तिविहं सूइसमूह तिसमलगगणखंडे are दिसाए तोद समया खं दि तोद्वारसमा खलु तीस चिय लवारिं सीसं णवदी तिसया तीसुत्तरवेस यजोयग सुदिपदगुणामा सिवावाहाणं सेकए मज्झिमसा ते किंपुरिसा किर ते गोरपासादा ते बउवउको सु ते गयरा बाहिर तेतियमेसा रविणो तेतीस उपदि उनमा तेत्तीस भेदसंजुद महाधिकार गाथा सं० ७ १८ २५५ २५६ १६१ १६५ E ७ 19 19 ७ 67 ७ ७ 19 ७ ७ ७ ७ ७ ५ ५ ७ ५ 67 片 £ ७ ८ ७ ७ ६ ५ n ६ ५. ㄨ ६ गाथानुक्रमणिका ७ G ५ २५५ २५९ ४२५ ४२७ ४२९ ३९१ ३३० ४४१ २७३ ४११ १७ २७४ ५१६ ¥ ५ ५.१५ Yo ५७२ १६४ ४६ ૬૪૬ ६६३ ૪ १८७ E ૬૪ ૧૪ ५१४ ३०१ गाथा तेतीस सुरम्यवरा तेत्तीस लक्खारिण सेतीसमरामाणियाण तेदास लक्खजोयण तेदालीस समाणि ते दीवे सट्टी ते पुब्वा दिदिसासु तेरस जोयलक्खा *r 21 तेरसमो रुचकरो तेरासियम्मिलब राहुस्स विमाणा तेरिच्छमतराखं ते लोग देना तेवण्णसया उणवीस तेवण्याणि जोखाणि " सेवण्याससाण तेवण्णुत्तरपदस्य विकिरियाजा तेवीसन पर दो तेवीसं लक्खारि सहस्वाणि در " " " IF 27 ال ار IF 22 27 rt " "P " " 10 fi तेसट्टिसहस्सा पण सट्ठी लक्खा " [ ६५५ महाधिकार गाथा सं ० ८ २१३ < ૩૬ ५४६ २२ १६१ ४५७ 5 5 ८ ७ 6 ८ 5 ५ ७ 64 15 ८. 19 ७ 19 13 5 世 ८ ७ ७ ७ 13 ७ ७ પ ७ 19 ७ ८ ८ ८१ ६३ ६४ ×× ४७८ २०२ ११२ १३९ ४९० ४८७ ४८५ You १७६ ४४६ ५१ ५० ३५६ ३५७ ३५८ ३५२ BOY ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३९३ ४२६ २४३ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपणाती गाचा महाधिकार गाथा सं. गाथा महाधिकार गाथासं० ते सवे चेत्तता ते सब्वे मिणणिलया ते सम्वे पासादा 42 २.५ दसवास सहस्साऊ दसबास सहस्सारिए दसणणाणसमगं दारोवरिमतने दिरणयरणयरतलायो दिपरयणिजारा राठं दिणवइपहसूचिचए १९७ २५६ २७३ २४५ २४४ २२४ ते सव्वे सण्णीयो ते संखेज्जा सब्वे तेसीविजुदसदेणं तेसोदिसहस्साणि तेसीदिसहस्सा तिम सेसीधीमधियसयं तेसु जिरणप्पनिमामो तेसु ठिदपुढविजीवा २६५ ४३० दिवइपहंतराणि दिप्तरयण रीवा २४३ ३७२ २११ २२३ २६७ ८७ १७५ २९८ तेसु दिसाकण्णा तेसु पहाणविमाणा लेसु अप्पामो तेसुताइवेदीपो सेतु पासादे तेसूपिदिसाकण्णा तेसुपि दिसाकणा तेसु मरण वच उच्छास ६८९ दिवसमरविवाद दिग्दवरदेहजुत्तं विम्ब प्रमयाहार विसविदिसतम्माए दोमो समं मुरमणो दीहतं बाहर दोहेरग छिदिदस्स दुगढएक्कचराव दुगप्रष्दुगछक्का दुगइमितियतितिणबया दुमछक्कापट्टछक्का दुगरक्कतिदुगसत्ता दुगछदुगमपंचा दुगरण भएकपंचा दुगतिगतियत्तियतिष्णिय दुगसत्त पकाई दुगसत्तसं चउदस दुणिय सगसगवासे ३१२ २५० पावरलीयपमाण पिरहृिदयमहाहिदया युइरिणदासु समारणो घोदूण दिसहिं ६७० የ ३८७ ४६२. २६२ दक्लादाहिमकदसी दक्षिण