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________________ २६२ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ७-६२ तम्माझे वर-कूडा, हवंति तेसु जिणिद - पासादा । कडाण-समंतेणं, बुह णिलया पुश्य सरिस-वण्णणया ।।७।। अर्थ-राजाङ्गणा के मध्य में उत्तम बाट और उन कुटोंपर जिनेन्द्र-प्रासाद होते हैं। कूटोंके चारों ओर पूर्व भवनों सदृश वर्णन वाले बुध-ग्रहके भवन है ।।८।। दो-दो सहस्समेत्ता, अभियोगा-हरि-करिय-असह-हया। पुवादिसु पत्तेक्क, कणय-णिहा बुह-पुराणि धारंति ।।८॥ अर्थ-सिंह, हाथी, बैल एवं घोड़ोंके रूपको धारण करनेवाले तथा स्वर्ण सदृश वर्ण संयुक्त दो-दो हजार प्रमाण प्राभियोग्य देव क्रमशः पूर्वादिक दिशाओं में से प्रत्येक दिशामें बुधोंके पुरोंको धारण करते हैं ।।८।। शुक्रग्रहके नगरोंकी प्ररूपणा--- चित्तोरिम-तलादो, णव-णिय-णव-सयाणि जोयणया। गंतूण गहे उरि, सुक्काणि पुराणि चेते ॥८६॥ । ५९१ । अर्थ चित्रा पृथिबीके उपरिम तलसे नौ कम नौ सौ (८९१) योजन प्रमाण ऊपर जाकर आकाशमें शुक्रोंके नगर स्थित हैं ॥९॥ ताणं णयर-सलाणं, पण-सय-दु-सहस्समेस-किरणाणि। उत्ताण - गोलकद्धोवमाणि वर - रुप्य - मइयारिण ॥६॥ । २५०० । अर्थ - ऊर्ध्व अवस्थित गोलकार्धके सदृश और उत्तम चांदीसे निर्मित उन शुक्र-नगरतलों मेंसे प्रत्येककी दो हजार पांच सौ (२५००) किरणे होती हैं ॥१०॥ उवरिम-तल-विक्खंभो, कोस-पमारणं तदद्ध-बहलत्तं । ताणं अकिट्टिमाणं, खचिदाणं विविह - रयणेहिं ॥१॥ १ को १ । को । अर्थ-विविध रत्नोंसे खचित उन अकृत्रिम पुरोंके उपरिम तलका विस्तार एक कोस और बाहल्य इससे आधा अर्थात् अर्ध कोस प्रमाण है ।१९१।। पुह पुह ताणं परिही, ति-कोसमेत्ता हदि सविसेसा । सेसाओ वण्णणाश्रो, बुह - एयराणं सरिच्छाओ ॥१२॥
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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