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गाथा । ३४३-३४५ ] सत्तमो महाहियारो
[ ३६३ ६४६६४ । । एवं दुचरिम-मग्गंत णेदव्वं ।
अर्थ-(सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित रहते मध्यम पथमें ताप-क्षेत्र चौरानबे हजार छह सौ चौंसठ योजन और पाठ सौ चौहत्तर भाग ( ६४६६४६४. योजन) प्रमाण है ।।३४२।। इसप्रकार द्विचरम मार्ग तक ले जाना चाहिए।
सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते बाह्य वीथीका तापक्षेत्रपणणउदि सहस्सा इगि-सयं च छादाल जोयणाणि कला। अठ्ठत्तरि पंच-सया, तविय-पहक्कम्मि बहि-पहे-तावो ॥३४३॥
९५१४६ ।१७। अर्थ-( सूर्यके ) तृतीय पथमें स्थित होनेपर बाह्य पथमें ताप-क्षेत्र पंचानब हजार एक सो छयालीस योजन और पांच सौ अठहत्तर कला (१५१४६१११ योजन ) प्रमाण है ॥३४३॥
सूर्यके तृतीय पथमें स्थित रहते लवणसमुद्रके छठे-भागमें ताप-क्षेत्र
सम-तिय-पण-सग-पंचा, एपकं कमसो बु-पंच-घउ-एक्का । अंसा हवेदि तावो, तविय-पहपकम्मि लवण - छठसे ॥३४४॥
१५७५३७ । १४१। अर्थ-( सूर्यके ) तृतीय मार्ग में स्थित होनेपर लवण-समुद्रके छठे भागमें ताप-क्षेत्र सात, तीन, पाँच, सात, पांच और एक इन अंकोंके क्रमसे एक लाख सत्तावन हजार पाँच सौ सैंतीस योजन और एक हजार चार सो बावन भाग प्रमाण है ॥३४४।।
विशेषार्थ-लवणसमुद्रके छठे भागकी परिधिका प्रमाण ५२७०४६ यो है। सूर्य तृतीय वीथी में स्थित है और उस समय दिन १७१७=११ मुहर्लोका होता है। इन मुहूतोंका परिधिके प्रमाणमें गुणा कर ६० मुहूर्ताका भाग देनेपर ताप-क्षेत्रका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा५२०१४ x xt= PG= १५७५३७४१ योजन ।
शेष वीथियोंमें तापक्षेत्रका प्रमाणधरिऊण विण-महत्तं', पशि-वीहि सेसएसु मग्गेसु। सय्य - परिहोण तावं, दुचरिम - मग्गंत जेवव्यं ॥३४५॥
१. द. ब. क. ज. मुहृत्त।