प्रयणं पारी दक्खिरणविसाए अहरणा दक्विणदिसाए अरुणा दक्षिण दिसाए फलियं दळूण जिरिंण दपुरं दसजावणसनकारिण दसपुवघरा सोहम्म दसमे माराहामो ५२८ ६०४ दुरिणस्स एक्कमपणे दुविहाधरनचरामो दुमदुसु पाउसुदुस दुसु दुसु तिषउक्के सुच दुदुभगो रत्तणि भो ५८० १५२ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापानुक्रमणिका [ ६५७ गाथा महाधिकार गाथा सं० महाधिकार गापा सं० गाथा एडजस्तापज्जत्ता पज्जो दस पाणा पडिइंदत्तिदयस्स य ६०५ ५४२ २२० ६६८ २३ ५६५ परिदाणं सामाणियाण ७७ ३२० ५९६ पडिहवादितियस्स पडिइदादी देवा पहिइंदा सामाणिय ४१९ ४१७ दुंदुहिमयंगमद्दल देवगदीदो वसा देवदससहस्सारिण देवरिसिणामधेया देवबरोवधि दीया देवाणं उच्छेद्दो वैवासुरमहिदायो देवीण परिवादा देवीदेव समाज देवीपुर दयादो देवीमवणुच्छेहो देवीहिं पडिदेहि दैवत्यो देहादो देहेसु रिणरवेक्खा देहो व मणोवाणी दोकोडीमो लक्खा दोणिच्चिय लवारिण बोगिया पयोरिणहिउवमा दोपहं दोपहं छपक बोहोसहस्समेत्ता दोलखेहि विभाजिद दोससिणवत्ताणं २१४ ३१४ ५६२ १२७ २२६ २७९ ५२४ पडिकमणं पडिसरणं परिवाए वासरादो पदमपरतमसण्णी २६५ पढमपण्णिददेवा ६०४ पदमपहसठियाणं पदमपहादो चंदा पढ़मवहादो बाहिर पढमपहादो रषिणो २६७ पढमपहे दिणवइणो ४६७ पढम्मि प्रषियपल्लं पढमादु अद्वतीसे पढमादु एक्कती पमिदयपदीदो ३४५ पढ मुच्चारिदणामा २७८ पदमै चरिमं सोषिय २७६ पढमे चिदिए जुगले ३७१ ४७७ पढमो बंबूदीयो पणकदिजुदपंचस या पणस उदिसहस्सा इगि ५७८ पणणदिसहस्सा घउ २३६ । पण उदिसहस्सा तिय धम्मवरं समरणं षम्मेण परिणदप्पा धरिऊरण दिणमुहरां घावइसंडप्पदि ३४१ ५९ धुवंतघयवसाया ३४३ पउमविभागारूढो पजमो पुरियक्खो पचलिद सण्णा मागे पजकंतरयण दीवा ३.१ २६ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ ] गाथा परीसहस्सा पा परतीसुतरणवराय पणदालसहस्सा चउ पणदालसहस्सा जोयराणि पणवाल सहस्सा ि Jt " » in मदालसहस्सा दे "3 17 از पणदाल सहस्सा सम थं " "J पदो छप्पन इगिअड परापण अन खड़े पण मह उवीसजि पेणमह जिम्बरखसहं 72 " वाधियछहराय पथवरि दुमणी एवं पण सहसा रंग कोकोड पणुवीसजुदेवकसमं पणुवीस जोपणाणि ससस्साई पणवीस सुम्पनुद्ध पशुवीस लक्खा 31 "P 20 पण रितु मा पणत्तरी सदस्या 21 ठाणे सु राणे सु 13 " 22 " " मद्दाधिकार गाथा सं० ७ ३६६ ७९ द ७ ७ ७ ७ ७ ८ फ ८ G ५ ५. द ८ ८ ८ तिलोयपण्णत्ती 5 १२४ १२३ १३७ १३८ १३९ १४१ २३२ १३२ १४. १३५. १३६ ४ ३०२ 94 ८० ** ५५१ १६३ 19 २१४ ९ १८१ ५१० ४७ १९२ २४६ १८३ ११८ ४७८ ४७१ ४७६ ४८१ ४८६ קשות पण रसगुणसु पारस दल दिणारिण पण मुहुता पारस सहरा पण रससदस्सारिण सिणि यसयद पणास बरसवाणि पण्णास जुदेवकसया पणासं