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गाथा : ३५५-३५८ ]
सत्तमो महाहियारो अट्ठावण्ण-सहस्सा, इगि-सय-उगवण्ण जोयणा प्रसा। सगतीस बहि-पह-वि-तवणं तावो पुरीम्म चरिमम्मि ॥३५॥
५८१४९।३०। अर्थ-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर अन्तिमपुर अर्थात् पुण्डरीकिणी नगरीमें ताप-क्षेत्र अट्ठावन हजार एक सौ उनचास योजन और सैंतीस भाग प्रमाण रहता है ॥३५५।।
( पुण्डरी किणीपुरकी परिधि २९०७४९५ - २११५• )x1=23386 = ५६१४९३४ योजन तापक्षेत्र है।
सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर प्रथम पथमें ताप-क्षेत्रतेसट्टि - सहस्साणि, सत्तरसं जोयणाणि घउ-प्रसा। पंच-हिदा बहि-मग्ग-दिम्मि दुमणिम्मि पढम-पह-तावो ॥३५६॥
प्रयं-सूर्यके बाह्यमार्गमें स्थित होनेपर प्रथम पथ (अभ्यन्तर वीथी ) में ताप-क्षेत्र तिरेसठ हजार सत्तरह योजन और पांचसे भाजित चार भाग प्रमाण रहता है ।।३५६११ (प्रथम पथ की परिधि ३१५०८९ }-५-६३० १७१ योजन तापक्षेत्रका प्रमाण है।
सूर्यके बायपथ स्थित रहते द्वितीय बीथीमें तापक्षेत्रतेसटिठ-सहस्साणि, जोयणया एक्कवीस एक्ककला । बिदिय-पह-ताव-परिही, बाहिर-मग्ग-दिठवे तवणे ॥३५७॥
६३०२१ ।। एवं मज्झिम-पहंत णेवब्छ ।
पर्ष-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर द्वितीय वीथी की ताप-परिधिका प्रमाण तिरेसठ हजाब इक्कीस योजन और एक भाग प्रमाण है ॥३५७।।
( द्वितीय पथ की परिधि ३१५१०६ यो०)xt=६३०२११ योजन ताप-परिधि है । इसप्रकार मध्यम पथ पर्यन्त ले जाना चाहिए ।
सूर्यके बाह्यमार्गमें स्थित होनेपर मध्यम पपमें तापक्षेत्रतेसठि-सहस्सागि, ति-सया चालीस भोयरणा दु-कला। मझ-पह-ताव-खेसं, विरोधणे बाहि • मगा - ट्ठिवे ॥३५॥