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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ४००-४०५
घेलिय-रजद-सोका, मिसक्कसारं च दक्खिगिदेस ।
रुचकं मंदर - सोका, सत्तच्छदयं च उरिवेस ॥४००॥
अपं-दक्षिण इन्द्रोंमें वैउर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इन्द्रोंमें रुचक, मन्दर प्रशाक पोप सप्तच्छेद, ये चार प्रासाद होते हैं ।।४००।।
इन्द्र-प्रासादोंके प्रागे स्थित स्तम्भोंका वर्णनसक्कीसाण-गिहाणं, पुरदो छचोस - जोयणुच्छेहा ।
जोयण-बहला-खंभा,'बारस-धारा हुवंति वज्जमया ॥४०१॥ प्रर्थ-सौधर्म और ईशान इन्द्रक प्रासादोंके आगे छत्तीस योजन ऊंचे और एक योजन बाहल्य सहित वनमय बारह धाराओंवाले खम्भा ( स्तम्भ ) होते हैं ।।४०११।।
पत्तेक्कं धाराणं, वासो एक्केषक - कोस'-परिमाणं ।
माणस्थंभ' • सरिच्छं, सेसत्थंभारण वण्णणयं ॥४०२॥
अथं-उन धाराओं में प्रत्येक धाराका व्यास एक-एक कोस प्रमाण है। स्तम्भोंका शेष वर्णन मानस्तम्भोंके सदृश है ।।४०२॥
भरहेरावद-भूगद - तित्थयर - बालयाणाभरणाणं"।
वर · रयण - करंडेहिं, लंबतेहिं विरायते ॥४०३॥
अर्थ-( ये स्तम्भ ) भरत और ऐरावत भूमिके तीर्थकर बालकोंके आभरणोंके लटकते हुए उत्तम रत्नमय पिटारोंसे विराजमान हैं ।।४०३।।
मूलाको उवरि-तले, पुह पुह पणवीस-कोस-परिमाणा। गंतूणं सिहरादो, तेत्तियमोरिय होति ह करंडा ।।४०४।।
२५ ॥ २५॥ अर्थ-( स्तम्भोंके ) मूलसे उपरिम तल में पृथक्-पृथक् पच्चीस कोस ( ६३ यो०) प्रमाण जाकर और शिखरसे इतने ( २५ कोस ) ही उतर कर ये करण्ड ( पिटारे ) होते हैं ।।४०४।।
पंच-सय-घाव-बा, पत्तवक एक कोस-वीहसा । ते होंति बर - करंडा, णाणा-वर-रयण-रासिमया ।।४०५।।
१.प. बंभा । २. द. ब. क. ज. ४. दारा। ३. द. य. क. ज. ठ. बारा। ४. ब. कोसा। ५. द.प. क. ज. 3. माणद्धं च । ६.६.ब. क. ज उ.बालदाणं ।