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अट्टम महाहियारो
जं जस्स जोधामुच्चं, रिणच्वं खियडं विदूरमासरणयं ।
सं' तस्स देति देवा, णावणं सू विभागाइ ॥ ३६४।।
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गाथा : ३६४-३६६ ]
अर्थ – जो जिसके योग्य उच्च एवं नोच तथा निकट अथवा दूरवर्ती आसन होता है
( उसीप्रकार ) स्थानके विभागोंको जानकर देव उसके लिए देते हैं ।। ३९४ ॥
वर - रयण बंड हत्या, पडिहारा होंति इंद-अट्ठाणे | परथावमपत्थावं, ओल तारण घोसंति ।।३६५॥
अर्थ – इन्द्रके प्रास्थान ( सभा ) में उत्तम रत्नदण्डको हाथ में लिए हुए जो द्वारपाल होते
हैं वे सेवकों के लिए प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत कार्यको घोषणा करते हैं ।। ३९५॥
अरे विसुरा तेसि, णाणाविह पेसणाणि कुणमाणा ।
इंदाण भत्ति भरिदा, श्राणं सिरसा परिच्छति ॥ ३६६॥
अर्थ – उनके नानाप्रकारके कार्योंको करनेवाले भक्ति से भरे हुए इतर देव भी उन इन्द्रोंकी प्रज्ञाको शिरसे ग्रहण करते हैं ।। ३६६ ।।
पsिs दादी देवा, निभर भत्तीए णिञ्चमोलगं ।
अभिमुठिया सभाए, णिय-जिय-इ दाण कुब्वंति ॥ ३६७॥
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अर्थ- प्रतीन्द्रादिक देव अत्यन्त भक्तिसे समामें अभिमुख स्थित होकर अपने-अपने इन्द्रोंकी नित्य सेवा करते हैं ॥३६७॥
पुरुष श्रोलग्ग सभा, सक्कीसाण जारिसा भणिदा ।
तारिसया सव्वाणं णिय णिय णयरेसु इं वाणं ॥ ३६८ ॥
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अर्थ - पूर्व में सौधर्म और ईशान इन्द्रकी जैसी प्रोलग्गसभा ( सेवकशाला ) कही है, वैसो अपने-अपने नगरोंमें सब इन्द्रोंके होती है || ३६८
प्रधान प्रासादके अतिरिक्त इन्द्रोंके अन्य चार प्रासाद-
ईद-हाण-पासाद-पुरुष विभाग पहुदि संठारणा ।
चतारो पासावा, पुव्वोदिद वण्णणेह जुदा ॥३६६ ॥
अर्थ – इन्द्रोंके प्रधान प्रासादके पूर्व दिशाभाग आदिमें स्थित और पूर्वोक्त वर्णनोंसे युक्त चार प्रासाद (और) होते हैं ।। ३६३||
१ क सं तस्सं देवारणा काढूणं । २. ६. ब. क. ज. अ. घोलगतायं त
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