SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा : २३८ - २३६ ] सत्तमो महाहिया [ ३०१ अर्थ – एक कम इष्ट- पथको द्विगुणित मार्ग सूची - वृद्धिसे गुणा करनेपर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे प्रथम अन्तराल में मिला देनेसे सूर्यका अभीष्ट अन्तराल प्रमाण प्राप्त होता है ।। २३७॥ द्वितीयादि पथों में सूर्यका पारस्परिक अन्तर प्रमाण णवणउदि सहस्सा छस्सयाणि पणदाल जोयराणि कला । पणतीस दुइज्ज पहे, दोन्हं भाणूण विच्चालं ||२३८ ॥ ९९६४५ । ३१ । एवं मज्किम मतं वयं । श्रयं - द्वितीय पथमें दोनों सूर्योका अन्तराल निन्यानबे हजार छह सौ पैंतालीस योजन और पैंतीस भाग ( ९९६४५३५ यो० ) प्रमाण है || २३८ ॥ इस प्रकार मध्यम मार्ग तक लेजाना चाहिए । विशेषार्थ - यहाँ इष्ट पथ २रा है। गा० २३७ के नियमानुसार २ - [ ( १५ ) + e९६४० ] - ९९६४४३५ यो० अन्तराल है । एक्कं लवलं पण भहिय-सयं जोयणाणि अदिरेगो । मज्झिम-पहम्मि दोहं, सहस्स-किरणाण-विच्चालं ।। २३६ ॥ १००१५० । १ = १ ॥ एवं दुचरिम-मग्गतं वयं । अर्थ- - मध्यम पथमें दोनों सूर्योका अन्तराल कुछ अधिक एक लाख एक सौ पचास ( १०० १५० ) योजन प्रमाण होता है ।। २३९ ॥ विशेषार्थ - इष्ट पथ ९३ वाँ है । इसमेंसे १ घटा देनेपर ९२ शेष रहते हैं यही ९२ वीं चौथी मध्यम पथ है । ( द्विगुणित पथ सूची २ ) २=५१२६ यो० । ( प्रथम पथमें सूर्योका अन्तराल ९९६४० यो० ) + ५१२४६ यो० = १००१५२३६ मो० मध्यम पथमें सूर्योका अन्तराल है। मूल संदृष्टिसे यह प्रमाण अधिक है । इसीलिए गाथा में 'अदिरेगो' पद आया है । इसीप्रकार द्विचरम अर्थात् १८२ वीधियों पर्यन्त ले जाना चाहिए । सूर्यकी गलिया १८४ हैं किन्तु प्रक्षेप केवल १८३ पथमें मिलाया जाता है, इसलिए द्विचरम पथ १८२ होगा !
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy