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तिलोत्त
[ गाथा : ३६-४१
अर्थ - इसप्रकार ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, श्रतीन्द्रिय, महार्थ, नित्य, निर्मल और निरालम्ब शुद्ध आत्माका चिन्तन करना चाहिए ||३५||
नाहं होमि परेसि, ण मे परे संति णाणमहमेवको । इवि जो भार्यादि झाणे, सो अप्पा हवदि भावो ||३६||
अर्थ-न मैं पर पदार्थोंका हूं और न पर पदार्थ मेरे हैं मैं तो ज्ञानमय अकेला हूँ, इसप्रकार जो ध्यान में आत्माका चिन्तन करता है वही ध्याता है ।। ३६ ।
जो एवं जाणित्ता, हादि परं अव्ययं विसुद्धप्पा | श्रममपारमदिसय', सोक्खं पावेदि सो जीओ ॥३७॥
- जो विशुद्ध आत्मा इसप्रकार जानकर उत्कृष्ट श्रात्माका ध्यान करता है वह जीव अनुपम, अपार और श्रतिशय सुख प्राप्त करता है ।। ३७।।
होत्थि मज्झमि किचि ।
एवं खलु जो भावद्द, सो पावs सन्ध कल्लाणं ॥ ३८ ॥
- मैं पर पदार्थका हूं और न पर पदार्थ मेरे हैं, यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है; जो इसप्रकार भावना भाता है वह सब कल्याण पाता है ||३८||
उड्डोध - मज्झ लोए, ण मे परे णस्थि मज्झमिह किचि । वह भावणाहि जुतो, सो पावइ श्रक्खयं सोक्खं ||३६||
- यहाँ ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोकमें पर पदार्थ मेरे कुछ भी नहीं है, यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है । इसप्रकार की भावनाओं से युक्त वह जीव श्रक्षय-सुख पाता है ॥३९॥
मद-माण- माय रहिदो लोहेण विवज्जिदो य जो जीवो । णिम्मल सहाव जुत्तो, सो पावह प्रक्खयं ठाणं ॥ ४० ॥
अर्थ - जो जीव मद, मान एवं मायासे रहित; लोभसे वर्जित और निर्मल स्वभावसे युक्त होता है वह अक्षय स्थान को पाता है ||४०||
परमाणु-माणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । सोण विजानदि समयं सगस्य सव्यागम-धरो वि ॥४१॥
१. द. ब. क. ज ठ सयं । २. व. व. क. जादि ।
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