पणुवीसं पणा लक्खाणि राणे पणासाधियदुसया पण्णासुतर तिसया प्रसवकरसा नरकणि पवर्क तवेदी पत्त व धाराएं पत्ते पण हस्था पक्कं रिक्fir पक्कं सा रस्स पत्तयरसा जलही पलादिपरदो पयडिट्टिदि अणुभाग परदो अचणवदलव परमट्ट बाहिरा जे परमाणुपमा बा परिच्छ परिवारबलभाओ परिवारा देवीभो परिही ते चरते पलिदोवमं दिव पश्चिदोन माउजुत्तो " " 21 पलिदोषमाणि माऊ पण पव महाषिकार गाया सं ८ ૪ 5 ५६० 19 २०६ Le ६५१ ७ ७ ६ ど ८ G ८ ८ ७ ९ ५. ७ ८ ८ ७ ㄓ ५ 5 £ ५ ६ & ५ ८ ५. ७ ८ ६ ६ G २७५ ९३ ४८६ २८६ ३६२ ३६३ २४४ २०३ ११ ३० ७० ४०२ ६६३ ४७५ ६६२ २६ १०३ ४६ EY ५७ શ્ ६६ ३१५ २१८ ४६० ५३८ ८९ ९१ ५३२ ५.२५ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पलिदोषमाणि पण णव पंच य " पल्लदृदि भाजेहि परूपमाषाउठी पलस्स संभाग पल्संक भासणा पलाउजुदे देवे पल्लासले कारस पल्ला संखेज्यं सरे पण मिसाए पढ पंचक्खा तसकाया पंचस्खे उलखा पंचगण भट्टर पंच ठाण छक्का पंच पतियदुगाणं पंचतालसहस्सा it पंचत्तालं लक्खं पंचसीससहस्सा ri " पंचत्ती लक्खा If 12 .. पंचदुग असत्ता पंचपण गयशाडुगड पंचमहम्बय सहिवा पंचमए छडीए पंचविसि पंचविते इच्छि पचपच उसा पंचचावदा पंचसयजोयणाई पंचसयजोयणागि पंचसयारि घरिंग पंचसया देवीओ महाषिकार गाथा सं० ५३१ ५३४ ८ ५ ६ ५ ७ ६ ६ ८ ८ ५ ८ ५ وا ७ 5 ७ ७ G ७ * ८ - 19 19 ८ ५. ५ 13 ८ ८ 箴 ७ ७ गाथानुक्रमणिका द ૪ १६४ ५.५२ ३१ दर्द ५३२ ५५१ २०३ ६६० २९६ २५२ ५६८ समय २०१ ३५१ १८ # ६५६ ૪ ३४ २९४ ३२७ ३८४ ૬૭ १६७ ३०३ ३४६ ३२७ Yox १४६ ११७ १११ ३११ गाथा पंचसहस् प्रधिया पंचसहस्सा इसिय पंचमहल्ला छाषिय सहस्सा जोया पंचसहस्साणि दुबे पंचसहस्सा (तह) पण .. " पंचसहस्सा तिसया पंच सदस्सा दसजुद पंचसहस्सा दुसमा पंचस सेक्सया पंचसु वरिसे ए 77 पचाउदि सहस्सा $1 23 " पंचरण उदिसहस्सा 17 " पंचेव सहस्साई पंचेव सहस्साणि पायारा मज्झे पारावयमोराण पासादारणं मझे पासादी मणितोरण पीठाणीए दोष्ण पीदिकर प्राइमचं ढदिवष्कदि पुढवी आइउनके पुढater aft पुष्णष्णपक्खर पुण होइ विओ पुरिमावलीपदि पुरसित्यवेदजुदा पुसा परसत्तमसप्पुरुस पुण्यदाहि सुरिद पुण्छे रहे [ ६५९ महाधिकार गाया सं १५६ १६९ १९५ १-९ २७१ ४३४ ४४८५ ७ ७ ७ ७ '७ ७ ७ ७ ७ ७ ७ ७ ७ ७ 6) ७ ७ ७ ५ ८ ८ ५ ᄃ द ५ ५. 5 X የ ८ ८ १ ८ ५ २७२ १९६ *r २०० ५३६ *. ३०८ ४१२ ४१३ ૬૪ १६२ १९४ (55 २५१ ३७७ १६६ २७६ १७ ११२ २६८ २६१ ४५ ५.