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तिलोयपण्णसी
[ गाथा : ६९२-६६७ संज्ञाएँ, चार गतियों में से देवगति, पंचेन्द्रिय, अस काय ; आठ मन-वचन, दो वैक्रियिक ( क्रियिक और वैक्रियिक मिश्र) तथा कार्मरण, इसप्रकार ग्यारह योग; पुरुष एवं स्त्री वेद से युक्त, समस्त कषायों से संयुक्त, छह ज्ञानों सहित, सब ही असंयत और तीन दर्शन से युक्त होते हैं ॥६८७-६६१।।
कोण्हं दोण्हं छक्कं, दोण्हं तह तेरसाण बेवाणं । लेस्साओ चोद्दसाओ, योच्छामो आणुपुटवीए ॥६६२॥ तेऊए मज्झिमंसा, ते उक्कस्स - परम - प्रयरंसा । पउमाए मज्झिमंसा, पउमुक्कस्सं ससुक्क-प्रवरंसा ॥६६३॥ सुक्काय मज्झिमंसा, उक्कस्संता य सुक्क-लेस्साए । एवाओ लेस्सायो, णिहिट्ठा सम्व - दरिसीहि ।।६६४।। सोहम्म-प्पहुदोणं, 'एदारो दब्द-भाव-लेस्साओ । उरिम - गेवेज्जतं, भव्वाभष्वा सुरा होति ॥६९५॥ तसो उरि भव्या, उरिम - गेवेज्जयस्स परियंतं । छब्मेदं सम्मत्त, उरि 'उवसमिय-खाइय-वेदकया ॥६६६॥ ते सव्वे सण्णीओ, देवा पाहारिणो प्रणाहारा ।
सागार-प्रणागारा, दो च्चैव य होंति उवजोगा ॥६६७।।
अर्थ-दो ( सौधर्मशान ), दो ( साo-माहेन्द्र ), ब्रह्मादिक छह, शतारद्विक, आनतादि नौ प्रेवेयक पर्यन्त तेरह, तथा चौदह ( नौ अनुदिश और पाच अनुत्तर ), अनुक्रमसे इन देवोंको लेश्याओं का कथन करता हूँ
सौधर्म और ईशानमें पीत लेश्याका मध्यम अंश, सनत्कुमार और माहेन्द्र में पद्मके जघन्य अंश सहित पोतका उत्कृष्ट अंश, ब्रह्मादिक छह में पद्मका मध्यम अंश, शतार युगल में शुक्ल लेश्या के जघन्य सहित पाका उत्कृष्ट अंश, आनत आदि तेरह में शुक्ल का मध्यम अंश और अनुदिशादि चौदह में शुक्लले श्या का उत्कृष्ट अंश होता है; इसप्रकार सर्वज्ञ देवने देवों में ये लेश्यायें कही हैं । सौधर्मादिक देवों के ये द्रव्य एवं भाव लेश्यायें समान होती हैं। उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त देव भव्य और अभय दोनों तथा इससे ऊपर भव्य ही होते हैं। उपरिम वेयक पर्यन्त छहों प्रकार के सम्यक्त्व तथा इससे ऊपर प्रीपशमिक, क्षायिक और वेदक ये तीन सम्यक्त्व होते हैं। वे सब देव संज्ञी तथा आहारक एष अनाहारक होते हैं । इन देवों के साकार और अनाकार दोनों ही उपयोग होते हैं ॥६९२-६९७।।
१. घ. एवाण ।
२. द. व. क. उपससरियल इस्खय।