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________________ ४५६ ] अर्थ - इसके आगे अनुदिशों में चार उत्तम प्रकीर्णक विमान हैं। तिरेसठवें पटल में प्रकीर्णक नहीं हैं। श्रीबद्ध विमान हैं ।। १७७ ।। कल्प-नाम विशेषार्थ - श्रशोबद्ध विमानोंके अन्तराल में पंक्ति होन, बिखरे हुए पुष्पोंके सदृश यत्र तत्र स्थितविमानों को प्रकीर्णक विमान कहते हैं । प्रत्येक स्वर्ग में विमानों की जो सम्पूर्ण संख्या है, उसमें से अपने-अपने पटलोंके इन्द्रक और श्रीबद्ध विमानों की संख्या कम करने पर जो अवशेष रहे वही प्रकीर्शकों का प्रमाण है । यथा सोमं कल्प ऐशान 37 सानत्कुमार महेन्द्रकल्प ब्रह्म- कल्प लान्तव कल्प महाशुक सहस्रार आनतादि ४ अधोग्रं येयक तिलोयपणाती ततो अणुद्दिसाए, चत्तारि पइण्ण्या वर विमाणा । · तेसट्ठि प्रहिप्पाए, पइष्णया णत्थि श्रत्थि सेढिगया ।।१७७ ।। मध्यम " उपरिम अनुदिश अनुत्तर " सर्व विमान संख्या 1 ३२००००० २८००००० १२००००० ८००००० ४००००० ५०००० 100002 ६००० 9001 १११ १०७ ६१ ε ५ इन्द्रक + श्र ेणीबद्ध = ( ३१+४३७१ ) = ( ० + १४५७ ) == ( ७+ ५०० ) = [ गाथा : १७७ ( ०+१९६ ( ४+३६० ) ( २+१५६ ) ( १+७२ ) = ( १+६८ ) = ( ६ + ३२४ ) = (३+१०६ ) = ( ३+७२ ) = ( ३+३६ ) = ( १ + ४ } = ( ? +8 ) = === प्रकीर्णक ३१९५५९८ २७९८५४३ ११६६४०५ ७९९८०४ ३६६६३६ ४९६४२ ३९९२७ ५६३१ ३७० 0 ३२ ५२ ४ ०
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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