६ १९७ ६६६ ३६ ३८० १०२ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० ] तिलोयपष्णत्ती महाधिकार गाथा सं. महाधिकार गाथा सं० ५४४ ३९२ ५०४ ૪૨ :२३ २०७ माथा धुन्धदिसाए पढ़ में पुष्वदिसाए विसिट्टो पुष्यं बोलग्गसभा पुकाए कपबासी पुवादि चदिसा पुरुमापित यसो सुध्वादिसु भरज्जा पुष्वावरायामो पुण्यावरदिम्भाय पुण्यावर विच्चालं पुष्वावरेण तीए पुग्विल्लवेदिपद्ध पुग्नुत्तरदिम्भाए ७६ ६३१ २२१ १३६ ४१८ ४४२ २२६ १९९ xxxx2560 VIxx.,...". गादा बद्धाउं पति भणदं बम्बरचिलादखुज्जय बहम्हि होदिदी बम्हहिंदयम्मि पहले बम्हहिदयादि दुदयं पम्हाई पत्तारो बम्हाहियाणकप्पे अम्हिदम्मि सहस्सा नम्हिदसतविदे बम्हिदादि चउक्के बम्हिदे चालीस बम्हिदे दुसहस्सा बम्हसरस्स दक्षिण बहत्तराभिषाणे बम्हे सीदिसहस्सा बलगामा अभिचणिया बलदेवाण हरीण बहसतिभागपमाणा बहुविहदेवीहि जुदा बहविहरतिकरणेहि बहुविहरसवतेहि बहुविहविगुववरणाहि बंधारणं ए सहावं बाण उदि उत्तराणि बारादि सहरसाणि बाणविहीणे वासे बादालनक्खजोमण बादाललक्खसोलस भारस कप्पा के बारसजुदसत्तरमा बारसदिणं तिभागा बारस देवसहस्सा बारस मुहसयाणि १५९ ३०७ २६३ ४८९ ५५७ दुवोदिदडाणं पुम्वोदिदरणामजुदा पुस्सो असिलेसानो पुह पुह पारमखेते पुह पुह तारा परिही पुह पुह पहष्णयारणं मुह पुह ससिबिम्बाणि पोक्खर पीरम्मेहि पोकक्षरशीवावीमो फोक्सरजीवावीहिं पोपसरवरुवहिपहुदि पोखर सरोत्ति दीमो १३५ २२६ २८५ ४२२ ४३५ ६१८ ១៥ ४२४ फुल्लंतकुमुदकुवलय २४ १४६ १४६ ५४८ " ३१३ बत्तीस बीस बत्तीसट्ठावीसं बत्तीस भेदतिरिया बसोसलक्वजोयरण बत्तीससहस्सारण बनीसं चिय लवडा २१९ २८४ ११२ २५६ २८ " Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया बारसविकाएं बारससह स्सजोवण 73 21 बारसहस्रवसय 13 11 बारससहस्ससम बावण्णसया पणसीटि बरवण्यासया बारपउदि बावण्णा तिष्णिसया बायत्तरि तिसयाणि Marriagegi बावीस तिस जोख बावीस सहसाणि बावीसुतरखस्य बास द्विजुत सिय बासट्टि जोयगाणि 17 or बास मुताि बासट्टिसहस्सा राष बाड़ी सेठिया बासीदि सहस्सारिण " " मातरि जुददुसहस बाइतरि बादाल बाइसरि सहस्सा बाहत्तरी सहस्सा ن "P बाहिर चउराजीणं बाहिरा आदिम 31 13 बाहिरपहा पत्तं बाहादु सिणो ir बाहिर भागात महाषिकार गाथा [सं० २१४ २३१ ८ ५ ५ 5 ८ ७ १७ ८ ८ ७ ७ ७ ५ ५.. 9 - ८ 19 15 ५. ሂ ७ ७ ८ ५ ७ 19 ७ ७ '७ गाथानुक्रमणिका ८ ८ ४३७ ४८ ७५ २३ १ ४८.६ ५९६ ३६१ १९९ ६० ५.८७ १७५ १७३ ८० १५६ १८२ ४०२ ८५ ૨૪ ४०६ ५६ २८५ ४०४ ३०२ २२० ६८४ २३३ ४५५ २९१ ९४२ १६० ६८५ गाथा बाहिर भागे लेस्सा बाह्रममो रक्षिणो बाहिर मज्झन्तर बाहिरराजी हो बाहिर सूई मज्झे बाहिर सूई गो विगुणिय बिदियपट्टिदरे बिदियादी दुगुणा बीस सहस्स तिलक्खा सुकविण बेच्छेहा सहस् जिमि से दिव भजिज लढ " भदं सवदभदं भरराव व भूगढ़ भव भव पुराणि भवणुच्छेमा कुमुदेकचंद भय्वजण मोक्खजणप भावर तर जोइसिय भिंगार कलस दप्परण 37 ار „ भिदि गोलवण्णा भीममभीमविग्ध मुजमा मुजंगसाली मुजे विव्यिणामा भूदा इमे सदा भूवाणि सियाण भूदाय भूकंता नदिदा यसो भूमीए मुई सोडिय भ [ ६६१ महाधिकार गाया सं ५९३ २८० ५२३ ६३५ ३३ ३६ २२७ ३२० २०३ ७३ १९४ १५ १६८ ७ ७ ८ ८ ५. ५ ८५ ५. 