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________________ गाथा : ७६-७९ ] परमो महाहियारो [ ६३५ अर्थ-सी इन्द्रों से नमस्कृत चरणवाले, सर्वकाल आत्मस्वरूप में स्थित और इन्द्रिय-सुखसे रहित ऐसे नेमि जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ॥७५॥ कमठोपसग्ग-दलणं, तिहुयण भवियाण मोक्ख- देसयरं । पण मह पास जिणेसं, घाइ चटवर्क विणासरं ॥ ७६ ॥ - M प्रथं - कमठकृत उपसर्गको नष्ट करनेवाले, उपदेशक और घाति चतुष्टय के विनाशक पार्श्व- जिनेन्द्रको नमस्कार करो ||७६ || एस सुरासुर-मसिंह - बंदिदं घोट-घाइ-कम्म-मलं । पणमामि वयमाणं, तित्यं धम्मस्स कत्तारं ॥७७॥ तीनों लोकों सम्बन्धी भव्योंके लिये मोक्ष के अर्थ-- जो इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तियों से वंदित, घातिकर्मरूपी मलसे रहित और धर्मतीर्थ के कर्ता हैं उन वर्धमान तीर्थंकर को में नमस्कार करता हूँ ||७७॥ पंच परमेष्ठी को नमस्कार * मालिनी छन्द जयउ जिणवरदो, कम्म- बंधा अबद्धो', जयज-जयज सिद्धो सिद्धि-मग्गो समग्यो । जयज जय-अणंदो, सूरि-सत्थो पसत्यो, जयउ जदि वदो उग्ग-संघों प्रविग्धो ॥ ७८ ॥ अर्थ- कर्मबन्ध से मुक्त जिनेन्द्र जयवन्त होवें भगवान् जयवन्त होवें, जगत् को प्रानन्द देने वाला प्रशस्त रहित साधुओं का प्रबल संघ लोकमें जयवन्त होवे ||७८ || हुए चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करो ।। ७९ ।। भरतक्षेत्रगत चौबीस जिनोंको नमन समग्र सिद्धि मार्ग को प्राप्त हुए सिद्ध सूरि-समूह जयवन्त होवे और विघ्नों से परमह् चजवीस- जिणे, तिथयरे तत्थ भरहखेत्तम्मि । सवाणं भवदुषखं, छिवंते नाग परसेहि ॥७६॥ प्रर्थ - जो ज्ञान रूपी परशुसे सब जीवों के भव-दुःखको छेदते हैं, उन भरतक्षेत्र में उत्पन्न १. द. व. अबंधो २. द. व. क. ठ. समग्या । १. ६. ब. रु. ठ. बड्डीणं । ४, ६, ब. क. ठ. परेहि -
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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