________________
गाथा : ३६२-३६४ । सत्तमो महायिारो
[ ३३६ अर्थ-प्रथम पथसे बाह्य पथकी ओर जाते समय सूर्य की किरण-शक्ति होन होती है और बाह्म पथसे आदि पथकी ओर वापिस आते समय वह किरण-शक्ति वृद्धिगत होती है ॥३६१॥
दोनों सूर्योका तापक्षेत्रताव खिवी परिहोओ, एवाओ एक्क-कमलणाहम्मि । बुगुणिव-परिमाणाओ, सहरूस - किरणेसु दोहम्मि ।।३६२॥
ताव-खिदि-परिही समत्ता । प्रथ-एक सूर्यके रहते ताप-क्षेत्र-परिधिमें जितना ताप रहता है उससे दुगुने प्रमाण ताप दो सूर्योके रहनेपर होता है ।१३६२।।
ताप-क्षेत्र परिधिका कथन समाप्त हुआ 1 सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहते रात्रिका प्रमाणसम्बासुपरिहीसु', पढम-पह-ट्ठिद-सहस्स-किरणम्मि ।
बारस • मुहुत्तमेत्ता, पुह पुह उप्पज्मदे रत्ती ॥३६३॥
अर्थ-सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर पृथक्-पृथक् सब ( १९४) परिधियोंमें बारह मुहूर्त प्रमाण रात्रि होती है ॥३६३।।
सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहते इच्छित परिधिमें तिमिरक्षेत्र
प्राप्त करने की विधिइच्छिम-परिहि-पमाणं, पंच-विहत्तम्मि होदि जं लद्ध। सा तिमिर-खेत्त-परिही, पढम-पह-टिव-विणेसम्मि ।।३६४॥
मर्ष-इच्छित परिधि-प्रमाणको पाँचसे विभक्त करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना सूर्य के प्रथम पथमें स्थित होनेपर तिमिर क्षेत्रको परिधिका प्रमाण होता है ।।३६४।।
विशेषार्थ---यहाँ सूर्य प्रथम वीथी में स्थित है और इस बोथीमें रात्रिका प्रमाण १२ मुहूर्तका है। विवक्षित परिधिके प्रमाणमें १२ मुहूर्तका गुणाकर ६० मुहूर्तीका भाग देनेपर अर्थात् (28) अर्थात् ५ का भाग देनेपर तिमिर-क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है।