SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 666
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६३८-६४३ संसार-बारिरासी, 'जो लोभो तस्स होति अंतम्मि । जम्हा लम्हा एबे, देवा लोयंतिय सि गुणणामा ॥६३८॥ प्रयं-संसार समुदरूपी जो लोक है क्योंकि वे उसके अन्त में हैं इसलिए ये देव 'लोकान्तिक' इस सार्थक नामसे युक्त हैं ॥६३८।। ते लोयंतिय - देवा, अट्ठसु राजीसु होंति' विच्चाले । सारस्सव-पदि तहा, ईसाणादिअ-विसासु चउवासं ॥६३६॥ - २४। अर्थ-वे सारस्वत आदि लौकान्तिक देष पाठ राजियों के अन्तराल में हैं। ईशान आदिक दिशाओं में चौबीस देव हैं ।।६३९॥ पुथ्वप्तर-विभाए, घसंति सारस्सदा सुरा णिच् । आइच्चा पुयाए, अणल - दिसाए वि वहि - सुरा ॥६४०॥ बक्खिरण-विसाए अरुणा, णइरिदि-भागम्मि गद्दतोया य । पच्छिम-दिसाए तुसिदा, अव्वाबाधा समोर-विभाए ॥६४१॥ उसर - दिसाए रिट्ठा, एमेते अट्ट ताण विच्चाले । बो - हो हवंति 'अण्णे, देवा तेसु इमे रणामा ॥६४२॥ प्रर्ष-पूर्व-उत्तर ( ईशान ) दिग्भागमें सर्वदा सारस्वत देव, पूर्व दिशामें आदित्य. अग्नि दिशामें वह्नि देव, दक्षिण दिशामें अरुण, नैऋत्य भागमें गर्दतोय, पश्चिम दिशामें तुषित, वायु दिग्भागमें अव्याबाध और उत्तर दिशा में अरिष्ट, इस कार ये आठ देव निवास करते हैं। इनके अन्तराल में दो-दो अन्य देव हैं। उनके नाम ये हैं ॥६४०-६४२।। सारस्सद - रणामाणं, प्राइच्चाणं सुराण विच्चाले। प्रणलाभा सूराभा, देवा चेट्ठति णियमेणं ॥६४३॥ अयं-सारस्वत और आदित्य नामक देवों के अन्तराल में नियमसे अग्न्याभ और सूर्याम देव स्थित हैं ।। ६४३॥ - - १. द. ब. जे । २. ६.ब. व होति । ३. द. ब. क. ज. स. ईसाणदिसाविबसुर । ४. प. ब. क. प. ८. सारस्स दो। ५. द. व. के. ज. स. अरिट्ठा। ६. इ. ब. क. ज. 8. भण्णं । ७. प. ब. क. प. उ. सुराभा।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy