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________________ गाथा : ३७६-३८० ] म महाहियारो [ ५३५ है । वह प्रासादों का उत्सेध लान्तवेन्द्र आदि तीनके क्रमश: चार सौ (४००) तीन सौ पचास ( ३५० ) और केवल तीन सौ ( ३०० ) तथा चानतेन्द्र आदिकोंके दो सौ पचास ( २५० ) योजन प्रमाण है || ३७४ ३७५।। एदाणं विस्थारा, लिय- णिय उच्छे पंचम विभागा। वित्थारद्ध गाढं, पत्तेक्कं सन्न पासावे ।। ३७६ ।। श्रथं- - इन प्रासादों का विस्तार अपने-अपने उत्सेधके पांचवें भाग ( १२०, १०० ९०, ८०, ७०, ६० और ५० योजन ) प्रमाण है तथा प्रत्येक प्रासादका अवगाह विस्तारसे श्राचा ( ६०, ५०, ४५, ४०, ३५, ३० और २५ योजन प्रमारण ) है || ३७६ || सिंहासन एवं इन्द्रोंका कथन - पासादाणं मज्भे, सपाद पीढा 'अकट्टिमायारा । सिहासणा दिसाला, वर अर्थ- प्रासादों के मध्य में पादपीठ सहित मय सिहासन विराजमान है ।।३७७ ।। हूँ। यहाँ पुष्यका फल प्रत्यक्ष है ||३७८ ॥ - सिहासणाण सोहा, जा एदाणं विचित्त रूवाणं । णय सक्का वो मे, पुण्ण फलं एत्थ पचवलं ||३७८ || - - - अर्थ - अद्भुत रूपवाले इन सिहासनोंकी जो शोभा है, उसका कथन करने में मैं समर्थ नहीं सिहासमारूढा, सोलस वर भूसणेहि सम्मत रयण सुद्धा, सच्चे इंदा रयणमया विरायंति ।।३७७ || अकृत्रिम, विशाल आकारवाले और उत्तम रत्न , - - · अर्थ - सिंहासनपर आरूढ़, सोलह उत्तम आभूषणोंसे शोभायमान और सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे शुद्ध सब इन्द्र विराजमान हैं ||३७६ || सोहिल्ला । विरार्धति ॥ ३७६ ॥ पुव्यज्जिदाहि सुचरिद कोडीहि संचिदाए लच्छोए । सक्कादोणं जवमा का दिउजड़ पिरुषमाणाए ॥ ३८०tl अर्थ - पूर्वोपार्जित करोड़ों सुचरित्रोंसे प्राप्त हुई शक्रादिकों की अनुपम लक्ष्मीको कौन सी उपमा दी जाय ? ||३८०|| १ द. ब. क. जे. ट. यकट्टिमायाय । २. द. ब. क. ज. अ. ये । ३. द. व. फ. ज ठ पदं ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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