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६२६ ] तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : २४-२६ अर्थ-जो दर्शनमोह और चारित्रमोहको नष्ट कर विषयोंसे विरक्त होता हुआ मनको रोककर ( आत्म-) स्वभावमें स्थित होता है वह मोक्ष-सुखको प्राप्त करता है ।।२३।।
जस्स ण विजवि रागो, वोसो मोहो व जोग-परिकम्मो।
तस्स सुहासुह - दहण - उमाणमनो जायदे अगणी ॥२४॥ अर्थ-जिसके राम, द्वेष, मोह और योग-परिकर्म (योग-परिणति) नहीं है उसके शुभाशुभ (पुण्य-पाप ) को जलानेवाली ध्यानमय अग्नि उत्पन्न होती है ।।२४।।
देसण-णाण-समग्गं, झार्ण णो अण्ण - दन - संसत्तं ।
जायदि णिज्जर - हेदू, सभाव - सहिदस्स साहुस्स ॥२५॥
अयं-( शुद्ध ) स्वभाव युक्त साधुका दर्शन-शानसे परिपूर्ण ध्यान निर्जराका कारण होता है, अन्य द्रव्योंसे संसक्त वह ( ध्यान ) निर्जराका कारण नहीं होता ॥२५।।
जो सव्व-संग-मुक्को, अणण्ण-मणो अपणो' सहावेण ।
जाणदि पस्सदि प्राद, सो सग-चरियं चरवि जोवो ॥२६॥ प्र-जो ( अन्तरङ्ग बहिरङ्ग ) सर्व सङ्गसे रहित और अनन्यमन ( एकाग्रचित्त ) होता हमा अपने चैतन्य स्वभावसे आत्माको जानता एवं देखता है. वह जीव आत्मीय चारित्रका आचरण करता है ॥२६॥
णाणम्मि भावणा खलु, कादव्या दंसणे चरित्ते य ।
ते पुण पादा तिणि वि, तम्हा कुण भावणं आदे ॥२७॥ अर्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें भावना करनी चाहिए । यद्यपि वे तीनों ( दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) आत्मस्वरूप हैं अतः आत्मामें हो भावना करो ।।२७।।
प्रहमेक्को स्खलु सुठो, दसण-णाणप्पगो सवालवी।
ण यि अस्थि मज्झि किषि वि, 'अण्णं परमाणुमेत्तं पि ॥२८॥ प्रयं-मैं निश्चयसे सदा एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानात्मक और प्ररूपी हूँ। परमाणु मात्र ( प्रमाण भी ) अन्य कुछ मेरा नहीं है ।।२८।।
पतिथ मम कोइ मोहो, 'बुज्झो उवजोगमेवमहमेगो। इह भाषणाहि जुचो, खवेइ दुट्ट • कम्माणि ॥२६॥
१ व. ब. क. ज. ठ. पणो अपणा । २. ६. ब. क. ज..णाणप्पा सगारूथी।३.द.ब. अमिना । ४. द. दुग्झो उक्जोगमेदभेवमहमेमो, ब. खुन्भो उवज्जोग....... ।