19 ६ द ७ ५ ७ 19 ७ द ८ ६ ५ ५ ८ ८ ६ 보 ६ 19 ११ ५६६ ५८० ६२ ४०३ ६ ४५६ १ ७२ ७२३ १३ ६०१ २५३ ३८ ३९ ४६ ३३ ५४ ४७ २५१ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ ] गाथा भूसालं पविसिय भोगाभोगवदीपो भोमिंदार पण्णय मगभावड़ मज्झिमरिसाए सुरा मणिम मै सुत्तर समवाली माणुसुतरा परदो दिगदए मत्तंड मंडला मदमागमा रहिव मद्दल मुइंग पह महल मुयंगभेरी मरयमणिसरसत मरगणा केई महका प्रतिकामो महको तह महसूत्रकणामपडले महसुम्मिय सेठी महविकंदउत्तर महिलादी परिवारा महरा महुरालाबा मंडल खेपमाणं मंदरगिरिमभादो मंदरगिरिमूलादो मास किgra माणुसते सिणो माणुसलमा मायाविवज्जिदा माहिदे सेविना मिच्छतं प्रणा मिट्टी देवा मुरयं तं तपखी मूलम्मि चउदिसासु ग महाधिकार गाथा सं ६०१ ५२ ७६ द ६ द ८ ५ 64 19 ७ ९ 19 ५ ८ و ६ ८ 5 ८ ६ ६ ७ ७ ७ ७ £ ८ ६ ५ तिलोत्त ७ ピ २३२ १२२ १३० ६१७ ४५६ २७८ Yo ४६ ११३ २५० ५१ ३९ १४३ ५०५ ७१६ ३४७ ६६५ ५१ *** २६४ ६ ५३७ ६११ १५ ३६१ १६३ ५९ ६१२ ४६९ ३० गाया मूलम्मिय उबरिम्मि य मूलमिदपरिहो मूना उबरिसले मूलोवरिभिम आगे मेलाको उबर सदा भीमो रज्जुकी गुणिदवं रज्जुको गुणिदव्या रज्जुए भद्धां रतिपिजेट्टा ता रम्माए सुधम्माए रम्मरमणीया वीए रयणमय पल्लाणा स्मरणं च सव्नरयणा प्रिय एक्के क् रविविना सिग्धगदी विम इच्छतो रविविमखं रागादिमुक्को राजीणं विच्चाले रागण बहुमज्ये " از " 〃 रायंगणबाहिरए 37 b रायगणभूमी ए रागस बाहि रागस्स मज् राहूण पुरतवा गिरणादु महि रिक्वाणमुहत्तगदी रिट्टाए पणिबीए रिट्ठा परतला महाधिकार गाया सं ० ५ ५६ ८ ६२३ 5 ४०४ 갗 5 ७ ६ ८ ८ ७ ७ £ 5 ५ १७ 5 ७ B 5 ५. ७ ७ 19 ૧ 6 19 ७ Y? ११८ ४५ ५ ५ १३३ २५ ४१२ ७८ ७ २५६ R ५०१ २६६ २४२ ५१४ ૬૪ ६३७ १६० ४२ ३७० ६२ ७६ ३६० २२५ ७१ २०५ ૪ ४७७ ५०० २७४ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा रिट्ठादी चारो बजगवरणामदोश्रो रूऊ पर्छ रूबी कांके खगुणं रोगादिकमुतको लक्खणवेजणजुत्ता लक्खद्ध हीणकदे लक्खविहरणं रुद लक्खं छच्च समाणि लक्वं दसप्प मारणं लक्खं पंचसमाणि लक्खा र एक्करणी लक्खाणि दार चिम लक्खुण रु द लक्खेण भजिव अंतिम लमखेण भजिदसगसग लक्खे रुद लज्जा मज्जादाहि हृदि पक्के लवणम्मि बारमुत्तर बांबुरा सियास लवणादिचउवकारणं "3 カラ लवणादी रुद लवणोदे कालोवे लंचंता आवाणं भरहे संत इंदयदभित्रण संनंतर किणि लवंतरयणमाला लोयविच्छिकसा