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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ४३४-४३५ कारण यह है कि जब अभ्यन्तर वीथी स्थित सूर्य अपने भ्रमण द्वारा उस परिधिको ६० मुहूर्तमें पूरा करता है, तब वीथीके ठीक मध्यक्षेत्र में स्थित अयोध्या पर्यन्तकी परिधिको पूर्ण करने में कितना समय लगेगा ? इस प्रकार राशिक करनेपर अर्थात् १५५६५x3 =४१ = ४७२६३६ योजन चक्षु-स्पर्शका उत्कृष्ट क्षेत्र प्राप्त होता है ।।
भरतक्षेत्रके चक्रवर्ती द्वारा सूर्यबिम्बमें स्थित
जिनबिम्बका दर्शनपंच-सहस्सा [तह] पण-सयाणि चहत्तरी य जोयणया। बे-सय-तेतीसंसा, हारो सीवी • जुवा ति-सया ।।४३४॥
५५७४ । ३३ उरिम्मि णिसह-गिरिणो, एत्तिय-माणेण पढम-मग-ठिकं ।
पेठच्छति तवणि • बिनं, भरहक्खेसम्मि चक्कहरा ॥४३५॥
प्रयं-उपयुक्त प्रकारसे चक्षुके उत्कृष्ट विषय-क्षेत्रमेंसे हरि-वर्षके अर्ध धनुःपृष्ठको निकाल देनेपर निषधपर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाण पांच हजार पाँच सौ चौहत्तर योजन और एक योजन के तीन सौ अस्सी भागों से दो सौ तेतीस भाग अधिक आता है । इतने योजन प्रमाण निषधपर्वतके ऊपर प्रथम वीथीमें स्थित सूर्यबिम्ब ( के मध्य विराजमान जिन विम्ब) को भरतक्षेत्रके चक्रवर्ती देखते हैं ।।४३४-४३५!!
विशेषापं–त्रिलोकसार गाथा ३८९-३६१ में कहा गया है कि निषधाचलके धनुष-प्रमाणके अर्धभागमेंसे चन-स्पर्श क्षेत्र घटा देनेपर ( ६१८८४ -४७२६३१)१४६२१३० योजन शेष रहते हैं । प्रथम बीथी स्थित सूर्य निषधाचलके अपर जब १४६२१४. यो. ऊपर पाता है तब चक्रवर्ती द्वारा देखा जाता है और यहां कहा गया है कि निषधाचल पर जब सूर्य ५५७४९ योजन ऊपर आता है तब चक्रवर्ती द्वारा देखा जाता है । इन दोनों कथनोंमें विरोध नहीं है । क्योंकि निषधाचलके धनुषका प्रमाण १२३७६ योजन और हरिवर्षके धनुषका प्रमाण ८३३१७:१ योजन है। निषधके धनुष-प्रमाण मेंसे हरिवर्षका धनुष प्रमाण घटाकर शेषको आधा करनेपर निषधाचल की पार्श्वभुजाका प्रमाण { ( १२३७६८/-८३३१७ )२}=२०१९५१॥ प्राप्त होता है। ( दक्षिण तटसे उत्तरतट पर्यन्त चापका जो प्रमाण है उसे पाश्वभुजा कहते हैं )। त्रिलोकसारके मतानुसार १४६२१४. यो० ऊपर मानेपर सूर्य दिखाई देता है । निषधाचलकी पार्श्वभुजा मेंसे यह प्रमाण घटा देनेपर ( २०१६५४ - १४६२१४%) ५५७४४६० योजन अवशेष रहते हैं। तिलोयपण्णत्तीमें सूर्य दर्शनका यही प्रमाण कहा गया है।