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३३८ ]
तिलोय पण्णत्ती
६३३४० । ६ ।
एवं चरिम-मग्गतं दव्वं ।
अर्थ- वैरोचन ( सूर्य ) के बाह्यमाग में स्थित होनेपर मध्यम पथमें ताप - क्षेत्रका प्रमाण तिरेसठ हजार तीन सौ चालीस योजन और दो कला रहता है ।। ३५८ ।।
( मध्यम पथकी परिधि ३१६७०२ ) ÷५-६३३४० योजन ताप-क्षेत्र है ।
इसप्रकार द्विचा मार्ग पर्यन्त जाना चाहिए
प्रमाण है ।
[ गाथा: ३५६-३६१
सूर्यके बाह्य पथ स्थित होनेपर बाह्यपथमें तापक्षेत्र-
तेसट्ठि सहस्सा णि छत्तय वासट्ठि जोयणाणि कला ।
तारो बहि-मग्गा विम्मि तरणिम्मि बहि-पहे- ताओ ।। ३५६॥
६३६६२ । ६ ।
अर्थ -- सूर्य के बाह्य पथ में स्थित होनेपर बाह्यमार्ग में ताप क्षेत्र तिरेसठ हजार छह सौ बासठ योजन और चार कला प्रमाण रहता है ||३५९ ।।
( बाह्य पथकी परिधि ३१८३१४ ) ÷५६३६६२ योजन तापक्षेत्रका प्रमाण है ।
सूर्य बाह्य पथमें स्थित रहते लवण समुद्र के छठे भाग में तापक्षेत्रका प्रमाण
एक्कं लक्खं गध- जुद- चउण्ण-सयाणि जोयणा श्रं सा ।
बाहिर पह-द्विवनके, ताव खिदी लवण छूट्ट से ।।३६० ॥
१०५४०६ । ६ ।
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अर्थ- सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर लवखसमुद्र के छठे भाग में ताप क्षेत्र एक लाख पाँच हजार चार सौ नौ योजन और एक भाग प्रमाण है || ३६० ।।
( लवण समुद्रके छठे भागकी परिधि ५२७०४६ ) : ५ - १०५४०११ योजन तापक्षेत्रका
सूर्य की किरण शक्तियों का परिचय-
मादिम पहावु बाहिर पहम्मि भाणुस्स गमण-कालम्मि |
हाएवि फिरण सची, वडदि आगमण समयम्मि ।। ३६१ ||