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________________ ३६० ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२९-४३० अर्थ-( सूर्यकी ) प्रथम वीथीका सूची (व्यास ) निन्यानबै हजार यह सौ चालीस ( ६९६४० ) योजन प्रमाण जानना चाहिए ।।४२८।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन और ज. द्वीपमें सूर्यादिके चारक्षेत्रका प्रमाण १५० योजन है । ज० द्वीपके व्यास में से दोनों पार्श्वभागोंके चार क्षोत्रोंका प्रमाण घटा देनेपर १००००० -( १८०४२) = ६९६४० योजन शेष बचते हैं। यही प्रथम वीथी का सूची व्यास है। प्रथम पथसे हरिवर्ष क्षेत्रके धनुषकी कृतिका प्रमाणतिय-ठाणेसुसुण्णा, चउ-छ-पंच-दु-स्व-छ-णव-सुण्णा । पंच-दुगंक-कमेणं, एक्कं छ-त्ति-भजिदा अधणु-वग्गो ॥४२६॥ २५०६१३५१४0001 अर्थ-तीन स्थानोंमें शून्य, चार, छह, पाँच, दो, शून्य, छह, नौ, शून्य, पाँच और दो, इन अंकोंके क्रमसे जो संख्या उत्पन्न हो उसमें तीन सौ इकसठका भाग देनेपर लब्ध-राशि-प्रमाण हरिबर्ष क्षेत्रके धनुषका वर्ग होता है ॥४२६॥ विशेषार्थ-अभ्यन्तर ( आदिम ) पथका वृत्त विष्कम्भ ९९६४० योजन है और प्रथम वीथीसे हरिवर्ष क्षेत्रके बाणका प्रमाण 300८० योजन है। 'बाणसे हीन वृत्त विष्कम्भको चौगुने बाणसे गुणित करने पर जीयाकी कृति होती है । ( त्रिलोकसार गा० ७६० ) के इस करणसूत्रानुसार प्रथम पथके वृत्तविष्कम्भमेंसे बाणका प्रमाण घटाकर शेष राशिको चौगुने बाणसे गुणित करनेपर जीवाकी कृति प्राप्त होती है । यथा (१८४० - १५८०) x (30498०x४) - १६.५६११६५९०० योजन जीवाकी कृति । 'छह गुणी बाण-कृतिको जीवा-कृतिमें मिलानेसे धनुष-कृति होती है' (त्रिलोकसार गा० ७६० ) के इस करणसूत्रानुसार धनुषकी कृति इसप्रकार है {( 3:१५०० )२x६- १६३ ८४०० }+{१४५३१४१०५६.. ) = २५०४१४००० योजन धनुषके वर्गका प्रमाण है । __ प्रथम पथसे हरिबर्ष क्षेत्रके धनुःपृष्ठका प्रमाणतेसीवि-सहस्सा तिय-सयाणि सत्तत्तरी य जोयणया । णव य कलामो आविम-पहादु हरिवरिस-घण-पुढ॥४३०॥ ८३३७७ । ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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