i लोयविणिच्थे विभावादरिया از ख महाधिकार गाथा सं ८ १४१ RE २२७ २३७ 닛 ७ ५ ५ ५ ५७ ८ ७ ८ ८ ५. ५ ሃ ५. G ७ ७ ७ ७ ७ ५ ५ 60 19 5 प ५ गाथानुक्रमणिका ५ & ८ ५३१ ६० २१२ २५८ २६८ १५९ ६७ १५८ २४० ६५ २६३ २६५ २६४ २४४ ५७७ ५९४ ६०१ ४१८ * ५७९ ३४ ३१ ४५२ ३४६ २५५ १६ १२९ १६७ १० ६५८ गाथा लोयस हेट्ठा लोयालय विभागं साहि 23 1. ए पुष्णमीर सुप वसा हक्क वारस वच्चति मुद्दत्रोणं वज्जेतेसुं मद्दल वज्जं वज्जपङ्क्षवं द्वादि वाणि वणसंडणामजुत्ता रसगंधपा सं वही वरुणा देवा घर भवरमज्झिमाणं वरकेचणकय सोहा बरकेसरिमारूढो वरचक्कवायरूठो वरपदमरायबंवूय वरमज्झग्रवर पसे चरमज्झिमवर मोगज वर दंडा वरवारणमारुढो रिसे वरिसे च विह atra aणकालो तुरंग मरगज मायादी सहेसुदामयी बंदणमालारंभर बाऊ पदातिसं वाति किविससुरा वाणिवरजसहियहू वारुणिवरादि उवरिम वालुष्कगणामा [ ६६३ महाधिकार गाया संक 5 ६ སྙད ९ ७ ७ ७ 19 ७ 9 ५ ५ ६ ५. ५ 5 3 女 ५ ५ ६ ५ ५ ८ ५ ५ ८ ५ ८ 5 ८ ८ G ५ ५ ५ ५४२ ५४६ ५४८ ५४४ ५५० ४८२ ६०८ १२२ २१ ८ १ ૬ ૨૩ ६४८ ११० १८३ ८६ १० २५२ ५७६ २८९ ३९५ ८५ ८३ ५६२ २३५ २७१ २७४ ४४५ २७५ ५९५ ४२ २७२ rrr Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ ] गिलोयषण्णत्ती गाथा महाधिकार गाथा . । महाधिकार गाथा सं० गाथा वैतरणिकासखेत्तं ध्यास तावत्कृत्वा ६७ २३५ २७८ ११० बाबीण असोय वर्ष दावीणं बहुमरने वावीण बाहिरए यासारणमासबारस वासाहि दुगुण उदभो बासिददिमंतरेहि वासो वि माणुसुत्तर विधिकरियाजरिएदाई विखंभायामे इगि विच्चाल पायासे विजय सि बहजयंती विजयं च पहायल बिजयंतवजयंत ४५० ४१० ७७ १५६ ७०८ ५६२ सरकादगदे सोमे सबकदुगम्मि य वाहण सक्कदुगम्मि सहस्सा सक्कदुगे चत्तारो सक्कदुगे तिण्णिसया सरकस्स मंदिरादो सक्कादो सेमेसु सक्कीसाणगिहाणं सक्कीसाणा पढौ सगचउणहणवएक्का संगतियपण सगपंना सगतीसलक्खजीमण सगवीसलवस्त्रजोषण सगवीस कोडीम्रो सगसगमज्झिम सूई सगरामवडिपमाणे सगसगवासपमारणं सन्हाई भायणाई सज्जं रिसहं गंधार, सट्रिजुदं तिसयागि ३४४ xxxxxxxx Natubxxx.xxxx..,, १२५ ३१७ २१० ४५ १०९ ४३ २७५ १७७ २५९ ४४९ २८२ २५५ १२० विणयसिरिकण्यमाला विद्द भदाणा केई विप्फुरिदकिरणमंडल विमलपहलो विमलो दिमलपहविमलमज्झिम विमलो णिच्यालोका वियला वितिचउरक्ता विबिहाइणचणाई विसकोदा कामधरा विहगाहिब मारुढो वीणावेणुप्पमुह वीणावेणुगुणीमो वीणयसयल उठी वीमण्हसरिससंधी वीस बुरासि उवमा यी सुसराणि होति हु वीसूण बेसयाणि येदी विच्चाले वेलियजलडिवीबा देवलियरजदसोका वेलपरुचकरुचिरं x २२१ २३४ GK ३५२ २९० ५७१ r सिजूदा ति स्याणि सट्ठिसहस्मजुदाणि सद्विसहस्सम्भहियं ५०८ सट्टी पंचसयाणि सण्णाण तवे हिजुदा सपिण प्रमण्णी होति । सत्तगुणे ऊरणं २४ सत्तच्चिय लमखाणि ४.