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तिलोयपण्णत्ती
[गाया : २१६-२२२ सूर्य-वीथियोंका प्रमाण, विस्तार प्रादि और अन्तरालका वर्णन
चउसीदी-हिय-सयं, विणयर-भग्गाओ' होंति एदाणं । बिब - समाणा वासा, एक्केक्काणं तदद्ध - बहलां ॥२१६।।
अर्थ-- सूर्यकी गलियां एक सौ चौरासी ( १८४ ) हैं । इनमेंसे प्रत्येक गलोका विस्तार बिम्ब-विस्तार सदृश योजन और बाहल्य इससे प्राधा ( ३ योजन ) है ।।२१।।
तेसोदी-अहिय-सयं, दिणेस-वीहीण होदि विस्चालं ।
एक्क-पहम्मि चरंते, दोणि पि य भाणु-धियाणि ॥२२०॥
मर्थ-सूर्य की ( १८४ ) गलियों में एक सौ तेरासी ( १८३ ) अन्तराल होते हैं। दोनों ही सूर्य-बिम्ब एक पथमें गमन करते हैं ।।२२०।।
सूर्यको प्रथम वीथीका और मेरुके बीच अन्तर-प्रमाणसट्रि-जुई ति-सयाणि, मंडर-रुवं च जंबुवीवस्स । वासे सोहिय दलिदे, सूरादिम-पह-सुरहि-विच्चालं ॥२२॥
३६० । ४४८२० । अर्य-जम्बद्वीपके विस्तारमेंसे तीन सौ साठ ( ३६० ) योजन और मेरुके विस्तारको घटाकर शेषको आधा करनेपर सूर्यके प्रथम पथ एवं मेहके मध्यका अन्तरालप्रमाण प्राप्त होता है ॥२२॥
विशेषार्य-जम्बूद्वीपका वि० १००००० यो० – ( १८०४२) = ६६६४० यो । ९९६४० - १००००० मेरु वि०-८९६४०; २६६४० : २=४४८२० यो प्रथम पथ और मेरुके बीचका अन्तराल । विशेषके लिए इसी प्र० को गाथा १२१ का विशेषार्थ द्रष्टव्य है।
सूर्यकी ध्र व राशिका प्रमाणएक्कत्तीस-सहस्सा, एक्क-सयं जोयणाणि अडवण्णा । इगिसट्ठीए भजिवे, धुव - रासी होदि दुमणोणं ॥२२२॥
मर्थ -इकतीस हजार एक सौ अट्ठावन योजनों में इकसठका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना ( १८ या ५१० यो०) सूर्योकी ध्र वराशिका प्रमाण होता है ।।२२२।।
१. द बिबाओ, ब. धीहीओ ।