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गाथा । १८-२३ ] णवमो महाहियारो
[६२५ लोयालोय विभाग, तम्मिट्ठिय सम्व-वन्व-पज्जायं ।
तिय-काल-गवं सम्वं, जाति हु एक्क - समएण ॥१८॥ अर्थ-अनुपम स्वरूपसे संयुक्त, कृतकृत्य, नित्य, निरंजन, नीरोग, निर्वद्य, निष्पाप, स्वआधार और निर्मलज्ञानसे युक्त सिद्ध परमेष्ठी लोक और अलोकके विभागको, लोक स्थित सर्व द्रव्यों और उनकी त्रिकालवी सब पर्यायोंको एक ही समयमें जानते हैं ।।१७-१८।।
जाइ-जरा-मरणेहि, जिम्मुक्का णिम्मला अणक्खयरा । अवगद - वेवा सम्वे, अणंत - बोहा प्रणेत • सुहा ।।१६॥ किचकिचचा सचण्ह, सत्ताघादा सदा-सिवा सुद्धा । परमेट्ठी परम - सुही, सव्वगया सव्य - दरिसोय ॥२०॥ अव्वाबाहमणतं, अक्खयमणुवमणिदियं सोक्खं । अप्पुढे भुजति हु, सिद्धा सदा - सदा सम्वे ॥२१॥
सौख समस ॥४॥ अर्थ-जन्म, जरा और मरणसे विनिमुक्त, निर्मल, अनक्षर ( पान्दातीत ), वेद से रहित, अनन्तज्ञानी, अनन्तसुखी, कृतकृत्य, सर्वज्ञ, स्व-सत्तासे सब कर्मोका घात करनेवाले, सदाशिव, शुद्ध, परम पदमें स्थित, परम सुखी, सवंगत, सर्वदर्शी, ऐसे सर्व सिद्ध अव्यावाध, अनन्त, अक्षय, अनुपम और अतीन्द्रिय सुखका निरन्तर भोग करते हैं ।।१९-२१||
इसप्रकार सुख प्ररूपण समाप्त हुभा ॥४॥
सिद्धत्वके कारणजह चिर-संचिमिधणमणलो पवणाहदो लाहुं वाहइ ।
तह कम्मिश्रणमाहियं, खणेण झाणाणलो बहइ ।।२२।। अर्थ-जिसप्रकार चिर-सञ्चित ईंधनको पवनसे आहत अग्नि शीघ्र ही जला देतो है, उसीप्रकार ध्यानरूपी अग्नि बहुतभारी कर्मरूपी ईधनको क्षण-मात्रमें जला देती है ।।२२।।
जो खविद' मोह-कलुसो, विसय-विरतो मरणो णिभित्ता। समबट्टिबो सहावे, सो पावइ णिदि सोक्खं ॥२३॥
१. द. क. क. पिविदमोहके खलुसो।