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तिलोयपण्णत्ती
[ गाया : २५७-२६०
अर्थ - शेष मार्गों के परिधि प्रमाणको जानने हेतु गुरु-उपदेशके अनुसार परिवि-प्रक्षेप कहते हैं ।। २५६ ।।
सूर-पह - सुइ वड्डी, दुगुणं काढूण वग्गिदृणं च ।
दस गुनिये जं मूलं, परिह्निक्लेको इमो होइ ।। २५७।।
अर्थ - सूर्य-पथों की सूची - वृद्धिको दुगुना करके उसका वर्ग करनेके पश्चात् जो प्रमाण प्राप्त हो उसे दस से गुणा करनेपर प्राप्त हुई राशिके वर्गमूल प्रमारण उपर्युक्त परिधिक्षेप ( परिक्षिवृद्धि ) होता है || २५७ ॥
विशेषाथ- सूर्यपथ - सूचीवृद्धिका प्रमाण यो० है ।
= 4 √(¥× २ ) *X १०८ १७१६ यो० परिधि वृद्धि |
सरस- जोयणाणि अदिरेगा तस्स होई परिमाणं । अट्ठक्षीसं प्रंसा, हारो तह एक्कसी य ॥ २५८ ॥
१७ । ३६ ।
अर्थ - उक्त परिधि - प्रक्षेपका प्रमाण सत्तरह योजन और एक योजनके इकसठ भागों में से अड़तीस भाग अधिक ( १७३६ यो० ) है ||२५||
द्वितीय आदि वोथियोंकी परिधि
ति-जोयण-लक्खाणि, पण्ण रस- सहस्स एक्क-सय छक्का ।
अट्ठत्तीस कलाओ, सा परिही विदिय मग्गमि ।। २५६ ॥
कला है ।। २५९||
३१५१०६ । १६ ।
अर्थ- द्वितीय मार्ग में वह परिधि तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ छह योजन और अड़तीस
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३१५७८९ + १७३६३१५१०६३६ योजन ।
चवीस-जुदेवक-सयं, पण्णरस सहस्त जोयण ति-लक्खा ।
पण्णरस कला परिहो, परिमाणं तविय वीहीए ॥ २६०॥
३१५१२४ । ।। ।
अर्थ - तृतीय बीधी में परिधिका प्रमाण तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ चोबीस और पन्द्रह् कला ( ३१५१२४११ ० ) है ।२६० ।।