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गाथा : ३०-३५ ]
नमो महाहियारो
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अर्थ-मोह मेरा कुछ भी नहीं है, एक ज्ञान दर्शनोपयोगरूप ही में जानने योग्य हूँ; ऐसी भावनासे युक्त जीव दुष्ट कर्मोंको नष्ट करता है ॥२९॥
नाहं होमि परेसि ण मे परे संति' जाण महमेवको । इदि जो कायदि भाणे, सो सुच्चइ अट्ठ कम्मेहि ||३०||
प्रर्थन में पर पदार्थोंका हूं और न पर पदार्थ मेरे हैं. मैं तो ज्ञान-स्वरूप अकेला ही हूँ; इस प्रकार जो ध्यान में चिन्तन करता है वह आठ कर्मो से मुक्त होता है ||३०||
चित्त-विरामे धिरमंति, इंदिया इंदियासु विश्वसुं । आद-सहावी, होवि पुढं तस्स णिव्वाणं ॥ ३१ ॥
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अर्थ-चित्तके शान्त होनेपर इन्द्रिय शान्त होती हैं और इन्द्रियोंके शान्त होनेपर आत्मस्वभाव में रति होती है, फिर उसका स्पष्टतया निर्वाण होता है ||३१||
जाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसि ।
एवं खलु जो भाओ, सो पावइ सासयं ठाणं ॥ ३२ ॥
अर्थ-न में देह हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण ही हूँ । इसप्रकार का जो भाव है ( उसे भाने वाला ) वह शाश्वत स्थानको प्राप्त करता है ||३२||
वेहो व मणो वाणी, पोग्गल दब्बं परोसि' णिद्दिट्ठ । पोग्गल - दव्वं पि पुणो, पिंडो परमाणु-वन्वाणं ||३३||
अर्थ -- देह के सदृश मन और वारणी पुद्गल द्रव्यात्मक पर हैं ऐसा कहा गया है। पुनः पुद्गल द्रव्य भी परमाणु द्रव्यों का पिण्ड है ॥३३॥
णाहं पुग्गलमइश्रो, ण वे मया पुग्गला कदा पिंडं । तम्हा हि ण बेहो हैं, कत्ता वा तस्स देहस्स ||३४||
अर्थ- -न में पुद्गलमय हूं और न मैंने उन पुद्गलोंको पिण्ड ( स्कन्ध ) रूप किया है, इसलिए न में देह हूँ और न इस देहका कर्ता ही हूँ ||३४||
एवं णाणप्पाणं, दंसण धुवममलमणालंबं
१. द. ब. सिंहि १
भावेनं
सूदं अदिदियमहत्यं । प्रप्ययं सुद्ध
॥३५॥
२. ६. ब. क. ज. ४. गरो । ३ द. ब. क. ज. ठ. धम्मं ।