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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ३८०-३८१ नोट-साप और तम क्षेत्र की कुल (१++१८४+१= ) १९४ परिधियां हैं। इनमें से मेरु पर्वतको १+ोमा आदि नगरियोंकी ८+लवण० की १+और सूर्यकी (प्रारम्भिक ३+ मध्यम १+ और बाह्य १= ) ५ परिधियोंका अर्थात् १५ परिधियोंका विवेचन किया जा चुका है । इसीप्रकार शेष १७६ परिधियोंका भी जानना चाहिए।
सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित रहते इच्छित परिधिमें
तिमिर क्षेत्र प्राप्त करनेकी विधिइच्छिय-परिरय-रासिं, सगसट्ठी-तिय-सएहि गुणिणं । रणभ-तिय-अट्ठकक-हिंद, तम-खेत्तं बिविय-पह-ठिदे-सूरे ॥३०॥
अर्थ-इष्ट परिधि राशि को तीन सौ सड़सठसे गुणा करके प्राप्त गुणनफलमें अठारह सौ तीसका भाग देनेपर जो लन्ध प्रावे उतना सूर्य के द्वितीय पथमें स्थित रहने पर विवक्षित परिधिमें तम-क्षेत्रका प्रमाण होता है ।।३८०।।
विशेषा- यहाँ सूर्य द्वितीय पथ में स्थित है । इस वीथीमें रात्रिका प्रमाण ( १२+11) =१२= मुहूर्तका है । विवक्षित परिधिके प्रमाणमें : मुहूतौका गुणाकर ६० मुहूर्तों का भाग देनेपर अर्थात् NH4 में से ३६७ का गुणाकर १८३० का भाग देनेपर तम-क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है । सूत्र के द्वितीय पथमें स्थित होनेपर मेरु आदिको परिधियों में
तम-क्षेत्रका प्रमाणएक्क-चउक्क-ति-छक्का, अंक-फमे दुग-दुग-न्छ-अंसा य । पंचेक्क-णवय-भजिदा, मेर-तमं बिदिय- पह-ठिदे सूरे ॥३१॥
६३४१ । १३ वर्ष-सूर्यके द्वितीय पथमें स्थित होनेपर मेरु पर्वतके कपर तम-क्षेत्र एक, चार, तीन और छह इन अंकोंके क्रमसे छह हजार तीन सौ इकतालीस पोजन और नौ सौ पन्द्रहसे भाजित छह सौ बाईस भाग अधिक रहता है ॥३८१।।
(मेस्की परिधि - ११२९) १५- 1 =६३४१६१ योजन तम-क्षेत्र है।
१. द.ब.क.ब. परिषितवरणे।