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________________ ४१२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ५६२-५६३ अब लवणसमुद्र में अन्तिम पथसे बाह्य में दो, शून्य, शून्य, तीन और तीन, इस अंक क्रमसे तैतीस हजार दो योजन और एक सौ तेरासी भागोंमेंसे सौ भाग प्रमाण किरणे जाती हैं ।।५९१।। विशेषार्थ-लवणसमुद्रके छठे भागका प्रमाण ( २५००० ) ३३३३३३ यो० है । गाथा ५८९ के नियमानुसार इसमेंसे लवण समुद्र सम्बन्धी चारक्षेत्रका प्रमाण घटा देनेपर ( ३३३३३४३३०)=३३००२१२७ योजना शेष रहते हैं। अर्थात् लवलसमुद्र में अन्तिम पथसे बाह्यमें किरणोंकी गति ३३००२१23 यो० पर्यन्त होती है। जम्बूद्वीपस्थ अभ्यन्तर और बाह्य पथ स्थित सूर्यको किरणों की गतिका प्रमाणपढम-पह-संठियाणं, लेस्स-गदी णभ-दु-अट्ठ-णव-चउरो। अंक - कमे ओयणया, अभंतरए समुट्ठि ॥५६२।। ४९८२० । मर्थ-प्रथम पथ स्थित सूर्यको किरणोंकी गति अभ्यन्तर पथमें शून्य, दो, आठ, नौ और चाय, इन अंकोंके क्रमसे उनचास हजार पाठ सो बीस योजन पर्यन्त फैलती है। ऐसा जिनेन्द्र-देवने कहा है ।।५९२।। विशेषार्थ-जम्बूद्वीपके प्रधं व्यासमेंसे द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्रका प्रमाण १८० योजन घटा देनेपर ( ५०००० -- १८०)=४९८२० योजन शेष रहा । यही मेरु पर्वतके मध्यभागसे लगाकर अभ्यन्तर वीयी पर्यन्त सूर्य की किरणोंको गतिका प्रमाण है । बाहिर-भागे लेस्सा, वच्चंति ति-एक्क-परण-ति-तिय-कमसो। जोयणया तिय - भागं, सेस - पहे हाणि - वड्ढीयो ॥५६३॥ ३३५१३ ।।। भर्म-बाह्यभागमें सूर्यकी किरणें तीन, एक, पांच, तीन और तीन इस अंक क्रमसे तैतीस हजार पांच सौ तेरह योजन और एक योजनके तीन भागोंमेंसे एक भाग पर्यन्त फैलती हैं। शेष पथों में किरणोंकी क्रमशः हानि और वृद्धि होती है ॥५९३।। विशेषार्थ-लवणसमुद्रके व्यासका छठा भाग ( २ )=३३३३३० योजन होता है। इसमें द्वीप सम्बन्धी चारक्षेत्रका प्रमाण १८० योजन मिलानेपर ( ३३३३३ + १८०)-३३५१३१ योजन होता है । अर्थात् अभ्यन्तर पथमें स्थित सूर्यको किरणे लवणसमुद्रके छठे भाग ( ३३५१३॥ योजन ) पर्यन्त फैलती हैं।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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