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________________ ५३४ ] लियो पत्ती [ गापा : ३०-३७५ राजांगणके मध्य स्थित प्रासादोंका विवेचनरायंगण - बहुमजझे, एक्केरक-पहाण-विस्व-पासावा । एक्केक्कस्सि इवे, णिय-णिय-ईवाग णाम - समा ॥३७०।। प्रथं-राजांगणके बहुमध्य भागमें एक-एक इन्द्रका अपने-अपने नामके सदृश एक-एक प्रधान दिव्य प्रासाद है ।।३७०।। घुम्वंत-धय-बढ़ाया, मुत्ताहल-हेम-दाम-कमणिम् । घर-रयण-मत्तवारण-गाणाबिह-सालभंजियाभरणा ॥३७१।। विप्पंत-रयण-दीवा, बम्ज-कबाहिं सुवर-दुवारा । दिव्य-वर-धूव-सुरही, सेज्जासण-पहुवि-परिपुण्णा ॥३७२॥ सत्तट्ठ-णव-सादिय-विचित्त-भूमीहि मूसिवा सव्वे । बहुधण्ण - रयण - खचिदा, सोहंते सासय • सरूवा ॥३७३॥ मर्थ-सब प्रासाद फहराती हुई ध्वजा पताकाओं सहित. मुक्ताफलों एवं सुवर्णकी मालाओंसे रमणीक, उत्तम रत्नमय मत्तवारणोंसे संयुक्त, आभरण युक्त नाना प्रकारकी पुतलियों सहित, चमकसे हुए रत्न-दीपकोंसे सुशोभित, वनमय कपाटोंसे, सुन्दर द्वारोंवाले, दिव्य उत्तम घूपसे सुगन्धित, शय्या एवं मासन मादिसे परिपूर्ण और सात, आठ, नौ तथा दस आदि अदभुत भूमियोंसे भूषित हैं। पाश्वत स्वरूपसे युक्त ये प्रासाद नाना रत्नोंसे खचित होते हुए शोभायमान है॥३७१-३७३।। प्रासादोंके उत्सेधादिका कथनछस्सय-पंच-सयाणि, पण्णुत्तर-घउ-सयाणि उच्छहो । एदाणं सक्क - दुगे, दु'-इंद-जुगलम्मि बम्हिवे ॥३७४॥ ६०० । ५०० । ४०० चारि-सय पणुतर-तिपिण-सया केवला य तिणि सया। सो संतविव-तिथए, प्राणद - पहुयीसु दु-सय-पण्णासा ॥३७५॥ ४०० । ३५० । ३०० । २५० 1 अर्थ-शऋद्विक ( सौधर्मेशान ), सानत्कुमार-माहेन्द्र युगल और ब्रह्मन्द्रके इन प्रासादोंका उत्सेध क्रमशः छह सौ ( ६०० ), पांच सौ ( ५०० ) और चार सौ पचास ( ४५० ) योजन प्रमाण १. ५. अ. ज. ठ, दुइंजजुमलम्भि, क. दुइजुजुमलम्मि। २. य. म्हिदे या ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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