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________________ गाथा : ६८६-६९१ ] प्रमो महाहियारो [ ६०६ अर्थ - इसकी चारों दिशाओं में चार तमोमय राजियाँ निकलकर बाह्य राजियों के बाह्य पार्श्वपर होती हुई उन्हें छूकर निश्चय से अभ्यन्तर तीर से असंख्यात योजन प्रमाण अन्तिम समुद्र में गिरी हैं। बाह्य चार राजियों के बाह्य भाग का अवलम्बन करने वाला जम्बूद्वीप से असंख्यात द्वीपसमुद्र जाकर द्वीप में गिरता है। बाह्य भागों से तिमिर काय नामका अवलम्ब जम्बूद्वीप से इतने ही प्रमाण जाकर द्वीप में गिरता है ।। ६६२-६८५ ॥२ नोट- गाथा ६२२ से बुद्धिगत नहीं हुआ । ६३६ और ६५२ से ६६५ श्रर्थात् १९ गाथाओं का यथार्थ भाव इसप्रकार लोकान्तिक देवों की प्ररूपणा समाप्त हुई || बीस प्ररूपणाओं का दिग्दर्शन गुण-जीवा पज्जती, पाणा सण्णा य मग्गणाश्रो वि जयजोगा भणिबच्चा, देवाणं देव लोयमि' ।। ६८६ ।। - अर्थ --- अब देवलोक में देवों के गुणस्थान, जीवसमाज, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा मागंगा और उपयोग, इनका कथन करना चाहिए ||६८६॥ चत्तारि गुणट्टाणा, जीवसमासेसु सर्पिण-पञ्जत्ती । वित्तिय पज्जत्ती, ध-पञ्जत्तीओ छहं अपज्जसी ||६६७ ।। पज्जते दस पाणा, इवरे पाणा हवंति ससेब । इंदिय-मण-वरण-तणू आउसासा * य दस-पाणा ॥ ६८८ ॥ तेसु मण वय उच्छ्रास- वज्जिदा सत्त तह प्रपज्जते । चउ-सण्णा होंति हु, चउसु गोसु च देवगदी २१६८६ ॥ पंचक्खा तस काया, जोगा एक्कारस-प्यमाणा य । ते श्रड्डू मण वयाणि वेगुत्व-दुर्ग च कम्मइयं ॥ ६६० ॥ पुरिसिथी- वेद-जुदा, सयल - कसाएहि संजुदा देवा । छष्णाहि सहिदा, सय्ये वि प्रसंजना ति-बंसणया ।।६६१ ॥ 3 अर्थ- चार गुणस्थान, जोध- समासों में संज्ञी पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त, छह पर्याप्तियाँ और छहों अपर्याप्तियां; पर्याप्त अवस्था में पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस प्राण तथा अपर्याप्त अवस्था में मन, वचन और उच्छ्वास से रहित शेष सात प्राण; चार १. द. क. अ. ठ. दायम्मि । ३. द.म. क. ज. 5. सदा । २. द. ब. क. ज ठ माउस्ससयासदसवाणा ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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