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गाथा । २९५-२९९ ] पंचमो महायिारो
तिर्यंचोंकी उत्पत्ति योग्य योनियांउपती तिरियाणं, मान-समुग्थियो ति सलगं ।
सचिवस-सीद-संबद-सेदर-मिस्सा य जह - जोग्गं ॥२६५॥ अर्थ-तिर्यञ्चोंको उत्पत्ति गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्मसे होती है । इनमेंसे प्रत्येक जन्मकी सचित्त, शीत, संवृत तथा इनसे विपरीत प्रचित्त, उष्ण, विकृत और मिश्र (सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत }, ये यथायोग्य योनियाँ होती हैं ।।२९५।।।
गम्भम्भव-जीवाणं, मिस्सं सच्चित्त - णामधेयस्स ।
सीदं उण्हं मिस्सं, संवद - जोणिम्मि मिस्सा य ॥२६॥ प्रर्थ-गर्भसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सचित्त नामक योनिमसे मिश्र (सचिताचित्त), शीत, उष्ण, मिश्र ( शीतोष्ण ) और संवृत योनिमें से मिश्र ( संवृत-विवृत ) योनि होती है ॥२९६।।
समुच्छिम-जीवाणं, सचित्ताचित्त-मिस्स-सीदुसिणा ।
मिस्सं संवद - वियुदं, णव-जोणीओ हु सामण्णा ॥२६७॥
अर्थ-सम्मूर्छन जीवोंके सचित्त, अचित्त, मिश्र, शीत, उष्ण, मिश्र, संवृत, वित्त और संवृत-विवृत, ये साधारणरूपसे नो ही योनियां होती हैं ।।२९७॥
तिर्यचोंको योनियोंका प्रमाणपुढवी-आइ-चउक्के, णिच्चिविरे सत्त-लक्ख पत्तक्क । दस लक्खा रुक्खाणं, छल्लक्खा वियल-जीवाणं ॥२६॥ पंचक्खे चउ-लक्खा, एवं बासट्टि-लक्ख-परिमाणं । णाणाविह - तिरियाणं, होति हु जोणी विसेसेणं ॥२६॥
एवं जोणी समता ॥१०॥ अर्थ-पृथिवी आदिक चार तथा नित्यनिगोद एवं इतरनिगोद इनमें प्रत्येकके सात लाख, वृक्षोंके दस लाख, विकल-जीवोंके छह लाख और पंचेन्द्रियोंके चार लाख, इसप्रकार विशेष रूपसे नाना प्रकारके तिर्यचोंके ये बासठ लाख प्रमाण योनियां होती हैं ।।२६८-२९९।।
इसप्रकार योनियोंका कथन समाप्त हुआ ॥१०॥
१.... गम्भुविभव । २. ६. ब. क. ब. माद।