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________________ ३०८ 1 तिलोयपण्णत्ती [ गाया : २५७-२६० अर्थ - शेष मार्गों के परिधि प्रमाणको जानने हेतु गुरु-उपदेशके अनुसार परिवि-प्रक्षेप कहते हैं ।। २५६ ।। सूर-पह - सुइ वड्डी, दुगुणं काढूण वग्गिदृणं च । दस गुनिये जं मूलं, परिह्निक्लेको इमो होइ ।। २५७।। अर्थ - सूर्य-पथों की सूची - वृद्धिको दुगुना करके उसका वर्ग करनेके पश्चात् जो प्रमाण प्राप्त हो उसे दस से गुणा करनेपर प्राप्त हुई राशिके वर्गमूल प्रमारण उपर्युक्त परिधिक्षेप ( परिक्षिवृद्धि ) होता है || २५७ ॥ विशेषाथ- सूर्यपथ - सूचीवृद्धिका प्रमाण यो० है । = 4 √(¥× २ ) *X १०८ १७१६ यो० परिधि वृद्धि | सरस- जोयणाणि अदिरेगा तस्स होई परिमाणं । अट्ठक्षीसं प्रंसा, हारो तह एक्कसी य ॥ २५८ ॥ १७ । ३६ । अर्थ - उक्त परिधि - प्रक्षेपका प्रमाण सत्तरह योजन और एक योजनके इकसठ भागों में से अड़तीस भाग अधिक ( १७३६ यो० ) है ||२५|| द्वितीय आदि वोथियोंकी परिधि ति-जोयण-लक्खाणि, पण्ण रस- सहस्स एक्क-सय छक्का । अट्ठत्तीस कलाओ, सा परिही विदिय मग्गमि ।। २५६ ॥ कला है ।। २५९|| ३१५१०६ । १६ । अर्थ- द्वितीय मार्ग में वह परिधि तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ छह योजन और अड़तीस - ३१५७८९ + १७३६३१५१०६३६ योजन । चवीस-जुदेवक-सयं, पण्णरस सहस्त जोयण ति-लक्खा । पण्णरस कला परिहो, परिमाणं तविय वीहीए ॥ २६०॥ ३१५१२४ । ।। । अर्थ - तृतीय बीधी में परिधिका प्रमाण तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ चोबीस और पन्द्रह् कला ( ३१५१२४११ ० ) है ।२६० ।।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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