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________________ तिलोयपण्पत्ती [ गाथा : ३४६-३४७ अर्थ-इसीप्रकार प्रत्येक वीथी में दिनके मुहूतौका प्राश्रय करके शेष मार्गोंमें द्विचरम मार्ग पर्यन्त सब-परिधियोंमें ताप-क्षेत्र शात कर लेना चाहिए ।।३४५।। ___ षा-प्रथम, द्वितीय और तृतीय पथ स्थित सूर्यके तापक्षेत्रका प्रमाण प्रत्येक वीथोके दिन मुहूतोंका प्राश्रय कर १९४ परिधियों में से कुछ परिधियोंमें कहा जा चुका है और बाह्य वीथी स्थित सूर्य के तापक्षेत्रका प्रमाण कुछ परिधियों में आगे कहा जा रहा है। शेष ( १८४ - ४= ) १८० वीथियोंमें स्थित सूर्य के ताप क्षेत्रका प्रमाण प्रत्येक वीथोके दिन मुहूर्तांका आश्रय कर पूर्वोक्त नियमानुसार ही सर्व परिधियों में ज्ञात कर लेना चाहिए । सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होने पर इच्छित परिधिमें तापक्षेत्र निकालनेकी विधिपंच - बिहत्ते इच्छिय-परिरय-रासिम्मि होवि सं लक्ष। सा'ताव-खेत्त-परिही, बाहिर-मग्गम्मि दुरिण-ठिव-समए ॥३४६॥ अर्थ-इच्छित परिधिकी राशिमें पाँचका भाग देनेपर ओ लब्ध आवे उतनी सूर्यके बाह्य मार्ग में स्थित रहते समय ताप क्षेत्रको परिधि होती है ।।३४६।। विशेषा–यहाँ सूर्य बाह्य ( १८४ वीं ) वीथीमें स्थित है और इस वीथी में दिनका प्रमाण केवल १२ मुहूर्तका है । विवक्षित परिधिके प्रमाणमें १२ मुहूर्तका गुणा कर ६० मुहूर्ताका भाग देनेपर अर्थात् (2)- ५ का भाग देनेपर तापक्षेत्र का प्रमाण प्राप्त होता है । सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर मेरु आदि की परिधियों में ताप-क्षेत्रका प्रमाणछस्स सहस्सा ति-सया, चउवीसं जोयणाणि दोणि कला । पंच-हिवा मेक - णगे, ताथो बाहिर-पह-विक्कम्मि ॥३४७॥ ६३२४ १६। अर्थ-सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर मेरु पर्वतके ऊपर ताप-क्षेत्रका प्रमाण छह हजार तीन सौ चौबीस योजन प्रौर पाँचसे भाजित दो कला रहता है ।।३४७॥ ( मेरु परिधि ३१६२२ )*-५-६३२४३ योजन तापक्षेत्र है । १ . तवयेसा।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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