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तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : २४०-२४३ एक्कं जोयण-लक्वं, सट्ठी-जुत्ताणि छस्सयाणि पि । माहिर - पहम्मि दोह, सहस्सकिरणाण विच्चालं ॥२४०॥
१००६६०। प्रयं-बाह्य पथमें दोनों सूर्योका ( पारस्परिक ) अन्तराल एक लाख छह सौ साठ (१००६६०) योजन प्रमाण है ॥२४०11
विशेषार्थ – इष्ट पथ १८४ – १=१८३ । ६९६४० + ( १८३ ) -- १००६६० योजन अन्तराल है।
सूर्यका विस्तार प्राप्त करनेकी विधिइच्छंतो रवि-बियं, सोहेज्जसु सयल बोहि विच्चालं । धुवरासिस्स य मझे, चुलसीवी-जुद-सवेण भजिवव्वं ॥२४१।।
११५८ | १२३ । अर्थ-यदि सूर्यबिम्बका विस्तार जाननेकी इच्छा हो तो ध्र बराशिमेंसे समस्त मार्गान्तरालको घटाकर शेषमें एक सौ चौरासीका भाग देना चाहिए । इसका भागफल ही सूर्यबिम्ब के विस्तारका प्रमाण है ।।२४१॥
विशेषार्थ -ध्र बराशिका प्रमाण यो० है और सर्व पथोंके अन्तरालका प्रमाण २३३२० योजन है।
91१५ - १२ = 4 यो I -3 १८४- योजन सूर्यबिम्बके विस्तार का प्रमाण ।
रविमग्गे इच्छंतो, वासरमणि-बिब-बहल संखाए ।
तस्स य बीही बहलं, भजिणं से वि पाणयेदव्यं ॥२४२॥ अर्थ-यदि सूर्य के मार्गको जाननेकी इच्छा हो तो उसके बिम्बके बाहल्य ( विस्तार) का वीथी-विस्तार ( . यो. ) में भाग देकर मार्गोका प्रमाण ले आना चाहिए ।।२४२।। अहवा
सूर्य-मार्गोका प्रमाण प्राप्त करनेकी विधिविणवइ-पहंतराणि, सोहिय धुवरासिम्मि भजिवूणं । रवि - बिबेणं आणसु, रविमग्गे विजणबाणउदी ॥२४३॥