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३१६ } तिलोयपण्णत्ती
[ गाया : २८८-२९० अर्थ-तोत्रांशुबिम्ब (सूर्यमण्डल ) के चतुर्थ मार्ग में स्थित रहनेपर दिनका प्रमाण सत्तरह मुहूर्त और पचपन कला अधिक ( १७११ मु० ) होता है ।।२८७॥
बारस मुहरयाणि, छक्क-कलाओ वि रत्ति-परिमाणं । तुरिम-पह - द्विद - पंकयबंधव - बिंबम्मि परिहीसु॥२८॥
१२। । एवं मनिझम-पहंतं दत्वं ।
अर्थ-सूर्य बिम्बके चतुर्थ पथमें स्थित रहने पर सब परिधियोंमें रात्रिका प्रमाण बारह मुहूर्त और यह कला (Akोर" है ।२८॥
इसप्रकार मध्यम पथ पर्यन्त ले जाना चाहिए । सूर्यके मध्यमपथमें रहनेपर दिन एवं रात्रि का प्रमाणपण्णरस - मुहत्ताई, पत्तेयं होंति दिवस - रत्तीओ। पुग्बोदिद - परिहीसु, मज्झिम-मग-ट्ठिदे तवणे ॥२८६।।
।१५। एवं दुचरिम-मरगत णेदव्वं ।।
प्रयं-सूर्यके मध्यम पथमें स्थित रहनेपर पूर्वोक्त परिधियों में दिन और रात्रि दोनों पन्द्रहपन्द्रह महूर्त प्रमाणके होते हैं ।।२८९॥
विशेषार्थ--जब एक पथमें 1 मुहूर्त की हानि या वृद्धि होती है तब मध्यम पथ '६' में कितनी हानि-वृद्धि होगी? इसप्रकार राशिक करनेपर (४६)=३ मुहूर्त प्राप्त हुए। इन्हें प्रथम पथके दिन प्रमाण १८ मु० में से घटाकर उसी पथके रात्रि प्रमाण १२ मुहूर्तमें जोड़ देनेपर मध्यम पथमें दिन और रात्रि का प्रमाण १५-१५ मुहूर्त प्राप्त होता है।
इस प्रकार द्विचरम पथ तक ले जाना चाहिए। सूर्यके बाह्य पथमें स्थित रहते दिन-रात्रिका प्रमाणअट्ठरस-मुहसाणि, रत्ती बारस दिणो व विणणाहे । बाहिर-मग्ग-पवण्णे, पुचोदित - सव्य - परिही ॥२०॥
१८ । १२ । अर्थ-सूर्यके बाह्य मार्गको प्राप्त होनेपर पूर्वोक्त सब (१९४) परिधियोंमें अठारह (१८) मुहूर्त प्रमाण रात्रि और बारह ( १२ ) मूहूर्त प्रमाण दिन होता है ।।२९०।।