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गाथा : ६६८-७०२ ]
अट्टमो महाहियारो कप्पा कप्पाचीदा, दुचरम-देहा हवंति केइ सुरा।। सक्को सहग्ग-महिसो,' सलोयवालो य दक्षिणा इंवा ।।६९८॥ सव्यसिद्धिवासी, लोयलिय - णामधेय - सव्व-सुरा । णियमा दुचरिम-वेहा, सेसेसु गस्थि नियमो य ॥६६६॥
एवं गुणठाणावि-परूवरणा समत्ता । अर्थ-कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरम-शरीरी अर्थात् आगामी भवमें मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं।
अग्रमहिषी और लोकपालों सहित सौधर्म इन्द्र, दक्षिण इन्द्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लोकान्तिक नामक सब देव नियम से द्विचरम-शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है ।।६९८-६९९।।
इसप्रकार गुणस्थानादि-प्ररूपणा समाप्त हुई ।।
सम्यक्त्व ग्रहणके कारणजिण-महिम-दसणेरणं, केई जादो - सुमरणादो दि । देवद्धि - देसणेण य, ते देवा धम्म - सवणेण ॥७००।। गेण्हते सम्मतं, णिव्वाणभदय - साहरण - रिणमित्तं ।
दुब्वार - गहिद' - संसार • जलहिणोत्तारणोवायं ॥७०१॥ अर्थ-उनमें से कोई देव जिनमहिमा के दर्शनसे, कोई जातिस्मरणसे, कोई देवद्धिके देखने से और कोई धर्मोपदेश सुनने से निर्वाण एवं स्वर्गादि अभ्युदय के साधक तथा दुर्वार एवं गम्भीर संसाररूपी समुद्र से पार उतारने वाला सम्यक्त्व ग्रहण करते हैं ।।७००-७०१॥
णवरि हुणव-गेवेज्जा, एदे देवडिड-धज्जिया होंति । उपरिम - चोद्दस - ठाणे, सम्माइट्टी सुरा सब्वे ।।७०२॥
वंसण-गहण कारणं समत्तं ॥ अर्थ-विशेष यह है कि नौ नैवेयकों में उपयुक्त कारण देवद्धि दर्शन से रहित होते हैं। इसके ऊपर चौदह स्थानों में सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं ।।७०२।।
सम्यग्दर्शन-ग्रहण के कारणों का कथन समाप्त हुआ ।
१. ५..क.अ. 3. मक्यासि। २. द. देवत्ति, ब देवक्छि , क. ज. 8. देवहित । ३. द. ब. क. ज. ठ. रहिद ।