० सत्तच्छचत्रतिय १३ । सत्तछ प्रदुषउक्का . 1 ३०६ ४२५ or ५३२ १७२ ३२९ ३८. . Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I I ! गांधा सादिय ま पदो गिगणखंडे सक्षण मणयछक्का उत्तणबछुक्कपणणम सत्ततिय मट्ठचरणय सतत्तरदा सतत्तर सविसेसा सत्तत्तरिसंजुत्तं सतत सहस्सा "T सतत्तरी तहस्सा सत्तत्तीसं सखा समयस्स] सहस् सत्तरसजोयणाणि " रट्ठट्ठीणि तु तराई सत्तरिव सा सत्तरसहस्राणवसम در 27 प्रससर महुरगीयं सतंयुरासिजनमा सत्ताण अणीमाणं सत्ताणीय पहूणं सत्ताणीयादिवई सतावण्णा बोदस सत्तावीसहस्सा ht „ सत्तावीस लक् सत्तावीस लक्ष्या सत्ताविसाहस्सा सत्तासीदिसहस्र महाषिकार गाथा सं० २१० ३७३ ५६ ५२३ ३३७ ३६५ ३२५ * ८ ५ 13 19 ७ ७ ७ ८ ७ १७ ७ ८ १७ ५ ८ ७ 19 ७ ५ Է ८ ५ ८ ८ ८ 5 ८ ७ ५ 5 ८ Солл गाथानुक्रमरिका 67 60 १८७ १५.१ ४०५ २३ ३०३ २१ २३० २५८ ५१० २८७ ७७ २० ५० गाथा सत्तेवारस वीस सदभिसभरणी प्रद्दा 21 22 " " " 12 सदरसहस्साराणद सवलसरिता कुरा समचउरसंठिदाणं समदमजमणियम समयजुद दोणिपल्लं समयजुद पल मे प समयजुपुब्वकी सम्मत्त गण समक्षणाण मज्जब सम्म सण सुद्धिमुज्वल परं मी देवा सम्मेलियासट्ठि सयणाणि प्राणाणि सनदमंदिराणं सर्यालय वल्लभाणं सर्यालदाण पडदा समवंतराय चपय सवादि मट्टभ ि सम्बसि दिय सम्ट्ठसिद्विणामे २२४ ५०१ २५४ ३३० २७३ १६२ २६५ ६५४ ४४ १७० २०५ ૪૦° सव्वाण सुरिया Th "I सम्वद्ध सिद्धिवासी सम्वपरिही बाहिर सन्परिहरति सव्वमंतरमुक्ल सव्वम्स तस्स रु दो सम्बं च लोयालि सध्वाण इंदया समाण दिगिंदा [ ६६५ महाषिकार गाथा सं० ८ ५.२९ *** ५२० ५२५ १२६ ५७६ ६३ ७ ७ و ८ ८ ६ ८ ५. ५ ५ 契 ८ 5 5 ७ ५. ६ 募 ७ ५ હ G 5 5 ५ ७ ५७ ५ 契 5 ८ ५ द ५७० २६२ २९१ ૧૨૦ ४ ५८२ ७२५ ६११ १८५ २१३ ४०८ ३१६ ६१ १०७ ४८० ६७५ ५१२ १२६ ६६९ ४५४ ३६७ १६६ १४२ ७१० ८२ ५२० २६४ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ ] तिलोयपणती गाथा सवाणि यणीयाणि महाधिकार गाया सं. २६७ ७१ ३२४ ५३४ ሃሃ ३०४ २८१ सवासुपरिहीम सब्दे कुणंति मे सम्वे पीवसमुद्दा सम्वे' भोगभुवार सब्वे लोयंतसुरा सम्वे विवाहिणीसा सम्बे ससिपो सूरा सव्वेसि इंदारण सम्वेसु दिनिदाएं सब्वेसु मंदिरे सम्वेसु वि भोगभुवे सन्वेसूइवेसु सम्बेसुणयरेस सप्सहरणयरतलादो ससहरपसचिवटी ससिणी पण रसाएं ससिबियस्य दिर परि ससिसंखाएविहत्त' संवातीदयिभत्ते संगुणिदेहि संखेज्ज संठियणम्मा सिरिवछ संते मोहीगाणे संपहि कालवणं संखेचतोयणाणि ४५१ महाधिकार गाथा सं. गाथा संस्थिमजीवाणं संसारण्णवमहणं संसारवारिरासी सामाणियत्तणुरक्खा सामाणिय देवीमो ३.. सायकरारणच्चुद ६६४ सारस्साक्षणामा सारस्सदरिद्वार सावकिण्हे तेरसि साबणकिण्हे सत्तमि २६२ सासणमिस्स बिहोणा ४२१ साहारणपतंय ३.