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तिलोयपणाती
[माया ! ७०-७५ कुन्थुनाथ जिनेन्द्र से वर्धमान जिनेन्द्र पर्यन्त आठ तीर्थंकरों को क्रमशः नमस्कार---
केवलणाण-विसं, चोत्तोसादिसय - भूदि - संपण्णं ।
अप्प - सरूवम्मि ठिदं, कुथु - जिणेसं रगमंसामि ॥७०॥ अर्थ--जो वेधलज्ञानरूप प्रकाश युक्त सूर्य हैं, चौंतीस अतिशयरूप विभूति से सम्पन्न हैं और प्रात्म-स्वरूप में स्थित हैं, उन कुन्थुजिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ 11७०।।
संसारण्णव-महणं, तिहुवण-भवियाण सोक्ख-संजणणं ।
संदरिसिय - सयलत्यं', अर - जिणणाहं णमंसामि ॥७१॥
अर्थ-जो संसार-समुद्र का मथन करने वाले हैं और तीनों लोकों के भव्य जीवों को मोक्ष के उत्पादक हैं तथा जिन्होंने सकलपदार्थ दिखला दिये हैं, ऐसे पर जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥७१॥
भव्य-जण-भोक्ख-जणणं, मुणिव-देविंद-पणद-पय-कमलं ।
अप्प-सुहं संपत्तं, मल्लि - जिणेसं णमंसामि ॥७२॥ अर्थ-जो भव्य-जीवों को मोक्ष-प्रदान करने वाले हैं, जिनके चरण-कमलों में मुनीन्द्रों और देवेन्द्रों ने नमस्कार किया है, आत्म-सुख से सम्पन्न ऐसे मल्लिनाथ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥७२॥
रिगट-वियघाइ-कम्म, केवल-णाणेण विट्ठ-सयलत्थं ।
णमह मुणिसुव्यएसं, भवियाणं सोक्ख - देसयरं ॥७३॥ अर्थ-जो धातिकर्मको नष्ट करके केवलज्ञानसे समस्त पदार्थों को देख चुके हैं और जो भव्य जीवों को सुखका उपदेश करने वाले हैं. ऐसे मुनिसुव्रतस्वामी को नमस्कार करो ॥७३॥
घण-घाइ-कम्म-महणं, मुणिद-देविव-पणद-पय-कमलं।
पणमह णमि-जिणणाहं, तिवण-भवियाग सोपवयरं ।।७४॥ प्रपं-घन-घाति-कर्मोंका मथन करने वाले. मुनीन्द्र और देवेन्द्रों से नमस्कृत चरण-कमलों से संयुक्त, तथा तीनों लोकों के भव्य जीवोंको मुख-दायक, ऐसे नमि जिनेन्द्रको नमस्कार करो १७४।।
इंद-सय-णमिद-चरणं, आद-सरूवम्मि सम्व-काल-गदं । इंघिय - सोषख - विमुषर्क, णेमि - जिणेसं णमंसामि ॥७५।।
१.१. ब. क. ४. सयलदं।