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५.३८ ]
तिलोयपण्णत्तो
[ गाथा । ३९०-३९३
अर्थ - शून्य शून्य शून्य, आठ, दो, एक, आठ, छह और सात, इन अंकोंके प्रमाण सौधर्म इन्द्रके ( ७६८१२८००० ) देवियाँ होती हैं। शेष इन्द्रों में देवियोंका प्रमाण पहले के ही सदृश है, ऐसा लोकविनिश्चय ग्रन्थ में निर्दिष्ट है ।। ३८९ ॥
मतान्तरसे सौधर्मेन्द्रकी देवियोंका प्रमाण
सगवीसं कोडीप्रो, सोहम्मियेसु होंति पुखं पिव सेसेसु संगाहणिपम्मि
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प्रमाण देवियाँ होती हैं, ऐसा संगाहरिण में निर्दिष्ट है || ३६० ||
इन्द्रोंकी सेवा-विधि—
पाठान्तर ।
२७००००००० ।
अर्थ- सौधर्म इन्द्रके सत्ताईस करोड़ ( २७००००००० ) और शेष इन्द्रोंके पूर्वोक्त संख्या
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देवीओ । निट्ठि ॥ ३६० ॥
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पाठान्तरम् ।
माया विवज्जिवप्रो, बहु-रवि-करणेसु गिउरख बुद्धीश्रो ।
ओलग्गते णिच्चं णिय जिय इंदाण चलणाई ।। ३६१ ॥
- मायासे रहित और बहुत अनुराग करने में निपुण बुद्धिवाली वे देवियाँ नित्य अपनेअपने इन्द्रोंके चरणोंकी सेवा करती हैं 11३६१॥
बम्बर-चिलाब खुज्जय-कम्मतिय-वास दासि पहुवीश्रो । अतंजर - जोग्गाओ, चेट्ठेति विचित वेसा
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॥३६२॥
प्रमं - श्रन्तःपुर के योग्य बर्बर, किरात, कुब्जक, कर्मान्तिक और दास-दासी आदि अनेक प्रकारके ( विचित्र ) वेषों से युक्त स्थित रहते हैं ।। ३९२ ।।
इवाणं 'अस्थाणे, पोढाणीयस्स अहिवई वेथा । रयणासणाणि वैति हु, सपाद पौढाणि बहुवारिंग ॥३६३॥
अर्थ — स्थानके विभागोंको जानकर जो जिसके योग्य होता है, देव उसे वैसा ही ऊंचा या नोघा तथा निकटवर्ती अथवा दूरवर्ती असन देते हैं ॥ ३९३ ॥
१. द. व. क. ज. ठ. भरयाणं ।