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गाथा : ४२-४६ ] रणबमो महाहियारो
[६२९ अर्थ-जिसके परमाणु प्रमाण भी देहादिकमें राम है, वह समस्त प्रागमका धारी होकर भी अपने समय ( आत्मा) को नहीं जानता है ॥४१।।
तम्हा' णिबुदि-कामी, रागं देहेसु कुणदु मा किचि । देह - विभिण्णो अप्पा, झायन्बो इंदियादीदो ।।४।।
प्रर्थ-इसलिए हे मोक्षाभिलाषी ! देहमें कुछ भी राग मत करो। ( तुम्हारे द्वारा ) देहसे भिन्न अतीन्द्रिय आत्माका ध्यान किया जाना चाहिए ।।४२।।
देहत्थो देहावो, फिचणो देह - बलियो सुखो।
देहायारो अप्पा, झायव्यो इंखियातीदो ॥४३॥
अर्थ-देहमें स्थित, देहसे कुछ कम, देहसे रहित, शुद्ध, देहाकार और इन्द्रियातीत प्रात्मा का ध्यान करना चाहिए ।१४३।।
झाणे जवि णिय-प्रादा, णाणादो णावभासदे जस्स ।
झाणं होधि ण तं पुण, जाण पमादो हु मोह-मुच्छा वा ॥४४॥ अर्थ-जिस जीवके ध्यान में यदि ज्ञानसे निजात्माका प्रतिभास नहीं होता है तो फिर वह ध्यान नहीं है । उसे ( तुम ) प्रमाद, मोह अथवा मूर्छा हो जानो ।।४४।।
गयसित्थ-मूस-गब्भायारो रयणतयादि-गुण-जत्तो ।
णिय-यादा मायव्यो, खय - रहिदो जीव-घण-देसो ॥४५॥ अर्थ-मोमसे रहित मूसकके ( अभ्यन्तर ) आकाशके प्राकार, रलवयादि गुणों से युक्त, अविनश्वर और प्रखण्ड-प्रदेशी निज प्रात्माका ध्यान करना चाहिए ।।४।।
जो आव-भाव-गमिणं, रिणव-जुत्तो मुरणो समाचरदि।
सो सन्द • दुक्ख - मोक्खं , पावइ अधिरेण कालेण ॥४६।। अर्थ-जो साधु नित्य उद्योगशील होकर इस आत्म-भावनाका आचरण करता है वह थोड़े समयमें ही सब दुःखों से छुटकारा पा लेता है ।।४६ ।।
१. य. सेमा, म. तम्मा। ३.द.व. वमणी।
२. ३. क. ज, उ. झायो । ४. द. ज. स. मोक्वे,ब.क. मोक्खो ।