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गाथा ! ४३१-४३३ ] सत्तमो महायिारो
[ ३६१ ___अर्थ-प्रथम पथसे हरिवर्ष क्षेत्रका धनुःपृष्ठ तेरासी हजार तीन सौ सतत्तर योजन और नो कला प्रमाण है ।।४३०॥
विशेषार्थ-२५.६६०२५४४००० = १५४४१७० योजन ।। यदी वर्मगल निकालने के बाद जो शेष बचे वे छोड़ दिये गये है । ) १९८४.१७२-८३३७७. योजन प्रथम पथसे हरिवर्ष क्षेत्रका धनु:पृष्ठ है।
निषधपर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाणतद्धणपस्सद्ध, सोहेज्जसु चक्खुपास - खेत्तम्मि । जं अवसेस-पमाणं, रिगसपाचल-उपरिम-खिदी सा ।।४३१॥
४१६८८ । । अर्थ-इस धनुःपृष्ठ-प्रमाण के अर्धभागको चक्षु-स्पर्श-क्षेत्रमेंसे कम कर देनेपर जो शेष रहे उतनी निषध-पर्वतकी उपरिम पृथिवी है ।।४३१॥
विशेषार्थ- हरिवर्षके धनुपृष्ठका प्रमाण ८३३७७ - १५.७२ योजन है। इसका अर्धभाग चक्षुस्पर्श क्षेत्रके ४७२६३३० योजन प्रमाणमेंसे घटानेपर निषधपर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाण होता है । यथा--
(४७२६३२० = ४१३६ ) --- ७६२४८६ - १३६३५३ = ५५७४४३५ योजन निषध पर्वतकी उपरिम पृथिवीका प्रमाण है ।
___ चक्षुस्पर्श के उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाणप्राविम-परिहि ति-गुणिय, वोस-हिवे लद्धमत्त-तेसट्टी । छ - सया सत्तत्साल, सहस्सया बीस-हरिद-सत्तंसा ॥४३२॥
४७२६३ । । एवं सखुप्पासोक्किा - पखेत्तस्स होदि परिमाणं ।
तं एत्थं ऐबव्वं, हरिवरिस - सरास - पट्टद्ध ॥४३३।।
प्रथ-आदिम ( प्रथम ) परिधिको तिगुना कर बीसका भाग देनेपर जो सैंतालीस हजार दो सौ तिरेसठ योजन और एक योजनके बीस-भागोंमेंसे सात भाग लब्ध पाते हैं, यही उत्कृष्ट चक्षस्पर्शका प्रमाण होता है । इसमें से हरिबर्ष क्षेत्रके धनुःपृष्ठ प्रमाणके अर्धभागको घटाना चाहिए ।।४३२-४३३।।
विशेषार्थ-सूर्यको अभ्यन्तर वीथी ३१५०८९ योजन प्रमाण है। चक्षुस्पर्शका उत्कृष्ट क्षेत्र निकालने हेतु इस परिधिको तीन से गुणित कर ६० का भाग देनेको कहा गया है । उसका