________________
२१४ ] तिलोयपण्णती
[ गाथा : ३२३ अधिकारान्त मङ्गलजंणाण'-रयण-दीपो, लोयालोय-प्पयासण-समस्थो ।
पणमामि पुप्फयंत, सुमइकरं भव्य - संघस्स ॥३२३॥
एवमाइरिय-परंपरागय-तिलोयपप्णत्तीए तिरिय-लोय-सहय-णिरूवण-पण्णत्ती पाम पंचमो महाहियारो समत्तो ॥५॥
अर्थ-जिनका ज्ञानरूपी रत्नदीपक लोक एवं प्रलोकको प्रकाशित करनेमें समर्थ है और जो भव्य-समूहको सुमति प्रदान करनेवाले हैं ऐसे पुष्पदन्त जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता है ॥३२३।।
इसप्रकार प्राचार्य-परम्परागत त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें तियंग्लोक स्वरूप
निरुपए प्रशस्ति नामक पाँचवाँ महाधिकार समाप्त हुआ ॥५॥
... म.ज.
रायरयण । प. णरणारय ।