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________________ १६२ ] तिलोयपणात्ती [ गाथा : २८२ पर्याप्त दो इन्द्रिय उीजोंना प्रमाणपुणो मावलियाए असंखेज्जदिभागं विरलिटूण सेस-एय-खंडं सम-खंडं काढूण विण्णे तत्थ बहुखंड विदिय-पुजे पक्खित्ते बे-इदिय-पज्जत्ता होति ।। __ अर्थ—पुन: प्रावलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर शेष एक भागके सदृश खण्ड करके देनेपर उसमें से बहुभागको द्वितीय पुञ्जमें मिला देनेसे दो इन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है। विशेषार्थ-- {(६xxx ) + = (xxx)] या है । ( ८ ४९४८९) + (८५४४९) ___E१४८१ भी ५८३२+२८८ या - ८१४८१ पर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवोंका प्रमाणपणो प्रावलियाए असंखेज्जविभागं विरलिदूण सेस-एय-खंडं सम-खंड कारण विष्णे तत्थ बहुभागं तविय-पुजे पविखते पंचेंदिय-पज्जता होंति ॥ पर्थ-पुनः आवलीके असंख्यातवें भागका विरलनकर शेष खण्ड के समान खण्ड करके देनेपर उसमेंसे बहुभागको तीसरे पुञ्जमें मिला देनेपर पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका प्रमाण होता है । = [(Exaxsxe ) + (xxx)] - १८४६४८१ ) + (८४४) ८१४८१ या ५८३२ + ३२ या ६५६१ पर्याप्त चार-इन्द्रिय जीवोंका प्रमाणपुणो सेस - भागं घउत्थ - पुजे पविखत चरिदिय - पज्जत्ता होति । तस्स ठवणा
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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