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तिलोयपण्णत्तो
[ गाथा । ४७-५२
कम्मे णोकम्मम्मि प, अहमिवि अहयं च कम्म-णोकम्म ।
जायदि सा खलु बुद्धी, सो हिंडइ गरुव - संसारं ॥४७॥ प्रयं-कर्म और नोकर्म में "मैं हूँ" तथा मैं कर्म-नोकर्मरूप है; इसप्रकार जो बुद्धि होती है उससे यह प्राणी गहन संसारमें घूमता है ।।४७॥
जो खविध-मोह-कम्मो, विसय-विरत्तो मरणो णिहाभत्ता।
समवद्विदो सहावे, सो मुच्चइ कम्म - णिमलेहिं ॥४८॥ प्रार्थ-जो मोहकमं ( दर्शनमोह और चारित्रमोह ) को नष्टकर विषयोंसे विरक्त होता हुआ मनको रोककर स्वभाव में स्थित होता है, वह कर्मरूपी साँकलोंसे छूट जाता है ।।४।।
पडिदिदि-प्रणभाग-प्पदेस बंधेहि यज्जियो अप्पा ।
सो हं इदि चितेजो, तत्थेव य कुणह थिर-भावं ॥४६॥
प्रर्ष-जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धसे रहित आत्मा है वही मैं हूँ, इसप्रकार चिन्तन करना चाहिये और उसमें ही स्थिरता करनी चाहिये ॥४९।।
केवलणाण-सहायो, केवलदसण-सहाओ सुहमइयो।
केवल-विरिय-सहायो, सो हं इवि चितए खाणी ॥५०॥ अर्थ-जो केवलज्ञान एवं केवलदर्शन स्वभाव से युक्त, सुख-स्वरूप और केवल-वीर्य-स्वभाव है वही मैं हूँ, इसप्रकार ज्ञानी जीवको विचार करना चाहिए ।।५०।।
जो सब-संग-मुक्को, झायवि अप्पागमप्पणो' अप्पा ।
सो सब दुक्ख-मोक्खं, पावइ अचिरेण कालेण ॥५१॥ प्रर्म-सर्व सङ्ग (परिग्रह) से रहित जो जीव अपने प्रात्माका प्रात्माके द्वारा ध्यान करता है वह थोड़े ही समय में समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है ॥५१॥
जो इच्छधि हिस्सरि, संसार-महण्णवस्स दस्स ।
सो एवं जाणित्ता, परिझायवि अप्पयं सुद्ध' ॥५२॥ मर्थ-जो गहरे संसाररूपी समुद्र से निकलने की इच्छा करता है वह इसप्रकार जानकर शुद्ध प्रास्मा का ध्यान करता है ॥५२॥
१ क ब. क.ज. उ. अप्पाण पप्पणो।