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गाथा : ७६-७९ ]
परमो महाहियारो
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अर्थ-सी इन्द्रों से नमस्कृत चरणवाले, सर्वकाल आत्मस्वरूप में स्थित और इन्द्रिय-सुखसे रहित ऐसे नेमि जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ॥७५॥
कमठोपसग्ग-दलणं, तिहुयण भवियाण मोक्ख- देसयरं । पण मह पास जिणेसं, घाइ चटवर्क विणासरं ॥ ७६ ॥
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प्रथं - कमठकृत उपसर्गको नष्ट करनेवाले,
उपदेशक और घाति चतुष्टय के विनाशक पार्श्व- जिनेन्द्रको नमस्कार करो ||७६ ||
एस सुरासुर-मसिंह - बंदिदं घोट-घाइ-कम्म-मलं । पणमामि वयमाणं, तित्यं धम्मस्स कत्तारं ॥७७॥
तीनों लोकों सम्बन्धी भव्योंके लिये मोक्ष के
अर्थ-- जो इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तियों से वंदित, घातिकर्मरूपी मलसे रहित और धर्मतीर्थ के कर्ता हैं उन वर्धमान तीर्थंकर को में नमस्कार करता हूँ ||७७॥
पंच परमेष्ठी को नमस्कार
* मालिनी छन्द
जयउ जिणवरदो, कम्म- बंधा अबद्धो',
जयज-जयज सिद्धो सिद्धि-मग्गो समग्यो । जयज जय-अणंदो, सूरि-सत्थो पसत्यो, जयउ जदि वदो
उग्ग-संघों प्रविग्धो ॥ ७८ ॥
अर्थ- कर्मबन्ध से मुक्त जिनेन्द्र जयवन्त होवें भगवान् जयवन्त होवें, जगत् को प्रानन्द देने वाला प्रशस्त रहित साधुओं का प्रबल संघ लोकमें जयवन्त होवे ||७८ ||
हुए चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करो ।। ७९ ।।
भरतक्षेत्रगत चौबीस जिनोंको नमन
समग्र सिद्धि मार्ग को प्राप्त हुए सिद्ध सूरि-समूह जयवन्त होवे और विघ्नों से
परमह् चजवीस- जिणे, तिथयरे तत्थ भरहखेत्तम्मि ।
सवाणं भवदुषखं, छिवंते नाग परसेहि ॥७६॥
प्रर्थ - जो ज्ञान रूपी परशुसे सब जीवों के भव-दुःखको छेदते हैं, उन भरतक्षेत्र में उत्पन्न
१. द. व. अबंधो
२. द. व. क. ठ. समग्या ।
१. ६. ब. रु. ठ. बड्डीणं । ४, ६, ब. क. ठ. परेहि
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