५ सिवाण णिवाससिदी ३२५ सिरिदेवी सुवेदी मिरिपडमिरिधरणामा निशिसण दिसाहित सिंहालकणिदुक्खा ४६१ सिंहासणमारूढा २११ सिंहासणमारूढ़ो सिंहासणाणसोहा सीदीजुबमेक्कसयं ३४ सीदी सत्तसयाणि सीमंकरावराजिय सोहरिमयर सिहिसक ३२ सीहासणादिसहिदा ४३६ सुक्काय मरिझमंसा ६२४ सुण्णं चउठाणेक्का सुद्धखरभुजमारणं ६२७ सुदरसरूवगंध ६२६ सुद्धस्सामारक्खसदेवा ५४६ सुपविष्यमा जसघरया सुभपयरे प्रवरण्हं सुमरणसणामे उणातीस सुमएस सोमणसाए | सुरलोकणिवासखिदि १४५ ३७६ २१५ ३७० ५५६ २ .२१२ ६१७ ६६४ ५६३ २८३ ५५ १५२ ४४२ संज्ज सदं वरिसा संस्त्रज्या जवसणी संखेज्जा संज्ज संखेजो विखंभो संजोनविप्पयोगे ५११ १८७ -U Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथानुक्रमणिका [६६७ महाधिकार गाषा सं. १७० महाधिकार गाथा सं० १५ २५७ ४५४ মাথা सोलससहस्सचउसय सोलससहस्सणवसय सोलससहस्स पणसय सोलससहस्समेत्ता - R ~ . गाथा सुररामिदोबम्हाई सूरपहसूइबड्डी सूबरहरिणीमहिसा सूरादोणवत्त' सेदोरण विच्चाले सेढीब सवे सेवाण पुरवणाणं सेणामइसराणं सेमम्मि वइजयंत सेसाम्रो मज्झिमानो सेसामो कण्णणाधी १७१ १७ २१७ २२२ २३६ सोलसप्तहस्स समसय सोहम्मकपणामा सोहम्मकप्पपमिदयम्मि सोहम्मदुगविमाणा सोहम्मप्पहुदीण सोहम्मम्मि विमाणर सोहम्मादिचउक्के २०६ ४७३ ६६५ ५७४ ५.१५ ४४४ ४५१ ५८१ ६२० सोहम्मादिसु प्रसु सोहम्मादी अच्चूद सोहम्मादी देवा सोहम्मिर्षािगदे सोहम्मदादोरणं सोहम्मिदो णियमा सोहम्मीमाणदुगे सोहम्मीसाणसणकुमार सोहम्मीसाणाण ७.६ ५५८ ३५६ ७२२ ७१४ १२० सेसाणं तु गहाणं सेसारणं दीवावं से सायं मम्गारणं सेनाणं वीहीणं सेसा य एक्कासट्ठी सेसा वेंतररोवा सोवामिणि ति कणया सोद्रण भेरिस सोमजमा समरिद्धी १६२ ५६४ सोहम्मीसाणे or ३०४ मोहम्मे छमुहुत्ता मोहम्मो ईसाणो १२७ ह २९३ २३४ सोमं सम्बदहा सोमादिदि गिदाणं सोलसचोइसबारस सोलसजायणलक्या सोलस बिदिए दिए सोलसभोम्हिदाणं सोलससहस्स इगिसय १६४ हत्युपलदीमार्ण हरिदालसिंधुदीमा हंसम्मि विषवले স্বাঞ্ছাছুলাই हिंगुलपयोधिदीया Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 668 ] तिलोयपात्ती महाधिकार गाथा सं. गाया हेडिमझम उधारम .. 166 445. महाधिकार माथा सं० / माया होधि वसु होदिह समं पहक्वं होति भवउझादिसु णव होति मसंखेम्जामो होति परिवारतारा होति प्रमोघ सत्थिय 168 होंति ईसाणादिसु 348 होति / ताणि वणाणि 713 हैट्ठिम मज्झे उपरिम देट्टिमटिमपमुहा होदिपसंखेम्जाणि होदि गिरी रुचकवरी होषि सहस्सारुत्तर 147 ..xxx 173 230