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गाथा : २०७-२१२ )
पंचमो महाहियारो अर्थ—इसी दिशा-भागमें पूर्व सभाके सदृश ऊँचाई एवं विस्तार सहित. स्वर्ण एवं रत्नोंसे निर्मित और सुन्दर द्वारों से संयुक्त मन्त्र-सभा ( भवन ) है ।। २०६ ॥
एदे छप्पासादा, पुब्वेहि मंविरेहि मेलविदा । पंच सहस्सा घउ-सय-प्रभहिया सत्त-सट्ठीहि ॥२०७।।
५४६७ । अर्थ-इन छह प्रासादों को पूर्व प्रासादोंमें मिला देनेपर प्रासादों ( भवनों ) को समस्त संख्या पाँच हजार चार सौ सड़सठ ( ५४६१ + ६ = ५४६७ ) होती है ।। २०७ ।।
भवनोंकी विशेषताएं ते सन्चे पासादा, चउ-विम्मुह'-विप्फुरत-किरणेहि ।
वर-रयरण-पईयेहि णिच्चं चिय णिभरुज्जोवा ।२०।। अर्थ-वे सब भवन चारों दिशात्रोंमें प्रकाशमान किरणोंसे युक्त उत्तम रत्नमयी प्रदीपोंसे नित्य अचित और नित्य उद्योतित रहते हैं ।। २०८ 11
पोक्खरणी-रम्मेहि, उबवण-संहि विविह-रुक्खेहि ।
कुसुमफल-सोहिदेहि, सुर - मिहुण जुदेहि सोहंति ॥२०६।।
अर्थ-वे प्रासाद पुष्करिणियोंसे रमग्गीय, फल-फूलोंसे सुशोभित, अनेक प्रकारके वृक्षों सहित और देव-युगलोंसे संयुक्त उपखण्डोंसे शोभायमान होते हैं ।। २०९ 11
विददम-वाणा केई, केई कप्पूर-कुद-संकासा।
कंचण - वण्णा केई, केई 'बज्जिद-णील-णिहा ।।२१०।। अर्थ-( इनमें से ) कितने ही ( भवन ) मंगा सदृश वर्णवाले, कितने ही कपूर और कुन्दपुष्प सदृश, कितने ही स्वर्ण वर्ण सदृश और कितने ही वन एवं इन्द्रनीलमणि सदृश वर्ण वाले हैं ।। २१०॥
तेसुपासादेसु, विजनो देवो - सहस्स - सोहिल्लो। णिच्च - जुवाणा देवा, बर-रयण-विभूसिद-सरीरा ॥२११॥ लक्खरण-वेंजण-जुत्ता, घादु-विहीणा य वाहि-परिचत्ता। वित्रिह - सुहेसु ससा, कोडते बहु - विणोदेण ॥२१२॥
१. ब. क. दिसुमुह । २. द. ब. क. ज. संडा । ३. ६. ब. क. ज. जंविंद ।